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गोःवामी तुलसीदास
िवरिचत
रामचिरतमानस
अयोध्याकाण्ड
Sant Tulsidas’s
Rāmcharitmānas
Ayodhyā Kand
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रामचिरतमानस - 2- अयोध्याकांड
RAMCHARITMANAS : AN INTRODUCTION
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NOTE
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रामचिरतमानस - 3- अयोध्याकांड
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रामचिरतमानस - 4- अयोध्याकांड
ौीगणेशाय नमः
अयोध्याकाण्ड
ोक
दोहा
ौीगु चरन सरोज रज िनज मनु मुकु सुधािर ।
बरनउँ रघुबर िबमल जसु जो दायकु फल चािर ॥१॥
दोहा
सब क उर अिभलाषु अस कहिहं मनाइ महे सु ।
आप अछत जुबराज पद रामिह दे उ नरे सु ॥१॥
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रामचिरतमानस - 5- अयोध्याकांड
दोहा
यह िबचा उर आिन नृप सुिदनु सुअवस पाइ ।
ूेम पुलिक तन मुिदत मन गुरिह सुनायउ जाइ ॥२॥
दोहा
राजन राउर नामु जसु सब अिभमत दातार ।
फल अनुगामी मिहप मिन मन अिभलाषु तु हार ॥३॥
दोहा
बेिग िबलंबु न किरअ नृप सा जअ सबुइ समाजु ।
सुिदन सुमंगलु तबिहं जब रामु होिहं जुबराजु ॥४॥
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रामचिरतमानस - 6- अयोध्याकांड
दोहा
कहे उ भूप मुिनराज कर जोइ जोइ आयसु होइ ।
राम राज अिभषेक िहत बेिग करहु सोइ सोइ ॥५॥
दोहा
ध्वज पताक तोरन कलस सजहु तुरग रथ नाग ।
िसर धिर मुिनबर बचन सबु िनज िनज काजिहं लाग ॥६॥
दोहा
एिह अवसर मंगलु परम सुिन रहँ सेउ रिनवासु ।
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रामचिरतमानस - 7- अयोध्याकांड
ूथम जाइ जन्ह बचन सुनाए । भूषन बसन भूिर ितन्ह पाए ॥
ूेम पुलिक तन मन अनुरागीं । मंगल कलस सजन सब लागीं ॥१॥
चौक चा सुिमऽाँ पुर । मिनमय िबिबध भाँित अित र ॥
आनँद मगन राम महतार । िदए दान बहु िबू हँ कार ॥२॥
पूजीं मामदे िब सुर नागा । कहे उ बहोिर दे न बिलभागा ॥
जेिह िबिध होइ राम क यानू । दे हु दया किर सो बरदानू ॥३॥
गाविहं मंगल कोिकलबयनीं । िबधुबदनीं मृगसावकनयनीं ॥४॥
दोहा
राम राज अिभषेकु सुिन िहयँ हरषे नर नािर ।
लगे सुमंगल सजन सब िबिध अनुकूल िबचािर ॥८॥
दोहा
सुिन सनेह साने बचन मुिन रघुबरिह ूसंस ।
राम कस न तु ह कहहु अस हं स बंस अवतंस ॥९॥
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रामचिरतमानस - 8- अयोध्याकांड
दोहा
तेिह अवसर आए लखन मगन ूेम आनंद ।
सनमाने िूय बचन किह रघुकुल कैरव चंद ॥१०॥
दोहा
िबपित हमािर िबलोिक बिड़ मातु किरअ सोइ आजु ।
रामु जािहं बन राजु तज होइ सकल सुरकाजु ॥११॥
दोहा
नामु मंथरा मंदमित चेर कैकेइ केिर ।
अजस पेटार तािह किर गई िगरा मित फेिर ॥१२॥
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रामचिरतमानस - 9- अयोध्याकांड
दोहा
सभय रािन कह कहिस िकन कुसल रामु मिहपालु ।
लखनु भरतु िरपुदमनु सुिन भा कुबर उर सालु ॥१३॥
दोहा
काने खोरे कूबरे कुिटल कुचाली जािन ।
ितय िबसेिष पुिन चेिर किह भरतमातु मुसुकािन ॥१४॥
दोहा
भरत सपथ तोिह स य कहु पिरहिर कपट दराउ
ु ।
हरष समय िबसमउ करिस कारन मोिह सुनाउ ॥१५॥
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रामचिरतमानस - 10 - अयोध्याकांड
दोहा
गूढ़ कपट िूय बचन सुिन तीय अधरबुिध रािन ।
सुरमाया बस बैिरिनिह सुअद जािन पितआिन ॥१६॥
दोहा
तु हिह न सोचु सोहाग बल िनज बस जानहु राउ ।
मन मलीन मुह मीठ नृप राउर सरल सुभाउ ॥१७॥
दोहा
रिच पिच कोिटक कुिटलपन कीन्हे िस कपट ूबोधु ।
किहिस कथा सत सवित कै जेिह िबिध बाढ़ िबरोधु ॥१८॥
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रामचिरतमानस - 11 - अयोध्याकांड
दोहा
किँ ू िबनतिह द न्ह दखु
ु तु हिह कौिसलाँ दे ब ।
भरतु बंिदगृह सेइहिहं लखनु राम के नेब ॥१९॥
दोहा
अपने चलत न आजु लिग अनभल काहक
ु कीन्ह ।
केिहं अघ एकिह बार मोिह दै अँ दसह
ु दखु
ु द न्ह ॥२०॥
दोहा
परउँ कूप तुअ बचन पर सकउँ पूत पित यािग ।
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रामचिरतमानस - 12 - अयोध्याकांड
दोहा
बड़ कुघातु किर पातिकिन कहे िस कोपगृहँ जाहु ।
काजु सँवारे हु सजग सबु सहसा जिन पितआहु ॥२२॥
दोहा
ूमुिदत पुर नर नािर । सब सजिहं सुमंगलचार ।
एक ूिबसिहं एक िनगमिहं भीर भूप दरबार ॥२३॥
बाल सखा सुन िहयँ हरषाह ं । िमिल दस पाँच राम पिहं जाह ं ॥
ूभु आदरिहं ूेमु पिहचानी । पूँछिहं कुसल खेम मृद ु बानी ॥१॥
िफरिहं भवन िूय आयसु पाई । करत परसपर राम बड़ाई ॥
को रघुबीर सिरस संसारा । सीलु सनेह िनबाहिनहारा ॥२॥
जिह जिह जोिन करम बस ॅमह ं । तहँ तहँ ईसु दे उ यह हमह ं ॥
सेवक हम ःवामी िसयनाहू । होउ नात यह ओर िनबाहू ॥३॥
अस अिभलाषु नगर सब काहू । कैकयसुता अदयँ अित दाहू ॥
को न कुसंगित पाइ नसाई । रहइ न नीच मत चतुराई ॥४॥
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रामचिरतमानस - 13 - अयोध्याकांड
दोहा
साँस समय सानंद नृपु गयउ कैकेई गेहँ ।
गवनु िनठु रता िनकट िकय जनु धिर दे ह सनेहँ ॥२४॥
छं द
केिह हे तु रािन िरसािन परसत पािन पितिह नेवारई ।
मानहँु सरोष भुअंग भािमिन िबषम भाँित िनहारई ॥
दोउ बासना रसना दसन बर मरम ठाह दे खई ।
तुलसी नृपित भवत यता बस काम कौतुक लेखई ॥
सोरठा
बार बार कह राउ सुमु ख सुलोिचिन िपकबचिन ।
कारन मोिह सुनाउ गजगािमिन िनज कोप कर ॥२५॥
अनिहत तोर िूया केइँ कीन्हा । केिह दइु िसर केिह जमु चह लीन्हा ॥
कहु केिह रं किह करौ नरे सू । कहु केिह नृपिह िनकास दे सू ॥१॥
सकउँ तोर अिर अमरउ मार । काह कीट बपुरे नर नार ॥
जानिस मोर सुभाउ बरोरू । मनु तव आनन चंद चकोरू ॥२॥
िूया ूान सुत सरबसु मोर । पिरजन ूजा सकल बस तोर ॥
ज कछु कहौ कपटु किर तोह । भािमिन राम सपथ सत मोह ॥३॥
िबहिस मागु मनभावित बाता । भूषन सजिह मनोहर गाता ॥
घर कुघर समु झ जयँ दे खू । बेिग िूया पिरहरिह कुबेषू ॥४॥
दोहा
यह सुिन मन गुिन सपथ बिड़ िबहिस उठ मितमंद ।
भूषन सजित िबलोिक मृगु मनहँु िकराितिन फंद ॥२६॥
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रामचिरतमानस - 14 - अयोध्याकांड
पुिन कह राउ सु॑द जयँ जानी । ूेम पुलिक मृद ु मंजुल बानी ॥
भािमिन भयउ तोर मनभावा । घर घर नगर अनंद बधावा ॥१॥
रामिह दे उँ कािल जुबराजू । सजिह सुलोचिन मंगल साजू ॥
दलिक उठे उ सुिन ॑दउ कठोरू । जनु छुइ गयउ पाक बरतोरू ॥२॥
ऐिसउ पीर िबहिस तेिह गोई । चोर नािर जिम ूगिट न रोई ॥
लखिहं न भूप कपट चतुराई । कोिट कुिटल मिन गुरू पढ़ाई ॥३॥
ज िप नीित िनपुन नरनाहू । नािरचिरत जलिनिध अवगाहू ॥
कपट सनेहु बढ़ाइ बहोर । बोली िबहिस नयन मुहु मोर ॥४॥
दोहा
मागु मागु पै कहहु िपय कबहँु न दे हु न लेहु ।
दे न कहे हु बरदान दइु तेउ पावत संदेहु ॥२७॥
दोहा
भूप मनोरथ सुभग बनु सुख सुिबहं ग समाजु ।
िभ लिन जिम छाड़न चहित बचनु भयंक बाजु ॥२८॥
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रामचिरतमानस - 15 - अयोध्याकांड
दोहा
कवन अवसर का भयउ गयउँ नािर िबःवास ।
जोग िसि फल समय जिम जितिह अिब ा नास ॥२९॥
दोहा
धरम धुरंधर धीर धिर नयन उघारे रायँ ।
िस धुिन ली न्ह उसास अिस मारे िस मोिह कुठायँ ॥३०॥
दोहा
लोभु न रामिह राजु कर बहत
ु भरत पर ूीित ।
म बड़ छोट िबचािर जयँ करत रहे उँ नृपनीित ॥३१॥
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रामचिरतमानस - 16 - अयोध्याकांड
दोहा
िूया हास िरस पिरहरिह मागु िबचािर िबबेकु ।
जेिहं दे खाँ अब नयन भिर भरत राज अिभषेकु ॥३२॥
दोहा
होत ूात मुिनबेष धिर ज न रामु बन जािहं ।
मोर मरनु राउर अजस नृप समु झअ मन मािहं ॥३३॥
दोहा
दे खी यािध असाध नृपु परे उ धरिन धुिन माथ ।
कहत परम आरत बचन राम राम रघुनाथ ॥३४॥
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रामचिरतमानस - 17 - अयोध्याकांड
दोहा
मरम बचन सुिन राउ कह कहु कछु दोषु न तोर ।
लागेउ तोिह िपसाच जिम कालु कहावत मोर ॥३५॥
दोहा
परे उ राउ किह कोिट िबिध काहे करिस िनदानु ।
कपट सयािन न कहित कछु जागित मनहँु मसानु ॥३६॥
दोहा
ार भीर सेवक सिचव कहिहं उिदत रिब दे ख ।
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रामचिरतमानस - 18 - अयोध्याकांड
दोहा
पर न राजिह नीद िनिस हे तु जान जगद सु ।
रामु रामु रिट भो िकय कहइ न मरमु मह सु ॥३८॥
दोहा
जाइ दख रघुबंसमिन नरपित िनपट कुसाजु ॥
सहिम परे उ लख िसंिघिनिह मनहँु बृ गजराजु ॥३९॥
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रामचिरतमानस - 19 - अयोध्याकांड
दोहा
सुत सनेह इत बचनु उत संकट परे उ नरे सु ।
सकहु न आयसु धरहु िसर मेटहु किठन कलेसु ॥४०॥
दोहा
मुिनगन िमलनु िबसेिष बन सबिह भाँित िहत मोर ।
तेिह महँ िपतु आयसु बहिर
ु संमत जननी तोर ॥४१॥
दोहा
सहज सरल रघुबर बचन कुमित कुिटल किर जान ।
चलइ जक जल बबगित ज िप सिललु समान ॥४२॥
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रामचिरतमानस - 20 - अयोध्याकांड
दोहा
गइ मु छा रामिह सुिमिर नृप िफिर करवट लीन्ह ।
सिचव राम आगमन किह िबनय समय सम कीन्ह ॥४३॥
दोहा
तु ह ूेरक सब के दयँ सो मित रामिह दे हु ।
बचनु मोर तज रहिह घर पिरहिर सीलु सनेहु ॥४४॥
दोहा
मंगल समय सनेह बस सोच पिरहिरअ तात ।
आयसु दे इअ हरिष िहयँ किह पुलके ूभु गात ॥४५॥
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रामचिरतमानस - 21 - अयोध्याकांड
दोहा
मुख सुखािहं लोचन विह सोकु न दयँ समाइ ।
मनहँु क न रस कटकई उतर अवध बजाइ ॥४६॥
िमलेिह माझ िबिध बात बेगार । जहँ तहँ दे िहं कैकेइिह गार ॥
एिह पािपिनिह बू झ का परे ऊ । छाइ भवन पर पावकु धरे ऊ ॥१॥
िनज कर नयन कािढ़ चह द खा । डािर सुधा िबषु चाहत चीखा ॥
कुिटल कठोर कुबुि अभागी । भइ रघुबंस बेनु बन आगी ॥२॥
पालव बैिठ पेड़ु एिहं काटा । सुख महँु सोक ठाटु धिर ठाटा ॥
सदा रामु एिह ूान समाना । कारन कवन कुिटलपनु ठाना ॥३॥
स य कहिहं किब नािर सुभाऊ । सब िबिध अगहु अगाध दराऊ
ु ॥
िनज ूितिबंबु ब कु गिह जाई । जािन न जाइ नािर गित भाई ॥४॥
दोहा
काह न पावकु जािर सक का न समुि समाइ ।
का न करै अबला ूबल केिह जग कालु न खाइ ॥४७॥
दोहा
चंद ु चवै ब अनल कन सुधा होइ िबषतूल ।
सपनेहुँ कबहँु न करिहं िकछु भरतु राम ूितकूल ॥४८॥
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रामचिरतमानस - 22 - अयोध्याकांड
एक िबधातिहं दषनु
ू दह ं । सुधा दे खाइ द न्ह िबषु जेह ं ॥
खरभ नगर सोचु सब काहू । दसह
ु दाहु उर िमटा उछाहू ॥१॥
िबूबधू कुलमान्य जठे र । जे िूय परम कैकेई केर ॥
लगीं दे न िसख सीलु सराह । बचन बानसम लागिहं ताह ॥२॥
भरतु न मोिह िूय राम समाना । सदा कहहु यहु सबु जगु जाना ॥
करहु राम पर सहज सनेहू । केिहं अपराध आजु बनु दे हू ॥३॥
कबहँु न िकयहु सवित आरे सू । ूीित ूतीित जान सबु दे सू ॥
कौस याँ अब काह िबगारा । तु ह जेिह लािग बळ पुर पारा ॥४॥
दोहा
सीय िक िपय सँगु पिरहिरिह लखनु िक रिहहिहं धाम ।
राजु िक भूँजब भरत पुर नृपु िक जीिह िबनु राम ॥४९॥
छं द
जेिह भाँित सोकु कलंकु जाइ उपाय किर कुल पालह ।
हिठ फे रामिह जात बन जिन बात दसिर
ू चालह ॥
जिम भानु िबनु िदनु ूान िबनु तनु चंद िबनु जिम जािमनी ।
ितिम अवध तुलसीदास ूभु िबनु समु झ ध जयँ भािमनी ॥
सोरठा
स खन्ह िसखावनु द न्ह सुनत मधुर पिरनाम िहत ।
तेइँ कछु कान न कीन्ह कुिटल ूबोधी कूबर ॥५०॥
उत न दे इ दसह
ु िरस रूखी । मृिगन्ह िचतव जनु बािघिन भूखी ॥
यािध असािध जािन ितन्ह यागी । चलीं कहत मितमंद अभागी ॥१॥
राजु करत यह दै अँ िबगोई । कीन्हे िस अस जस करइ न कोई ॥
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रामचिरतमानस - 23 - अयोध्याकांड
एिह िबिध िबलपिहं पुर नर नार ं । दे िहं कुचािलिह कोिटक गार ं ॥२॥
जरिहं िबषम जर लेिहं उसासा । कविन राम िबनु जीवन आसा ॥
िबपुल िबयोग ूजा अकुलानी । जनु जलचर गन सूखत पानी ॥३॥
अित िबषाद बस लोग लोगाई । गए मातु पिहं रामु गोसाई ॥
मुख ूसन्न िचत चौगुन चाऊ । िमटा सोचु जिन राखै राऊ ॥४॥
दोहा
नव गयंद ु रघुबीर मनु राजु अलान समान ।
छूट जािन बन गवनु सुिन उर अनंद ु अिधकान ॥५१॥
दोहा
जेिह चाहत नर नािर सब अित आरत एिह भाँित ।
जिम चातक चातिक तृिषत बृि सरद िरतु ःवाित ॥५२॥
दोहा
बरष चािरदस िबिपन बिस किर िपतु बचन ूमान ।
आइ पाय पुिन दे खहउँ मनु जिन करिस मलान ॥५३॥
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रामचिरतमानस - 24 - अयोध्याकांड
दोहा
िनर ख राम ख सिचवसुत कारनु कहे उ बुझाइ ।
सुिन ूसंगु रिह मूक जिम दसा बरिन निहं जाइ ॥५४॥
दोहा
राजु दे न किह द न्ह बनु मोिह न सो दख
ु लेसु ।
तु ह िबनु भरतिह भूपितिह ूजिह ूचंड कलेसु ॥५५॥
दोहा
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रामचिरतमानस - 25 - अयोध्याकांड
दोहा
समाचार तेिह समय सुिन सीय उठ अकुलाइ ।
जाइ सासु पद कमल जुग बंिद बैिठ िस नाइ ॥५७॥
दोहा
िपता जनक भूपाल मिन ससुर भानुकुल भानु ।
पित रिबकुल कैरव िबिपन िबधु गुन रूप िनधानु ॥५८॥
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रामचिरतमानस - 26 - अयोध्याकांड
चंद िकरन रस रिसक चकोर । रिब ख नयन सकइ िकिम जोर ॥४॥
दोहा
किर केहिर िनिसचर चरिहं दु जंतु बन भूिर ।
िबष बािटकाँ िक सोह सुत सुभग सजीविन मूिर ॥५९॥
दोहा
किह िूय बचन िबबेकमय की न्ह मातु पिरतोष ।
लगे ूबोधन जानिकिह ूगिट िबिपन गुन दोष ॥६०॥
दोहा
गुर ौुित संमत धरम फलु पाइअ िबनिहं कलेस ।
हठ बस सब संकट सहे गालव नहष
ु नरे स ॥६१॥
म पुिन किर ूवान िपतु बानी । बेिग िफरब सुनु सुमु ख सयानी ॥
िदवस जात निहं लािगिह बारा । सुंदिर िसखवनु सुनहु हमारा ॥१॥
जौ हठ करहु ूेम बस बामा । तौ तु ह दखु
ु पाउब पिरनामा ॥
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रामचिरतमानस - 27 - अयोध्याकांड
काननु किठन भयंक भार । घोर घामु िहम बािर बयार ॥२॥
कुस कंटक मग काँकर नाना । चलब पयादे िहं िबनु पदऽाना ॥
चरन कमल मुद ु मंजु तु हारे । मारग अगम भूिमधर भारे ॥३॥
कंदर खोह नद ं नद नारे । अगम अगाध न जािहं िनहारे ॥
भालु बाघ बृक केहिर नागा । करिहं नाद सुिन धीरजु भागा ॥४॥
दोहा
भूिम सयन बलकल बसन असनु कंद फल मूल ।
ते िक सदा सब िदन िमिलिहं सबुइ समय अनुकूल ॥६२॥
दोहा
सहज सुअद गुर ःवािम िसख जो न करइ िसर मािन ॥
सो पिछताइ अघाइ उर अविस होइ िहत हािन ॥६३॥
दोहा
ूाननाथ क नायतन सुंदर सुखद सुजान ।
तु ह िबनु रघुकुल कुमुद िबधु सुरपुर नरक समान ॥६४॥
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रामचिरतमानस - 28 - अयोध्याकांड
सासु ससुर गुर सजन सहाई । सुत सुंदर सुसील सुखदाई ॥१॥
जहँ लिग नाथ नेह अ नाते । िपय िबनु ितयिह तरिनहु ते ताते ॥
तनु धनु धामु धरिन पुर राजू । पित िबह न सबु सोक समाजू ॥२॥
भोग रोगसम भूषन भारू । जम जातना सिरस संसारू ॥
ूाननाथ तु ह िबनु जग माह ं । मो कहँु सुखद कतहँु कछु नाह ं ॥३॥
जय िबनु दे ह नद िबनु बार । तैिसअ नाथ पु ष िबनु नार ॥
नाथ सकल सुख साथ तु हार । सरद िबमल िबधु बदनु िनहार ॥४॥
दोहा
खग मृग पिरजन नग बनु बलकल िबमल दक
ु ूल ।
नाथ साथ सुरसदन सम परनसाल सुख मूल ॥६५॥
दोहा
रा खअ अवध जो अविध लिग रहत न जिनअिहं ूान ।
द नबंधु संदर सुखद सील सनेह िनधान ॥६६॥
दोहा
ऐसेउ बचन कठोर सुिन ज न ॑दउ िबलगान ।
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रामचिरतमानस - 29 - अयोध्याकांड
दोहा
बहिर
ु ब छ किह लालु किह रघुपित रघुबर तात ।
कबिहं बोलाइ लगाइ िहयँ हरिष िनर खहउँ गात ॥६८॥
दोहा
सीतिह सासु असीस िसख द न्ह अनेक ूकार ।
चली नाइ पद पदम
ु िस अित िहत बारिहं बार ॥६९॥
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रामचिरतमानस - 30 - अयोध्याकांड
दोहा
मातु िपता गु ःवािम िसख िसर धिर करिह सुभायँ ।
लहे उ लाभु ितन्ह जनम कर नत जनमु जग जायँ ॥ ७० ॥
दोहा
उत न आवत ूेम बस गहे चरन अकुलाइ ।
नाथ दासु म ःवािम तु ह तजहु त काह बसाइ ॥७१॥
दोहा
क नािसंधु सुबंध के सुिन मृद ु बचन िबनीत ।
समुझाए उर लाइ ूभु जािन सनेहँ सभीत ॥७२॥
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रामचिरतमानस - 31 - अयोध्याकांड
दोहा
समु झ सुिमऽाँ राम िसय रूप सुसीलु सुभाउ ।
नृप सनेहु लख धुनेउ िस पािपिन द न्ह कुदाउ ॥७३॥
दोहा
भूिर भाग भाजनु भयहु मोिह समेत बिल जाउँ ।
जौम तु हर मन छािड़ छलु कीन्ह राम पद ठाउँ ॥७४॥
छं द
उपदे सु यहु जेिहं तात तु हरे राम िसय सुख पावह ं ।
िपतु मातु िूय पिरवार पुर सुख सुरित बन िबसरावह ं ।
तुलसी ूभुिह िसख दे इ आयसु द न्ह पुिन आिसष दई ।
रित होउ अिबरल अमल िसय रघुबीर पद िनत िनत नई ॥
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रामचिरतमानस - 32 - अयोध्याकांड
सोरठा
मातु चरन िस नाइ चले तुरत संिकत दयँ ।
बागुर िबषम तोराइ मनहँु भाग मृगु भाग बस ॥७५॥
दोहा
सीय सिहत सुत सुभग दोउ दे ख दे ख अकुलाइ ।
बारिहं बार सनेह बस राउ लेइ उर लाइ ॥७६॥
दोहा
औ करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु ।
अित िबिचऽ भगवंत गित को जग जानै जोगु ॥७७॥
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रामचिरतमानस - 33 - अयोध्याकांड
सिचव नािर गुर नािर सयानी । सिहत सनेह कहिहं मृद ु बानी ॥
तु ह कहँु तौ न द न्ह बनबासू । करहु जो कहिहं ससुर गुर सासू ॥४॥
दोहा
िसख सीतिल िहत मधुर मृद ु सुिन सीतिह न सोहािन ।
सरद चंद चंदिन लगत जनु चकई अकुलािन ॥७८॥
दोहा
सज बन साजु समाजु सबु बिनता बंधु समेत ।
बंिद िबू गुर चरन ूभु चले किर सबिह अचेत ॥७९॥
दोहा
मातु सकल मोरे िबरहँ जेिहं न होिहं दख
ु दन ।
सोइ उपाउ तु ह करे हु सब पुर जन परम ूबीन ॥८०॥
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रामचिरतमानस - 34 - अयोध्याकांड
कुसगुन लंक अवध अित सोकू । हहरष िबषाद िबबस सुरलोकू ॥२॥
गइ मु छा तब भूपित जागे । बोिल सुमंऽु कहन अस लागे ॥
रामु चले बन ूान न जाह ं । केिह सुख लािग रहत तन माह ं ॥३॥
एिह त कवन यथा बलवाना । जो दखु
ु पाइ तजिहं तनु ूाना ॥
पुिन धिर धीर कहइ नरनाहू । लै रथु संग सखा तु ह जाहू ॥४॥
दोहा
सुिठ सुकुमार कुमार दोउ जनकसुता सुकुमािर ।
रथ चढ़ाइ दे खराइ बनु िफरे हु गएँ िदन चािर ॥८१॥
दोहा
पाइ रजायसु नाइ िस रथु अित बेग बनाइ ।
गयउ जहाँ बाहे र नगर सीय सिहत दोउ भाइ ॥८२॥
दोहा
हय गय कोिटन्ह केिलमृग पुरपसु चातक मोर ।
िपक रथांग सुक सािरका सारस हं स चकोर ॥८३॥
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रामचिरतमानस - 35 - अयोध्याकांड
दोहा
बालक बृ िबहाइ गृँह लगे लोग सब साथ ।
तमसा तीर िनवासु िकय ूथम िदवस रघुनाथ ॥८४॥
दोहा
राम लखन सुय जान चिढ़ संभु चरन िस नाइ ॥
सिचवँ चलायउ तुरत रथु इत उत खोज दराइ
ु ॥८५॥
दोहा
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रामचिरतमानस - 36 - अयोध्याकांड
दोहा
सुध्द सिचदानंदमय कंद भानुकुल केतु ।
चिरत करत नर अनुहरत संसिृ त सागर सेतु ॥८७॥
दोहा
बरष चािरदस बासु बन मुिन ॄत बेषु अहा ।
माम बासु निहं उिचत सुिन गुहिह भयउ दखु
ु भा ॥८८॥
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रामचिरतमानस - 37 - अयोध्याकांड
सुिच फल मूल मधुर मृद ु जानी । दोना भिर भिर राखेिस पानी ॥४॥
दोहा
िसय सुमंऽ ॅाता सिहत कंद मूल फल खाइ ।
सयन कीन्ह रघुबंसमिन पाय पलोटत भाइ ॥८९॥
उठे लखनु ूभु सोवत जानी । किह सिचविह सोवन मृद ु बानी ॥
कछुक दरू सज बान सरासन । जागन लगे बैिठ बीरासन ॥१॥
गुँह बोलाइ पाहरू ूतीती । ठावँ ठाँव राखे अित ूीती ॥
आपु लखन पिहं बैठेउ जाई । किट भाथी सर चाप चढ़ाई ॥२॥
सोवत ूभुिह िनहािर िनषाद ू । भयउ ूेम बस अदयँ िबषाद ू ॥
तनु पुलिकत जलु लोचन बहई । बचन सूेम लखन सन कहई ॥३॥
भूपित भवन सुभायँ सुहावा । सुरपित सदनु न पटतर पावा ॥
मिनमय रिचत चा चौबारे । जनु रितपित िनज हाथ सँवारे ॥४॥
दोहा
सुिच सुिबिचऽ सुभोगमय सुमन सुगंध सुबास ।
पलँग मंजु मिनद प जहँ सब िबिध सकल सुपास ॥९०॥
दोहा
कैकयनंिदिन मंदमित किठन कुिटलपनु कीन्ह ।
जेह ं रघुनंदन जानिकिह सुख अवसर दखु
ु द न्ह ॥९१॥
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रामचिरतमानस - 38 - अयोध्याकांड
दोहा
सपन होइ िभखािर नृप रं कु नाकपित होइ ।
जाग लाभु न हािन कछु ितिम ूपंच जयँ जोइ ॥९२॥
दोहा
भगत भूिम भूसुर सुरिभ सुर िहत लािग कृ पाल ।
करत चिरत धिर मनुज तनु सुनत िमटिह जग जाल ॥९३॥
दोहा
नृप अस कहे उ गोसा जस कहइ कर बिल सोइ ।
किर िबनती पायन्ह परे उ द न्ह बाल जिम रोइ ॥९४॥
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रामचिरतमानस - 39 - अयोध्याकांड
दोहा
िपतु पद गिह किह कोिट नित िबनय करब कर जोिर ।
िचंता कविनहु बात कै तात किरअ जिन मोिर ॥९५॥
दोहा
मइक ससर सकल सुख जबिहं जहाँ मनु मान ॥
तँह तब रिहिह सुखेन िसय जब लिग िबपित िबहान ॥९६॥
दोहा
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रामचिरतमानस - 40 - अयोध्याकांड
दोहा
सासु ससुर सन मोिर हँु ित िबनय करिब पिर पायँ ॥
मोर सोचु जिन किरअ कछु म बन सुखी सुभायँ ॥९८॥
दोहा
रथ हाँकेउ हय राम तन हे िर हे िर िहिहनािहं ।
दे ख िनषाद िबषादबस धुनिहं सीस पिछतािहं ॥९९॥
जासु िबयोग िबकल पसु ऐसे । ूजा मातु िपतु जीहिहं कैस ॥
बरबस राम सुमंऽु पठाए । सुरसिर तीर आपु तब आए ॥१॥
मागी नाव न केवटु आना । कहइ तु हार मरमु म जाना ॥
चरन कमल रज कहँु सबु कहई । मानुष करिन मूिर कछु अहई ॥२॥
छुअत िसला भइ नािर सुहाई । पाहन त न काठ किठनाई ॥
तरिनउ मुिन घिरिन होइ जाई । बाट परइ मोिर नाव उड़ाई ॥३॥
एिहं ूितपालउँ सबु पिरवारू । निहं जानउँ कछु अउर कबारू ॥
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रामचिरतमानस - 41 - अयोध्याकांड
छं द
पद कमल धोइ चढ़ाइ नाव न नाथ उतराई चह ।
मोिह राम राउिर आन दसरथ सपथ सब साची कह ॥
ब तीर मारहँु लखनु पै जब लिग न पाय पखािरह ।
तब लिग न तुलसीदास नाथ कृ पाल पा उतािरह ॥
सोरठा
सुिन केबट के बैन ूेम लपेटे अटपटे ।
िबहसे क नाऐन िचतइ जानकी लखन तन ॥१००॥
दोहा
पद पखािर जलु पान किर आपु सिहत पिरवार ।
िपतर पा किर ूभुिह पुिन मुिदत गयउ लेइ पार ॥१०१॥
दोहा
बहत
ु कीन्ह ूभु लखन िसयँ निहं कछु केवटु लेइ ।
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रामचिरतमानस - 42 - अयोध्याकांड
दोहा
ूाननाथ दे वर सिहत कुसल कोसला आइ ।
पूजिह सब मनकामना सुजसु रिहिह जग छाइ ॥१०३॥
दोहा
तब गनपित िसव सुिमिर ूभु नाइ सुरसिरिह माथ ।
सखा अनुज िसया सिहत बन गवनु कीन्ह रधुनाथ ॥१०४॥
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रामचिरतमानस - 43 - अयोध्याकांड
दोहा
सेविहं सुकृित साधु सुिच पाविहं सब मनकाम ।
बंद बेद पुरान गन कहिहं िबमल गुन माम ॥१०५॥
दोहा
द न्ह असीस मुनीस उर अित अनंद ु अस जािन ।
लोचन गोचर सुकृत फल मनहँु िकए िबिध आिन ॥१०६॥
दोहा
करम बचन मन छािड़ छलु जब लिग जनु न तु हार ।
तब लिग सुखु सपनेहुँ नह ं िकएँ कोिट उपचार ॥१०७॥
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रामचिरतमानस - 44 - अयोध्याकांड
दोहा
राम कीन्ह िबौाम िनिस ूात ूयाग नहाइ ।
चले सिहत िसय लखन जन मुदिदत मुिनिह िस नाइ ॥१०८॥
दोहा
िबदा िकए बटु िबनय किर िफरे पाइ मन काम ।
उतिर नहाए जमुन जल जो सर र सम ःयाम ॥१०९॥
दोहा
सजल नयन तन पुलिक िनज इ दे उ पिहचािन ।
परे उ दं ड जिम धरिनतल दसा न जाइ बखािन ॥११०॥
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रामचिरतमानस - 45 - अयोध्याकांड
बहिर
ु लखन पायन्ह सोइ लागा । लीन्ह उठाइ उमिग अनुरागा ॥
पुिन िसय चरन धूिर धिर सीसा । जनिन जािन िससु द न्ह असीसा ॥२॥
कीन्ह िनषाद दं डवत तेह । िमलेउ मुिदत लख राम सनेह ॥
िपअत नयन पुट रूपु िपयूषा । मुिदत सुअसनु पाइ जिम भूखा ॥३॥
ते िपतु मातु कहहु सख कैसे । जन्ह पठए बन बालक ऐसे ॥
राम लखन िसय रूपु िनहार । होिहं सनेह िबकल नर नार ॥४॥
दोहा
तब रघुबीर अनेक िबिध सखिह िसखावनु द न्ह ।
राम रजायसु सीस धिर भवन गवनु तइँ कीन्ह ॥१११॥
दोहा
एिह िबिध पूँछिहं ूेम बस पुलक गात जलु नैन ।
कृ पािसंधु फेरिह ितन्हिह किह िबनीत मृद ु बैन ॥११२॥
दोहा
छाँह करिह घन िबबुधगन बरषिह सुमन िसहािहं ।
दे खत िगिर बन िबहग मृग रामु चले मग जािहं ॥११३॥
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रामचिरतमानस - 46 - अयोध्याकांड
दोहा
एक दे खं बट छाँह भिल डािस मृदल
ु तृन पात ।
कहिहं गवाँइअ िछनुकु ौमु गवनब अबिहं िक ूात ॥ ११४ ॥
दोहा
जटा मुकुट सीसिन सुभग उर भुज नयन िबसाल ।
सरद परब िबधु बदन बर लसत ःवेद कन जाल ॥११५॥
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रामचिरतमानस - 47 - अयोध्याकांड
दोहा
ःयामल गौर िकसोर बर सुंदर सुषमा ऐन ।
सरद सबर नाथ मुखु सरद सरो ह नैन ॥११६॥
दोहा
अित सूेम िसय पायँ पिर बहिबिध
ु दे िहं असीस ।
सदा सोहािगिन होहु तु ह जब लिग मिह अिह सीस ॥११७॥
दोहा
लखन जानकी सिहत तब गवनु कीन्ह रघुनाथ ।
फेरे सब िूय बचन किह िलए लाइ मन साथ ॥११८॥
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रामचिरतमानस - 48 - अयोध्याकांड
दोहा
ज ए मुिन पट धर जिटल सुंदर सुिठ सुकुमार ।
िबिबध भाँित भूषन बसन बािद िकए करतार ॥११९॥
दोहा
एिह िबिध किह किह बचन िूय लेिहं नयन भिर नीर ।
िकिम चिलहिह मारग अगम सुिठ सुकुमार सर र ॥१२०॥
दोहा
अबला बालक बृ जन कर मीजिहं पिछतािहं ॥
होिहं ूेमबस लोग इिम रामु जहाँ जहँ जािहं ॥१२१॥
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रामचिरतमानस - 49 - अयोध्याकांड
दोहा
एिह िबिध रघुकुल कमल रिब मग लोगन्ह सुख दे त ।
जािहं चले दे खत िबिपन िसय सौिमिऽ समेत ॥१२२॥
दोहा
जन्ह जन्ह दे खे पिथक िूय िसय समेत दोउ भाइ ।
भव मगु अगमु अनंद ु तेइ िबनु ौम रहे िसराइ ॥१२३॥
दोहा
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रामचिरतमानस - 50 - अयोध्याकांड
दोहा
तात बचन पुिन मातु िहत भाइ भरत अस राउ ।
मो कहँु दरस तु हार ूभु सबु मम पुन्य ूभाउ ॥१२५॥
छं द
ौुित सेतु पालक राम तु ह जगद स माया जानकी ।
जो सृजित जगु पालित हरित रूख पाइ कृ पािनधान की ॥
जो सहससीसु अह सु मिहध लखनु सचराचर धनी ।
सुर काज धिर नरराज तनु चले दलन खल िनिसचर अनी ॥
सोरठा
राम स प तु हार बचन अगोचर बुि पर ।
अिबगत अकथ अपार नेित िनत िनगम कह ॥१२६॥
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रामचिरतमानस - 51 - अयोध्याकांड
दोहा
पूँछेहु मोिह िक रह कहँ म पूछ
ँ त सकुचाउँ ।
जहँ न होहु तहँ दे हु किह तु हिह दे खाव ठाउँ ॥१२७॥
दोहा
जसु तु हार मानस िबमल हं िसिन जीहा जासु ।
मुकुताहल गुन गन चुनइ राम बसहु िहयँ तासु ॥१२८॥
ूभु ूसाद सुिच सुभग सुबासा । सादर जासु लहइ िनत नासा ॥
तु हिह िनबेिदत भोजन करह ं । ूभु ूसाद पट भूषन धरह ं ॥१॥
सीस नविहं सुर गु ि ज दे खी । ूीित सिहत किर िबनय िबसेषी ॥
कर िनत करिहं राम पद पूजा । राम भरोस दयँ निह दजा
ू ॥२॥
चरन राम तीरथ चिल जाह ं । राम बसहु ितन्ह के मन माह ं ॥
मंऽराजु िनत जपिहं तु हारा । पूजिहं तु हिह सिहत पिरवारा ॥३॥
तरपन होम करिहं िबिध नाना । िबू जेवाँइ दे िहं बहु दाना ॥
तु ह त अिधक गुरिह जयँ जानी । सकल भायँ सेविहं सनमानी ॥४॥
दोहा
सबु किर मागिहं एक फलु राम चरन रित होउ ।
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रामचिरतमानस - 52 - अयोध्याकांड
दोहा
ःवािम सखा िपतु मातु गुर जन्ह के सब तु ह तात ।
मन मंिदर ितन्ह क बसहु सीय सिहत दोउ ॅात ॥१३०॥
दोहा
जािह न चािहअ कबहँु कछु तु ह सन सहज सनेहु ।
बसहु िनरं तर तासु मन सो राउर िनज गेहु ॥१३१॥
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रामचिरतमानस - 53 - अयोध्याकांड
दोहा
िचऽकूट मिहमा अिमत कह ं महामुिन गाइ ।
आए नहाए सिरत बर िसय समेत दोउ भाइ ॥१३२॥
दोहा
लखन जानकी सिहत ूभु राजत िचर िनकेत ।
सोह मदनु मुिन बेष जनु रित िरतुराज समेत ॥१३३॥
दोहा
जथाजोग सनमािन ूभु िबदा िकए मुिनबृंद ।
करिह जोग जप जाग तप िनज आौम न्ह सुछंद ॥१३४॥
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रामचिरतमानस - 54 - अयोध्याकांड
दोहा
अब हम नाथ सनाथ सब भए दे ख ूभु पाय ।
भाग हमारे आगमनु राउर कोसलराय ॥१३५॥
दोहा
बेद बचन मुिन मन अगम ते ूभु क ना ऐन ।
बचन िकरातन्ह के सुनत जिम िपतु बालक बैन ॥१३६॥
दोहा
नीलकंठ कलकंठ सुक चातक चक्क चकोर ।
भाँित भाँित बोलिहं िबहग ौवन सुखद िचत चोर ॥१३७॥
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रामचिरतमानस - 55 - अयोध्याकांड
दोहा
िचऽकूट के िबहग मृग बेिल िबटप तृन जाित ।
पुन्य पुंज सब धन्य अस कहिहं दे व िदन राित ॥१३८॥
दोहा
िछनु िछनु लख िसय राम पद जािन आपु पर नेहु ।
करत न सपनेहुँ लखनु िचतु बंधु मातु िपतु गेहु ॥१३९॥
राम संग िसय रहित सुखार । पुर पिरजन गृह सुरित िबसार ॥
िछनु िछनु िपय िबधु बदनु िनहार । ूमुिदत मनहँु चकोरकुमार ॥१॥
नाह नेहु िनत बढ़त िबलोकी । हरिषत रहित िदवस जिम कोकी ॥
िसय मनु राम चरन अनुरागा । अवध सहस सम बनु िूय लागा ॥२॥
परनकुट िूय िूयतम संगा । िूय पिरवा कुरं ग िबहं गा ॥
सासु ससुर सम मुिनितय मुिनबर । असनु अिमअ सम कंद मूल फर ॥३॥
नाथ साथ साँथर सुहाई । मयन सयन सय सम सुखदाई ॥
लोकप होिहं िबलोकत जासू । तेिह िक मोिह सक िबषय िबलासू ॥४॥
दोहा
सुिमरत रामिह तजिहं जन तृन सम िबषय िबलासु ।
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रामचिरतमानस - 56 - अयोध्याकांड
सीय लखन जेिह िबिध सुखु लहह ं । सोइ रघुनाथ करिह सोइ कहह ं ॥
कहिहं पुरातन कथा कहानी । सुनिहं लखनु िसय अित सुखु मानी ॥१॥
जब जब रामु अवध सुिध करह ं । तब तब बािर िबलोचन भरह ं ॥
सुिमिर मातु िपतु पिरजन भाई । भरत सनेहु सीलु सेवकाई ॥२॥
कृ पािसंधु ूभु होिहं दखार
ु । धीरजु धरिहं कुसमउ िबचार ॥
लख िसय लखनु िबकल होइ जाह ं । जिम पु षिह अनुसर पिरछाह ं ॥३॥
िूया बंधु गित लख रघुनंदनु । धीर कृ पाल भगत उर चंदनु ॥
लगे कहन कछु कथा पुनीता । सुिन सुखु लहिहं लखनु अ सीता ॥४॥
दोहा
रामु लखन सीता सिहत सोहत परन िनकेत ।
जिम बासव बस अमरपुर सची जयंत समेत ॥१४१॥
दोहा
निहं तृन चरिहं िपअिहं जलु मोचिहं लोचन बािर ।
याकुल भए िनषाद सब रघुबर बा ज िनहािर ॥१४२॥
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रामचिरतमानस - 57 - अयोध्याकांड
दोहा
भयउ िनषाद िबषादबस दे खत सिचव तुरंग ।
बोिल सुसेवक चािर तब िदए सारथी संग ॥१४३॥
गुह सारिथिह िफरे उ पहँु चाई । िबरहु िबषाद ु बरिन निहं जाई ॥
चले अवध लेइ रथिह िनषादा । होिह छनिहं छन मगन िबषादा ॥१॥
सोच सुमंऽ िबकल दख
ु द ना । िधग जीवन रघुबीर िबह ना ॥
रिहिह न अंतहँु अधम सर रू । जसु न लहे उ िबछुरत रघुबीरू ॥२॥
भए अजस अघ भाजन ूाना । कवन हे तु निहं करत पयाना ॥
अहह मंद मनु अवसर चूका । अजहँु न दय होत दइु ू
टका ॥३॥
मी ज हाथ िस धुिन पिछताई । मनहँ कृ पन धन रािस गवाँई ॥
िबिरद बाँिध बर बी कहाई । चलेउ समर जनु सुभट पराई ॥४॥
दोहा
िबू िबबेकी बेदिबद संमत साधु सुजाित ।
जिम धोख मदपान कर सिचव सोच तेिह भाँित ॥१४४॥
दोहा
धाइ पूँिछहिहं मोिह जब िबकल नगर नर नािर ।
उत दे ब म सबिह तब दयँ बळु बैठािर ॥१४५॥
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रामचिरतमानस - 58 - अयोध्याकांड
दोहा
॑दउ न िबदरे उ पंक जिम िबछुरत ूीतमु नी ॥
जानत ह मोिह द न्ह िबिध यहु जातना सर ॥१४६॥
एिह िबिध करत पंथ पिछतावा । तमसा तीर तुरत रथु आवा ॥
िबदा िकए किर िबनय िनषादा । िफरे पायँ पिर िबकल िबषादा ॥१॥
पैठत नगर सिचव सकुचाई । जनु मारे िस गुर बाँभन गाई ॥
बैिठ िबटप तर िदवसु गवाँवा । साँझ समय तब अवस पावा ॥२॥
अवध ूबेसु कीन्ह अँिधआर । पैठ भवन रथु रा ख दआर
ु ॥
जन्ह जन्ह समाचार सुिन पाए । भूप ार रथु दे खन आए ॥३॥
रथु पिहचािन िबकल लख घोरे । गरिहं गात जिम आतप ओरे ॥
नगर नािर नर याकुल कस । िनघटत नीर मीनगन जस ॥४॥
दोहा
सिचव आगमनु सुनत सबु िबकल भयउ रिनवासु ।
भवन भयंक लाग तेिह मानहँु ूेत िनवासु ॥१४७॥
दोहा
दे ख सिचवँ जय जीव किह कीन्हे उ दं ड ूनामु ।
सुनत उठे उ याकुल नृपित कहु सुमंऽ कहँ रामु ॥१४८॥
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रामचिरतमानस - 59 - अयोध्याकांड
दोहा
सखा रामु िसय लखनु जहँ तहाँ मोिह पहँु चाउ ।
नािहं त चाहत चलन अब ूान कहउँ सितभाउ ॥१४९॥
दोहा
ूथम बासु तमसा भयउ दसर
ू सुरसिर तीर ।
न्हाई रहे जलपानु किर िसय समेत दोउ बीर ॥१५०॥
छं द
तु हरे अनुमह तात कानन जात सब सुखु पाइह ।
ूितपािल आयसु कुसल दे खन पाय पुिन िफिर आइह ॥
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रामचिरतमानस - 60 - अयोध्याकांड
सोरठा
गुर सन कहब सँदेसु बार बार पद पदम
ु गिह ।
करब सोइ उपदे सु जेिहं न सोच मोिह अवधपित ॥१५१॥
दोहा
किह ूनाम कछु कहन िलय िसय भइ िसिथल सनेह ।
थिकत बचन लोचन सजल पुलक प लिवत दे ह ॥१५२॥
दोहा
भयउ कोलाहलु अवध अित सुिन नृप राउर सो ।
िबपुल िबहग बन परे उ िनिस मानहँु कुिलस कठो ॥१५३॥
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रामचिरतमानस - 61 - अयोध्याकांड
दोहा
िूया बचन मृद ु सुनत नृपु िचतयउ आँ ख उघािर ।
तलफत मीन मलीन जनु सींचत सीतल बािर ॥१५४॥
दोहा
राम राम किह राम किह राम राम किह राम ।
तनु पिरहिर रघुबर िबरहँ राउ गयउ सुरधाम ॥१५५॥
जअन मरन फलु दसरथ पावा । अंड अनेक अमल जसु छावा ॥
जअत राम िबधु बदनु िनहारा । राम िबरह किर मरनु सँवारा ॥१॥
सोक िबकल सब रोविहं रानी । रूपु सील बलु तेजु बखानी ॥
करिहं िबलाप अनेक ूकारा । परह ं भूिमतल बारिहं बारा ॥२॥
िबलपिहं िबकल दास अ दासी । घर घर दनु करिहं पुरबासी ॥
अँथयउ आजु भानुकुल भानू । धरम अविध गुन रूप िनधानू ॥३॥
गार ं सकल कैकइिह दे ह ं । नयन िबह न कीन्ह जग जेह ं ॥
एिह िबिध िबलपत रै िन िबहानी । आए सकल महामुिन यानी ॥४॥
दोहा
तब बिस मुिन समय सम किह अनेक इितहास ।
सोक नेवारे उ सबिह कर िनज िब यान ूकास ॥१५६॥
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रामचिरतमानस - 62 - अयोध्याकांड
दोहा
एिह िबिध सोचत भरत मन धावन पहँु चे आइ ।
गुर अनुसासन ौवन सुिन चले गनेसु मनाइ ॥१५७॥
दोहा
पुरजन िमिलिहं न कहिहं कछु गवँिहं जोहारिहं जािहं ।
भरत कुसल पूँिछ न सकिहं भय िबषाद मन मािहं ॥१५८॥
हाट बाट निहं जाइ िनहार । जनु पुर दहँ िदिस लािग दवार ॥
आवत सुत सुिन कैकयनंिदिन । हरषी रिबकुल जल ह चंिदिन ॥१॥
सज आरती मुिदत उिठ धाई । ारे िहं भिट भवन लेइ आई ॥
भरत द ु खत पिरवा िनहारा । मानहँु तुिहन बनज बनु मारा ॥२॥
कैकेई हरिषत एिह भाँित । मनहँु मुिदत दव लाइ िकराती ॥
सुतिह ससोच दे ख मनु मार । पूँछित नैहर कुसल हमार ॥३॥
सकल कुसल किह भरत सुनाई । पूँछ िनज कुल कुसल भलाई ॥
कहु कहँ तात कहाँ सब माता । कहँ िसय राम लखन िूय ॅाता ॥४॥
दोहा
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रामचिरतमानस - 63 - अयोध्याकांड
दोहा
भरतिह िबसरे उ िपतु मरन सुनत राम बन गौनु ।
हे तु अपनपउ जािन जयँ थिकत रहे धिर मौनु ॥१६०॥
दोहा
हं सबंसु दसरथु जनकु राम लखन से भाइ ।
जननी तूँ जननी भई िबिध सन कछु न बसाइ ॥१६१॥
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रामचिरतमानस - 64 - अयोध्याकांड
दोहा
राम िबरोधी दय त ूगट कीन्ह िबिध मोिह ।
मो समान को पातकी बािद कहउँ कछु तोिह ॥१६२॥
दोहा
मिलन बसन िबबरन िबकल कृ स सर र दख
ु भार ।
कनक कलप बर बेिल बन मानहँु हनी तुसार ॥१६३॥
दोहा
मातु भरत के बचन मृद ु सुिन सुिन उठ सँभािर ॥
िलए उठाइ लगाइ उर लोचन मोचित बािर ॥१६४॥
सरल सुभाय मायँ िहयँ लाए । अित िहत मनहँु राम िफिर आए ॥
भटे उ बहिर
ु लखन लघु भाई । सोकु सनेहु न दयँ समाई ॥१॥
दे ख सुभाउ कहत सबु कोई । राम मातु अस काहे न होई ॥
माताँ भरतु गोद बैठारे । आँसु प िछ मृद ु बचन उचारे ॥२॥
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रामचिरतमानस - 65 - अयोध्याकांड
दोहा
िपतु आयस भूषन बसन तात तजे रघुबीर ।
िबसमउ हरषु न दयँ कछु पिहरे बलकल चीर ।१६५॥
दोहा
कौस या के बचन सुिन भरत सिहत रिनवास ।
याकुल िबलपत राजगृह मानहँु सोक नेवासु ॥१६६॥
िबलपिहं िबकल भरत दोउ भाई । कौस याँ िलए दयँ लगाई ॥
भाँित अनेक भरतु समुझाए । किह िबबेकमय बचन सुनाए ॥१॥
भरतहँु मातु सकल समुझा । किह पुरान ौुित कथा सुहा ॥
छल िबह न सुिच सरल सुबानी । बोले भरत जोिर जुग पानी ॥२॥
जे अघ मातु िपता सुत मार । गाइ गोठ मिहसुर पुर जार ॥
जे अघ ितय बालक बध कीन्ह । मीत मह पित माहर
ु द न्ह ॥३॥
जे पातक उपपातक अहह ं । करम बचन मन भव किब कहह ं ॥
ते पातक मोिह होहँु िबधाता । ज यहु होइ मोर मत माता ॥४॥
दोहा
जे पिरहिर हिर हर चरन भजिहं भूतगन घोर ।
तेिह कइ गित मोिह दे उ िबिध ज जननी मत मोर ॥१६७॥
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रामचिरतमानस - 66 - अयोध्याकांड
दोहा
मातु भरत के बचन सुिन साँचे सरल सुभायँ ।
कहित राम िूय तात तु ह सदा बचन मन कायँ ॥१६८॥
दोहा
तात दयँ धीरजु धरहु करहु जो अवसर आजु ।
उठे भरत गुर बचन सुिन करन कहे उ सबु साजु ॥१६९॥
दोहा
िसंघासन भूषन बसन अन्न धरिन धन धाम ।
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रामचिरतमानस - 67 - अयोध्याकांड
िपतु िहत भरत की न्ह जिस करनी । सो मुख लाख जाइ निहं बरनी ॥
सुिदनु सोिध मुिनबर तब आए । सिचव महाजन सकल बोलाए ॥१॥
बैठे राजसभाँ सब जाई । पठए बोिल भरत दोउ भाई ॥
भरतु बिस िनकट बैठारे । नीित धरममय बचन उचारे ॥२॥
ूथम कथा सब मुिनबर बरनी । कैकइ कुिटल की न्ह जिस करनी ॥
भूप धरमॄतु स य सराहा । जेिहं तनु पिरहिर ूेमु िनबाहा ॥३॥
कहत राम गुन सील सुभाऊ । सजल नयन पुलकेउ मुिनराऊ ॥
बहिर
ु लखन िसय ूीित बखानी । सोक सनेह मगन मुिन यानी ॥४॥
दोहा
सुनहु भरत भावी ूबल िबल ख कहे उ मुिननाथ ।
हािन लाभु जीवन मरनु जसु अपजसु िबिध हाथ ॥१७१॥
दोहा
सोिचअ गृह जो मोह बस करइ करम पथ याग ।
सोिचअ जित ूंपच रत िबगत िबबेक िबराग ॥१७२॥
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रामचिरतमानस - 68 - अयोध्याकांड
दोहा
कहहु तात केिह भाँित कोउ किरिह बड़ाई तासु ।
राम लखन तु ह सऽुहन सिरस सुअन सुिच जासु ॥१७३॥
दोहा
अनुिचत उिचत िबचा तज जे पालिहं िपतु बैन ।
ते भाजन सुख सुजस के बसिहं अमरपित ऐन ॥१७४॥
दोहा
की जअ गुर आयसु अविस कहिहं सिचव कर जोिर ।
रघुपित आएँ उिचत जस तस तब करब बहोिर ॥१७५॥
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रामचिरतमानस - 69 - अयोध्याकांड
गुर के बचन सिचव अिभनंदनु । सुने भरत िहय िहत जनु चंदनु ॥
सुनी बहोिर मातु मृद ु बानी । सील सनेह सरल रस सानी ॥४॥
छं द
सानी सरल रस मातु बानी सुिन भरत याकुल भए ।
लोचन सरो ह वत सींचत िबरह उर अंकुर नए ॥
सो दसा दे खत समय तेिह िबसर सबिह सुिध दे ह की ।
तुलसी सराहत सकल सादर सीवँ सहज सनेह की ॥
सोरठा
भरतु कमल कर जोिर धीर धुरंधर धीर धिर ।
बचन अिमअँ जनु बोिर दे त उिचत उ र सबिह ॥१७६॥
दोहा
िपतु सुरपुर िसय रामु बन करन कहहु मोिह राजु ।
एिह त जानहु मोर िहत कै आपन बड़ काजु ॥१७७॥
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रामचिरतमानस - 70 - अयोध्याकांड
दोहा
कैकेई सुअ कुिटलमित राम िबमुख गतलाज ।
तु ह चाहत सुखु मोहबस मोिह से अधम क राज ॥१७८॥
दोहा
कारन त कारजु किठन होइ दोसु निह मोर ।
कुिलस अ ःथ त उपल त लोह कराल कठोर ॥१७९॥
दोहा
मह मह त पुिन बात बस तेिह पुिन बीछ मार ।
तेिह िपआइअ बा नी कहहु काह उपचार ॥१८०॥
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रामचिरतमानस - 71 - अयोध्याकांड
दोहा
राम मातु सुिठ सरलिचत मो पर ूेमु िबसेिष ।
कहइ सुभाय सनेह बस मोिर द नता दे ख ॥१८१॥
दोहा
आपिन दा न द नता कहउँ सबिह िस नाइ ।
दे ख िबनु रघुनाथ पद जय कै जरिन न जाइ ॥१८२॥
दोहा
ज िप जनमु कुमातु त म सठु सदा सदोस ।
आपन जािन न यािगहिहं मोिह रघुबीर भरोस ॥१८३॥
भरत बचन सब कहँ िूय लागे । राम सनेह सुधाँ जनु पागे ॥
लोग िबयोग िबषम िबष दागे । मंऽ सबीज सुनत जनु जागे ॥१॥
मातु सिचव गुर पुर नर नार । सकल सनेहँ िबकल भए भार ॥
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रामचिरतमानस - 72 - अयोध्याकांड
दोहा
अविस चिलअ बन रामु जहँ भरत मंऽु भल कीन्ह ।
सोक िसंधु बूड़त सबिह तु ह अवलंबनु द न्ह ॥१८४॥
दोहा
जरउ सो संपित सदन सुखु सुहद मातु िपतु भाइ ।
सनमुख होत जो राम पद करै न सहस सहाइ ॥१८५॥
दोहा
आरत जननी जािन सब भरत सनेह सुजान ।
कहे उ बनावन पालकीं सजन सुखासन जान ॥१८६॥
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रामचिरतमानस - 73 - अयोध्याकांड
दोहा
स िप नगर सुिच सेवकिन सादर सकल चलाइ ।
सुिमिर राम िसय चरन तब चले भरत दोउ भाइ ॥१८७॥
दोहा
पय अहार फल असन एक िनिस भोजन एक लोग ।
करत राम िहत नेम ॄत पिरहिर भूषन भोग ॥१८८॥
दोहा
अस िबचािर गुहँ याित सन कहे उ सजग सब होहु ।
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रामचिरतमानस - 74 - अयोध्याकांड
दोहा
िबगत िबषाद िनषादपित सबिह बढ़ाइ उछाहु ।
सुिमिर राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु ॥१९०॥
दोहा
भाइहु लावहु धोख जिन आजु काज बड़ मोिह ।
सुिन सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होिह ॥१९१॥
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रामचिरतमानस - 75 - अयोध्याकांड
दोहा
गहहु घाट भट सिमिट सब लेउँ मरम िमिल जाइ ।
बू झ िमऽ अिर मध्य गित तस तब किरहउँ आइ ॥१९२॥
दोहा
करत दं डवत दे ख तेिह भरत लीन्ह उर लाइ ।
मनहँु लखन सन भट भइ ूेम न दयँ समाइ ॥१९३॥
दोहा
ःवपच सबर खस जमन जड़ पावँर कोल िकरात ।
रामु कहत पावन परम होत भुवन िब यात ॥१९४॥
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रामचिरतमानस - 76 - अयोध्याकांड
दोहा
समु झ मोिर करतूित कुलु ूभु मिहमा जयँ जोइ ।
जो न भजइ रघुबीर पद जग िबिध बंिचत सोइ ॥१९५॥
दोहा
सनकारे सेवक सकल चले ःवािम ख पाइ ।
घर त तर सर बाग बन बास बनाए न्ह जाइ ॥१९६॥
दोहा
एिह िबिध म जनु भरतु किर गुर अनुसासन पाइ ।
मातु नहानीं जािन सब डे रा चले लवाइ ॥१९७॥
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रामचिरतमानस - 77 - अयोध्याकांड
चरन चाँिप किह किह मृद ु बानी । जननीं सकल भरत सनमानी ॥
भाइिह स िप मातु सेवकाई । आपु िनषादिह लीन्ह बोलाई ॥२॥
चले सखा कर स कर जोर । िसिथल सर र सनेह न थोर ॥
पूँछत सखिह सो ठाउँ दे खाऊ । नेकु नयन मन जरिन जुड़ाऊ ॥३॥
जहँ िसय रामु लखनु िनिस सोए । कहत भरे जल लोचन कोए ॥
भरत बचन सुिन भयउ िबषाद ू । तुरत तहाँ लइ गयउ िनषाद ू ॥४॥
दोहा
जहँ िसंसुपा पुनीत तर रघुबर िकय िबौामु ।
अित सनेहँ सादर भरत कीन्हे उ दं ड ूनामु ॥१९८॥
दोहा
पित दे वता सुतीय मिन सीय साँथर दे ख ।
िबहरत ॑दउ न हहिर हर पिब त किठन िबसेिष ॥१९९॥
दोहा
सुखःव प रघुबंसमिन मंगल मोद िनधान ।
ते सोवत कुस डािस मिह िबिध गित अित बलवान ॥२००॥
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रामचिरतमानस - 78 - अयोध्याकांड
छं द
िबिध बाम की करनी किठन जिहं मातु कीन्ह बावर ।
तेिह राित पुिन पुिन करिहं ूभु सादर सरहना रावर ॥
तुलसी न तु ह सो राम ूीतमु कहतु ह सौह िकएँ ।
पिरनाम मंगल जािन अपने आिनए धीरजु िहएँ ॥
सोरठा
अंतरजामी रामु सकुच सूेम कृ पायतन ।
चिलअ किरअ िबौामु यह िबचािर ढ़ आिन मन ॥२०१॥
दोहा
ूातिबया किर मातु पद बंिद गुरिह िस नाइ ।
आग िकए िनषाद गन द न्हे उ कटकु चलाइ ॥२०२॥
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रामचिरतमानस - 79 - अयोध्याकांड
दोहा
भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह ूबेसु ूयाग ।
कहत राम िसय राम िसय उमिग उमिग अनुराग ॥२०३॥
दोहा
अरथ न धरम न काम िच गित न चहउँ िनरबान ।
जनम जनम रित राम पद यह बरदानु न आन ॥२०४॥
जानहँु रामु कुिटल किर मोह । लोग कहउ गुर सािहब िोह ॥
सीता राम चरन रित मोर । अनुिदन बढ़उ अनुमह तोर ॥१॥
जलद ु जनम भिर सुरित िबसारउ । जाचत जलु पिब पाहन डारउ ॥
चातकु रटिन घट घिट जाई । बढ़े ूेमु सब भाँित भलाई ॥२॥
कनकिहं बान चढ़इ जिम दाह । ितिम िूयतम पद नेम िनबाह ॥
भरत बचन सुिन माझ िऽबेनी । भइ मृद ु बािन सुमंगल दे नी ॥३॥
तात भरत तु ह सब िबिध साधू । राम चरन अनुराग अगाधू ॥
बाद गलािन करहु मन माह ं । तु ह सम रामिह कोउ िूय नाह ं ॥४॥
दोहा
तनु पुलकेउ िहयँ हरषु सुिन बेिन बचन अनुकूल ।
भरत धन्य किह धन्य सुर हरिषत बरषिहं फूल ॥२०५॥
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रामचिरतमानस - 80 - अयोध्याकांड
दोहा
तु ह गलािन जयँ जिन करहु समुझी मातु करतूित ।
तात कैकइिह दोसु निहं गई िगरा मित धूित ॥२०६॥
दोहा
अब अित कीन्हे हु भरत भल तु हिह उिचत मत एहु ।
सकल सुमंगल मूल जग रघुबर चरन सनेहु ॥२०७॥
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रामचिरतमानस - 81 - अयोध्याकांड
दोहा
तु ह कहँ भरत कलंक यह हम सब कहँ उपदे सु ।
राम भगित रस िसि िहत भा यह समउ गनेसु ॥२०८॥
दोहा
जासु सनेह सकोच बस राम ूगट भए आइ ॥
जे हर िहय नयनिन कबहँु िनरखे नह ं अघाइ ॥२०९॥
दोहा
पुलक गात िहयँ रामु िसय सजल सरो ह नैन ।
किर ूनामु मुिन मंडिलिह बोले गदगद बैन ॥२१०॥
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रामचिरतमानस - 82 - अयोध्याकांड
दोहा
अ जन बसन फल असन मिह सयन डािस कुस पात ।
बिस त तर िनत सहत िहम आतप बरषा बात ॥२११॥
एिह दख
ु दाहँ दहइ िदन छाती । भूख न बासर नीद न राती ॥
एिह कुरोग कर औषधु नाह ं । सोधेउँ सकल िबःव मन माह ं ॥१॥
मातु कुमत बढ़ई अघ मूला । तेिहं हमार िहत कीन्ह बँसूला ॥
किल कुकाठ कर कीन्ह कुजंऽू । गािड़ अविध पिढ़ किठन कुमंऽु ॥२॥
मोिह लिग यहु कुठाटु तेिहं ठाटा । घालेिस सब जगु बारहबाटा ॥
िमटइ कुजोगु राम िफिर आएँ । बसइ अवध निहं आन उपाएँ ॥३॥
भरत बचन सुिन मुिन सुखु पाई । सबिहं कीन्ह बहु भाँित बड़ाई ॥
तात करहु जिन सोचु िबसेषी । सब दखु
ु िमटिह राम पग दे खी ॥४॥
दोहा
किर ूबोध मुिनबर कहे उ अितिथ पेमिूय होहु ।
कंद मूल फल फूल हम दे िहं लेहु किर छोहु ॥२१२॥
सुिन मुिन बचन भरत िहँ य सोचू । भयउ कुअवसर किठन सँकोचू ॥
जािन ग इ गुर िगरा बहोर । चरन बंिद बोले कर जोर ॥१॥
िसर धिर आयसु किरअ तु हारा । परम धरम यहु नाथ हमारा ॥
भरत बचन मुिनबर मन भाए । सुिच सेवक िसष िनकट बोलाए ॥२॥
चािहए कीन्ह भरत पहनाई
ु । कंद मूल फल आनहु जाई ॥
भलेह ं नाथ किह ितन्ह िसर नाए । ूमुिदत िनज िनज काज िसधाए ॥३॥
मुिनिह सोच पाहन
ु बड़ नेवता । तिस पूजा चािहअ जस दे वता ॥
सुिन िरिध िसिध अिनमािदक आई । आयसु होइ सो करिहं गोसाई ॥४॥
दोहा
राम िबरह याकुल भरतु सानुज सिहत समाज ।
पहनाई
ु किर हरहु ौम कहा मुिदत मुिनराज ॥२१३॥
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रामचिरतमानस - 83 - अयोध्याकांड
अस किह रचेउ िचर गृह नाना । जेिह िबलोिक िबलखािहं िबमाना ॥२॥
भोग िबभूित भूिर भिर राखे । दे खत जन्हिह अमर अिभलाषे ॥
दासीं दास साजु सब लीन्ह । जोगवत रहिहं मनिह मनु द न्ह ॥३॥
सब समाजु सज िसिध पल माह ं । जे सुख सुरपुर सपनेहुँ नाह ं ॥
ूथमिहं बास िदए सब केह । सुंदर सुखद जथा िच जेह ॥४॥
दोहा
बहिर
ु सपिरजन भरत कहँु िरिष अस आयसु द न्ह ।
िबिध िबसमय दायकु िबभव मुिनबर तपबल कीन्ह ॥२१४॥
दोहा
संपत चकई भरतु चक मुिन आयस खेलवार ॥
तेिह िनिस आौम िपंजराँ राखे भा िभनुसार ॥२१५॥
दोहा
िकएँ जािहं छाया जलद सुखद बहइ बर बात ।
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रामचिरतमानस - 84 - अयोध्याकांड
दोहा
रामु सँकोची ूेम बस भरत सपेम पयोिध ।
बनी बात बेगरन चहित किरअ जतनु छलु सोिध ॥२१७॥
दोहा
मनहँु न आिनअ अमरपित रघुबर भगत अकाजु ।
अजसु लोक परलोक दख
ु िदन िदन सोक समाजु ॥२१८॥
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रामचिरतमानस - 85 - अयोध्याकांड
दोहा
राम भगत परिहत िनरत पर दख
ु दखी
ु दयाल ।
भगत िसरोमिन भरत त जिन डरपहु सुरपाल ॥२१९॥
दोहा
रघुबर बरन िबलोिक बर बािर समेत समाज ।
होत मगन बािरिध िबरह चढ़े िबबेक जहाज ॥ २२० ॥
जमुन तीर तेिह िदन किर बासू । भयउ समय सम सबिह सुपासू ॥
रातिहं घाट घाट की तरनी । आ अगिनत जािहं न बरनी ॥१॥
ूात पार भए एकिह खवाँ । तोषे रामसखा की सेवाँ ॥
चले नहाइ निदिह िसर नाई । साथ िनषादनाथ दोउ भाई ॥२॥
आग मुिनबर बाहन आछ । राजसमाज जाइ सबु पाछ ॥
तेिहं पाछ दोउ बंधु पयाद । भूषन बसन बेष सुिठ साद ॥३॥
सेवक सु॑द सिचवसुत साथा । सुिमरत लखनु सीय रघुनाथा ॥
जहँ जहँ राम बास िबौामा । तहँ तहँ करिहं सूेम ूनामा ॥४॥
दोहा
मगबासी नर नािर सुिन धाम काम तज धाइ ।
दे ख सरूप सनेह सब मुिदत जनम फलु पाइ ॥२२१॥
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रामचिरतमानस - 86 - अयोध्याकांड
दोहा
चलत पयाद खात फल िपता द न्ह तज राजु ।
जात मनावन रघुबरिह भरत सिरस को आजु ॥२२२॥
दोहा
भरत दरसु दे खत खुलेउ मग लोगन्ह कर भागु ।
जनु िसंघलबािसन्ह भयउ िबिध बस सुलभ ूयागु ॥२२३॥
िनज गुन सिहत राम गुन गाथा । सुनत जािहं सुिमरत रघुनाथा ॥
तीरथ मुिन आौम सुरधामा । िनर ख िनम जिहं करिहं ूनामा ॥१॥
मनह ं मन मागिहं ब एहू । सीय राम पद पदम
ु सनेहू ॥
िमलिहं िकरात कोल बनबासी । बैखानस बटु जती उदासी ॥२॥
किर ूनामु पूँछिहं जेिहं तेह । केिह बन लखनु रामु बैदेह ॥
ते ूभु समाचार सब कहह ं । भरतिह दे ख जनम फलु लहह ं ॥३॥
जे जन कहिहं कुसल हम दे खे । ते िूय राम लखन सम लेखे ॥
एिह िबिध बूझत सबिह सुबानी । सुनत राम बनबास कहानी ॥४॥
दोहा
तेिह बासर बिस ूातह ं चले सुिमिर रघुनाथ ।
राम दरस की लालसा भरत सिरस सब साथ ॥२२४॥
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रामचिरतमानस - 87 - अयोध्याकांड
दोहा
भरत ूेमु तेिह समय जस तस किह सकइ न सेषु ।
किबिहं अगम जिम ॄ सुखु अह मम मिलन जनेषु ॥२२५॥
छं द
सनमािन सुर मुिन बंिद बैठे उ र िदिस दे खत भए ।
नभ धूिर खग मृग भूिर भागे िबकल ूभु आौम गए ॥
तुलसी उठे अवलोिक कारनु काह िचत सचिकत रहे ।
सब समाचार िकरात कोल न्ह आइ तेिह अवसर कहे ॥
दोहा
सुनत सुमग
ं ल बैन मन ूमोद तन पुलक भर ।
सरद सरो ह नैन तुलसी भरे सनेह जल ॥२२६॥
बहिर
ु सोचबस भे िसयरवनू । कारन कवन भरत आगवनू ॥
एक आइ अस कहा बहोर । सेन संग चतुरंग न थोर ॥१॥
सो सुिन रामिह भा अित सोचू । इत िपतु बच इत बंधु सकोचू ॥
भरत सुभाउ समु झ मन माह ं । ूभु िचत िहत िथित पावत नाह ॥२॥
समाधान तब भा यह जाने । भरतु कहे महँु साधु सयाने ॥
लखन लखेउ ूभु दयँ खभारू । कहत समय सम नीित िबचारू ॥३॥
िबनु पूँछ कछु कहउँ गोसा । सेवकु समयँ न ढठ िढठाई ॥
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रामचिरतमानस - 88 - अयोध्याकांड
दोहा
नाथ सु॑द सुिठ सरल िचत सील सनेह िनधान ॥
सब पर ूीित ूतीित जयँ जािनअ आपु समान ॥२२७॥
दोहा
सिस गुर ितय गामी नघुषु चढ़े उ भूिमसुर जान ।
लोक बेद त िबमुख भा अधम न बेन समान ॥२२८॥
दोहा
छिऽ जाित रघुकुल जनमु राम अनुग जगु जान ।
लातहँु मार चढ़ित िसर नीच को धूिर समान ॥२२९॥
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रामचिरतमानस - 89 - अयोध्याकांड
दोहा
अित सरोष माखे लखनु लख सुिन सपथ ूवान ।
सभय लोक सब लोकपित चाहत भभिर भगान ॥२३०॥
दोहा
भरतिह होइ न राजमद ु िबिध हिर हर पद पाइ ॥
कबहँु िक काँजी सीकरिन छ रिसंधु िबनसाइ ॥२३१॥
दोहा
सुिन रघुबर बानी िबबुध दे ख भरत पर हे तु ।
सकल सराहत राम सो ूभु को कृ पािनकेतु ॥२३२॥
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रामचिरतमानस - 90 - अयोध्याकांड
किब कुल अगम भरत गुन गाथा । को जानइ तु ह िबनु रघुनाथा ॥१॥
लखन राम िसयँ सुिन सुर बानी । अित सुखु लहे उ न जाइ बखानी ॥
इहाँ भरतु सब सिहत सहाए । मंदािकनीं पुनीत नहाए ॥२॥
सिरत समीप रा ख सब लोगा । मािग मातु गुर सिचव िनयोगा ॥
चले भरतु जहँ िसय रघुराई । साथ िनषादनाथु लघु भाई ॥३॥
समु झ मातु करतब सकुचाह ं । करत कुतरक कोिट मन माह ं ॥
रामु लखनु िसय सुिन मम नाऊँ । उिठ जिन अनत जािहं तज ठाऊँ ॥४॥
दोहा
मातु मते महँु मािन मोिह जो कछु करिहं सो थोर ।
अघ अवगुन छिम आदरिहं समु झ आपनी ओर ॥२३३॥
दोहा
लगे होन मंगल सगुन सुिन गुिन कहत िनषाद ु ।
िमिटिह सोचु होइिह हरषु पुिन पिरनाम िबषाद ु ॥२३४॥
दोहा
जीित मोह मिहपालु दल सिहत िबबेक भुआलु ।
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रामचिरतमानस - 91 - अयोध्याकांड
दोहा
राम सैल सोभा िनर ख भरत दयँ अित पेमु ।
तापस तप फलु पाइ जिम सुखी िसरान नेमु ॥२३६॥
दोहा
जहाँ बैिठ मुिनगन सिहत िनत िसय रामु सुजान ।
सुनिहं कथा इितहास सब आगम िनगम पुरान ॥२३७॥
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रामचिरतमानस - 92 - अयोध्याकांड
सखिह सनेह िबबस मग भूला । किह सुपंथ सुर बरषिहं फूला ॥३॥
िनर ख िस साधक अनुरागे । सहज सनेहु सराहन लागे ॥
होत न भूतल भाउ भरत को । अचर सचर चर अचर करत को ॥४॥
दोहा
पेम अिमअ मंद िबरहु भरतु पयोिध गँभीर ।
मिथ ूगटे उ सुर साधु िहत कृ पािसंधु रघुबीर ॥२३८॥
दोहा
लसत मंजु मुिन मंडली मध्य सीय रघुचंद ु ।
यान सभाँ जनु तनु धरे भगित स चदानंद ु ॥२३९॥
दोहा
बरबस िलए उठाइ उर लाए कृ पािनधान ।
भरत राम की िमलिन लख िबसरे सबिह अपान ॥२४०॥
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रामचिरतमानस - 93 - अयोध्याकांड
दोहा
िमिल सपेम िरपुसूदनिह केवटु भटे उ राम ।
भूिर भायँ भटे भरत लिछमन करत ूनाम ॥२४१॥
दोहा
नाथ साथ मुिननाथ के मातु सकल पुर लोग ।
सेवक सेनप सिचव सब आए िबकल िबयोग ॥२४२॥
दोहा
जेिह लख लखनहु त अिधक िमले मुिदत मुिनराउ ।
सो सीतापित भजन को ूगट ूताप ूभाउ ॥२४३॥
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रामचिरतमानस - 94 - अयोध्याकांड
दोहा
भेट ं रघुबर मातु सब किर ूबोधु पिरतोषु ॥
अंब ईस आधीन जगु काहु न दे इअ दोषु ॥२४४॥
दोहा
मिहसुर मंऽी मातु गुर गने लोग िलए साथ ॥
पावन आौम गवनु िकय भरत लखन रघुनाथ ॥२४५॥
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रामचिरतमानस - 95 - अयोध्याकांड
दोहा
लािग लािग पग सबिन िसय भटित अित अनुराग ॥
दयँ असीसिहं पेम बस रिहअहु भर सोहाग ॥२४६॥
दोहा
भो भएँ रघुनंदनिह जो मुिन आयसु द न्ह ॥
ौ ा भगित समेत ूभु सो सबु साद कीन्ह ॥२४७॥
दोहा
धम सेतु क नायतन कस न कहहु अस राम ।
लोग द ु खत िदन दइु दरस दे ख लहहँु िबौाम ॥२४८॥
राम बचन सुिन सभय समाजू । जनु जलिनिध महँु िबकल जहाजू ॥
सुिन गुर िगरा सुमंगल मूला । भयउ मनहँु मा त अनुकुला ॥१॥
पावन पयँ ितहँु काल नहाह ं । जो िबलोिक अंघ ओघ नसाह ं ॥
मंगलमूरित लोचन भिर भिर । िनरखिहं हरिष दं डवत किर किर ॥२॥
राम सैल बन दे खन जाह ं । जहँ सुख सकल सकल दख
ु नाह ं ॥
झरना झिरिहं सुधासम बार । िऽिबध तापहर िऽिबध बयार ॥३॥
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रामचिरतमानस - 96 - अयोध्याकांड
दोहा
सरिन सरो ह जल िबहग कूजत गुंजत भृंग ।
बैर िबगत िबहरत िबिपन मृग िबहं ग बहरंु ग ॥२४९॥
दोहा
यह जँयँ जािन सँकोचु तज किरअ छोहु लख नेहु ।
हमिह कृ तारथ करन लिग फल तृन अंकुर लेहु ॥२५०॥
तु ह िूय पाहने
ु बन पगु धारे । सेवा जोगु न भाग हमारे ॥
दे ब काह हम तु हिह गोसाँई । ईधनु पात िकरात िमताई ॥१॥
यह हमािर अित बिड़ सेवकाई । लेिह न बासन बसन चोराई ॥
हम जड़ जीव जीव गन घाती । कुिटल कुचाली कुमित कुजाती ॥२॥
पाप करत िनिस बासर जाह ं । निहं पट किट निह पेट अघाह ं ॥
सपोनेहुँ धरम बुि कस काऊ । यह रघुनंदन दरस ूभाऊ ॥३॥
जब त ूभु पद पदम
ु िनहारे । िमटे दसह
ु दख
ु दोष हमारे ॥
बचन सुनत पुरजन अनुरागे । ितन्ह के भाग सराहन लागे ॥४॥
छं द
लागे सराहन भाग सब अनुराग बचन सुनावह ं ।
बोलिन िमलिन िसय राम चरन सनेहु लख सुखु पावह ं ॥
नर नािर िनदरिहं नेहु िनज सुिन कोल िभ लिन की िगरा ।
तुलसी कृ पा रघुबंसमिन की लोह लै लौका ितरा ॥
सोरठा
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रामचिरतमानस - 97 - अयोध्याकांड
दोहा
िनिस न नीद निहं भूख िदन भरतु िबकल सुिच सोच ।
नीच कीच िबच मगन जस मीनिह सिलल सँकोच ॥२५२॥
दोहा
गुर पद कमल ूनामु किर बैठे आयसु पाइ ।
िबू महाजन सिचव सब जुरे सभासद आइ ॥२५३॥
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रामचिरतमानस - 98 - अयोध्याकांड
किर िबचार जँयँ दे खहु नीक । राम रजाइ सीस सबह क ॥४॥
दोहा
राख राम रजाइ ख हम सब कर िहत होइ ।
समु झ सयाने करहु अब सब िमिल संमत सोइ ॥२५४॥
दोहा
बू झअ मोिह उपाउ अब सो सब मोर अभागु ।
सुिन सनेहमय बचन गुर उर उमगा अनुरागु ॥२५५॥
तात बात फुिर राम कृ पाह ं । राम िबमुख िसिध सपनेहुँ नाह ं ॥
सकुचउँ तात कहत एक बाता । अरध तजिहं बुध सरबस जाता ॥१॥
तु ह कानन गवनहु दोउ भाई । फेिरअिहं लखन सीय रघुराई ॥
सुिन सुबचन हरषे दोउ ॅाता । भे ूमोद पिरपूरन गाता ॥२॥
मन ूसन्न तन तेजु िबराजा । जनु जय राउ रामु भए राजा ॥
बहत
ु लाभ लोगन्ह लघु हानी । सम दख
ु सुख सब रोविहं रानी ॥३॥
कहिहं भरतु मुिन कहा सो कीन्हे । फलु जग जीवन्ह अिभमत द न्हे ॥
कानन करउँ जनम भिर बासू । एिहं त अिधक न मोर सुपासू ॥४॥
दोहा
अँतरजामी रामु िसय तु ह सरब य सुजान ।
जो फुर कहहु त नाथ िनज की जअ बचनु ूवान ॥२५६॥
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रामचिरतमानस - 99 - अयोध्याकांड
दोहा
सब के उर अंतर बसहु जानहु भाउ कुभाउ ।
पुरजन जननी भरत िहत होइ सो किहअ उपाउ ॥२५७॥
दोहा
भरत िबनय सादर सुिनअ किरअ िबचा बहोिर ।
करब साधुमत लोकमत नृपनय िनगम िनचोिर ॥२५८॥
दोहा
तब मुिन बोले भरत सन सब सँकोचु तज तात ।
कृ पािसंधु िूय बंधु सन कहहु दय कै बात ॥२५९॥
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रामचिरतमानस - 100 - अयोध्याकांड
लख अपने िसर सबु छ भारू । किह न सकिहं कछु करिहं िबचारू ॥१॥
पुलिक सर र सभाँ भए ठाढ । नीरज नयन नेह जल बाढ़ ॥
कहब मोर मुिननाथ िनबाहा । एिह त अिधक कह म काहा ॥२॥
म जानउँ िनज नाथ सुभाऊ । अपरािधहु पर कोह न काऊ ॥
मो पर कृ पा सनेह िबसेषी । खेलत खुिनस न कबहँू दे खी ॥ ३॥
िससुपन तेम पिरहरे उँ न संगू । कबहँु न कीन्ह मोर मन भंगू ॥
म ूभु कृ पा र ित जयँ जोह । हारे हुँ खेल जताविहं मोह ॥४॥
दोहा
महँू सनेह सकोच बस सनमुख कह न बैन ।
दरसन तृिपत न आजु लिग पेम िपआसे नैन ॥२६०॥
दोहा
साधु सभा गुर ूभु िनकट कहउँ सुथल सित भाउ ।
ूेम ूपंचु िक झूठ फुर जानिहं मुिन रघुराउ ॥२६१॥
भूपित मरन पेम पनु राखी । जननी कुमित जगतु सबु साखी ॥
दे ख न जािह िबकल महतार । जरिहं दस
ु ह जर पुर नर नार ॥१॥
मह ं सकल अनरथ कर मूला । सो सुिन समु झ सिहउँ सब सूला ॥
सुिन बन गवनु कीन्ह रघुनाथा । किर मुिन बेष लखन िसय साथा ॥२॥
िबनु पानिहन्ह पयादे िह पाएँ । संक सा ख रहे उँ एिह घाएँ ॥
बहिर
ु िनहार िनषाद सनेहू । कुिलस किठन उर भयउ न बेहू ॥३॥
अब सबु आँ खन्ह दे खेउँ आई । जअत जीव जड़ सबइ सहाई ॥
जन्हिह िनर ख मग साँिपिन बीछ । तजिहं िबषम िबषु तामस तीछ ॥४॥
दोहा
तेइ रघुनंदनु लखनु िसय अनिहत लागे जािह ।
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रामचिरतमानस - 101 - अयोध्याकांड
दोहा
िमिटहिहं पाप ूपंच सब अ खल अमंगल भार ।
लोक सुजसु परलोक सुखु सुिमरत नामु तु हार ॥२६३॥
दोहा
मनु ूसन्न किर सकुच तज कहहु कर सोइ आजु ।
स यसंध रघुबर बचन सुिन भा सुखी समाजु ॥२६४॥
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रामचिरतमानस - 102 - अयोध्याकांड
दोहा
सुिन सुर मत सुरगुर कहे उ भल तु हार बड़ भागु ।
सकल सुमंगल मूल जग भरत चरन अनुरागु ॥२६५॥
दोहा
कीन्ह अनुमह अिमत अित सब िबिध सीतानाथ ।
किर ूनामु बोले भरतु जोिर जलज जुग हाथ ॥२६६॥
दोहा
जाइ िनकट पिहचािन त छाहँ समिन सब सोच ।
मागत अिभमत पाव जग राउ रं कु भल पोच ॥२६७॥
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रामचिरतमानस - 103 - अयोध्याकांड
दोहा
सानुज पठइअ मोिह बन की जअ सबिह सनाथ ।
नत फेिरअिहं बंधु दोउ नाथ चल म साथ ॥२६८॥
दोहा
ूभु ूसन्न मन सकुच तज जो जेिह आयसु दे ब ।
सो िसर धिर धिर किरिह सबु िमिटिह अनट अवरे ब ॥२६९॥
भरत बचन सुिच सुिन सुर हरषे । साधु सरािह सुमन सुर बरषे ॥
असमंजस बस अवध नेवासी । ूमुिदत मन तापस बनबासी ॥१॥
चुपिहं रहे रघुनाथ सँकोची । ूभु गित दे ख सभा सब सोची ॥
जनक दत
ू तेिह अवसर आए । मुिन बिस सुिन बेिग बोलाए ॥२॥
किर ूनाम ितन्ह रामु िनहारे । बेषु दे ख भए िनपट दखारे
ु ॥
दतन्ह
ू मुिनबर बूझी बाता । कहहु िबदे ह भूप कुसलाता ॥३॥
सुिन सकुचाइ नाइ मिह माथा । बोले चर बर जोर हाथा ॥
बूझब राउर सादर सा । कुसल हे तु सो भयउ गोसा ॥४॥
दोहा
नािह त कोसल नाथ क साथ कुसल गइ नाथ ।
िमिथला अवध िबसेष त जगु सब भयउ अनाथ ॥२७०॥
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रामचिरतमानस - 104 - अयोध्याकांड
दोहा
गए अवध चर भरत गित बू झ दे ख करतूित ।
चले िचऽकूटिह भरतु चार चले तेरहित
ू ॥२७१॥
दतन्ह
ू आइ भरत कइ करनी । जनक समाज जथामित बरनी ॥
सुिन गुर पिरजन सिचव मह पित । भे सब सोच सनेहँ िबकल अित ॥१॥
धिर धीरजु किर भरत बड़ाई । िलए सुभट साहनी बोलाई ॥
घर पुर दे स रा ख रखवारे । हय गय रथ बहु जान सँवारे ॥२॥
दघर
ु सािध चले ततकाला । िकए िबौामु न मग मह पाला ॥
भोरिहं आजु नहाइ ूयागा । चले जमुन उतरन सबु लागा ॥३॥
खबिर लेन हम पठए नाथा । ितन्ह किह अस मिह नायउ माथा ॥
साथ िकरात छ सातक द न्हे । मुिनबर तुरत िबदा चर कीन्हे ॥४॥
दोहा
सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु ।
रघुनंदनिह सकोचु बड़ सोच िबबस सुरराजु ॥२७२॥
दोहा
गुर समाज भाइन्ह सिहत राम राजु पुर होउ ।
अछत राम राजा अवध मिरअ माग सबु कोउ ॥२७३॥
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रामचिरतमानस - 105 - अयोध्याकांड
दोहा
ूेम मगन तेिह समय सब सुिन आवत िमिथलेसु ।
सिहत सभा संॅम उठे उ रिबकुल कमल िदनेसु ॥२७४॥
दोहा
आौम सागर सांत रस पूरन पावन पाथु ।
सेन मनहँु क ना सिरत िलएँ जािहं रघुनाथु ॥२७५॥
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रामचिरतमानस - 106 - अयोध्याकांड
छं द
अवगािह सोक समुि सोचिहं नािर नर याकुल महा ।
दै दोष सकल सरोष बोलिहं बाम िबिध कीन्हो कहा ॥
सुर िस तापस जोिगजन मुिन दे ख दसा िबदे ह की ।
तुलसी न समरथु कोउ जो तिर सकै सिरत सनेह की ॥
सोरठा
िकए अिमत उपदे स जहँ तहँ लोगन्ह मुिनबरन्ह ।
धीरजु धिरअ नरे स कहे उ बिस िबदे ह सन ॥२७६॥
जासु यानु रिब भव िनिस नासा । बचन िकरन मुिन कमल िबकासा ॥
तेिह िक मोह ममता िनअराई । यह िसय राम सनेह बड़ाई ॥१॥
िबषई साधक िस सयाने । िऽिबध जीव जग बेद बखाने ॥
राम सनेह सरस मन जासू । साधु सभाँ बड़ आदर तासू ॥२॥
सोह न राम पेम िबनु यानू । करनधार िबनु जिम जलजानू ॥
मुिन बहिबिध
ु िबदे हु समुझाए । रामघाट सब लोग नहाए ॥३॥
सकल सोक संकुल नर नार । सो बास बीतेउ िबनु बार ॥
पसु खग मृगन्ह न कीन्ह अहारू । िूय पिरजन कर कौन िबचारू ॥४॥
दोहा
दोउ समाज िनिमराजु रघुराजु नहाने ूात ।
बैठे सब बट िबटप तर मन मलीन कृ स गात ॥२७७॥
दोहा
तेिह अवसर फल फूल दल मूल अनेक ूकार ।
लइ आए बनचर िबपुल भिर भिर काँविर भार ॥२७८॥
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रामचिरतमानस - 107 - अयोध्याकांड
दोहा
सादर सब कहँ रामगुर पठए भिर भिर भार ।
पू ज िपतर सुर अितिथ गुर लगे करन फरहार ॥२७९॥
दोहा
एिह सुख जोग न लोग सब कहिहं कहाँ अस भागु ॥
सहज सुभायँ समाज दहु ु राम चरन अनुरागु ॥२८०॥
दोहा
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रामचिरतमानस - 108 - अयोध्याकांड
दोहा
लखनु राम िसय जाहँु बन भल पिरनाम न पोचु ।
गहबिर िहयँ कह कौिसला मोिह भरत कर सोचु ॥२८२॥
दोहा
कौस या कह धीर धिर सुनहु दे िब िमिथलेिस ।
को िबबेकिनिध ब लभिह तु हिह सकइ उपदे िस ॥२८३॥
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रामचिरतमानस - 109 - अयोध्याकांड
दोहा
बेिग पाउ धािरअ थलिह कह सनेहँ सितभाय ।
हमर तौ अब ईस गित के िमिथलेस सहाय ॥२८४॥
दोहा
अस किह पग पिर पेम अित िसय िहत िबनय सुनाइ ॥
िसय समेत िसयमातु तब चली सुआयसु पाइ ॥२८५॥
दोहा
िसय िपतु मातु सनेह बस िबकल न सकी सँभािर ।
धरिनसुताँ धीरजु धरे उ समउ सुधरमु िबचािर ॥२८६॥
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रामचिरतमानस - 110 - अयोध्याकांड
दोहा
बार बार िमिल भट िसय िबदा कीन्ह सनमािन ।
कह समय िसर भरत गित रािन सुबािन सयािन ॥२८७॥
दोहा
िनरविध गुन िन पम पु षु भरतु भरत सम जािन ।
किहअ सुमे िक सेर सम किबकुल मित सकुचािन ॥२८८॥
दोहा
भोरे हुँ भरत न पेिलहिहं मनसहँु राम रजाइ ।
किरअ न सोचु सनेह बस कहे उ भूप िबलखाइ ॥२८९॥
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रामचिरतमानस - 111 - अयोध्याकांड
राज समाज ूात जुग जागे । न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे ॥१॥
गे नहाइ गुर पह ं रघुराई । बंिद चरन बोले ख पाई ॥
नाथ भरतु पुरजन महतार । सोक िबकल बनबास दखार
ु ॥२॥
सिहत समाज राउ िमिथलेसू । बहत
ु िदवस भए सहत कलेसू ॥
उिचत होइ सोइ की जअ नाथा । िहत सबह कर रौर हाथा ॥३॥
अस किह अित सकुचे रघुराऊ । मुिन पुलके लख सीलु सुभाऊ ॥
तु ह िबनु राम सकल सुख साजा । नरक सिरस दहु ु राज समाजा ॥४॥
दोहा
ूान ूान के जीव के जव सुख के सुख राम ।
तु ह त ज तात सोहात गृह जन्हिह ितन्हिहं िबिध बाम ॥२९०॥
दोहा
यान िनधान सुजान सुिच धरम धीर नरपाल ।
तु ह िबनु असमंजस समन को समरथ एिह काल ॥२९१॥
दोहा
राम स यॄत धरम रत सब कर सीलु सनेहु ॥
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रामचिरतमानस - 112 - अयोध्याकांड
सुिन तन पुलिक नयन भिर बार । बोले भरतु धीर धिर भार ॥
ूभु िूय पू य िपता सम आपू । कुलगु सम िहत माय न बापू ॥१॥
कौिसकािद मुिन सिचव समाजू । यान अंबुिनिध आपुनु आजू ॥
िससु सेवक आयसु अनुगामी । जािन मोिह िसख दे इअ ःवामी ॥२॥
एिहं समाज थल बूझब राउर । मौन मिलन म बोलब बाउर ॥
छोटे बदन कहउँ बिड़ बाता । छमब तात लख बाम िबधाता ॥३॥
आगम िनगम ूिस पुराना । सेवाधरमु किठन जगु जाना ॥
ःवािम धरम ःवारथिह िबरोधू । बै अंध ूेमिह न ूबोधू ॥४॥
दोहा
रा ख राम ख धरमु ॄतु पराधीन मोिह जािन ।
सब क संमत सब िहत किरअ पेमु पिहचािन ॥२९३॥
दोहा
रामु सनेह सकोच बस कह ससोच सुरराज ।
रचहु ूपंचिह पंच िमिल नािहं त भयउ अकाजु ॥२९४॥
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रामचिरतमानस - 113 - अयोध्याकांड
दोहा
सुर ःवारथी मलीन मन कीन्ह कुमंऽ कुठाटु ॥
रिच ूपंच माया ूबल भय ॅम अरित उचाटु ॥२९५॥
दोहा
राम सपथ सुिन मुिन जनकु सकुचे सभा समेत ।
सकल िबलोकत भरत मुखु बनइ न उत दे त ॥२९६॥
दोहा
िनर ख िबबेक िबलोचन न्ह िसिथल सनेहँ समाजु ।
किर ूनामु बोले भरतु सुिमिर सीय रघुराजु ॥२९७॥
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रामचिरतमानस - 114 - अयोध्याकांड
दोहा
कृ पाँ भलाई आपनी नाथ कीन्ह भल मोर ।
दषन
ू भे भूषन सिरस सुजसु चा चहु ओर ॥२९८॥
दोहा
य सुधािर सनमािन जन िकए साधु िसरमोर ।
को कृ पाल िबनु पािलहै िबिरदाविल बरजोर ॥२९९॥
दोहा
सु॑द सुजान सुसािहबिह बहत
ु कहब बिड़ खोिर ।
आयसु दे इअ दे व अब सबइ सुधार मोिर ॥३००॥
ूभु पद पदम
ु पराग दोहाई । स य सुकृत सुख सीवँ सुहाई ॥
सो किर कहउँ िहए अपने की । िच जागत सोवत सपने की ॥१॥
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रामचिरतमानस - 115 - अयोध्याकांड
छं द
रघुराउ िसिथल सनेहँ साधु समाज मुिन िमिथला धनी ।
मन महँु सराहत भरत भायप भगित की मिहमा घनी ॥
भरतिह ूसंसत िबबुध बरषत सुमन मानस मिलन से ।
तुलसी िबकल सब लोग सुिन सकुचे िनसागम निलन से ॥
सोरठा
दे ख दखार
ु दन दहु ु समाज नर नािर सब ।
मघवा महा मलीन मुए मािर मंगल चहत ॥३०१॥
दोहा
भरतु जनकु मुिनजन सिचव साधु सचेत िबहाइ ।
लािग दे वमाया सबिह जथाजोगु जनु पाइ ॥३०२॥
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रामचिरतमानस - 116 - अयोध्याकांड
दोहा
भरत िबमल जसु िबमल िबधु सुमित चकोरकुमािर ।
उिदत िबमल जन दय नभ एकटक रह िनहािर ॥३०३॥
दोहा
करम बचन मानस िबमल तु ह समान तु ह तात ।
गुर समाज लघु बंधु गुन कुसमयँ िकिम किह जात ॥३०४॥
दोहा
राज काज सब लाज पित धरम धरिन धन धाम ।
गुर ूभाउ पािलिह सबिह भल होइिह पिरनाम ॥३०५॥
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रामचिरतमानस - 117 - अयोध्याकांड
दोहा
सेवक कर पद नयन से मुख सो सािहबु होइ ।
तुलसी ूीित िक र ित सुिन सुकिब सराहिहं सोइ ॥३०६॥
सभा सकल सुिन रघुबर बानी । ूेम पयोिध अिमअ जनु सानी ॥
िसिथल समाज सनेह समाधी । दे ख दसा चुप सारद साधी ॥१॥
भरतिह भयउ परम संतोषू । सनमुख ःवािम िबमुख दख
ु दोषू ॥
मुख ूसन्न मन िमटा िबषाद ू । भा जनु गूँगेिह िगरा ूसाद ू ॥२॥
कीन्ह सूेम ूनामु बहोर । बोले पािन पंक ह जोर ॥
नाथ भयउ सुखु साथ गए को । लहे उँ लाहु जग जनमु भए को ॥३॥
अब कृ पाल जस आयसु होई । कर सीस धिर सादर सोई ॥
सो अवलंब दे व मोिह दे ई । अविध पा पाव जेिह सेई ॥४॥
दोहा
दे व दे व अिभषेक िहत गुर अनुसासनु पाइ ।
आनेउँ सब तीरथ सिललु तेिह कहँ काह रजाइ ॥३०७॥
दोहा
भरत राम संबाद ु सुिन सकल सुमंगल मूल ।
सुर ःवारथी सरािह कुल बरषत सुरत फूल ॥३०८॥
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रामचिरतमानस - 118 - अयोध्याकांड
दोहा
अिऽ कहे उ तब भरत सन सैल समीप सुकूप ।
रा खअ तीरथ तोय तहँ पावन अिमअ अनूप ॥३०९॥
दोहा
कहत कूप मिहमा सकल गए जहाँ रघुराउ ।
अिऽ सुनायउ रघुबरिह तीरथ पुन्य ूभाउ ॥३१०॥
दोहा
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रामचिरतमानस - 119 - अयोध्याकांड
दोहा
दे खे थल तीरथ सकल भरत पाँच िदन माझ ।
कहत सुनत हिर हर सुजसु गयउ िदवसु भइ साँझ ॥३१२॥
दोहा
जेिहं उपाय पुिन पाय जनु दे खै द नदयाल ।
सो िसख दे इअ अविध लिग कोसलपाल कृ पाल ॥३१३॥
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रामचिरतमानस - 120 - अयोध्याकांड
भरत िबनय सुिन सबिहं ूसंसी । खीर नीर िबबरन गित हं सी ॥४॥
दोहा
द नबंधु सुिन बंधु के बचन दन छलह न ।
दे स काल अवसर सिरस बोले रामु ूबीन ॥३१४॥
दोहा
मु खआ मुखु सो चािहऐ खान पान कहँु एक ।
पालइ पोषइ सकल अँग तुलसी सिहत िबबेक ॥३१५॥
दोहा
मागेउ िबदा ूनामु किर राम िलए उर लाइ ।
लोग उचाटे अमरपित कुिटल कुअवस पाइ ॥३१६॥
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रामचिरतमानस - 121 - अयोध्याकांड
दोहा
तेउ िबलोिक रघुबर भरत ूीित अनूप अपार ।
भए मगन मन तन बचन सिहत िबराग िबचार ॥३१७॥
जहाँ जनक गुर मित भोर । ूाकृ त ूीित कहत बिड़ खोर ॥
बरनत रघुबर भरत िबयोगू । सुिन कठोर किब जािनिह लोगू ॥१॥
सो सकोच रसु अकथ सुबानी । समउ सनेहु सुिमिर सकुचानी ॥
भिट भरत रघुबर समुझाए । पुिन िरपुदवनु हरिष िहयँ लाए ॥२॥
सेवक सिचव भरत ख पाई । िनज िनज काज लगे सब जाई ॥
सुिन दा न दखु
ु दहँु ू समाजा । लगे चलन के साजन साजा ॥३॥
ूभु पद पदम
ु बंिद दोउ भाई । चले सीस धिर राम रजाई ॥
मुिन तापस बनदे व िनहोर । सब सनमािन बहोिर बहोर ॥४॥
दोहा
लखनिह भिट ूनामु किर िसर धिर िसय पद धूिर ।
चले सूेम असीस सुिन सकल सुमंगल मूिर ॥३१८॥
दोहा
भरत मातु पद बंिद ूभु सुिच सनेहँ िमिल भिट ।
िबदा कीन्ह सज पालकी सकुच सोच सब मेिट ॥३१९॥
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रामचिरतमानस - 122 - अयोध्याकांड
दोहा
गुर गुरितय पद बंिद ूभु सीता लखन समेत ।
िफरे हरष िबसमय सिहत आए परन िनकेत ॥३२०॥
दोहा
सानुज सीय समेत ूभु राजत परन कुट र ।
भगित यानु बैरा य जनु सोहत धर सर र ॥३२१॥
मुिन मिहसुर गुर भरत भुआलू । राम िबरहँ सबु साजु िबहालू ॥
ूभु गुन माम गनत मन माह ं । सब चुपचाप चले मग जाह ं ॥१॥
जमुना उतिर पार सबु भयऊ । सो बास िबनु भोजन गयऊ ॥
उतिर दे वसिर दसर
ू बासू । रामसखाँ सब कीन्ह सुपासू ॥२॥
सई उतिर गोमतीं नहाए । चौथ िदवस अवधपुर आए ।
जनकु रहे पुर बासर चार । राज काज सब साज सँभार ॥३॥
स िप सिचव गुर भरतिह राजू । तेरहित
ु चले सा ज सबु साजू ॥
नगर नािर नर गुर िसख मानी । बसे सुखेन राम रजधानी ॥४॥
दोहा
राम दरस लिग लोग सब करत नेम उपबास ।
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रामचिरतमानस - 123 - अयोध्याकांड
सिचव सुसेवक भरत ूबोधे । िनज िनज काज पाइ पाइ िसख ओधे ॥
पुिन िसख द न्ह बोिल लघु भाई । स पी सकल मातु सेवकाई ॥१॥
भूसुर बोिल भरत कर जोरे । किर ूनाम बय िबनय िनहोरे ॥
ऊँच नीच कारजु भल पोचू । आयसु दे ब न करब सँकोचू ॥२॥
पिरजन पुरजन ूजा बोलाए । समाधानु किर सुबस बसाए ॥
सानुज गे गुर गेहँ बहोर । किर दं डवत कहत कर जोर ॥३॥
आयसु होइ त रह सनेमा । बोले मुिन तन पुलिक सपेमा ॥
समुझव कहब करब तु ह जोई । धरम सा जग होइिह सोई ॥४॥
दोहा
सुिन िसख पाइ असीस बिड़ गनक बोिल िदनु सािध ।
िसंघासन ूभु पादका
ु बैठारे िन पािध ॥३२३॥
दोहा
राम पेम भाजन भरतु बड़े न एिहं करतूित ।
चातक हं स सरािहअत टक िबबेक िबभूित ॥३२४॥
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रामचिरतमानस - 124 - अयोध्याकांड
दोहा
िनत पूजत ूभु पाँवर ूीित न दयँ समाित ॥
मािग मािग आयसु करत राज काज बहु भाँित ॥३२५॥
छं द
िसय राम ूेम िपयूष पूरन होत जनमु न भरत को ।
मुिन मन अगम जम िनयम सम दम िबषम ॄत आचरत को ॥
दख
ु दाह दािरद दं भ दषन
ू सुजस िमस अपहरत को ।
किलकाल तुलसी से सठ न्ह हिठ राम सनमुख करत को ॥
सोरठा
भरत चिरत किर नेमु तुलसी जो सादर सुनिहं ।
सीय राम पद पेमु अविस होइ भव रस िबरित ॥३२६॥
अयोध्याकाण्ड समा
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