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पेमच ंद

नर क का माग ग
कम

ििशास : 3
नरक का मागग : 20
सी और पुरष : 28
उधदार : 34
िनिास
ग न : 42
नैराशय लीला : 49
कौशल : 61
सिग
ग की दे िी : 66
आधार : 75
एक ऑच
ं की कसर : 81
माता का हदय : 87
परीका : 96
तेतर : 100
नैराशय : १ 08
दणड : 119
िधककार : 132
लैला : 140
नेउर : 158
शूद : 168

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िि शा स

उ न िदनो िमस जोसी बमबई सभय-समाज की रािधका थी। थी तो िह


एक छोटी सी कनया पाठशाला की अधयािपका पर उसका ठाट-बाट,
मान-सममान बडी-बडी धन-रािनयो को भी लििजत करता था। िह एक बडे
महल मे रहती थी, जो िकसी जमाने मे सतारा के महाराज का िनिास-सथान
था। िहॉँ सारे िदन नगर के रईसो, राजो, राज-कमचािरयो का तांता लगा रहता
था। िह सारे पांत के धन और कीित ग के उपासको की दे िी थी। अगर िकसी
को ििताब का िबत था तो िह िमस जोशी की िुशामद करता था। िकसी
को अपने या संबधी के िलए कोई अचछा ओहदा िदलाने की धुन थी तो िह
िमस जोशी की अराधना करता था। सरकारी इमारतो के ठीके ; नमक, शराब,
अफीम आिद सरकारी चीजो के ठीके ; लोहे -लकडी, कल-पुरजे आिद के ठीके
सब िमस जोशी ही के हाथो मे थे। जो कुछ करती थी िही करती थी, जो
कुछ होता था उसी के हाथो होता था। िजस िक िह अपनी अरबी घोडो की
िफटन पर सैर करने िनकलती तो रईसो की सिािरयां आप ही आप रासते से
हट जाती थी, बडे दक
ु ानदार िडे हो-हो कर सलाम करने लगते थे। िह
रपिती थी, लेिकन नगर मे उससे बढकर रपिती रमिियां भी थी। िह
सुिशिकता थीं, िकचतुर थी, गाने मे िनपुि, हं सती तो अनोिी छिि से, बोलती
तो िनराली घटा से, ताकती तो बांकी िचतिन से ; लेिकन इन गुिो मे उसका
एकािधपतय न था। उसकी पितषा, शिक और कीित ग का कुछ और ही रहसय
था। सारा नगर ही नही ; सारे पानत का बचचा जानता था िक बमबई के
गिनरग िमसटर जौहरी िमस जोशी के िबना दामो के गुलाम है ।िमस जोशी की
आंिो का इशारा उनके िलए नािदरशाही हुकम है । िह िथएटरो मे दाितो मे ,
जलसो मे िमस जोशी के साथ साये की भॉिँत रहते है । और कभी-कभी
उनकी मोटर रात के सननाटे मे िमस जोशी के मकान से िनकलती हुई लोगो
को िदिाई दे ती है । इस पेम मे िासना की माता अिधक है या भिक की, यह
कोई नही जानता । लेिकन िमसटर जौहरी िििािहत है और िमस जौशी
ििधिा, इसिलए जो लोग उनके पेम को कलुिषत कहते है , िे उन पर कोई
अतयाचार नहीं करते।

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बमबई की वयिसथािपका-सभा ने अनाज पर कर लगा िदया था और
जनता की ओर से उसका ििरोध करने के िलए एक ििराट सभा हो रही थी।
सभी नगरो से पजा के पितिनिध उसमे सिममिलत होने के िलए हजारो की
संखया मे आये थे। िमस जोशी के ििशाला भिन के सामने, चौडे मैदान मे
हरी-भरी घास पर बमबई की जनता उपनी फिरयाद सुनाने के िलए जमा थी।
अभी तक सभापित न आये थे, इसिलए लोग बैठे गप-शप कर रहे थे। कोई
कमच
ग ारी पर आकेप करता था, कोई दे श की िसथित पर, कोई अपनी दीनता
पर—अगर हम लोगो मे अगडने का जरा भी सामथयग होता तो मजाल थी िक
यह कर लगा िदया जाता, अिधकािरयो का घर से बाहर िनकलना मुिशकल हो
जाता। हमारा जररत से ियादा सीधापन हमे अिधकािरयो के हाथो का
ििलौना बनाए हुए है । िे जानते है िक इनहे िजतना दबाते जाओ, उतना
दबते जायेगे, िसर नहीं उठा सकते। सरकार ने भी उपदि की आंशका से
सशस पुिलस बुला ली।ैै उस मैदान के चारो कोनो पर िसपािहयो के दल
डे रा डाले पडे थे। उनके अफसर, घोडो पर सिार, हाथ मे हं टर िलए, जनता के
बीच मे िनशशंक भाि से घोडे दौडाते िफरते थे, मानो साफ मैदान है । िमस
जोशी के ऊंचे बरामदे मे नगर के सभी बडे -बडे रईस और राियािधकारी
तमाशा दे िने के िलए बैठे हुए थे। िमस जोशी मेहमानो का आदर-सतकार
कर रही थीं और िमसटर जौहरी, आराम-कुसी परलेटे, इस जन-समूह को घि
ृ ा
और भय की दिि से दे ि रहे थे।
सहसा सभापित महाशय आपटे एक िकराये के तांगे पर आते िदिाई
िदये। चारो तरफ हलचल मच गई, लोग उठ-उठकर उनका सिागत करने दौडे
और उनहे ला कर मंच पर बेठा िदया। आपटे की अिसथा ३०-३५ िष ग से
अिधक न थी ; दब
ु ले-पतले आदमी थे, मुि पर िचनता का गाढा रं ग-चढा
हुआ था। बाल भी पक चले थे, पर मुि पर सरल हासय की रे िा झलक रही
थी। िह एक सफेद मोटा कुरता पहने थे, न पांि मे जूते थे, न िसर पर
टोपी। इस अदनगगन, दब
ु ल
ग , िनसतेज पािी मे न जाने कौल-सा जाद ू था िक
समसत जनता उसकी पूजा करती थी, उसके पैरो मे न जाने कौन सा जाद ू
था िक समसत जरत उसकी पूजा करती थी, उसकेपैरोैे पर िसर रगडती थी।
इस एक पािी क हाथो मे इतनी शिक थी िक िह कि मात मे सारी िमलो
को बंद करा सकता था, शहर का सारा कारोबार िमटा सकता था।
अिधकािरयो को उसके भय से नींद न आती थी, रात को सोते-सोते चौक
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पडते थे। उससे ियादा भंयकर जनतु अिधकािरयो की दििमे दस
ू रा नथा। ये
पचंड शासन-शिक उस एक हडडी के आदमी से थरथर कांपती थी, कयोिक
उस हडडी मेएक पिित, िनषकलंक, बलिान और िदवय आतमा का िनिास था।

आ पटे ने मंच पर िडे होकरह पहले जनता को शांत िचत रहने और


अिहं सा-वत पालन करने का आदे श िदया। िफर दे श मे राजिनितक
िसथित का ििन
ग करने लगे। सहसा उनकी दिि सामने िमस जोशी के
बरामदे की ओर गई तो उनका पजा-दि
ु पीिडत हदय ितलिमला उठा। यहां
अगिित पािी अपनी ििपित की फिरयाद सुनने के िलए जमा थे और िहां
मेजो पर चाय और िबसकुट, मेिे और फल, बफग और शराब की रे ल-पेल थी।
िे लोग इन अभागो को दे ि-दे ि हं सते और तािलयां बजाते थे। जीिन मे
पहली बार आपटे की जबान काबू से बाहर हो गयी। मेघ की भांित गरज कर
बोले—
‘इधर तो हमारे भाई दाने-दाने को मुहताज हो रहे है , उधर अनाज पर कर
लगाया जा रहा है , केिल इसिलए िक राजकमच
ग ािरयो के हलिे-पूरी मे कमी न
हो। हम जो दे श जो दे श के राजा है , जो छाती फाड कर धरती से धन
िनकालते है , भूिो मरते है ; और िे लोग, िजनहे हमने अपने सुि और शाित
की वयिसथा करने के िलए रिा है , हमारे सिामी बने हुए शराबो की बोतले
उडाते है । िकतनी अनोिी बात है िक सिामी भूिो मरे और सेिक शराबे
उडाये, मेिे िाये और इटली और सपेन की िमठाइयां चले! यह िकसका
अपराध है ? कया सेिको का? नहीं, कदािप नहीं, हमारा ही अपराध है िक हमने
अपने सेिको को इतना अिधकार दे रिा है । आज हम उचच सिर से कह
दे ना चाहते है िक हम यह कूर और कुिटल वयिहार नहीं सह सकते।यह
हमारे िलए असह है िक हम और हमारे बाल-बचचे दानो को तरसे और
कमच
ग ारी लोग, ििलास मे डू बे हुए हमारे करि-कनदन की जरा भी परिा न
करत हुए ििहार करे । यह असह है िक हमारे घरो मे चूलहे न जले और
कमच
ग ारी लोग िथएटरो मे ऐश करे , नाच-रं ग की महिफले सजाये, दािते उडाये,
िेशाओं पर कंचन की िषा ग करे । संसार मे और ऐसा कौन ऐसा दे श होगा,
जहां पजा तो भूिी मरती हो और पधान कमच
ग ारी अपनी पेम-िकडा मे मगन

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हो, जहां िसयां गिलयो मे ठोकरे िाती िफरती हो और अधयािपकाओं का िेष
धारि करने िाली िेशयाएं आमोद-पमोद के नशे मे चूर हो----

ए काएक सशस िसपािहयो के दल मे हलचल पड गई। उनका अफसर


हुकम दे रहा था—सभा भंग कर दो, नेताओं को पकड लो, कोई न जाने
पाए। यह ििदोहातम वयाखयान है ।
िमसटर जौहरी ने पुिलस के अफसर को इशारे पर बुलाकर कहा—और
िकसी को िगरफतार करने की जररत नहीं। आपटे ही को पकडो। िही हमारा
शतु है ।
पुिलस ने डं डे चलने शुर िकये। और कई िसपािहयो के साथ जाकर
अफसर ने अपटे का िगरफतार कर िलया।
जनता ने तयौिरयां बदलीं। अपने पयारे नेता को यो िगरफतार होते दे ि
कर उनका धैयग हाथ से जाता रहा।
लेिकन उसी िक आपटे की ललकार सुनाई दी—तुमने अिहं सा-वत िलया है
ओर अगर िकसी ने उस वत को तोडा तो उसका दोष मेरे िसर होगा। मै
तुमसे सििनय अनुरोध करता हूं िक अपने-अपने घर जाओं। अिधकािरयो ने
िही िकया जो हम समझते थे। इस सभा से हमारा जो उदे शय था िह पूरा
हो गया। हम यहां बलिा करने नहीं , केिल संसार की नैितक सहानुभूित
पाप करने के िलए जमाहुए थे, और हमारा उदे शय पूराहो गया।
एक कि मे सभा भंग हो गयी और आपटे पुिलस की हिालात मे भेज
िदए गये

िम
सटर जौहरी ने कहा—बचचा बहुत िदनो के बाद पंजे मे आए है , राज-
दोह कामुकदमा चलाकर कम से कम १० साल के िलए अंडमान
भेजूगां।
िमस जोशी—इससे कया फायदा?
‘कयो? उसको अपने िकए की सजा िमल जाएगी।’
‘लेिकन सोिचए, हमे उसका िकतना मूलय दे ना पडे गा। अभी िजस बात को
िगने-िगनाये लोग जानते है , िह सारे संसार मे फैलेगी और हम कहीं मुंह

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िदिाने लायक नहीं रहे गे। आप अिबारो मे संिाददाताओं की जबान तो नहीं
बंद कर सकते।’
‘कुछ भी हो मै इसे जोल मे सडाना चाहता हूं। कुछ िदनो के िलए तो
चैन की नींद नसीब होगी। बदनामी से डरना ही वयथ ग है । हम पांत के सारे
समाचार-पतो को अपने सदाचार का राग अलापने के िलए मोल ले सकते है ।
हम पतयेक लांछन को झूठ सािबत कर सकते है , आपटे पर िमथया
दोषारोपरि का अपराध लगा सकते है ।’
‘मै इससे सहज उपाय बतला सकती हूं। आप आपटे को मेरे हाथ मे छोड
दीिजए। मै उससे िमलूंगी और उन यंतो से, िजनका पयोग करने मे हमारी
जाित िसदहसत है , उसके आंतिरक भािो और ििचारो की थाह लेकर आपके
सामने रि दंग
ू ी। मै ऐसे पमाि िोज िनकालना चाहती हूंिजनके उतर मे
उसे मुंह िोलने का साहस न हो, और संसार की सहानुभूित उसके बदले
हमारे साथ हो। चारो ओर से यही आिाज आये िक यह कपटी ओर धूतग था
और सरकर ने उसके साथ िही वयिहार िकया है जो होना चािहए। मुझे
ििशास है िक िह षंडयंतकािरयो को मुििया है और मै इसे िसद कर दे ना
चाहती हूं। मै उसे जनता की दिि मे दे िता नहीं बनाना चाहतीं हूं, उसको
राकस के रप मे िदिाना चाहती हूं।
‘ऐसा कोई पुरष नहीं है , िजस पर युिती अपनी मोिहनी न डाल सके।’
‘अगर तुमहे ििशास है िक तुम यह काम पूरा कर िदिाओंगी, तो मुझे
कोई आपित नहीं है । मै तो केिल उसे दं ड दे ना चाहता हूं।’
‘तो हुकम दे दीिजए िक िह इसी िक छोड िदया जाय।’
‘जनता कहीं यह तो न समझेगी िक सरकार डर गयी?’
‘नहीं, मेरे खयाल मे तो जनता पर इस वयिहार का बहुत अचछा असर
पडे गा। लोग समझेगे िक सरकार ने जनमत का सममान िकया है ।’
‘लेिकन तुमहे उसेक घर जाते लोग दे िेगे तो मन मे कया कहे गे?’
‘नकाब डालकर जाऊंगी, िकसी को कानोकान िबर न होगी।’
‘मुझे तो अब भी भय है िक िह तुमहे संदेह की दिि से दे िेगा और
तुमहारे पंजे मे न आयेगा, लेिकन तुमहारी इचछा है तो आजमा दे िो।’
यह कहकर िमसटर जौहरी ने िमस जोशी को पेममय नेतो से दे िा, हाथ
िमलाया और चले गए।

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आकाश पर तारे िनकले हुए थे, चैत की शीतल, सुिद िायु चल रही थी,
सामने के चौडे मैदान मे सननाटा छाया हुआ था, लेिकन िमस जोशी को ऐसा
मालूम हुआ मानो आपटे मंच पर िडा बोल रहा है । उसक शांत, सौमय,
ििषादमय सिरप उसकी आंिो मे समाया हुआ था।

पा

त:काल िमस जोशी अपने भिन से िनकली, लेिकन उसके िस बहुत
साधारि थे और आभूषि के नाम शरीर पर एक धागा भी नथा।
अलंकार-ििहीन हो कर उसकी छिि सिचछ, जल की भांित और भी िनिर
गयी। उसने सडक पर आकर एक तांगा िलया और चली।
अपटे का मकान गरीबो के एक दरू के मुहलले मे था। तांगेिाला मकान
का पता जानता था। कोई िदककत न हुई। िमस जोशी जब मकान के दार
पर पहुंची तो न जाने कयो उसका िदल धडक रहा था। उसने कांपते हुए
हाथो से कुंडी िटिटायी। एक अधेड औरत िनकलकर दार िोल िदय। िमस
जोशी उस घर की सादगी दे ि दं ग रह गयी। एक िकनारे चारपाई पडी हुई
थी, एक टू टी आलमारी मे कुछ िकताबे चुनी हुई थीं, फश ग पर ििलने का
डे सक था ओर एक रससी की अलगनी पर कपडे लटक रहे थे। कमरे के दस
ू रे
िहससे मे एक लोहे का चूलहा था और िाने के बरतन पडे हुए थे। एक
लमबा-तगडा आदमी, जो उसी अधेड औरत का पित था, बैठा एक टू टे हुए
ताले की मरममत कर रहा था और एक पांच-छ िष ग का तेजसिी बालक
आपटे की पीठ पर चढने के िलए उनके गले मे हाथ डाल रहा था।आपटे
इसी लोहार के साथ उसी घर मे रहते थे। समाचार-पतो के लेि िलिकर जो
कुछ िमलता उसे दे दे ते और इस भांित गह
ृ -पबंध की िचंताओं से छुटटी
पाकर जीिन वयतीत करते थे।
िमस जोशी को दे िकर आपटे जरा चौके, िफर िडे होकर उनका सिागत
िकया ओर सोचने लगे िक कहां बैठाऊं। अपनी दिरदता पर आज उनहे
िजतनी लाज आयी उतनी और कभी न आयी थी। िमस जोशी उनका
असमंजस दे िकर चारपाई पर बैठ गयी और जरा रिाई से बोली---मै िबना
बुलाये आपके यहां आने के िलए कमा मांगती हूं िकंतु काम ऐसा जररी था
िक मेरे आये िबना पूरा न हो सकता। कया मै एक िमनट के िलए आपसे
एकांत मे िमल सकती हूं।

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आपटे ने जगननाथ की ओर दे ि कर कमरे से बाहर चले जाने का इशारा
िकया। उसकी सी भी बाहर चली गयी। केिल बालक रह गया। िह िमस
जोशी की ओर बार-बार उतसुक आंिो से दे िता था। मानो पूछ रहा हो िक
तुम आपटे दादा की कौन हो?
िमस जोशी ने चारपाई से उतर कर जमीन पर बैठते हुए कहा---आप कुछ
अनुमान कर सकते है िक इस िक कयो आयी हूं।
आपटे ने झेपते हुए कहा---आपकी कृ पा के िसिा और कया कारि हो
सकता है ?
िमस जोशी---नहीं, संसार इतना उदार नहीं हुआ िक आप िजसे गांिलयां दे ,
िह आपको धनयिाद दे । आपको याद है िक कल आपने अपने वयाखयान मे
मुझ पर कया-कया आकेप िकए थे? मै आपसे जोर दे कर कहती हूं िकिे
आकेप करके आपने मुझपर घोर अतयाचार िकया है । आप जैसे सहदय,
शीलिान, ििदान आदमी से मुझे ऐसी आशा न थी। मै अबला हूं, मेरी रका
करने िाला कोई नहीं है ? कया आपको उिचत था िक एक अबला पर
िमथयारोपि करे ? अगर मै पुरष होती तो आपसे डयूल िेलने काक आगह
करती । अबला हूं, इसिलए आपकी सिजनता को सपशग करना ही मेरे हाथ मे
है । आपने मुझ पर जो लांछन लगाये है , िे सिथ
ग ा िनमूल
ग है ।
आपटे ने दढता से कहा---अनुमान तो बाहरी पमािो से ही िकया जाता
है ।
िमस जोशी—बाहरी पमािो से आप िकसी के अंतसतल की बात नहीं जान
सकते ।
आपटे —िजसका भीतर-बाहर एक न हो, उसे दे ि कर भम मे पड जाना
सिाभाििक है ।
िमस जाशी—हां, तो िह आपका भम है और मै चाहती हूं िक आप उस
कलंक को िमटा दे जो आपने मुझ पर लगाया है । आप इसके िलए पायिशत
करे गे?
आपटे ---अगर न करं तो मुझसे बडा दरुातमा संसार मे न होगा।
िमस जोशी—आप मुझपर ििशास करते है ।
आपटे —मैने आज तक िकसी रमिी पर ििशास नहीं िकया।
िमस जोशी—कया आपको यह संदेह हो रहा है िक मै आपके साथ कौशल
कर रही हूं?
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आपटे ने िमस जोशी की ओर अपने सदय, सजल, सरल नेतो से दे ि कर
कहा—बाई जी, मै गंिार और अिशि पािी हूं। लेिकन नारी-जाित के िलए मेरे
हदय मे जो आदर है , िह शदा से कम नहीं है , जो मुझे दे िताओं पर है । मैने
अपनी माता का मुि नहीं दे िा, यह भी नहीं जानता िक मेरा िपता कौन था;
िकंतु िजस दे िी के दया-िक
ृ की छाया मे मेरा पालन-पोषि हुआ उनकी पेम-
मूित ग आज तक मेरी आंिो के सामने है और नारी के पित मेरी भिक को
सजीि रिे हुए है । मै उन शबदो को मुंह से िनकालने के िलए अतयंत द ु :िी
और लििजत हूं जो आिेश मे िनकल गये, और मै आज ही समाचार-पतो मे
िेद पकट करके आपसे कमा की पाथन
ग ा करं गा।
िमस जोशी का अब तक अिधकांश सिाथी आदिमयो ही से सािबका पडा
था, िजनके िचकने-चुपडे शबदो मे मतलब छुपा हुआ था। आपटे के सरल
ििशास पर उसका िचत आनंद से गदद हो गया। शायद िह गंगा मे िडी
होकर अपने अनय िमतो से यह कहती तो उसके फैशनेबुल िमलने िालो मे
से िकसी को उस पर ििशास न आता। सब मुंह के सामने तो ‘हां-हां’ करते,
पर बाहर िनकलते ही उसका मजाक उडाना शुर करते। उन कपटी िमतो के
सममुि यह आदमी था िजसके एक-एक शबद मे सचचाई झलक रही थी,
िजसके शबद अंतसतल से िनकलते हुए मालूम होते थे।
आपटे उसे चुप दे िकर िकसी और ही िचंता मे पडे हुए थे।उनहे भय हो
रहा था अब मै चाहे िकतना कमा मांगू, िमस जोशी के सामने िकतनी
सफाइयां पेश करं, मेरे आकेपो का असर कभी न िमटे गा।
इस भाि ने अजात रप से उनहे अपने ििषय की गुप बाते कहने की
पेरिा की जो उनहे उसकी दिि मे लघु बना दे , िजससे िह भी उनहे नीच
समझने लगे, उसको संतोष हो जाए िक यह भी कलुिषत आतमा है । बोले—मै
जनम से अभागा हूं। माता-िपता का तो मुंह ही दे िना नसीब न हुआ, िजस
दयाशील मिहला ने मुझे आशय िदया था, िह भी मुझे १३ िष ग की अिसथा
मे अनाथ छोडकर परलोक िसधार गयी। उस समय मेरे िसर पर जो कुछ
बीती उसे याद करके इतनी लिजा आती हे िक िकसी को मुंह न िदिाऊं।
मैने धोबी का काम िकया; मोची का काम िकया; घोडे की साईसी की; एक
होटल मे बरतन मांजता रहा; यहां तक िक िकतनी ही बार कुधासे वयाकुल
होकर भीि मांगी। मजदरूी करने को बुरा नहीं समझता, आज भी मजदरूी ही
करता हूं। भीि मांगनी भी िकसी-िकसी दशा मे कमय है , लेिकन मैने उस
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अिसथा मे ऐसे-ऐसे कम ग िकए, िजनहे कहते लिजा आती है —चोरी की,
ििशासघात िकया, यहां तक िक चोरी के अपराध मे कैद की सजा भी पायी।
िमस जोशी ने सजल नयन होकर कहा—आज यह सब बाते मुझसे कयो
कर रहे है ? मै इनका उललेि करके आपको िकतना बदनाम कर सकतीं हूं,
इसका आपको भय नहीं है ?
आपटे ने हं सकर कहा—नहीं, आपसे मुझे भय नहीं है ।
िमस जोशी—अगर मै आपसे बदला लेना चाहूं, तो?
आपटे ---जब मै अपने अपराध पर लििजत होकर आपसे कमा मांग रहा
हूं, तो मेरा अपराध रहा ही कहाँ, िजसका आप मुझसे बदला लेगी। इससे तो
मुझे भय होता है िक आपने मुझे कमा नहीं िकया। लेिकन यिद मैने आपसे
कमा न मांगी तो मुझसे तो बदला न ले सकतीं। बदला लेने िाले की आंिे
यो सजल नहीं हो जाया करतीं। मै आपको कपट करने के अयोगय समझता
हूं। आप यिद कपट करना चाहतीं तो यहां कभी न आतीं।
िमस जोशी—मै आपका भेद लेने ही के िलए आयी हूं।
आपटे ---तो शौक से लीिजए। मै बतला चुका हूं िक मैने चोरी के अपराध
मे कैद की सजा पायी थी। नािसक के जेल मे रिा गया था। मेरा शरीर
दब
ु ल
ग था, जेल की कडी मेहनत न हो सकती थी और अिधकारी लोग मुझे
कामचोर समझ कर बेतो से मारते थे। आििर एक िदन मै रात को जेल से
भाग िडा हुआ।
िमस जोशी—आप तो िछपे रसतम िनकले!
आपटे --- ऐसा भागा िक िकसी को िबर न हुई। आज तक मेरे नाम िारं ट
जारी है और ५०० र0 का इनाम भी है ।
िमस जोशी----तब तो मै आपको जरर पकडा दंग
ू ी।
आपटे ---तो िफर मै आपको अपना असल नाम भी बता दे ता हूं। मेरा नाम
दामोदर मोदी है । यह नाम तो पुिलस से बचने के िलए रि छोडा है ।
बालक अब तक तो चुपचाप बैठा हुआ था। िमस जोशी के मुंह से पकडाने
की बात सुनकर िह सजग हो गया। उनहे डांटकर बोला—हमाले दादा को
कौन पकडे गा?
िमस जोशी---िसपाही और कौन?
बालक---हम िसपाही को मालेगे।

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यह कहकर िह एक कोने से अपने िेलने िाला डं डा उठा लाया और
आपटे के पास िीरोिचता भाि से िडा हो गया, मानो िसपािहयो से उनकी
रका कर रहा है ।
िमस जोशी---आपका रकक तो बडा बहादरु मालूम होता है ।
आपटे ----इसकी भी एक कथा है । साल-भर होता है , यह लडका िो गया
था। मुझे रासते मे िमला। मै पूछता-पूछता इसे यहां लाया। उसी िदन से इन
लोगो से मेरा इतना पेम हो गया िक मै इनके साथ रहने लगा।
िमस जोशी---आप अनुमान कर सकते है िक आपका ित
ृ ानत सुनकर मै
आपको कया समझ रही हूं।
आपटे ---िही, जो मै िासति मे हूं---नीच, कमीना धूत.ग ...
िमस जोशी---नहीं, आप मुझ पर िफर अनयाय कर रहे है । पहला अनयाय
तो कमा कर सकती हूं, यह अनयाय कमा नहीं कर सकती। इतनी पितकूल
दशाओं मे पडकर भी िजसका हदय इतना पिित, इतना िनषकपट, इतना सदय
हो, िह आदमी नहीं दे िता है । भगिन ्, आपने मुझ पर जो आकेप िकये िह
सतय है । मै आपके अनुमान से कहीं भि हूं। मै इस योगय भी नहीं हूं िक
आपकी ओर ताक सकूं। आपने अपने हदय की ििशालता िदिाकर मेरा
असली सिरप मेरे सामने पकट कर िदया। मुझे कमा कीिजए, मुझ पर दया
कीिजए।
यह कहते-कहते िह उनके पैरो पर िगर पडी। आपटे ने उसे उठा िलया
और बोले----ईशर के िलए मुझे लििजत न करो।
िमस जोशी ने गदद कंठ से कहा---आप इन दि
ु ो के हाथ से मेरा उदार
कीिजए। मुझे इस योगय बनाइए िक आपकी ििशासपाती बन सकूं। ईशर
साकी है िक मुझे कभी-कभी अपनी दशा पर िकतना दि
ु होता है । मै बार-
बार चेिा करती हूं िक अपनी दशा सुधारं ;इस ििलािसता के जाल को तोड दं ू,
जो मेरी आतमा को चारो तरफ से जकडे हुए है , पर दब
ु ल
ग आतमा अपने
िनशय पर िसथत नहीं रहती। मेरा पालन-पोषि िजस ढं ग से हुआ, उसका
यह पिरिाम होना सिाभाििक-सा मालूम होता है । मेरी उचच िशका ने
गिृहिी-जीिन से मेरे मन मे घि
ृ ा पैदा कर दी। मुझे िकसी पुरष के अधीन
रहने का ििचार असिाभाििक जान पउै़ता था। मै गिृहिी की िजममेदािरयो
और िचंताओं को अपनी मानिसक सिाधीनता के िलए ििष-तुलय समझती
थी। मै तकगबुिद से अपने सीति को िमटा दे ना चाहती थी, मै पुरषो की भांित
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सितंत रहना चाहती थी। कयो िकसी की पांबद होकर रहूं? कयो अपनी
इचछाओं को िकसी वयिक के सांचे मे ढालू? कयो िकसी को यह अिधकार दं ू
िक तुमने यह कयो िकया, िह कयो िकया? दामपतय मेरी िनगाह मे तुचछ
िसतु थी। अपने माता-िपता की आलोचना करना मेरे िलए अिचत नहीं, ईशर
उनहे सदित दे , उनकी राय िकसी बात पर न िमलती थी। िपता ििदान ् थे,
माता के िलए ‘काला अकर भैस बराबर’ था। उनमे रात-िदन िाद-िििाद
होता रहता था। िपताजी ऐसी सी से िििाह हो जाना अपने जीिन का सबसे
बडा दभ
ु ागगय समझते थे। िह यह कहते कभी न थकते थे िक तुम मेरे पांि
की बेडी बन गयीं, नहीं तो मै न जाने कहां उडकर पहुंचा होता। उनके ििचार
मे सारा दोष माता की अिशका के िसर था। िह अपनी एकमात पुती को
मूिा ग माता से संसग ग से दरूरिना चाहते थे। माता कभी मुझसे कुछ कहतीं
तो िपताजी उन पर टू ट पडते—तुमसे िकतनी बार कह चुका िक लडकी को
डांटो मत, िह सियं अपना भला-बुरा सोच सकती है , तुमहारे डांटने से उसके
आतम-सममान का िकतनाधकका लगेगा, यह तुम नहीं जान सकतीं। आििर
माताजी ने िनराश होकर मुझे मेरे हाल पर छोड िदया और कदािचत ् इसी
शोक मे चल बसीं। अपने घर की अशांित दे िकर मुझे िििाह से और भी
घि
ृ ा हो गयी। सबसे बडा असर मुझ पर मेरे कालेज की लेडी िपंिसपल का
हुआ जो सियं अिििािहत थीं। मेरा तो अब यह ििचार है िक युिको की
िशका का भार केिल आदशग चिरतो पर रिना चािहए। ििलास मे रत, कालेजो
के शौिकन पोफेसर ििदािथय
ग ो पर कोई अचछा असर नहीं डाल सकते । मै
इस िक ऐसी बात आपसे कह रही हूं। पर अभी घर जाकर यह सब भूल
जाऊंगी। मै िजस संसार मे हूं, उसकी जलिायु ही दिूषत है । िहां सभी मुझे
कीचड मे लतपत दे िना चाहते है ।, मेरे ििलासासक रहने मे ही उनका सिाथग
है । आप िह पहले आदमी है िजसने मुझ पर ििशास िकया है , िजसने मुझसे
िनषकपट वयिहार िकया है । ईशर के िलए अब मुझे भूल न जाइयेगा।
आपटे ने िमस जोशी की ओर िेदना पूि ग दिि से दे िकर कहा—अगर मै
आपकी कुछ सेिा कर सकूं तो यह मेरे िलए सौभागय की बात होगी। िमस
जोशी! हम सब िमटटी के पुतले है , कोई िनदोष ग नहीं। मनुषय िबगडता है तो
पिरिसथितयो से, या पूि ग संसकारो से । पिरिसथितयो का तयाग करने से ही
बच सकता है , संसकारो से िगरने िाले मनुषय का मागग इससे कहीं किठन है ।
आपकी आतमा सुनदर और पिित है , केिल पिरिसथितयो ने उसे कुहरे की
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भांित ढं क िलया है । अब िििेक का सूय ग उदय हो गया है , ईशर ने चाहातो
कुहरा भी फट जाएगा। लेिकन सबसे पहले उन पिरिसथितयो का तयाग करने
को तैयार हो जाइए।
िमस जोशी—यही आपको करना होगा।
आपटे ने चुभती हुई िनगाहो से दे ि कर कहा—िैद रोगी को जबरदसती
दिा िपलाता है ।
िमस जोशी –मै सब कुछ करगीं। मै कडिी से कडिी दिा िपयूंगी यिद
आप िपलायेगे। कल आप मेरे घर आने की कृ पा करे गे, शाम को?
आपटे ---अिशय आऊंगा।
िमस जोशी ने ििदा दे ते हुए कहा---भूिलएगा नहीं, मै आपकी राह दे िती
रहूंगी। अपने रकक को भी लाइएगा।
यह कहकर उसने बालक को गोद मे उठाया ओर उसे गले से लगा कर
बाहर िनकल आयी।
गि ग के मारे उसके पांि जमीन पर न पडते थे। मालूम होता था, हिामे
उडी जा रही है , पयास से तडपते हुए मनुषय को नदी का तट नजर आने
लगा था।

दू

सरे िदन पात:काल िमस जोशी ने मेहमानो के नाम दािती काडग भेजे
और उतसि मनाने की तैयािरयां करने लगी। िमसटर आपटे के सममान
मे पाटी दी जा रही थी। िमसटर जौहरी ने काडग दे िा तो मुसकराये। अब
महाशय इस जाल से बचकरह कहां जायेगे। िमस जोशी ने ने उनहे फसाने के
िलए यह अचछी तरकीब िनकाली। इस काम मे िनपुि मालूम होती है । मैने
सकझा था, आपटे चालाक आदमी होगा, मगर इन आनदोलनकारी ििदािहयो
को बकिास करने के िसिा और कया सूझ सकती है ।
चार ही बजे मेहमान लोग आने लगे। नगर के बडे -बडे अिधकारी, बडे -बडे
वयापारी, बडे -बडे ििदान, समाचार-पतो के समपादक, अपनी-अपनी मिहलाओं के
साथ आने लगे। िमस जोशी ने आज अपने अचछे -से-अचछे िस और
आभूषि िनकाले हुए थे, िजधर िनकल जाती थी मालूम होता था, अरि
पकाश की छटा चली आरही है । भिन मे चारो ओर सुगध
ं की लपटे आ रही
थीं और मधुर संगीत की धििन हिा मे गूज
ं रहीं थी।

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पांच बजते-बजते िमसटर जौहरी आ पहुंचे और िमस जोशी से हाथ
िमलाते हुए मुसकरा कर बोले—जी चाहता है तुमहारे हाथ चूम लूं। अब मुझे
ििशास हो गया िक यह महाशय तुमहारे पंजे से नहीं िनकल सकते।
िमसेज पेिटट बोलीं---िमस जोशी िदलो का िशकार करने के िलए ही
बनाई गई है ।
िमसटर सोराब जी---मैने सुना है , आपटे िबलकुल गंिार-सा आदमी है ।
िमसटर भरचा---िकसी यूिनििसट
ग ी मे िशका ही नहीं पायी, सभयता कहां से
आती?
िमसटर भरचा---आज उसे िूब बनाना चािहए।
महं त िीरभद डाढी के भीतर से बोले---मैने सुना है नािसतक है । ििाश
ग म
धमग का पालन नहीं करता।
िमस जोशी---नािसतक तो मै भी हूं। ईशर पर मेरा भी ििशास नहीं है ।
महं त---आप नािसतक हो, पर आप िकतने ही नािसतको को आिसतक बना
दे ती है ।
िमसटर जौहरी---आपने लाि की बात की कहीं मंहत जी!
िमसेज भरचा—कयो महं त जी, आपको िमस जोशी ही न आिसतक
बनाया है कया?
सहसा आपटे लोहार के बालक की उं गली पकडे हुए भिन मे दाििल हुए।
िह पूरे फैशनेबुल रईस बने हुए थे। बालक भी िकसी रईस का लडका मालूम
होता था। आज आपटे को दे िकर लोगो को िििदत हुआ िक िह िकतना
सुदंर, सजीला आदमी है । मुि से शौय ग िनकल रहा था, पोर-पोर से िशिता
झलकती थी, मालूम होता था िह इसी समाज मे पला है । लोग दे ि रहे थे
िक िह कहीं चूके और तािलयां बजाये, कही कदम िफसले और कहकहे लगाये
पर आपटे मंचे हुए ििलाडी की भांित, जो कदम उठाता था िह सधा हुआ, जो
हाथ िदिलाता था िह जमा हुआ। लोग उसे पहले तुचछ समझते थे, अब
उससे ईषया ग करने लगे, उस पर फबितयां उडानी शुर कीं। लेिकन आपटे इस
कला मे भी एक ही िनकला। बात मुंह से िनकली ओर उसने जिाब िदया, पर
उसके जिाब मे मािलनय या कटु ता का लेश भी न होता था। उसका एक-एक
शबद सरल, सिचछ , िचत को पसनन करने िाले भािो मे डू बा होता था। िमस
जोशी उसकी िाकयचातुरी पर फुल उठती थी?
सोराब जी---आपने िकस यूिनििसट
ग ी से िशका पायी थी?
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आपटे ---यूिनििसट
ग ी मे िशका पायी होती तो आज मै भी िशका-ििभाग का
अधयक होता।
िमसेज भरचा—मै तो आपको भयंककर जंतु समझती थी?
आपटे ने मुसकरा कर कहा—आपने मुझे मिहलाओं के सामने न दे िा
होगा।
सहसा िमस जोशी अपने सोने के कमरे मे गयी ओर अपने सारे
िसाभूषि उतार फेके। उसके मुि से शुभ संकलप का तेज िनकल रहा था।
नेतो से दबी ियोित पसफुिटत हो रही थी, मानो िकसी दे िता ने उसे िरदान
िदया हो। उसने सजे हुए कमरे को घि
ृ ा से दे िा, अपने आभूषिो को पैरो से
ठु करा िदया और एक मोटी साफ साडी पहनकर बाहर िनकली। आज
पात:काल ही उसने यह साडी मंगा ली थी।
उसे इस नेय िेश मे दे ि कर सब लोग चिकत हो गये। कायापलट कैसी?
सहसा िकसी की आंिो को ििशास न आया; िकंतु िमसटर जौहरी बगले
बजाने लगे। िमस जोशी ने इसे फंसाने के िलए यह कोई नया सिांग रचा है ।
‘िमतो! आपको याद है , परसो महाशय आपटे ने मुझे िकतनी गांिलयां दी
थी। यह महाशय िडे है । आज मै इनहे उस दवुयि
ग हार का दणड दे ना चाहती
हूं। मै कल इनके मकान पर जाकर इनके जीिन के सारे गुप रहसयो को
जान आयी। यह जो जनता की भीड गरजते िफरते है , मेरे एक ही िनशाने
पर िगर पडे । मै उन रहसयो के िोलने मे अब ििलंब न करं गी, आप लोग
अधीर हो रहे होगे। मैने जो कुछ दे िा, िह इतना भंयकर है िक उसका ित
ृ ांत
सुनकर शायद आप लोगो को मूछा ग आ जायेगी। अब मुझे लेशमात भी संदेह
नहीं है िक यह महाशय पकके दे शदोही है ....’
िमसटर जौहरी ने ताली बजायी ओर तािलयो के हॉल गूंज उठा।
िमस जोशी---लेिकन राज के दोही नहीं, अनयाय के दोही, दमन के दोही,
अिभमान के दोही---
चारो ओर सननाटा छा गया। लोग िििसमत होकर एक दस
ू रे की ओर
ताकने लगे।
िमस जोशी---गुप रप से शस जमा िकए है और गुप रप से हतयाऍ ं की
है .........
िमसटर जौहरी ने तािलयां बजायी और तािलयां का दौगडा िफर बरस
गया।
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िमस जोशी—लेिकन िकस की हतया? द ु:ि की, दिरदता की, पजा के किो
की, हठधमी की ओर अपने सिाथग की।
चारो ओर िफर सननाटा छा गया और लोग चिकत हो-हो कर एक दस
ू रे
की ओर ताकने लगे, मानो उनहे अपने कानो पर ििशास नहीं है ।
िमस जोशी—महाराज आपटे ने डकैितयां की और कर रहे है ---
अब की िकसी ने ताली न बजायी, लोग सुनना चाहते थे िक दे िे आगे
कया कहती है ।
‘उनहोने मुझ पर भी हाथ साफ िकया है , मेरा सब कुछ अपहरि कर
िलया है , यहां तक िक अब मै िनराधार हूं और उनके चरिो के िसिा मेरे
िलए कोई आशय नहीं है । पाणधार! इस अबला को अपने चरिो मे सथान दो,
उसे डू बने से बचाओ। मै जानती हूं तुम मुझे िनराश न करोगे।’
यह कहते-कहते िह जाकर आपटे के चरिो मे िगर पडी। सारी मणडली
सतंिभत रह गयी।



क सपा गुजर चुका था। आपटे पुिलस की िहरासत मे थे। उन पर
चार अिभयोग चलाने की तैयािरयां चल रहीं थी। सारे पांत मे हलचल
मची हुई थी। नगर मे रोज सभाएं होती थीं, पुिलस रोज दस-पांच आदिमयां
को पकडती थी। समाचार-पतो मे जोरो के साथ िाद-िििाद हो रहा था।
रात के नौ बज गये थे। िमसटर जौहरी राज-भिन मे मेज पर बैठे हुए
सोच रहे थे िक िमस जोशी को कयो कर िापस लाएं? उसी िदन से उनकी
छाती पर सांप लोट रहा था। उसकी सूरत एक कि के िलए आंिो से न
उतरती थी।
िह सोच रहे थे, इसने मेरे साथ ऐसी दगा की! मैने इसके िलएकया कुछ
नहीं िकया? इसकी कौन-सी इचछा थी, जो मैने पूरी नहीं की इसी ने मुझसे
बेिफाई की। नहीं, कभी नहीं, मै इसके बगैर िजंदा नहीं रह सकता। दिुनया
चाहे मुझे बदनाम करे , हतयारा कहे , चाहे मुझे पद से हाथ धोना पडे , लेिकन
आपटे को नहीं छोडू गां। इस रोडे को रासते से हटा दंग
ू ा, इस कांटे को पहलू
से िनकाल बाहर करं गा।
सहसा कमरे का दरिाजा िुला और िमस जाशी ने पिेश िकया। िमसटर
जौहरी हकबका कर कुसी पर से उठ िडे हुए, यह सोच रहे थे िक शायद
िमस जोशी ने िनराश होकर मेरे पास आयी है , कुछ रिे, लेिकन नम भाि से
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बोले---आओ बाला, तुमहारी याद मे बैठा था। तुम िकतनी ही बेिफाई करो, पर
तुमहारी याद मेरे िदल से नहीं िनकल सकती।
िमस जोशी---आप केिल जबान से कहते है ।
िमसटर जौहरी—कया िदल चीरकर िदिा दं ू?
िमस जोशी—पेम पितकार नहीं करता, पेम मे दरुागह नहीं होता। आप मरे
िून के पयासे हो रहे है , उस पर भी आप कहते है , मै तुमहारी याद करता हूं।
आपने मेरे सिामी को िहरासत मे डाल रिा है , यह पेम है ! आििर आप
मुझसे कया चाहते है ? अगर आप समझ रहे हो िक इन सिखतयो से डर कर
मै आपकी शरि आ जाऊंगी तो आपका भम है । आपको अिखतयार है िक
आपटे को काले पानी भेज दे , फांसी चढा दे , लेिकन इसका मुझ परकोई असर
न होगा।िह मेरे सिमी है , मै उनको अपना सिामी समझती हूं। उनहोने
अपनी ििशाल उदारता से मेरा उदार िकया । आप मुझे ििषय के फंदो मे
फंसाते थे, मेरी आतमा को कलुिषत करते थे। कभी आपको यह ियाल आया
िक इसकी आतमा पर कया बीत रही होगी? आप मुझे आतमशुनय समझते
थे। इस दे िपुरष ने अपनी िनमल
ग सिचछ आतमा के आकषि
ग से मुझे पहली
ही मुलाकात मे िींच िलया। मै उसकी हो गयी और मरते दम तक उसी की
रहूंगी। उस माग ग से अब आप हटा नहीं सकते। मुझे एक सचची आतमा की
जररत थी , िह मुझे िमल गयी। उसे पाकर अब तीनो लोक की समपदा मेरी
आंिो मे तुचछ है । मै उनके िियोग मे चाहे पाि दे दं ू, पर आपके काम नहीं
आ सकती।
िमसटर जौहरी---िमस जोशी । पेम उदार नहीं होता, कमाशील नहीं होता ।
मेरे िलए तुम सिस
ग ि हो, जब तक मै समझता हूं िक तुम मेरी हो। अगर
तुम मेरी नहीं हो सकती तो मुझे इसकी कया िचंता हो सकती है िक तुम
िकस िदशा मे हो?
िमस जोशी—यह आपका अंितम िनिय
ग है ?
िमसटर जौहरी—अगर मै कह दं ू िक हां , तो?
िमस जोशी ने सीने से िपसतौल िनकाल कर कहा---तो पहले आप की
लाश जमीन पर फडकती होगी और आपके बाद मेरी ,बोिलए। यह आपका
अंितम िनिय
ग िनशय है ?
यह कहकर िमस जोशी ने जौहरी की तरफ िपसतौल सीधा िकया। जौहरी
कुसी से उठ िडे हुए और मुसकर बोले—कया तुम मेरे िलए कभी इतना
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साहस कर सकती थीं? जाओं, तुमहारा आपटे तुमहे मुबारक हो। उस पर से
अिभयोग उठा िलया जाएगा। पिित पेम ही मे यह साहस है । अब मुझे
ििशास हो गया िक तुमहारा पेम पिित है । अगर कोई पुराना पापी
भििषयिािी कर सकता है तो मै कहता हूं, िह िदन दरू नहीं है , जब तुम इस
भिन की सिािमनी होगी। आपटे ने मुझे पेम के केत मे नहीं, राजनीित के
केत मे भी परासत कर िदया। सचचा आदमी एक मुलाकात मे ही जीिन
बदल सकता है , आतमा को जगा सकता है और अजान को िमटा कर पकाश
की ियोित फैला सकता है , यह आज िसद हो गया।

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नरक का माग ग

रा त “भकमाल” पढते-पढते न जाने कब नींद आ गयी। कैसे-कैसे


महातमा थे िजनके िलए भगित ्-पेम ही सब कुछ था, इसी मे मगन
रहते थे। ऐसी भिक बडी तपसया से िमलती है । कया मै िह तपसया नहीं कर
सकती? इस जीिन मे और कौन-सा सुि रिा है ? आभूषिो से िजसे पेम हो
जाने , यहां तो इनको दे िकर आंिे फूटती है ;धन-दौलत पर जो पाि दे ता हो
िह जाने, यहां तो इसका नाम सुनकर ििर-सा चढ आता है । कल पगली
सुशीला ने िकतनी उमंगो से मेरा शग
ं ृ ार िकया था, िकतने पेम से बालो मे
फूल गूथ
ं े। िकतना मना करती रही, न मानी। आििर िही हुआ िजसका मुझे
भय था। िजतनी दे र उसके साथ हं सी थी, उससे कहीं ियादा रोयी। संसार मे
ऐसी भी कोई सी है , िजसका पित उसका शग
ं ृ ार दे िकर िसर से पांि तक
जल उठे ? कौन ऐसी सी है जो अपने पित के मुंह से ये शबद सुने—तुम मेरा
परलोग िबगाडोगी, और कुछ नहीं, तुमहारे रं ग-ढं ग कहे दे ते है ---और मनुषय
उसका िदल ििष िा लेने को चाहे । भगिान ्! संसार मे ऐसे भी मनुषय है ।
आििर मै नीचे चली गयी और ‘भिकमाल’ पढने लगी। अब िंद
ृ ािन िबहारी
ही की सेिा करं गी उनहीं को अपना शग
ं ृ ार िदिाऊंगी, िह तो दे िकर न
जलेगे। िह तो हमारे मन का हाल जानते है ।

भगिान! मै अपने मन को कैसे समझाऊं! तुम अंतयाम
ग ी हो, तुम मेरे रोम-
रोम का हाल जानते हो। मै चाहती हुं िक उनहे अपना इि समझूं, उनके
चरिो की सेिा करं , उनके इशारे पर चलूं, उनहे मेरी िकसी बात से, िकसी
वयिहार से नाममात, भी द :ु ि न हो। िह िनदोष है , जो कुछ मेरे भागय मे था
िह हुआ, न उनका दोष है , न माता-िपता का, सारा दोष मेरे नसीबो ही का है ।
लेिकन यह सब जानते हुए भी जब उनहे आते दे िती हूं, तो मेरा िदल बैठ
जाता है , मुह पर मुरदनी सी-छा जाती है , िसर भारी हो जाता है , जी चाहता है
इनकी सूरत न दे िूं, बात तक करने को जी नही चाहता;कदािचत ् शतु को भी
दे िकर िकसी का मन इतना कलांत नहीं होता होगा। उनके आने के समय
िदल मे धडकन सी होने लगती है । दो-एक िदन के िलए कहीं चले जाते है
तो िदल पर से बोझ उठ जाता है । हं सती भी हूं , बोलती भी हूं, जीिन मे कुछ
आनंद आने लगता है लेिकन उनके आने का समाचार पाते ही िफर चारो
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ओर अंधकार! िचत की ऐसी दशा कयो है , यह मै नहीं कह सकती। मुझे तो
ऐसा जान पडता है िक पूिज
ग नम मे हम दोनो मे बैर था, उसी बैर का बदला
लेने के िलए उनहोने मुझेसे िििाह िकया है , िही पुराने संसकार हमारे मन मे
बने हुए है । नहीं तो िह मुझे दे ि-दे ि कर कयो जलते और मै उनकी सूरत
से कयो घि
ृ ा करती? िििाह करने का तो यह मतलब नहीं हुआ करता! मै
अपने घर कहीं इससे सुिी थी। कदािचत ् मै जीिन-पयन
ग त अपने घर आनंद
से रह सकती थी। लेिकन इस लोक-पथा का बुरा हो, जो अभािगन कनयाओं
को िकसी-न-िकसी पुरष के गले मे बांध दे ना अिनिाय ग समझती है । िह कया
जानता है िक िकतनी युिितयां उसके नाम को रो रही है , िकतने अिभलाषाओं
से लहराते हुए, कोमल हदय उसके पैरो तल रौदे जा रहे है ? युिित के िलए
पित कैसी-कैसी मधुर कलपनाओं का सोत होता है , पुरष मे जो उतम है , शष

है , दशन
ग ीय है , उसकी सजीि मूित ग इस शबद के धयान मे आते ही उसकी
नजरो के सामने आकर िडी हो जाती है ।लेिकन मेरे िलए यह शबद कया है ।
हदय मे उठने िाला शूल, कलेजे मे िटकनेिाला कांटा, आंिो मे गडने िाली
िकरिकरी, अंत:करि को बेधने िाला वयंग बाि! सुशीला को हमेशा हं सते
दे िती हूं। िह कभी अपनी दिरदता का िगला नहीं करती; गहने नहीं है , कपडे
नहीं है , भाडे के ननहे से मकान मे रहती है , अपने हाथो घर का सारा काम-
काज करती है , िफर भी उसे रोतेनहीैे दे िती अगर अपने बस की बात
होती तो आज अपने धन को उसकी दिरदता से बदल लेती। अपने पितदे ि
को मुसकराते हुए घर मे आते दे िकर उसका सारा द :ु ि दािरदय छूमंतर हो
जाता है , छाती गज-भर की हो जाती है । उसके पेमािलंगन मे िह सुि है ,
िजस पर तीनो लोक का धन नयोछािर कर दं।ू



ज मुझसे जबत न हो सका। मैने पूछा—तुमने मुझसे िकसिलए
िििाह िकया था? यह पश महीनो से मेरे मन मे उठता था, पर
मन को रोकती चली आती थी। आज पयाला छलक पडा। यह पश सुनकर
कुछ बौिला-से गये, बगले झाकने लगे, िीसे िनकालकर बोले—घर संभालने
के िलए, गह
ृ सथी का भार उठाने के िलए, और नहीं कया भोग-ििलास के
िलए? घरनी के िबना यह आपको भूत का डे रा-सा मालूम होता था। नौकर-
चाकर घर की समपित उडाये दे ते थे। जो चीज जहां पडी रहती थी, कोई
उसको दे िने िाला न था। तो अब मालूम हुआ िक मै इस घर की चौकसी
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के िलए लाई गई हूं। मुझे इस घर की रका करनी चािहए और अपने को
धनय समझना चािहए िक यह सारी समपित मेरी है । मुखय िसतु समपित है ,
मै तो केिल चौकी दािरन हूं। ऐसे घर मे आज ही आग लग जाये! अब तक
तो मै अनजान मे घर की चौकसी करती थी, िजतना िह चाहते है उतना न
सही, पर अपनी बुिद के अनुसार अिशय करती थी। आज से िकसी चीज को
भूलकर भी छूने की कसम िाती हूं। यह मै जानती हूं। कोई पुरष घर की
चौकसी के िलए िििाह नहीं करता और इन महाशय ने िचढ कर यह बात
मुझसे कही। लेिकन सुशीला ठीक कहती है , इनहे सी के िबना घर सुना
लगता होगा, उसी तरह जैसे िपंजरे मे िचिडया को न दे िकर िपंजरा सूना
लगता है । यह हम िसयो का भागय!

मा

लूम नहीं, इनहे मुझ पर इतना संदेह कयो होता है । जब से नसीब
इस घर मे लाया है , इनहे बराबर संदेह-मूलक कटाक करते दे िती
हूं। कया कारि है ? जरा बाल गुथिाकर बैठी और यह होठ चबाने लगे। कहीं
जाती नहीं, कहीं आती नहीं, िकसी से बोलती नहीं, िफर भी इतना संदेह! यह
अपमान असह है । कया मुझे अपनी आबर पयारी नहीं? यह मुझे इतनी
िछछोरी कयो समझते है , इनहे मुझपर संदेह करते लिजा भी नहीं आती?
काना आदमी िकसी को हं सते दे िता है तो समझता है लोग मुझी पर हं स
रहे है । शायद इनहे भी यही बहम हो गया है िक मै इनहे िचढाती हूं। अपने
अिधकार के बाहर से बाहर कोई काम कर बैठने से कदािचत ् हमारे िचत की
यही ििृत हो जाती है । िभकुक राजा की गदी पर बैठकर चैन की नींद नहीं
सो सकता। उसे अपने चारो तरफ शुत िदिायी दे गे। मै समझती हूं, सभी
शादी करने िाले बुडढो का यही हाल है ।
आज सुशीला के कहने से मै ठाकुर जी की झांकी दे िने जा रही थी। अब
यह साधारि बुिद का आदमी भी समझ सकता है िक फूहड बहू बनकर बाहर
िनकलना अपनी हं सी उडाना है , लेिकन आप उसी िक न जाने िकधर से
टपक पडे और मेरी ओर ितरसकापूि ग नेतो से दे िकर बोले—कहां की तैयारी
है ?
मैने कह िदया, जरा ठाकुर जी की झांकी दे िने जाती हूं।इतना सुनते ही
तयोिरयां चढाकर बोले—तुमहारे जाने की कुछ जररत नहीं। जो अपने पित

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की सेिा नहीं कर सकती, उसे दे िताओं के दशन
ग से पुणय के बदले पाप होता।
मुझसे उडने चली हो । मै औरतो की नस-नस पहचानता हूं।
ऐसा कोध आया िक बस अब कया कहूं। उसी दम कपडे बदल डाले और
पि कर िलया िक अब कभ दशन
ग करने जाऊंगी। इस अििशास का भी कुछ
िठकाना है ! न जाने कया सोचकर रक गयी। उनकी बात का जिाब तो यही
था िक उसी कि घरसे चल िडी हुई होती, िफर दे िती मेरा कया कर लेते।
इनहे मेरा उदास और ििमन रहने पर आशय ग होता है । मुझे मन-मे
कृ तघन समझते है । अपनी समिमे इनहोने मरे से िििाह करके शायद मुझ
पर एहसान िकया है । इतनी बडी जायदाद और ििशाल समपित की सिािमनी
होकर मुझे फूले न समाना चािहए था, आठो पहरइनका यशगान करते रहना
चािहये था। मै यह सब कुछ न करके उलटे और मुंह लटकाए रहती हूं।
कभी-कभी बेचारे पर दया आती है । यह नहीं समझते िक नारी-जीिन मे कोई
ऐसी िसतु भी है िजसे दे िकर उसकी आंिो मे सिगग भी नरकतुलय हो जाता
है ।

ती न िदन से बीमान है । डाकटर कहते है , बचने की कोई आशा नहीं,


िनमोिनया हो गया है । पर मुझे न जाने कयो इनका गम नहीं है । मै
इनती िज-हदय कभी न थी।न जाने िह मेरी कोमलता कहां चली गयी।
िकसी बीमार की सूरत दे िकर मेरा हदय करिा से चंचल हो जाता था, मै
िकसी का रोना नहीं सुन सकती थी। िही मै हूं िक आज तीन िदन से उनहे
बगल के कमरे मे पडे कराहते सुनती हूं और एक बार भी उनहे दे िने न
गयी, आंिो मे आंसू का िजक ही कया। मुझे ऐसा मालूम होता है , इनसे मेरा
कोई नाता ही नहीं मुझे चाहे कोई िपशाचनी कहे , चाहे कुलटा, पर मुझे तो
यह कहने मे लेशमात भी संकोच नहीं है िक इनकी बीमारी से मुझे एक
पकार का ईषयाम
ग य आनंद आ रहा है । इनहोने मुझे यहां कारािास दे रिा
था—मै इसे िििाह का पिित नाम नहींदेना चाहती---यह कारािास ही है । मै
इतनी उदार नहीं हूं िक िजसने मुझे कैद मे डाल रिा हो उसकी पूजा करं ,
जो मुझे लात से मारे उसक पैरो का चूम
ं ू। मुझे तो मालूम हो रहा था।
ईशर इनहे इस पाप का दणड दे रहे है । मै िनससकोच होकर कहती हूं िक
मेरा इनसे िििाह नहीं हुआ है । सी िकसी के गले बांध िदये जाने से ही
उसकी िििािहता नहीं हो जाती। िही संयोग िििाह का पद पा सकता है ।
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िजंसमे कम-से-कम एक बार तो हदय पेम से पुलिकत हो जाय! सुनती हूं,
महाशय अपने कमरे मे पडे -पडे मुझे कोसा करते है , अपनी बीमारी का सारा
बुिार मुझ पर िनकालते है , लेिकन यहां इसकी परिाह नहीं। िजसकाह जी
चाहे जायदाद ले, धन ले, मुझे इसकी जररत नहीं!



ज तीन िदन हुए, मै ििधिा हो गयी, कम-से-कम लोग यही कहते
है । िजसका जो जी चाहे कहे , पर मै अपने को जो कुछ समझती
हूं िह समझती हूं। मैने चूिडया नहीं तोडी, कयो तोडू ? कयो तोडू ? मांग मे सेदरु
पहले भी न डालती थी, अब भी नहीं डालती। बूढे बाबा का िकया-कम ग उनके
सुपुत ने िकया, मै पास न फटकी। घर मे मुझ पर मनमानी आलोचनाएं होती
है , कोई मेरे गुंथे हुए बालो को दे िकर नाक िसंकोडता है , कोई मेरे आभूषिो
पर आंि मटकाता है , यहां इसकी िचंता नहीं। उनहे िचढाने को मै भी रं ग=-
िबरं गी सािडया पहनती हूं, और भी बनती-संिरती हूं, मुझे जरा भी द ु:ि नहीं
है । मै तो कैद से छूट गयी। इधर कई िदन सुशीला के घर गयी। छोटा-सा
मकान है , कोई सजािट न सामान, चारपाइयां तक नहीं, पर सुशीला िकतने
आनंद से रहती है । उसका उललास दे िकर मेरे मन मे भी भांित-भांित की
कलपनाएं उठने लगती है ---उनहे कुितसत कयो कहुं, जब मेरा मन उनहे
कुितसत नहीं समझता ।इनके जीिन मे िकतना उतसाह है ।आंिे मुसकराती
रहती है , ओठो पर मधुर हासय िेलता रहता है , बातो मे पेम का सोत
बहताहुआजान पडता है । इस आनंद से, चाहे िह िकतना ही कििक हो, जीिन
सफल हो जाता है , िफर उसे कोई भूल नहीं सकता, उसी समिृत अंत तक के
िलए काफी हो जाती है , इस िमजराब की चोट हदय के तारो को अंतकाल
तक मधुर सिरो मे कंिपत रिसकती है ।
एक िदन मैने सुशीला से कहा---अगर तेरे पितदे ि कहीं परदे श चले जाए
तो रोत-रोते मर जाएगी!
सुशीला गंभीर भाि से बोली—नहीं बहन, मरगीं नहीं , उनकी याद सदै ि
पफुिललत करती रहे गी, चाहे उनहे परदे श मे बरसो लग जाएं।
मै यही पेम चाहती हूं, इसी चोट के िलए मेरा मन तडपता रहता है , मै भी
ऐसी ही समिृत चाहती हूं िजससे िदल के तार सदै ि बजते रहे , िजसका नशा
िनतय छाया रहे ।

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रा त रोते-रोते िहचिकयां बंध गयी। न-जाने कयो िदल भर आता था।
अपना जीिन सामने एक बीहड मैदान की भांित फैला हुआ
होता था, जहां बगूलो के िसिा हिरयाली का नाम नहीं। घर फाडे िाता था,
मालूम

िचत ऐसा चंचल हो रहा था िक कहीं उड जाऊं। आजकल भिक के गंथो की


ओर ताकने को जी नहीं चाहता, कही सैर करने जाने की भी इचछा नहीं
होती, कया चाहती हूं िह मै सियं भी नहीं जानती। लेिकन मै जो जानती
िह मेरा एक-एक रोम-रोम जानता है , मै अपनी भािनाओं को संजीि मूितग है ,
मेरा एक-एक अंग मेरी आंतिरक िेदना का आतन
ग ाद हो रहा है ।
मेरे िचत की चंचलता उस अंितम दशा को पहं च गयी है , जब मनुषय को
िनंदा की न लिजा रहती है और न भय। िजन लोभी, सिाथी माता-िपता ने
मुझे कुएं मे ढकेला, िजस पाषाि-हदय पािी ने मेरी मांग मे सेदरु डालने का
सिांग िकया, उनके पित मेरे मन मे बार-बार दषुकामनाएं उठती है । मै उनहे
लििजत करना चाहती हूं। मै अपने मुंह मे कािलि लगा कर उनके मुि मे
कािलि लगाना चाहती हूं मैअपने पािदे कर उनहे पािदणड िदलाना चाहती
हूं।मेरा नारीति लुप हो गया है ,। मेरे हदय मे पचंड ििाला उठी हुई है ।
घर के सारे आदमी सो रहे है थे। मै चुपके से नीचे उतरी , दार िोला
और घर से िनकली, जैसे कोई पािी गमी से वयाकुल होकर घर से िनकले
और िकसी िुली हुई जगह की ओर दौडे ।उस मकान मे मेरा दम घुट रहा
था।
सडक पर सननाटा था, दक
ु ाने बंद हो चुकी थी। सहसा एक बुिढयां आती
हुई िदिायी दी। मै डरी कहीं यह चुडैल न हो। बुिढया ने मेरे समीप आकर
मुझे िसर से पांि तक दे िा और बोली ---िकसकी राह दे िरही हो
मैने िचढ कर कहा---मौत की!
बुिढया---तुमहारे नसीबो मे तो अभी िजनदगी के बडे -बडे सुि भोगने िलिे
है । अंधेरी रात गुजर गयी, आसमान पर सुबह की रोशनी नजर आ रही है ।
मैने हं सकर कहा---अंधेरे मे भी तुमहारी आंिे इतनी तेज है िक नसीबो की
िलिािट पढ लेती है ?
बुिढया---आंिो से नहीं पढती बेटी, अकल से पढती हूं, धूप मे चूडे नही
सुफेद िकये है ।। तुमहारे िदन गये और अचछे िदन आ रहे है । हं सो मत बेटी,
यही काम करते इतनी उम गुजर गयी। इसी बुिढया की बदौलत जो नदी मे
कूदने जा रही थीं, िे आज फूलो की सेज पर सो रही है , जो जहर का पयाल
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पीने को तैयार थीं, िे आज दध
ू की कुिललयां कर रही है । इसीिलए इतनी
रात गये िनकलती हू िक अपने हाथो िकसी अभािगन का उदार हो सके तो
करं । िकसी से कुछ नहीं मांगती, भगिान ् का िदया सब कुछ घर मे है , केिल
यही इचछा है उनहे धन, िजनहे संतान की इचछा है उनहे संतान, बस औरकया
कहूं, िह मंत बता दे ती हूं िक िजसकी जो इचछा जो िह पूरी हो जाये।
मैने कहा---मुझे न धन चािहए न संतान। मेरी मनोकामना तुमहारे बस
की बात नहीं है ।
बुिढया हं सी—बेटी, जो तुम चाहती हो िह मै जानती हूं; तुम िह चीज
चाहती हो जो संसार मे होते हुए सिग ग की है , जो दे िताओं के िरदान से भी
ियादा आनंदपद है , जो आकाश कुसुम है ,गुलर का फूल है और अमािसा का
चांद है । लेिकन मेरे मंत मे िह शंिक है जो भागय को भी संिार सकती है ।
तुम पेम की पयासी हो, मै तुमहे उस नाि पर बैठा सकती हूं जो पेम के
सागर मे, पेम की तंरगो पर कीडा करती हुई तुमहे पार उतार दे ।
मैने उतकंिठत होकर पूछा—माता, तुमहारा घर कहां है ।
बुिढया---बहुत नजदीक है बेटी, तुम चलो तो मै अपनी आंिो पर बैठा कर
ले चलूं।
मुझे ऐसा मालूम हुआ िक यह कोई आकाश की दे िी है । उसेक पीछ-पीछे
चल पडी।



ह! िह बुिढया, िजसे मै आकाश की दे िी समझती थी, नरक की
डाइन िनकली। मेरा सिन
ग ाश हो गया। मै अमत
ृ िोजती थी, ििष
िमला, िनमल
ग सिचछ पेम की पयासी थी, गंदे ििषाक नाले मे िगर पडी िह
िसतु न िमलनी थी, न िमली। मै सुशीला का –सा सुि चाहती थी, कुलटाओं
की ििषय-िासना नहीं। लेिकन जीिन-पथ मे एक बार उलटी राह चलकर
िफर सीधे मागग पर आना किठन है ?
लेिकन मेरे अध:पतन का अपराध मेरे िसर नहीं, मेरे माता-िपता और उस
बूढे पर है जो मेरा सिामी बनना चाहता था। मै यह पंिकयां न िलितीं ,
लेिकन इस ििचार से िलि रही हूं िक मेरी आतम-कथा पढकर लोगो की
आंिे िुले; मै िफर कहती हूं िक अब भी अपनी बािलकाओ के िलए मत दे िो
धन, मत दे िो जायदाद, मत दे िो कुलीनता, केिल िर दे िो। अगर उसके
िलए जोडा का िर नहीं पा सकते तो लडकी को किारी रि छोडो, जहर दे
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कर मार डालो, गला घोट डालो, पर िकसी बूढे िूसट से मत बयाहो। सी सब-
कुछ सह सकती है । दारि से दारि द ु:ि, बडे से बडा संकट, अगर नहीं सह
सकती तो अपने यौिन-काल की उं मगो का कुचला जाना।
रही मै, मेरे िलए अब इस जीिन मे कोई आशा नहीं । इस अधम दशा
को भी उस दशा से न बदलूंगी, िजससे िनकल कर आयी हूं।

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सी और पुरष

िि
िपन बाबू के िलए सी ही संसार की सुनदर िसतु थी। िह किि थे
और उनकी कििता के िलए िसयो के रप और यौिन की पशसा ही
सबसे िचंताकषक
ग ििषय था। उनकी दिि मे सी जगत मे वयाप कोमलता,
माधुयग और अलंकारो की सजीि पितमा थी। जबान पर सी का नाम आते ही
उनकी आंिे जगमगा उठती थीं, कान िडे हो जाते थे, मानो िकसी रिसक ने
गाने की आिाज सुन ली हो। जब से होश संभाला, तभी से उनहोने उस सुंदरी
की कलपना करनी शुर की जो उसके हदय की रानी होगी; उसमे ऊषा की
पफुललता होगी, पुषप की कोमलता, कुंदन की चमक , बसंत की छिि, कोयल
की धििन—िह किि ििित
ग सभी उपमाओं से ििभूिषत होगी। िह उस
किलपत मूित के उपासक थे, कििताओं मे उसका गुि गाते, िह िदन भी
समीप आ गया था, जब उनकी आशाएं हरे -हरे पतो से लहरायेगी, उनकी मुरादे
पूरी हो होगी। कालेज की अंितम परीका समाप हो गयी थी और िििाह के
संदेशे आने लगे थे।

िि
िाह तय हो गया। िबिपन बाबू ने कनया को दे िने का बहुत आगह
िकया, लेिकन जब उनके मांमू ने ििशास िदलाया िक लडकी बहुत ही
रपिती है , मैने अपनी आंिो से दे िा है , तब िह राजी हो गये। धूमधाम से
बारात िनकली और िििाह का मुहूतग आया। िधू आभूषिो से सजी हुई मंडप
मे आयी तो िििपन को उसके हाथ-पांि नजर आये। िकतनी सुंदर उं गिलया
थीं, मानो दीप-िशिाएं हो, अंगो की शोभा िकतनी मनोहािरिी थी। िििपन
फूले न समाये। दस
ू रे िदन िधू ििदा हुई तो िह उसके दशन
ग ो के िलए इतने
अधीर हुए िक ियो ही रासते मे कहारो ने पालकी रिकर मुह
ं -हाथ धोना शुर
िकया, आप चुपके से िधू के पास जा पहुंचे। िह घूंघट हटाये, पालकी से
िसर िनकाले बाहर झांक रही थी। िििपन की िनगाह उस पर पड गयी। यह
िह परम सुंदर रमिी न थी िजसकी उनहोने कलपना की थी, िजसकी िह
बरसो से कलपना कर रहे थे---यह एक चौडे मुह
ं , िचपटी नाक, और फुले हुए
गालो िाली कुरपा सी थी। रं ग गोरा था, पर उसमे लाली के बदले सफदी थी;
और िफर रं ग कैसा ही सुंदर हो, रप की कमी नहीं पूरी कर सकता। िििपन
का सारा उतसाह ठं डा पड गया---हां! इसे मेरे ही गले पडना था। कया इसके
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िलए समसत संसार मे और कोई न िमलता था? उनहे अपने मांमू पर कोध
आया िजसने िधू की तारीफो के पुल बांध िदये थे। अगर इस िक िह िमल
जाते तो िििपन उनकी ऐसी िबर लेता िक िह भी याद करते।
जब कहारो ने िफर पालिकयां उठायीं तो िििपन मन मे सोचने लगा, इस
सी के साथ कैसे मै बोलूगा, कैसे इसके साथ जीिन काटं गा। इसकी ओर तो
ताकने ही से घि
ृ ा होती है । ऐसी कुरपा िसयां भी संसार मे है , इसका मुझे
अब तक पता न था। कया मुंह ईशर ने बनाया है , कया आंिे है ! मै और सारे
ऐबो की ओर से आंिे बंद कर लेता, लेिकन िह चौडा-सा मुह
ं ! भगिान ्! कया
तुमहे मुझी पर यह िजपात करना था।

िि
िपन हो अपना जीिन नरक-सा जान पडता था। िह अपने मांमू से
लडा। ससुर को लंबा िरा ग िलिकर फटकारा, मां-बाप से हुिजत की
और जब इससे शांित न हुई तो कहीं भाग जाने की बात सोचने लगा। आशा
पर उसे दया अिशय आती थी। िह अपने का समझाता िक इसमे उस बेचारी
का कया दोष है , उसने जबरदसती तो मुझसे िििाह िकया नहीं। लेिकन यह
दया और यह ििचार उस घि
ृ ा को न जीत सकता था जो आशा को दे िते
ही उसके रोम-रोम मे वयाप हो जाती थी। आशा अपने अचछे -से-अचछे कपडे
पहनती; तरह-तरह से बाल संिारती, घंटो आइने के सामने िडी होकर अपना
शग
ं ृ ार करती, लेकन िििपन को यह शुतुरगमज-से मालूम होते। िह िदल से
चाहती थी िक उनहे पसनन करं , उनकी सेिा करने के िलए अिसर िोजा
करती थी; लेिकन िििपन उससे भागा-भागा िफरता था। अगर कभी भेट हो
जाती तो कुछ ऐसी जली-कटी बाते करने लगता िक आशा रोती हुई िहां से
चली जाती।
सबसे बुरी बात यह थी िक उसका चिरत भि होने लगा। िह यह भूल जाने
की चेिा करने लगा िक मेरा िििाह हो गया है । कई-कई िदनो क आशा को
उसके दशन
ग भी न होते। िह उसके कहकहे की आिाजे बाहर से आती हुई
सुनती, झरोिे से दे िती िक िह दोसतो के गले मे हाथ डाले सैर करने जा
रहे है और तडप कर रहे जाती।
एक िदन िाना िाते समय उसने कहा—अब तो आपके दशन
ग ही नहीं
होते। मेरे कारि घर छोड दीिजएगा कया ?

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िििपन ने मुंह फेर कर कहा—घर ही पर तो रहता हूं। आजकल जरा
नौकरी की तलाश है इसिलए दौड-धूप ियादा करनी पडती है ।
आशा—िकसी डाकटर से मेरी सूरत कयो नहीं बनिा दे ते ? सुनती हूं,
आजकल सूरत बनाने िाले डाकटर पैदा हुए है ।
िििपन— कयो नाहक िचढती हो, यहां तुमहे िकसने बुलाया था ?
आशा— आििर इस मजग की दिा कौन करे गा ?
िििपन— इस मज ग की दिा नहीं है । जो काम ईशर से ने करते बना
उसे आदमी कया बना सकता है ?
आशा – यह तो तुमही सोचो िक ईशर की भुल के िलए मुझे दं ड दे
रहे हो। संसार मे कौन ऐसा आदमी है िजसे अचछी सूरत बुरी लगती हो,
िकन तुमने िकसी मदग को केिल रपहीन होने के कारि किांरा रहते दे िा है ,
रपहीन लडिकयां भी मां-बाप के घर नहीं बैठी रहतीं। िकसी-न-िकसी तरह
उनका िनिाह
ग हो ही जाता है ; उसका पित उप पर पाि ने दे ता हो, लेिकन
दध
ू की मकिी नहीं समझता।
िििपन ने झुंझला कर कहा—कयो नाहक िसर िाती हो, मै तुमसे बहस
तो नहीं कर रहा हूं। िदल पर जब नहीं िकया जा सकता और न दलीलो का
उस पर कोई असर पड सकता है । मै तुमहे कुछ कहता तो नहीं हूं, िफर तुम
कयो मुझसे हुिजत करती हो ?
आशा यह िझडकी सुन कर चली गयी। उसे मालूम हो गया िक इनहोने
मेरी ओर से सदा के िलए हदय कठोर कर िलया है ।

िि
िपन तो रोज सैर-सपाटे करते, कभी-कभी रात को गायब रहते। इधर
आशा िचंता और नैराशय से घुलते-घुलते बीमार पड गयी। लेिकन
िििपन भूल कर भी उसे दे िने न आता, सेिा करना तो दरू रहा। इतना ही
नहीं, िह िदल मे मानता था िक िह मर जाती तो गला छुटता, अबकी िुब
दे िभाल कर अपनी पसंद का िििाह करता।
अब िह और भी िुल िेला। पहले आशा से कुछ दबता था, कम-से-
कम उसे यह धडका लगा रहता था िक कोई मेरी चाल-ढाल पर िनगाह रिने
िाला भी है । अब िह धडका छुट गया। कुिासनाओं मे ऐसा िलप हो गया
िक मरदाने कमरे मे ही जमघटे होने लगे। लेिकन ििषय-भोग मे धन ही का
सिन
ग ाश होता, इससे कहीं अिधक बुिद और बल का सिन
ग ाश होता है । िििपन
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का चेहरा पीला लगा, दे ह भी कीि होने लगी, पसिलयो की हिडडयां िनकल
आयीं आंिो के इदग -िगदग गढे पड गये। अब िह पहले से कहीं ियादा शोक
करता, िनतय तेल लगता, बाल बनिाता, कपडे बदलता, िकनतु मुि पर कांित
न थी, रं ग-रोगन से कया हो सकता ?
एक िदन आशा बरामदे मे चारपाई पर लेटी हुई थी। इधर हफतो से
उसने िििपन को न दे िा था। उनहे दे िने की इचछा हुई। उसे भय था िक
िह सन आयेगे, िफर भी िह मन को न रोक सकी। िििपन को बुला भेजा।
िििपन को भी उस पर कुछ दया आ गयी आ गयी। आकार सामने िडे हो
गये। आशा ने उनके मुंह की ओर दे िा तो चौक पडी। िह इतने दब
ु ल
ग हो
गये थे िक पहचनाना मुिशकल था। बोली—तुम भी बीमार हो कया? तुम तो
मुझसे भी ियादा घुल गये हो।
िििपन—उं ह, िजंदगी मे रिा ही कया है िजसके िलए जीने की िफक
करं !
आशा—जीने की िफक न करने से कोई इतना दब
ु ला नहीं हो जाता।
तुम अपनी कोई दिा कयो नहीं करते?
यह कह कर उसने िििपन का दािहन हाथ पकड कर अपनी चारपाई
पर बैठा िलया। िििपन ने भी हाथ छुडाने की चेिा न की। उनके सिाभाि मे
इस समय एक िििचत नमता थी, जो आशा ने कभी ने दे िी थी। बातो से
भी िनराशा टपकती थी। अकिडपन या कोध की गंध भी न थी। आशा का
ऐसा मालुम हुआ िक उनकी आंिो मे आंसू भरे हुए है ।
िििपन चारपाई पर बैठते हुए बोले—मेरी दिा अब मौत करे गी। मै
तुमहे जलाने के िलए नहीं कहता। ईशर जानता है , मै तुमहे चोट नहीं
पहुंचाना चाहता। मै अब ियादा िदनो तक न िजऊंगा। मुझे िकसी भयंकर
रोग के लकि िदिाई दे रहे है । डाकटर ने भी िही कहा है । मुझे इसका िेद
है िक मेरे हाथो तुमहे कि पहुंचा पर कमा करना। कभी-कभी बैठे-बैठे मेरा
िदल डू ब िदल डू ब जाता है , मूछाग-सी आ जाती है ।
यह कहते-कहते एकाएक िह कांप उठे । सारी दे ह मे सनसनी सी दौड गयी।
मूिछग त हो कर चारपाई पर िगर पडे और हाथ-पैर पटकने लगे।
मुंह से िफचकुर िनकलने लगा। सारी दे ह पसीने से तर हो गयी।
आशा का सारा रोग हिा हो गया। िह महीनो से िबसतर न छोड सकी
थी। पर इस समय उसके िशिथल अंगो मे िििचत सफुित ग दौड गयी। उसने
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तेजी से उठ कर िििपन को अचछी तरह लेटा िदया और उनके मुि पर
पानी के छींटे दे ने लगी। महरी भी दौडी आयी और पंिा झलने लगी। पर भी
िििपन ने आंिे न िोलीं। संधया होते-होते उनका मुंह टे ढा हो गया और
बायां अंग शुनय पड गया। िहलाना तो दरू रहा, मूंह से बात िनकालना भी
मुिशकल हो गया। यह मूछाग न थी, फािलज था।

फा

िलज के भयंकर रोग मे रोगी की सेिा करना आसान काम नहीं
है । उस पर आशा महीनो से बीमार थी। लेिकन उस रोग के
सामने िह पना रोग भूल गई। 15 िदनो तक िििपन की हालत बहुत नाजुक
रही। आशा िदन-के-िदन और रात-की-रात उनके पास बैठी रहती। उनके
िलए पथय बनाना, उनहे गोद मे समभाल कर दिा िपलाना, उनके जरा-जरा से
इशारो को समझाना उसी जैसी धैयशाली सी का काम था। अपना िसर ददग
से फटा करता, ििर से दे ह तपा करती, पर इसकी उसे जरा भी परिा न थी।
१५ िदनो बाद िििपन की हालत कुछ समभली। उनका दािहना पैर तो
लुंज पड गया था, पर तोतली भाषा मे कुछ बोलने लगे थे। सबसे बुरी गत
उनके सुनदर मुि की हुई थी। िह इतना टे ढा हो गया था जैसे कोई रबर के
ििलौने को िींच कर बढा दे । बैटरी की मदद से जरा दे र के िलए बैठे या
िडे तो हो जाते थे; लेिकन चलने−िफरने की ताकत न थी।
एक िदनो लेटे−लेटे उनहे कया खयाल आया। आईना उठा कर अपना
मुंह दे िने लगे। ऐसा कुरप आदमी उनहोने कभी न दे िा था। आिहसता से
बोले−−आशा, ईशर ने मुझे गरर की सजा दे दी। िासति मे मुझे यह उसी
बुराई का बदला िमला है , जो मैने तुमहारे साथ की। अब तुम अगर मेरा मुंह
दे िकर घि
ृ ा से मुंह फेर लो तो मुझेसे उस दवुयि
ग हार का बदला लो, जो मैने,
तुमहारे साथ िकए है ।
आशा ने पित की ओर कोमल भाि से दे िकर कहा−−मै तो आपको
अब भी उसी िनगाह से दे िती हुं। मुझे तो आप मे कोई अनतर नहीं िदिाई
दे ता।

िि
िपन−−िाह, बनदर का−सा मुंह हो गया है , तुम कहती हो िक कोई
अनतर ही नहीं। मै तो अब कभी बाहर न िनकलूग
ं ा। ईशर ने मुझे
सचमुच दं ड िदया।
32
बहुत यत िकए गए पर िििपन का मुंह सीधा न हुआ। मुखय का बायां
भाग इतना टे ढा हो गया था िक चेहरा दे िकर डर मालूम होता था। हां , पैरो
मे इतनी शिक आ गई िक अब िह चलने−िफरने लगे।
आशा ने पित की बीमारी मे दे िी की मनौती की थी। आज उसी की
पुजा का उतसि था। मुहलले की िसयां बनाि−िसंगार िकये जमा थीं।
गाना−बजाना हो रहा था।
एक सेहली ने पुछा−−कयो आशा, अब तो तुमहे उनका मुंह जरा भी
अचछा न लगता होगा।
आशा ने गमभीर होकर कहा−−मुझे तो पहले से कहीं मुह
ं जरा भी
अचछा न लगता होगा।
‘चलो, बाते बनाती हो।’
‘नही बहन, सच कहती हुं; रप के बदले मुझे उनकी आतमा िमल गई
जो रप से कहीं बढकर है ।’
िििपन कमरे मे बैठे हुए थे। कई िमत जमा थे। ताश हो रहा था।
कमरे मे एक ििडकी थी जो आंगन मे िुलती थी। इस िक िह
बनदि थी। एक िमत ने उसे चुपके से िोल िदया। एक िमत ने उसे चुपके
िदया और शीशे से झांक कर िििपन से कहा−− आज तो तुमहारे यहां पािरयो
का अचछा जमघट है ।
िििपन−−बनदा कर दो।
‘अजी जरा दे िो तो: कैसी−कैसी सूरते है ! तुमहे इन सबो मे कौन
सबसे अचछी मालूम होती है ?
िििपन ने उडती हुई नजरो से दे िकर कहा−−मुझे तो िहीं सबसे
अचछी मालूम होती है जो थाल मे फुल रि रही है ।
‘िाह री आपकी िनगाह ! कया सूरत के साथ तुमहारी िनगाह भी िबगड
गई? मुझे तो िह सबसे बदसुरत मालूम होती है ।’
‘इसिलए िक तुम उसकी सूरत दे िते हो और मै उसकी आतमा दे िता
हूं।’
‘अचछा, यही िमसेज िििपन है ?’
‘जी हां, यह िही दे िी है ।

33
उदार

िहं द ू समाज की िैिािहक पथा इतनी दिुषत, इतनी िचंताजनक, इतनी


भयंकर हो गयी है िक कुछ समझ मे नहीं आता, उसका सुधार कयोकर
हो। िबरले ही ऐसे माता−िपता होगे िजनके सात पुतो के बाद एक भी कनया
उतपनन हो जाय तो िह सहष ग उसका सिागत करे । कनया का जनम होते ही
उसके िििाह की िचंता िसर पर सिार हो जाती है और आदमी उसी मे
डु बिकयां िाने लगता है । अिसथा इतनी िनराशमय और भयानक हो गई है
िक ऐसे माता−िपताओं की कमी नहीं है जो कनया की मतृयु पर हदय से
पसनन होते है , मानो िसर से बाधा टली। इसका कारि केिल यही है िक
दे हज की दर, िदन दन
ू ी रात चौगुनी, पािस−काल के जल−गुजरे िक एक या
दो हजारो तक नौबत पहुंच गई है । अभी बहुत िदन नहीं गुजरे िक एक या
दो हजार रपये दहे ज केिल बडे घरो की बात थी, छोटी−छोटी शािदयो पांच
सौ से एक हजार तक तय हो जाती थीं; अब मामुली−मामुली िििाह भी
तीन−चार हजार के नीचे तय नहीं होते । िच ग का तो यह हाल है और
िशिकत समाज की िनधन
ग ता और दिरदता िदन बढती जाती है । इसका अनत
कया होगा ईशर ही जाने। बेटे एक दजन
ग भी हो तो माता−िपता का िचंता
नहीं होती। िह अपने ऊपर उनके िििाह−भार का अिनिाय ग नहीं समझता,
यह उसके िलए ‘कमपलसरी’ ििषय नहीं, ‘आपशनल’ ििषय है । होगा तो कर
दे गे; नही कह दे गे−−बेटा, िाओं कमाओं, कमाई हो तो िििाह कर लेना। बेटो
की कुचिरतता कलंक की बात नहीं समझी जाती; लेिकन कनया का िििाह तो
करना ही पडे गा, उससे भागकर कहां जायेगे ? अगर िििाह मे ििलमब हुआ
और कनया के पांि कहीं ऊंचे नीचे पड गये तो िफर कुटु मब की नाक कट
गयी; िह पितत हो गया, टाट बाहर कर िदया गया। अगर िह इस दघ
ु ट
ग ना
को सफलता के साथ गुप रि सका तब तो कोई बात नहीं; उसको कलंिकत
करने का िकसी का साहस नहीं; लेिकन अभागयिश यिद िह इसे िछपा न
सका, भंडाफोड हो गया तो िफर माता−िपता के िलए, भाई−बंधुओं के िलए
संसार मे मुंह िदिाने को नहीं रहता। कोई अपमान इससे दस
ु सह, कोई
ििपित इससे भीषि नहीं। िकसी भी वयािध की इससे भयंकर कलपना नहीं
की जा सकती। लुतफ तो यह है िक जो लोग बेिटयो के िििाह की
किठनाइयो को भोगा चुके होते है िहीं अपने बेटो के िििाह के अिसर पर
34
िबलकुल भुल जाते है िक हमे िकतनी ठोकरे िानी पडी थीं, जरा भी
सहानुभूित नही पकट करते, बिलक कनया के िििाह मे जो तािान उठाया था
उसे चक−ििृद बयाज के साथ बेटे के िििाह मे िसूल करने पर किटबद हो
जाते है । िकतने ही माता−िपता इसी िचंता मे गहि कर लेता है , कोई बूढे के
गले कनया का मढ कर अपना गला छुडाता है , पात−कुपात के ििचार करने
का मौका कहां, ठे लमठे ल है ।
मुंशी गुलजारीलाल ऐसे ही हतभागे िपताओं मे थे। यो उनकी िसथित
बूरी न थी। दो−ढाई सौ रपये महीने िकालत से पीट लेते थे , पर िानदानी
आदमी थे, उदार हदय, बहुत िकफायत करने पर भी माकूल बचत न हो
सकती थी। समबिनधयो का आदर−सतकार न करे तो नहीं बनता, िमतो की
िाितरदारी न करे तो नही बनता। िफर ईशर के िदये हुए दो पुत थे, उनका
पालन−पोषि, िशकि का भार था, कया करते ! पहली कनया का िििाह टे ढी
िीर हो रहा था। यह आिशयक था िक िििाह अचछे घराने मे हो, अनयथा
लोग हं सेगे और अचछे घराने के िलए कम−से−कम पांच हजार का तिमीना
था। उधर पुती सयानी होती जाती थी। िह अनाज जो लडके िाते थे, िह भी
िाती थी; लेिकन लडको को दे िो तो जैसे सूिो का रोग लगा हो और लडकी
शुकल पक का चांद हो रही थी। बहुत दौड−धूप करने पर बचारे को एक
लडका िमला। बाप आबकारी के ििभाग मे ४०० र० का नौकर था, लडका
सुिशिकत। सी से आकार बोले, लडका तो िमला और घरबार−एक भी काटने
योगय नहीं; पर किठनाई यही है िक लडका कहता है , मै अपना िििाह न
करं गा। बाप ने समझाया, मैने िकतना समझाया, औरो ने समझाया, पर िह
टस से मस नहीं होता। कहता है , मै कभी िििाह न करं गा। समझ मे नहीं
आता, िििाह से कयो इतनी घि
ृ ा करता है । कोई कारि नहीं बतलाता, बस
यही कहता है , मेरी इचछा। मां बाप का एकलौता लडका है । उनकी परम
इचछा है िक इसका िििाह हो जाय, पर करे कया? यो उनहोने फलदान तो रि
िलया है पर मुझसे कह िदया है िक लडका सिभाि का हठीला है , अगर न
मानेगा तो फलदान आपको लौटा िदया जायेगा।
सी ने कहा−−तुमने लडके को एकांत मे बुलािकर पूछा नहीं?
गुलजारीलाल−−बुलाया था। बैठा रोता रहा, िफर उठकर चला गया।
तुमसे कया कहूं, उसके पैरो पर िगर पडा; लेिकन िबना कुछ कहे उठाकर चला
गया।
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सी−−दे िो, इस लडकी के पीछे कया−कया झेलना पडता है ?
गुलजारीलाल−−कुछ नहीं, आजकल के लौडे सैलानी होते है । अंगरे जी
पुसतको मे पढते है िक ििलायत मे िकतने ही लोग अिििािहत रहना ही
पसंद करते है । बस यही सनक सिार हो जाती है िक िनदग द रहने मे ही
जीिन की सुि और शांित है । िजतनी मुसीबते है िह सब िििाह ही मे है ।
मै भी कालेज मे था तब सोचा करता था िक अकेला रहूंगा और मजे से
सैर−सपाटा करं गा।
सी−−है तो िासति मे बात यही। िििाह ही तो सारी मुसीबतो की जड
है । तुमने िििाह न िकया होता तो कयो ये िचंताएं होतीं ? मै भी किांरी रहती
तो चैन करती।



सके एक महीना बाद मुंशी गुलजारीलाल के पास िर ने यह पत
िलिा−−
‘पूियिर,
सादर पिाम।
मै आज बहुत असमंजस मे पडकर यह पत िलिने का साहस कर रहा
हूं। इस धि
ृ ता को कमा कीिजएगा।
आपके जाने के बाद से मेरे िपताजी और माताजी दोनो मुझ पर िििाह करने
के िलए नाना पकार से दबाि डाल रहे है । माताजी रोती है , िपताजी नाराज
होते है । िह समझते है िक मै अपनी िजद के कारि िििाह से भागता हूं।
कदािचता उनहे यह भी सनदे ह हो रहा है िक मेरा चिरत भि हो गया है । मै
िासतििक कारि बताते हुए डारता हूं िक इन लोगो को द ु:ि होगा और
आशय ग नहीं िक शोक मे उनके पािो पर ही बन जाय। इसिलए अब तक
मैने जो बात गुप रिी थी, िह आज िििश होकर आपसे पकट करता हूं और
आपसे सागह िनिेदन करता हूं िक आप इसे गोपनीय समिझएगा और िकसी
दशा मे भी उन लोगो के कानो मे इसकी भनक न पडने दीिजएगा। जो होना
है िह तो होगा है , पहले ही से कयो उनहे शोक मे डु बाऊं। मुझे ५−६ महीनो
से यह अनुभि हो रहा है िक मै कय रोग से गिसत हूं। उसके सभी लकि
पकट होते जाते है । डाकटरो की भी यही राय है । यहां सबसे अनुभिी जो दो
डाकटर है , उन दोनो ही से मैने अपनी आरोगय−परीका करायी और दोनो ही
ने सपि कहा िक तुमहे िसल है । अगर माता−िपता से यह कह दं ू तो िह
36
रो−रो कर मर जायेगे। जब यह िनशय है िक मै संसार मे थोडे ही िदनो का
मेहमान हूं तो मेरे िलए िििाह की कलपना करना भी पाप है । संभि है िक
मै ििशेष पयत करके साल दो साल जीिित रहूं, पर िह दशा और भी
भयंकर होगी, कयोिक अगर कोई संतान हुई तो िह भी मेरे संसकार से
अकाल मतृयु पायेगी और कदािचत ् सी को भी इसी रोग−राकस का भकय
बनना पडे । मेरे अिििािहत रहने से जो बीतेगी, मुझ पर बीतेगी। िििािहत हो
जाने से मेरे साथ और कई जीिो का नाश हो जायगा। इसिलए आपसे मेरी
पाथन
ग ा है िक मुझे इस बनधन मे डालने के िलए आगह न कीिजए, अनयथा
आपको पछताना पडे गा।
सेिक
‘हजारीलाल।’
पत पढकर गुलजारीलाल ने सी की ओर दे िा और बोले−−इस पत के
ििषय मे तुमहारा कया ििचार है ।
सी−−मुझे तो ऐसा मालूम होता है िक उसने बहाना रचा है ।
गुलजारीलाल−−बस−बस, ठीक यही मेरा भी ििचार है । उसने समझा है
िक बीमारी का बहाना कर दंग
ू ा तो आप ही हट जायेगे। असल मे बीमारी
कुछ नहीं। मैने तो दे िा ही था, चेहरा चमक रहा था। बीमार का मुंह िछपा
नहीं रहता।
सी−−राम नाम ले के िििाह करो, कोई िकसी का भागय थोडे ही पढे
बैठा है ।
गुलजारीलाल−−यही तो मै सोच रहा हूं।
सी−−न हो िकसी डाकटर से लडके को िदिाओं । कहीं सचमुच यह
बीमारी हो तो बेचारी अमबा कहीं की न रहे ।
गुलजारीलाल−तुम भी पागल हो कया? सब हीले−हिाले है । इन छोकरो के
िदल का हाल मै िुब जानता हूं। सोचता होगा अभी सैर−सपाटे कर रहा हूं,
िििाह हो जायगा तो यह गुलछरे कैसे उडे गे!
सी−−तो शुभ मुहूत ग दे िकर लगन िभजिाने की तैयारी करो।

हजारीलाल बडे धम−
ग सनदे ह मे था। उसके पैरो मे जबरदसती िििाह की
बेडी डाली जा रही थी और िह कुछ न कर सकता था। उसने ससुर का
अपना कचचा िचटठा कह सुनाया; मगर िकसी ने उसकी बालो पर ििशास न
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िकया। मां−बाप से अपनी बीमारी का हाल कहने का उसे साहस न होता था।
न जाने उनके िदल पर कया गुजरे , न जाने कया कर बैठे? कभी सोचता िकसी
डाकटर की शहदत लेकर ससूर के पास भेज दं ,ू मगर िफर धयान आता, यिद
उन लोगो को उस पर भी ििशास न आया, तो? आजकल डाकटरी से सनद ले
लेना कौन−सा मुिशकल काम है । सोचेगे, िकसी डाकटर को कुछ दे िदलाकर
िलिा िलया होगा। शादी के िलए तो इतना आगह हो रहा था, उधर डाकटरो
ने सपि कह िदया था िक अगर तुमने शादी की तो तुमहारा जीिन−सुत और
भी िनबल
ग हो जाएगा। महीनो की जगह िदनो मे िारा−नयारा हो जाने की
समभािाना है ।
लगन आ चुकी थी। िििाह की तैयािरयां हो रही थीं, मेहमान
आते−जाते थे और हजारीलाल घर से भागा−भागा िफरता था। कहां चला
जाऊं? िििाह की कलपना ही से उसके पाि सूि जाते थे। आह ! उस अबला
की कया गित होगी ? जब उसे यह बात मालूम होगी तो िह मुझे अपने मन
मे कया कहे गी? कौन इस पाप का पायिशत करे गा ? नहीं, उस अबला पर घोर
अतयाचार न करं गा, उसे िैधवय की आग मे न जलाऊंगा। मेरी िजनदगी ही
कया, आज न मरा कल मरं गा, कल नहीं तो परसो, तो कयो न आज ही मर
जाऊं। आज ही जीिन का और उसके साथ सारी िचंताओं को, सारी ििपितयो
का अनत कर दं।ू िपता जी रोयेगे , अममां पाि तयाग दे गी; लेिकन एक
बािलका का जीिन तो सफल हो जाएगा, मेरे बाद कोई अभागा अनाथ तो न
रोयेगा।
कयो न चलकर िपताजी से कह दं ू? िह एक−दो िदन द :ु िी रहे गे,
अममां जी दो−एक रोज शोक से िनराहार रह जायेगीं, कोई िचंता नहीं। अगर
माता−िपता के इतने कि से एक युिती की पाि−रका हो जाए तो कया
छोटी बात है ?
यह सोचकर िह धीरे से उठा और आकर िपता के सामने िडा हो
गया।
रात के दस बज गये थे। बाबू दरबारीलाल चारपाई पर लेटे हुए हुकका
पी रहे थे। आज उनहे सारा िदन दौडते गुजरा था। शािमयाना तय िकया; बाजे
िालो को बयाना िदया; आितशबाजी, फुलिारी आिद का पबनध िकया। घंटो
बाहमिो के साथ िसर मारते रहे , इस िक जरा कमर सीधी कर रहे थे िक
सहसा हजारीलाल को सामने दे िकर चौक पडे । उसका उतरा हुआ चेहरा
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सजल आंिे और कुंिठत मुि दे िा तो कुछ िचंितत होकर बोले−−कयो लालू ,
तबीयत तो अचछी है न? कुछ उदास मालूम होते हो।
हजारीलाल−−मै आपसे कुछ कहना चाहता हूं; पर भय होता है िक कहीं
आप अपसनन न हो।
दरबारीलाल−−समझ गया, िही पुरानी बात है न ? उसके िसिा कोई
दस
ू री बात हो शौक से कहो।
हजारीलाल−−िेद है िक मै उसी ििषय मे कुछ कहना चाहता हूं।
दरबारीलाल−−यही कहना चाहता हो न मुझे इस बनधन मे न डािलए,
मै इसके अयोगय हूं, मै यह भार सह नहीं सकता, बेडी मेरी गदग न को तोड
दे गी, आिद या और कोई नई बात ?
हजारीलाल−−जी नहीं नई बात है । मै आपकी आजा पालन करने के
िलए सब पकार तैयार हूं; पर एक ऐसी बात है , िजसे मैने अब तक िछपाया
था, उसे भी पकट कर दे ना चाहता हूं। इसके बाद आप जो कुछ िनशय करे गे
उसे मै िशरोधायग करं गा।
हजारीलाल ने बडे ििनीत शबदो मे अपना आशय कहा, डाकटरो की राय
भी बयान की और अनत मे बोले−−ऐसी दशा मे मुझे पूरी आशा है िक आप
मुझे िििाह करने के िलए बाधय न करे गे।
दरबारीलाल ने पुत के मुि की और गौर से दे िा, कहे जदी का नाम न था,
इस कथन पर ििशास न आया; पर अपना अििशास िछपाने और अपना
हािदग क शोक पकट करने के िलए िह कई िमनट तक गहरी िचंता मे मगन
रहे । इसके बाद पीिडत कंठ से बोले−−बेटा, इस इशा मे तो िििाह करना और
भी आिशयक है । ईशर न करे िक हम िह बुरा िदन दे िने के िलए जीते रहे ,
पर िििाह हो जाने से तुमहारी कोई िनशानी तो रह जाएगी। ईशर ने कोई
संतान दे दी तो िही हमारे बुढापे की लाठी होगी, उसी का मुंह दे िरे ि कर
िदल को समझायेगे, जीिन का कुछ आधार तो रहे गा। िफर आगे कया होगा,
यह कौन कह सकता है ? डाकटर िकसी की कम−
ग रे िा तो नहीं पढते, ईशर
की लीला अपरमपार है , डाकटर उसे नहीं समझ सकते । तुम िनिशंत होकर
बैठो, हम जो कुछ करते है , करने दो। भगिान चाहे गे तो सब कलयाि ही
होगा।

39
हजारीलाल ने इसका कोई उतर नहीं िदया। आंिे डबडबा आयीं,
कंठािरोध के कारि मुंह तक न िोल सका। चुपके से आकर अपने कमरे मे
लेट रहा।
तीन िदन और गुजर गये, पर हजारीलाल कुछ िनशय न कर सका।
िििाह की तैयािरयो मे रिे जा चुके थे। मंतेयी की पूजा हो चूकी थी और
दार पर बाजो का शोर मचा हुआ था। मुहलले के लडके जमा होकर बाजा
सुनते थे और उललास से इधर−उधर दौडते थे।
संधया हो गयी थी। बरात आज रात की गाडी से जाने िाली थी।
बराितयो ने अपने िसाभूषि पहनने शुर िकये। कोई नाई से बाल बनिाता
था और चाहता था िक ित ऐसा साफ हो जाय मानो िहां बाल कभी थे ही
नहीं, बुढे अपने पके बाल को उिडिा कर जिान बनने की चेिा कर रहे थे।
तेल, साबुन, उबटन की लूट मची हुई थी और हजारीलाल बगीचे मे एक िक

के नीचे उदास बैठा हुआ सोच रहा था, कया करं ?
अिनतम िनशय की घडी िसर पर िडी थी। अब एक कि भी ििलमब
करने का मौका न था। अपनी िेदना िकससे कहे , कोई सुनने िाला न था।
उसने सोचा हमारे माता−िपता िकतने अदरुदशी है , अपनी उमंग मे
इनहे इतना भी नही सूझता िक िधु पर कया गुजरे गी। िधू के माता−िपता
िकतने अदरूशी है , अपनी उमंग मे भी इतने अनधे हो रहे है िक दे िकर भी
नहीं दे िते, जान कर नहीं जानते।
कया यह िििाह है ? कदािप नहीं। यह तो लडकी का कुएं मे डालना है ,
भाड मे झोकना है , कुंद छुरे से रे तना है । कोई यातना इतनी दस
ु सह , कर
अपनी पुती का िैधवय ् के अिगन−कुंड मे डाल दे ते है । यह माता−िपता है ?
कदािप नहीं। यह लडकी के शतु है , कसाई है , बिधक है , हतयारे है । कया इनके
िलए कोई दणड नहीं ? जो जान−बूझ कर अपनी िपय संतान के िुन से
अपने हाथ रं गते है , उसके िलए कोई दणड नहीं? समाज भी उनहे दणड नहीं
दे ता, कोई कुछ नहीं कहता। हाय !
यह सोचकर हजारीलाल उठा और एक ओर चुपचाप चल िदया। उसके
मुि पर तेज छाया हुआ था। उसने आतम−बिलदान से इस कि का िनिारि
करने का दढ संकलप कर िलया था। उसे मतृयु का लेश−मात भी भय न था।
िह उस दशा का पहुंच गया था जब सारी आशाएं मतृयु पर ही अिलिमबत
हो जाती है ।
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उस िदन से िफर िकसी ने हजारीलाल की सूरत नहीं दे िी। मालूम
नहीं जमीन िा गई या आसमान। नािदयो मे जाल डाले गए, कुओं मे बांस
पड गए, पुिलस मे हुिलया गया, समाचार−पतो मे ििजिप िनकाली गई, पर
कहीं पता न चला ।
कई हफतो के बाद, छािनी रे लिे से एक मील पिशम की ओर सडक
पर कुछ हिडडयां िमलीं। लोगो को अनुमान हुआ िक हजारीलाल ने गाडी के
नीचे दबकर जान दी, पर िनिशत रप से कुछ न मालुम हुआ।
भादो का महीना था और तीज का िदन था। घरो मे सफाई हो रही
थी। सौभागयिती रमिियां सोलहो शग
ं ृ ार िकए गंगा−सनान करने जा रही थीं।
अमबा सनान करके लौट आयी थी और तुलसी के कचचे चबूतरे के सामने
िडी िंदना कर रही थी। पितगह
ृ मे उसे यह पहली ही तीज थी, बडी उमंगो
से वत रिा था। सहसा उसके पित ने अनदर आ कर उसे सहास नेतो से
दे िा और बोला−−मुंशी दरबारी लाल तुमहारे कौन होते है , यह उनके यहां से
तुमहारे िलए तीज पठौनी आयी है । अभी डािकया दे गया है ।
यह कहकर उसने एक पासल
ग चारपाई पर रि िदया। दरबारीलाल का
नाम सुनते ही अमबा की आंिे सजल हो गयीं। िह लपकी हुयी आयी और
पासल
ग समिृतयां जीिित हो गयीं, हदय मे हजारीलाल के पित शदा का एक
उद−गार−सा उठ पडा। आह! यह उसी दे िातमा के आतमबिलदान का पुनीत
फल है िक मुझे यह िदन दे िना नसीब हुआ। ईशर उनहे सद−गित दे । िह
आदमी नहीं, दे िता थे, िजसने अपने कलयाि के िनिमत अपने पाि तक
समपि
ग कर िदए।
पित ने पूछा−−दरबारी लाल तुमहारी चचा है ।
अमबा−−हां।
पित−−इस पत मे हजारीलाल का नाम िलिा है , यह कौन है ?
अमबा−−यह मुंशी दरबारी लाल के बेटे है ।
पित−−तुमहारे चचरे भाई ?
अमबा−−नहीं, मेरे परम दयालु उदारक, जीिनदाता, मुझे अथाह जल मे
डु बने से बचाने िाले, मुझे सौभागय का िरदान दे ने िाले।
पित ने इस भाि कहा मानो कोई भूली हुई बात याद आ गई
हो−−आह! मै समझ गया। िासति मे िह मनुषय नहीं दे िता थे।

41
िन िाग स न

परशुराम –िहीं—िहीं दालान मे ठहरो!


मयाद
ग ा—कयो, कया मुझमे कुछ छूत लग गई!
परशुराम—पहले यह बताओं तुम इतने िदनो से कहां रहीं, िकसके साथ रहीं,
िकस तरह रहीं और िफर यहां िकसके साथ आयीं? तब, तब ििचार...दे िी
जाएगी।
मयाद
ग ा—कया इन बातो को पूछने का यही िक है ; िफर अिसर न
िमलेगा?
परशुराम—हां, यही बात है । तुम सनान करके नदी से तो मेरे साथ ही
िनकली थीं। मेरे पीछे -पीछे कुछ दे र तक आयीं भी; मै पीछे िफर-िफर कर
तुमहे दे िता जाता था,िफर एकाएक तुम कहां गायब हो गयीं?
मयाद
ग ा – तुमने दे िा नहीं, नागा साधुओं का एक दल सामने से आ
गया। सब आदमी इधर-उधर दौडने लगे। मै भी धकके मे पडकर जाने िकधर
चली गई। जरा भीड कम हुई तो तुमहे ढू ं ढने लगी। बासू का नाम ले-ले कर
पुकारने लगी, पर तुम न िदिाई िदये।
परशुराम – अचछा तब?
मयाद
ग ा—तब मै एक िकनारे बैठकर रोने लगी, कुछ सूझ ही न पडता
िक कहां जाऊं, िकससे कहूं, आदिमयो से डर लगता था। संधया तक िहीं बैठी
रोती रही।ैै
परशुराम—इतना तूल कयो दे ती हो? िहां से िफर कहां गयीं?
मयाद
ग ा—संधया को एक युिक ने आ कर मुझसे पूछा, तुमहारे क घर के
लोग कहीं िो तो नहीं गए है ? मैने कहा—हां। तब उसने तुमहारा नाम, पता,
िठकाना पूछा। उसने सब एक िकताब पर िलि िलया और मुझसे बोला—मेरे
साथ आओ, मै तुमहे तुमहारे घर भेज दंग
ू ा।
परशुराम—िह आदमी कौन था?
मयाद
ग ा—िहां की सेिा-सिमित का सियंसेिक था।
परशुराम –तो तुम उसके साथ हो लीं?
मयाद
ग ा—और कया करती? िह मुझे सिमित के कायल
ग य मे ले गया।
िहां एक शािमयाने मे एक लमबी दाढीिाला मनुषय बैठा हुआ कुछ िलि रहा
था। िही उन सेिको का अधयक था। और भी िकतने ही सेिक िहां िडे थे।
42
उसने मेरा पता-िठकाना रिजसटर मे िलिकर मुझे एक अलग शािमयाने मे
भेज िदया, जहां और भी िकतनी िोयी हुई िसयो बैठी हुई थीं।
परशुराम—तुमने उसी िक अधयक से कयो न कहा िक मुझे पहुंचा
दीिजए?
पयाद
ग ा—मैने एक बार नहीं सैकडो बार कहा; लेिकन िह यह कहते रहे ,
जब तक मेला न ितम हो जाए और सब िोयी हुई िसयां एकत न हो जाएं,
मै भेजने का पबनध नहीं कर सकता। मेरे पास न इतने आदमी है , न इतना
धन?
परशुराम—धन की तुमहे कया कमी थी, कोई एक सोने की चीज बेच
दे ती तो काफी रपए िमल जाते।
मयाद
ग ा—आदमी तो नहीं थे।
परशुराम—तुमने यह कहा था िक िच ग की कुछ िचनता न कीिजए, मै
अपने गहने बेचकर अदा कर दंग
ू ी?
मयाद
ग ा—सब िसयां कहने लगीं, घबरायी कयो जाती हो? यहां िकस बात
का डर है । हम सभी जलद अपने घर पहुंचना चाहती है ; मगर कया करे ? तब
मै भी चुप हो रही।
परशुराम – और सब िसयां कुएं मे िगर पडती तो तुम भी िगर पडती?
मयाद
ग ा—जानती तो थी िक यह लोग धम ग के नाते मेरी रका कर रहे
है , कुछ मेरे नौकरी या मजूर नहीं है , िफर आगह िकस मुंह से करती? यह
बात भी है िक बहुत-सी िसयो को िहां दे िकर मुझे कुछ तसलली हो गईग ्
परशुराम—हां, इससे बढकर तसकीन की और कया बात हो सकती थी? अचछा,
िहां के िदन तसकीन का आननद उठाती रही? मेला तो दस
ू रे ही िदन उठ
गया होगा?
मयाद
ग ा—रात- भर मै िसयो के साथ उसी शािमयाने मे रही।
परशुराम—अचछा, तुमने मुझे तार कयो न िदलिा िदया?
मयाद
ग ा—मैने समझा, जब यह लोग पहुंचाने की कहते ही है तो तार
कयो दं ?ू
परशुराम—िैर, रात को तुम िहीं रही। युिक बार-बार भीतर आते रहे
होगे?

43
मयाद
ग ा—केिल एक बार एक सेिक भोजन के िलए पूछने आयास था,
जब हम सबो ने िाने से इनकार कर िदया तो िह चला गया और िफर कोई
न आया। मै रात-भर जगती रही।
परशुराम—यह मै कभी न मानूंगा िक इतने युिक िहां थे और कोई
अनदर न गया होगा। सिमित के युिक आकाश के दे िता नहीं होत। िैर, िह
दाढी िाला अधयक तो जरर ही दे िभाल करने गया होगा?
मयाद
ग ा—हां, िह आते थे। पर दार पर से पूछ-पूछ कर लौट जाते थे।
हां, जब एक मिहला के पेट मे ददग होने लगा था तो दो-तीन बार दिाएं
िपलाने आए थे।
परशुराम—िनकली न िही बात!मै इन धूतो की नस-नस पहचानता हूं।
ििशेषकर ितलक-मालाधारी दिढयलो को मै गुर घंटाल ही समझता हूं। तो िे
महाशय कई बार दिाई दे ने गये? कयो तुमहारे पेट मे तो ददग नहीं होने लगा
था.?
मयाद
ग ा—तुम एक साधु पुरष पर आकेप कर रहे हो। िह बेचारे एक तो
मेरे बाप के बराबर थे, दस
ू रे आंिे नीची िकए रहने के िसिाय कभी िकसी पर
सीधी िनगाह नहीं करते थे।
परशुराम—हां, िहां सब दे िता ही दे िता जमा थे। िैर, तुम रात-भर िहां
रहीं। दस
ू रे िदन कया हुआ?
मयाद
ग ा—दस
ू रे िदन भी िहीं रही। एक सियंसेिक हम सब िसयो को
साथ मे लेकर मुखय-मुखय पिित सथानो का दशन
ग कराने गया। दो पहर को
लौट कर सबो ने भोजन िकया।
परशुराम—तो िहां तुमने सैर-सपाटा भी िूब िकया, कोई कि न होने
पाया। भोजन के बाद गाना-बजाना हुआ होगा?
मयाद
ग ा—गाना बजाना तो नहीं, हां, सब अपना-अपना दि
ु डा रोती रहीं,
शाम तक मेला उठ गया तो दो सेिक हम लोगो को ले कर सटे शन पर
आए।
परशुराम—मगर तुम तो आज सातिे िदन आ रही हो और िह भी
अकेली?
मयाद
ग ा—सटे शन पर एक दघ
ु ट
ग ना हो गयी।
परशुराम—हां, यह तो मै समझ ही रहा था। कया दघ
ु ट
ग ना हुई?

44
मयाद
ग ा—जब सेिक िटकट लेने जा रहा था, तो एक आदमी ने आ कर
उससे कहा—यहां गोपीनाथ के धमश
ग ाला मे एक आदमी ठहरे हुए है , उनकी
सी िो गयी है , उनका भला-सास नाम है , गोरे -गोरे लमबे-से िूबसूरत आदमी
है , लिनऊ मकान है , झिाई टोले मे। तुमहारा हुिलया उसने ऐसा ठीक बयान
िकया िक मुझे उसस पर ििशास आ गया। मै सामने आकर बोली, तुम
बाबूजी को जानते हो? िह हं सकर बोला, जानता नहीं हूं तो तुमहे तलाश कयो
करता िफरता हूं। तुमहारा बचचा रो-रो कर हलकान हो रहा है । सब औरते
कहने लगीं, चली जाओं, तुमहारे सिामीजी घबरा रहे होगे। सियंसेिक ने उससे
दो-चार बाते पूछ कर मुझे उसके साथ कर िदया। मुझे कया मालूम था िक
मै िकसी नर-िपशाच के हाथो पडी जाती हूं। िदल मै िुशी थी िकअब बासू
को दे िूंगी तुमहारे दशन
ग करंगी। शायद इसी उतसुकता ने मुझे असािधान
कर िदया।
परशुराम—तो तुम उस आदमी के साथ चल दी? िह कौन था?
मयाद
ग ा—कया बतलाऊं कौन था? मै तो समझती हूं, कोई दलाल था?
परशुराम—तुमहे यह न सूझी िक उससे कहतीं, जा कर बाबू जी को
भेज दो?
मयाद
ग ा—अिदन आते है तो बुिद भि हो जाती है ।
परशुराम—कोई आ रहा है ।
मयाद
ग ा—मै गुसलिाने मे िछपी जाती हूं।
परशुराम –आओ भाभी, कया अभी सोयी नहीं, दस तो बज गए होगे।
भाभी—िासुदेि को दे िने को जी चाहता था भैया, कया सो गया?
परशुराम—हां, िह तो अभी रोते-रोते सो गया।
भाभी—कुछ मयाद
ग ा का पता िमला? अब पता िमले तो भी तुमहारे िकस
काम की। घर से िनकली िसयां थान से छूटी हुई घोडी है । िजसका कुछ
भरोसा नहीं।
परशुराम—कहां से कहां लेकर मै उसे नहाने लगा।
भाभी—होनहार है , भैया होनहार। अचछा, तो मै जाती हूं।
मयाद
ग ा—(बाहर आकर) होनहार नहीं हूं, तुमहारी चाल है । िासुदेि को
पयार करने के बहाने तुम इस घर पर अिधकार जमाना चाहती हो।
परशुराम –बको मत! िह दलाल तुमहे कहां ले गया।
मयाद
ग ा—सिामी, यह न पूिछए, मुझे कहते लिज आती है ।
45
परशुराम—यहां आते तो और भी लिज आनी चािहए थी।
मयाद
ग ा—मै परमातमा को साकी दे ती हूं, िक मैने उसे अपना अंग भी
सपशग नहीं करने िदया।
पराशुराम—उसका हुिलया बयान कर सकती हो।
मयाद
ग ा—सांिला सा छोटे डील डौल काआदमी था।नीचा कुरता पहने हुए
था।
परशुराम—गले मे ताबीज भी थी?
मयाद
ग ा—हां,थी तो।
परशुराम—िह धमश
ग ाले का मेहतर था।मैने उसे तुमहारे गुम हो जाने
की चचाग की थी। िहउस दि
ु ने उसका िह सिांग रचा।
मयाद
ग ा—मुझे तो िह कोई बहि मालूम होता था।
परशुराम—नहीं मेहतर था। िह तुमहे अपने घर ले गया?
मयाद
ग ा—हां, उसने मुझे तांगे पर बैठाया और एक तंग गली मे, एक
छोटे - से मकान के अनदर ले जाकर बोला, तुम यहीं बैठो, मुमहारे बाबूजी यहीं
आयेगे। अब मुझे िििदत हुआ िक मुझे धोिा िदया गया। रोने लगी। िह
आदमी थोडी दे र बाद चला गया और एक बुिढया आ कर मुझे भांित-भांित
के पलोभन दे ने लगी। सारी रात रो-रोकर काटी दस
ू रे िदन दोनो िफर मुझे
समझाने लगे िक रो-रो कर जान दे दोगी, मगर यहां कोई तुमहारी मदद को
न आयेगा। तुमहाराएक घर डू ट गया। हम तुमहे उससे कहीं अचछा घर दे गे
जहां तुम सोने के कौर िाओगी और सोने से लद जाओगी। लब मैने दे िा
िकक यहां से िकसी तरह नहीं िनकल सकती तो मैने कौशल करने का
िनशय िकया।
परशुराम—िैर, सुन चुका। मै तुमहारा ही कहना मान लेता हूं िक तुमने
अपने सतीति की रका की, पर मेरा हदय तुमसे घि
ृ ा करता है , तुम मेरे िलए
िफर िह नहीं िनकल सकती जो पहले थीं। इस घर मे तुमहारे िलए सथान
नहीं है ।
मयाद
ग ा—सिामी जी, यह अनयाय न कीिजए, मै आपकी िही सी हूं
जो पहले थी। सोिचए मेरी दशा कया होगी?
परशुराम—मै यह सब सोच चुका और िनशय कर चुका। आज छ: िदन
से यह सोच रहा हूं। तुम जानती हो िक मुझे समाज का भय नहीं। छूत-
ििचार को मैने पहले ही ितलांजली दे दी, दे िी-दे िताओं को पहले ही ििदा कर
46
चुका:पर िजस सी पर दस
ू री िनगाहे पड चुकी, जो एक सपाह तक न-जाने
कहां और िकस दशा मे रही, उसे अंगीकार करना मेरे िलए असमभि है ।
अगर अनयाय है तो ईशर की ओर से है , मेरा दोष नहीं।
मयाद
ग ा—मेरी िििशमा पर आपको जरा भी दया नहीं आती?
परशुराम—जहां घि
ृ ा है , िहां दया कहां? मै अब भी तुमहारा भरि-पोषि
करने को तैयार हूं।जब तक जीऊगां, तुमहे अनन-िस का कि न होगा पर
तुम मेरी सी नहीं हो सकतीं।
मयाद
ग ा—मै अपने पुत का मुह न दे िूं अगर िकसी ने सपश ग भी िकया
हो।
परशुराम—तुमहारा िकसी अनय पुरष के साथ कि-भर भी एकानत मे
रहना तुमहारे पितवत को नि करने के िलए बहुत है । यह िििचत बंधन है ,
रहे तो जनम-जनमानतर तक रहे : टू टे तो कि-भर मे टू ट जाए। तुमहीं बताओं,
िकसी मुसलमान ने जबरदसती मुझे अपना उिचछट भोलन ििला िदयया
होता तो मुझे सिीकार करतीं?
मयाद
ग ा—िह.... िह.. तो दस
ू री बात है ।
परशुराम—नहीं, एक ही बात है । जहां भािो का समबनध है , िहां तकग
और नयाय से काम नहीं चलता। यहां तक अगर कोई कह दे िक तुमहारे
पानी को मेहतर ने छू िनया है तब भी उसे गहि करने से तुमहे घि
ृ ा
आयेगी। अपने ही िदन से सोचो िक तुमहारे साथ नयाय कर रहा हूं या
अनयाय।
मयाद
ग ा—मै तुमहारी छुई चीजे न िाती, तुमसे पथ
ृ क रहती पर तुमहे
घर से तो न िनकाल सकती थी। मुझे इसिलए न दतुकार रहे हो िक तुम घर
के सिामी हो और िक मै इसका पलन करतजा हूं।
परशुराम—यह बात नहीं है । मै इतना नीच नहीं हूं।
मयाद
ग ा—तो तुमहारा यहीं अितमं िनशय है ?
परशुराम—हां, अंितम।
मयाद
ग ा-- जानते हो इसका पिरिाम कया होगा?
परशुराम—जानता भी हूं और नहीं भी जानता।
मयाद
ग ा—मुझे िासुदेि ले जाने दोगे?
परशुराम—िासुदेि मेरा पुत है ।
मयाद
ग ा—उसे एक बार पयार कर लेने दोगे?
47
परशुराम—अपनी इचछा से नहीं, तुमहारी इचछा हो तो दरू से दे ि
सकती हो।
मयाद
ग ा—तो जाने दो, न दे िूंगी। समझ लूंगी िक ििधिा हूं और बांझ
भी। चलो मन, अब इस घर मे तुमहारा िनबाह नहीं है । चलो जहां भागय ले
जाय।

48
नै रा शय ली ला

पं
िडत हदयनाथ अयोधया के एक सममािनत पुरष थे। धनिान तो नहीं
लेिकन िाने िपने से िुश थे। कई मकान थे, उनही के िकराये पर गुजर
होता था। इधर िकराये बढ गये थे, उनहोने अपनी सिारी भी रि ली थी।
बहुत ििचार शील आदमी थे, अचछी िशका पायी थी। संसार का काफी
तरजुरबा था, पर िकयातमक शिकत ् से विचत थे, सब कुछ न जानते थे।
समाज उनकी आंिो मे एक भयंकर भूत था िजससे सदै ि डरना चािहए। उसे
जरा भी रि िकया तो िफर जाने की िैर नहीं। उनकी सी जागेशरी उनका
पितिबमब, पित के ििचार उसके ििचार और पित की इचछा उसकी इचछा थी,
दोनो पािियो मे कभी मतभेद न होता था। जागेशरी ििि की उपासक थी।
हदयनाथ िैषिि थे, दोनो धमिगनि थे। उससे कहीं अिधक , िजतने समानयत:
िशिकत लोग हुआ करते है । इसका कदािचत ् यह कारि था िक एक कनया
के िसिा उनके और कोई सनतान न थी। उनका िििाह तेरहिे िष ग मे हो
गया था और माता-िपता की अब यही लालसा थी िक भगिान इसे पुतिती
करे तो हम लोग निासे के नाम अपना सब-कुछ िलि िलिाकर िनिशत हो
जाये।
िकनतु ििधाता को कुछ और ही मनजूर था। कैलाश कुमारी का अभी
गौना भी न हुआ था, िह अभी तक यह भी न जानने पायी थी िक िििाह
का आशय कया है िक उसका सोहाग उठ गया। िैधवय ने उसके जीिन की
अिभलाषाओं का दीपक बुझा िदया।
माता और िपता ििलाप कर रहे थे, घर मे कुहराम मचा हुआ
था, पर कैलाशकुमारी भौचककी हो-हो कर सबके मुंह की ओर ताकती थी।
उसकी समझ मे यह न आता था िक ये लोग रोते कयो है । मां बाप की
इकलौती बेटी थी। मां-बाप के अितिरक िह िकसी तीसरे वयिक को उपने
िलए आिशयक न समझती थी। उसकी सुि कलपनाओं मे अभी तक पित
का पिेश न हुआ था। िह समझती थी, सीयां पित के मरने पर इसिलए
राती है िक िह उनका और बचचो का पालन करता है । मेरे घर मे िकस बात
की कमी है ? मुझे इसकी कया िचनता है िक िायेगे कया, पहनेगे कया? मुढरे
िजस चीज की जररत होगी बाबूजी तुरनत ला दे गे, अममा से जो चीज

49
मागूग
ं ी िह दे दे गी। िफर रोऊं कयो?िह अपनी मां को रोते दे िती तो रोती,
पती के शोक से नहीं, मां के पेम से । कभी सोचती, शायद यह लोग इसिलए
रोते है िक कहीं मै कोई ऐसी चीज न मांग बैठूं िजसे िह दे न सके। तो मै
ऐसी चीज मांगग
ू ी ही कयो? मै अब भी तो उन से कुछ नहीं मांगती, िह
आप ही मेरे िलए एक न एक चीज िनतय लाते रहते है ? कया मै अब कुछ
और हो जाऊगीं? इधर माता का यहा हाल था िक बेटी की सूरत दे िते ही
आंिो से आंसू की झडी लग जाती। बाप की दशा और भी करिाजनक थी।
घर मे आना-जाना छोड िदया। िसर पर हाथ धरे कमरे मे अकेले उदास बैठे
रहते। उसे ििशेष द ु:ि इस बात का था िक सहे िलयां भी अब उसके साथ
िेलने न आती। उसने उनके घर लाने की माता से आजा मांगी तो फूट-फूट
कर रोने लगीं माता-िपता की यह दशा दे िी तो उसने उनके सामने जाना
छोड िदया, बैठी िकससे कहािनयां पढा करती। उसकी एकांतिपयता का मां-बाप
ने कुछ और ही अथ ग समझा। लडकी शोक के मारे घुली जाती है , इस
िजाघात ने उसके हदय को टु कडे -टु कडे कर डाला है ।
एक िदन हदयनाथ ने जागेशरी से कहा—जी चाहता है घर छोड कर
कहीं भाग जाऊं। इसका कि अब नहीं दे िा जाता।
जागेशरी—मेरी तो भगिान से यही पाथना ग है िक मुझे संसार से उठा
ले। कहां तक छाती पर पतथर कीस िसल रिूं।
हदयनाथ—िकसी भाितं इसका मन बहलाना चािहए, िजसमे शोकमय
ििचार आने ही न पाये। हम लोगो को द ु:िी और रोते दे ि कर उसका द ु:ि
और भी दारि हो जाता है ।
जागेशरी—मेरी तो बुिद कुछ काम नहीं करती।
हदयनाथ—हम लोग यो ही मातम करते रहे तो लडं की की जान पर
बन जायेगी। अब कभी कभी िथएटर िदिा िदया, कभी घर मे गाना-बजाना
करा िदया। इन बातो से उसका िदल बहलता रहे गा।
जागेशिरी—मै तो उसे दे िते ही रो पडती हूं। लेिकन अब जबत करंगी
तुमहारा ििचार बहुत अचछा है । ििना िदल बहलाि के उसका शोक न दरू
होगा।
हदयनाथ—मै भी अब उससे िदल बहलाने िाली बाते िकया करगां।
कल एक सैरबीं लाऊगा, अचछे -अचछे दशय जमा करगां। गामोफोन तो अज

50
ही मगिाये दे ता हूं। बस उसे हर िक िकसी न िकसी कात मे लगाये रहना
चािहए। एकातंिास शोक-ििाला के िलए समीर के समान है ।
उस िदन से जागेशरी ने कैलाश कुमारी के िलए ििनोद और पमोद के
समान लमा करनेशुर िकये। कैलासी मां के पास आती तो उसकी आंिो मे
आसू की बूंदे न दे िती, होठो पर हं सी की आभा िदिाई दे ती। िह मुसकरा
कर कहती –बेटी, आज िथएटर मे बहुत अचछा तमाशा होने िाला है , चलो
दे ि आये। कभी गंगा-सनान की ठहरती, िहां मां-बेटी िकशती पर बैठकर नदी
मे जल ििहार करतीं, कभी दोनो संधया-समय पाकै की ओर चली जातीं।
धीरे -धीरे सहे िलयां भी आने लगीं। कभी सब की सब बैठकर ताश िेलतीं।
कभी गाती-बजातीं। पिणडत हदय नाथ ने भी ििनोद की सामिगयां जुटायीं।
कैलासी को दे िते ही मगन होकर बोलते—बेटी आओ, तुमहे आज काशमीर के
दशय िदिाऊं: कभी गामोफोन बजाकर उसे सुनाते। कैलासी इन सैर-सपाटो का
िूब आननद उठाती। अतने सुि से उसके िदन कभी न गुजरे थे।


2
स भांित दो िष ग बीत गये। कैलासी सैर-तमाशे की इतनी आिद हो गयी
िक एक िदन भी िथएटर न जाती तो बेकल-ससी होने लगती। मनोरं जन
निीननता का दास है और समानता का शतु। िथएटरो के बाद िसनेमा की
सनक सिार हुई। िसनेमा के बाद िमसमेिरिम और िहपनोिटिम के तमाशो
की सनक सिार हुई। िसनेमा के बाद िमसमेिरिम और िहपनोिटिम के
तमाशो की। गामोफोन के नये िरकाडग आने लगे। संगीत का चसका पड गया।
िबरादरी मे कहीं उतसि होता तो मां-बेटी अिशसय जातीं। कैलासी िनतय इसी
नशे मे डू बी रहती, चलती तो कुछ गुनगुनती हुई, िकसी से बाते करती तो
िही िथएटर की और िसनेमा की। भौितक संसार से अब कोई िासता न था,
अब उसका िनिास कलपना संसार मे था। दस
ू रे लोक की िनिािसन होकर
उसे पािियो से कोई सहानुभूित न रहीं, िकसी के द :ु ि पर जरा दया न
आती। सिभाि मे उचछृंिलता का ििकास हुआ, अपनी सुरिच पर गि ग करने
लगी। सहे िलयो से डींगे मारती, यहां के लोग मूि ग है , यह िसनेमा की कद
कया करे गे। इसकी कद तो पिशम के लोग करते है । िहां मनोरं जन की
सामािगयां उतनी ही आिशयक है िजतनी हिा। जभी तो िे उतने पसनन-
िचत रहते है , मानो िकसी बात की िचंता ही नहीं। यहां िकसी को इसका रस
ही नहीं। िजनहे भगिान ने सामथय ग भी िदया है िह भी सरं शाम से मुह

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ढांक कर पडे रहमे है । सहे िलयां कैलासी की यह गिग-पूि ग बाते सुनतीं और
उसकी और भी पशंसा करतीं। िह उनका अपमान करने के आिेश मे आप
ही हासयासपद बन जाती थी।
पडोिसयो मे इन सैर-सपाटो की चचा ग होने लगी। लोक-सममित िकसी
की िरआयत नहीं करती। िकसी ने िसर पर टोपी टे ढी रिी और पडोिसयो की
आंिो मे िुबा कोई जरा अकड कर चला और पडोिसयो ने अिाजे कसीं।
ििधिा के िलए पूजा-पाठ है , तीथग-वत है , मोटा िाना पहनना है , उसे
ििनोदऔर ििलास, राग और रं ग की कया जररत? ििधाता ने उसके दार बंद
िर िदये है । लडकी पयारी सही, लेिकन शम ग और हया भी कोई चीज होती है ।
जब मां-बाप ही उसे िसर चढाये हुए है तो उसका कया दोष? मगर एक िदन
आंिे िुलेगी अिशय।मिहलाएं कहतीं, बाप तो मदग है , लेिकन मां कैसी है ।
उसको जरा भी ििचार नहीं िक दिुनयां कया कहे गी। कुछ उनहीं की एक
दल
ु ारी बेटी थोडे ही है , इस भांितमन बढाना अचछा नहीं।
कुद िदनो तक तो यह ििचडी आपस मे पकती रही। अंत को एक
िदन कई मिहलाओं ने जागेशरी के घर पदापि
ग िकया। जागेशरी ने उनका
बडा आदर-सतकार िकया। कुछ दे र तक इधर-उधर की बाते करने के बाद
एक मिहला बोली—मिहलाएं रहसय की बाते करने मे बहुत अभयसत होती ह
ैै—बहन, तुमहीं मजे मे हो िक हं सी-िुसी मे िदन काट दे ती हो। हमुं तो िदन
पहाड हो जाता है । न कोई काम न धंधा, कोई कहां तक बाते करे ?
दस
ू री दे िी ने आंिे मटकाते हुए कहा—अरे , तो यह तो बदे की बात है ।
सभी के िदन हं सी-िुंशी से कटे तो रोये कौन। यहां तो सुबह से शाम तक
चककी-चूलहे से छुटटी नहीं िमलती: िकसी बचचे को दसत आ रहे तो िकसी
को ििर चढा हुआ है : कोई िमठाइयो की रट कहा है : तो कोई पैसो के िलए
महानामथ मचाये हुए है । िदन भर हाय-हाय करते बीत जाता है । सारे िदन
कठपुतिलयो की भांित नाचती रहती हूं।
तीसरी रमिी ने इस कथन का रहसयमय भाि से ििरोध िकया—बदे
की बात नहीं, िैसा िदल चािहए। तुमहे तो कोई राजिसंहासन पर िबठा दे तब
भी तसकीन न होगी। तब और भी हाय-हाय करोगी।
इस पर एक िद
ृ ा ने कहा—नौज ऐसा िदल: यह भी कोई िदल है िक
घर मे चाहे आग लग जाय, दिुनया मे िकतना ही उपहास हो रहा हो, लेिकन
आदमी अपने राग-रं ग मे मसत रह। िह िदल है िक पतथर : हम गिृहिी
52
कहलाती है , हमारा काम है अपनी गह
ृ सथी मे रत रहना। आमोद-पमोद मे
िदन काटना हमारा काम नहीं।
और मिहलाओं ने इन िनदग य वयंगय पर लििजत हो कर िसर झुका
िलया। िे जागेशरी की चटु िकयां लेना चाहती थीं। उसके साथ िबलली और
चूहे की िनदग यी कीडा करना चाहती थीं। आहत को तडपाना उनका उदे शय
था। इस िुली हुई चोट ने उनके पर-पीडन पेम के िलए कोई गुज
ं ाइश न
छोडी: िकंतु जागेशरी को ताडना िमल गयी। िसयो के ििदा होने के बाद
उसने जाकर पित से यह सारी कथा सुनायी। हदयनाथ उन पुरषो मे न थे
जो पतयेक अिसर पर अपनी आितमक सिाधीनता का सिांग भरते है ,
हठधमी को आतम-सिातनतय के नाम से िछपाते है । िह सिचनत भाि से
बोले---तो अब कया होगा?
जागेशरी—तुमहीं कोई उपाय सोचो।
हदयनाथ—पडोिसयो ने जो आकेप िकया है िह सिथा ग उिचत है ।
कैलाशकुमारी के सिभाि मे मुझे एक सिििचत अनतर िदिाई दे रहा है । मुझे
सिंम जात हो रहा है िक उसके मन बहलाि के िलए हम लोगो ने जो उपाय
िनकाला है िह मुनािसब नहीं है । उनका यह कथन सतय है िक ििधिाओं के
िलए आमोद-पामोद ििजत
ग है । अब हमे यह पिरपाटी छोडनी पडे गी।
जागेशरी—लेिकन कैलासी तो अन िेल-तमाशो के िबना एक िदन भी
नहीं रह सकती।
हदयनाथ—उसकी मनोििृतयो को बदलना पडे गा।


3
नै:शैने यह ििलोसोलमाद शांत होने लगा। िासना का ितरसकार िकया
जाने लगा। पंिडत जी संधया समय गमोफोन न बजाकर कोई धमग-
गंथ सुनते। सिाधयाय, संसम उपासना मे मां-बेटी रत रहने लगीं। कैलासी को
गुर जी ने दीका दी, मुहलले और िबरादरी की िसयां आयीं, उतसि मनाया
गया।
मां-बेटी अब िकशती पर सैर करने के िलए गंगा न जातीं, बिलक सनान
करने के िलए। मंिदरो मे िनतय जातीं। दोनां एकादशी का िनजल
ग वम रिने
लगीं। कैलासी को गुरजी िनतय संधया-समय धमोपदे श करते। कुछ िदनो
तक तो कैलासी को यह ििचार-पिरित
ग न बहुत किजनक मालूम हुआ, पर

53
धमिगनषा नािरयो का सिाभाििक गुि है , थोडे ही िदनो मे उसे धम ग से रची
हो गयी। अब उसे अपनी अिसथा का जान होने लगा था। ििषय-िासना से
िचत आप ही आप ििंचने लगा। पित का यथाथग आशय समझ मे आने लगा
था। पित ही सी का सचचा पथ पदशक
ग और सचचा सहायक है । पितििहीन
होना िकसी घोर पाप का पायिशत है । मैने पूिग-जनम मे कोई अकम ग िकया
होगा। पितदे ि जीिित होते तो मै िफर माया मे फंस जाती। पायिशत कर
अिसर कहां िमलता। गुरजी का िचन सतय है िक परमातमा ने तुमहे पूिग
कमो के पायिशत का अिसर िदया है । िैधवय यातना नहीं है , जीिोदर का
साधन है । मेरा उदार तयाग, ििराग, भिक और उपासना से होगा।
कुछ िदनो के बाद उसकी धािमक
ग ििृत इतनी पबल हो गयी, िक अनय
पािियो से िह पथ
ृ क् रहने लगी। िकसी को न छूती, महिरयो से दरू रहती,
सहे िलयो से गले तक न िमलती, िदन मे दो-दो तीन-तीन बार सनान करती,
हमेशा कोई न कोई धमग-गनथ पढा करती। साधु –महातमाओं के सेिा-सतकार
मे उसे आितमक सुि पाप होता। जहां िकसी महातमा के आने की िबर
पाती, उनके दशन
ग ो के िलए किकल हो जाती। उनकी अमत
ृ िािी सुनने से जी
न भरता। मन संसार से ििरक होने लगा। तललीनता की अिसथा पाप हो
गयी। घंटो धयान और िचंतन मे मगन रहती। समािजक बंधनो से घि
ृ हो
गयी। घंटो धयान और िचंतन मे मगन रहती। हदय सिािधनता के िलए
लालाियत हो गया: यहां तक िक तीन ही बरसो मे उसने संनयास गहि करने
का िनशय कर िलया।
मां-बाप को यह समाचार जात हुआ ता होश उड गये। मां बोली—बेटी,
अभी तुमहारी उम ही कया है िक तुम ऐसी बाते सोचती हो।
कैलाशकुमारी—माया-मोह से िजतनी जलद िनििृत हो जाय उतना ही
अचछा।
हदयनाथ—कया अपने घर मे रहकर माया-मोह से मुक नहीं हो सकती
हो? माया-मोह का सथान मन है , घर नहीं।
जागेशरी—िकतनी बदनामी होगी।
कैलाशकुमारी—अपने को भगिान ् के चरिो पर अपि
ग कर चुकी तो
बदनामी कया िचंता?
जागेशरी—बेटी, तुमहे न हो , हमको तो है । हमे तो तुमहारा ही सहरा
है । तुमने जो संयास िलया तो हम िकस आधार पर िजयेगे?
54
कैलाशकुमारी—परमातमा ही सबका आधार है । िकसी दस
ू रे पािी का
आशय लेना भूल है ।
दस
ू रे िदन यह बात मुहलले िालो के कानो मे पहुंच गयी। जब कोई
अिसथा असाधय हो जाती है तो हम उस पर वयंग करने लगते है । ‘यह तो
होना ही था, नयी बात कया हुई, लिडिकयो को इस तरह सिछं द नहीं कर
िदया जाता, फूले न समाते थे िक लडकी ने कुल का नाम उिजिल कर
िदया। पुराि पढती है , उपिनषद और िेदांत का पाठ करती है , धािमक

समसयाओं पर ऐसी-ऐसी दलीले करती है िक बडे -बडे ििदानो की जबान बंद
हो जाती है तो अब कयो पछताते है ?’ भद पुरषो मे कई िदनो तक यही
आलोचना हाती रही। लेिकन जैसे अपने बचचे के दौडते-दौडते –धम से िगर
पडने पर हम पहले कोध के आिेश मे उसे िझडिकयां सुनाते है , इसके बाद
गोद मे िबठाकर आंसू पोछते और फुसलाने का लगते है : उसी तरह इन भद
पुरषो ने वयगय के बाद इस गुतथी के सुलझाने का उपाय सोचना शुर
िकया। कई सिजन हदयनाथ के पास आये और िसर झुकाकर बैठ गये।
ििषय का आरमभ कैसे हो?
कई िमनट के बाद एक सिजन ने कहा –ससुना है डाकटर गौड का
पसताि आज बहुमत से सिीकृ त हो गया।
दस
ू रे महाशय बोले—यह लोग िहं द -ू धम ग का सिन
ग ाश करके छोडे गे। कोई
कया करे गा, जब हमारे साधु-महातमा, िहं द -ू जाित के सतंभ है , इतने पितत हो
गए है िक भोली-भाली युिितयो को बहकाने मे संकोच नहीं करते तो
सिन
ग ाश होने मे रह ही कया गया।
हदयनाथ—यह ििपित तो मेरे िसर ही पडी हुई है । आप लोगो को तो
मालूम होगा।
पहले महाशय –आप ही के िसर कयो, हम सभी के िसर पडी हुई है ।
दस
ू रो महाशय –समसत जाित के िसर किहए।
हदयनाथ—उदार का कोई उपाय सोिचए।
पहले महाशय—अपने समझाया नहीं?
हदयनाथ—समझा के हार गया। कुछ सुनती ही नहीं।
तीसरे महाशय—पहले ही भूल हुई। उसे इस रासते पर उतरना ही नहीं
चािहए था।

55
पहले महाशय—उस पर पछताने से कया होगा? िसर पर जो पडी है ,
उसका उपाय सोचना चािहए। आपने समाचार-पतो मे दे िा होगा, कुछ लोगो
की सलाह है िक ििधिाओं से अधयापको का काम लेना चािहए। यदिप मै
इसे भी बहुत अचछा नहीं समझता,पर संनयािसनी बनने से तो कहीं अचछा
है । लडकी अपनी आंिो के सामने तो रहे गी। अिभपाय केिल यही है िक
कोई ऐसा कामा होना चािहए िजसमे लडकी का मन लगे। िकसी अिलमब के
िबना मनुषय को भटक जाने की शंका सदै ि बनी रहती है । िजस घर मे कोई
नहीं रहता उसमे चमगादड बसेरा कर लेते है ।
दस
ू रे महाशय –सलाह तो अचछी है । मुहलले की दस-पांच कनयाएं
पढने के िलए बुला ली जाएं। उनहे िकताबे, गुिडयां आिद इनाम िमलता रहे
तो बडे शौक से आयेगी। लडकी का मन तो लग जायेगा।
हदयनाथ—दे िना चािहए। भरसक समझाऊगां।
ियो ही यह लोग ििदा हुए: हदयनाथ ने कैलाशकुमारी के सामने यह
तजिीज पेश की कैलासी को सुनयसत के उचच पद के सामने अधयािपका
बनना अपमानजनक जान पडता था। कहां िह महातमाओं का सतसंग, िह
पित
ग ो की गुफा, िह सुरमय पाकृ ितक दशय िहिहमरािश की जानमय ियोित,
िह मानसरािर और कैलास की शुभ छटा, िह आतमदशन
ग की ििशाल
कलपनाएं, और कहां बािलकाओं को िचिडयो की भांित पढाना। लेिकन
हदयनाथ कई िदनो तक लगातार से िा धम ग का माहातमय उसके हदय पर
अंिकत करते रहे । सेिा ही िासतििक संनयस है । संनयासी केिल अपनी मुिक
का इचछुक होता है , सेिा वतधरी अपने को परमाथ ग की िेदी पर बिल दे दे ता
है । इसका गौरि कहीं अिधक है । दे िो, ऋिषयो मे दधीिच का जो यश है ,
हिरशंद की जो कीित ग है , सेिा तयाग है , आिद। उनहोने इस कथन की
उपिनषदो और िेदमंतो से पुिि की यहां तक िक धीरे -धीरे कैलासी के ििचारो
मे पिरितन ग होने लगा। पंिडत जी ने मुहलले िालो की लडिकयो को एकत
िकया, पाठशाला का जनम हो गया। नाना पकार के िचत और ििलौने मंगाए।
पंिडत जी सिंय कैलाशकुमारी के साथ लडिकयो को पढाते। कनयाएं शौक से
आतीं। उनहे यहां की पढाई िेल मालूम होता। थोडे ही हदनो मे पाठशाला
की धूम हो गयी, अनय मुहललो की कनयाएं भी आने लगीं।

56
कै
लास कुमारी की सेिा-पििृत िदनो-िदन तीव होने लगी। िदन भर
लडिकयो को िलए रहती: कभी पढाती, कभी उनके साथ िेलती, कभी
सीना-िपरोना िसिाती। पाठशाला ने पिरिार का रप धारि कर िलया। कोई
लडकी बीमार हो जाती तो तुरनत उसके घर जाती, उसकी सेिा-सुशष
ू ा करती,
गा कर या कहािनयां सुनाकर उसका िदल बहलाती।
पाठशाला को िुले हुए साल-भर हुआ था। एक लडकी को, िजससे िह
बहुत पेम करती थी, चेचक िनकल आयी। कैलासी उसे दे िने गई। मां-बाप ने
बहुत मना िकया, पर उसने न माना। कहा, तुरनत लौट आऊंगी। लडकी की
हालत िराब थी। कहां तो रोते-रोते तालू सूिता था, कहां कैलासी को दे िते
ही सारे कि भाग गये। कैलासी एक घंटे तक िहां रही। लडकी बराबर उससे
बाते करती रही। लेिकन जब िह चलने को उठी तो लडकी ने रोना शुर कर
िदया। कैलासी मजबूर होकर बैठ गयी। थोडी दे र बाद िह िफर उठी तो िफर
लडकी की यह दशा हो गयी। लडकी उसे िकसी तरह छोडती ही न थी। सारा
िदन गुजर गया। रात को भी रात को लडकी ने जाने न िदयां। हदयनाथ उसे
बुलाने को बार-बार आदमी भेजते, पर िह लडकी को छोडकर न जा सकती।
उसे ऐसी शंका होती थी िक मै यहां से चली और लडकी हाथ से गयी।
उसकी मां ििमाता थी। इससे कैलासी को उसके ममति पर ििशास न होता
था। इस पकार तीन िदनो तक िह िहां राही। आठो पहर बािलका के
िसरहाने बैठी पंिा झलती रहती। बहुत थक जाती तो दीिार से पीठ टे क
लेती। चौथे िदन लडकी की हालत कुछ संभलती हुई मालूम हुई तो िह अपने
घर आयी। मगर अभी सनान भी न करने पायी थी िक आदमी पहुंचा—जलद
चिलए, लडकी रो-रो कर जान दे रही है ।
हदयनाथ ने कहा—कह दो, असपताल से कोई नसग बुला ले।
कैलसकुमारी-दादा, आप वयथ ग मे झुझलाते है । उस बेचारी की जान बच
जाय, मै तीन िदन नहीं, जीन मिहने उसकी सेिा करने को तैयार हूं। आििर
यह दे ह िकस काम आएगी।
हदयनाथ—तो कनयाएं कैसे पढे गी?
कैलासी—दो एक िदन मे िह अचछी हो जाएगी, दाने मुरझाने लगे है ,
तब तक आप लरा इन लडिकयो की दे िभाल करते रिहएगा।
हदयनाथ—यह बीमारी छूत फैलाती है ।

57
कैलासी—(हं सकर) मर जाऊंगी तो आपके िसर से एक ििपित टल
जाएगी। यह कहकर उसने उधर की राह ली। भोजन की थाली परसी रह
गयी।
तब हदयनाथ ने जागेशरी से कहा---जान पडता है , बहुत जलद यह
पाठशाला भी बनद करनी पडे गी।
जागेशरी—िबना मांझी के नाि पार लगाना बहुत किठन है । िजधर हिा
पाती है , उधर बह जाती है ।
हदयनाथ—जो रासता िनकालता हूं िही कुछ िदनो के बाद िकसी
दलदल मे फंसा दे ता है । अब िफर बदनामी के समान होते नजर आ रहे है ।
लोग कहे गे, लडकी दस
ू रो के घर जाती है और कई-कई िदन पडी रहती है ।
कया करं, कह दं ,ू लडिकयो को न पढाया करो?
जागेशरी –इसके िसिा और हो कया सकता है ।
कैलाशकुमारी दो िदन बाद लौटी तो हदयनाथ ने पाठशाला बंद कर
दे ने की समसया उसके सामने रिी। कैलासी ने तीव सिर से कहा—अगर
आपको बदनामी का इतना भय है तो मुझे ििष दे दीिजए। इसके िसिा
बदनामी से बचने का और कोई उपाय नहीं है ।
हदयनाथ—बेटी संसार मे रहकर तो संसार की-सी करनी पडे गी।
कैलासी तो कुछ मालूम भी तो हो िक संसार मुझसे कया चाहता है ।
मुझमे जीि है , चेतना है , जड कयोकर बन जाऊ। मुझसे यह नहीं हो सकता
िक अपने को अभाहगन, दिुिया समझूं और एक टु कडा रोटी िाकर पडी रहूं।
ऐसा कयो करं? संसार मुझे जो चाहे समझे, मै अपने को अभािगनी नहीं
समझती। मै अपने आतम-सममान की रका आप कर सकती हूं। मै इसे घोर
अपमान समझती हूं िक पग-पग पर मुझ पर शंका की जाए, िनतय कोई
चरिाहो की भांित मेरे पीछे लाठी िलए घूमता रहे िक िकसी िेत मे न जाने
बूडू। यह दशा मेरे िलए असह है ।
यह कहकर कैलाशकुमारी िहां से चली गयी िक कहीं मुंह से अनगल

शबद न िनकल पडे । इधर कुछ िदनो से उसे अपनी बेकसी का यथाथ
ग जान
होने लगा था सी पुरष की िकतली अधीन है , मानो सी को ििधाता ने
इसिलए बनाया है िक पुरषो के अिधन रहं यह सोचकर िह समाज के
अतयाचार पर दांत पीसने लगती थी।

58
पाठशाला तो दस
ू रे िदन बनद हो गयी, िकनतु उसी िदन कैलाशकुमारी
को पुरषो से जलन होने लगी। िजस सुि-भोग से पारबध हमे िंिचत कर
दे ता है उससे हमे दे ष हो जाता है । गरीब आदमी इसीलए तो अमीरो से
जलता है और धन की िननदा करता है । कैलाशी बार-बार झुंझलाित िक सी
कयो पुरष पर इतनी अिलिमबत है ? पुरशष कयो सी के भगय का ििधायक
है ? सी कयो िनतय पुरषो का आशय चाहे , उनका मुंह ताके? इसिलए न िक
िसयो मे अिभमान नहीं है , आतम सममान नहीं है । नारी हदय के कोमल
भाि, उसे कुते का दम
ु िहलाना मालूम होने लगे। पेम कैसा। यह सब ढोग है ,
सी पुरष के अिधन है , उसकी िुशमद न करे , सेिा न करे , तो उसका िनिाह

कैसे हो।
एक िदन उसने अपने बाल गूथ
ं े और जूडे मे एक गुलाब का फूल लगा
िलया। मां ने दे िा तो ओठं से जीभ दबा ली। महिरयो ने छाती पर हाथ
रिे।
इसी तरह एक िदन उसने रं गीन रे शमी साडी पहन ली। पडोिसनो मे
इस पर िूब आलोचनाएं हुई।
उसने एकादशी का वत रिनाउ छोड िदया जो िपछले आठ िषो से
रिमी आयीं थी। कंघी और आइने को िह अब तयािय न समझती थी।
सहालग के िदन आए। िनतय पित उसके दार पर से बराते िनकलतीं ।
मुहलले की िसयां अपनी अटािरयो पर िडी होकर दे िती। िर के रं ग –रप,
आकर-पकार पर िटकाएं होती, जागेशरी से भी िबना एक आि दे िे रहा
नह जाता। लेिकन कैलाशकुमारी कभी भूलकर भी इन जालूसो को न
दे िती। कोई बरात या िििाह की बात चलाता तो िह मुहं फेर लेती। उसकी
दिि मे िह िििाह नहीं, भोली-भाली कनयाओं का िशकार था। बरातो को िह
िशकािरयो के कुते समझती। यह िििाह नहीं बिलदान है ।

ती ज का वत आया। घरो की सफाई होने लगी। रमिियां इस वत को


तैयािरयां करने लगीं। जागेशरी ने भी वत का सामान िकया। नयी-
नयी सािडया मगिायीं। कैलाशकुमारी के ससुराल से इस अिसर पर कपडे ,
िमठाईयां और ििलौने आया करते थे।अबकी भी आए। यह िििािहता िसयो
का वत है । इसका फल है पित का कलयाि। ििधिाएं भी अस वत का
यथेिचत रीित से पालन करती है । ित से उनका समबनध शारीिरक नहीं
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िरन ् आधयाितमक होता है । उसका इस जीिन के साथ अनत नहीं होता,
अनंतकाल तक जीिित रहता है । कैलाशकुमारी अब तक यह वत रिती
आयी थी। अब उसने िनशय िकया मै वत न रिूग
ं ी। मां ने तो माथा ठोक
िलया। बोली—बेटी, यह वत रिना धमग है ।
कैलाशकुमारी-पुरष भी िसयो के िलए कोई वत रिते है ?
जागेशरी—मदो मे इसकी पथा नहीं है ।
कैलाशकुमारी—इसिलए न िक पुरषो की जान उतनी पयारी नही होती
िजतनी िसयो को पुरषो की जान ?
जागेशरी—िसयां पुरषो की बराबरी कैसे कर सकती है ? उनका तो धमग
है अपने पुरष की सेिा करना।
कैलाशकुमारी—मै अपना धम ग नहीं समझती। मेरे िलए अपनी आतमा
की रका के िसिा और कोई धमग नहीं?
जागेशरी—बेटी गजब हो जायेगा, दिुनया कया कहे गी?
कैलाशकुमारी –िफर िही दिुनया? अपनी आतमा के िसिा मुझे िकसी
का भय नहीं।
हदयनाथ ने जागेशरी से यह बाते सुनीं तो िचनता सागर मे डू ब गए।
इन बातो का कया आशय? कया आतम-सममान को भाि जागत हुआ है या
नैरशय की कूर कीडा है ? धनहीन पािी को जब कि-िनिारि का कोई उपाय
नहीं रह जाता तो िह लिजा को तयाग दे ता है । िनससंदेह नैराशय ने यह
भीषि रप धारि िकया है । सामानय दशाओं मे नैराशय अपने यथाथ ग रप मे
आता है , पर गिश
ग ील पािियो मे िह पिरमािजत
ग रप गहि कर लेता है । यहां
पर हदयगत कोमल भािो को अपहरि कर लेता है —चिरत मे असिाभाििक
ििकास उतपनन कर दे ता है —मनुषय लोक-लाज उपिासे और उपहास की ओर
से उदासीन हो जाता है , नैितक बनधन टू ट जाते है । यह नैराशय की अितंम
अिसथा है ।
हदयनाथ इनहीं ििचारो मे मगन थे िक जागेशरी ने कहा –अब कया
करनाउ होगा?
जागेशरी—कोई उपाय है ?
हदयनाथ—बस एक ही उपाय है , पर उसे जबान पर नहीं ला सकता

60
कौ शल

पंिडत बलराम शासी की धमप


ग ती माया को बहुत िदनो से एक हार
की लालसा थी और िह सैकडो ही बार पंिडत जी से उसके िलए आगह कर
चुकी थी, िकनतु पिणडत जी हीला-हिाला करते रहते थे। यह तो साफ-साफ ने
कहते थे िक मेरे पास रपये नही है —इनसे उनके पराकम मे बटटा लगता था
—तकगनाओं की शरि िलया करते थे। गहनो से कुछ लाभ नहीं एक तो धातु
अचछी नहीं िमलती,श ् उस पर सोनार रपसे के आठ-आठ आने कर दे ता है
और सबसे बडी बात यह है िक घर मे गहने रिना चोरो को नेिता दे न है ।
घडी-भर शग
ृ ांर के िलए इतनी ििपित िसर पर लेना मूिो का काम है । बेचारी
माया तकग –शास न पढी थी, इन युिकयो के सामने िनरतर हो जाती थी।
पडोिसनो को दे ि-दे ि कर उसका जी ललचा करता था, पर दि
ु िकससे कहे ।
यिद पिणडत जी ियादा मेहनत करने के योगय होते तो यह मुिशकल आसान
हो जाती । पर िे आलसी जीि थे, अिधकांश समय भोजन और ििशाम मे
वयितत िकया करते थे। पती जी की कटू िकयां सुननी मंजूर थीं, लेिकन िनदा
की माता मे कमी न कर सकते थे।
एक िदन पिणडत जी पाठशाला से आये तो दे िा िक माया के गले मे
सोने का हार ििराज रहा है । हार की चमक से उसकी मुि-ियोित चमक
उठी थी। उनहोने उसे कभी इतनी सुनदर न समझा था। पूछा –यह हार
िकसका है ?
माया बोली—पडोस मे जो बाबूजी रहते है उनही की सी का है ।
आज उनसे िमलने गयी थी, यह हार दे िा , बहुत पसंद आया। तुमहे िदिाने
के िलए पहन कर चली आई। बस, ऐसा ही एक हार मुझे बनिा दो।
पिणडत—दस
ू रे की चीज नाहक मांग लायी। कहीं चोरी हो जाए तो हार
तो बनिाना ही पडे , उपर से बदनामी भी हो।
माया—मैतो ऐसा ही हार लूगी। २० तोले का है ।
पिणडत—िफर िही िजद।
माया—जब सभी पहनती है तो मै ही कयो न पहनूं?
पिणडत—सब कुएं मे िगर पडे तो तुम भी कुएं मे िगर पडोगी। सोचो
तो, इस िक इस हार के बनिाने मे ६०० रपये लगेगे। अगर १ र० पित

61
सैकडा बयाज रििलया जाय ता – िष ग मे ६०० र० के लगभग १००० र० हो
जायेगे। लेिकन ५ िष ग मे तुमहारा हार मुिशकल से ३०० र० का रह जायेगा।
इतना बडा नुकसान उठाकर हार पहनने से कया सुि? सह हार िापस कर दो
, भोजन करो और आराम से पडी रहो। यह कहते हुए पिणडत जी बाहर चले
गये।
रात को एकाएक माया ने शोर मचाकर कहा –चोर,चोर,हाय, घर मे चोर
, मुझे घसीटे िलए जाते है ।
पिणडत जी हकबका कर उठे और बोले –कहा, कहां? दौडो,दौडो।
माया—मेरी कोठारी मे गया है । मैने उसकी परछाई दे िी ।
पिणडत—लालटे न लाओं, जरा मेरी लकडी उठा लेना।
माया—मुझसे तो डर के उठा नहीं जाता।
कई आदमी बाहर से बोले—कहां है पिणडत जी, कोई सेध पडी है कया?
माया—नहीं,नहीं, िपरै ल पर से उतरे है । मेरी नीदं िुली तो कोई मेरे
ऊपर झुका हुआ था। हाय रे , यह तो हार ही ले गया, पहने-पहने सो गई थी।
मुए ने गले से िनकाल िलया । हाय भगिान,
पिणडत—तुमने हार उतार कयां न िदया था?
माया-मै कया जानती थी िक आज ही यह मुसीबत िसर पडने िाली है ,
हाय भगिान ्,
पिणडत—अब हाय-हाय करने से कया होगा? अपने कमो को रोओ।
इसीिलए कहा करता था िक सब घडी बराबर नहीं जाती, न जाने कब कया हो
जाए। अब आयी समझ मे मेरी बात, दे िो, और कुछ तो न ले गया?
पडोसी लालटे न िलए आ पहुंचे। घर मे कोना –कोना दे िा। किरयां
दे िीं, छत पर चढकर दे िा, अगिाडे -िपछिाडे दे िा, शौच गह
ृ मे झाका, कहीं
चोर का पता न था।
एक पडोसी—िकसी जानकार आदमी का काम है ।
दस
ू रा पडोसी—िबना घर के भेिदये के कभी चोरी नहीं होती। और कुछ
तो नहीं ले गया?
माया—और तो कुड नहीं गया। बरतन सब पडे हुए है । सनदक
ू भी
बनद पडे है । िनगोडे को ले ही जाना था तो मेरी चीजे ले जाता । परायी
चीज ठहरी। भगिान ् उनहे कौन मुंह िदिाऊगी।
पिणडत—अब गहने का मजा िमल गया न?
62
माया—हाय, भगिान ्, यह अपजस बदा था।
पिणडत—िकतना समझा के हार गया, तुम न मानीं, न मानीं। बात की
बात मे ६००र० िनकल गए, अब दे िूं भगिान कैसे लाज रिते है ।
माया—अभागे मेरे घर का एक-एक ितनका चुन ले जाते तो मुझे
इतना द ु:ि न होता। अभी बेचारी ने नया ही बनािाया था।
पिणडत—िूब मालूम है , २० तोले का था?
माया—२० ही तोले को तो कहती थी?
पिणडत—बिधया बैठ गई और कया?
माया—कह दंग
ू ी घर मे चोरी हो गयी। कया लेगी? अब उनके िलए कोई
चोरी थोडे ही करने जायेगा।
पिणडत तुमहारे घर से चीज गयी, तुमहे दे नी पडे गी। उनहे इससे कया
पयोजन िक चोर ले गया या तुमने उठाकर रि िलया। पितययेगी ही नही।
माया –तो इतने रपये कहां से आयेगे?
पिणडत—कहीं न कहीं से तो आयेगे ही,नहीं तो लाज कैसे रहे गी: मगर
की तुमने बडी भूल ।
माया—भगिान ् से मंगनी की चीज भी न दे िी गयी। मुझे काल ने
घेरा था, नहीं तो इस घडी भर गले मे डाल लेने से ऐसा कौन-सा बडा सुि
िमल गया? मै हूं ही अभािगनी।
पिणडत—अब पछताने और अपने को कोसने से कया फायदा? चुप हो
के बैठो, पडोिसन से कह दे ना, घबराओं नहीं, तुमहारी चीज जब तक लौटा न
दे गे, तब तक हमे चैन न आयेगा।



िणडत बालकराम को अब िनतय ही िचंता रहने लगी िक िकसी तरह
हार बने। यो अगर टाट उलट दे ते तो कोई बात न थी । पडोिसन को
सनतोष ही करना पडता, बाहि से डाडं कौन लेता , िकनतु पिणडत जी
बाहिति के गौरि को इतने ससते दामो न बेचना चाहते थे। आलसय
छोडं कर धनोपाजन
ग मे दतिचत हो गये।
छ: महीने तक उनहोने िदन को िदन और रात को रात नहीं
जाना। दोपहर को सोना छोड िदया, रात को भी बहुत दे र तक जागते। पहले
केिल एक पाठशाला मे पढाया करते थे। इसके िसिा िह बाहि के िलए
िुले हुए एक सौ एक वयिसायो मे सभी को िनंदिनय समझते थे। अब
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पाठशाला से आकर संधया एक जगह ‘भगित’् की कथा कहने जाते िहां से
लौट कर ११-१२ बजे रात तक जनम कुंडिलयां , िषग-फल आिद बनाया करते।
पात:काल मिनदर मे ‘दग
ु ा ग जी का पाठ करते । माया पिणडत जी का
अधयिसाय दे िकर कभी-कभी पछताती िक कहां से मैने यह ििपित िसर
पर लीं कहीं बीमार पड जाये तो लेने के दे ने पडे । उनका शरीर कीि होते
दे िकर उसे अब यह िचनता वयिथत करने जगी। यहां तक िक पांच महीने
गुजर गये।
एक िदन संधया समय िह िदया-बित करने जा रही थी िक पिणडत जी
आये, जेब से पुिडया िनकाल कर उसके सामने फेक दी और बोले—लो, आज
तुमहारे ऋि से मुक हो गया।
माया ने पुिडया िोली तो उसमे सोने का हार था, उसकी चमक-दमक,
उसकी सुनदर बनािट दे िकर उसके अनत:सथल मे गुदगदी –सी होने लगी ।
मुि पर आननद की आभा दौड गई। उसने कातर नेतो से दे िकर पूछा—िुश
हो कर दे रहे हो या नाराज होकर 1.
पिणडत—इससे कया मतलब? ऋि तो चुकाना ही पडे गा, चाहे िुशी हो
या नािुशी।
माया—यह ऋि नहीं है ।
पिणडत—और कया है , बदला सही।
माया—बदला भी नहीं है ।
पिणडत िफर कया है ।
माया—तुमहारी ..िनशानी?
पिणडत—तो कया ऋि के िलए कोई दस
ू रा हार बनिाना पडे गा?
माया—नहीं-नहीं, िह हार चारी नहीं गया था। मैने झूठ-मूठ शोर
मचाया था।
पिणडत—सच?
माया—हां, सच कहती हूं।
पिणडत—मेरी कसम?
माया—तुमहारे चरि छूकर कहती हूं।
पिणडत—तो तमने मुझसे कौशल िकया था?
माया-हां?
पिणडत—तुमहे मालूम है , तुमहारे कौशल का मुझे कया मूलय दे ना पडा।
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माया—कया ६०० र० से ऊपर?
पिणडत—बहुत ऊपर? इसके िलए मुझे अपने आतमसिातंतय को
बिलदान करना पडा।

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सिगग की द ेिी

भा गय की बात ! शादी िििाह मे आदमी का कया अिखतयार । िजससे


ईशर ने, या उनके नायबो –बहि—ने तय कर दी, उससे हो गयी।
बाबू भारतदास ने लीला के िलए सुयोगय िर िोजने मे कोई बात उठा नही
रिी। लेिकन जैसा घर-घर चाहते थे, िैसा न पा सके। िह लडकी को सुिी
दे िना चाहते थे, जैसा हर एक िपता का धम ग है ; िकंतु इसके िलए उनकी
समझ मे समपित ही सबसे जररी चीज थी। चिरत या िशका का सथान गौि
था। चिरत तो िकसी के माथे पर िलिा नही रहता और िशका का आजकल
के जमाने मे मूलय ही कया ? हां, समपित के साथ िशका भी हो तो कया
पूछना ! ऐसा घर बहुत ढढा पर न िमला तो अपनी ििरादरी के न थे।
िबरादरी भी िमली, तो जायजा न िमला!; जायजा भी िमला तो शते तय न हो
सकी। इस तरह मजबूर होकर भारतदास को लीला का िििाह लाला
सनतसरन के लडके सीतासरन से करना पडा। अपने बाप का इकलौता बेटा
था, थोडी बहुत िशका भी पायी थी, बातचीत सलीके से करता था, मामले-
मुकदमे समझता था और जरा िदल का रं गीला भी था । सबसे बडी बात यह
थी िक रपिान, बिलष, पसनन मुि, साहसी आदमी था ; मगर ििचार िही
बाबा आदम के जमाने के थे। पुरानी िजतनी बाते है , सब अचछी ; नयी
िजतनी बाते है , सब िराब है । जायदाद के ििषय मे जमींदार साहब नये-नये
दफो का वयिहार करते थे, िहां अपना कोई अिखतयार न था ; लेिकन
सामािजक पथाओं के कटटर पकपाती थे। सीतासरन अपने बाप को जो करते
या कहते िही िुद भी कहता था। उसमे िुद सोचने की शिक ही न थी।
बुिद की मंदता बहुधा सामािजक अनुदारता के रप मे पकट होती है ।

ली
ला ने िजस िदन घर मे िॉि
ँ रिा उसी िदन उसकी परीका शुर हुई।
िे सभी काम, िजनकी उसके घर मे तारीफ होती थी यहां ििजत
ग थे।
उसे बचपन से ताजी हिा पर जान दे ना िसिाया गया था, यहां उसके
सामने मुंह िोलना भी पाप था। बचपन से िसिाया गया था रोशनी ही
जीिन है , यहां रोशनी के दशन
ग दभ
ु भ
ग थे। घर पर अिहं सा, कमा और दया
ईशरीय गुि बताये गये थे, यहां इनका नाम लेने की भी सिाधीनता थी।

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संतसरन बडे तीिे, गुससेिर आदमी थे, नाक पर मकिी न बैठने दे ते। धूतत
ग ा
और छल-कपट से ही उनहोने जायदाद पैदा की थी। और उसी को सफल
जीिन का मंत समझते थे। उनकी पती उनसे भी दो अंगुल ऊंची थीं। मजाल
कया है िक बहू अपनी अंधेरी कोठरी के दार पर िडी हो जाय, या कभी छत
पर टहल सके । पलय आ जाता, आसमान िसर पर उठा लेती। उनहे बकने
का मज ग था। दाल मे नमक का जरा तेज हो जाना उनहे िदन भर बकने के
िलए काफी बहाना था । मोटी-ताजी मिहला थी, छींट का घाघरे दार लंहगा
पहने, पानदान बगल मे रिे, गहनो से लदी हुई, सारे िदन बरोठे मे माची पर
बैठीैे रहती थी। कया मजाल िक घर मे उनकी इचछा के ििरद एक पता भी
िहल जाय ! बहू की नयी-नयी आदते दे ि दे ि जला करती थी। अब काहे की
आबर होगी। मुंडेर पर िडी हो कर झांकती है । मेरी लडकी ऐसी दीदा-िदलेर
होती तो गला घोट दे ती। न जाने इसके दे श मे कौन लोग बसते है ! गहने
नही पहनती। जब दे िो नंगी – बुचची बनी बैठी रहती है । यह भी कोई अचछे
लचछन है । लीला के पीछे सीतासरन पर भी फटकार पडती। तुझे भी चॉद
ँ नी
मे सोना अचछा लगता है , कयो ? तू भी अपने को मदग कहता कहे गा ? यह
मदग कैसा िक औरत उसके कहने मे न रहे । िदन-भर घर मे घुसा रहता है ।
मुंह मे जबान नही है ? समझता कयो नही ?
सीतासरन कहता---अममां, जब कोई मेरे समझाने से माने तब तो?
मां---मानेगी कयो नही, तू मदग है िक नही ? मदग िह चािहए िक कडी
िनगाह से दे िे तो औरत कांप उठे ।
सीतासरन -----तुम तो समझाती ही रहती हो ।
मां ---मेरी उसे कया परिाह ? समझती होगी, बुिढया चार िदन मे मर
जायगी तब मै मालिकन हो ही जाउँ गी
सीतासरन --- तो मै भी तो उसकी बातो का जबाब नही दे पाता। दे िती नही
हो िकतनी दब
ु ल
ग हो गयी है । िह रं ग ही नही रहा। उस कोठरी मे पडे -पडे
उसकी दशा िबगडती जाती है ।
बेटे के मुंह से ऐसी बाते सुन माता आग हो जाती और सारे िदन
जलती ; कभी भागय को कोसती, कभी समय को ।
सीतासरन माता के सामने तो ऐसी बाते करता ; लेिकन लीला के
सामने जाते ही उसकी मित बदल जाती थी। िह िही बाते करता था जो
लीला को अचछी लगती। यहां तक िक दोनो िद
ृ ा की हं सी उडाते। लीला को
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इस मे ओर कोई सुि न था । िह सारे िदन कुढती रहती। कभी चूलहे के
सामने न बैठी थी ; पर यहां पसेिरयो आटा थेपना पडता, मजूरो और टहलुओं
के िलए रोटी पकानी पडती। कभी-कभी िह चूलहे के सामने बैठी घंटो रोती।
यह बात न थी िक यह लोग कोई महाराज-रसोइया न रि सकते हो; पर घर
की पुरानी पथा यही थी िक बहू िाना पकाये और उस पथा का िनभाना
जररी था। सीतासरन को दे िकर लीला का संतप हदय एक कि के िलए
शानत हो जाता था।
गमी के िदन थे और सनधया का समय था। बाहर हिा चलती, भीतर
दे ह फुकती थी। लीला कोठरी मे बैठी एक िकताब दे ि रही थी िक सीतासरन
ने आकर कहा--- यहां तो बडी गमी है , बाहर बैठो।
लीला—यह गमी तो उन तानो से अचछी है जो अभी सुनने पडे गे।
सीतासरन—आज अगर बोली तो मै भी िबगड जाऊंगा।
लीला—तब तो मेरा घर मे रहना भी मुिशकल हो जायेगा।
सीतासरन—बला से अलग ही रहे गे !
लीला—मै मर भी लाऊं तो भी अलग रहूं । िह जो कुछ कहती
सुनती है , अपनी समझ से मेरे भले ही के िलए कहती-सुनती है । उनहे
मुझसे कोई दशुमनी थोडे ही है । हां, हमे उनकी बाते अचछी न लगे, यह दस
ू री
बात है ।उनहोने िुद िह सब कि झेले है , जो िह मुझे झेलिाना चाहती है ।
उनके सिासथय पर उन किो का जरा भी असर नही पडा। िह इस ६५ िषग
की उम मे मुझसे कहीं टांठी है । िफर उनहे कैसे मालूम हो िक इन किो से
सिासथय िबगड सकता है ।
सीतासरन ने उसके मुरझाये हुए मुि की ओर करिा नेतो से दे ि कर
कहा—तुमहे इस घर मे आकर बहुत द ु:ि सहना पडा। यह घर तुमहारे योगय
न था। तुमने पूिग जनम मे जरर कोई पाप िकया होगा।
लीला ने पित के हाथो से िेलते हुए कहा—यहां न आती तो तुमहारा
पेम कैसे पाती ?

पां
च साल गुजर गये। लीला दो बचचो की मां हो गयी। एक लडका था,
दस
ू री लडकी । लडके का नाम जानकीसरन रिा गया और लडकी का
नाम कािमनी। दोनो बचचे घर को गुलजार िकये रहते थे। लडकी लडकी दादा
से िहली थी, लडका दादी से । दोनो शोि और शरीर थे। गाली दे बैठना, मुंह
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िचढा दे ना तो उनके िलए मामूली बात थी। िदन-भर िाते और आये िदन
बीमार पडे रहते। लीला ने िुद सभी कि सह िलये थे पर बचचो मे बुरी
आदतो का पडना उसे बहुत बुरा मालूम होता था; िकनतु उसकी कौन सुनता
था। बचचो की माता होकर उसकी अब गिना ही न रही थी। जो कुछ थे
बचचे थे, िह कुछ न थी। उसे िकसी बचचे को डाटने का भी अिधकार न
था, सांस फाड िाती थी।
सबसे बडी आपित यह थी िक उसका सिासथय अब और भी िराब हो
गया था। पसब काल मे उसे िे भी अतयाचार सहने पडे जो अजान, मूित
ग ा
और अंध ििशास ने सौर की रका के िलए गढ रिे है । उस काल-कोठरी मे,
जहॉँ न हिा का गुजर था, न पकाश का, न सफाई का, चारो और दग
ु न
ग ध, और
सील और गनदगी भरी हुई थी, उसका कोमल शरीर सूि गया। एक बार जो
कसर रह गयी िह दस
ू री बार पूरी हो गयी। चेहरा पीला पड गया, आंिे घंस
गयीं। ऐसा मालूम होता, बदन मे िून ही नही रहा। सूरत ही बदल गयी।
गिमय
ग ो के िदन थे। एक तरफ आम पके, दस
ू री तरफ िरबूजे । इन
दोनो फलो की ऐसी अचछी फसल कभी न हुई थी अबकी इनमे इतनी
िमठास न जाने कहा से आयी थी िक िकतना ही िाओ मन न भरे ।
संतसरन के इलाके से आम औरी िरबूजे के टोकरे भरे चले आते थे। सारा
घर िूब उछल-उछल िाता था। बाबू साहब पुरानी हडडी के आदमी थे। सबेरे
एक सैकडे आमो का नाशता करते, िफर पसेरी-भर िरबूज चट कर जाते।
मालिकन उनसे पीछे रहने िाली न थी। उनहोने तो एक िक का भोजन ही
बनद कर िदया। अनाज सडने िाली चीज नही। आज नही कल िच ग हो
जायेगा। आम और िरबूजे तो एक िदन भी नही ठहर सकते। शुदनी थी
और कया। यो ही हर साल दोनो चीजो की रे ल-पेल होती थी; पर िकसी को
कभी कोई िशकायत न होती थी। कभी पेट मे िगरानी मालूम हुई तो हड की
फंकी मार ली। एक िदन बाबू संतसरन के पेट मे मीठा-मीठा ददग होने लगा।
आपने उसकी परिाह न की । आम िाने बैठ गये। सैकडा पूरा करके उठे ही
थे िक कै हुई । िगर पडे िफर तो ितल-ितल करके पर कै और दसत होने
लगे। है जा हो गया। शहर के डाकटर बुलाये गये, लेिकन आने के पहले ही
बाबू साहब चल बसे थे। रोना-पीटना मच गया। संधया होते-होते लाश घर से
िनकली। लोग दाह-िकया करके आधी रात को लौटे तो मालिकन को भी कै
दसत हो रहे थे। िफर दौड धूप शुर हुई; लेिकन सूयग िनकलते-िनकलते िह भी
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िसधार गयी। सी-पुरष जीिनपयत
य एक िदन के िलए भी अलग न हुए थे।
संसार से भी साथ ही साथ गये, सूयास
ग त के समय पित ने पसथान िकया,
सूयोदय के समय पती ने ।
लेिकन मुशीबत का अभी अंत न हुआ था। लीला तो संसकार की
तैयािरयो मे लगी थी; मकान की सफाई की तरफ िकसी ने धयान न िदया।
तीसरे िदन दोनो बचचे दादा-दादी के िलए रोत-रोते बैठक मे जा पंहुचे। िहां
एक आले का िरबूजज कटा हुआ पडा था; दो-तीन कलमी आम भी रिे थे।
इन पर मिकियां िभनक रही थीं। जानकी ने एक ितपाई पर चढ कर दोनो
चीजे उतार लीं और दोनो ने िमलकर िाई। शाम होत-होते दोनो को है जा हो
गया और दोनो मां-बाप को रोता छोड चल बसे। घर मे अंधेरा हो गया। तीन
िदन पहले जहां चारो तरफ चहल-पहल थी, िहां अब सननाटा छाया हुआ था,
िकसी के रोने की आिाज भी सुनायी न दे ती थी। रोता ही कौन ? ले-दे के
कुल दो पािी रह गये थे। और उनहे रोने की सुिध न थी।

ली
ला का सिासथय पहले भी कुछ अचछा न था, अब तो िह और भी
बेजान हो गयी। उठने-बैठने की शिक भी न रही। हरदम िोयी सी
रहती, न कपडे -लते की सुिध थी, न िाने-पीने की । उसे न घर से िासता था,
न बाहर से । जहां बैठती, िही बैठी रह जाती। महीनो कपडे न बदलती, िसर
मे तेल न डालती बचचे ही उसके पािो के आधार थे। जब िही न रहे तो
मरना और जीना बराबर था। रात-िदन यही मनाया करती िक भगिान ् यहां
से ले चलो । सुि-द ु:ि सब भुगत चुकी। अब सुि की लालसा नही है ;
लेिकन बुलाने से मौत िकसी को आयी है ?
सीतासरन भी पहले तो बहुत रोया-धोया; यहां तक िक घर छोडकर
भागा जाता था; लेिकन ियो-ियो िदन गुजरते थे बचचो का शोक उसके िदल
से िमटता था; संतान का द ु:ि तो कुछ माता ही को होता है । धीरे -धीरे
उसका जी संभल गया। पहले की भॉिँत िमतो के साथ हं सी-िदललगी होने
लगी। यारो ने और भी चंग पर चढाया । अब घर का मािलक था, जो चाहे
कर सकता था, कोई उसका हाथ रोकने िाला नही था। सैर’-सपाटे करने
लगा। तो लीला को रोते दे ि उसकी आंिे सजग हो जाती थीं , कहां अब उसे
उदास और शोक-मगन दे िकर झुंझला उठता। िजंदगी रोने ही के िलए तो
नही है । ईशर ने लडके िदये थे, ईशर ने ही छीन िलये। कया लडको के पीछे
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पाि दे दे ना होगा ? लीला यह बाते सुनकर भौचक रह जाती। िपता के मुंह
से ऐसे शबद िनकल सकते है । संसार मे ऐसे पािी भी है ।
होली के िदन थे। मदान
ग ा मे गाना-बजाना हो रहा था। िमतो की दाित
का भी सामान िकया गया था । अंदर लीला जमींन पर पडी हुई रो रही थी
तयाहोर के िदन उसे रोते ही कटते थे आज बचचे बचचे होते तो अचछे - अचछे
कपडे पहने कैसे उछलते िफरते! िही न रहे तो कहां की तीज और कहां के
तयोहार।
सहसा सीतासरन ने आकर कहा – कया िदन भर रोती ही रहोगी ?
जरा कपडे तो बदल डालो , आदमी बन जाओ । यह कया तुमने अपनी गत
बना रिी है ?
लीला—तुम जाओ अपनी महिफल मे बैठो, तुमहे मेरी कया िफक पडी
है ।
सीतासरन—कया दिुनया मे और िकसी के लडके नही मरते ? तुमहारे
ही िसर पर मुसीबत आयी है ?
लीला—यह बात कौन नही जानता। अपना-अपना िदल ही तो है । उस
पर िकसी का बस है ?
सीतासरन मेरे साथ भी तो तुमहारा कुछ कतवगय है ?
लीला ने कुतूहल से पित को दे िा, मानो उसका आशय नही समझी।
िफर मुंह फेर कर रोने लगी।
सीतासरन – मै अब इस मनहूसत का अनत कर दे ना चाहता हूं। अगर
तुमहारा अपने िदल पर काबू नही है तो मेरा भी अपने िदल पर काबू नही
है । मै अब िजंदगी – भर मातम नही मना सकता।
लीला—तुम रं ग-राग मनाते हो, मै तुमहे मना तो नही करती ! मै रोती
हूं तो कयूं नही रोने दे ते।
सीतासरन—मेरा घर रोने के िलए नही है ?
लीला—अचछी बात है , तुमहारे घर मे न रोउं गी।
5

ली
ला ने दे िा, मेरे सिामी मेरे हाथ से िनकले जा रहे है । उन पर ििषय
का भूत सिार हो गया है और कोई समझाने िाला नहीं। िह अपने
होश मे नही है । मै कया करं , अगर मै चली जाती हूं तो थोडे ही िदनो मे
सारा ही घर िमटटी मे िमल जाएगा और इनका िही हाल होगा जो सिाथी

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िमतो के चुग
ं ल मे फंसे हुए नौजिान रईसो का होता है । कोई कुलटा घर मे
आ जाएगी और इनका सिन
ग ाश कर दे गी। ईशा ! मै कया करं ? अगर इनहे
कोई बीमारी हो जाती तो कया मै उस दशा मे इनहे छोडकर चली जाती ?
कभी नही। मै तन मन से इनकी सेिा-सुशष
ू ा करती, ईशर से पाथन
ग ा करती,
दे िताओं की मनौितयां करती। माना इनहे शारीिरक रोग नही है , लेिकन
मानिसक रोग अिशय है । आदमी रोने की जगह हं से और हं सने की जगह
रोये, उसके दीिाने होने मे कया संदेह है ! मेरे चले जाने से इनका सिन
ग ाश हो
जायेगा। इनहे बचाना मेरा धमग है ।
हां, मुझे अपना शोक भूल जाना होगा। रोऊंगी, रोना तो तकदीर मे
िलिा ही है —रोऊंगी, लेिकन हं स-हं स कर । अपने भागय से लडू ं गी। जो जाते
रहे उनके नाम के िसिा और कर ही कया सकती हूं, लेिकन जो है उसे न
जाने दंग
ू ी। आ, ऐ टू टे हुए हदय ! आज तेरे टु कडो को जमा करके एक
समािध बनाऊं और अपने शोक को उसके हिाले कर दं।ू ओ रोने िाली
आंिो, आओ, मेरे आसुंओं को अपनी ििहं िसत छटा मे िछपा लो। आओ, मेरे
आभूषिो, मैने बहुत िदनो तक तुमहारा अपमान िकया है , मेरा अपराध कमा
करो। तुम मेरे भले िदनो के साकी हो, तुमने मेरे साथ बहुत ििहार िकए है ,
अब इस संकट मे मेरा साथ दो ; मगर दे िो दगा न करना ; मेरे भेदो को
िछपाए रिना।
िपछले पहर को पहिफल मे सननाटा हो गया। हू -हा की आिाजे बंद हो
गयी। लीला ने सोचा कया लोग कही चले गये, या सो गये ? एकाएक
सननाटा कयो छा गया। जाकर दहलीज मे िडी हो गयी और बैठक मे
झांककर दे िा, सारी दे ह मे एक ििाला-सी दौड गयी। िमत लोग ििदा हो गये
थे। समािजयो का पता न था। केिल एक रमिी मसनद पर लेटी हुई थी
और सीतासरन सामने झुका हुआ उससे बहुत धीरे -धीरे बाते कर रहा था।
दोनो के चेहरो और आंिो से उनके मन के भाि साफ झलक रहे थे। एक
की आंिो मे अनुराग था, दस
ू री की आंिो मे कटाक ! एक भोला-भोला हदय
एक मायाििनी रमिी के हाथो लुटा जाता था। लीला की समपित को उसकी
आंिो के सामने एक छिलनी चुराये जाती थी। लीला को ऐसा कोध आया
िक इसी समय चलकर इस कुलटा को आडे हाथो लूं, ऐसा दतुकारं िह भी
याद करे , िडे -,िडे िनकाल दं।ू िह पती भाि जो बहुत िदनो से सो रहा था,
जाग उठा और ििकल करने लगा। पर उसने जबत िकया। िेग मे दौडती हुई
72
तषृिाएं अकसमात ् न रोकी जा सकती थी। िह उलटे पांि भीतर लौट आयी
और मन को शांत करके सोचने लगी—िह रप रं ग मे, हाि-भाि मे, निरे -
ितलले मे उस दि
ु ा की बराबरी नही कर सकती। िबलकुल चांद का टु कडा है ,
अंग-अंग मे सफूित ग भरी हुई है , पोर-पोर मे मद छलक रहा है । उसकी आंिो
मे िकतनी तषृिा है । तषृिा नही, बिलक ििाला ! लीला उसी िक आइने के
सामने गयी । आज कई महीनो के बाद उसने आइने मे अपनी सूरत दे िी।
उस मुि से एक आह िनकल गयी। शोक न उसकी कायापलट कर दी थी।
उस रमिी के सामने िह ऐसी लगती थी जैसे गुलाब के सामने जूही का
फूल

सी तासरन का िुमार शाम को टू टा । आिे िुलीं तो सामने लीला को


िडे मुसकरातेदेिा।उसकी अनोिी छिि आंिो मे समा गई। ऐसे िुश
हुए मानो बहुत िदनो के िियोग के बाद उससे भेट हुई हो। उसे कया मालूम
था िक यह रप भरने के िलए िकतने आंसू बहाये है ; कैशो मे यह फूल गूथ
ं ने
के पहले आंिो मे िकतने मोती िपरोये है । उनहोने एक निीन पेमोतसाह से
उठकर उसे गले लगा िलया और मुसकराकर बोले—आज तो तुमने बडे -बडे
शास सजा रिे है , कहां भागूं ?
लीला ने अपने हदय की ओर उं गली िदिकर कहा –-यहा आ बैठो
बहुत भागे िफरते हो, अब तुमहे बांधकर रिूगीं । बाग की बहार का आनंद
तो उठा चुके, अब इस अंधेरी कोठरी को भी दे ि लो।
सीतासरन ने जििजत होकर कहा—उसे अंधेरी कोठरी मत कहो लीला
िह पेम का मानसरोिर है !
इतने मे बाहर से िकसी िमत के आने की िबर आयी। सीताराम चलने
लगे तो लीला ने हाथ उनका पकडकर हाथ कहा—मै न जाने दंग
ू ी।
सीतासरन-- अभी आता हूं।
लीला—मुझे डर है कहीं तुम चले न जाओ।
सीतासरन बाहर आये तो िमत महाशय बोले –आज िदन भर सोते हो
कया ? बहुत िुश नजर आते हो। इस िक तो िहां चलने की ठहरी थी न ?
तुमहारी राह दे ि रही है ।
सीतासरन—चलने को तैयार हूं, लेिकन लीला जाने नहीं दे गीं।

73
िमत—िनरे गाउदी ही रहे । आ गए िफर बीिी के पंजे मे ! िफर िकस
िबरते पर गरमाये थे ?
सीतासरन—लीला ने घर से िनकाल िदया था, तब आशय ढू ढता –
िफरता था। अब उसने दार िोल िदये है और िडी बुला रही है ।
िमत—आज िह आनंद कहां ? घर को लाि सजाओ तो कया बाग हो
जायेगा ?
सीतासरन—भई, घर बाग नही हो सकता, पर सिग ग हो सकता है । मुझे इस
िक अपनी कदता पर िजतनी लिजा आ रही है , िह मै ही जानता हूं। िजस
संतान शोक मे उसने अपने शरीर को घुला डाला और अपने रप-लािणय को
िमटा िदया उसी शोक को केिल मेरा एक इशारा पाकर उसने भुला िदया।
ऐसा भुला िदया मानो कभी शोक हुआ ही नही ! मै जानता हूं िह बडे से बडे
कि सह सकती है । मेरी रका उसके िलए आिशयक है । जब अपनी
उदासीनता के कारि उसने मेरी दशा िबगडते दे िी तो अपना सारा शोक भूल
गयी। आज मैने उसे अपने आभूषि पहनकर मुसकराते हुंए दे िा तो मेरी
आतमा पुलिकत हो उठी । मुझे ऐसा मालूम हो रहा है िक िह सिगग की दे िी
है और केिल मुझ जैसे दब
ु ल
ग पािी की रका करने भेजी गयी है । मैने उसे
कठोर शबद कहे , िे अगर अपनी सारी समपित बेचकर भी िमल सकते, तो
लौटा लेता। लीला िासति मे सिगग की दे िी है !

74
आधार

सा रे गॉि
ँ मे मथुरा का सा गठीला जिान न था। कोई बीस बरस की
उमर थी । मसे भीग रही थी। गउएं चराता, दध
ू पीता, कसरत
करता, कुशती लडता था और सारे िदन बांसुरी बजाता हाट मे ििचरता था।
बयाह हो गया था, पर अभी कोई बाल-बचचा न था। घर मे कई हल की िेती
थी, कई छोटे -बडे भाई थे। िे सब िमलचुलकर िेती-बारी करते थे। मथुरा पर
सारे गॉि
ँ को गि ग था, जब उसे जॉिँघये-लंगोटे , नाल या मुगदर के िलए रपये-
पैसे की जररत पडती तो तुरनत दे िदये जाते थे। सारे घर की यही
अिभलाषा थी िक मथुरा पहलिान हो जाय और अिाडे मे अपने सिाये को
पछाडे । इस लाड – पयार से मथुरा जरा टरा ग हो गया था। गाये िकसी के
िेत मे पडी है और आप अिाडे मे दं ड लगा रहा है । कोई उलाहना दे ता तो
उसकी तयोिरयां बदल जाती। गरज कर कहता, जो मन मे आये कर लो,
मथुरा तो अिाडा छोडकर हांकने न जायेगे ! पर उसका डील-डौल दे िकर
िकसी को उससे उलझने की िहममत न पडती । लोग गम िा जाते
गिमय
ग ो के िदन थे, ताल-तलैया सूिी पडी थी। जोरो की लू चलने लगी
थी। गॉि
ँ मे कहीं से एक सांड आ िनकला और गउओं के साथ हो िलया।
सारे िदन गउओं के साथ रहता, रात को बसती मे घुस आता और िूंटो से
बंधे बैलो को सींगो से मारता। कभी-िकसी की गीली दीिार को सींगो से िोद
डालता, घर का कूडा सींगो से उडाता। कई िकसानो ने साग-भाजी लगा रिी
थी, सारे िदन सींचते-सींचते मरते थे। यह सांड रात को उन हरे -भरे िेतो मे
पहुंच जाता और िेत का िेत तबाह कर दे ता । लोग उसे डं डो से मारते ,
गॉि
ँ के बाहर भगा आते, लेिकन जरा दे र मे गायो मे पहुंच जाता। िकसी की
अकल काम न करती थी िक इस संकट को कैसे टाला जाय। मथुरा का घर
गांि के बीच मे था, इसिलए उसके िेतो को सांड से कोई हािन न पहुंचती
थी। गांि मे उपदि मचा हुआ था और मथुरा को जरा भी िचनता न थी।
आििर जब धैय ग का अंितम बंधन टू ट गया तो एक िदन लोगो ने
जाकर मथुरा को घेरा और बौले—भाई, कहो तो गांि मे रहे , कहीं तो िनकल
जाएं । जब िेती ही न बचेगी तो रहकर कया करे गे .? तुमहारी गायो के पीछे
हमारा सतयानाश हुआ जाता है , और तुम अपने रं ग मे मसत हो। अगर

75
भगिान ने तुमहे बल िदया है तो इससे दस
ू रो की रका करनी चािहए, यह
नही िक सबको पीस कर पी जाओ । सांड तुमहारी गायो के कारि आता है
और उसे भगाना तुमहारा काम है ; लेिकन तुम कानो मे तेल डाले बैठे हो,
मानो तुमसे कुछ मतलब ही नही।
मथुरा को उनकी दशा पर दया आयी। बलिान मनुषय पाय: दयालु
होता है । बोला—अचछा जाओ, हम आज सांड को भगा दे गे।
एक आदमी ने कहा—दरू तक भगाना, नही तो िफर लोट आयेगा।
मथुरा ने कंधे पर लाठी रिते हुए उतर िदया—अब लौटकर न
आयेगा।
2

िच
लिचलाती दोपहरी थी। मथुरा सांड को भगाये िलए जाता था। दोनो
पसीने से तर थे। सांड बार-बार गांि की ओर घूमने की चेिा करता,
लेिकन मथुरा उसका इरादा ताडकर दरू ही से उसकी राह छे क लेता। सांड
कोध से उनमत होकर कभी-कभी पीछे मुडकर मथुरा पर तोड करना चाहता
लेिकन उस समय मथुरा सामाना बचाकर बगल से ताबड-तोड इतनी लािठयां
जमाता िक सांड को िफर भागना पडता कभी दोनो अरहर के िेतो मे दौडते,
कभी झािडयो मे । अरहर की िूिटयो से मथुरा के पांि लहू-लुहान हो रहे थे,
झािडयो मे धोती फट गई थी, पर उसे इस समय सांड का पीछा करने के
िसिा और कोई सुध न थी। गांि पर गांि आते थे और िनकल जाते थे।
मथुरा ने िनशय कर िलया िक इसे नदी पार भगाये िबना दम न लूंगा।
उसका कंठ सूि गया था और आंिे लाल हो गयी थी, रोम-रोम से
िचनगािरयां सी िनकल रही थी, दम उिड गया था ; लेिकन िह एक कि के
िलए भी दम न लेता था। दो ढाई घंटो के बाद जाकर नदी आयी। यही हार-
जीत का फैसला होने िाला था, यही से दोनो ििलािडयो को अपने दांि-पेच
के जौहर िदिाने थे। सांड सोचता था, अगर नदी मे उतर गया तो यह मार
ही डालेगा, एक बार जान लडा कर लौटने की कोिशश करनी चािहए। मथुरा
सोचता था, अगर िह लौट पडा तो इतनी मेहनत वयथ ग हो जाएगी और गांि
के लोग मेरी हं सी उडायेगे। दोनो अपने – अपने घात मे थे। सांड ने बहुत
चाहा िक तेज दौडकर आगे िनकल जाऊं और िहां से पीछे को िफरं , पर
मथुरा ने उसे मुडने का मौका न िदया। उसकी जान इस िक सुई की नोक
पर थी, एक हाथ भी चूका और पाि भी गए, जरा पैर िफसला और िफर

76
उठना नशीब न होगा। आििर मनुषय ने पशु पर ििजय पायी और सांड को
नदी मे घुसने के िसिाय और कोई उपाय न सूझा। मथुरा भी उसके पीछे
नदी मे पैठ गया और इतने डं डे लगाये िक उसकी लाठी टू ट गयी।



ब मथुरा को जोरो से पयास लगी। उसने नदी मे मुंह लगा िदया और
इस तरह हौक-हौक कर पीने लगा मानो सारी नदी पी जाएगा। उसे
अपने जीिन मे कभी पानी इतना अचछा न लगा था और न कभी उसने
इतना पानी पीया था। मालूम नही, पांच सेर पी गया या दस सेर लेिकन
पानी गरम था, पयास न बुंझी ; जरा दे र मे िफर नदी मे मुंह लगा िदया और
इतना पानी पीया िक पेट मे सांस लेने की जगह भी न रही। तब गीली
धोती कंधे पर डालकर घर की ओर चल िदया।
लेिकन दस की पांच पग चला होगा िक पेट मे मीठा-मीठा ददग होने
लगा। उसने सोचा, दौड कर पानी पीने से ऐसा ददग अकसर हो जाता है , जरा
दे र मे दरू हो जाएगा। लेिकन ददग बढने लगा और मथुरा का आगे जाना
किठन हो गया। िह एक पेड के नीचे बैठ गया और ददग से बैचेन होकर
जमीन पर लोटने लगा। कभी पेट को दबाता, कभी िडा हो जाता कभी बैठ
जाता, पर ददग बढता ही जाता था। अनत मे उसने जोर-जोर से कराहना और
रोना शुर िकया; पर िहां कौन बैठा था जो, उसकी िबर लेता। दरू तक कोई
गांि नही, न आदमी न आदमजात। बेचारा दोपहरी के सननाटे मे तडप-तडप
कर मर गया। हम कडे से कडा घाि सह सकते है लेिकन जरा सा-भी
वयितकम नही सह सकते। िही दे ि का सा जिान जो कोसो तक सांड को
भगाता चला आया था, ततिो के ििरोध का एक िार भी न सह सका। कौन
जानता था िक यह दौड उसके िलए मौत की दौड होगी ! कौन जानता था
िक मौत ही सांड का रप धरकर उसे यो नचा रही है । कौरन जानता था िक
जल िजसके िबना उसके पाि ओठो पर आ रहे थे, उसके िलए ििष का काम
करे गा।
संधया समय उसके घरिाले उसे ढू ं ढते हुए आये। दे िा तो िह अनंत
ििशाम मे मगन था।



क महीना गुजर गया। गांििाले अपने काम-धंधे मे लगे । घरिालो ने
रो-धो कर सब िकया; पर अभािगनी ििधिा के आंसू कैसे पुछ
ं ते । िह
77
हरदम रोती रहती। आंिे चांहे बनद भी हो जाती, पर हदय िनतय रोता रहता
था। इस घर मे अब कैसे िनिाह
ग होगा ? िकस आधार पर िजऊंगी ? अपने
िलए जीना या तो महातमाओं को आता है या लमपटो ही को । अनूपा को
यह कला कया मालूम ? उसके िलए तो जीिन का एक आधार चािहए था,
िजसे िह अपना सिस
ग ि समझे, िजसके िलए िह िलये, िजस पर िह घमंड
करे । घरिालो को यह गिारा न था िक िह कोई दस
ू रा घर करे । इसमे
बदनामी थी। इसके िसिाय ऐसी सुशील, घर के कामो मे कुशल, लेन-दे न के
मामलो मे इतनी चतुर और रं ग रप की ऐसी सराहनीय सी का िकसी दस
ू रे
के घर पड जाना ही उनहे असहय था। उधर अनूपा के मैककिाले एक जगह
बातचीत पककी कर रहे थे। जब सब बाते तय हो गयी, तो एक िदन अनूपा
का भाई उसे ििदा कराने आ पहुंचा ।
अब तो घर मे िलबली मची। इधर कहा गया, हम ििदा न करे गे ।
भाई ने कहा, हम िबना ििदा कराये मानेगे नही। गांि के आदमी जमा हो
गये, पंचायत होने लगी। यह िनशय हुआ िक अनूपा पर छोड िदया जाय, जी
चाहे रहे । यहां िालो को ििशास था िक अनूपा इतनी जलद दस
ू रा घर करने
को राजी न होगी, दो-चार बार ऐसा कह भी चुकी थी। लेिकन उस िक जो
पूछा गया तो िह जाने को तैयार थी। आििर उसकी ििदाई का सामान होने
लगा। डोली आ गई। गांि-भर की िसया उसे दे िने आयीं। अनूपा उठ कर
अपनी सांस के पैरो मे िगर पडी और हाथ जोडकर बोली—अममा, कहा-सुनाद
माफ करना। जी मे तो था िक इसी घर मे पडी रहूं, पर भगिान को मंजरू
नही है ।
यह कहते-कहते उसकी जबान बनद हो गई।
सास करिा से ििहिल हो उठी। बोली—बेटी, जहां जाओं िहां सुिी
रहो। हमारे भागय ही फूट गये नही तो कयो तुमहे इस घर से जाना पडता।
भगिान का िदया और सब कुछ है , पर उनहोने जो नही िदया उसमे अपना
कया बस ; बस आज तुमहारा दे िर सयाना होता तो िबगडी बात बन जाती।
तुमहारे मन मे बैठे तो इसी को अपना समझो : पालो-पोसो बडा हो जायेगा
तो सगाई कर दंग
ू ी।
यह कहकर उसने अपने सबसे छोटे लडके िासुदेि से पूछा—कयो रे !
भौजाई से शादी करे गा ?

78
िासुदेि की उम पांच साल से अिधक न थी। अबकी उसका बयाह होने िाला
था। बातचीत हो चुकी थी। बोला—तब तो दस
ू रे के घर न जायगी न ?
मा—नही, जब तेरे साथ बयाह हो जायगी तो कयो जायगी ?
िासुदेि-- तब मै करंगा
मां—अचछा, उससे पूछ, तुझसे बयाह करे गी।
िासुदेि अनूप की गोद मे जा बैठा और शरमाता हुआ बोला—हमसे
बयाह करोगी ?
यह कह कर िह हं सने लगा; लेिकन अनूप की आंिे डबडबा गयीं,
िासुदेि को छाती से लगाते हुए बोली ---अममा, िदल से कहती हो ?
सास—भगिान ् जानते है !
अनूपा—आज यह मेरे हो गये ?
सास—हां सारा गांि दे ि रहा है ।
अनूपा—तो भैया से कहला भैजो, घर जाये, मै उनके साथ न जाऊंगी।
अनूपा को जीिन के िलए आधार की जररत थी। िह आधार िमल
गया। सेिा मनुषय की सिाभाििक ििृत है । सेिा ही उस के जीिन का आधार
है ।
अनूपा ने िासुदेि को लालन-पोषि शुर िकया। उबटन और तैल
लगाती, दध
ू -रोटी मल-मल के ििलाती। आप तालाब नहाने जाती तो उसे भी
नहलाती। िेत मे जाती तो उसे भी साथ ले जाती। थौडे की िदनो मे उससे
िहल-िमल गया िक एक कि भी उसे न छोडता। मां को भूल गया। कुछ
िाने को जी चाहता तो अनूपा से मांगता, िेल मे मार िाता तो रोता हुआ
अनूपा के पास आता। अनूपा ही उसे सुलाती, अनूपा ही जगाती, बीमार हो तो
अनूपा ही गोद मे लेकर बदलू िैध के घर जाती, और दिाये िपलाती।
गांि के सी-पुरष उसकी यह पेम तपसया दे िते और दांतो उं गली
दबाते। पहले िबरले ही िकसी को उस पर ििशास था। लोग समझते थे, साल-
दो-साल मे इसका जी ऊब जाएगा और िकसी तरफ का रासता लेगी; इस
दध
ु मुंहे बालक के नाम कब तक बैठी रहे गी; लेिकन यह सारी आशंकाएं
िनमूल ग िनकलीं। अनूपा को िकसी ने अपने वत से ििचिलत होते न दे िा।
िजस हदय मे सेिा को सोत बह रहा हो—सिाधीन सेिा का—उसमे िासनाओं
के िलए कहां सथान ? िासना का िार िनमम
ग , आशाहीन, आधारहीन पािियो
पर ही होता है चोर की अंधेरे मे ही चलती है , उजाले मे नही।
79
िासुदेि को भी कसरत का शोक था। उसकी शकल सूरत मथुरा से
िमलती-जुलती थी, डील-डौल भी िैसा ही था। उसने िफर अिाडा जगाया।
और उसकी बांसुरी की ताने िफर िेतो मे गूजने लगीं।
इस भाँित १३ बरस गुजर गये। िासुदेि और अनूपा मे सगाई की
तैयारी होने लगीं।

ले
िकन अब अनूपा िह अनूपा न थी, िजसने १४ िष ग पहले िासुदेि को
पित भाि से दे िा था, अब उस भाि का सथान मातभ
ृ ाि ने िलया था।
इधर कुछ िदनो से िह एक गहरे सोच मे डू बी रहती थी। सगाई के िदन
ियो-ियो िनकट आते थे, उसका िदल बैठा जाता था। अपने जीिन मे इतने
बडे पिरितन
ग की कलपना ही से उसका कलेजा दहक उठता था। िजसे
बालक की भॉित पाला-पोसा, उसे पित बनाते हुए, लिजा से उसका मुंि लाल
हो जाता था।
दार पर नगाडा बज रहा था। िबरादरी के लोग जमा थे। घर मे गाना
हो रहा था ! आज सगाई की ितिथ थी :
सहसा अनूपा ने जा कर सास से कहा—अममां मै तो लाज के मारे
मरी जा रही हूं।
सास ने भौचककी हो कर पूछा—कयो बेटी, कया है ?
अनूपा—मै सगाई न करंगी।
सास—कैसी बात करती है बेटी ? सारी तैयारी हो गयी। लोग सुनेगे तो
कया कहे गे ?
अनूपा—जो चाहे कहे , िजनके नाम पर १४ िष ग बैठी रही उसी के नाम
पर अब भी बैठी रहूंगी। मैने समझा था मरद के िबना औरत से रहा न
जाता होगा। मेरी तो भगिान ने इिजत आबर िनबाह दी। जब नयी उम के
िदन कट गये तो अब कौन िचनता है ! िासुदेि की सगाई कोई लडकी
िोजकर कर दो। जैसे अब तक उसे पाला, उसी तरह अब उसके बाल-बचचो
को पालूंगी।

80
एक आ ंच की कस र

सा रे नगर मे महाशय यशोदाननद का बिान हो रहा था। नगर ही मे


नही, समसत पानत मे उनकी कीित ग की जाती थी, समाचार पतो मे
िटपपिियां हो रही थी, िमतो से पशंसापूि ग पतो का तांता लगा हुआ था।
समाज-सेिा इसको कहते है ! उननत ििचार के लोग ऐसा ही करते है ।
महाशय जी ने िशिकत समुदाय का मुि उिजिल कर िदया। अब कौन यह
कहने का साहस कर सकता है िक हमारे नेता केिल बात के धनी है , काम
के धनी नही है ! महाशय जी चाहते तो अपने पुत के िलए उनहे कम से कम
बीज हतार रपये दहे ज मे िमलते, उस पर िुशामद घाते मे ! मगर लाला
साहब ने िसदांत के सामने धन की रती बराबर परिा न की और अपने पुत
का िििाह िबना एक पाई दहे ज िलए सिीकार िकया। िाह ! िाह ! िहममत हो
तो ऐसी हो, िसदांत पेम हो तो ऐसा हो, आदशग-पालन हो तो ऐसा हो । िाह रे
सचचे िीर, अपनी माता के सचचे सपूत, तूने िह कर िदिाया जो कभी िकसी
ने िकया था। हम बडे गिग से तेरे सामने मसतक निाते है ।
महाशय यशोदाननद के दो पुत थे। बडा लडका पढ िलि कर फािजल
हो चुका था। उसी का िििाह तय हो रहा था और हम दे ि चुके है , िबना
कुछ दहे ज िलये।
आज का ितलक था। शाहजहांपरु सिामीदयाल ितलक ले कर आने
िाले थे। शहर के गिमानय सिजनो को िनमनति दे िदये गये थे। िे लोग
जमा हो गये थे। महिफल सजी7 हुई थी। एक पिीि िसतािरया अपना कौशल
िदिाकर लोगो को मुगध कर रहा था। दाित को सामान भी तैयार था ?
िमतगि यशोदाननद को बधाईयां दे रहे थे।
एक महाशय बोले—तुमने तो कमाल कर िदया !
दस
ू रे —कमाल ! यह किहए िक झणडे गाड िदये। अब तक िजसे दे िा
मंच पर वयाखयान झाडते ही दे िा। जब काम करने का अिसर आता था तो
लोग दम
ु लगा लेते थे।
तीसरे —कैसे-कैसे बहाने गढे जाते है —साहब हमे तो दहे ज से सखत
नफरत है यह मेरे िसदांत के ििरद है , पर कया करं कया, बचचे की

81
अममीजान नहीं मानती। कोई अपने बाप पर फेकता है , कोई और िकसी
िराट
ग पर।
चौथे—अजी, िकतने तो ऐसे बेहया है जो साफ-साफ कह दे ते है िक
हमने लडके को िशका – दीका मे िजतना िच ग िकया है , िह हमे िमलना
चािहए। मानो उनहोने यह रपये उनहोन िकसी बैक मे जमा िकये थे।
पांचिे—िूब समझ रहा हूं, आप लोग मुझ पर छींटे उडा रहे है ।
इसमे लडके िालो का ही सारा दोष है या लडकी िालो का भी कुछ है ।
पहले—लडकी िालो का कया दोष है िसिा इसके िक िह लडकी का
बाप है ।
दस
ू रे —सारा दोष ईशर का िजसने लडिकयां पैदा कीं । कयो ?
पांचिे—मै चयह नही कहता। न सारा दोष लडकी िालो का है , न सारा
दोष लडके िालो का। दोनो की दोषी है । अगर लडकी िाला कुछ न दे तो
उसे यह िशकायत करने का कोई अिधकार नही है िक डाल कयो नही लाये,
सुंदर जोडे कयो नही लाये, बाजे-गाजे पर धूमधाम के साथ कयो नही आये ?
बताइए !
चौथे—हां, आपका यह पश गौर करने लायक है । मेरी समझ मे तो
ऐसी दशा मे लडके के िपता से यह िशकायत न होनी चािहए।
पांचिे---तो यो किहए िक दहे ज की पथा के साथ ही डाल, गहने और
जोडो की पथा भी तयािय है । केिल दहे ज को िमटाने का पयत करना वयथग
है ।
यशोदाननद----यह भी Lame excuse1 है । मैने दहे ज नही िलया है ।,
लेिकन कया डाल-गहने ने ले जाऊंगा।
पहले---महाशय आपकी बात िनराली है । आप अपनी िगनती हम
दिुनयां िालो के साथ कयो करते है ? आपका सथान तो दे िताओं के साथ है ।
दस
ू रा----20 हजार की रकम छोड दी ? कया बात है ।
______________________
१------थोथी दलील

यशोदाननद---मेरा तो यह िनशय है िक हमे सदै ि principles 1


पर
िसथर रहना चािहए। principal 2 के सामने money3 की कोई value4 नही है ।
दहे ज की कुपथा पर मैने िुद कोई वयाखयान नही िदया, शायद कोई नोट

82
तक नही िलिा। हां, conference5 मे इस पसताि को second6 कर चुका हूं। मै
उसे तोडना भी चाहूं तो आतमा न तोडने दे गी। मै सतय कहता हूं, यह रपये
लूं तो मुझे इतनी मानिसक िेदना होगी िक शायद मै इस आघात स बच ही
न सकूं।
पांचिे---- अब की conference आपको सभापित न बनाये तो उसका
घोर अनयाय है ।
यशोदाननद—मैने अपनी duty 7 कर दीउसका recognition8 हो या न हो,
मुझे इसकी परिाह नही।
इतने मे िबर हुई िक महाशय सिामीदयाल आ पंहुचे । लोग उनका
अिभिादन करने को तैयार हुए, उनहे मसनद पर ला िबठाया और ितलक का
संसकार आरं मभ हो गया। सिामीदयाल ने एक ढाक के पतल पर नािरयल,
सुपारी, चािल पान आिद िसतुएं िर के सामने रिीं। बाहमिो ने मंत पढे
हिन हुआ और िर के माथे पर ितलक लगा िदया गया। तुरनत घर की
िसयो ने मंगलाचरि गाना शुर िकया। यहां पहिफल मे महाशय यशोदाननद
ने एक चौकी पर िडे होकर दहे ज की कुपथा पर वयाखयान दे ना शुर
िकया। वयाखयान पहले से िलिकर तैयार कर िलया गया था। उनहोने दहे ज
की ऐितहािसक वयाखया की थी।
पूिक
ग ाल मे दहे ज का नाम भी न थ। महाशयो ! कोई जानता ही न था िक
दहे ज या ठहरोनी िकस िचिडया का नाम है । सतय मािनए, कोई जानता ही न
था िक ठहरौनी है कया चीज, पशु या पकी, आसमान मे या जमीन मे, िाने
मे या पीने मे । बादशाही जमाने मे इस पथा की बुंिनयाद पडी। हमारे
युिक सेनाओं मे सिममिलत होने लगे । यह िीर लोग थे, सेनाओं मे जाना
गि ग समझते थे। माताएं अपने दल
ु ारो को अपने हाथ से शसो से सजा कर
रिकेत भेजती थीं। इस भॉिँत युिको की संखया कम होने लगी और लडको
का मोल-तोल शुर हुआ। आज यह नौित आ गयी है िक मेरी इस तुचछ –
महातुचछ सेिा पर पतो मे िटपपिियां हो रही है मानो मैने कोई असाधारि
काम िकया है । मै कहता हूं ; अगर आप संसार मे जीिित रहना चाहते हो तो
इस पथा क तुरनत अनत कीिजए।
---------------------------------------
१----िसदांतो । २----िसदांत 3-----धन । 4-----मूलय ।
5--- सभा । 6---अनुमोदन । ७ कतवगय । ८----कदर ।

83
एक महाशय ने शंका की----कया इसका अंत िकये िबना हम सब मर
जायेगे ?
यशोदाननद-अगर ऐसा होता है तो कया पूछना था, लोगो को दं ड िमल
जाता और िासति मे ऐसा होना चािहए। यह ईशर का अतयाचार है िक ऐसे
लोभी, धन पर िगरने िाले, बुदाग-फरोश, अपनी संतान का ििकय करने िाले
नराधम जीिित है । और समाज उनका ितरसकार नही करता । मगर िह सब
बुदग-फरोश है ------इतयािद।
वयाखयान बहुंतद लमबा ओर हासय भरा हुआ था। लोगो ने िूब िाह-
िाह की । अपना िकवय समाप करने के बाद उनहोने अपने छोटे लडके
परमाननद को, िजसकी अिसथा ७ िष ग की थी, मंच पर िडा िकया। उसे
उनहोने एक छोटा-सा वयाखयान िलिकर दे रिा था। िदिाना चाहते थे िक
इस कुल के छोटे बालक भी िकतने कुशाग बुिद है । सभा समाजो मे बालको
से वयाखयान िदलाने की पथा है ही, िकसी को कुतूहल न हुआ।बालक बडा
सुनदर, होनहार, हं समुि था। मुसकराता हुआ मंच पर आया और एक जेब से
कागज िनकाल कर बडे गिग के साथ उचच सिर मे पढने लगा------
िपय बंधुिर,
नमसकार !
आपके पत से िििदत होता है िक आपको मुझ पर ििशास नही है । मै
ईशर को साकी करके धन आपकी सेिा मे इतनी गुप रीित से पहुंचेगा िक
िकसी को लेशमात भी सनदे ह न होगा । हां केिल एक िजजासा करने की
धि
ृ ता करता हूं। इस वयापार को गुप रिने से आपको जो सममान और
पितषा – लाभ होगा और मेरे िनकटिती मे मेरी जो िनंदा की जाएगी, उसके
उपलकय मे मेरे साथ कया िरआयत होगी ? मेरा ििनीत अनुरोध है िक २५
मे से ५ िनकालकर मेरे साथ नयाय िकया जाय...........।
महाशय शयोदाननद घर मे मेहमानो के िलए भोजन परसने का आदे श
करने गये थे। िनकले तो यह बाकय उनके कानो मे पडा—२५ मे से ५ मेरे
साथ नयाय िकया कीिजए ।‘ चेहरा फक हो गया, झपट कर लडके के पास
गये, कागज उसके हाथ से छीन िलया और बौले--- नालायक, यह कया पढ
रहा है , यह तो िकसी मुििककल का ित है जो उसने अपने मुकदमे के बारे

84
मे िलिा था। यह तू कहां से उठा लाया, शैतान जा िह कागज ला, जो तुझे
िलिकर िदया गया था।
एक महाशय-----पढने दीिजए, इस तहरीर मे जो लुतफ है , िह िकसी
दस
ू री तकरीर मे न होगा।
दस
ू रे ---जाद ू िह जो िसर चढ के बोले !
तीसरे —अब जलसा बरिासत कीिजए । मै तो चला।
चौथै—यहां भी चलतु हुए।
यशोदाननद—बैिठए-बैिठए, पतल लगाये जा रहे है ।
पहले—बेटा परमाननद, जरा यहां तो आना, तुमने यह कागज कहां पाया
?
परमाननद---बाबू जी ही तो िलिकर अपने मेज के अनदर रि िदया
था। मुझसे कहा था िक इसे पढना। अब नाहक मुझसे िफा रहे है ।
यशोदाननद---- िह यह कागज था िक सुअर ! मैने तो मेज के ऊपर ही
रि िदया था। तूने डाअर मे से कयो यह कागज िनकाला ?
परमाननद---मुझे मेज पर नही िमला ।
यशोदाननद---तो मुझसे कयो नही कहा, डाअर कयो िोला ? दे िो, आज
ऐसी िबर लेता हूं िक तुम भी याद करोगे।
पहले यह आकाशिािी है ।
दस
ू रे ----इस को लीडरी कहते है िक अपना उललू सीधा करो और
नेकनाम भी बनो।
तीसरे ----शरम आनी चािहए। यह तयाग से िमलता है , धोिेधडी से
नही।
चौथे---िमल तो गया था पर एक आंच की कसर रह गयी।
पांचिे---ईशर पांिंिडयो को यो ही दणड दे ता है
यह कहते हुए लोग उठ िडे हुए। यशोदाननद समझ गये िक भंडा फूट
गया, अब रं ग न जमेगा। बार-बार परमाननद को कुिपत नेतो से दे िते थे
और डं डा तौलकर रह जाते थे। इस शैतान ने आज जीती-िजताई बाजी िो
दी, मुंह मे कािलि लग गयी, िसर नीचा हो गया। गोली मार दे ने का काम
िकया है ।
उधर रासते मे िमत-िगग यो िटपपिियां करते जा रहे थे-------

85
एक ईशर ने मुंह मे कैसी कािलमा लगायी िक हयादार होगा तो अब
सूरत न िदिाएगा।
दस
ू रा--ऐसे-ऐसे धनी, मानी, ििदान लोग ऐसे पितत हो सकते है । मुझे
यही आशय ग है । लेना है तो िुले िजाने लो, कौन तुमहारा हाथ पकडता है ;
यह कया िक माल चुपके-चुपके उडाओं और यश भी कमाओं !
तीसरा--मककार का मुंह काला !
चौथा—यशोदाननद पर दया आ रही है । बेचारी ने इतनी धूतत
ग ा की, उस
पर भी कलई िुल ही गयी। बस एक आंच की कसर रह गई।

86
मात ा का ह दय

मा
िनधन
धिी की आंिो मे सारा संसार अंधेरा हो रहा था । काई अपना
मददगार िदिाई न दे ता था। कहीं आशा की झलक न थी। उस
ग घर मे िह अकेली पडी रोती थी और कोई आंसू पोछने िाला न था।
उसके पित को मरे हुए २२ िष ग हो गए थे। घर मे कोई समपित न थी।
उसने न- जाने िकन तकलीफो से अपने बचचे को पाल-पोस कर बडा िकया
था। िही जिान बेटा आज उसकी गोद से छीन िलया गया था और छीनने
िाले कौन थे ? अगर मतृयु ने छीना होता तो िह सब कर लेती। मौत से
िकसी को दे ष नहीं होता। मगर सिािथय
ग ो के हाथो यह अतयाचार असह हो
रहा था। इस घोर संताप की दशा मे उसका जी रह-रह कर इतना ििफल हो
जाता िक इसी समय चलूं और उस अतयाचारी से इसका बदला लूं िजसने
उस पर िनषु र आघात िकया है । मारं या मर जाऊं। दोनो ही मे संतोष हो
जाएगा।
िकतना सुंदर, िकतना होनहार बालक था ! यही उसके पित की िनशानी,
उसके जीिन का आधार उसकी अमं भर की कमाई थी। िही लडका इस िक
जेल मे पडा न जाने कया-कया तकलीफे झेल रहा होगा ! और उसका अपराध
कया था ? कुछ नही। सारा मुहलला उस पर जान दे ता था। ििधालय के
अधयापक उस पर जान दे ते थे। अपने-बेगाने सभी तो उसे पयार करते थे।
कभी उसकी कोई िशकायत सुनने मे नहीं आयी।ऐसे बालक की माता होन
पर उसे बधाई दे ती थी। कैसा सिजन, कैसा उदार, कैसा परमाथी ! िुद भूिो
सो रहे मगर कया मजाल िक दार पर आने िाले अितिथ को रिा जबाब दे ।
ऐसा बालक कया इस योगय था िक जेल मे जाता ! उसका अपराध यही था,
िह कभी-कभी सुनने िालो को अपने दि
ु ी भाइयो का दि
ु डा सुनाया करता
था। अतयाचार से पीिडत पािियो की मदद के िलए हमेशा तैयार रहता था।
कया यही उसका अपराध था?
दस
ू रो की सेिा करना भी अपराध है ? िकसी अितिथ को आशय दे ना
भी अपराध है ?
इस युिक का नाम आतमानंद था। दभ
ु ागगयिश उसमे िे सभी सदि
ु थे
जो जेल का दार िोल दे ते है । िह िनभीक था, सपििादी था, साहसी था,
सिदे श-पेमी था, िन:सिाथ ग था, कतवगयपरायि था। जेलल जाने के िलए इनहीं
87
गुिो की जररत है । सिाधीन पािियो के िलए िे गुि सिग ग का दार िोल
दे ते है , पराधीनो के िलए नरक के ! आतमानंद के सेिा-काय ग ने, उसकी
िकृ तताओं ने और उसके राजनीितक लेिो ने उसे सरकारी कमच
ग ािरयो की
नजरो मे चढा िदया था। सारा पुिलस-ििभाग नीचे से ऊपर तक उससे सतक

रहता था, सबकी िनगाहे उस पर लगीं रहती थीं। आििर िजले मे एक
भयंकर डाके ने उनहे इिचछत अिसर पदान कर िदया।
आतमानंद के घर की तलाशी हुई, कुछ पत और लेि िमले, िजनहे
पुिलस ने डाके का बीजक िसद िकया। लगभग २० युिको की एक टोली
फांस ली गयी। आतमानंद इसका मुििया ठहराया गया। शहादते हुई । इस
बेकारी और िगरानी के जमाने मे आतमा ससती और कौन िसतु हो सकती
है । बेचने को और िकसी के पास रह ही कया गया है । नाम मात का पलोभन
दे कर अचछी-से-अचछी शहादते िमल सकती है , और पुिलस के हाथ तो िनकृ ि-
से- िनकृ ि गिािहयां भी दे ििािी का महति पाप कर लेती है । शहादते िमल
गयीं, महीने-भर तक मुकदमा कया चला एक सिांग चलता रहा और सारे
अिभयुको को सजाएं दे दी गयीं। आतमानंद को सबसे कठोर दं ड िमला ८
िष ग का किठन कारािास। माधिी रोज कचहरी जाती; एक कोने मे बैठी सारी
कायि
ग ाई दे िा करती।
मानिी चिरत िकतना दब
ु ल
ग , िकतना नीच है , इसका उसे अब तक
अनुमान भी न हुआ था। जब आतमानंद को सजा सुना दी गयी और िह
माता को पिाम करके िसपािहयो के साथ चला तो माधिी मूिछग त होकर
िगर पडी । दो-चार सिजनो ने उसे एक तांगे पर बैठाकर घर तक पहुंचाया।
जब से िह होश मे आयी है उसके हदय मे शूल-सा उठ रहा है । िकसी तरह
धैय ग नही होता । उस घोर आतम-िेदना की दशा मे अब जीिन का एक
लकय िदिाई दे ता है और िह इस अतयाचार का बदला है ।
अब तक पुत उसके जीिन का आधार था। अब शतुओं से बदला लेना
ही उसके जीिन का आधार होगा। जीिन मे उसके िलए कोई आशा न थी।
इस अतयाचार का बदला लेकर िह अपना जनम सफल समझगी। इस अभागे
नर-िपशाच बगची ने िजस तरह उसे रक के आसूं रॅ लाये है उसी भांित यह
भी उस रलायेगी। नारी-हदय कोमल है लेिकन केिल अनुकूल दशा मे: िजस
दशा मे पुरष दस
ू रो को दबाता है , सी शील और ििनय की दे िी हो जाती है ।
लेिकन िजसके हाथो मे अपना सिन
ग ाश हो गया हो उसके पित सी की पुरष
88
से कम घजि
ृ ा ओर कोध नहीं होता अंतर इतना ही है िक पुरष शासो से
काम लेता है , सी कौशल से ।
रा भीगती जाती थी और माधिी उठने का नाम न लेती थी। उसका
द :ु ि पितकार के आिेश मे ििलीन होता जाता था। यहां तक िक इसके
िसिा उसे और िकसी बात की याद ही न रही। उसने सोचा, कैसे यह काम
होगा? कभी घर से नहीं िनकली।िैधवय के २२ साल इसी घर कट गये लेिकन
अब िनकूलूंगीं। जबरदसती िनकलूंगी, िभिािरन बनूगीं, टहलनी बनूगी, झूठ
बोलूंगी, सब कुकम ग करंगी। सतकम ग के िलए संसार मे सथान नहीं। ईशर ने
िनराश होकर कदािचत ् इसकी ओर से मुंह फेर िलया है । जभी तो यहां ऐसे-
ऐसे अतयाचार होते है । और पािपयो को दडं नहीं िमलता। अब इनहीं हाथो से
उसे दं ड दग
ू ी।
2

सं
धया का समय था। लिनऊ के एक सजे हुए बंगले मे िमतो की
महिफल जमी हुई थी। गाना-बजाना हो रहा था। एक तरफ
आतशबािजयां रिी हुई थीं। दस
ू रे कमरे मे मेजो पर िना चुना जा रहा था।
चारो तरफ पुिलस के कमच
ग ारी नजर आते थे िह पुिलस के सुपिरं टेडेट
िमसटर बगीची का बंगला है । कई िदन हुए उनहोने एक माके का मुकदमा
जीता था।अफसरो ने िुश होकर उनकी तरककी की दी थी। और उसी की
िुशी मे यह उतसि मनाया जा रहा था। यहां आये िदन ऐसे उतसि होते
रहते थे। मुफत के गिैये िमल जाते थे, मुफत की अतशबाजी; फल और मेिे
और िमठाईयां आधे दामो पर बाजार से आ जाती थीं। और चट दाितो हो
जाती थी। दस
ू रो के जहो सौ लगते, िहां इनका दस से काम चल जाता था।
दौड-धूप करने को िसपािहयो की फौज थी हीं। और यह माके का मुकदमा
कया था? िह िजसमे िनरपराध युिको को बनािटी शहादत से जेल मे ठू स
िदया गया था।
गाना समाप होने पर लोग भोजन करने बैठे। बेगार के मजदरू और
पललेदार जो बाजार से दाित और सजािट के सामान लाये थे, रोते या िदल
मे गािलयां दे ते चले गये थे; पर एक बुिढया अभी तक दार पर बैठी हुई थी।
और अनय मजदरूो की तरह िह भूनभुना कर काम न करती थी। हुकम पाते
ही िुश-िदल मजदरू की तरह हुकम बजा लाती थी। यह मधिी थी, जो इस

89
समय मजूरनी का िेष धारि करके अपना घतक संकलप पूरा करने आयी।
थी।
मेहमान चले गये। महिफल उठ गयी। दाित का समान समेट िदया
गया। चारो ओर सननाटा छा गया; लेिकन माधिी अभी तक िहीं बैठी थी।
सहसा िमसटर बागची ने पूछा—बुडढी तू यहां कयो बैठी है ? तुझे कुछ
िाने को िमल गया?
माधिी—हां हुजरू , िमल गया। बागची—तो जाती कयो नहीं?
माधिी—कहां जाऊं सरकार , मेरा कोई घर-दार थोडे ही है । हुकुम हो
तो यहीं पडी रहूं। पाि-भर आटे की परिसती हो जाय हुजरु ।
बगची –नौकरी करे गी?2
माधिी—कयो न करंगी सरकार, यही तो चाहती हूं।
बागची—लडका ििला सकती है ?
माधिी—हां हजूर, िह मेरे मन का काम है ।
बगची—अचछी बात है । तु आज ही से रह। जा घर मे दे ि, जो काम
बताये, िहा कर।


3
क महीना गुजर गया। माधिी इतना तन-मन से काम करती है िक
सारा घर उससे िुश है । बहू जी का मीजाज बहुम ही िचडिचडा है । िह
िदन-भर िाट पर पडी रहती है और बात-बात पर नौकरो पर झललाया करती
है । लेिकन माधिी उनकी घुडिकयो को भी सहष ग सह लेती है । अब तक
मुिशकल से कोई दाई एक सपाह से अिधक ठहरी थी। माधिी का कलेजा है
िक जली-कटी सुनकर भी मुि पर मैल नहीं आने दे ती।
िमसटर बागची के कई लडके हो चुके थे, पर यही सबसे छोटा बचचा
बच रहा था। बचचे पैदा तो हि-पि
ृ होते, िकनतु जनम लेते ही उनहे एक –न
एक रोग लग जाता था और कोई दो-चार महीने, कोई साल भर जी कर चल
दे ता था। मां-बाप दोनो इस िशशु पर पाि दे ते थे। उसे जरा जुकाम भी हो
तो दोनो ििकल हो जाते। सी-पुरष दोनो िशिकत थे, पर बचचे की रका के
िलए टोना-टोटका , दआ
ु ता-बीच, जनतर-मंतर एक से भी उनहे इनकार न था।
माधिी से यह बालक इतना िहल गया िक एक कि के िलए भी
उसकी गोद से न उतरता। िह कहीं एक कि के िलए चली जाती तो रो-रो
कर दिुनया िसर पर उठा लेता। िह सुलाती तो सोता, िह दध
ू िपलाती तो

90
िपता, िह ििलाती तो िेलता, उसी को िह अपनी माता समझता। माधिी के
िसिा उसके िलए संसार मे कोई अपना न था। बाप को तो िह िदन-भर मे
केिल दो-नार बार दे िता और समझता यह कोई परदे शी आदमी है । मां
आलसय और कमजारी के मारे गोद मे लेकर टहल न सकती थी। उसे िह
अपनी रका का भार संभालने के योगय न समझता था, और नौकर-चाकर उसे
गोद मे ले लेते तो इतनी िेददी से िक उसके कोमल अंगो मे पीडा होने
लगती थी। कोई उसे ऊपर उछाल दे ता था, यहां तक िक अबोध िशशु का
कलेजा मुंह को आ जाता था। उन सबो से िह डरता था। केिल माधिी थी
जो उसके सिभाि को समझती थी। िह जानती थी िक कब कया करने से
बालक पसनन होगा। इसिलए बालक को भी उससे पेम था।
माधिी ने समझाया था, यहां कंचन बरसता होगा; लेिकन उसे दे िकर
िकतना ििसमय हुआ िक बडी मुिशकल से महीने का िच ग पूरा पडता है ।
नौकरो से एक-एक पैसे का िहसाब िलया जाता था और बहुधा आिशयक
िसतुएं भी टाल दी जाती थीं। एक िदन माधिी ने कहा—बचचे के िलए कोई
तेज गाडी कयो नहीं मंगिा दे तीं। गोद मे उसकी बाढ मारी जाती है ।
िमसेज बागजी ने कुिठं त होकर कहा—कहां से मगिां दं ू? कम से कम
५०-६० रपयं मे आयेगी। इतने रपये कहां है ?
माधिी—मलिकन, आप भी ऐसा कहती है !
िमसेज बगची—झूठ नहीं कहती। बाबू जी की पहली सी से पांच
लडिकयां और है । सब इस समय इलाहाबाद के एक सकूल मे पढ रही है ।
बडी की उम १५-१६ िष ग से कम न होगी। आधा िेतन तो उधार ही चला
जाता है । िफर उनकी शादी की भी तो िफक है । पांचो के िििाह मे कम-से-
कम २५ हजार लगेगे। इतने रपये कहां से आयेगे। मै िचंता के मारे मरी
जाती हूं। मुझे कोई दस
ू री बीमारी नहीं है केिल िचंता का रोग है ।
माधिी—घूस भी तो िमलती है ।
िमसेज बागची—बूढी, ऐसी कमाई मे बरकत नहीं होती। यही कयो सच
पूछो तो इसी घूस ने हमारी यह दग
ु त
ग ी कर रिी है । कया जाने औरो को कैसे
हजम होती है । यहां तो जब ऐसे रपये आते है तो कोई-न-कोई नुकसान भी
अिशय हो जाता है । एक आता है तो दो लेकर जाता है । बार-बार मना
करती हूं, हराम की कौडी घर मे न लाया करो, लेिकन मेरी कौन सुनता है ।

91
बात यह थी िक माधिी को बालक से सनेह होता जाता था। उसके
अमंगल की कलपना भी िह न कर सकती थी। िह अब उसी की नींद सोती
और उसी की नींद जागती थी। अपने सिन
ग ाश की बात याद करके एक कि
के िलए बागची पर कोध तो हो आता था और घाि िफर हरा हो जाता था;
पर मन पर कुितसत भािो का आिधपतय न था। घाि भर रहा था, केिल ठे स
लगने से ददग हो जाता था। उसमे सिंय टीस या जलन न थी। इस पिरिार
पर अब उसे दया आती थी। सोचती, बेचारे यह छीन-झपट न करे तो कैसे
गुजर हो। लडिकयो का िििाह कहां से करे गे! सी को जब दे िो बीमार ही
रहती है । उन पर बाबू जी को एक बोतल शराब भी रोज चािहए। यह लोग
सियं अभागे है । िजसके घर मे ५-५किारी कनयाएं हो, बालक हो-हो कर मर
जाते हो, घरनी दा बीमार रहती हो, सिामी शराब का तली हो, उस पर तो यो
ही ईशर का कोप है । इनसे तो मै अभािगन ही अचछी!

दु बल
ग बलको के िलए बरसात बुरी बला है । कभी िांसी है , कभी ििर, कभी
दसत। जब हिा मे ही शीत भरी हो तो कोई कहां तक बचाये। माधिी
एक िदन आपने घर चली गयी थी। बचचा रोने लगा तो मां ने एक नौकर
को िदया, इसे बाहर बहला ला। नौकर ने बाहर ले जाकर हरी-हरी घास पर
बैठा िदया,। पानी बरस कर िनकल गया था। भूिम गीली हो रही थी। कहीं-
कहीं पानी भी जमा हो गया था। बालक को पानी मे छपके लगाने से ियादा
पयारा और कौन िेल हो सकता है । िूब पेम से उमंग-उमंग कर पानी मे
लोटने लगां नौकर बैठा और आदिमयो के साथ गप-शप करता घंटो गुजर
गये। बचचे ने िूब सदी िायी। घर आया तो उसकी नाक बह रही थीं रात
को माधिी ने आकर दे िा तो बचचा िांस रहा था। आधी रात के करीब
उसके गले से िुरिुर की आिाज िनकलने लगी। माधिी का कलेजा सन से
हो गया। सिािमनी को जगाकर बोली—दे िो तो बचचे को कया हो गया है ।
कया सदी-िदी तो नहीं लग गयी। हां, सदी ही मालूम होती है ।
सिािमनी हकबका कर उठ बैठी और बालक की िुरिराहट सुनी तो
पांि तलेजमीन िनकल गयीं यह भंयकर आिाज उसने कई बार सुनी थी और
उसे िूब पहचानती थी। वयग होकर बोली—जरा आग जलाओ। थोडा-सा तंग
आ गयी। आज कहार जरा दे र के िलए बाहर ले गया था, उसी ने सदी मे
छोड िदया होगा।
92
सारी रात दोनो बालक को सेकती रहीं। िकसी तरह सिेरा हुआ।
िमसटर बागची को िबर िमली तो सीधे डाकटर के यहां दौडे । िैिरयत इतनी
थी िक जलद एहितयात की गयी। तीन िदन मे अचछा हो गया; लेिकन इतना
दब
ु ल
ग हो गया था िक उसे दे िकर डर लगता था। सच पूछो तो माधिी की
तपसया ने बालक को बचायां। माता-िपता सो जाता, िकंतु माधिी की आंिो
मे नींद न थी। िना-पीना तक भूल गयी। दे िताओं की मनौितयां करती थी,
बचचे की बलाएं लेती थी, िबलकुल पागल हो गयी थी, यह िही माधिी है जो
अपने सिन
ग ाश का बदला लेने आयी थी। अपकार की जगह उपकार कर रही
थी।ििष िपलाने आयी थी, सुधा िपला रही थी। मनुषय मे दे िता िकतना पबल
है !
पात:काल का समय था। िमसटर बागची िशशु के झूले के पास बैठे हुए
थे। सी के िसर मे पीडा हो रही थी। िहीं चारपाई पर लेटी हुई थी और
माधिी समीप बैठी बचचे के िलए दध
ु गरम कर रही थी। सहसा बागची ने
कहा—बूढी, हम जब तक िजयेगे तुमहारा यश गयेगे। तुमने बचचे को िजला
िलयां
सी—यह दे िी बनकर हमारा कि िनिारि करने के िलए आ गयी। यह
न होती तो न जाने कया होता। बूढी, तुमसे मेरी एक ििनती है । यो तो मरना
जीना पारबध के हाथ है , लेिकन अपना-अपना पौरा भी बडी चीज है । मै
अभािगनी हूं। अबकी तुमहारे ही पुणय-पताप से बचचा संभल गया। मुझे डर
लग रहा है िक ईशर इसे हमारे हाथ से छीन ने ले। सच कहतीं हूं बूढी, मुझे
इसका गोद मे लेते डर लगता है । इसे तुम आज से अपना बचचा समझो।
तुमहारा होकर शायद बच जाय। हम अभागे है , हमारा होकर इस पर िनतय
कोई-न-कोई संकट आता रहे गा। आज से तुम इसकी माता हो जाआ। तुम
इसे अपने घर ले जाओ। जहां चाहे ले जाओ, तुमहारी गोद मे दे र मुझे िफर
कोई िचंता न रहे गी। िासति मे तुमहीं इसकी माता हो, मै तो राकसी हूं।
माधिी—बहू जी, भगिान ् सब कुशल करे गे, कयो जी इतना छोटा करती
हो?
िमसटर बागची—नहीं-नहीं बूढी माता, इसमे कोई हरज नहीं है । मै
मिसतषक से तो इन बांतो को ढकोसला ही समझता हूं; लेिकन हदय से इनहे
दरू नहीं कर सकता। मुझे सियं मेरी माता जीने एक धािबन के हाथ बेच
िदया था। मेरे तीन भाई मर चुके थे। मै जो बच गया तो मां-बाप ने समझा
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बेचने से ही इसकी जान बच गयी। तुम इस िशशु को पालो-पासो। इसे
अपना पुत समझो। िच ग हम बराबर दे ते रहे गे। इसकी कोई िचंता मत
करना। कभी –कभी जब हमारा जी चाहे गा, आकर दे ि िलया करे गे। हमे
ििशास है िक तुम इसकी रका हम लोगो से कहीं अचछी तरह कर सकती
हो। मै कुकमी हूं। िजस पेशे मे हूं, उसमे कुकम ग िकये बगैर काम नहीं चल
सकता। झूठी शहादते बनानी ही पडती है , िनरपराधो को फंसाना ही पडता है ।
आतमा इतनी दब
ु ल
ग हो गयी है िक पलोभन मे पड ही जाता हूं। जानता ही हूं
िक बुराई का फल बुरा ही होता है ; पर पिरिसथित से मजबूर हूं। अगर न करं
तो आज नालायक बनाकर िनकाल िदया जाऊं। अगेज हजारो भूले करे , कोई
नहीं पूछता। िहनदस
ू तानी एक भूल भी कर बैठे तो सारे अफसर उसके िसर
हो जाते है । िहं दस
ु तािनयत को दोष िमटाने केिलए िकतनी ही ऐसी बाते
करनी पडती है िजनका अगेज के िदल मे कभी खयाल ही नहीं पैदा हो
सकता। तो बोलो, सिीकार करती हो?
माधिी गदद होकर बोली—बाबू जी, आपकी इचछा है तो मुझसे भी जो
कुछ बन पडे गा, आपकी सेिा कर दंग
ू ीं भगिान ् बालक को अमर करे , मेरी तो
उनसे यही ििनती है ।
माधिी को ऐसा मालूम हो रहा था िक सिग ग के दार सामने िुले है
और सिग ग की दे िियां अंचल फैला-फैला कर आशीिाद
ग दे रही है , मानो उसके
अंतसतल मे पकाश की लहरे -सी उठ रहीं है । सनेहमय सेिा मे िक िकतनी
शांित थी।
बालक अभी तक चादर ओढे सो रहा था। माधिी ने दध
ू गरम हो
जाने पर उसे झूले पर से उठाया, तो िचलला पडी। बालक की दे ह ठं डी हो
गयी थी और मुंह पर िह पीलापन आ गया था िजसे दे िकर कलेजा िहल
जाता है , कंठ से आह िनकल आती है और आंिो से आसूं बहने लगते है ।
िजसने इसे एक बारा दे िा है िफर कभी नहीं भूल सकता। माधिी ने िशशु
को गोद से िचपटा िलया, हालािकं नीचे उतार दोना चािहए था।
कुहराम मच गया। मां बचचे को गले से लगाये रोती थी; पर उसे
जमीन पर न सुलाती थी। कया बाते हो रही रही थीं और कया हो गया। मौत
को धोिा दोने मे आननद आता है । िह उस िक कभी नहीं आती जब लोग
उसकी राह दे िते होते है । रोगी जब संभल जाता है , जब िह पथय लेने
लगता है , उठने-बैठने लगता है , घर-भर िुिशयां मनाने लगता है , सबको
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ििशास हो जाता है िक संकट टल गया, उस िक घात मे बैठी हुई मौत िसर
पर आ जाती है । यही उसकी िनठु र लीला है ।
आशाओं के बाग लगाने मे हम िकतने कुशल है । यहां हम रक के
बीज बोकर सुधा के फल िाते है । अिगन से पौधो को सींचकर शीतल छांह
मे बैठते है । हां, मंद बुिद।
िदन भर मातम होता रहा; बाप रोता था, मां तडपती थी और माधिी
बारी-बारी से दोनो को समझाती थी।यिद अपने पाि दे कर िह बालक को
िजला सकती तो इस समया अपना धनय भाग समझती। िह अिहत का
संकलप करके यहां आयी थी और आज जब उसकी मनोकामना पूरी हो गयी
और उसे िुशी से फूला न समाना चािहए था, उस उससे कहीं घोर पीडा हो
रही थी जो अपने पुत की जेल याता मे हुई थी। रलाने आयी थी और िुद
राती जा रहीं थी। माता का हदय दया का आगार है । उसे जलाओ तो उसमे
दया की ही सुगंध िनकलती है , पीसो तो दया का ही रस िनकलता है । िह
दे िी है । ििपित की कूर लीलाएं भी उस सिचछ िनमल
ग सोत को मिलन नहीं
कर सकतीं।

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परी का

ना िदरशाह की सेना मे िदलली के कतलेआम कर रिा है । गिलयो मे


िून की निदयां बह रही है । चारो तरफ हाहाकार मचा हुआ है ।
बाजार बंद है । िदलली के लोग घरो के दार बंद िकये जान की िैर मना रहे
है । िकसी की जान सलामत नहीं है । कहीं घरो मे आग लगी हुई है , कहीं
बाजार लुट रहा है ; कोई िकसी की फिरयाद नहीं सुनता। रईसो की बेगमे
महलो से िनकाली जा रही है और उनकी बेहुरती की जाती है । ईरानी
िसपािहयो की रक िपपासा िकसी तरह नहीं बुझती। मानि हदया की कूरता,
कठोरता और पैशािचकता अपना ििकरालतम रप धारि िकये हुए है । इसी
समया नािदर शाह ने बादशाही महल मे पिेश िकया।
िदलली उन िदनो भोग-ििलास की केद बनी हुई थी। सजािट और
तकललुफ के सामानो से रईसो के भिन भरे रहते थे। िसयो को बनाि-
िसगांर के िसिा कोई काम न था। पुरषो को सुि-भोग के िसिा और कोई
िचनता न थी। राजीनित का सथान शेरो-शायरी ने ले िलया था। समसत
पनतो से धन ििंच-ििंच कर िदलली आता था। और पानी की भांित बहाया
जाता था। िेशयाओं की चादीं थी। कहीं तीतरो के जोड होते थे, कहीं बटे रो
और बुलबुलो की पिलयां ठनती थीं। सारा नगर ििलास –िनदा मे मगन था।
नािदरशाह शाही महल मे पहुंचा तो िहां का सामान दे िकर उसकी आंिे
िुल गयीं। उसका जनम दिरद-घर मे हुआ था। उसका समसत जीिन
रिभूिम मे ही कटा था। भोग ििलास का उसे चसका न लगा था। कहां
रि-केत के कि और कहां यह सुि-सामािय। िजधर आंि उठती थी, उधर से
हटने का नाम न लेती थी।
संधया हो गयी थी। नािदरशाह अपने सरदारो के साथ महल की सैर
करता और अपनी पसंद की सचीजो को बटोरता हुआ दीिाने-िास मे आकर
कारचोबी मसनद पर बैठ गया, सरदारो को िहां से चले जाने का हुकम दे
िदया, अपने सबहिथयार रि िदये और महल के दरागा को बुलाकर हुकम
िदया—मै शाही बेगमो का नाच दे िना चाहता हूं। तुम इसी िक उनको सुंदर
िसाभूषिो से सजाकर मेरे सामने लाओं िबरदार, जरा भी दे र न हो! मै कोई
उज या इनकार नहीं सुन सकता।

96
दा

रोगा ने यह नािदरशाही हुकम सुना तो होश उड गये। िह मिहलएं
िजन पर सूय ग की दिट भी नहीं पडी कैसे इस मजिलस मे आयेगी!
नाचने का तो कहना ही कया! शाही बेगमो का इतना अपमान कभी न हुआ
था। हा नरिपशाच! िदलली को िून से रं ग कर भी तेरा िचत शांत नहीं हुआ।
मगर नािदरशाह के सममुि एक शबद भी जबान से िनकालना अिगन के मुि
मे कूदना था! िसर झुकाकर आदाग लाया और आकर रिनिास मे सब िेगमो
को नादीरशाही हुकम सुना िदया; उसके साथ ही यह इतला भी दे दी िक
जरा भी ताममुल न हो , नािदरशाह कोई उज या िहला न सुनेगा! शाही
िानदोन पर इतनी बडी ििपित कभी नहीं पडी; पर अस समय ििजयी
बादशाह की आजा को िशरोधाय ग करने के िसिा पाि-रका का अनय कोई
उपाय नहीं था।
बेगमो ने यह आजा सुनी तो हतबुिद-सी हो गयीं। सारे रिनिास मे
मातम-सा छा गया। िह चहल-पहल गायब हो गयीं। सैकडो हदयो से इस
सहायता-याचक लोचनो से दे िा, िकसी ने िुदा और रसूल का सुिमरन िकया;
पर ऐसी एक मिहला भी न थी िजसकी िनगाह कटार या तलिार की तरफ
गयी हो। यदपी इनमे िकतनी ही बेगमो की नसो मे राजपूतािनयो का रक
पिािहत हो रहा था; पर इं िदयिलपसा ने जौहर की पुरानी आग ठं डी कर दी
थी। सुि-भोग की लालसा आतम सममान का सिन
ग ाश कर दे ती है । आपस मे
सलाह करके मयाद
ग ा की रका का कोई उपाया सोचने की मुहलत न थी। एक-
एक पल भागय का िनिय
ग कर रहा था। हताश का िनिय
ग कर रहा था।
हताश होकर सभी ललपाओं ने पापी के सममुि जाने का िनशय िकया।
आंिो से आसूं जारी थे, अशु-िसंिचत नेतो मे सुरमा लगाया जा रहा था और
शोक-वयिथत हदयां पर सुगध
ं का लेप िकया जा रहा था। कोई केश गुथ
ं तीं
थी, कोई मांगो मे मोितयो िपरोती थी। एक भी ऐसे पकके इरादे की सी न
थी, जो इशर पर अथिा अपनी टे क पर, इस आजा का उललंघन करने का
साहस कर सके।
एक घंटा भी न गुजरने पाया था िक बेगमात पूरे-के-पूरे, आभूषिो से
जगमगातीं, अपने मुि की कांित से बेले और गुलाब की किलयो को
लजातीं, सुगंध की लपटे उडाती, छमछम करती हुई दीिाने-िास मे आकर
दनािदरशाह के सामने िडी हो गयीं।
97
ना

िदर शाह ने एक बार कनिियो से पिरयो के इस दल को दे िा
और तब मसनद की टे क लगाकर लेट गया। अपनी तलिार और
कटार सामने रि दी। एक कि मे उसकी आंिे झपकने लगीं। उसने एक
अगडाई ली और करिट बदल ली। जरा दे र मे उसके िराट
ग ो की अिाजे
सुनायी दे ने लगीं। ऐसा जान पडा िक गहरी िनदा मे मगन हो गया है । आध
घंटे तक िह सोता रहा और बेगमे ियो की तयो िसर िनचा िकये दीिार के
िचतो की भांित िडी रहीं। उनमे दो-एक मिहलाएं जो ढीठ थीं, घूघंट की
ओट से नािदरशाह को दे ि भी रहीं थीं और आपस मे दबी जबान मे
कानाफूसी कर रही थीं—कैसा भंयकर सिरप है ! िकतनी रिोनमत आंिे है !
िकतना भारी शरीर है ! आदमी काहे को है , दे ि है ।
सहसा नािदरशाह की आंिे िुल गई पिरयो का दल पूिि
ग त ् िडा था।
उसे जागते दे िकर बेगमो ने िसर नीचे कर िलये और अंग समेट कर भेडो
की भांित एक दस
ू रे से िमल गयीं। सबके िदल धडक रहे थे िक अब यह
जािलम नाचने-गाने को कहे गा, तब कैसे होगा! िुदा इस जािलम से समझे!
मगर नाचा तो न जायेगा। चाहे जान ही कयो न जाय। इससे ियादा
िजललत अब न सही जायगी।
सहसा नािदरशाह कठोर शबदो मे बोला—ऐ िुदा की बंिदयो, मैने तुमहारा
इमतहान लेने के िलए बुलाया था और अफसोस के साथ कहना पडता है िक
तुमहारी िनसबत मेरा जो गुमान था, िह हफग-ब-हफग सच िनकला। जब िकसी
कौम की औरतो मे गैरत नहीं रहती तो िह कौम मुरदा हो जाती है ।
दे िना चाहता था िक तुम लोगो मे अभी कुछ गैरत बाकी है या
नहीं। इसिलए मैने तुमहे यहां बुलाया था। मै तुमहारी बेहुरमली नहीं करना
चाहता था। मै इतना ऐश का बंदा नहीं हूं , िरना आज भेडो के गलले चाहता
होता। न इतना हिसपरसत हूं, िरना आज फारस मे सरोद और िसतार की
ताने सुनाता होता, िजसका मजा मै िहं दस
ु तानी गाने से कहीं ियादा उठा
सकता हूं। मुझे िसफग तुमहारा इमतहान लेना था। मुझे यह दे िकर सचा
मलाल हो रहा है िक तुममे गैरत का जौहर बाकी न रहा। कया यह
मुमिकन न था िक तुम मेरे हुकम को पैरो तले कुचल दे तीं? जब तुम यहां
आ गयीं तो मैने तुमहे एक और मौका िदया। मैने नींद का बहाना िकया।
कया यह मुमिकन न था िक तुममे से कोई िुदा की बंदी इस कटार को
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उठाकर मेरे िजगर मे चुभा दे ती। मै कलामेपाक की कसम िाकर कहता हूं
िक तुममे से िकसी को कटार पर हाथ रिते दे िकर मुझे बेहद िुशी होती,
मै उन नाजुक हाथो के सामने गरदन झुका दे ता! पर अफसोस है िक आज
तैमूरी िानदान की एक बेटी भी यहां ऐसी नहीं िनकली जो अपनी हुरमत
िबगाडने पर हाथ उठाती! अब यह सललतनत िजंदा नहीं रह सकती। इसकी
हसती के िदन िगने हुए है । इसका िनशान बहुत जलद दिुनया से िमट
जाएगा। तुम लोग जाओ और हो सके तो अब भी सलतनत को बचाओ िरना
इसी तरह हिस की गुलामी करते हुए दिुनया से रिसत हो जाओगी।

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ते तर

आ ििर िही हुआ िजसकी आंशका थी; िजसकी िचंता मे घर के सभी


लोग और ििषेशत: पसूता पडी हुई थी। तीनो पुतो के पशात ्
कनया का जनम हुआ। माता सौर मे सूि गयी, िपता बाहर आंगन मे सूि
गये, और की िद
ृ माता सौर दार पर सूि गयी। अनथग, महाअनथ ग भगिान ्
ही कुशल करे तो हो? यह पुती नहीं राकसी है । इस अभािगनी को इसी घर मे
जाना था! आना था तो कुछ िदन पहले कयो न आयी। भगिान ् सातिे शतु
के घर भी तेतर का जनम न दे ।
िपता का नाम था पंिडत दामोदरदत। िशिकत आदमी थे। िशका-ििभाग
ही मे नौकर भी थे; मगर इस संसकार को कैसे िमटा दे ते, जो परमपरा से
हदय मे जमा हुआ था, िक तीसरे बेटे की पीठ पर होने िाली कनया
अभािगनी होती है , या िपता को लेती है या िपता को, या अपने को। उनकी
िद
ृ ा माता लगी निजात कनया को पानी पी-पी कर कोसने, कलमुह
ं ी है ,
कलमुही! न जाने कया करने आयी है यहां। िकसी बांझ के घर जाती तो
उसके िदन िफर जाते!
दामोदरदत िदल मे तो घबराये हुए थे, पर माता को समझाने लगे—
अममा तेतर-बेतर कुछ नहीं, भगिान ् की इचछा होती है , िही होता है । ईशर
चाहे गे तो सब कुशल ही होगा; गानेिािलयो को बुला लो, नहीं लोग कहे गे, तीन
बेटे हुए तो कैसे फूली िफरती थीं, एक बेटी हो गयी तो घर मे कुहराम मच
गया।
माता—अरे बेटा, तुम कया जानो इन बातो को, मेरे िसर तो बीत चुकी
है , पाि नहीं मे समाया हुआ है तेतर ही के जनम से तुमहारे दादा का दे हांत
हुआ। तभी से तेतर का नाम सुनते ही मेरा कलेजा कांप उठता है ।
दामोदर—इस कि के िनिारि का भी कोई उपाय होगा?
माता—उपाय बताने को तो बहुत है , पंिडत जी से पूछो तो कोई-न-कोई
उपाय बता दे गे; पर इससे कुछ होता नहीं। मैने कौन-से अनुषान नहीं िकये,
पर पंिडत जी की तो मुिटठयां गरम हुई, यहां जो िसर पर पडना था, िह पड
ही गया। अब टके के पंिडत रह गये है , जजमान मरे या िजये उनकी बला
से, उनकी दिकिा िमलनी चािहए। (धीरे से) लकडी दब
ु ली-पतली भी नहीं है ।

100
तीनो लकडो से हि-पुि है । बडी-बडी आंिे है , पतले-पतले लाल-लाल ओंठ है ,
जैसे गुलाब की पती। गोरा-िचटटा रं ग है , लमबी-सी नाक। कलमुही नहलाते
समय रोयी भी नहीं, टु कुरटु कुर ताकती रही, यह सब लचछन कुछ अचछे थोडे
ही है ।
दामोदरदत के तीनो लडके सांिले थे, कुछ ििशेष रपिान भी न थे।
लडकी के रप का बिान सुनकर उनका िचत कुछ पसनन हुआ। बोले—अममा
जी, तुम भगिान ् का नाम लेकर गानेिािलयो को बुला भेजो, गाना-बजाना होने
दो। भागय मे जो कुछ है , िह तो होगा ही।
माता-जी तो हुलसता नहीं, करं कया?
दामोदर—गाना न होने से कि का िनिारि तो होगा नहीं, िक हो
जाएगा? अगर इतने ससते जान छूटे तो न कराओ गान।
माता—बुलाये लेती हूं बेटा, जो कुछ होना था िह तो हो गया। इतने मे
दाई ने सौर मे से पुकार कर कहा—बहूजी कहती है गानािाना कराने का
काम नहीं है ।
माता—भला उनसे कहो चुप बैठी रहे , बाहर िनकलकर मनमानी करे गी,
बारह ही िदन है बहुत िदन नहीं है ; बहुत इतराती िफरती थी—यह न करंगी,
िह न करंगी, दे िी कया है , मरदो की बाते सुनकर िही रट लगाने लगी थीं,
तो अब चुपके से बैठती कयो नहीं। मै तो तेतर को अशुभ नहीं मानतीं, और
सब बातो मे मेमो की बराबरी करती है तो इस बात मे भी करे ।
यह कहकर माता जी ने नाइन को भेजा िक जाकर गानेिािलयो को
बुला ला, पडोस मे भी कहती जाना।
सिेरा होते ही बडा लडका सो कर उठा और आंिे मलता हुआ जाकर
दादी से पूछने लगा—बडी अममा, कल अममा को कया हुआ?
माता—लडकी तो हुई है ।
बालक िुशी से उछलकर बोला—ओ-हो-हो पैजिनयां पहन-पहन कर
छुन-छुन चलेगी, जरा मुझे िदिा दो दादी जी?
माता—अरे कया सौर मे जायगा, पागल हो गया है कया?
लडके की उतसुकता न मानीं। सौर के दार पर जाकर िडा हो गया
और बोला—अममा जरा बचची को मुझे िदिा दो।
दाई ने कहा—बचची अभी सोती है ।
बालक—जरा िदिा दो, गोद मे लेकर।
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दाई ने कनया उसे िदिा दी तो िहां से दौडता हुआ अपने छोटे भाइये
के पास पहुंचा और उनहे जगा-जगा कर िुशिबरी सुनायी।
एक बोला—ननहीं-सी होगी।
बडा—िबलकुल ननहीं सी! जैसी बडी गुिडया! ऐसी गोरी है िक कया
िकसी साहब की लडकी होगी। यह लडकी मै लूंगा।
सबसे छोटा बोला—अमको बी िदका दो।
तीनो िमलकर लडकी को दे िने आये और िहां से बगले बजाते
उछलते-कूदते बाहर आये।
बडा—दे िा कैसी है !
मंझला—कैसे आंिे बंद िकये पडी थी।
छोटा—हमे हमे तो दे ना।
बडा—िूब दार पर बारात आयेगी, हाथी, घोडे , बाजे आतशबाजी। मंझला
और छोटा ऐसे मगन हो रहे थे मानो िह मनोहर दशय आंिो के सामने है ,
उनके सरल नेत मनोललास से चमक रहे थे।
मंझला बोला—फुलिािरयां भी होगी।
छोटा—अम बी पूल लेगे!



टठी भी हुई, बरही भी हुई, गाना-बजाना, िाना-िपलाना-दे ना-िदलाना
सब-कुछ हुआ; पर रसम पूरी करने के िलए, िदल से नहीं, िुशी से
नहीं। लडकी िदन-िदन दब
ु ल
ग और असिसथ होती जाती थी। मां उसे दोनो
िक अफीम ििला दे ती और बािलका िदन और रात को नशे मे बेहोश पडी
रहती। जरा भी नशा उतरता तो भूि से ििकल होकर रोने लगती! मां कुछ
ऊपरी दध
ू िपलाकर अफीम ििला दे ती। आशय ग की बात तो यह थी िक अब
की उसकी छाती मे दध
ू नहीं उतरा। यो भी उसे दध
ू दे से उतरता था; पर
लडको की बेर उसे नाना पकार की दध
ू िदगक औषिधयां ििलायी जाती, बार-
बार िशशु को छाती से लगाया जाता, यहां तक िक दध
ू उतर ही आता था; पर
अब की यह आयोजनाएं न की गयीं। फूल-सी बचची कुमहलाती जाती थी। मां
तो कभी उसकी ओर ताकती भी न थी। हां, नाइन कभी चुटिकयां बजाकर
चुमकारती तो िशशु के मुि पर ऐसी दयनीय, ऐसी करि बेदना अंिकत
िदिायी दे ती िक िह आंिे पोछती हुई चली जाती थी। बहु से कुछ कहने-

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सुनने का साहस न पडता। बडा लडका िसदु बार-बार कहता—अममा, बचची
को दो तो बाहर से िेला लाऊं। पर मां उसे िझडक दे ती थी।
तीन-चार महीने हो गये। दामोदरदत रात को पानी पीने उठे तो दे िा
िक बािलका जाग रही है । सामने ताि पर मीठे तेल का दीपक जल रहा था,
लडकी टकटकी बांधे उसी दीपक की ओर दे िती थी, और अपना अंगूठा चूसने
मे मगन थी। चुभ-चुभ की आिाज आ रही थी। उसका मुि मुरझाया हुआ
था, पर िह न रोती थी न हाथ-पैर फेकती थी, बस अंगठ
ू ा पीने मे ऐसी मगन
थी मानो उसमे सुधा-रस भरा हुआ है । िह माता के सतनो की ओर मुह
ं भी
नहीं फेरती थी, मानो उसका उन पर कोई अिधकार है नहीं, उसके िलए िहां
कोई आशा नहीं। बाबू साहब को उस पर दया आयी। इस बेचारी का मेरे घर
जनम लेने मे कया दोष है ? मुझ पर या इसकी माता पर कुछ भी पडे , उसमे
इसका कया अपराध है ? हम िकतनी िनदग यता कर रहे है िक कुछ किलपत
अिनि के कारि इसका इतना ितरसकार कर रहे है । मानो िक कुछ अमंगल
हो भी जाय तो कया उसके भय से इसके पाि ले िलये जायेगे। अगर
अपराधी है तो मेरा पारबध है । इस ननहे -से बचचे के पित हमारी कठोरता
कया ईशर को अचछी लगती होगी? उनहोने उसे गोद मे उठा िलया और
उसका मुि चूमने लगे। लडकी को कदािचत ् पहली बार सचचे सनेह का जान
हुआ। िह हाथ-पैर उछाल कर ‘गू-ं गू’ं करने लगी और दीपक की ओर हाथ
फैलाने लगी। उसे जीिन-ियोित-सी िमल गयी।
पात:काल दामोदरदत ने लडकी को गोद मे उठा िलया और बाहर
लाये। सी ने बार-बार कहा—उसे पडी रहने दो। ऐसी कौन-सी बडी सुनदर है ,
अभािगन रात-िदन तो पाि िाती रहती है , मर भी नहीं जाती िक जान छूट
जाय; िकंतु दामोदरदत ने न माना। उसे बाहर लाये और अपने बचचो के साथ
बैठकर िेलाने लगे। उनके मकान के सामने थोडी-सी जमीन पडी हुई थी।
पडोस के िकसी आदमी की एकबकरी उसमे आकर चरा करती थी। इस
समय भी िह चर रही थी। बाबू साहब ने बडे लडके से कहा—िसदू जरा उस
बकरी को पकडो, तो इसे दध
ू िपलाये, शायद भूिी है बेचारी! दे िो, तुमहारी
ननहीं-सी बहन है न? इसे रोज हिा मे िेलाया करो।
िसदु को िदललगी हाथ आयी। उसका छोटा भाई भी दौडा। दोनो ने घेर
कर बकरी को पकडा और उसका कान पकडे हुए सामने लाये। िपता ने िशशु
का मुंह बकरी थन मे लगा िदया। लडकी चुबलाने लगी और एक कि मे
103
दध
ू की धार उसके मुंह मे जाने लगी, मानो िटमिटमाते दीपक मे तेल पड
जाये। लडकी का मुंह ििल उठा। आज शायद पहली बार उसकी कुधा तप

हुई थी। िह िपता की गोद मे हुमक-हुमक कर िेलने लगी। लडको ने भी
उसे िूब नचाया-कुदाया।
उस िदन से िसदु को मनोरजन का एक नया ििषय िमल गया।
बालको को बचचो से बहुत पेम होता है । अगर िकसी घोसनले मे िचिडया का
बचचा दे ि पायं तो बार-बार िहां जायेगे। दे िेगे िक माता बचचे को कैसे
दाना चुगाती है । बचचा कैसे चोच िोलता है । कैसे दाना लेते समय परो को
फडफडाकर कर चे-चे करता है । आपस मे बडे गमभीर भाि से उसकी चरचा
करे गे, उपने अनय सािथयो को ले जाकर उसे िदिायेगे। िसदू ताक मे लगा
दे ता, कभी िदन मे दो-दो तीन-तीन बा िपलाता। बकरी को भूसी चोकर
ििलाकार ऐसा परचा िलया िक िह सियं चोकर के लोभ से चली आती और
दध
ू दे कर चली जाती। इस भांित कोई एक महीना गुजर गया, लडकी हि-पुि
हो गयी, मुि पुषप के समान ििकिसत हो गया। आंिे जग उठीं, िशशुकाल
की सरल आभा मन को हरने लगी।
माता उसको दे ि-दे ि कर चिकत होती थी। िकसी से कुछ कह तो न
सकती; पर िदल मे आशंका होती थी िक अब िह मरने की नहीं , हमीं लोगो
के िसर जायेगी। कदािचत ् ईशर इसकी रका कर रहे है , जभी तो िदन-िदन
िनिरती आती है , नहीं, अब तक ईशर के घर पहुंच गयी होती।



गर दादी माता से कहीं जयादा िचंितत थी। उसे भम होने लगा िक
िह बचचे को िूब दध
ू िपला रही है , सांप को पाल रही है । िशशु की
ओर आंि उठाकर भी न दे िती। यहां तक िक एक िदन कह बैठी—लडकी
का बडा छोह करती हो? हां भाई, मां हो िक नहीं, तुम न छोह करोगी, तो
करे गा कौन?
‘अममा जी, ईशर जानते है जो मै इसे दध
ू िपलाती होऊं?’
‘अरे तो मै मना थोडे ही करती हूं, मुझे कया गरज पडी है िक मुफत
मे अपने ऊपर पाप लूं, कुछ मेरे िसर तो जायेगी नहीं।’
‘अब आपको ििशास ही न आये तो कया करे ?’
‘मुझे पागल समझती हो, िह हिा पी-पी कर ऐसी हो रही है ?’
‘भगिान ् जाने अममा, मुझे तो अचरज होता है ।’
104
बहू ने बहुत िनदोिषता जतायी; िकंतु िद
ृ ा सास को ििशास न आया।
उसने समझा, िह मेरी शंका को िनमूल
ग समझती है , मानो मुझे इस बचची से
कोई बैर है । उसके मन मे यह भाि अंकुिरत होने लगा िक इसे कुछ हो जोये
तब यह समझे िक मै झूठ नहीं कहती थी। िह िजन पािियो को अपने
पािो से भी अिधक समझती थीं। उनहीं लोगो की अमंगल कामना करने
लगी, केिल इसिलए िक मेरी शंकाएं सतय हा जायं। िह यह तो नहीं चाहती
थी िक कोई मर जाय; पर इतना अिशय चाहती थी िक िकसी के बहाने से मै
चेता दं ू िक दे िा, तुमने मेरा कहा न माना, यह उसी का फल है । उधर सास
की ओर से ियो-ियो यह दे ष-भाि पकट होता था, बहू का कनया के पित
सनेह बढता था। ईशर से मनाती रहती थी िक िकसी भांित एक साल कुशल
से कट जाता तो इनसे पूछती। कुछ लडकी का भोला-भाला चेहरा, कुछ अपने
पित का पेम-िातसलय दे िकर भी उसे पोतसाहन िमलता था। िििचत दशा हो
रही थी, न िदल िोलकर पयार ही कर सकती थी, न समपूि ग रीित से िनदग य
होते ही बनता था। न हं सते बनता था न रोते।
इस भांित दो महीने और गुजर गये और कोई अिनि न हुआ। तब तो
िद
ृ ा सासि के पेट मे चूहे दौडने लगे। बहू को दो-चार िदन ििर भी नहीं
जाता िक मेरी शंका की मयाद
ग ा रह जाये। पुत भी िकसी िदन पैरगाडी पर से
नहीं िगर पडता, न बहू के मैके ही से िकसी के सिगि
ग ास की सुनािनी आती
है । एक िदन दामोदरदत ने िुले तौर पर कह भी िदया िक अममा, यह सब
ढकोसला है , तेतेर लडिकयां कया दिुनया मे होती ही नहीं, तो सब के सब मां-
बाप मर ही जाते है ? अंत मे उसने अपनी शंकाओं को यथाथ ग िसद करने की
एक तरकीब सोच िनकाली। एक िदन दामोदरदत सकूल से आये तो दे िा
िक अममा जी िाट पर अचेत पडी हुई है , सी अंगीठी मे आग रिे उनकी
छाती सेक रही है और कोठरी के दार और ििडिकयां बंद है । घबरा कर कहा
—अममा जी, कया दशा है ?
सी—दोपहर ही से कलेजे मे एक शूल उठ रहा है , बेचारी बहुत तडफ
रही है ।
दामोदर—मै जाकर डॉकटर साहब को बुला लाऊं न.? दे र करने से शायद रोग
बढ जाय। अममा जी, अममा जी कैसी तिबयत है ?
माता ने आंिे िोलीं और कराहते हुए बोली—बेटा तुम आ गये?

105
अब न बचूंगी, हाय भगिान ,् अब न बचूंगी। जैसे कोई कलेजे मे बरछी चुभा
रहा हो। ऐसी पीडा कभी न हुई थी। इतनी उम बीत गयी, ऐसी पीडा कभी न
हुई।
सी—िह कलमुही छोकरी न जाने िकस मनहूस घडी मे पैदा हुई।
सास—बेटा, सब भगिान करते है , यह बेचारी कया जाने! दे िो मै मर
जाऊं तो उसे कशट मत दे ना। अचछा हुआ मेरे िसर आयीं िकसी कके िसर
तो जाती ही, मेरे ही िसर सही। हाय भगिान, अब न बचूग
ं ी।
दामोदर—जाकर डॉकटर बुला लाऊं? अभभी लौटा आता हूं।
माता जी को केिल अपनी बात की मयाद
ग ा िनभानी थी, रपये न िच
कराने थे, बोली—नहीं बेटा, डॉकटर के पास जाकर कया करोगे? अरे , िह कोई
ईशर है । डॉकटर के पास जाकर कया करोगे? अरे , िह कोई ईशर है । डॉकटर
अमत
ृ िपला दे गा, दस-बीस िह भी ले जायेगा! डॉकटर-िैद से कुछ न होगा।
बेटा, तुम कपडे उतारो, मेरे पास बैठकर भागित पढो। अब न बचूंगी। अब न
बचूग
ं ी, हाय राम!
दामोदर—तेतर बुरी चीज है । मै समझता था िक ढकोसला है ।
सी—इसी से मै उसे कभी नहीं लगाती थी।
माता—बेटा, बचचो को आराम से रिना, भगिान तुम लोगो को सुिी
रिे। अचछा हुआ मेरे ही िसर गयी, तुम लोगो के सामने मेरा परलोक हो
जायेगा। कहीं िकसी दस
ू रे के िसर जाती तो कया होता राम! भगिान ् ने मेरी
ििनती सुन ली। हाय! हाय!!
दामोदरदत को िनशय हो गया िक अब अममा न बचेगी। बडा द ु:ि
हुआ। उनके मन की बात होती तो िह मां के बदले तेतर को न सिीकार
करते। िजस जननी ने जनम िदया, नाना पकार के कि झेलकर उनका
पालन-पोषि िकया, अकाल िैधवय को पाप होकर भी उनकी िशका का पबंध
िकया, उसके सामने एक दध
ु मुहीं बचची का कया मूलय था, िजसके हाथ का
एक िगलास पानी भी िह न जानते थे। शोकातुर हो कपडे उतारे और मां के
िसरहाने बैठकर भागित की कथा सुनाने लगे।
रात को बहू भोजन बनाने चली तो सास से बोली—अममा जी, तुमहारे
िलए थोडा सा साबूदाना छोड दं ू?
माता ने वयंगय करके कहा—बेटी, अनय िबना न मारो, भला साबूदाना
मुझसे िया जायेगा; जाओं, थोडी पूिरयां छान लो। पडे -पडे जो कुछ इचछा
106
होगी, िा लूंगी, कचौिरयां भी बना लेना। मरती हूं तो भोजन को तरस-तरस
कयो मरं। थोडी मलाई भी मंगिा लेना, चौक की हो। िफर थोडे िाने आऊंगी
बेटी। थोडे -से केले मंगिा लेना, कलेजे के ददग मे केले िाने से आराम होता
है ।
भोजन के समय पीडा शांत हो गयी; लेिकन आध घंटे बाद िफर जोर
से होने लगी। आधी रात के समय कहीं जाकर उनकी आंि लगी। एक
सपाह तक उनकी यही दशा रही, िदन-भर पडी कराहा करतीं बस भोजन के
समय जरा िेदना कम हो जाती। दामोदरदत िसरहाने बैठे पंिा झलते और
मातिृियोग के आगत शोक से रोते। घर की महरी ने मुहलले -भर मे एक
िबर फैला दी; पडोिसने दे िने आयीं, तो सारा इलजाम बािलका के िसर गया।
एक ने कहा—यह तो कहो बडी कुशल हुई िक बुिढया के िसर गयी;
नहीं तो तेतर मां-बाप दो मे से एक को लेकर तभी शांत होती है । दै ि न करे
िक िकसी के घर तेतर का जनम हो।
दस
ू री बोली—मेरे तो तेतर का नाम सुनते ही रोये िडे हो जाते है ।
भगिान ् बांझ रिे पर तेतर का जनम न दे ।
एक सपाह के बाद िद
ृ ा का कि िनिारि हुआ, मरने मे कोई कसर न
थी, िह तो कहो पुरिाओं का पुणय-पताप था। बाहिो को गोदान िदया गया।
दग
ु ाग-पाठ हुआ, तब कहीं जाके संकट कटा।

107
नै रा शय

बा ज आदमी अपनी सी से इसिलए नाराज रहते है िक उसके


लडिकयां ही कयो होती है , लडके कयो नहीं होते। जानते है िक इनमे
सी को दोष नहीं है , या है तो उतना ही िजतना मेरा, िफर भी जब दे ििए सी
से रठे रहते है , उसे अभािगनी कहते है और सदै ि उसका िदल दि
ु ाया करते
है । िनरपमा उनही अभािगनी िसयो मे थी और घमंडीलाल ितपाठी उनहीं
अतयाचारी पुरषो मे। िनरपमा के तीन बेिटयां लगातार हुई थीं और िह सारे
घर की िनगाहो से िगर गयी थी। सास-ससुर की अपसननता की तो उसे
ििशेष िचंता न थी, िह पुराने जमाने के लोग थे, जब लडिकयां गरदन का
बोझ और पूिज
ग नमो का पाप समझी जाती थीं। हां, उसे द :ु ि अपने पितदे ि
की अपसननता का था जो पढे -िलिे आदमी होकर भी उसे जली-कटी सुनाते
रहते थे। पयार करना तो दरू रहा, िनरपमा से सीधे मुंह बात न करते, कई-
कई िदनो तक घर ही मे न आते और आते तो कुछ इस तरह ििंचे-तने हुए
रहते िक िनरपमा थर-थर कांपती रहती थी, कहीं गरज न उठे । घर मे धन
का अभाि न था; पर िनरपमा को कभी यह साहस न होता था िक िकसी
सामानय िसतु की इचछा भी पकट कर सके। िह समझती थी, मे यथाथ ग मे
अभािगनी हूं, नहीं तो भगिान ् मेरी कोि मे लडिकयां ही रचते। पित की एक
मद
ृ ु मुसकान के िलए, एक मीठी बात के िलए उसका हदय तडप कर रह
जाता था। यहां तक िक िह अपनी लडिकयो को पयार करते हुए सकुचाती
थी िक लोग कहे गे, पीतल की नथ पर इतना गुमान करती है । जब ितपाठी
जी के घर मे आने का समय होता तो िकसी-न-िकसी बहाने से िह लडिकयो
को उनकी आंिो से दरू कर दे ती थी। सबसे बडी ििपित यह थी िक ितपाठी
जी ने धमकी दी थी िक अब की कनया हुई तो घर छोडकर िनकल जाऊंगा,
इस नरक मे कि-भर न ठहरंगा। िनरपमा को यह िचंता और भी िाये
जाती थी।
िह मंगल का वत रिती थी, रिििार, िनजल
ग ा एकादसी और न जाने
िकतने वत करती थी। सनान-पूजा तो िनतय का िनयम था; पर िकसी
अनुषान से मनोकामना न पूरी होती थी। िनतय अिहे लना, ितरसकार, उपेका,
अपमान सहते-सहते उसका िचत संसार से ििरक होता जाता था। जहां कान

108
एक मीठी बात के िलए, आंिे एक पेम-दिि के िलए, हदय एक आिलंगन के
िलए तरस कर रह जाये, घर मे अपनी कोई बात न पूछे, िहां जीिन से कयो
न अरिच हो जाय?
एक िदन घोर िनराशा की दशा मे उसने अपनी बडी भािज को एक
पत िलिा। एक-एक अकर से असह िेदना टपक रही थी। भािज ने उतर
िदया—तुमहारे भैया जलद तुमहे ििदा कराने जायेगे। यहां आजकल एक सचचे
महातमा आये हुए है िजनका आशीिाद कभी िनषफल नहीं जाता। यहां कई
संतानहीन िसयां उनक आशीिाद से पुतिती हो गयीं। पूिग आशा है िक तुमहे
भी उनका आशीिाद कलयािकारी होगा।
िनरपमा ने यह पत पित को िदिाया। ितपाठी जी उदासीन भाि से
बोले—सिृि-रचना महातमाओं के हाथ का काम नहीं, ईशर का काम है ।
िनरपमा—हां, लेिकन महातमाओं मे भी तो कुछ िसिद होती है ।
घमंडीलाल—हां होती है , पर ऐसे महातमाओं के दशन
ग दल
ु भ
ग है ।
िनरपमा—मै तो इस महातमा के दशन
ग करं गी।
घमंडीलाल—चली जाना।
िनरपमा—जब बांिझनो के लडके हुए तो मै कया उनसे भी गयी-गुजरी
हूं।
घमंडीलाल—कह तो िदया भाई चली जाना। यह करके भी दे ि लो।
मुझे तो ऐसा मालूम होता है , पुत का मुि दे िना हमारे भागय मे ही नहीं है ।


2
ई िदन बाद िनरपमा अपने भाई के साथ मैके गयी। तीनो पुितयां
भी साथ थीं। भाभी ने उनहे पेम से गले लगाकर कहा, तुमहारे घर
के आदमी बडे िनदग यी है । ऐसी गुलाब –फूलो की-सी लडिकयां पाकर भी
तकदीर को रोते है । ये तुमहे भारी हो तो मुझे दे दो। जब ननद और भािज
भोजन करके लेटीं तो िनरपमा ने पूछा—िह महातमा कहां रहते है ?
भािज—ऐसी जलदी कया है , बता दंग
ू ी।
िनरपमा—है नगीच ही न?
भािज—बहुत नगीच। जब कहोगी, उनहे बुला दंग
ू ी।
िनरपमा—तो कया तुम लोगो पर बहुत पसनन है ?
भािज—दोनो िक यहीं भोजन करते है । यहीं रहते है ।

109
िनरपमा—जब घर ही मे िैद तो मिरये कयो? आज मुझे उनके दशन

करा दे ना।
भािज—भेट कया दोगी?
िनरपमा—मै िकस लायक हूं?
भािज—अपनी सबसे छोटी लडकी दे दे ना।
िनरपमा—चलो, गाली दे ती हो।
भािज—अचछा यह न सही, एक बार उनहे पेमािलंगन करने दे ना।
िनरपमा—चलो, गाली दे ती हो।
भािज—अचछा यह न सही, एक बार उनहे पेमािलंगन करने दे ना।
िनरपमा—भाभी, मुझसे ऐसी हं सी करोगी तो मै चली आऊंगी।
भािज—िह महातमा बडे रिसया है ।
िनरपमा—तो चूलहे मे जायं। कोई दि
ु होगा।
भािज—उनका आशीिाद तो इसी शत ग पर िमलेगा। िह और कोई भेट
सिीकार ही नहीं करते।
िनरपमा—तुम तो यो बाते कर रही हो मानो उनकी पितिनिध हो।
भािज—हां, िह यह सब ििषय मेरे ही दारा तय िकया करते है । मै
भेट लेती हूं। मै ही आशीिाद दे ती हूं, मै ही उनके िहताथ ग भोजन कर लेती
हूं।
िनरपमा—तो यह कहो िक तुमने मुझे बुलाने के िलए यह हीला
िनकाला है ।
भािज—नहीं, उनके साथ ही तुमहे कुछ ऐसे गुर दंग
ू ी िजससे तुम अपने
घर आराम से रहा।
इसके बाद दोनो सिियो मे कानाफूसी होने लगी। जब भािज चुप हुई
तो िनरपमा बोली—और जो कहीं िफर कया ही हुई तो?
भािज—तो कया? कुछ िदन तो शांित और सुि से जीिन कटे गा। यह
िदन तो कोई लौटा न लेगा। पुत हुआ तो कहना ही कया, पुती हुई तो िफर
कोई नयी युिक िनकाली जायेगी। तुमहारे घर के जैसे अकल के दशुमनो के
साथ ऐसी ही चाले चलने से गुजारा है ।
िनरपमा—मुझे तो संकोच मालूम होता है ।
भािज—ितपाठी जी को दो-चार िदन मे पत िलि दे ना िक महातमा जी
के दशन
ग हुए और उनहोने मुझे िरदान िदया है । ईशर ने चाहा तो उसी िदन
110
से तुमहारी मान-पितषा होने लगी। घमंडी दौडे हुए आयेगे और तमहारे ऊपर
पाि िनछािर करे गे। कम-से-कम साल भर तो चैन की िंशी बजाना। इसके
बाद दे िी जायेगी।
िनरपमा—पित से कपट करं तो पाप न लगेगा?
भािज—ऐसे सिािथयग ो से कपट करना पुणय है ।
3

ती न चार महीने के बाद िनरपमा अपने घर आयी। घमंडीलाल उसे ििदा


कराने गये थे। सलहज ने महातमा जी का रं ग और भी चोिा कर
िदया। बोली—ऐसा तो िकसी को दे िा नहीं िक इस महातमा जी ने िरदान
िदया हो और िह पूरा न हो गया हो। हां, िजसका भागय फूट जाये उसे कोई
कया कर सकता है ।
घमंडीलाल पतयक तो िरदान और आशीिाद की उपेका ही करते रहे ,
इन बातो पर ििशास करना आजकल संकोचजनक मालूम होता ह; पर उनके
िदल पर असर जरर हुआ।
िनरपमा की िाितरदािरयां होनी शुर हुई। जब िह गभि
ग ती हुई तो
सबके िदलो मे नयी-नयी आशाएं िहलोरे लेने लगी। सास जो उठते गाली और
बैठते वयंगय से बाते करती थीं अब उसे पान की तरह फेरती—बेटी, तुम रहने
दो, मै ही रसोई बना लूग
ं ी, तुमहारा िसर दि
ु ने लगेगा। कभी िनरपमा कलसे
का पानी या चारपाई उठाने लगती तो सास दौडती—बहू,रहने दो, मै आती हूं,
तुम कोई भारी चीज मत उठाया करा। लडिकयो की बात और होती है , उन
पर िकसी बात का असर नहीं होता, लडके तो गभ ग ही मे मान करने लगते
है । अब िनरपमा के िलए दध
ू का उठौना िकया गया, िजससे बालक पुि और
गोरा हो। घमंडी िसाभूषिो पर उतार हो गये। हर महीने एक-न-एक नयी
चीज लाते। िनरपमा का जीिन इतना सुिमय कभी न था। उस समय भी
नहीं जब निेली िधू थी।
महीने गुजरने लगे। िनरपमा को अनुभूत लकिो से िििदत होने लगा
िक यह कनया ही है ; पर िह इस भेद को गुप रिती थी। सोचती, सािन की
धूप है , इसका कया भरोसा िजतनी चीज धूप मे सुिानी हो सुिा लो, िफर तो
घटा छायेगी ही। बात-बात पर िबगडती। िह कभी इतनी मानशीला न थी।
पर घर मे कोई चूं तक न करता िक कहीं बहू का िदल न दि
ु े, नहीं बालक
को कि होगा। कभी-कभी िनरपमा केिल घरिालो को जलाने के िलए

111
अनुषान करती, उसे उनहे जलाने मे मजा आता था। िह सोचती, तुम
सिािथय
ग ो को िजतना जलाऊं उतना अचछा! तुम मेरा आदर इसिलए करते हो
न िक मै बचच जनूंगी जो तुमहारे कुल का नाम चलायेगा। मै कुछ नहीं हूं,
बालक ही सब-कुछ है । मेरा अपना कोई महति नहीं, जो कुछ है िह बालक
के नाते। यह मेरे पित है ! पहले इनहे मुझसे िकतना पेम था, तब इतने
संसार-लोलुप न हुए थे। अब इनका पेम केिल सिाथ ग का सिांग है । मै भी
पशु हूं िजसे दध
ू के िलए चारा-पानी िदया जाता है । िैर, यही सही, इस िक
तो तुम मेरे काबू मे आये हो! िजतने गहने बन सके बनिा लूं, इनहे तो छीन
न लोगे।
इस तरह दस महीने पूरे हो गये। िनरपमा की दोनो ननदे ससुराल से
बुलायी गयीं। बचचे के िलए पहले ही सोने के गहने बनिा िलये गये, दध
ू के
िलए एक सुनदर दध
ु ार गाय मोल ले ली गयी, घमंडीलाल उसे हिा ििलाने
को एक छोटी-सी सेजगाडी लाये। िजस िदन िनरपमा को पसि-िेदना होने
लगी, दार पर पंिडत जी मुहूत ग दे िने के िलए बुलाये गये। एक मीरिशकार
बंदक
ू छोडने को बुलाया गया, गायने मंगल-गान के िलए बटोर ली गयीं। घर
से ितल-ितल कर िबर मंगायी जाती थी, कया हुआ? लेडी डॉकटर भी बुलायी
गयीं। बाजे िाले हुकम के इं तजार मे बैठे थे। पामर भी अपनी सारं गी िलये
‘जचचा मान करे नंदलाल सो’ की तान सुनाने को तैयार बैठा था। सारी
तैयािरयां; सारी आशाएं, सारा उतसाह समारोह एक ही शबद पर अिलिमब था।
ियो-ियो दे र होती थी लोगो मे उतसुकता बढती जाती थी। घमंडीलाल अपने
मनोभािो को िछपाने के िलए एक समाचार –पत दे ि रहे थे, मानो उनहे
लडका या लडकी दोनो ही बराबर है । मगर उनके बूढे िपता जी इतने
सािधान न थे। उनकी पीछे ििली जाती थीं, हं स-हं स कर सबसे बात कर रहे
थे और पैसो की एक थैली को बार-बार उछालते थे।
मीरिशकार ने कहा—मािलक से अबकी पगडी दप
ु टटा लूंगा।
िपताजी ने ििलकर कहा—अबे िकतनी पगिडयां लेगा? इतनी बेभाि की
दंग
ू ा िक सर के बाल गंजे हो जायेगे।
पामर बोला—सरकार अब की कुछ जीििका लूं।
िपताजी ििलकर बोले—अबे िकतनी िायेगा; ििला-ििला कर पेट फाड
दंग
ू ा।

112
सहसा महरी घर मे से िनकली। कुछ घबरायी-सी थी। िह अभी कुछ
बोलने भी न पायी थी िक मीरिशकार ने बनदक
ू फैर कर ही तो दी। बनदक

छूटनी थी िक रोशन चौकी की तान भी िछड गयी, पामर भी कमर कसकर
नाचने को िडा हो गया।
महरी—अरे तुम सब के सब भंग िा गये हो गया?
मीरिशकार—कया हुआ?
महरी—हुआ कया लडकी ही तो िफर हुई है ?
िपता जी—लडकी हुई है ?
यह कहते-कहते िह कमर थामकर बैठ गये मानो िज िगर पडा।
घमंडीलाल कमरे से िनकल आये और बोले—जाकर लेडी डाकटर से तो पूछ।
अचछी तरह दे ि न ले। दे िा सुना, चल िडी हुई।
महरी—बाबूजी, मैने तो आंिो दे िा है !
घमंडीलाल—कनया ही है ?
िपता—हमारी तकदीर ही ऐसी है बेटा! जाओ रे सब के सब! तुम सभी
के भागय मे कुछ पाना न िलिा था तो कहां से पाते। भाग जाओ। सैकडो
रपये पर पानी िफर गया, सारी तैयारी िमटटी मे िमल गयी।
घमंडीलाल—इस महातमा से पूछना चािहए। मै आज डाक से जरा बचा
की िबर लेता हूं।
िपता—धूतग है , धूतग!
घमंडीलाल—मै उनकी सारी धूतत
ग ा िनकाल दंग
ू ा। मारे डं डो के िोपडी
न तोड दं ू तो किहएगा। चांडाल कहीं का! उसके कारि मेरे सैकडो रपये पर
पानी िफर गया। यह सेजगाडी, यह गाय, यह पलना, यह सोने के गहने
िकसके िसर पटकूं। ऐसे ही उसने िकतनो ही को ठगा होगा। एक दफा बचा
ही मरममत हो जाती तो ठीक हो जाते।
िपता जी—बेटा, उसका दोष नहीं, अपने भागय का दोष है ।
घमंडीलाल—उसने कयो कहा ऐसा नहीं होगा। औरतो से इस पािंड के
िलए िकतने ही रपये ऐंठे होगे। िह सब उनहे उगलना पडे गा, नहीं तो पुिलस
मे रपट कर दंग
ू ा। कानून मे पािंड का भी तो दं ड है । मै पहले ही चौका था
िक हो न हो पािंडी है ; लेिकन मेरी सलहज ने धोिा िदया, नहीं तो मै ऐसे
पािजयो के पंजे मे कब आने िाला था। एक ही सुअर है ।

113
िपताजी—बेटा सब करो। ईशर को जो कुछ मंजरू था, िह हुआ। लडका-
लडकी दोनो ही ईशर की दे न है , जहां तीन है िहां एक और सही।
िपता और पुत मे तो यह बाते होती रहीं। पामर, मीरिशकार आिद ने
अपने-अपने डं डे संभाले और अपनी राह चले। घर मे मातम-सा छा गया, लेडी
डॉकटर भी ििदा कर दी गयी, सौर मे जचचा और दाई के िसिा कोई न रहा।
िद
ृ ा माता तो इतनी हताश हुई िक उसी िक अटिास-िटिास लेकर पड
रहीं।
जब बचचे की बरही हो गयी तो घमंडीलाल सी के पास गये और
सरोष भाि से बोले—िफर लडकी हो गयी!
िनरपमा—कया करं, मेरा कया बस?
घमंडीलाल—उस पापी धूतग ने बडा चकमा िदया।
िनरपमा—अब कया कहे , मेरे भागय ही मे न होगा, नहीं तो िहां िकतनी
ही औरते बाबाजी को रात-िदन घेरे रहती थीं। िह िकसी से कुछ लेते तो
कहती िक धूतग है , कसम ले लो जो मैने एक कौडी भी उनहे दी हो।
घमंडीलाल—उसने िलया या न िलया, यहां तो िदिाला िनकल गया।
मालूम हो गया तकदीर मे पुत नहीं िलिा है । कुल का नाम डू बना ही है तो
कया आज डू बा, कया दस साल बाद डू बा। अब कहीं चला जाऊंगा, गह
ृ सथी मे
कौन-सा सुि रिा है ।
िह बहुत दे र तक िडे -िडे अपने भागय को रोते रहे ; पर िनरपमा ने
िसर तक न उठाया।
िनरपमा के िसर िफर िही ििपित आ पडी, िफर िही ताने, िही
अपमान, िही अनादर, िही छीछालेदार, िकसी को िचंता न रहती िक िाती-
पीती है या नहीं, अचछी है या बीमार, दि
ु ी है या सुिी। घमंडीलाल यदिप
कहीं न गये, पर िनरपमा को यही धमकी पाय: िनतय ही िमलती रहती थी।
कई महीने यो ही गुजर गये तो िनरपमा ने िफर भािज को िलिा िक तुमने
और भी मुझे ििपित मे डाल िदया। इससे तो पहले ही भली थी। अब तो
काई बात भी नहीं पूछता िक मरती है या जीती है । अगर यही दशा रही तो
सिामी जी चाहे संनयास ले या न ले, लेिकन मै संसार को अिशय तयाग
दंग
ू ी।
4

114
भा भी य पत पाकर पिरिसथित समझ गयी। अबकी उसने िनरपमा
को बुलाया नहीं, जानती थी िक लोग ििदा ही न करे गे, पित को
लेकर सियं आ पहुंची। उसका नाम सुकेशी था। बडी िमलनसार, चतुर
ििनोदशील सी थी। आते ही आते िनरपमा की गोद मे कनया दे िी तो बोली
—अरे यह कया?
सास—भागय है और कया?
सुकेशी—भागय कैसा? इसने महातमा जी की बाते भुला दी होगी। ऐसा
तो हो ही नहीं सकता िक िह मुंह से जो कुछ कह दे , िह न हो। कयो जी,
तुमने मंगल का वत रिा?
िनरपमा—बराबर, एक वत भी न छोडा।
सुकेशी—पांच बाहिो को मंगल के िदन भोजन कराती रही?
िनरपमा—यह तो उनहोने नहीं कहा था।
सुकेशी—तुमहारा िसर, मुझे िूब याद है , मेरे सामने उनहोने बहुत जोर
दे कर कहा था। तुमने सोचा होगा, बाहिो को भोजन कराने से कया होता है ।
यह न समझा िक कोई अनुषान सफल नहीं होता जब तक िििधित ् उसका
पालन न िकया जाये।
सास—इसने कभी इसकी चचा ग ही नहीं की;नहीं;पांच कया दस बाहिो
को िजमा दे ती। तुमहारे धमग से कुछ कमी नहीं है ।
सुकेशी—कुछ नहीं, भूल हो गयी और कया। रानी, बेटे का मुंह यो
दे िना नसीब नहीं होता। बडे -बडे जप-तप करने पडते है , तुम मंगल के वत
ही से घबरा गयीं?
सास—अभािगनी है और कया?
घमंडीलाल—ऐसी कौन-सी बडी बाते थीं, जो याद न रहीं? िह हम लोगो
को जलाना चाहती है ।
सास—िही तो कहूं िक महातमा की बात कैसे िनषफल हुई। यहां सात
बरसो ते ‘तुलसी माई’ को िदया चढाया, जब जा के बचचे का जनम हुआ।
घमंडीलाल—इनहोने समझा था दाल-भात का कौर है !
सुकेशी—िैर, अब जो हुआ सो हुआ कल मंगल है , िफर वत रिो और
अब की सात बाहिो को िजमाओ, दे िे, कैसे महातमा जी की बात नहीं पूरी
होती।
घमंडीलाल-वयथग है , इनके िकये कुछ न होगा।
115
सुकेशी—बाबूजी, आप ििदान समझदार होकर इतना िदल छोटा करते
है । अभी आपककी उम कया है । िकतने पुत लीिजएगा? नाको दम न हो जाये
तो किहएगा।
सास—बेटी, दध
ू -पूत से भी िकसी का मन भरा है ।
सुकेशी—ईशर ने चाहा तो आप लोगो का मन भर जायेगा। मेरा तो
भर गया।
घमंडीलाल—सुनती हो महारानी, अबकी कोई गोलमोल मत करना।
अपनी भाभी से सब बयोरा अचछी तरह पूछ लेना।
सुकेशी—आप िनिशंत रहे , मै याद करा दंग
ू ी; कया भोजन करना होगा,
कैसे रहना होगा कैसे सनान करना होगा, यह सब िलिा दंग
ू ी और अममा जी,
आज से अठारह मास बाद आपसे कोई भारी इनाम लूग
ं ी।
सुकेशी एक सपाह यहां रही और िनरपमा को िूब िसिा-पढा कर
चली गयी।
5

िन
रपमा का एकबाल िफर चमका, घमंडीलाल अबकी इतने आशािसत से
रानी हुई, सास िफर उसे पान की भांित फेरने लगी, लोग उसका मुंह
जोहने लगे।
िदन गुजरने लगे, िनरपमा कभी कहती अममां जी, आज मैने सिपन
दे िा िक िद
ृ सी ने आकर मुझे पुकारा और एक नािरयल दे कर बोली, ‘यह
तुमहे िदये जाती हूं; कभी कहती,’अममां जी, अबकी न जाने कयो मेरे िदल मे
बडी-बडी उमंगे पैदा हो रही है , जी चाहता है िूब गाना सुनूं, नदी मे िूब
सनान करं, हरदम नशा-सा छाया रहता है । सास सुनकर मुसकराती और
कहती—बहू ये शुभ लकि है ।
िनरपमा चुपके-चुपके माजूर मंगाकर िाती और अपने असल नेतो से
ताकते हुए घमंडीलाल से पूछती-मेरी आंिे लाल है कया?
घमंडीलाल िुश होकर कहते—मालूम होता है , नशा चढा हुआ है । ये
शुभ लकि है ।
िनरपमा को सुगध
ं ो से कभी इतना पेम न था, फूलो के गजरो पर अब
िह जान दे ती थी।
घमंडीलाल अब िनतय सोते समय उसे महाभारत की िीर कथाएं
पढकर सुनाते, कभी गुर गोििंदिसंह कीित ग का ििन
ग करते। अिभमनयु की

116
कथा से िनरपमा को बडा पेम था। िपता अपने आने िाले पुत को िीर-
संसकारो से पिरपूिरत कर दे ना चाहता था।
एक िदन िनरपमा ने पित से कहा—नाम कया रिोगे?
घमंडीलाल—यह तो तुमने िूब सोचा। मुझे तो इसका धयान ही न
रहा। ऐसा नाम होना चािहए िजससे शौयग और तेज टपके। सोचो कोई नाम।
दोनो पािी नामो की वयाखया करने लगे। जोरािरलाल से लेकर
हिरशनद तक सभी नाम िगनाये गये, पर उस असामानय बालक के िलए कोई
नाम न िमला। अंत मे पित ने कहा तेगबहादरु कैसा नाम है ।
िनरपमा—बस-बस, यही नाम मुझे पसनद है ?
घमंडी लाल—नाम ही तो सब कुछ है । दमडी, छकौडी, घुरहू, कतिार,
िजसके नाम दे िे उसे भी ‘यथा नाम तथा गुि’ ही पाया। हमारे बचचे का
नाम होगा तेगबहादरु।


6
सि-काल आ पहुंचा। िनरपमा को मालूम था िक कया होने िाली है ;
लेिकन बाहर मंगलाचरि का पूरा सामान था। अबकी िकसी को
लेशमात भी संदेह न था। नाच, गाने का पबंध भी िकया गया था। एक
शािमयाना िडा िकया गया था और िमतगि उसमे बैठे िुश-गिपपयां कर रहे
थे। हलिाई कडाई से पूिरयां और िमठाइयां िनकाल रहा था। कई बोरे अनाज
के रिे हुए थे िक शुभ समाचार पाते ही िभकुको को बांटे जाये। एक कि
का भी ििलमब न हो, इसिलए बोरो के मुंह िोल िदये गये थे।
लेिकन िनरपमा का िदल पितकि बैठा जाता था। अब कया होगा?
तीन साल िकसी तरह कौशल से कट गये और मजे मे कट गये, लेिकन अब
ििपित िसर पर मंडरा रही है । हाय! िनरपराध होने पर भी यही दं ड! अगर
भगिान ् की इचछा है िक मेरे गभ ग से कोई पुत न जनम ले तो मेरा कया
दोष! लेिकन कौन सुनता है । मै ही अभािगनी हूं मै ही तयािय हूं मै ही
कलमुंही हूं इसीिलए न िक परिश हूं! कया होगा? अभी एक कि मे यह सारा
आनंदातसि शोक मे डू ब जायेगा, मुझ पर बौछारे पडने लगेगी, भीतर से बाहर
तक मुझी को कोसेगे, सास-ससुर का भय नहीं, लेिकन सिामी जी शायद िफर
मेरा मुंह न दे िे, शायद िनराश होकर घर-बार तयाग दे । चारो तरफ अमंगल
ही अमंगल है मै अपने घर की, अपनी संतान की दद
ु ग शा दे िने के िलए कयो
जीिित हूं। कौशल बहुत हो चुका, अब उससे कोई आशा नहीं। मेरे िदल मे

117
कैसे-कैसे अरमान थे। अपनी पयारी बिचचयो का लालन-पालन करती, उनहे
बयाहती, उनके बचचो को दे िकर सुिी होती। पर आह! यह सब अरमान झाक
मे िमले जाते है । भगिान ्! तुमही अब इनके िपता हो, तुमहीं इनके रकक हो।
मै तो अब जाती हूं।
लेडी डॉकटर ने कहा—िेल! िफर लडकी है ।
भीतर-बाहर कुहराम मच गया, िपटटस पड गयी। घमंडीलाल ने कहा—
जहननुम मे जाये ऐसी िजंदगी, मौत भी नहीं आ जाती!
उनके िपता भी बोले—अभािगनी है , िज अभािगनी!
िभकुको ने कहा—रोओ अपनी तकदीर को हम कोई दस
ू रा दार दे िते
है ।
अभी यह शोकादगार शांत न होने पाया था िक डॉकटर ने कहा मां का
हाल अचछा नहीं है । िह अब नहीं बच सकती। उसका िदल बंद हो गया है ।

118
दणड

संधया का समय था। कचहरी उठ गयी थी। अहलकार चपरासी जेबे


िनिनाते घर जा रहे थे। मेहतर कूडे टटोल रहा था िक शायद कहीं पैसे
िमल जाये। कचहरी के बरामदो मे सांडो ने िकीलो की जगह ले ली थी। पेडो
के नीचे मुहिरग रो की जगह कुते बैठे नजर आते थे। इसी समय एक बूढा
आदमी, फटे -पुराने कपडे पहने, लाठी टे कता हुआ, जंट साहब के बंगले पर
पहुंचा और सायबान मे िडा हो गया। जंट साहब का नाम था िमसटर जी0
िसनहा। अरदली ने दरू ही से ललकारा—कौन सायबान मे िडा है ? कया
चाहता है ।
बूढा—गरीब बामहान हूं भैया, साहब से भेट होगी?
अरदली—साहब तुम जैसो से नहीं िमला करते।
बूढे ने लाठी पर अकड कर कहा—कयो भाई, हम िडे है या डाकू-चोर
है िक हमारे मुंह मे कुछ लगा हुआ है ?
अरदली—भीि मांग कर मुकदमा लडने आये होगे?
बूढा—तो कोई पाप िकया है ? अगर घर बेचकर नहीं लडते तो कुछ बुरा
करते है ? यहां तो मुकदमा लडते-लडते उमर बीत गयी; लेिकन घर का पैसा
नहीं िरचा। िमयां की जूती िमयां का िसर करते है । दस भलेमानसो से मांग
कर एक को दे िदया। चलो छुटटी हुई। गांि भर नाम से कांपता है । िकसी ने
जरा भी िटर-िपर की और मैने अदालत मे दािा दायर िकया।
अरदली—िकसी बडे आदमी से पाला नहीं पडा अभी?
बूढा—अजी, िकतने ही बडो को बडे घर िभजिा िदया, तूम हो िकस फेर
मे। हाई-कोटग तक जाता हूं सीधा। कोई मेरे मुंह कया आयेगा बेचारा! गांि से
तो कौडी जाती नहीं, िफर डरे कयो? िजसकी चीज पर दांत लगाये, अपना
करके छोडा। सीधे न िदया तो अदालत मे घसीट लाये और रगेद -रगेद कर
मारा, अपना कया िबगडता है ? तो साहब से उतला करते हो िक मै ही पुकारं?
अरदली ने दे िा; यह आदमी यो टलनेिाला नहीं तो जाकर साहब से
उसकी इतला की। साहब ने हुिलया पूछा और िुश होकर कहा—फौरन बुला
लो।
अरदली—हजूर, िबलकुल फटे हाल है ।
साहब—गुदडी ही मे लाल होते है । जाकर भेज दो।
119
िमसटर िसनहा अधेड आदमी थे, बहुत ही शांत, बहुत ही ििचारशील।
बाते बहुत कम करते थे। कठोरता और असभयता, जो शासन की अंग समझी
जाती है , उनको छु भी नहीं गयी थी। नयाय और दया के दे िता मालूम होते
थे। डील-डौल दे िो का-सा था और रं ग आबनूस का-सा। आराम-कुसी पर लेटे
हुए पेचिान पी रहे थे। बूढे ने जाकर सलाम िकया।
िसनहा—तुम हो जगत पांडे! आओ बैठो। तुमहारा मुकदमा तो बहुत ही
कमजोर है । भले आदमी, जाल भी न करते बना?
जगत—ऐसा न कहे हजूर, गरीब आदमी हूं, मर जाऊंगा।
िसनहा—िकसी िकील मुखतार से सलाह भी न ले ली?
जगत—अब तो सरकार की सरन मे आया हूं।
िसनहा—सरकार कया िमिसल बदल दे गे; या नया कानून गढे गे? तुम
गचचा िा गये। मै कभी कानून के बाहर नहीं जाता। जानते हो न अपील से
कभी मेरी तजिीज रद नहीं होती?
जगत—बडा धरम होगा सरकार! (िसनहा के पैरो पर िगिननयो की एक
पोटली रिकर) बडा दि
ु ी हूं सरकार!
िसनहा—(मुसकरा कर) यहां भी अपनी चालबाजी से नहीं चूकते?
िनकालो अभी और, ओस से पयास नहीं बुझती। भला दहाई तो पूरा करो।
जगत—बहुत तंग हूं दीनबंधु!
िसनहा—डालो-डालो कमर मे हाथ। भला कुछ मेरे नाम की लाज तो
रिो।
जगत—लुट जाऊंगा सरकार!
िसनहा—लुटे तुमहारे दशुमन, जो इलाका बेचकर लडते है । तुमहारे
जजमानो का भगिान भला करे , तुमहे िकस बात की कमी है ।
िमसटर िसनहा इस मामले मे जरा भी िरयायत न करते थे। जगत ने
दे िा िक यहां काइयांपन से काम चलेगा तो चुपके से 4 िगिननयां और
िनकालीं। लेिकन उनहे िमसटर िसनहा के पैरो रिते समय उसकी आंिो से
िून िनकल आया। यह उसकी बरसो की कमाई थी। बरसो पेट काटकर, तन
जलाकर, मन बांधकर, झुठी गिािहयां दे कर उसने यह थाती संचय कर पायी
थी। उसका हाथो से िनकलना पाि िनकलने से कम दि
ु दायी न था।

120
जगत पांडे के चले जाने के बाद, कोई 9 बजे रात को, जंट साहब के
बंगले पर एक तांगा आकर रका और उस पर से पंिडत सतयदे ि उतरे जो
राजा साहब िशिपुर के मुखतार थे।
िमसटर िसनहा ने मुसकराकर कहा—आप शायद अपने इलाके मे गरीबो
को न रहने दे गे। इतना जुलम!
सतयदे ि—गरीब परिर, यह किहए िक गरीबो के मारे अब इलाके मे
हमारा रहना मुिशकल हो रहा है । आप जानते है , साधी उं गली से घी नहीं
िनकलता। जमींदार को कुछ-न-कुछ सखती करनी ही पडती है , मगर अब यह
हाल है िक हमने जरा चूं भी की तो उनहीं गरीबो की तयोिरयां बदल जाती
है । सब मुफत मे जमीन जोतना चाहते है । लगान मांिगये तो फौजदारी का
दािा करने को तैयार! अब इसी जगत पांडे को दे ििए, गंगा कसम है हुजरू
सरासर झूठा दािा है । हुजूर से कोई बात िछपी तो रह नहीं सकती। अगर
जगत पांडे मुकदमा जीत गया तो हमे बोिरयां-बंधना छोडकर भागना पडे गा।
अब हुजूर ही बसाएं तो बस सकते है । राजा साहब ने हुजरू को सलाम कहा
है और अज ग की है हक इस मामले मे जगत पांडे की ऐसी िबर ले िक िह
भी याद करे ।
िमसटर िसनहा ने भिे िसकोड कर कहा—कानून मेरे घर तो नहीं
बनता?
सतयदे ि—आपके हाथ मे सब कुछ है ।
यह कहकर िगिननयो की एक गडडी िनकाल कर मेज पर रि दी।
िमसटर िसनहा ने गडडी को आंिो से िगनकर कहा—इनहे मेरी तरफ से राजा
साहब को नजर कर दीिजएगा। आििर आप कोई िकील तो करे गे। उसे कया
दीिजएगा?
सतयदे ि—यह तो हुजरू के हाथ मे है । िजतनी ही पेिशयां होगी उतना
ही िचग भी बढे गा।
िसनहा—मै चाहूं तो महीनो लटका सकता हूं।
सतयदे ि—हां, इससे कौन इनकार कर सकता है ।
िसनहा—पांच पेिशयां भी हुयीं तो आपके कम से कम एक हजार उड
जायेगे। आप यहां उसका आधा पूरा कर दीिजए तो एक ही पेशी मे िारा-
नयारा हो जाए। आधी रकम बच जाय।

121
सतयदे ि ने 10 िगिननयां और िनकाल कर मेज पर रि दीं और घमंड
के साथ बोले—हुकम हो तो राजा साहब कह दं ू, आप इतमीनान रिे, साहब
की कृ पादिि हो गयी है ।
िमसटर िसनहा ने तीव सिर मे कहा ‘जी नहीं, यह कहने की जररत
नहीं। मै िकसी शतग पर यह रकम नहीं ले रहा। मै करंगा िही जो कानून की
मंशा होगी। कानून के ििलाफ जौ-भर भी नहीं जा सकता। यही मेरा उसूल
है । आप लोग मेरी िाितर करते है , यह आपकी शरारत है । उसे अपना
दशुमन समझूंगा जो मेरा ईमान िरीदना चाहे । मै जो कुछ लेता हूं, सचचाई
का इनाम समझ कर लेता हूं।‘


2
गत पांडे को पूरा ििशास था िक मेरी जीत होगी; लेिकन तजबीज
सुनी तो होश उड गये! दािा िािरज हो गया! उस पर िचग की चपत
अलग। मेरे साथ यह चाल! अगर लाला साहब को इसका मजा न चिा िदया,
तो बामहन नहीं। है िकस फेर मे? सारा रोब भुला दंग
ू ा। िहां गाढी कमाई के
रपये है । कौन पचा सकता है ? हाड फोड-फोड कर िनकलेगे। दार पर िसर
पटक-पटक कर मर जाऊंगा।
उसी िदन संधया को जगत पांडे ने िमसटर िसनहा के बंगले के सामने
आसन जमा िदया। िहां बरगद का घना िक
ृ था। मुकदमेिाले िहीं सतू,
चबेना िाते ओर दोपहरी उसी की छांह मे काटते थे। जगत पांडे उनसे
िमसटर िसनहा की िदल िोलकर िनंदा करता। न कुछ िाता न पीता, बस
लोगो को अपनी रामकहानी सुनाया करता। जो सुनता िह जंट साहब को
चार िोटी-िरी कहता—आदमी नहीं िपशाच है , इसे तो ऐसी जगह मारे जहां
पानी न िमले। रपये के रपये िलए, ऊपर से िरचे समेत िडगी कर दी! यही
करना था तो रपये काहे को िनकले थे? यह है हमारे भाई-बंदो का हाल। यह
अपने कहलाते है ! इनसे तो अंगेज ही अचछे । इस तरह की आलोचनाएं िदन-
भर हुआ करतीं। जगत पांडे के आस-पास आठो पहर जमघट लगा रहता।
इस तरह चार िदन बीत गये और िमसटर िसनहा के कानो मे भी बात
पहुंची। अनय िरशती कमच
ग ािरयो की तरह िह भी हे कड आदमी थे। ऐसे
िनदय द रहते मानो उनहे यह बीमारी छू तक नहीं गयी है । जब िह कानून से
जौ-भर भी न टलते थे तो उन पर िरशत का संदेह हो ही कयोकर सकता
था, और कोई करता भी तो उसकी मानता कौन! ऐसे चतुर ििलाडी के ििरद

122
कोई जाबते की कारग िाई कैसे होती? िमसटर िसनहा अपने अफसरो से भी
िुशामद का वयिहार न करते। इससे हुककाम भी उनका बहुत आदर करते
थे। मगर जगत पांडे ने िह मंत मारा था िजसका उनके पास कोई उतर न
था। ऐसे बांगड आदमी से आज तक उनहे सािबका न पडा था। अपने नौकरो
से पूछते—बुडढा कया कर रहा है । नौकर लोग अपनापन जताने के िलए झूठ
के पुल बांध दे ते—हुजूर, कहता था भूत बन कर लगूंगा, मेरी िेदी बने तो
सही, िजस िदन मरंगा उस िदन के सौ जगत पांडे होगे। िमसटर िसनहा
पकके नािसतक थे; लेिकन ये बाते सुन-सुनकर सशंक हो जाते, और उनकी
पती तो थर-थर कांपने लगतीं। िह नौकरो से बार-बार कहती उससे जाकर
पूछो, कया चाहता है । िजतना रपया चाहे ले, हमसे जो मांगे िह दे गे, बस यहां
से चला जाय, लेिकन िमसटर िसनहा आदिमयो को इशारे से मना कर दे ते
थे। उनहे अभी तक आशा थी िक भूि-पयास से वयाकुल होकर बुडढा चला
जायगा। इससे अिधक भय यह था िक मै जरा भी नरम पडा और नौकरो ने
मुझे उललू बनाया।
छठे िदन मालूम हुआ िक जगत पांडे अबोल हो गया है , उससे िहला
तक नहीं जाता, चुपचाप पडा आकाश की ओर दे ि रहा है । शायद आज रात
दम िनकल जाय। िमसटर िसनहा ने लंबी सांस ली और गहरी िचंता मे डू ब
गये। पती ने आंिो मे आंसू भरकर आगहपूिह
ग कहा—तुमहे मेरे िसर की
कसम, जाकर िकसी इस बला को टालो। बुडढा मर गया तो हम कहीं के न
रहे गे। अब रपये का मुंह मत दे िो। दो-चार हजार भी दे ने पडे तो दे कर उसे
मनाओ। तुमको जाते शमग आती हो तो मै चली जाऊं।
िसनहा—जाने का इरादा तो मै कई िदन से कर रहा हूं; लेिकन जब
दे िता हूं िहां भीड लगी रहती है , इससे िहममत नहीं पडती। सब आदिमयो
के सामने तो मुझसे न जाया जायगा, चाहे िकतनी ही बडी आफत कयो न
आ पडे । तुम दो-चार हजार की कहती हो, मै दस-पांच हजार दे ने को तैयार
हूं। लेिकन िहां नहीं जा सकता। न जाने िकस बुरी साइत से मैने इसके
रपये िलए। जानता िक यह इतना िफसाद िडा करे गा तो फाटक मे घुसने
ही न दे ता। दे िने मे तो ऐसा सीधा मालूम होता था िक गऊ है । मैने पहली
बार आदमी पहचानने मे धोिा िाया।

123
पती—तो मै ही चली जाऊं? शहर की तरफ से आऊंगी और सब
आदिमयो को हटाकर अकेले मे बात करं गी। िकसी को िबर न होगी िक
कौन है । इसमे तो कोई हरज नहीं है ?
िमसटर िसनहा ने संिदगध भाि से कहा-ताडने िाले ताड ही जायेगे,
िाहे तुम िकतना ही िछपाओ।
पती—ताड जायेगे ताड जाये, अब िकससे कहां तक डरं । बदनामी अभी
कया कम हो रही है ,जो और हो जायगी। सारी दिुनया जानती है िक तुमने
रपये िलए। यो ही कोई िकसी पर पाि नहीं दे ता। िफर अब वयथ ग ऐंथ कयो
करो?
िमसटर िसनहा अब ममि
ग ेदना को न दबा सके। बोले—िपये, यह वयथग
की ऐंठ नहीं है । चोर को अदालत मे बेत िाने से उतनी लिजा नहीं आती,
िजतनी िकसी हािकम को अपनी िरशत का परदा िुलने से आती है । िह
जहर िा कर मर जायगा; पर संसार के सामने अपना परदा न िोलेगा।
अपना सिन
ग ाश दे ि सकता है ; पर यह अपमान नहीं सह सकता, िजंदा िाल
िींचने, या कोलहू मे पेरे जाने के िसिा और कोई िसथित नहीं है , जो उसे
अपना अपराध सिीकार करा सके। इसका तो मुझे जरा भी भय नहीं है िक
बाहि भूत बनकर हमको सतायेगा, या हमे उनकी िेदी बनाकर पूजनी
पडे गी, यह भी जानता हूं िक पाप का दं ड भी बहुधा नहीं िमलता; लेिकन िहं द ू
होने के कारि संसकारो की शंका कुछ-कुछ बनी हुई है । बहहतया का कलंक
िसर पर लेते हुए आतमा कांपती है । बस इतनी बात है । मै आज रात को
मौका दे िकर जाऊंगा और इस संकट को काटने के िलए जो कुछ हो सकेगा,
करं गा। ितर जमा रिो।


3
धी रात बीत चुकी थी। िमसटर िसनहा घर से िनकले और अकेले
जगत पांडे को मनाने चले। बरगद के नीचे िबलकुल सननाटा था।
अनधकार ऐसा था मानो िनशादे िी यहीं शयन कर रही हो। जगत पांडे की
सांस जोर-जोर से चल रही थी मानो मौत जबरदसती घसीटे िलए जाती हो।
िमसटर िसनहा के रोएं िडे हो गये। बुडढा कहीं मर तो नहीं रहा है ? जेबी
लालटे न िनकाली और जगत के समीप जाकर बोले—पांडे जी, कहो कया हाल
है ?

124
जगत पांडे ने आंिे िोलकर दे िा और उठने की असफल चेिा करके
बोला—मेरा हाल पूछते हो? दे िते नहीं हो, मर रहा हूं?
िसनहा—तो इस तरह कयो पाि दे ते हो?
जगत—तुमहारी यही इचछा है तो मै कया करं?
िसनहा—मेरी तो यही इचछा नहीं। हां, तुम अलबता मेरा सिन
ग ाश करने
पर तुले हुए हो। आििर मैने तुमहारे डे ढ सौ रपये ही तो िलए है । इतने ही
रपये के िलए तुम इतना बडा अनुषान कर रहे हो!
जगत—डे ढ सौ रपये की बात नहीं है । जो तुमने मुझे िमटटी मे िमला
िदया। मेरी िडगी हो गयी होती तो मुझे दस बीघे जमीन िमल जाती और
सारे इलाके मे नाम हो जाता। तुमने मेरे डे ढ सौ नहीं िलए, मेरे पांच हजार
िबगाड िदये। पूरे पांच हजार; लेिकन यह घमंड न रहे गा, याद रिना कहे दे ता
हूं, सतयानाश हो जायगा। इस अदालत मे तुमहारा रािय है ; लेिकन भगिान
के दरिार मे ििपो ही का रािय है । ििप का धन लेकर कोई सुिी नहीं रह
सकता।
िमसटर िसनहा ने बहुत िेद और लिजा पकट की, बहुत अनुनय-से
काम िलया और अनत मे पूछा—सच बताओ पांडे, िकतने रपये पा जाओ तो
यह अनुषान छोड दो।
जगत पांडे अबकी जोर लगाकर उठ बैठे और बडी उतसुकता से बोले—
पांच हजार से कौडी कम न लूंगा।
िसनहा—पांच हजार तो बहुत होते है । इतना जुलम न करो।
जगत—नहीं, इससे कम न लूग
ं ा।
यह कहकर जगत पांडे िफर लेट गया। उसने ये शबद िनशयातमक
भाि से कहे थे िक िमसटर िसनहा को और कुछ कहने का साहस न हुआ।
रपये लाने घर चले; लेिकन घर पहुंचते-पहुंचते नीयत बदल गयी। डे ढ सौ के
बदले पांच हजार दे ते कलंक हुआ। मन मे कहा—मरता है जाने दो, कहां की
बहहतया और कैसा पाप! यह सब पािंड है । बदनामी न होगी? सरकारी
मुलािजम तो यो ही बदनाम होते है , यह कोई नई बात थोडे ही है । बचा कैसे
उठ बैठे थे। समझा होगा, उललू फंसा। अगर 6 िदन के उपिास करने से पांच
हजार िमले तो मै महीने मे कम से कम पांच मरतबा यह अनुषान करं।
पांच हजार नहीं, कोई मुझे एक ही हजार दे दे । यहां तो महीने भर नाक
रगडता हूं तब जाके 600 रपये के दशन
ग होते है । नोच-िसोट से भी शायद
125
ही िकसी महीने मे इससे ियादा िमलता हो। बैठा मेरी राह दे ि रहा होगा।
लेना रपये, मुंह मीठ हो जायगा।
िह चारपाई पर लेटना चाहते थे िक उनकी पती जी आकर िडी हो
गयीं। उनक िसर के बाल िुले हुए थे। आंिे सहमी हुई, रह-रहकर कांप
उठती थीं। मुंह से शबद न िनकलता था। बडी मुिशकल से बोलीं—आधी रात
तो हो गई होगी? तुम जगत पांडे के पास चले जाओ। मैने अभी ऐसा बुरा
सपना दे िा है िक अभी तक कलेजा धडक रहा है , जान संकट मे पडी हुई है ।
जाके िकसी तरह उसे टालो।
िमसटर िसनहा—िहीं से तो चला आ रहा हूं। मुझे तुमसे ियादा िफक
है । अभी आकर िडा ही हुआ था िक तुम आयी।
पती—अचछा! तो तुम गये थे! कया बाते हुई, राजी हुआ।
िसनहा—पांच हजार रपये मांगता है !
पती—पांच हजार!
िसनहा—कौडी कम नहीं कर सकता और मेरे पास इस िक एक हजार
से ियादा न होगे।
पती ने एक कि सोचकर कहा—िजतना मांगता है उतना ही दे दो,
िकसी तरह गला तो छूट। तुमहारे पास रपये न हो तो मै दे दंग
ू ी। अभी से
सपने िदिाई दे न लगे है । मरा तो पाि कैसे बचेगे। बोलता-चालता है न?
िमसटर िसनहा अगर आबनूस थे तो उनकी पती चंदन; िसनहा उनके
गुलाम थे, उनके इशारो पर चलते थे। पती जी भी पित-शासन मे कुशल थीं।
सौदय ग और अजान मे अपिाद है । सुंदरी कभी भोली नहीं होती। िह पुरष के
ममस
ग थल पर आसन जमाना जानती है !
िसनहा—तो लाओ दे ता आऊं; लेिकन आदमी बडा चगघड है , कहीं रपये
लेकर सबको िदिाता िफरे तो?
पती—इसको यहां से इसी िक भागना होगा।
िसनहा—तो िनकालो दे ही दं।ू िजंदगी मे यह बात भी याद रहे गी।
पती—ने अििशास भाि से कहा—चलो, मै भी चलती हूं। इस िक कौन
दे िता है ?
पती से अिधक पुरष के चिरत का जान और िकसी को नहीं होता।
िमसटर िसनहा की मनोििृतयो को उनकी पती जी िूब जानती थीं। कौन
जान रासते मे रपये कहीं िछपा दे , और कह दे दे आए। या कहने लगे, रपये
126
लेकर भी नहीं टलता तो मै कया करं। जाकर संदक
ू से नोटो के पुिलंदे
िनकाले और उनहे चादर मे िछपा कर िमसटर िसनहा के साथ चलीं। िसनहा
के मुंह पर झाडू -सी िफरी थी। लालटे न िलए पछताते चले जाते थे। 5000 र0
िनकले जाते है । िफर इतने रपये कब िमलेगे; कौन जानता है ? इससे तो कहीं
अचछा था दि
ु मर ही जाता। बला से बदनामी होती, कोई मेरी जेब से रपये
तो न छीन लेता। ईशर करे मर गया हो!
अभी तक दोनो आदमी फाटक ही तकम आए थे िक दे िा, जगत पांडे
लाठी टे कता चला आता है । उसका सिरप इतना डरािना था मानो शमशान
से कोई मुरदा भागा आता हो।
पती जी बोली—महाराज, हम तो आ ही रहे थे, तुमने कयो कि िकया?
रपये ले कर सीधे घर चले जाओगे न?
जगत—हां-हां, सीधा घर जाऊंगा। कहां है रपये दे िूं!
पती जी ने नोटो का पुिलंदा बाहर िनकाला और लालटे न िदिा कर
बोलीं—िगन लो। 5000 रपये है !
पांडे ने पुिलंदा िलया और बैठ कर उलट-पुलट कर दे िने लगा। उसकी
आंिे एक नये पकाश से चमकने लगी। हाथो मे नोटो को तौलता हुआ बोला
—पूरे पांच हजार है ?
पती—पूरे िगन लो?
जगत—पांच हजार मे दो टोकरी भर जायगी! (हाथो से बताकर) इतने
सारे पांच हजार!
िसनहा—कया अब भी तुमहे ििशास नहीं आता?
जगत—है -है , पूरे है पूरे पांच हजार! तो अब जाऊं, भाग जाऊं?
यह कह कर िह पुिलंदा िलए कई कदम लडिडाता हुआ चला, जैसे
कोई शराबी, और तब धम से जमीन पर िगर पडा। िमसटर िसनहा लपट कर
उठाने दौडे तो दे िा उसकी आंिे पथरा गयी है और मुि पीला पड गया है ।
बोले—पांडे, कया कहीं चोट आ गयी?
पांडे ने एक बार मुंह िोला जैसे मरी हुई िचिडया िसर लटका चोच
िोल दे ती है । जीिन का अंितम धागा भी टू ट गया। ओंठ िुले हुए थे और
नोटो का पुिलंदा छाती पर रिा हुआ था। इतने मे पती जी भी आ पहुंची
और शि को दे िकर चौक पडीं!
पती—इसे कया हो गया?
127
िसनहा—मर गया और कया हो गया?
पती—(िसर पीट कर) मर गया! हाय भगिान ्! अब कहां जाऊं?
यह कह कर बंगले की ओर बडी तेजी से चलीं। िमसटर िसनहा ने भी
नोटो का पुिलंदा शि की छाती पर से उठा िलया और चले।
पती—ये रपये अब कया होगे?
िसनहा—िकसी धमग-कायग मे दे दंग
ू ा।
पती—घर मे मत रिना, िबरदार! हाय भगिान!

दू
4
सरे िदन सारे शहर मे िबर मशहूर हो गयी—जगत पांडे ने जंट साहब
पर जान दे दी। उसका शि उठा तो हजारो आदमी साथ थे। िमसटर
िसनहा को िुललम-िुलला गािलयां दी जा रही थीं।
संधया समय िमसटर िसनहा कचहरी से आ कर मन मार बैठे थे िक
नौकरो ने आ कर कहा—सरकार, हमको छुटटी दी जाय! हमारा िहसाब कर
दीिजए। हमारी िबरादरी के लोग धमकते है िक तुम जंट साहब की नौकरी
करोगे तो हुकका-पानी बंद हो जायगा।
िसनहा ने झलला कर कहा—कौन धमकाता है ?
कहार—िकसका नाम बताएं सरकार! सभी तो कह रहे है ।
रसोइया—हुजूर, मुझे तो लोग धमकाते है िक मिनदर मे न घुसने
पाओगे।
साईस—हुजूर, िबरादरी से िबगाड करक हम लोग कहां जाएंगे? हमारा
आज से इसतीफा है । िहसाब जब चाहे कर दीिजएगा।
िमसटर िसनहा ने बहुत धमकाया िफर िदलासा दे ने लगे; लेिकन नौकरो
ने एक न सुनी। आध घणटे के अनदर सबो ने अपना-अपना रासता िलया।
िमसटर िसनहा दांत पीस कर रह गए; लेिकन हािकमो का काम कब रकता
है ? उनहोने उसी िक कोतिाल को िबर कर दी और कई आदमी बेगार मे
पकड आए। काम चल िनकला।
उसी िदन से िमसटर िसनहा और िहं द ू समाज मे िींचतान शुर हुई।
धोबी ने कपडे धोन बंद कर िदया। गिाले ने दध
ू लाने मे आना-कानी की।
नाई ने हजामत बनानी छोडी। इन ििपितयो पर पती जी का रोना-धोना
और भी गजब था। इनहे रोज भयंकर सिपन िदिाई दे ते। रात को एक कमरे
से दस
ू रे मे जाते पाि िनकलते थे। िकसी को जरा िसर भी दि
ु ता तो नहीं

128
मे जान समा जाती। सबसे बडी मुसीबत यह थी िक अपने समबिनधयो ने
भी आना-जाना छोड िदया। एक िदन साले आए, मगर िबना पानी िपये चले
गए। इसी तरह एक बहनोई का आगमन हुआ। उनहोने पान तक न िाया।
िमसटर िसनहा बडे धैय ग से यह सारा ितरसकार सहते जाते थे। अब तक
उनकी आिथक
ग हािन न हुई थी। गरज के बािले झक मार कर आते ही थे
और नजर-नजराना िमलता ही था। िफर ििशेष िचंता का कोई कारि न था।
लेिकन िबरादरी से िैर करना पानी मे रह कर मगर से िैर करने जैसे
है । कोई-न-कोई ऐसा अिसर ही आ जाता है , जब हमको िबरादरी के सामने
िसर झुकाना पडता है । िमसटर िसनहा को भी साल के अनदर ही ऐसा
अिसर आ पडा। यह उनकी पुती का िििाह था। यही िह समसया है जो
बडे -बडे हे कडो का घमंड चूर कर दे ती है । आप िकसी के आने-जाने की परिा
न करे , हुकका-पानी, भोज-भात, मेल-जोल िकसी बात की परिा न करे ; मगर
लडकी का िििाह तो न टलने िाली बला है । उससे बचकर आप कहां जाएंगे!
िमसटर िसनहा को इस बात का दगदगा तो पिहले ही था िक ितिेिी के
िििाह मे बाधाएं पडे गी; लेिकन उनहे ििशास था िक दवय की अपार शिक
इस मुिशकल को हल कर दे गी। कुछ िदनो तक उनहोने जान-बूझ कर टाला
िक शायद इस आंधी का जोर कुछ कम हो जाय; लेिकन जब ितिेिी को
सोलहिां साल समाप हो गया तो टाल-मटोल की गुज
ं ाइश न रही। संदेशे
भेजने लगे; लेिकन जहां संदेिशया जाता िहीं जिाब िमलता—हमे मंजूर नही।
िजन घरो मे साल-भर पहले उनका संदेशा पा कर लोग अपने भागय को
सराहते, िहां से अब सूिा जिाब िमलता था—हमे मंजूर नहीं। िमसटर िसनहा
धन का लोभ दे ते, जमीन नजर करने को कहते, लडके को ििलायत भेज कर
ऊंची िशका िदलाने का पसताि करते िकंतु उनकी सारी आयोजनाओं का एक
ही जिाब िमलता था—हमे मंजूर नहीं। ऊंचे घरानो का यह हाल दे िकर
िमसटर िसनहा उन घरानो मे संदेश भेजने लगे, िजनके साथ पहले बैठकर
भोजन करने मे भी उनहे संकोच होता था;लेिकन िहां भी िही जिाब िमला—
हमे मंजूर नही। यहां तक िक कई जगह िे िुद दौड-दौड कर गये। लोगो की
िमननते कीं, पर यही जिाब िमला—साहब, हमे मंजूर नहीं। शायद बिहषकृ त
घरानो मे उनका संदेश सिीकार कर िलया जाता; पर िमसटर िसनहा जान-
बूझकर मकिी न िनगलना चाहते थे। ऐसे लोगो से समबनध न करना चाहते
थे िजनका िबरादरी मे काई सथान न था। इस तरह एक िषग बीत गया।
129
िमसेज िसनहा चारपाई पर पडी कराह रही थीं, ितिेिी भोजन बना रही
थी और िमसटर िसनहा पती के पास िचंता मे डू बे बैठे हुए थे। उनके हाथ मे
एक ित था, बार-बार उसे दे िते और कुछ सोचने लगते थे। बडी दे र के बाद
रोिगिी ने आंिे िोलीं और बोलीं—अब न बचूग
ं ी पांडे मेरी जान लेकर
छोडे गा। हाथ मे कैसा कागज है ?
िसनहा—यशोदानंदन के पास से ित आया है । पाजी को यह ित
िलिते हुए शमग नहीं आती, मैने इसकी नौकरी लगायी। इसकी शादी करिायी
और आज उसका िमजाज इतना बढ गया है िक अपने छोटे भाई की शादी
मेरी लडकी से करना पसंद नहीं करता। अभागे के भागय िुल जाते!
पती—भगिान ्, अब ले चलो। यह दद
ु ग शा नहीं दे िी जाती। अंगरू िाने
का जी चाहता है , मंगिाये है िक नहीं?
िसनाह—मै जाकर िुद लेता आया था।
यह कहकर उनहोने तशतरी मे अंगूर भरकर पती के पास रि िदये।
िह उठा-उठा कर िाने लगीं। जब तशतरी िाली हो गयी तो बोलीं—अब
िकसके यहां संदेशा भेजोगे?
िसनहा—िकसके यहां बताऊं! मेरी समझ मे तो अब कोई ऐसा आदमी
नहीं रह गया। ऐसी िबरादरी मे रहने से तो यह हजार दरजा अचछा है िक
िबरादरी के बाहर रहूं। मैने एक बाहि से िरशत ली। इससे मुझे इनकार
नहीं। लेिकन कौन िरशत नहीं लेता? अपने गौ पर कोई नहीं चूकता। बाहि
नहीं िुद ईशर ही कयो न हो, िरशत िाने िाले उनहे भी चूस लेगे। िरशत
दे ने िाला अगर कोई िनराश होकर अपने पाि दे ता है तो मेरा कया अपराध!
अगर कोई मेरे फैसले से नाराज होकर जहर िा ले तो मै कया कर सकता
हूं। इस पर भी मै पायिशत करने को तैयार हूं। िबरादरी जो दं ड दे , उसे
सिीकार करने को तैयार हूं। सबसे कह चुका हूं मुझसे जो पायिशत चाहो
करा लो पर कोई नहीं सुनता। दं ड अपराध के अनुकूल होना चािहए, नहीं तो
यह अनयाय है । अगर िकसी मुसलमान का छुआ भोजन िाने के िलए
िबरादरी मुझे काले पानी भेजना चाहे तो मै उसे कभी न मानूंगा। िफर
अपराध अगर है तो मेरा है । मेरी लडकी ने कया अपराध िकया है । मेरे
अपराध के िलए लडकी को दं ड दे ना सरासर नयाय-ििरद है ।
पती—मगर करोगे कया? और कोई पंचायत कयो नहीं करते?

130
िसनहा—पंचायत मे भी तो िही िबरादरी के मुििया लोग ही होगे,
उनसे मुझे नयाय की आशा नहीं। िासति मे इस ितरसकार का कारि ईषयाग
है । मुझे दे िकर सब जलते है और इसी बहाने िे मुझे नीचा िदिाना चाहते
है । मै इन लोगो को िूब समझता हूं।
पती—मन की लालसा मन मे रह गयी। यह अरमान िलये संसार से
जाना पडे गा। भगिान ् की जैसी इचछा। तुमहारी बातो से मुझे डर लगता है
िक मेरी बचची की न-जाने कया दशा होगी। मगर तुमसे मेरी अंितम ििनय
यही है िक िबरादरी से बाहर न जाना, नहीं तो परलोक मे भी मेरी आतमा
को शांित न िमलेगी। यह शोक मेरी जान ले रहा है । हाय, बचची पर न-जाने
कया ििपित आने िाली है ।
यह कहते िमसेज िसनहा की आंिे मे आंसू बहने लगे। िमसटर िसनहा
ने उनको िदलासा दे ते हुए कहा—इसकी िचंता मत करो िपये , मेरा आशय
केिल यह था िक ऐसे भाि मन मे आया करते है । तुमसे सच कहता हूं ,
िबरादरी के अनयाय से कलेजा छलनी हो गया है ।
पती—िबरादरी को बुरा मत कहो। िबरादरी का डर न हो तो आदमी न
जाने कया-कया उतपात करे । िबरादरी को बुरा न कहो। (कलेजे पर हाथ
रिकर) यहां बडा ददग हो रहा है । यशोदानंद ने भी कोरा जिाब दे िदया।
िकसी करिट चैन नहीं आता। कया करं भगिान।्
िसनहा—डाकटर को बुलाऊं?
पती—तुमहारा जी चाहे बुला लो, लेिकन मै बचूंगी नहीं। जरा ितबबो को
बुला लो, पयार कर लूं। जी डू बा जाता है । मेरी बचची! हाय मेरी बचची!!

131
िध ककार

ई रान और यूनान मे घोर संगाम हो रहा था। ईरानी िदन-िदन बढते जाते
थे और यूनान के िलए संकट का सामना था। दे श के सारे वयिसाय बंद
हो गये थे, हल की मुिठया पर हाथ रिने िाले िकसान तलिार की मुिठया
पकडने के िलए मजबूर हो गये, डं डी तौलने िाले भाले तौलते थे। सारा दे श
आतम-रका के िलए तैयार हो गया था। िफर भी शतु के कदम िदन-िदन
आगे ही बढते आते थे। िजस ईरान को यूनान कई बार कूचल चुका था, िही
ईरान आज कोध के आिेग की भांित िसर पर चढ आता था। मदग तो रिकेत
मे िसर कटा रहे थे और िसयां िदन-िदन की िनराशाजनक िबरे सुनकर
सूिी जाती थीं। कयोकर लाज की रका होगी? पाि का भय न था, समपित
का भय न था, भय था मयाद
ग ा का। ििजेता गि ग से मतिाले होकर यूनानी
ललनाओं को घूरेगे, उनके कोमल अंगो को सपश ग करे गे, उनको कैद कर ले
जायेगे! उस ििपित की कलपना ही से इन लोगो के रोये िडे हो जाते थे।
आििर जब हालत बहुत नाजुक हो गयी तो िकतने ही सी-पुरष
िमलकर डे लफी के मंिदर मे गये और पश िकया—दे िी, हमारे ऊपर दे िताओं
की यह िक-दिि कयो है ? हमसे ऐसा कौन-सा अपराध हुआ है ? कया हमने
िनयमो का पालन नहीं िकया, कुरबािनयां नहीं कीं, वत नहीं रिे? िफर
दे िताओं ने कयो हमारे िसरो से अपनी रका का हाथ उठा िलया?
पुजािरन ने कहा—दे िताओं की असीम कृ पा भी दे श को दोही के हाथ
से नहीं बचा सकती। इस दे श मे अिशय कोई-न-कोई दोही है । जब तक
उसका िध न िकया जायेगा, दे श के िसर से यह संकट न टलेगा।
‘दे िी, िह दोही कौन है ?
‘िजस घर से रात को गाने की धििन आती हो, िजस घर से िदन को
सुगंध की लपटे आती हो, िजस पुरष की आंिो मे मद की लाली झलकती
हो, िही दे श का दोही है ।‘
लोगो ने दोही का पिरचय पाने के िलए और िकतने ही पश िकये ; पर
दे िी ने कोई उतर न िदया।

यू
2
नािनयो ने दोही की तलाश करनी शुर की। िकसके घर मे से रात को
गाने की आिाजे आती है । सारे शहर मे संधया होते सयापा-सा छा जाता
132
था। अगर कहीं आिाजे सुनायी दे ती थीं तो रोने की; हं सी और गाने की
आिाज कहीं न सुनायी दे ती थी।
िदन को सुगंध की लपटे िकस घर से आती है ? लोग िजधर जाते थे,
िकसे इतनी फुरसत थी िक घर की सफाई करता, घर मे सुगंध जलाता;
धोिबयो का अभाि था अिधकांश लडने के िलए चले गये थे, कपडे तक न
धुलते थे; इत-फुलेल कौन मलता!
िकसकी आंिो मे मद की लाली झलकती है ? लाल आंिे िदिाई दे ती
थी; लेिकन यह मद की लाली न थी, यह आंसुओं की लाली थी। मिदरा की
दक
ु ानो पर िाक उड रही थी। इस जीिन ओर मतृयु के संगाम मे ििलास
की िकसे सूझती! लोगो ने सारा शहर छान मारा लेिकन एक भी आंि ऐसी
नजर न आयी जो मद से लाल हो।
कई िदन गुजर गये। शहर मे पल-पल पर रिकेत से भयानक िबरे
आती थीं और लोगो के पाि सूि जाते थे।
आधी रात का समय था। शहर मे अंधकार छाया हुआ था, मानो
शमशान हो। िकसी की सूरत न िदिाई दे ती थी। िजन नाटयशालाओं मे
ितल रिने की जगह न िमलती थी, िहां िसयार बोल रहे थे। िजन बाजारो
मे मनचले जिान अस-शस सजाये ऐंठते िफरते थे, िहां उललू बोल रहे थे।
मंिदरो मे न गाना होता था न बजाना। पासादो मे अंधकार छाया हुआ था।
एक बूढा यूनानी िजसका इकलौता लडका लडाई के मैदान मे था, घर
से िनकला और न-जाने िकन ििचारो की तरं ग मे दे िी के मंिदर की ओर
चला। रासते मे कहीं पकाश न था, कदम-कदम पर ठोकरे िाता था; पर आगे
बढता चला जाता। उसने िनशय कर िलया िक या तो आज दे िी से ििजय
का िरदान लूंगा या उनके चरिो पर अपने को भेट कर दंग
ू ा।


3
हसा िह चौक पडा। दे िी का मंिदर आ गया था। और उसके पीछे की
ओर िकसी घर से मधुर संगीत की धििन आ रही थी। उसको आशयग
हुआ। इस िनजन
ग सथान मे कौन इस िक रं गरे िलयां मना रहा है । उसके पैरो
मे पर लग गये, मंिदर के िपछिाडे जा पहुंचा।
उसी घर से िजसमे मंिदर की पुजािरन रहती थी, गाने की आिाजे
आती थीं! िद
ृ िििसमत होकर ििडकी के सामने िडा हो गया। िचराग तले
अंधेरा! दे िी के मंिदर के िपछिाडे य अंधेर?

133
बूढे ने दार झांका; एक सजे हुए कमरे मे मोमबितयां झाडो मे जल रही
थीं, साफ-सुथरा फश ग िबछा था और एक आदमी मेज पर बैठा हुआ गा रहा
था। मेज पर शराब की बोतल और पयािलयां रिी हुई थीं। दो गुलाम मेज के
सामने हाथ मे भोजन के थाल िडे थे, िजसमे से मनोहर सुगंध की लपटे आ
रही थीं।
बूढे यूनानी ने िचललाकर कहा—यही दे शदोही है , यही दे शदोही है !
मंिदर की दीिारो ने दहुराया—दोही है !
बगीचे की तरफ से आिाज आयी—दोही है !
मंिदर की पुजािरन ने घर मे से िसर िनकालकर कहा—हां, दोही है !
यह दे शदोही उसी पुजािरन का बेटा पासोिनयस था। दे श मे रका के
जो उपाय सोचे जाते, शतुओं का दमन करने के िलए जो िनशय िकय जाते,
उनकी सूचना यह ईरािनयो को दे िदया करता था। सेनाओं की पतयेक गित
की िबर ईरािनयो को िमल जाती थी और उन पयतो को ििफल बनाने के
िलए िे पहले से तैयार हो जाते थे। यही कारि था िक यूनािनयो को जान
लडा दे ने पर भी ििजय न होती थी। इसी कपट से कमाये हुये धन से िह
भोग-ििलास करता था। उस समय जब िक दे श मे घोर संकट पडा हुआ था,
उसने अपने सिदे श को अपनी िासनाओं के िलए बेच िदया। अपने ििलास
के िसिा और िकसी बात की िचंता न थी, कोई मरे या िजये, दे श रहे या
जाये, उसकी बला से। केिल अपने कुिटल सिाथ ग के िलए दे श की गरदन मे
गुलामी की बेिडयां डलिाने पर तैयार था। पुजािरन अपने बेटे के दरुाचरि से
अनिभज थी। िह अपनी अंधेरी कोठरी से बहुत कम िनकलती, िहीं बैठी
जप-तप िकया करती थी। परलोक-िचंतन मे उसे इहलोक की िबर न थी,
मनेिनदयो ने बाहर की चेतना को शूनय-सा कर िदया था। िह इस समय भी
कोठरी के दार बंद िकये, दे िी से अपने दे श के कलयाि के िलए िनदना कर
रही थी िक सहसा उसके कानो मे आिाज आयी—यही दोही है , यही दोही है !
उसने तुरंत दार िोलकर बाहर की ओर झांका, पासोिनयम के कमरे से
पकाश की रे िाएं िनकल रही थीं और उनहीं रे िाओं पर संगीत की लहरे नाच
रही थीं। उसके पैर-तले से जमीन-सी िनकल गयी, कलेजा धक् -से हो गया।
ईशर! कया मेरा बेटा दे शदोही है ?
आप-ही-आप, िकसी अंत:पेरिा से पराभूत होकर िह िचलला उठी—हां,
यही दे शदोही है !
134
यू

नानी सी-पुरषो के झुंड-के-झुंड उमड पडे और पासोिनयस के दार पर
िडे होकर िचललाने लगे-यही दे शदाही है !
पासोिनयस के कमरे की रोशनी ठं डी हो गयी, संगीत भी बंद था; लेिकन
दार पर पितकि नगरिािसयो का समूह बढता जाता था और रह-रह कर
सहसो कंठो से धििन िनकलती थी—यही दे शदोही है !
लोगो ने मशाले जलायी और अपने लाठी-डं डे संभाल कर मकान मे
घुस पडे । कोई कहता था—िसर उतार लो। कोई कहता था—दे िी के चरिो पर
बिलदान कर दो। कुछ लोग उसे कोठे से नीचे िगरा दे ने पर आगह कर रहे
थे।
पासोिनयस समझ ् गया िक अब मुसीबत की घडी िसर पर आ गयी।
तुरंत जीने से उतरकर नीचे की ओर भागा। और कहीं शरि की आशा न
दे िकर दे िी के मंिदर मे जा घुसा।
अब कया िकया जाये? दे िी की शरि जाने िाले को अभय-दान िमल
जाता था। परमपरा से यही पथा थी? मंिदर मे िकसी की हतया करना
महापाप था।
लेिकन दे शदोही को इसने ससते कौन छोडता? भांित-भांित के पसताि
होने लगे—
‘सूअर का हाथ पकडकर बाहर िींच लो।’
‘ऐसे दे शदोही का िध करने के िलए दे िी हमे कमा कर दे गी।’
‘दे िी, आप उसे कयो नहीं िनगल जाती?’
‘पतथरो से मारो, पतथरो से; आप िनकलकर भागेगा।’
‘िनकलता कयो नहीं रे कायर! िहां कया मुंह मे कािलि लगाकर बैठा
हुआ है ?’
रात भर यही शोर मचा रहा और पासोिनयस न िनकला। आििर यह
िनशय हुआ िक मंिदर की छत िोदकर फेक दी जाये और पासोिनयस
दोपहर की धूप और रात की कडाके की सरदी मे आप ही आप अकड जाये।
बस िफर कया था। आन की आन मे लोगो ने मंिदर की छत और कलस ढा
िदये।
अभगा पासोिनयस िदन-भर तेज धूप मे िडा रहा। उसे जोर की पयास
लगी; लेिकन पानी कहां? भूि लगी, पर िाना कहां? सारी जमीन तिे की
135
भांित जलने लगी; लेिकन छांह कहां? इतना कि उसे जीिन भर मे न हुआ
था। मछली की भांित तडपता था ओर िचलला-िचलला कर लोगो को पुकारता
था; मगर िहां कोई उसकी पुकार सुनने िाला न था। बार-बार कसमे िाता
था िक अब िफर मुझसे ऐसा अपराध न होगा; लेिकन कोई उसके िनकट न
आता था। बार-बार चाहता था िक दीिार से टकरा कर पाि दे दे ; लेिकन यह
आशा रोक दे ती थी िक शायद लोगो को मुझ पर दया आ जाये। िह पागलो
की तरह जोर-जोर से कहने लगा—मुझे मार डालो, मार डालो, एक कि मे
पाि ले लो, इस भांित जला-जला कर न मारो। ओ हतयारो, तुमको जरा भी
दया नहीं।
िदन बीता और रात—भयंकर रात—आयी। ऊपर तारागि चमक रहे थे
मानो उसकी ििपित पर हं स रहे हो। ियो-ियो रात बीतती थी दे िी ििकराल
रप धारि करती जाती थी। कभी िह उसकी ओर मुंह िोलकर लपकती,
कभी उसे जलती हुई आंिो से दे िती। उधर कि-कि सरदी बढती जाती थी,
पासोिनयस के हाथ-पांि अकडने लगे, कलेजा कांपने लगा। घुटनो मे िसर
रिकर बैठ गया और अपनी िकसमत को रोने लगा। कुरते की िींचकर कभी
पैरो को िछपाता, कभी हाथो को, यहां तक िक इस िींचातानी मे कुरता भी
फट गया। आधी रात जाते-जाते बफग िगरने लगी। दोपहर को उसने सोचा
गरमी ही सबसे किदायक है । ठं ड के सामने उसे गरमी की तकलीफ भूल
गयी।
आििर शरीर मे गरमी लाने के िलए एक िहमकत सूझी। िह मंिदर मे
इधर-उधर दौडने लगा। लेिकन ििलासी जीि था, जरा दे र मे हांफ कर िगर
पडा।

पा

त:काल लोगो ने िकिाड िोले तो पासोिनसय को भूिम पर पडे
दे िा। मालूम होता था, उसका शरीर अकड गया है । बहुत चीिने-
िचललाने पर उसने आिे िोली; पर जगह से िहल न सका। िकतनी दयनीय
दशा थी, िकंतु िकसी को उस पर दया न आयी। यूनान मे दे शदोह सबसे बडा
अपराध था और दोही के िलए कहीं कमा न थी, कहीं दया न थी।
एक—अभी मरा है ?
दस
ू रा—दोिहयो को मौत नहीं आती!
तीसरा—पडा रहने दो, मर जायेगा!
136
चौथा—मक िकये हुए है ?
पांचिा—अपने िकये की सजा पा चुका है , अब छोड दे ना चािहए!
सहसा पासोिनयस उठ बैठा और उदणड भाि से बोला—कौन कहता है
िक इसे छोड दे ना चािहए! नहीं, मुझे मत छोडना, िरना पछताओगे! मै सिाथी
दं ू; ििषय-भोगी हूं, मुझ पर भूलकर भी ििशास न करना। आह! मेरे कारि
तुम लोगो को कया-कया झेलना पडा, इसे सोचकर मेरा जी चाहता है िक
अपनी इं िदयो को जलाकर भसम कर दं।ू मै अगर सौ जनम लेकर इस पाप
का पायिशत करं, तो भी मेरा उदार न होगा। तुम भूलकर भी मेरा ििशास
न करो। मुझे सियं अपने ऊपर ििशास नहीं। ििलास के पेमी सतय का
पालन नहीं कर सकते। मै अब भी आपकी कुछ सेिा कर सकता हूं, मुझे
ऐसे-ऐसे गुप रहसय मालूम है , िजनहे जानकर आप ईरािनयो का संहार कर
सकते है ; लेिकन मुझे अपने ऊपर ििशास नहीं है और आपसे भी यह कहता
हूं िक मुझ पर ििशास न कीिजए। आज रात को दे िी की मैने सचचे िदल से
िंदना की है और उनहोने मुझे ऐसे यंत बताये है , िजनसे हम शतुओं को
परासत कर सकते है , ईरािनयो के बढते हुए दल को आज भी आन की आन
मे उडा सकते है । लेिकन मुझे अपने ऊपर ििशास नहीं है । मै यहां से बाहर
िनकल कर इन बातो को भूल जाऊंगा। बहुत संशय है , िक िफर ईरािनयो की
गुप सहायता करने लगूं। इसिलए मुझ पर ििशास न कीिजए।
एक यूनानी—दे िो-दे िो कया कहता है ?
दस
ू रा—सचचा आदमी मालूम होता है ।
तीसरा—अपने अपराधो को आप सिीकार कर रहा है ।
चौथा—इसे कमा कर दे ना चािहए और यह सब बाते पूछ लेनी चािहए।
पांचिा—दे िो, यह नहीं कहता िक मुझे छोड दो। हमको बार-बार याद
िदलाता जाता है िक मुझ पर ििशास न करो!
छठा—रात भर के कि ने होश ठं डे कर िदये, अब आंिे िुली है ।
पासोिनयस—कया तुम लोग मुझे छोडने की बातचीत कर रहे हो? मै
िफर कहता हूं, मै ििशास के योगय नहीं हूं। मै दोही हूं। मुझे ईरािनयो के
बहुत-से भेद मालूम है , एक बार उनकी सेना मे पहुंच जाऊं तो उनका िमत
बनकर सिन
ग ाश कर दं ,ू पर मुझे अपने ऊपर ििशास नहीं है ।
एक यूनानी—धोिेबाज इतनी सचची बात नहीं कह सकता!
दस
ू रा—पहले सिाथाध
य हो गया था; पर अब आंिे िुली है !
137
तीसरा—दे िदोही से भी अपने मतलब की बाते मालूम कर लेने मे
कोई हािन नहीं है । अगर िह अपने िचन पूरे करे तो हमे इसे छोड दे ना
चािहए।
चौथा—दे िी की पेरिा से इसकी कायापलट हुई है ।
पांचिां—पािपयो मे भी आतमा का पकाश रहता है और कि पाकर
जागत हो जाता है । यह समझना िक िजसने एक बार पाप िकया, िह िफर
कभी पुणय कर ही नहीं सकता, मान-चिरत के एक पधान तति का अपिाद
करना है ।
छठा—हम इसको यहां से गाते-बजाते ले चलेगे। जन-समूह को चकमा
दे ना िकतना आसान है । जनसतािाद का सबसे िनबल
ग अंग यही है । जनता
तो नेक और बद की तमीज नहीं रिती। उस पर धूतो, रं गे-िसयारो का जाद ू
आसानी से चल जाता है । अभी एक िदन पहले िजस पासोिनयस की गरदन
पर तलिार चलायी जा रही थी, उसी को जलूस के साथ मंिदर से िनकालने
की तैयािरयां होने लगीं, कयोिक िह धूत ग था और जानता था िक जनता की
कील कयोकर घुमायी जा सकती है ।
एक सी—गाने-बजाने िालो को बुलाओ, पासोिनयस शरीफ है ।
दस
ू री—हां-हां, पहले चलकर उससे कमा मांगो, हमने उसके साथ जररत
से ियादा सखती की।
पासोिनयस—आप लोगो ने पूछा होता तो मै कल ही कल ही सारी
बाते आपको बता दे ता, तब आपको मालूम होता िक मुझे मार डालना उिचत
है या जीता रिना।
कई सी-पुरष—हाय-हाय हमसे बडी भूल हुई। हमारे सचचे पासोिनयस!
सहसा एक िद
ृ ा सी िकसी तरफ से दौडती हुई आयी और मंिदर के सबसे
ऊंचे जीने पर िडी होकर बोली—तुम लोगो को कया हो गया है ? यूनान के
बेटे आज इतने जानशूनय हो गये है िक झूठे और सचचे मे िििेक नहीं कर
सकते? तुम पासोिनयस पर ििशास करते हो? िजस पासोिनयस ने सैकडो
िसयो और बालको को अनाथ कर िदया, सैकडो घरो मे कोई िदया जलाने
िाला न छोडा, हमारे दे िताओं का, हमारे पुरषो का, घोर अपमान िकया, उसकी
दो-चार िचकनी-चुपडी बातो पर तुम इतने फूल उठे । याद रिो, अब की
पासोिनयस बाहर िनकला तो िफर तुमहारी कुशल नही। यूनान पर ईरान का
रािय होगा और यूननी ललनाएं ईरािनयो की कुदिि का िशकार बनेगी। दे िी
138
की आजा है िक पासोिनयस िफर बाहर न िनकलने पाये। अगर तुमहे अपना
दे श पयारा है , अपनी माताओं और बहनो की आबर पयारी है तो मंिदर के
दार को िचन दो। िजससे दे शदोही को िफर बाहर न िनकलने और तुम लोगो
को बहकाने का मौका न िमले। यह दे िो, पहला पतथर मै अपने हाथो से
रिती हूं।
लोगो ने िििसमत होकर दे िा—यह मंिदर की पुजािरन और पासोिनयस
की माता थी।
दम के दम मे पतथरो के ढे र लग गये और मंिदर का दार चुन िदया
गया। पासोिनयस भीतर दांत पीसता रह गया।
िीर माता, तुमहे धनय है ! ऐसी ही माता से दे श का मुि उिििल होता
है , जो दे श-िहत के सामने मातृ-सनेह की धूल-बराबर परिाह नहीं करतीं! उनके
पुत दे श के िलए होते है , दे श पुत के िलए नहीं होता।

139
लैला

यह कोई न जानता था िक लैला कौन है , कहां है , कहां से आयी है और


कया करती है । एक िदन लोगो ने एक अनुपम सुंदरी को तेहरान के चौक मे
अपने डफ पर हािफज की एक गजल झूम-झूम कर गाते सुना –
रस ीद मुज रा िक ऐ याम े ग म न ख िा हद मांद ,
चु नां न मांद , चु नीं न ीज हम न खि ाह द म ांद।
और सारा तेहरान उस पर िफदा हो गया। यही लैला थी।
लैला के रप-लािलतय की कलपना करनी हो तो ऊषा की पफुलल
लािलमा की कलपना कीिजए, जब नील गगन, सििग-पकाश से संिजत हो
जाता है , बहार की कलपना कीिजए, जब बाग मे रं ग-रं ग के फूल ििलते है
और बुलबुले गाती है ।
लैला के सिर-लािलतय की कलपना करनी हो, तो उस घंटी की अनिरत
धििन की कलपना कीिजए जो िनशा की िनसतबधता मे ऊंटो की गरदनो मे
बजती हुई सुनायी दे ती है , या उस बांसुरी की धििन की जो मधयानह की
आलसयमयी शांित मे िकसी िक
ृ की छाया मे लेटे हुए चरिाहे के मुि से
िनकलती है ।
िजस िक लैला मसत होकर गाती थी, उसके मुि पर एक सिगीय आभा
झलकने लगती थी। िह कावय, संगीत सौरभ और सुषमा की एक मनोहर
पितमा थी, िजसके सामने छोटे और बडे , अमीर और गरीब सभी के िसर झुक
जाते थे। सभी मंतमुगध हो जाते थे, सभी िसर धुनते थे। िह उस आनेिाले
समय का संदेश सुनाती थी, जब दे श मे संतोष और पेम का सामािय होगा,
जब दं द और संगाम का अनत हो जायगा। िह राजा को जगाती और कहती,
यह ििलािसता कब तक, ऐशयग-भोग कब तक? िह पजा की सोयी हुई
अिभलाषाओं को जगाती, उनकी हतितयो को अपने सिर से किमपत कर दे ती।
िह उन अमर िीरो की कीित ग सुनाती जो दीनो की पुकार सुनकर ििकल हो
जाते थे, उन ििदिुषयो की मिहमा गाती जो कुल-मयाद
ग ा पर मर िमटी थीं।
उसकी अनुरक धििन सुन कर लोग िदलो को थाम लेते थे, तडप जाते थे।
सारा तेहरान लैला पर िफदा था। दिलतो के िलए िह आशा की दीपक
थी, रिसको के िलए जननत की हूर, धिनयो के िलए आतमा की जागित और

140
सताधािरयो के िलए दया और धम ग का संदेश। उसकी भौहो के इशारे पर
जनता आग मे कूद सकती थी। जैसे चैतनय जड को आकिषत
ग कर लेता है ,
उसी भांित लैला ने जनता को आकिषत
ग कर िलया था।
और यह अनुपम सौदय ग सुििधा की भांित पिित, िहम के समान
िनषकलंक और नि कु सुम की भांित अिनंद था। उसके िलए पेम कटाक,
एक भेदभरी मुसकान, एक रसीली अदा पर कया न हो जाता–कंचन के पित

िडे हो जाते, ऐशय ग उपासना करता, िरयासते पैर की धूल चाटतीं, किि कट
जाते, ििदान घुटने टे कते; लेिकन लैला िकसी की ओर आंि उठाकर भी न
दे िती थी। िह एक िक
ृ की छांह मे रहती िभका मांग कर िाती और अपनी
हदयिीिा के राग अलापती थी। िह किि की सूिक की भांित केिल आनंद
और पकाश की िसतु थी, भोग की नहीं। िह ऋिषयो के आशीिाद
ग की
पितमा थी, कलयाि मे डू बी हुई, शांित मे रं गी हुई, कोई उसे सपश ग न कर
सकता था, उसे मोल न ले सकता था।



क िदन संधया समय तेहरान का शहजादा नािदर घोडे पर सिार उधर
से िनकला। लैला गा रही थी। नािदर ने घोडे की बाग रोक ली और
दे र तक आतम–ििसमत
ृ की दशा मे िडा सुनता रहा। गजल का पहला शेर
यह था–
मर ा ददेसत अ ंदर िदल , गोयम जि ां सो जद,
बगैर दम द रक शम , तर सन िक म गज ी ई सतख िां सो जद।
िफर िह घोडे से उतर कर िहीं जमीन पर बैठ गया और िसर
झुकाये रोता रहा। तब िह उठा और लैला के पास जाकर उसके कदमो पर
िसर रि िदया। लोग अदब से इधर-उधर हट गये।
लैला ने पूछा -तुम कौन हो?
नािदर—तुमहारा गुलाम।
लैला—मुझसे कया चाहते हो?
नािदर –आपकी ििदमत करने का हुकम। मेरे झोपडे को अपने कदमो से
रोशन कीिजए।
लैला—यह मेरी आदत नहीं

141
शहजादा िफर िहीं बैठ गया और लैला िफर गाने लगी। लेिकन गला
थरान
ग े लगा, मानो िीिा का कोई तार टू ट गया हो। उसने नािदर की ओर
करि नेतो से दे ि कर कहा- तुम यहां मत बैठो।
कई आदिमयो ने कहा- लैला, हमारे हुजरू शहजादा नािदर है ।
लैला बेपरिाही से बोली–बडी िुशी की बात है । लेिकन यहां शहजादो
का कया काम? उनके िलए महल है , महिफले है और शराब के दौर है । मै
उनके िलए गाती हूँ, िजनके िदल मे ददग है , उनके िलए नहीं िजनके िदल मे
शौक है ।
शहजादा न उनमत भाि से कहा–लैला, तुमहारी एक तान पर अपना
सब-कुछ िनसार कर सकता हूं। मै शौक का गुलाम था, लेिकन तुमने ददग
का मजा चिा िदया।
लैला िफर गाने लगी, लेिकन आिाज काबू मे न थी, मानो िह उसका
गला ही न था।
लैला ने डफ कंधे पर रि िलया और अपने डे रे की ओर चली। शोता
अपने-अपने घर चले। कुछ लोग उसके पीछे -पीछे उस िक
ृ तक आये, जहां
िह ििशाम करती थी। जब िह अपनी झोपडी के दार पर पहुंची, तब सभी
आदमी ििदा हो चुके थे। केिल एक आदमी झोपडी से कई हाथ पर चुपचाप
िडा था।
लैला ने पूछा–तुम कौन हो?
नािदर ने कहा–तुमहारा गुलाम नािदर।
लैला–तुमहे मालूम नहीं िक मै अपने अमन के गोशे मे िकसी को नहीं
आने दे ती?
नािदर—यह तो दे ि ही रहा हूं।
लैला –िफर कयो बैठे हो?
नािदर–उममीद दामन पकडे हुए है ।
लैला ने कुछ दे र के बाद िफर पूछा- कुछ िाकर आये हो?
नािदर–अब तो न भूि है ना पयास
लैला–आओ, आज तुमहे गरीबो का िाना ििलाऊं, इसका मजा भी चिा
लो।

142
नािदर इनकार न कर सका। बाज उसे बाजरे की रोिटयो मे अभूत-पूिग
सिाद िमला। िह सोच रहा था िक ििश के इस ििशाल भिन मे िकतना
आनंद है । उसे अपनी आतमा मे ििकास का अनुभि हो रहा था।
जब िह िा चुका तब लैला ने कहा–अब जाओ। आधी रात से ियादा
गुजर गयी।
नािदर ने आंिो मे आंसू भर कर कहा- नहीं लैला, अब मेरा आसन
भी यही जमेगा।
नािदर िदन–भर लैला के नगमे सुनता गिलयो मे, सडको पर जहां
िह जाती उसके पीछे पीछे घूमता रहाता। रात को उसी पेड के नीचे जा
कर पडा रहता। बादशाह ने समझाया मलका ने समझाया उमर ने
िमननते की, लेिकन नािदर के िसर से लैला का सौदा न गया िजन हालो
लैला रहती थी उन हालो िह भी रहता था। मलका उसके िलए अचछे से
अचछे िाने बनाकर भेजती, लेिकन नािदर उनकी ओर दे िता भी न था--
लेिकन लैला के संगीत मे जब िह कुधा न थी। िह टू टे हुए तारो का
राग,था िजसमे न िह लोच थ न िह जाद ू न िह असर। िह अब भी गाती
थीर सुननेिाले अब भी आते थे। लेिकन अब िह अपना िदल िुश करने को
गाती थी और सुननेिाले ििहल होकर नही, उसको िुशकरने के िलए आते
थे।
इस तरह छ महीने गुजर गये।
एक िदन लैला गाने न गयी। नािदर ने कहा–कयो लैला आज गाने
न चलोगी?
लैला ने कहा-अब कभी न जाउं गा। सच कहना, तुमहे अब भी मेरे गाने
मे पहले ही का-सा मजा आता है ?
नािदर बोला–पहले से कहीं ियादा।
लैला- लेिकन और लोग तो अब पंसद नहीं करते।
नािदर–हां मुझे इसका तािजुब है ।
लैला–तािजुब की बात नहीं। पहले मेरा िदल िुला हुआ
था उसमे सबके िलए जगह थी। िह सबको िुश कर सकता था। उसमे से
जो आिाज िनकलती थी, िह सबके िदलो मे पहुचती थी। अब तुमने उसका
दरिाजा बंद कर िदया। अब िहां तुमहारे िसिा और िकसी के काम का नहीं
रहा। चलो मै तुमहारे पीछे पीछे चलुगी। आज से तुम मेरे मािलक हो
143
होती हूं चलो मै तुमहारे पीछे पीछे चलूगा। आज से तूम मेरे मािलक हो।
थोडी सी आग ले कर इस झोपडी मे लगा दो। इस डफ को उसी मे
जला दंग
ु ी।
3

ते
हरान मे घर-घर आनंदोतसि हो रहा था। आज शहजादा नािदर लैला
को बयाह कर लाया था। बहुत िदनो के बाद उसके िदल की मुराद
पुरी हुई थी सारा तेहरान शहजादे पर जान दे ता था। और उसकी िुशी
मे शरीक था। बादशाह ने तो अपनी तरफ से मुनादी करिा दी थी िक
इस शुभ अिसर पर धन और समय का अपवयय न िकया जाय,
केिल लोग मसिजदो मे जमा होकर िुदा से दआ
ु मांगे िक िह और बधू
िचरं जीिी हो और सुि से रहे । लेिकन अपने पयारे शहजादे की शदी मे
धन और धन से अिधक मूलयिान समय का मुंह दे िना िकसी को
गिारा न था।
रईसो ने महिफले सजायी। िचराग। जलो बाजे बजिाये गरीबो ने अपनी
डफिलयां संभाली और सडको पर घूम घूम कर उछलते कूदते। िफरे ।
संधया के समय शहर के सारे अमीर और रईस शहजादे को बधाई से
चमकता और मनोललास से ििलता हुआ आ कर िडा हो गया।
काजी ने अजग की–हुजुर पर िुडस की बरकत हो।
हजारो आदिमयो ने कहा- आमीन!
शहर की ललनाएं भी लैला को मुबारकिाद दे ने आयी। लैला िबलकुल
सादे कपडे पहने थी। आभूषिो का कहीं नाम न था।
एक मिहला ने कहा–आपका सोहाग सदा सलामत रहे ।
हजारो कंठो से धििन िनकली–आमीन!’



ई साल गुजर गये। नािदर अब बादशाह था। और लैला। उसकी
मलका। ईरान का शासन इतने सुचार रप से कभी न हुआ था।
दोनो ही पजा के िहतैषी थे, दोनो ही उसे सुिी और समपनन दे िना चाहते
थे। पेम ने िे सभी किठनाइयां दरू कर दी जो लैला को पहले शंिकत करती
रहती थी। नािदर राजसता का िकील था, लैला पजा–सता की लेिकन
वयािािरक रप से उनमे कोई भेद न पडता था। कभी यह दब जाता, कभी िह
हट जाती। उनका दामपतय जीिन आदग श था। नािदर लैला का रि दे िता

144
था, लैला नािदर का। काम से अिकाश िमलता तो दोनो बैठ कर गाते
बजाते, कभी नािदयो को सैर करते कभी िकसी िक
ृ की छांि मे बैठे हुए
हािफज की गजले पढते और झुमते। न लैला मे अब उतनी सादगी थी न
नािदर मे अब उतना तकललुफ था। नािदर का लैला पर एकािधपतय थ जो
साधारि बात न थी। जहां बादशाहो की महलसरा मे बेगमो के मुहलले
बसते,थे, दरजनो और कैिडयो से उनकी गिना होती थीिहा लैला अकेली
थी। उन महलो मे अब शफिाने, मदरसे और पुसतकालय थे। जहां
महलसरो का िािषक
ग वयय करोडो तक पहुंचता था, यहां अब हजारो से
आगे न बढता था। शेष रपये पजा िहत के कामो मे िच ग कर िदये
जाते,थे। यह सारी कतर वयोत लैला ने की थी। बादशाह नािदर था, पर
अिखतयार लैला के हाथो मे था।
सब कुंछ था , िकंतु पजा संतुि न थी उसका असंतोष िदन िदन
बढता जाता था। राजसतािािदयो को भय था। िक अगर यही हाल रहा
तो बादशाहत के िमट जाने मे संदेह नहीं। जमशेद का लगाया हुआ िक

िजसने हजारो सिदये से आधी और तुफान का मुकािबला िकया। अब
एक हसीना के नाजुक पर काितल हाथो जड से उिाडा जा रहा है । उधर
पजा सतािािदयो कोलैला से िजतनी आशाएं,थी सभी दरुाशांएं िसद हो रही
थीं िे कहते अगर ईरान इस चाल से तरककी केरासते पर चलेगा तो इससे
पहलेिक िह मंिजले मकसूद पर पहुंचे, कयामत आ जायगी। दिुनया
हिाई जहाजपर बैठी उडी जा रही है । और हम अभी ठे लो पर बैठते भी
डरते है िक कहीं इसकी हरकत से
दिुनया मे भूचाल न आ जाय। दोनो दलो मे आये िदन लडाइयो
होती रहती थी। न नािदर के समझाने का असर अमीरो पर होता था, न
लैला के समझाने का गरीबो पर। सामंत नािदर के िून के पयासे हो
गये, पजा लैला की जानी दशुमन।

रा
5
िय मे तो यह अशांित फैली हुईथी, ििदोह की आग िदलो मे
सुलग रही थीैा। और राजभिन मे पेम का शांितमय रािय था,
बादशाह और मलका दोनो पजा -संतोष की कलपना मे मगन थे।

145
रात का समय था। नािदर और लैला आरामगाह मे बैठे हुए,
शतरं ज की बाजी िेैाल रहे थे। कमरे मे कोैाई सजािट न थी, केिल
एक जािजम ििछी हुई थी।
नािदर ने लैला का हाथ पकडकर कहा- बस अब यह ियादती
नहीं,उ तुमहारी चाल हो चुंकी। यह दे िो, तुमहारा एक पयादा िपट गया।
लैला ‘ अचछा यह शह। आपके सारे पैदल रिे रह गये और
बादशाह को शह पड गयी। इसी पर दािा था।
नािदर –तुमहारे हाथ हारने मे जो मजा है , िह जीतने मे नहीं।
लैला-अचछा, तो गोया आप िदल िुश कर रहे है ।‘ शह बचाइए, नहीं
दस
ू री चाल मे मात होती।
नािदर–(अदग ब दे कर) अचछा अब संभल जाना, तुमने मेरे बादशाह की
तौहीन की है । एक बार मेरा फजी उठा तो तुमहारे पयादो का सफाया कर
दे गा।
लैला-बसंत की भी िबर है । आपको दो बार छोड िदया, अबकी हिगज

न छोडू ं गी।
नािदर-अब तक मेरे पास िदलराम (घोडा) है , बादशाह को कोई गम
नहीं
लैला – अचछा यह शह? लाइए अपने िदलराम को।’ किहए अब तो
मात हुई?
नािदर-हां जानेमन अब मात हो गयी। जब मैही तुमहारी आदाओं पर
िनसार हो गया तब मेरा बादशाह कब बच सकता था।
लैला–बाते न बनाइए, चुपके से इस फरमान पर दसतित कर दीिजए
जैसा आपने िाद िकया था।
यह कह कर लैला ने फरमान िनकाला िजसे उसने िुद अपने मोती
के से अकरो से िलिा था। इसमे अनन का आयात कर घटाकर आधा कर
िदया गया, था। लैला पजा को भूली न थी, िह अब भी उनकी िहत
कामना मे संलगन रहती थी। नािदर ने इस शतग पर फरमान पर दसतित
करने का िचन िदया था िक लैला उसे शतरं ज मे तीन बार मात करे । िह
िसदहसत ििलाडी था इसे लैला जानती थी, पर यह शतरं ज की बाजी न
थी, केिल ििनोद था। नािदर ने मुसकारते हुए फरमान पर हसताकर कर
िदये कलम के एक एक िचनह से पजा की पांच करोड िािषक
ग दर से
146
मुिक हो गयी। लैला का मुि गि ग से आरक हो गया। जो काम बरसो के
आनदोलन से न हो सकता था, िह पेम कटाको से कुछ ही िदनो मे पुरा
होगया।
यह सोचकर िह फूली न समाती थी िक िजस िक िह फरमान
सरकारी पते मं पकािशत हो जायेगा। और वयिसथािपका सभा के लोगो को
इसके दशन
ग होगे, उस िक पजािािदयो को िकतना आनंद होगा। लोग मेरा
यश गायेगे और मुझे आशीिादग दे गे।
नािदर पेम मुगध होकर उसके चंदमुि की ओर दे ि रहा था, मानो
उसका िश होता तो सौदं यग की इस पितमा को हदय मे ििठा लेता।



हसा रािय–भिन के दार पर शोर मचने लगा। एक कि मे
मालूम हुआ िक जनता का टीडी दल; अस शस से सस
ृ ििजत
राजदार पर िडा दीिरो को तोडने की चेिा कर रहा हे । पितकि शारे
बढता जाता था और ऐसी आशंका होती थी िक कोधोनमत जनता दारो को
तोडकर भीतर घूस आयेगी। िफर ऐसा मालूम हुआ िक कुछ लोग सीिढया
लगाकर दीिार पर चढ रहे है । लैला लिजा और गलािन से िसर झुकाय िडी
थी उसके मुि से एक शबद भी न िनकलता था। कया यही िह जनता
है , िजनके किो की कथा कहते हुए उसकी िािी उनमत हो जाती थी? यही
िह अशक, दिलत कुधा पीिडत अतयाचार की िेदा से तडपती हुई जनता है
िजस पर िह अपने को अपि
ग कर चुकी थी।
नािदर भी मौन िडा था; लेिकन लिजा से नही, कोध स उसका मुि
तमतमा उठा था, आंिो से िचरगािरयां िनकल रही थी बार बार ओठ चबाता
और तलिार के कबजे पर हाथ रिकर रह जाता था िह बार बार लैला की
ओर संतप नेतो से दे िता था। जरा इशारे की दे र थी। उसका हुकम पाते ही
उसकी सेना इस ििदोही दल को यो भगा दे गी जैसे आंधी। पतो को उडा
दे ती है पर लैला से आंिे न िमलती थी।
आििर िह अधीर होकर बोला-लैला, मै राज सेना को बुलाना चाहता
हूं कया कहती हो?
लैला ने दीनतापूि ग नेतो से दे िकर कहा–जरा ठहर जाइए पहले इन
लोगो से पूिछए िक चाहते कया है ।

147
आदे श पाते ही नािदर छत पर चढ गया, लैला भी उसक पीछे पीछे
ऊपर आ पहुंची। दोनो अब जनता के सममुि आकर िडे हो गये। मशलो
के पकाश मे लोगो न इन दोनो को छत पर िडे दे िा मानो आकाश से
दे िता उतर आये हो, सहसो से धििन िनकली–िह िडी है लैला िह िडी।’
यह िह जनता थी जो लैला के मधुर संगीत पर मसत हो जाया करती थी।
नािदर ने उचच सिर से ििदोिहयो को समबोिधत िकया–ऐ ईरान की
बदनसीब िरआया। तुमने शाही महल को कयो घेर रिा है ? कयो बगाित का
झंडा िडा िकया है ? कया तुमको मेरा और अपने िुदा का िबलकुल िौफ
िकया। है ? कया तुम नहीं जानते िक मै अपनी आंिो के एक इशारे से
तुमहारी हसती िाक मे िमला सकता हूं? मै तुमहे हुकम दे ता हुं िक एक
लमहे के अनदर यहां से चलो जाओं िरना कलामे-पाक की कसम, मै तुमहारे
िून की नदी बहा दंग
ू ा।
एक आदमी ने, जो ििदोिहयो का नेता मालूम होता था, सामने आकर
कहा–हम उस िक तक न जायेगे, जब तक शाही महल लैला से िाली न
हो जायेगा।
नािदर ने िबगडकर कहा-ओ नाशुको, िुदा से डरो!’ तूमहे अपनी मलका
की शान मे ऐसी बेअदबी करते हुए शम ग नही आती!’ जब से लैला तुमहारी
मलका हुई है , उसने तुमहारे साथ िकनती िरयायते की है ।‘ कया उनहे तुम
िबलकुल भूल गये? जािलमो िह मलका है , पर िही िना िाती है जो तूम
कुतो को ििला दे ते हो, िही कपडे पहनती है , जो तुम फकीरो को दे दे ते हो।
आकर महलसरा मे दे िो तुम इसे अपने झोपडो ही की तरह तकललफु और
सजािट से िाली पाओगे। लैला तुमहारी मलका होकर भी फकीरो की
िजंदगी बसर करती है , तुमहारी ििदमत मे हमेशा मसत रहती है । तुमहे
उसके कदमो की िाक माथे पर लगानी चािहए आिो का सुरमा बनाना
चािहए। ईरान के तखत पर कभी ऐसी गरीबो पर जान दे ने िाली उनके ददग
मे शरीक होनेिाली गरीबो पर अपने को िनसार करने िाली मलकाने कदम
नही रिे और उसकी शान मे तुम ऐसी बेहूदा बाते करते हो।’ अफसोस मुझे
मालूम हो गया िक तुम जािहल इनसािनयत से िाली और कमीने हो।’ तुम
इसी कािबल हो िक तुमहारी गरदे न कुनद छुरी से काटी जाये तुमहे पैरो
तले रौदां जाये...

148
नािदर बात भी पूरी न कर पाया था िक ििदोिहयो ने एक सिर से
िचललाकर कहा-लैला हमारी दशुमन है , हम उसे अपनी मलका की सुरत मे
नही दे ि सकते।
नािदर नेजोर से िचललाकर कहा-जािलमो, जरा िामोश हो जाओं, यह
दे िो िह फरमान है िजस पर लैला ने अभी अभी मुझसे जबरदसतीर
दसतित कराये है । आज से गलले का महसूल घटाकर आधा कर िदया गया
है और तुमहारे िसर से महसूल का बोझ पांच करोड कम हो गया है ।
हजारो आदिमयो ने शोर मचाया–यह महसूल बहुत पहले िबलकुल
माफ हो जाना चािहए था। हम एक कौडी नही दे सकते। लैला, लैला हम
उसे अपनी मलका की सुरत मे नही दे ि सकते।
अब बादशाह कोध से कापंने लगा। लैला ने सजल नेत होकर कहा-
अगर िरआया की यही मरजी है िक मै िफर डफ बजा-बजा कर गाती िफरं
तो मुझे उज नहीं, मुझे यकीन है िक मै अपने गाने से एक बार िफर
इनके िदल पर हुकूमत कर सकती हूं।
नािदर ने उतेिजत होकर कहा- लैला, मै िरआया की तुनुक िमजािजयो
का गूलाम नहीं। इससे पहले िक मै तुमहे अपने पहलू से जूदा करं तेहरान
की गिलयां िून से लाल हो जायेगी। मै इन बदमाशो को इनकी शरारत का
मजा चिाता हूं।
नािदर ने मीनार पर चढकर ितरे का घंटा बजाया। सारे तेहरान मे
उसकी आिाज गूंज उठी, शाही फौज का एक आदमी नजर न आया।
नािदर ने दोबारा घंटा बजाया, आकाश मंडल उसकी झंकार से किमपत
हो गया। तारागि कापं उठे ; पर एक भी सैिनक न िनकला।
नािदर ने तीससी बार घंटा बजाया पर उसका भी उतर केिल एक
कीि पितधििन ने िदया मानो िकसी मरने िाले की अितंम पाथन
ग ा के शबद
हो।
नािदर ने माथा पीट िलया। समझ गया िक बुरे िदन आ गये। अब
भी लैला को जनता के दरुागह पर बिलदान करके िह अपनी राजसता की
रका कर सकता था, पर लैला उसे पािो से िपय थी उसने छत पर आकर
लैला का हाथ पकड िलया और उसे िलये हुए सदर फाटक से िनकला
ििदोिहयो ने एक ििजय धििन क साथ उनका सिागत िकया, पर सब के
सब िकसी गुप परे िा के िश रासते से हट गये।
149
दोनो चुपचाप तेहरान की गिलयो मे होते हुए चले जाते , थे। चारो
ओर अंधकार था। दक
ु ाने बंदथी बाजारो मे सननाटा छाया हुआ था। कोई
घर से बाहर न िनकलता था। फकीरो ने भी मसिजदो मे पनाह ले ली थी
पर इन दोनो पािियो के िलए कोई आशय न था। नािदर की कमर मे
तलिार थी, लैला के हाथ मे डफ था उनके ििशाल ऐशय ग का ििलुप िचह
था।

पू
7
रा साल गुजर गया। लैला और नािदर दे श-ििदे श की िाक छानते िफरते
थे। समरकंद और बुिारा, बगदाद और हलब, कािहरा और अदन ये सारे
दे श उनहोने छान डाले। लैला की डफ िफर जाद ू करने मेला लगी उसकी
आिाज सुनते ही शहर मे हलचल मच जाती, आदमीयो का मेला लग जाता
आिभगत होने लगती; लेिकन ये दोनो याती कहीं एक िदन से अिधक न
ठहरते थे। न िकसी से कुछ मागंते न िकसी के दार पर जाते। केिल
रिा-सुिा भोजन कर लेते और कभी िकसी िक
ृ के नीचे कभी पित
ग की
गुफा मे और कभी सडक के िकनारे रात काट दे ते थे। संसार के कठोर
वयिहार ने उनहे ििरक हर िदया था, उसके पलोभन से कोसो दरू भागते थे।
उनहे अनुभि हो गया था िक यहां िजसके िलए पाि अपि
ग कर दो िहीं ,
अपना शतु हो जाता है , िजसके साथ भलाई करो, िही बुराई की कमर बांधता
है , यहा िकसी से िदल न लगाना चािहए। उसके पास बडे -बडे रईसो के
िनमंति आते उनहे एक िदन अपना मेहमान बनाने केिलए हजारो िमननते
करते; पर लैला िकसी की न सुनती। नािदर को अब तक कभी कभी
बादशाहत की सनक सिार हो जाती थी। िह चाहता था िक गुप रप से
शिक संगह करके तेहरान पर चढ जाऊं और बािगयो को परासत करके
अिंड रािय करं ; पर लैला की उदासीनता दे िकर उसे िकसी से िमलने
जुलने का साहस न होता था। लैला उसकी पािेशरी थी िह उसी के
इशारो पर चलता था।
उधर ईरान मे भी अराजकता फैली हुई थी। जनसता से तंग आकर
रईसो ने भी फौजे जमा कर ली थी और दोनो दलो मे आये िदन संगाम
होता रहता था। पूरा साल गूजर गया और िेत न जुते दे श मे भीषि
अकाल पडा हुआ था,वयापार िशिथल था, िजाना िाली। िदन–िदन जनता की
शिक घटती जाती थी और रईसो को जोर बढता जाता था। आििर यहां

150
तक नौबत पहुंची िक जनता ने हिथयार डाल िदये और रईसो ने
राजभिन पर अपना अिधकार जमा िलया। । पजा के नेताओ को फांसी
दे दी गयी, िकतने ही कैद कर िदये गये और जनसता का अंत हो गया।
शिकिािदयो को अब नािदर की याद आयी। यह बात अनुभि से िसद हो
गयी थी िक दे श मे पजातंत सथािपत करने की कमता का अभाि है ।
पतयक के िलए पमाि की जररत न थी। इस अिसर पर राजसता ही
दे श का उदार कर सकती थी। िह भी मानी हुई बात थी िक लैला
और नािदर को जनमत से ििशेष पेम न होगा। िे िसंहासन पर बैठकर
भी रईसो ही के हाथ मे कठपुतली बने रहे गे और रईसो को पजा पर
मनमाने अतयाचार करने का अिसर िमलेगा। अतएि आपस मे लोगो ने
सलाह की और पितिनिध नािदर को मना लाने के िलये रिाना हुंए।

सं
धया का समय था। लैला और नािदर दिमशक मे एक िक
ृ के
नीचे बैठे हुए थे। आकाशा पर लािलमा छायी हुई थी। और
उससे िमली हुई पित
ग मालाओं की शयाम रे िा ऐसी मालूम हो रही थी
मानो कमल-दल मुरझा गया हो। लैला उललिसत नेतो से पकृ ित की यह
शोभा दे ि रही थी। नािदर मिलन और िचंितत भाि से लेटा हुआ सामने के
सुदरु पांत की ओर तिृषत नेतो से दे ि रहा था, मानो इस जीिन से तंग
आ गया है ।
सहसा बहुत दरू गदग उडती हुई िदिाई दी और एक कि मे ऐसा
मालूम हुआ िक कुछ आदमी घोडो पर सिार चले आ रहे है । नािदर उठ
बैठा और गौर से दे िने लगा िक ये कौन आदमी है । अकसमात िह उठकर
िडा हो गया। उसका मुि मंडल दीपक की भाित चमक उठा जजरग शरीर
मे एक िििचत सफुित ग दौड गयी। िह उतसुकता से बोला–लैला, ये तो ईरान
के आदमी, कलामे–पाक की कसम, ये ईरान के आदमी है । इनके िलबास
से साफ जािहए हो रहा है ।
लैला–पहले मै, भी उन याितयो की ओर दे िा और सचेत होकर बोली–
अपनी तलिार संभाल लो, शायद उसकी जररत पडे ,।
नािदर–नहीं लैला, ईरान केलोग इतने कमीने नहीं है िक अपने
बादशाह पर तलिार उठाये।
लैला- पहले मै भी यही समझती थी।
151
सिारो ने समीप आकर घोडे रोक िलये। उतकर बडे अदब से नािदर
को सलाम िकया। नािदर बहुत जबत करने पर भी अपने मनोिेग को न
रोक सका, दौडकर उनके गले िलपट गया। िह अब बादशाह न था, ईरान
का एक मुसािफर था। बादशहत िमट गयी थी, पर ईरािनयत रोम रोम मे
भरी हुई थी। िे तीनो आदमी इस समय ईरान के ििधाता थे। इनहे िह
िूब पहचानता था। उनकी सिािमभिक की िह कई बार परीका ले चुका था।
उनहे लाकर अपने बोिरये पर बैठाना चाहा, लेिकन िे जमीन पर ही बैठे।
उनकी दिि से िह बोिरया उस समय िसंहासन था, िजस पर अपने सिामी
के सममुि िे कदम न रि सकते थे। बाते होने लगीं, ईरान की दशा
अतयंत शोचनीय थी। लूट मार का बाजार गम ग था, न कोई वयिसथा थी न
वयिसथापक थे। अगर यही दशा रही तो शायद बहुत जलद उसकी गरदन
मे पराधीनता का जुआ पड जाये। दे श अब नािदर को ढू ं ढ रहा था।
उसके िसिा कोई दस
ू रा उस डु बते हुए बेडे को पार नहीं लगा सकता था।
इसी आशा से ये लोग उसके पास आये थे।
नािदर ने ििरक भाि से कहा- एक बार इिजत ली, कया अबकी जान
लेने की सोची है ? मै बडे आराम से हूं।’ आप मुझे िदक न करे ।
सरदारो ने आगह करना शुर िकया–हम हुजूर का दामन न छोडे गे, यहां
अपनी गरदनो पर छुरी फेर कर हुजूर के कदमो पर जान दे दे गे। िजन
बदमाशो ने आपकी परे शान िकया। अब उनका कहीं िनशान भी नहीं रहा
हम लोगो उनहे िफर कभी िसर न उठाने दे गे ,िसफॅग हुजूर की आड चािहए।
नािदर नेबात काटकर कहा-साहबो अगर आप मुझे इस इरादे से
ईरान का बादशाह बनाना चाहते है , तो माफ कीिजए। मैने इस सफर मे
िरआया की हालत का गौर से मुलाहजा िकया है और इस नतीजे पर
पहुंचा हूं िक सभी मुलको मे उनकी हालत िराब है । िे रहम के किबल है
ईरान मे मुझे कभी ऐसे मौके ने िमले थे। मै िरआया को अपने
दरिािरयो की आिो से दे िता था। मुझसे आप लोग यह उममीद न रिे
िक िरआया को लूटकर आपकी जेबे भरगां। यह अजाब अपनी गरदन पर
नही ने सकता। मै इनसाफ का मीजान बराबर रिूग
ं ा और इसी शतग पर
ईरान चल सकता हूं।

152
लैला ने मुसकराते कहा-तुम िरआया का कसूर माफ कर सकते हो,
कयोिक उसकी तुमसे कोई दशुमनी न थी। उसके दांत तो मुझे पर थे। मै
उसे कैसे माफ कर सकती हूं।
नािदर ने गमभीर भाि से कहा-लैला, मुझं यकीन नहीं आता िक
तुमहारे मुंह से ऐसी बाते सुन रहा हूं।
लोगो ने समझा अभी उनहे भडकाने की जररत ही कया है । ईरान मे
चलकर दे िा जायेगा। दो चार मुििबरो से िरआया के नाम पर ऐसे उपदि
िडे करा दे गे िक इनके सारे खयाल पलट जायेगे। एक सरदार ने अजग
की- माजललाह; हुजूर यह कया फरमाते है ? कया हम इतने नादान है िक
हुजूरं को इनसाफ के रासते से हटाना चाहे गे? इनसाफ हीबादशाह का जौहर
है और हमारी िदली आरजू है िक आपका इनसाफ ही नौशेरिां को भी
शिमद
ग ां कर दे ,। हमारी मंशा िसफग यह थी िक आइं दा से हम िरआया को
कभी ऐसा मौका न दे गे िक िह हुजूर की शान मे बेअदबी कर सके। हम
अपनी जाने हुजूर पर िनसार करने के िलए हािजर रहे गे।
सहसा ऐसा मालूम हुआ िक सारी पकृ ित संगीतमय हो गयी है ।
पित
ग और िक
ृ , तारे , और चॉद
ँ िायु और जल सभी एक सिर से गाने लगे।
चॉद
ँ नी की िनमल
ग छटा मे िायु के नीरि पहार मे संगीत की तरं गे उठने
लगी। लैला अपना डफ बजा बजा कर गा रही थी। आज मालूम हुआ,
धििन ही सिृि का मूल है ।द पित
ग ो पर दे िियां िनकल िनकल कर नाचने
लगीं अकाशा पर दे िता नतृय करने लगे। संगीत ने एक नया संसार रच
डाला।
उसी िदन से जब िक पजा ने राजभिन के दार पर उपदि मचाया था
और लैला के िनिास
ग न पर आगह िकया था, लैला के ििचारो मे कांित हो रही
थी जनम से ही उसने जनता के साथ साहनुभूित करना सीिा था। िह
राजकमच
ग ािरये को पजा पर अतयाचार करते दे िती थी और उसका
कोमल हदय तडप उठता था। तब धन ऐशय ग और ििलास से उसे घि
ृ ा
होने लगती थी। िजसके कारि पजा को इतने कि भोगने पडते है । िह
अपने मे िकसी ऐशी शिक का आहाहन करना चाहती थी िक जो आतताइयो
के हदय मे दया और पजा के हदय मे अभय का संचार करे । उसकी बाल
कलपना उसे एक िसंहासन पर िबठा दे ती, जहां िह अपनी नयाय नीित से
संसार मे युगातर उपिसथत कर दे ती। िकतनी राते उसने यही सिपन
153
दे िने मे काटी थी। िकतनी बार िह अनयाय पीिडयो के िसरहाने
बैठकर रोयीथी लेिकन जब एक िदन ऐसा आया िक उसके सििग सिपन
आंिशक रीित से पूरे होने लगे तब उसे एक नया और कठोर अनुभि हुआ!
उसने दे िा पजा इतनी सहनशील इतनी दीन और दब
ु ल
ग नहीं है , िजतना िह
समझती थी इसकी अपेका उसमे ओछे पन, अििचार और अिशिता की
माता कहीं अिधक थी। िह सदवयहार की कद करना नही जानती, शािक
पाकर उसका सदप
ु योग नहीं कर सकती। उसी िदन से उसका िदल
जनता से िफर गया था।
िजस िदन नािदर और लैला ने िफर तेहरान मे पदापि
ग िकया,
सारा नगर उनका अिभिादन करने के िलए िनकल पडा शहर पर
आतंक छाया हुआ था।, चारो ओर करि रदन की धििन सुनाई दे ती
थी। अमीरो के मुहलले मे शी लोटती िफरती थी गरीबो के मुहलले उजडे
हुएथे, उनहे दे िकर कलेजा फटा जाता था। नािदर रो पडा, लेिकन लैला
के होठो पर िनषु र िनदग य हासय छटा िदिा रहा था।
नािदर के सामने अब एक ििकट समयया थी। िह िनतय दे िता
िक मै जो करना चाहता हूं िह नही होता और जो नहीं करना चाहता
िह होता है और इसका कारि लैला है , पर कुछ कह न सकता था।
लैला उसके हर एक काम मे हसतकेप करती रहती, थी। िह जनता के
उपकार और उदार के िलए ििधान करता, लैला उसमे कोई न कोई ििधन
अिशय डाल दे ती और उसे चुप रह जाने के िसिा और कुछ न सुझता
लैला के िलए उसने एक बार रािय का तयाग कर िदया था तब आपित-
काल ने लैला की परीका की थी इतने िदनो की ििपित मे उसे लैला के
चिरत का जो अनुभि पाप हुआ था, िह इतना मनोहर इतना सरस था िक
िह लैला मय हो गया था। लैला ही उसका सिग ग थी, उसके पेम मे रत
रहना ही उसकी परम अिधलाषा थी। इस लैला के िलए िह अब कया कुछ
न कर सकता था? पजा की ओर सामािय की उसके सामने कया हसती
थी।
इसी भांित तीन साल बीत गये पजा की दशा िदन िदन िबगडती ही
गयी।

154
ए क िदन नािदर िशकर िेलने गया। और सािथयो
जंगल मे भटकता िफरा यहां तक िक रात हो गयी और सािथयो का
पता न चला। घर लौटने का भी रासता न
से अलग होकर

जानता था। आििर िुदा का


नाम लेकर िह एक तरफ चला िक कहीं तो कोई गांि या बसती का नाम
िनशान िमलेगा! िहां रात, भर पड रहुंगा सबेरे लौट जाउं गा। चलते चलते
जंगल के दस
ू रे िसरे पर उसे एक गांि नजर आया। िजसमे मुिशकल से तीन
चार घर होगे हा, एक मसिजद अलबता बनी हुई थी। मसिजद मे एक
दीपक िटमिटमा रहा था पर िकसी आदमी या आदमजात का िनशान न
था। आधी रात से ियादा बीत चुकी थी, इसिलए िकसी को कि दे ना भी
उिचत न था। नािदर ने घोडे का एक पेड स बाध िदया और उसी मसिजद
मे रात काटने की ठानी। िहां एक फटी सी चटाई पडी हुई थी। उसी पर
लेट गया। िदन भर तक सोता रहा; पर िकसी की आहट पाकर चौका तो कया
दे िता है िक एक बूढा आदमी बैठा नमाज पढ रहा है । उसे यह िबर न
थी िकरात गुजर गयी और यह फजर की नमाज है । िह पडा–पडा दे िता
रहा। िद
ृ पुरष ने नमाज अदा कही िफर िह छाती के सामने अिजल
फैलकर दआ
ु मांगने लगा। दआ
ु के शबद सुनकर नािदर का िून सदग हो
गया। िह दआ
ु उसके राियकाल की ऐसी तीव, ऐसी िािसतिक ऐसी िशकापद
आलोचना थी जो आज तक िकसी ने न की थी उसे अपने जीिन मे
अपना अपयश सुनने का अिसर पाप हुआ। िह यह तो जानता था िक
मेरा शासन आदश ग नहीं है , लेिकन उसने कभी यह कलपना न की थी िक
पजा की ििपित इतनी असतय हो गयी है । दआ
ु यह थी-
‘‘ए िुदा! तू ही गरीबो का मददगार और बेकसो का सहारा है ।
तू इस जािलम बादशह के जुलम दे िता है और तेरा िहर उस पर नहीं
िगरता। यह बेदीन कािफर एक हसीन औरत की मुहबबत मे अपने
को इतना भूल गया है िक न आिो से, दे िता है , न कानो से सुनता है ।
अगर दे िता है तो उसी औरत की आंिे से सुनता है तो उसी औरत के
कानो से अब यह मुसीबत नहीं सही जाती। या तो तू उस जािलम को
जहननुम पहुंचा दे ; या हम बेकसो को दिुनया से उठा ले। ईरान उसके जुलम
से तंग आ गया है । और तू ही उसके िसर से इस बाला को टाल सकता
है ।’

155
बूढे ने तो अपनी छडी संभाली और चलता हुआ, लेिकन नािदर मत
ृ क
की भाितं िहीं पडा रहा मानो उसे पर िबजली िगर पडी हो।


१०
क सपाह तक नािदर दरबार मे न आया, न िकसी कमच
ग ारी को
अपने पास आने की आजा दी। िदन केिदन अनदर पडा सोचा करता
िक कया करं । नाम मात को कुछ िा लेता। लैला बार बार उसके पास
जाती और कभी उसका िसर अपनी जांघ पर रिकर कभी उसके गले
मे बाहे डालकर पूछती–तुम कयो इतने उदास और मिलन हो। नािदरा उसे
दे िकर रोने लगता; पर मुंह से कुछ न कहता। यश या लैला, यही उसके
सामने किठन समसया थी। उसक हदय मे भीषि दनद रहाता और िह
कुद िनशय न कर सकता था। यश पयारा था; पर लैला उससे भी पयारी थी
िह बदनाम होकर िजंदा रह सकता था। लैला उसके रोम रोम मे वयाप थी।
अंत को उसने िनशय कर िलया–लैला मेरी है मै लैला का हूं। न मै
उससे अलग न िह मुझेस जुदा। जो कुछ िह करती है मेरा है , जो मै
करता हू। उसका है यहां मेरा और तेरा का भेद ही कहां ? बादशाहत
नशार है पेम अमर । हम अनंत काल तक एक दस
ू रे के पहलू मे बैठे
हुए सिग ग के सुि भोगेगे। हमारा पेम अनंत काल तक आकाश मे तारे
की भाित चमकेगा।
नािदर पसनन होकर उठा। उसका मुि मंडल ििजय की लािलमा से रं िजत
हो रहा था। आंिो मे शौय ग टपका पडता था। िह लैला के पेमका पयाला
पीने जा रहा था। िजसे एक सपाह से उसने मुंह नहीं लगाया था। उसका
हदय उसी उमंग से उछता पडताथा। जो आज से पांच साल पहले उठा करती
थी। पेम का फूल कभी नही मुरझाता पेम की नीदं कभी नहीं उतरती।
लेिकन लैला की आरामगाह के दार बंद थे और उसका उफ जो दार
पर िनतय एक िूंटी से लटका रहता था, गायब था। नािदर का कलेजा
सनन-सा हो गया। दार बदं रहने का आशय तो यह हो सकता हे िक लैला
बाग मे होगी; लेिकन उफ कहां गया? समभि है , िह उफ लेकर बाग मे गयी
हो, लेिकन यह उदासी कयो छायी है ? यह हसरत कयो बरस रही है ।’
नािदर ने कांपते हुए हाथो से दार िोल िदया। लैला अंदर न थी
पंगल िबछा हुआ था, शमा जल रही थी, िजू का पानी रिा हुआथा। नािदर

156
के पािं थरान
ग े लगे। कया लैला रात को भी नहीं सोती? कमरे की एक एक
बसतु मे लैला की याद थी, उसकी तसिीर थी ियोित-हीन नेत।
नािदर का िदल भर आया। उसकी िहममत न पडी िक िकसी से कुछ
पूछे। हदय इतना कातर हो गया िक हतबुिद की भांित फश ग पर बैठकर
िबलि-िबलि कर रोने लगा। जब जरा आंसू थमे तब उसने ििसतर को
सूघां िक शायद लैला के सपशग की कुछ गंध आये ; लेिकन िस और गुलाब
की महक क िसिा और कोई सुगध
ं न थी।
साहसा उसे तिकये के नीचे से बाहर िनकला हुआ एक कागज का
पुजा ग िदिायी िदया। उसने एक हाथ से कलेजे को सभालकर पुजा ग िनकाल
िलया और सहमी हुई आंिो से उसे दे िा। एक िनगाह मे सब कुछ मालूम
हो गया। िह नािदर की िकसमत का फैसला था। नािदर के मुंह से िनकला,
हाय लैला; और िह मुिछग त होकर जमीन पर िगर पडा। लैला ने पुजे मे
िलिा था-मेरे पयारे नािदर तुमहारी लैला तुमसे जुदा होती है । हमेशा के
िलए । मेरी तलाश मत करना तुम मेरा सुराग न पाओगे । मै तुमहारी
मुहबबत की लौडी थी, तुमहारी बादशाहत की भूिी नहीं। आज एक हफते से
दे ि रही हूं तुमहारी िनगाह िफरी हुई है । तुम मुझसे नहीं बोलते, मेरी तरफ
आंि उठाकर नहीं दे िते। मुझेसे बेजार रहते हो। मै िकन िकन अरमानो
से तुमहारे पास जाती हूं और िकतनी मायूस होकर लौटती हूं इसका तुम
अंदाज नहीं कर सकते। मैने इस सजा के लायक कोई काम नहीं िकया।
मैने जो कुछ है , तुमहारी ही भलाई केियाल से। एक हफता मुझे रोते
गुजर गया। मुझे मालूम हो रहा है िक अब मै तुमहारी नजरो से िगर
गयी, तुमहारे िदल से िनकाल दी गयी। आह! ये पांच साल हमेशा याद रहे गे,
हमेशा तडपाते रहे गे! यही डफ ले कर आयी थी, िही लेकर जाती हूं पांच
साल मुहबबत के मजे उठाकर िजंदगी भर केिलए हसरत का दाग िलये जाती
हूं। लैला मुहबबत की लौडी थी, जब मुहबबत न रही, तब लैला कयोकर रहती?
रिसत!’

157
नेउ र

आ काश मे चांदी के पहाड भाग रहे थे, टकरा रहे थे गले िमल रहे
थे, जैसे सूय ग मेघ संगाम िछडा हुआ हो। कभी छाया हो जाती थी
कभी तेज धूप चमक उठती थी। बरसात के िदन थे। उमस हो रही थी । हिा
बदं हो गयी थी।
गािं के बाहर कई मजूर एक िेत की मेड बांध रहे , थे। नंगे बदन
पसीने मे तर कछनी कसे हुए, सब के सब फािडे से िमटटी िोदकर मेड
पर रिते जाते थे। पानी से िमटटी नरम हो गयी थी।
गोबर ने अपनी कानी आंि मटकाकर कहां-अब तो हाथ नहीं चलता
भाई गोल भी छूट गया होगा, चबेना कर ले।
नेउर ने हं सकर कहा-यह मेड तो पूरी कर लो िफर चबेना कर लेना मै
तो तुमसे पहले आया।
दोनो ने िसर पर झौिा उठाते हुए कहा-तुमने अपनी जिानी मे
िजतनी घी िाया होगा नेउर दादा उतना तो अब हमे पानी भी नहीं
िमलता। नेउर छोटे डील का गठीला काला, फुतीला आदमी,था। उम पचास
से ऊपर थी, मगर अचछे अचछे नौजिान उसके बराबर मेहनत न कर सकते
थे अभी दो तीन साल पहले तक कुशती लडना छोड िदया था।
गोबर–तुमने तमिू िपये िबना कैसे रहा जाता है नेउर दादा? यहां तो
चाहे रोटी ने िमले लेिकन तमािू के िबना नहीं रहा जाता। दीना–तो यहां
से आकर रोटी बनाओगे दादा? बुिछया कुछ नहीं करती? हमसे तो दादा ऐसी
मेहिरय से एक िदन न पटे ।
नेउर के िपचक ििचडी मूछ
ं ो से ढके मुि परहासय की िसमत-रे िा
चमक उठी िजसने उसकी कुरपता को भी सुनदर बनार िदया। बोला-जिानी
तो उसी के साथ कटी है बेटा, अब उससे कोई काम नही होता। तो कया
करं ।
गोबर–तुमने उसे िसर चढा रिा है , नहीं तो काम कयो न करती? मजे
से िाट पर बैठी िचलम पीती रहती है और सारे गांि से लडा करती है
तूम बूढे हो गये, लेिकन िह तो अब भी जिान बनी है ।

158
दीना–जिान औरत उसकी कया बराबरी करे गी? सेदरु, िटकुली, काजल,
मेहदी मे तो उसका मन बसाता है । िबना िकनारदार रं गीन धोती के उसे
कभी उदे िा ही नहीं उस पर गहानो से भी जी नहीं भरता। तुम गऊ हो
इससे िनबाह हो जाता है , नहीं तो अब तक गली गली ठोकरे िाती होती।
गोबर – मुझे तो उसके बनाि िसंगार पर गुससा आताहै । कात
कुछन करे गी; पर िाने पहनने को अचछा ही चािहए।
नेउर-तुम कया जानो बेटा जब िह आयी थी तो मेरे घर सात हल की
िेती होती थी। रानी बनी बैठी रहती थी। जमाना बदल गया, तो कया
हुआ। उसका मन तो िही है । घडी भर चूलहे के सामने बैठ जाती है तो
कया हुआ! उसका मन तो िही है । घडी भर चूलहे के सामने बैठ जाती है तो
आंिे लाल हो जाती है और मूड थामकर पड जाती है । मझसे तो यह नही
दे िा जाता। इसी िदन रात के िलए तो आदमी शादी बयाह करता है और
इसमे कया रिा है । यहां से जाकर रोटी बनाउं गा पानी, लाऊगां, तब दो कौर
िायेगी। नहीं तो मुझे कया था तुमहारी तरह चार फंकी मारकर एक लोटा
पानी पी लेता। जब से िबिटया मर गयी। तब से तो िह और भी लसत हो
गयी। यह बडा भारी धकका लगा। मां की ममता हम–तुम कया समझेगे
बेटा! पहले तो कभी कभी डांट भी दे ता था। अबिकस मुंह से डांटूं?
दीना-तुम कल पेड काहे को चढे थे, अभी गूलर कौन पकी है ?
नेउर-उस बकरी के िलए थोडी पती तोड रहा था। िबिटया को दध

िपलाने को बकरी ली थी। अब बुिढया हो गयी है । लेिकन थोडा दध
ू दे दे ती
है । उसी का दध
ू और रोटी बुिढया का आधार है ।
घर पहुंचकर नेउर ने लोटा और डोर उठाया और नहाने चला िक सी
ने िाट पर लेटे–लेटे कहा- इतनी दे र कयो कर िदया करते हो? आदमी काम
के पीछे परान थोडे ही दे ता है ? जब मजूरी सब के बराबर िमलती है तो कयो
काम काम केपीछे मरते हो?
नेउर का अनत:करि एक माधुयग से सराबोर हो गया। उसके आतमसमपि
ग से
भरे हुए पेम मे मै की गनध भी तो नहीं थी। िकतनी सनेह ! और िकसे
उसके आराम की, उसके मरने जीने की िचनता है ? िफर यह कयो न अपनी
बुिढया के िलए मरे ? बोला–तू उन जनम मे कोई दे िी रही होगी
बुिढया,सच।

159
‘‘अचछा रहने दो यह चापलूसी । हमारे आगे अब कौन बैठा हुआ है ,
िजसके िलए इतनी हाय–हाय करते हो?’’
नेउर गज भर की छाती िकये सनान करने चला गया। लौटकर उसने
मोटी मोटी रोिटयां बनायी। आलू चूलहे मे डाल िदये। उनका भुरता बनाया,
िफर बुिढया और िह दोनो साथ िाने बैठे।
बुिढया–मेरी जात से तुमहे कोई सुि न िमला। पडे -पडे िाती हूं और
तुमहे तंग करती हूं और इससे तो कहीं अचछा था िक भगिान मुझे उठा
लेते।’
‘भगिान आयेगे तो मै कहूंगा पहले मुझे ले चलो। तब इस सूनी
झोपडी मे कौन रहे गा।’
‘तुम न रहोगे, तो मेरी कया दशा होगी। यह सोचकर मेरी आंिो मे
अंधेरा आ जाता है । मैने कोई बडा पुन िकया था। िक तुमहे पाया था।
िकसी और के साथ मेरा भला कया िनबाह होता?’
ऐसे मीठे संनतोष के िलए नेउर कया नहीं कर डालना चाहता था।
आलिसन लोिभन, सिािथन
ग बुिढयांअपनी जीभ पर केिल िमठास रिकर
नेउर को नचाती थी जैसे कोई िशकारी कंिटये मे चारा लगाकर मछली को
ििलाता है ।
पहले कौन मरे , इस ििषय पर आज यह पहली ही बार बातचीत न
हुई थी। इसके पहले भी िकतनी ही बार यह पश उठा था और या ही
छोड िदया गया था;! लेिकन न जाने कयो नेउर ने अपनी िडगी कर ली
थी और उसे िनशय था िक पहले मै जाऊंगा। उसके पीछे भी बुिढया जब
तक रह आराम से रहे , िकसी के सामने हाथ न फैलाये, इसीिलए िह मरता
रहता था, िजसमे हाथ मे चार पैसे जमाहो जाये।‘ किठन से किठन काम
िजसे कोई न कर सके नेउर करता िदन भर फािडे कुदाल का काम करने
के बाद रात को िह ऊि के िदनो मे िकसी की ऊि पेरता या िेतो की
रििाली करता, लेिकन िदन िनकलते जाते थे और जो कुछ कमाता था
िह भी िनकला जाता था। बुिढया के बगैर िह जीिन....नहीं, इसकी िह
कलपना ही न कर सकता था।
लेिकन आज की बाते ने नेउर को सशंक कर िदया। जल मे एक बूंद
रं ग की भाित यह शका उसके मन मे समा कर अितरिजतं होने लगी।

160
गां
ि मे नेउर को काम की कमी न थी, पर मजूरी तो िही िमलती थी,
जो अब तक िमलती आयी थी; इस मनदी मे िह मजूरी भी नही रह
गयी थी। एकाएक गांि मे एक साधु कहीं से घूमते–िफरते आ िनकले और
नेउर के घर के सामने ही पीपल की छांह मे उनकी धुनी जल गई गांि िालो
ने अपना धनय भागय समझा। बाबाजी का सेिा सतकार करने के िलए
सभी जमा हो गये। कहीं से लकडी आ गयी से कहीं से िबछाने को कमबल
कहीं से आटा–दाल। नेउर के पास कया था।? बाबाजी के िलए भेजन बनाने
की सेिा उसने ली। चरस आ गयी , दम लगने लगा।
दो तीन िदन मे ही बाबाजी की कीित ग फैलने लगी। िह
आतमदशी है भूत भििषय ब बात दे ते है । लोभ तो छू नहीं गया। पैसा हाथ
से नहीं छूते और भोजन भी कया करते है । आठ पहर मे एक दो बािटयां
िा ली; लेिकन मुि दीपक की तरह दमक रहा है । िकतनी मीठी बानी
है ।! सरल हदय नेउर बाबाजी का सबसे बडा भक था। उस पर कहीं
बाबाजी की दया हो गयी। तो पारस ही हो जायगा। सारा दि
ु दिलदर
िमट जायगा।
भकजन एक-एक करके चले गये थे। िूब कडाके की ठं ड पड
रही थी केिल नेउर बैठा बाबाजी के पांि दबा रहा था।
बाबा जी ने कहा- बचचा! संसार माया है इसमे कयो फंसे हो?
नेउर ने नत मसतक होकर कहा-अजानी हुं महाराज, कया करं?
सी है उसे िकस पर छोडू ं !
‘तू समझता है तू सी का पालन करता है ?’
‘और कौन सहारा है उसे बाबाजी?’
‘ईशर कुद नही है तू ही सब कुछ है ?’
नेउर के मन मे जैसे जान-उदय हो गया। तु इतना अिभमानी हो
गया है । तेरा इतना िदमाग! मजदरूी करते करते जान जाती है और तू
समझता है मै ही बुिढया का सब कुछ हूं। पभु जो संसार का पालन
करते है , तु उनके काम मे दिल दे ने का दािा करता है । उसके सरल
करते है । आसथा की धििन सी उठकर उसे िधककारने लगी बोला–अजानी
हूं महाराज!
इससे ियादा िह और कुछ न कह सका। आिो से दीन ििषाद के
आंसु िगरने लगे।
161
बाबाजी ने तेजिसिता से कहा –‘दे िना चाहता है ईशर का चमतकार!
िह चाहे तो कि भर मे तुझे लिपित कर दे । कि भर मे तेरी सारी
िचनताएं। हर ले! मै उसका एक तुचछ भक हूं काकिििा; लेिकन मुझेमे भी
इतनी शिक है िक तुझे पारस बना दँ।ू तू साफ िदल का, सचचा ईमानदार
आदमी है । मूझे तुझपर दया आती है । मैने इस गांि मे सबको धयान से
दे िा। िकसी मे शिक नहीं ििशास नहीं । तुझमे मैने भक का हदय पाया
तेरे पास कुछ चांदी है ?’’
नेउर को जान पड रहा था िक सामने सिगग का दार है ।
‘दस पॉच
ँ रपये होगे महाराज?’
‘कुछ चांदी के टू टे फूटे गहने नहीं है ?’
‘घरिाली के पास कुछ गहने है ।’
‘कल रात को िजतनी चांद िमल सके यहां ला और ईशर की पभुता
दे ि। तेरे सामने मै चांदी की हांडी मे रिकर इसी धुनी मे रि दंग
ू ा
पात:काल आकर हांडी िनकला लेना; मगर इतना याद रिना िक उन
अशिफगयो को अगर शराब पीने मे जुआ िेलने मे या िकसी दस
ू रे बुरे काम
मे िच ग िकया तो कोढी हो जाएगा। अब जा सो रह। हां इतना और सुन ले
इसकी चचाग िकसी से मत करना घरिालो से भी नहीं।’
नेउर घर चला, तो ऐसा पसनन था मानो ईशर का हाथ उसके िसर
पर है । रात-भर उसे नींद नही आयी। सबेरे उसने कई आदिमयो से दो-दो
चार चार रपये उधार लेकर पचास रपये जोडे ! लोग उसका ििशास करते
थे। कभी िकसी का पैसा भी न दबाता था। िादे का पकका नीयत
का साफ। रपये िमलने मे िदककत न हुई। पचीस रपये उसके पास थे।
बुिढया से गहने कैसे ले। चाल चली। तेरे गहने बहुत मैले हो गये है । िटाई
से साफ कर ले । रात भर िटाई मे रहने से नए हो जायेगे। बुिढया
चकमे मे आ गयी। हांडी मे िटाई डालकर गहने िभगो िदए और जब रात
को िह सो गयी तो नेउर ने रपये भी उसी हांडी मे डाला िदए और
बाबाजी के पास पहुंचा। बाबाजी ने कुछ मनत पढा। हांडी को छूनी की राि
मे रिा और नेउर को आशीिाद
ग दे कर ििदा िकया।
रात भर करबटे बदलने के बाद नेउर मुंह अंधेरे बाबा के दशन

करने गया। मगर बाबाजी का िहां पता न था। अधीर होकर उसने धूनी
की जलती हुई राि टटोली । हांडी गायब थी। छाती धक-धक करने लगी।
162
बदहिास होकर बाबा को िोजने लगा। हाट की तरफ गया। तालाब की ओर
पहुंचा। दस िमनट, बीस िमनट, आधा घंटा! बाबा का कहीं िनशान नहीं। भक
आने लगे। बाबा कहां गए? कमबल भी नही बरतन भी नहीं!
भक ने कहा–रमते साधुओं का कया िठकाना! आज यहां कल िहां, एक
जगह रहे तो साधु कैसे? लोगो से हे ल-मेल हो जाए, बनधन मे पड जाये।
‘िसद थे।’
‘लोभ तो छू नहीं गया था।’
नेउर कहा है ? उस पर बडी दया करते थे। उससे कह गये होगे।’
नेउर की तलाश होने लगी, कहीं पता नहीं। इतने मे बुिढया नेउर को
पुकारती हुई घर मे से िनकली। िफर कोलाहल मच गया। बुिढया रोती थी
और नेउर को गािलयां दे ती थी।
नेउर िेतो की मेडो से बेतहाशा भागता चला जाता था। मानो उस
पापी संसार इस िनकल जाएगा।
एक आदमी ने कहा- नेउर ने कल मुझसे पांच रपये िलये थे। आज
सांझ को दे ने को कहा था।
दस
ू रा–हमसे भी दो रपये आज ही के िादे पर िलये थे।
बुिढया रोयी–दाढीजार मेरे सारे गहने लेगया। पचीस रपये रिे थे
िह भी उठा ले गया।
लोग समझ गये, बाबा कोई धूत ग था। नेउर को साझा दे गया। ऐसे-
ऐसे ठग पडे है संसार मे। नेउर के बारे मे बारे मे िकसी को ऐसा
संदेह नहीं थी। बेचारा सीधा आदमी आ गया पटटी मे। मारे लाज के
कहीं िछपा बैठा होगा

तीन महीने गुजर गये।
झांसी िजले मे धसान नदी के िकनारे एक छोटा सा गांि है - काशीपुर
नदी के िकनारे एक पहाडी टीला है । उसी पर कई िदन से एक साधु
ने अपना आसन जमाया है । नाटे कद का आदमी है , काले तिे का-सा रं ग
दे ह गठी हुई। यह नेउर है जो साधु बेश मे दिुनया को धोिा दे रहा है ।
िही सरल िनषकपट नेउर है िजसने कभी पराये माल की ओर आंि नहीं
उठायो जो पसीना की रोटी िाकर मगन था। घर की गािं की और
बुिढया की याद एक कि भी उसे नहीं भूलती इस जीिन मे िफर कोई
163
िदन आयेगा। िक िह अपने घर पहुंचेगा और िफर उस संसार मे
हं सता- िेलता अपनी छोटी–छोटी िचनताओ और छोटी–छोटी आशाओ के
बीच आननद से रहे गा। िह जीिन िकतना सुिमय था। िजतने थे।
सब अपने थे सभी आदर करते थे। सहानुभूित रिते थे। िदन भर की
मजूरी, थोडा-सा अनाज या थोडे से पैसे लेकार घर आता था, तो बुिधया
िकतने मीठे सनेह से उसका सिागत करती थी। िह सारी मेहनत, सारी
थकािट जैसे उसे िमठास मे सनकर और मीठी हो जाती थी। हाय िे
िदन िफर कब आयेगे? न जाने बुिधया कैसे रहती होगी। कौन उसे पान की
तरह फेरे गा? कौन उसे पकाकर ििलायेगा? घर मे पैसा भी तो नहीं छोडा
गहने तक डबा िदये। तब उसे कोध आता। िक उस बाबा को पा जाय, तो
कचच हीिा जाए। हाय लोभ! लोभ!
उनके अननय भको मे एक सुनदरी युिती भी थी िजसके पित ने
उसे तयाग िदया था। उसका बाप फौजी-पेशनर था, एक पढे िलिे आदमी
से लडकी का िििाह िकया: लेिकन लडका मॉँ के कहने मे था और युिती
की अपनी सांस से न पटती। िह चा हती थी शौहर के साथ सास से
अलग रहे शौहर अपनी मां से अलग होने पर न राजी हुआ। िह
रठकर मैके चली आयी। तब से तीन साल हो गये थे और ससुराल से
एक बार भी बुलािा न आया न पितदे ि ही आये। युिती िकसी तरह
पित को अपने िश मे कर लेना चाहती थी। महातमाओं के िलए तरह
पित को अपने िश मे कर लेना चाहती थी महातमाओ के िलए िकसी
का िदल फेर दे ना ऐसा कया मुिशकल है ! हां, उनकी दया चािहए।
एक िदन उसने एकानत मे बाबाजी से अपनी ििपित कह सुनायी।
नेउर को िजस िशकार की टोह थी िह आज िमलता हूआ जान पडा गंभीर
भाि से बोला-बेटी मै न िसद हूं न महातमा न मै संसार के झमेलो मे
पडता हूं पर तेरी सरधा और परे म दे िकर तुझ पर दया आती हौ। भगिान
ने चाहा तो तेरा मनोरध पूरा हो जायेगा।
‘आप समथग है और मुझे आपके ऊपर ििशास है ।’
‘भगिान की जो इचछा होगी िही होगा।’
‘इस अभािगनी की डोगी आप िही होगा।’
‘मेरे भगिान आप ही हो।’

164
नेउर ने मानो धमग-सकटं मे पडकर कहा-लेिकन बेटी, उस काम मे
बडा अनुषान करना पडे गा। और अनुषान मे सैकडो हजारो का िच ग है ।
उस पर भी तेरा काज िसद होगा या नही, यह मै नहीं कह सकता। हां
मुझसे जो कुछ हो सकेगा, िह मै कर दंग
ू ा। पर सब कुछ भगिान के हाथ
मे है । मै माया को हाथ से नहीं छूता; लेिकन तेरा दि
ु नही दे िा जाता।
उसी रात को युिती ने अपने सोने के गहनो की पेटारी लाकर
बाबाजी के चरिो पर रि दी बाबाजी ने कांपते हुए हाथो से पेटारी
िोली और चनदमा के उिजिल पकाश मे आभूषिो को दे िा । उनकी
बाधे झपक गयीं यह सारी माया उनकी है िह उनके सामने हाथ बाधे
िडी कह रही है मुझे अंगीकार कीिजए कुछ भी तो करना नही है
केिल पेटारी लेकर अपने िसरहाने रि लेना है और युिती को आशीिाद

दे कर ििदा कर दे ना है । पात काल िह आयेगी उस िक िह उतना दरू होगे
जहां उनकी टागे ले जायेगी। ऐसा आशातीत सौभागय! जब िह रपये से
भरी थैिलयां िलए गांि मे पहुंचेगे और बुिधया के सामने रि दे गे ! ओह!
इससे बडे आननद की तो िह कलपना भी नहीं कर सकते।
लेिकन न जाने कयो इतना जरा सा काम भी उससे नहीं हो सकता
था। िह पेटारी को उठाकर अपने िसरहाने कंबल के नीचे दबाकर नहीं
रि सकता। है । कुछ नहीं; पर उसके िलए असूझ है , असाधय है िह उस
पेटारी की ओर हाथ भी नही बढा सकता है इतना कहने मे कौन सी
दिुनया उलटी जाती है । िक बेटी इसे उठाकर इस कमबल के नीचे रि दे ।
जबान कट तो न जायगी, ;मगर अब उसे मालूम होता िक जबान पर
भी उसका काबू नही है । आंिो के इशारे से भी यह काम हो सकता है ।
लेिकन इस समय आंिे भीड बगाित कर रही है । मन का राजा इतने
मितयो और सामनतो के होते हुए भी अशक है िनरीह है लाि रपये
की थैली सामने रिी हो नंगी तलिार हाथ मे हो गाय मजबूत रससी
के सामने बंधी हो, कया उस गाय की गरदन पर उसके हाथ उठे गे। कभी
नहीं कोई उसकी गरदन भले ही काट ले। िह गऊ की हतया नही कर
सकता। िह पिरतयाका उसे उसी गउ की हतया नही कर सकता
िह पिपतयाका उसे उसी गऊ की तरह लगर ही थी। िजस अिसर
को िह तीन महीने िोज रहा है उसे पाकर आज उसकी आतमा कांप रही
है । तषृिा िकसी िनय जनतु की भांित अपने संसकारे से आिेटिपय है
165
लेिकन जंजीरो से बधे–बधे उसके नि िगर गये है और दातं कमजोर हो
गये है ।
उसने रोते हुंए कहा–बेटी पेटारी उठा ले जाओ। मै तुमहारी परीका कर
रहा था। मनोरथ पूरा हो जायेगा।
चॉद
ँ नदी के पार िक
ृ ो की गोद मे ििशाम कर चुका था। नेउर
धीरे से उठा और धसान मे सनान करके एक ओर चल िदया। भभूत और
ितलक से उसे घि
ृ ा हो रही थी उसे आशय ग हो रहा था िक िह घर से
िनकला ही कैसे? थोडे उपहास के भय से! उसे अपने अनदर एक िििचत
उललास का अनुभि हो रहा था मानो िह बेिडयो से मुक हो गया हो
कोई बहुत बडी िचजय पाप की हो।


4
ठिे िदन नेउर गांि पहुंच गया। लडको ने दौठकर उछल
कुछकर, उसकी लकडी उसके हाथ उसका सिागत िकया।
एक लडके ने कहा काकी तो मरगयी दादा।
नेउर के पांि जैसे बंध गये मुंह के दोनो कोने नीचे झुके गये।
दीनििषाद आिो मे चमक उठा कुछ बोला नहीं, कुछ पूछा भी नहीं। पलभर
जैसे िनससंज िडा रहा िफर बडी तेजी से अपनी झोपडी की ओर चला।
बालकिन
ृ द भी उसके पीछे दौडे मगर उनकी शरारत और चंचलता
भागचली थी। झोपडी िुली पडी थी बुिधया की चारपाई जहा की तहां थी।
उसकी िचलम और नािरयल ियो के ियो धरे हुए थे। एक कोने मे दो
चार िमटटी और पीतल के बरतन पडे हुंए थे लडे क बाहर ही िडे
रह गये झेपडी के अनदर कैसे जाय िहां बुिधया बैठी है ।
गांि मे भगदड मच गयी। नेउर दादा आ गये। झोपडी के दार पर
भीड लग गयी पशनो कातांता बध गया।–तूम इतने िदनोकहां थे। दादा?
तुमहारे जाने के बाद तीसरे ही िदन काकी चल बसीं रात िदन तुमहे गािलयां
दे ती थी। मरते मरते तुमहे गिरयाती ही रही। तीसरे िदन आये तो मेरी
पडी कथी। तुम इतने िदन कहा रहे ?
नेउर ने कोई जिाब न िदया। केिल शुनय िनराश करि आहत
नेतो से लोगो की ओर दे िता रहा मानो उसकी िािी हर लीगयी है । उस
िदन से िकसी ने उसे बोलते या रोते-हं सते नहीं दे िा।

166
गांि से आध मील पर पककी सडक है । अचछी आमदरफत है ।
नेउर बेड सबेरे जाकर सडक के िकनारे एक पेड के नीचे बैठ जाता है ।
िकसी से कुछ मांगता नही पर राहगीर कूछ न कुछ दे ही दे ते है ।– चेबना
अनाज पैसे। सधयां सयम िह अपनी झोपडी मे आ जाता है , िचराग
जलाता है भोजन बनाता है , िाना है और उसी िाट पर पडा रहता है ।
उसके जीिन, मै जो एक संचालक शिक थी,िह लुप हो गयी है ैै िह
अब केिल जीिधारी है । िकतनी गहरी मनोवयधा है । गांि मे पलेग आया।
लोग घर छोड छोडकर भागने लगे नेउर को अब िकसी की परिाह
न थी। न िकसी को उससे भय था न पेम। सारा गांि भाग गया। नेउर
अपनी झोपडी से न िनकला और आज भी िह उसी पेउै़ के नीचे
सडक के िकनारे उसी तरह मौन बैठा हुआ नजर आता है - िनशेि,
िनजीि।‘

167
शूदा

मां
और बेटी एक झोपडी मे गांि के उसे िसरे पर रहती थीं। बेटी बाग
से पितयां बटोर लाती, मां भाड-झोकती। यही उनकी जीििका थी।
सेर-दो सेर अनाज िमल जाता था, िाकर पड रहती थीं। माता ििधिा था,
बेटी किांरी, घर मे और कोई आदमी न था। मां का नाम गंगा था, बेटी का
गौरा!
गंगा को कई साल से यह िचनता लगी हुई थी िक कहीं गौरा की
सगाई हो जाय, लेिकन कहीं बात पककी न होती थी। अपने पित के मर
जाने के बाद गंगा ने कोई दस
ू रा घर न िकया था, न कोई दस
ू रा धनधा ही
करती थी। इससे लोगो को संदेह हो गया था िक आििर इसका गुजर कैसे
होता है ! और लोग तो छाती फाड-फाडकर काम करते है , िफर भी पेट-भर
अनन मयससर नहीं होता। यह सी कोई धंधा नहीं करती, िफर भी मां-बेटी
आराम से रहती है , िकसी के सामने हाथ नहीं फैलातीं। इसमे कुछ-न-कुछ
रहसय अिशय है । धीरे -धीरे यह संदेह और भी दढृ हो गया और अब तक
जीिित था। िबरादरी मे कोई गौरा से सगाई करने पर राजी न होता था।
शूदो की िबरादरी बहुत छोटी होती है । दस-पांच कोस से अिधक उसका केत
नहीं होता, इसीिलए एक दस
ू रे के गुि-दोष िकसी से िछपे नहीं रहते, उन पर
परदा ही डाला जा सकता है ।
इस भांित को शानत करने के िलए मां ने बेटी के साथ कई तीथग-
याताएं कीं। उडीसा तक हो आयी, लेिकन संदेह न िमटा। गौरा युिती थी,
सुनदरी थी, पर उसे िकसी ने कुएं पर या िेतो मे हं सते-बोलते नहीं दे िा।
उसकी िनगाह कभी ऊपर उठती ही न थी। लेिकन ये बाते भी संदेह को और
पुि करती थीं। अिशय कोई- न- कोई रहसय है । कोई युिती इतनी सती नहीं
हो सकती। कुछ गुप-चुप की बात अिशय है ।
यो ही िदन गुजरते जाते थे। बुिढया िदनोिदन िचनता से घुल रही थी। उधर
सुनदरी की मुि-छिि िदनोिदन िनहरती जाती थी। कली ििल कर फूल हो
रही थी।

168
ए क िदन एक परदे शी गांि से होकर िनकला। दस-बारह कोस से आ
रहा था। नौकरी की िोज मे कलकता
िकसी कहार का घर पूछता हुआ गंगा के
जा रहा था। रात हो गयी।
घर आया। गंगा ने उसका िूब
आदर-सतकार िकया, उसके िलए गेहूं का आटा लायी, घर से बरतन िनकालकर
िदये। कहार ने पकाया, िाया, लेटा, बाते होने लगीं। सगाई की चचा ग िछड
गयी। कहार जिान था, गौरा पर िनगाह पडी, उसका रं ग-ढं ग दे िा, उसकी
सजल छिि ऑि
ं ो मे िुब गयी। सगाई करने पर राजी हो गया। लौटकर घर
चला गया। दो-चार गहने अपनी बहन के यहां से लाया; गांि के बजाज ने
कपडे उधार दे िदये। दो-चार भाईबंदो के साथ सगाई करने आ पहुंचा। सगाई
हो गयी, यही रहने लगा। गंगा बेटी और दामाद को आंिो से दरू न कर
सकती थी।
परनतु दस ही पांच िदनो मे मंगर के कानो मे इधर-उधर की बाते
पडने लगीं। िसफग िबरादरी ही के नहीं, अनय जाित िाले भी उनके कान
भरने लगे। ये बाते सुन-सुन कर मंगर पछताता था िक नाहक यहां फंसा।
पर गौरा को छोडने का खयाल कर उसका िदल कांप उठता था।
एक महीने के बाद मं गर अपनी बहन के गहने लौटाने गया। िाने के
समय उसका बहनोई उसके साथ भोजन करने न बैठा। मंगर को कुछ
संदेह हुआ, बहनोई से बोला- तुम कयो नहीं आते?
बहनोई ने कहा-तुम िा लो, मै िफर िा लूंगा।
मंगर – बात कया है ? तु िाने कयो नहीं उठते?
बहनोई –जब तक पंचायत न होगी, मै तुमहारे साथ कैसे िा सकता
हूं? तुमहारे िलए िबरादरी भी नहीं छोड दंग
ू ा। िकसी से पूछा न गाछा, जाकर
एक हरजाई से सगाई कर ली।
मंगर चौके पर उठ आया, िमरजई पहनी और ससुराल चला आया।
बहन िडी रोती रह गयी।
उसी रात को िह िकसी िह िकसी से कुछ कहे -सुने बगैर, गौरा को छोडकर
कहीं चला गया। गौरा नींद मे मगन थी। उसे कया िबर थी िक िह रत, जो
मैने इतनी तपसया के बाद पाया है , मुझे सदा के िलए छोडे चला जा रहा
है ।

169
क ई साल बीत गये। मंगर का कुछ पता न चला। कोई पत तक न
आया, पर गौरा बहुत पसनन थी। िह मांग मे सेदरु डालती, रं ग
िबरं ग के कपडे पहनती और अधरो पर िमससी के धडे जमाती। मंगर भजनो
की एक पुरानी िकताब छोड गया था। उसे कभी-कभी पढती और गाती।
मंगर ने उसे िहनदी िसिा दी थी। टटोल-टटोल कर भजन पढ लेती थी।
पहले िह अकेली बैठली रहती। गांि की और िसयो के साथ बोलते -
चालते उसे शम ग आती थी। उसके पास िह िसतु न थी, िजस पर दस
ू री
िसयां गिग करती थीं। सभी अपने-अपने पित की चचाग करतीं। गौरा के पित
कहां था? िह िकसकी बाते करती! अब उसके भी पित था। अब िह अनय
िसयो के साथ इस ििषय पर बातचीत करने की अिधकािरिी थी। िह भी
मंगर की चचा ग करती, मंगर िकतना सनेहशील है , िकतना सिजन, िकतना
िीर। पित चचाग से उसे कभी तिृप ही न होती थी।
िसयां- मंगर तुमहे छोडकर कयो चले गये?
गौरी कहती – कया करते? मदग कभी ससुराल मे पडा रहता है । दे श –
परदे श मे िनकलकर चार पैसे कमाना ही तो मदो का काम है , नहीं तो
मान-मरजादा का िनिाह
ग कैसे हो?
जब कोई पूछता, िचटठ-पती कयो नहीं भेजते? तो हं सकर कहती- अपना
पता-िठकाना बताने मे डरते है । जानते है न, गौरा आकर िसर पर सिार हो
जायेगी। सच कहती हूं उनका पता-िठकाना मालूम हो जाये, तो यहां मुझसे
एक िदन भी न रहा जाये। िह बहुत अचछा करते है िक मेरे पास िचटठी-
पती नहीं भेजते। बेचारे परदे श मे कहां घर िगरसती संभालते िफरे गे?
एक िदन िकसी सहे ली ने कहा- हम न मानेगे, तुझसे जरर मंगर से
झगडा हो गया है , नहीं तो िबना कुछ कहे -सुने कयो चले जाते ?
गौरा ने हं सकर कहा- बहन, अपने दे िता से भी कोई झगडा करता है ?
िह मेरे मािलक है , भला मै उनसे झगडा करं गी? िजस िदन झगडे की
नौबत आयेगी, कहीं डू ब मरं गी। मुझसे कहकर जाने पाते? मै उनके पैरो से
िलपट न जाती।



क िदन कलकता से एक आदमी आकर गंगा के घर ठहरा। पास ही
के िकसी गांि मे अपना घर बताया। कलकता मे िह मंगर के
पडोस ही मे रहता था। मंगर ने उससे गौरा को अपने साथ लाने को कहा
170
था। दो सािडयां और राह-िच ग के िलये रपये भी भेजे थे। गौरा फूली न
समायी। बूढे बाहि के साथ चलने को तैयार हो गयी। चलते िक िह गांि
की सब औरतो से गले िमली। गंगा उसे सटे शन तक पहुंचाने गयी। सब
कहते थे, बेचारी लडकी के भाग जग गये, नहीं तो यहाँ कुढ-कुढ कर मर
जाती।
रासते-भर गौरा सोचती – न जाने िह कैसे हो गये होगे ? अब तो
मूछे अचछी तरह िनकल आयी होगी। परदे श मे आदमी सुि से रहता है । दे ह
भर आयी होगी। बाबू साहब हो गये होगे। मै पहले दो-तीन िदन उनसे
बोलूंगी नहीं। िफर पूछूंगी-तुम मुझे छोडकर कयो चले गये? अगर िकसी ने
मेरे बारे मे कुछ बुरा-भला कहा ही था, तो तुमने उसका ििशास कयो कर
िलया? तुम अपनी आंिो से न दे िकर दस
ू रो के कहने पर कयो गये? मै भली
हूं या बूरी हूं, हूं तो तुमहारी, तुमने मुझे इतने िदनो रलाया कयो? तुमहारे बारे
मे अगर इसी तरह कोई मुझसे कहता, तो कया मै तुमको छोड दे ती? जब
तुमने मेरी बांह पकड ली, तो तुम मेरे हो गये। िफर तुममे लाि एब हो, मेरी
बला से। चाहे तुम तुकग ही कयो न हो जाओ, मै तुमहे छोड नहीं सकती। तुम
कयो मुझे छोडकर भागे? कया समझते थे, भागना सहज है ? आििर झि
मारकर बुलाया िक नहीं? कैसे न बुलाते? मैने तो तुमहारे ऊपर दया की, िक
चली आयी, नहीं तो कह दे ती िक मै ऐसे िनदग यी के पास नहीं जाती, तो तुम
आप दौडे आते। तप करने से दे िता भी िमल जाते है , आकर सामने िडे हो
जाते है , तुम कैसे न आते? िह धरती बार-बार उिदगन हो-होकर बूढे बाहि से
पूछती, अब िकतनी दरू है ? धरती के छोर पर रहते है कया? और भी िकतनी
ही बाते िह पूछना चाहती थी, लेिकन संकोच-िश न पूछ सकती थी। मन-
ही-मन अनुमान करके अपने को सनतुि कर लेती थी। उनका मकान बडा-सा
होगा, शहर मे लोग पकके घरो मे रहते है । जब उनका साहब इतना मानता
है , तो नौकर भी होगा। मै नौकर को भगा दंग
ू ी। मै िदन-भर पडे –पडे कया
िकया करंगी?
बीच-बीच मे उसे घर की याद भी आ जाती थी। बेचारी अममा रोती होगी।
अब उनहे घर का सारा काम आप ही करना पडे गा। न जाने बकिरयो को
चराने ले जाती है । या नहीं। बेचारी िदन-भर मे-मे करती होगी। मै अपनी
बकिरयो के िलए महीने-महीने रपये भेजूंगी। जब कलकता से लौटू ं गी तब
सबके िलए सािडयां लाऊंगी। तब मै इस तरह थोडे लौटू ं गी। मेरे साथ बहुत-
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सा असबाब होगा। सबके िलए कोई-न-कोई सौगात लाऊंगी। तब तक तो
बहुत-सी बकिरयां हो जायेगी।
यही सुि सिपन दे िते-दे िते गौरा ने सारा रासता काट िदया।
पगली कया जानती थी िक मेरे मान कुछ और कता ग के मन कुछ और।
कया जानती थी िक बूढे बाहिो के भेष मे िपशाच होते है । मन की िमठाई
िाने मे मगन थी।

ती सरे िदन गाडी कलकता पहुंची। गौरा की छाती धड-धड करने लगी।
िह यहीं-कहीं िडे होगे। अब आते हीं होगे। यह सोचकर उसने घूंघट
िनकाल िलया और संभल बैठी। मगर मगर िहां न िदिाई िदया। बूढा
बाहि बोला-मंगर तो यहां नहीं िदिाई दे ता, मै चारो ओर छान आया। शायद
िकसी काम मे लग गया होगा, आने की छुटटी न िमली होगी, मालूम भी तो
न था िक हम लोग िकसी गाडी से आ रहे है । उनकी राह कयो दे िे, चलो, डे रे
पर चले।
दोनो गाडी पर बैठकर चले। गौरा कभी तांगे पर सिार न हुई थी। उसे
गि ग हो रहा था िक िकतने ही बाबू लोग पैदल जा रहे है , मै तांगे पर बैठी
हूं।
एक कि मे गाडी मंगर के डे रे पर पहुंच गयी। एक ििशाल भिन था,
आहाता साफ-सुथरा, सायबान मे फूलो के गमले रिे हुए थे। ऊपर चढने
लगी, ििसमय, आननद और आशा से। उसे अपनी सुिध ही न थी। सीिढयो पर
चढते–चढते पैर दि
ु ने लगे। यह सारा महल उनका है । िकराया बहुत दे ना
पडता होगा। रपये को तो िह कुछ समझते ही नहीं। उसका हदय धडक
रहा था िक कहीं मंगर ऊपर से उतरते आ न रहे हो सीढी पर भेट हो गयी,
तो मै कया करं गी? भगिान करे िह पडे सोते रहे हो, तब मै जगाऊं और िह
मुझे दे िते ही हडबडा कर उठ बैठे। आििर सीिढयो का अनत हुआ। ऊपर
एक कमरे मे गौरा को ले जाकर बाहि दे िता ने बैठा िदया। यही मंगर का
डे रा था। मगर मंगर यहां भी नदारद! कोठरी मे केिल एक िाट पडी हुई
थी। एक िकनारे दो-चार बरतन रिे हुए थे। यही उनकी कोठरी है । तो
मकान िकसी दस
ू रे का है , उनहोने यह कोठरी िकराये पर ली होगी। मालूम
होता है , रात को बाजार मे पूिरयां िाकर सो रहे होगे। यही उनके सोने की
िाट है । एक िकनारे घडा रिा हुआ था। गौरा को मारे पयास के तालू सूि
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रहा था। घडे से पानी उडे ल कर िपया। एक िकनारे पर एक झाडू रिा था।
गौरा रासते की थकी थी, पर पेममोललास मे थकन कहां? उसने कोठरी मे
झाडू लगाया, बरतनो को धो-धोकर एक जगह रिा। कोठरी की एक-एक िसतु
यहां तक िक उसकी फश ग और दीिारो मे उसे आतमीयता की झलक िदिायी
दे ती थी। उस घर मे भी, जहां उसे अपने जीिन के २५ िष ग काटे थे, उसे
अिधकार का ऐसा गौरि-युक आननद न पाप हुआ था।
मगर उस कोठरी मे बैठे-बैठे उसे संधया हो गयी और मंगर का कहीं
पता नहीं। अब छुटटी िमली होगी। सांझ को सब जगह छुटटी होती है । अब
िह आ रहे होगे। मगर बूढे बाबा ने उनसे कह तो िदया ही होगा, िह कया
अपने साहब से थोडी दे र की छुटटी न ले सकते थे? कोई बात होगी, तभी तो
नहीं आये।
अंधेरा हो गया। कोठरी मे दीपक न था। गौरा दार पर िडी पित की
बाट दे ि रहीं थी। जाने पर बहुत-से आदिमयो के चढते-उतरने की आहट
िमलती थी, बार-बार गौरा को मालूम होता था िक िह आ रहे है , पर इधर
कोई नहीं आता था।
नौ बजे बूढे बाबा आये। गौरी ने समझा, मंगर है । झटपट कोठरी के
बाहर िनकल आयी। दे िा तो बाहि! बोली-िह कहां रह गये?
बूढा–उनकी तो यहां से बदली हो गयी। दफतर मे गया था तो मालूम
हुआ िक िह अपने साहब के साथ यहां से कोई आठ िदन की राह पर चले
गये। उनहोने साहब से बहुत हाथ-पैर जोडे िक मुझे दस िदन की मुहलत दे
दीिजए, लेिकन साहब ने एक न मानी। मंगर यहां लोगो से कह गये है िक
घर के लोग आये तो मेरे पास भेज दे ना। अपना पता दे गये है । कल मै
तुमहे यहां से जहाज पर बैठा दंग
ू ा। उस जहाज पर हमारे दे श के और भी
बहुत से होगे, इसिलए मागग मे कोई कि न होगा।
गौरा ने पूछा- कै िदन मे जहाज पहुंचेगा?
बूढा- आठ-दस िदन से कम न लगेगे, मगर घबराने की कोई बात नहीं।
तुमहे िकसी बात की तकलीफ न होगी।



ब तक गौरा को अपने गांि लौटने की आशा थी। कभी-न-कभी िह
अपने पित को िहां अिशय िींच ले जायेगी। लेिकन जहाज पर
बैठाकर उसे ऐसा मालूम हुआ िक अब िफर माता को न दे िूंगी, िफर गांि के
173
दशन
ग न होगे, दे श से सदा के िलए नाता टू ट रहा है । दे र तक घाट पर
िडी रोती रही, जहाज और समुद दे िकर उसे भय हो रहा था। हदय दहल
जाता था।
शाम को जहाज िुला। उस समय गौरा का हदय एक अकय भय से
चंचल हो उठा। थोडी दे र के िलए नैराशय न उस पर अपना आतंक जमा
िलया। न-जाने िकस दे श जा रही हूं, उनसे भेट भी होगी या नहीं। उनहे कहां
िोजती िफरं गी, कोई पता-िठकाना भी तो नहीं मालूम। बार-बार पछताती थी
िक एक िदन पिहले कयो न चली आयी। कलकता मे भेट हो जाती तो मै
उनहे िहां कभी न जाने दे ती।
जहाज पर और िकतने ही मुसािफर थे, कुछ िसयां भी थीं। उनमे
बराबर गाली-गलौज होती रहती थी। इसिलए गौरा को उनसे बाते करने की
इचछा न होती थी। केिल एक सी उदास िदिाई दे ती थी। गौरा ने उससे
पूछा-तुम कहां जाती हो बहन?
उस सी की बडी-बडी आंिे सजल हो गयीं। बोलीं, कहां बताऊं बहन
कहां जा रहीं हूं? जहां भागय िलये जाता है , िहीं जा रहीं हूं। तुम कहां जाती
हो?
गौरा- मै तो अपने मािलक के पास जा रही हूं। जहां यह जहाज
रकेगा। िह िहीं नौकर है । मै कल आ जाती तो उनसे कलकता मे ही भेट
हो जाती। आने मे दे र हो गयी। कया जानती थी िक िह इतनी दरू चले
जायेगे, नहीं तो कयो दे र करती!
सी – अरे बहन, कहीं तुमहे भी तो कोई बहकाकर नहीं लाया है ? तुम
घर से िकसके साथ आयी हो?
गौरा – मेरे आदमी ने कलकता से आदमी भेजकार मुझे बुलाया था।
सी – िह आदमी तुमहारा जान–पहचान का था?
गौरा- नहीं, उस तरफ का एक बूढा बाहि था।
सी – िही लमबा-सा, दब
ु ला-पतला लकलक बूढा, िजसकी एक ऑि
ं मे
फूली पडी हुई है ।
गौरा – हां, हां, िही। कया तुम उसे जानती हो?
सी – उसी दि
ु ने तो मेरा भी सिन
ग ाश िकया। ईशर करे , उसकी सातो पुशते
नरक भोगे, उसका िनिश
ग हो जाये, कोई पानी दे नेिाला भी न रहे , कोढी होकर
मरे । मै अपना ित
ृ ानत सुनाऊं तो तुम समझेगी िक झूठ है । िकसी को
174
ििशास न आयगा। कया कहूं, बस सही समझ लो िक इसके कारि मै न घर
की रह गयी, न घाट की। िकसी को मुंह नहीं िदिा सकती। मगर जान तो
बडी पयार होती है । िमिरच के दे श जा रही हूं िक िहीं मेहनत-मजदरूी करके
जीिन के िदन काटू ं ।
गौरा के पाि नहीं मे समा गये। मालूम हुआ जहाज अथाह जल मे
डू बा जा रहा है । समझ गयी बूढे बाहि ने दगा की। अपने गांि मे सुना
करती थी िक गरीब लोग िमिरच मे भरती होने के िलए जाया करते है ।
मगर जो िहां जाता है , िह िफर नहीं लौटता। हे , भगिान ् तुमने मुझे िकस
पाप का यह दणड िदया? बोली- यह सब कयो लोगो को इस तरह छलकर
िमिरच भेजते है ?
सी- रपये के लोभ से और िकसिलए? सुनती हूं, आदमी पीछे इन सभी
को कुछ रपये िमलते है ।
गौरा – मजूरी
गौरा सोचने लगी – अब कया करं ? यह आशा –नौका िजस पर बैठी
हुई िह चली जा रही थी, टु ट गयी थी और अब समुद की लहरो के िसिा
उसकी रका करने िाला कोई न था। िजस आधार पर उसने अपना जीिन-
भिन बनाया था, िह जलमगन हो गया। अब उसके िलए जल के िसिा और
कहां आशय है ? उसकी अपनी माता की, अपने घर की अपने गांि की,
सहे िलयो की याद आती और ऐसी घोर ममग िेदना होने लगी, मानो कोई सपग
अनतसतल मे बैठा हुआ, बार-बार डस रहा हो। भगिान! अगर मुझे यही
यातना दे नी थी तो तुमने जनम ही कयो िदया था? तुमहे दिुिया पर दया
नहीं आती? जो िपसे हुए है उनहीं को पीसते हो! करि सिर से बोली – तो
अब कया करना होगा बहन?
सी – यह तो िहां पहुंच कर मालूम होगा। अगर मजूरी ही करनी पडी
तो कोई बात नहीं, लेिकन अगर िकसी ने कुदिि से दे िा तो मैने िनशय कर
िलया है िक या तो उसी के पाि ले लूंगी या अपने पाि दे दंग
ू ी।
यह कहते-कहते उसे अपना ित
ृ ानत सुनाने की िह उतकट इचछा हुई,
जो दिुियो को हुआ करती है । बोली – मै बडे घर की बेटी और उससे भी
बडे घर की बहूं हूं, पर अभािगनी ! िििाह के तीसरे ही साल पितदे ि का
दे हानत हो गया। िचत की कुछ ऐसी दशा हो गयी िक िनतय मालूम होता िक
िह मुझे बुला रहे है । पहले तो ऑि
ं झपकते ही उनकी मूित ग सामने आ
175
जाती थी, लेिकन िफर तो यह दशा हो गयी िक जागत दशा मे भी रह-रह
कर उनके दशन
ग होने लगे। बस यही जान पडता था िक िह साकात ् िडे
बुला रहे है । िकसी से शम ग के मारे कहती न थी, पर मन मे यह शंका होती
थी िक जब उनका दे हािसान हो गया है तो िह मुझे िदिाई कैसे दे ते है ? मै
इसे भािनत समझकर िचत को शानत न कर सकती। मन कहता था, जो
िसतु पतयक िदिायी दे ती है , िह िमल कयो नहीं सकती? केिल िह जान
चािहए। साधु-महातमाओं को िसिा जान और कौन दे सकता है ? मेरा तो अब
भी ििशास है िक अभी ऐसी िकयाएं है , िजनसे हम मरे हुए पािियो से
बातचीत कर सकते है , उनको सथूल रप मे दे ि सकते है । महातमाओं की
िोज मे रहने लगी। मेरे यहां अकसर साधु-सनत आते थे, उनसे एकानत मे
इस ििषय मे बाते िकया करती थी, पर िे लोग सदप
ु दे श दे कर मुझे टाल दे ते
थे। मुझे सदप
ु दे शो की जररत न थी। मै िैधवय-धम ग िूब जानती थी। मै तो
िह जान चाहती थी जो जीिन और मरि के बीच का परदा उठा दे । तीन
साल तक मै इसी िेल मे लगी रही। दो महीने होते है , िही बूढा बाहि
संनयासी बना हुआ मेरे यहां जा पहुंचा। मैने इससे िही िभका मांगी। इस
धूत ग ने कुछ ऐसा मायाजाल फैलाया िक मै आंिे रहते हुए भी फंस गयी।
अब सोचती हूं तो अपने ऊपर आशय ग होता है िक मुझे उसकी बातो पर
इतना ििशास कयो हुआ? मै पित-दशन
ग के िलए सब कुछ झेलने को, सब कुछ
करने को तैयार थी। इसने रात को अपने पास बुलाया। मै घरिालो से
पडोिसन के घर जाने का बहाना करके इसके पास गयी। एक पीपल से
इसकी धूई जल रही थी। उस ििमल चांदनी मे यह जटाधारी जान और योग
का दे िता-सा मालूम होता था। मै आकर धूई के पास िडी हो गयी। उस
समय यिद बाबाजी मुझे आग मे कुद पडने की आजा दे ते, तो मै तुरनत कूद
पडती। इसने मुझे बडे पेम से बैठाया और मेरे िसर पर हाथ रिकर न जाने
कया कर िदया िक मै बेसध
ु हो गयी। िफर मुझे कुछ नहीं मालूम िक मै
कहां गयी, कया हुआ? जब मुझे होश आया तो मै रे ल पर सिार थी। जी मे
आया िक िचललाऊं, पर यह सोचकर िक अब गाडी रक भी गयी और मै
उतर भी पडी तो घर मे घुसने न पाऊंगी, मै चुपचाप बैठी रह गई। मै
परमातमा की दिि से िनदोष थी, पर संसार की दिि मे कलंिकत हो चुकी
थी। रात को िकसी युिती का घर से िनकल जाना कलंिकत करने के िलए
काफी था। जब मुझे मालूम हो गया िक सब मुझे टापू मे भेज रहे है तो
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मैने जरा भी आपित नहीं की। मेरे िलए अब सारा संसार एक-सा है । िजसका
संसार मे कोई न हो, उसके िलए दे श-परदे श दोनो बराबर है । हां, यह पकका
िनशय कर चूकी हूं िक मरते दम तक अपने सत की रका करं गी। िििध
के हाथ मे मतृयु से बढ कर कोई यातना नहीं। ििधिा के िलए मतृयु का
कया भय। उसका तो जीना और मरना दोनो बराबर है । बिलक मर जाने से
जीिन की ििपितयो का तो अनत हो जाएगा।
गौरा ने सोचा – इस सी मे िकतना धैयग और साहस है । िफर मै कयो
इतनी कातर और िनराश हो रही हूं? जब जीिन की अिभलाषाओं का अनत
हो गया तो जीिन के अनत का कया डर? बोली- बहन, हम और तुम एक
जगह रहे गी। मुझे तो अब तुमहारा ही भरोसा है ।
सी ने कहा- भगिान का भरोसा रिो और मरने से मत डरो।
सघन अनधकार छाया हुआ था। ऊपर काला आकाश था, नीचे काला
जल। गौरा आकाश की ओर ताक रही थी। उसकी संिगनी जल की ओर।
उसके सामने आकाश के कुसुम थे, इसके चारो ओर अननत, अिणड, अपार
अनधकार था।
जहाज से उतरते ही एक आदमी ने याितयो के नाम िलिने शुर िकये।
इसका पहनािा तो अंगेजी था, पर बातचीत से िहनदस
ु तानी मालूम होता था।
गौरा िसर झुकाये अपनी संिगनी के पीछे िडी थी। उस आदमी की आिाज
सुनकर िह चौक पडी। उसने दबी आंिो से उसको ओर दे िा। उसके समसत
शरीर मे सनसनी दौड गयी। कया सिपन तो नहीं दे ि रही हूं। आंिो पर
ििशास न आया, िफर उस पर िनगाह डाली। उसकी छाती िेग से धडकने
लगी। पैर थर-थर कांपने लगे। ऐसा मालूम होने लगा, मानो चारो ओर जल-
ही-जल है और उसमे और उसमे बही जा रही हूं। उसने अपनी संिगनी का
हाथ पकड िलया, नहीं तो जमीन मे िगर पडती। उसके सममुि िहीं पुरष
िडा था, जो उसका पािधार था और िजससे इस जीिन मे भेट होने की उसे
लेशमात भी आशा न थी। यह मंगर था, इसमे जरा भी सनदे ह न था। हां
उसकी सूरत बदल गयी थी। यौिन-काल का िह कािनतमय साहस, सदय
छिि, नाम को भी न थी। बाल ििचडी हो गये थे, गाल िपचके हुए, लाल
आंिो से कुिासना और कठोरता झलक रही थी। पर था िह मंगर। गौरा के
जी मे पबल इचछा हुई िक सिामी के पैरो से िलपट जाऊं। िचललाने का जी
चाहा, पर संकोच ने मन को रोका। बूढे बाहि ने बहुत ठीक कहा था। सिामी
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ने अिशय मुझे बुलाया था और आने से पहले यहां चले आये। उसने अपनी
संिगनी के कान मे कहा – बहन, तुम उस बाहि को वयथ ग ही बुरा कह रहीं
थीं। यही तो िह है जो याितयो के नाम िलि रहे है ।
सी – सच, िूब पहचानी हो?
गौरा – बहन, कया इसमे भी हो सकता है ?
सी – तब तो तुमहारे भाग जग गये, मेरी भी सुिध लेना।
गौरा – भला, बहन ऐसा भी हो सकता है िक यहां तुमहे छोड दं ?ू
मंगर याितयो से बात-बात पर िबगडता था, बात-बात पर गािलयां
दे ता था, कई आदिमयो को ठोकर मारे और कई को केिल गांि का िजला न
बता सकने के कारि धकका दे कर िगरा िदया। गौरा मन-ही-मन गडी जाती
थी। साथ ही अपने सिामी के अिधकार पर उसे गि ग भी हो रहा था। आििर
मंगर उसके सामने आकर िडा हो गया और कुचेिा-पूि ग नेतो से दे िकर
बोला –तुमहारा कया नाम है ?
गौरा ने कहा—गौरा।
मगर चौक पडा, िफर बोला – घर कहां है ?
मदनपुर, िजला बनारस।
यह कहते-कहते हं सी आ गयी। मंगर ने अबकी उसकी ओर धयान से
दे िा, तब लपककर उसका हाथ पकड िलया और बोला –गौरा! तुम यहां कहां?
मुझे पहचानती हो?
गौरा रो रही थी, मुहसे बात न िनकलती।
मंगर िफर बोला—तुम यहां कैसे आयीं?
गौरा िडी हो गयी, आंसू पोछ डाले और मंगर की ओर दे िकर बोली
– तुमहीं ने तो बुला भेजा था।
मंगर –मैने ! मै तो सात साल से यहां हूं।
गौरा –तुमने उसे बूढे बाहि से मुझे लाने को नहीं कहा था?
मंगर – कह तो रहा हूं, मै सात साल से यहां हूं। मरने पर ही यहां
से जाऊंगा। भला, तुमहे कयो बुलाता?
गौरा को मंगर से इस िनषु रता का आशा न थी। उसने सोचा, अगर यह
सतय भी हो िक इनहोने मुझे नहीं बुलाया, तो भी इनहे मेरा यो अपमान न
करना चािहए था। कया िह समझते है िक मै इनकी रोिटयो पर आयी हूं?
यह तो इतने ओछे सिभाि के न थे। शायद दरजा पाकर इनहे मद हो गया
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है । नारीसुलभ अिभमान से गरदन उठाकर उसने कहा- तुमहारी इचछा हो, तो
अब यहां से लौट जाऊं, तुमहारे ऊपर भार बनना नहीं चाहती?
मंगर कुछ लििजत होकर बोला – अब तुम यहां से लौट नहीं सकतीं
गौरा ! यहां आकर िबरला ही कोई लौटता है ।
यह कहकर िह कुछ दे र िचनता मे मगन िडा रहा, मानो संकट मे
पडा हुआ हो िक कया करना चािहए। उसकी कठोर मुिाकृ ित पर दीनता का
रं ग झलक पडा। तब कातर सिर से बोला –जब आ ही गयी हो तो रहो।
जैसी कुछ पडे गी, दे िी जायेगी।
गौरा – जहाज िफर कब लौटे गा।
मंगर – तुम यहां से पांच बरस के पहले नहीं जा सकती।
गौरा –कयो, कया कुछ जबरदसती है ?
मंगर – हां, यहां का यही हुकम है ।
गौरा – तो िफर मै अलग मजूरी करके अपना पेट पालूंगी।
मंगर ने सजल-नेत होकर कहा—जब तक मै जीता हूं, तुम मुझसे
अलग नहीं रह सकतीं।
गौरा- तुमहारे ऊपर भार बनकर न रहूंगी।
मंगर – मै तुमहे भार नहीं समझता गौरा, लेिकन यह जगह तुम-जैसी
दे िियो के रहने लायक नहीं है , नहीं तो अब तक मैने तुमहे कब का बुला
िलया होता। िहीं बूढा आदमी िजसने तुमहे बहकाया, मुझे घर से आते समय
पटने मे िमल गया और झांसे दे कर मुझे यहां भरती कर िदया। तब से यहीं
पडा हुआ हूं। चलो, मेरे घर मे रहो, िहां बाते होगी। यह दस
ू री औरत कौन है ?
गौरा – यह मेरी सिी है । इनहे भी बूढा बहका लाया।
मंगर -यह तो िकसी कोठी मे जायेगी? इन सब आदिमयो की बांट
होगी। िजसके िहससे मे िजतने आदमी आयेगे, उतने हर एक कोठी मे भेजे
जायेगे।
गौरा – यह तो मेरे साथ रहना चाहती है ।
मंगर – अचछी बात है इनहे भी लेती चलो।
यितयो रके नाम तो िलिे ही जा चुके थे, मंगर ने उनहे एक चपरासी को
सौपकर दोनो औरतो के साथ घर की राह ली। दोनो ओर सघन िक
ृ ो की
कतारे थी। जहां तक िनगाह जाती थी, ऊि-ही-ऊि िदिायी दे ती थी। समुद
की ओर से शीतल, िनमल
ग िायु के झोके आ रहे थे। अतयनत सुरमय दशय
179
था। पर मंगर की िनगाह उस ओर न थी। िह भूिम की ओर ताकता, िसर
झुकाये, सिनदगध चिाल से चला जा रहा था, मानो मन-ही-मन कोई समसया
हल कर रहा था।
थोडी ही दरू गये थे िक सामने से दो आदमी आते हुए िदिाई िदये।
समीप आकर दानो रक गये और एक ने हं सकर कहा –मंगर, इनमे से एक
हमारी है ।
दस
ू रा बोला- और दस
ू रा मेरी।
मंगर का चेहरा तमतमा उठा था। भीषि कोध से कांपता हुआ बोला-
यह दोनो मेरे घर की औरते है । समझ गये?
इन दोनो ने जोर से कहकहा मारा और एक ने गौरा के समीप आकर
उसका हाथ पकडने की चेिा करके कहा- यह मेरी है चाहे तुमहारे घर की हो,
चाहे बाहर की। बचा, हमे चकमा दे ते हो।
मंगर – कािसम, इनहे मत छे डो, नहीं तो अचछा न होगा। मैने कह
िदया, मेरे घर की औरते है ।
मंगरी की आंिो से अिगन की ििाला-सी िनकल रही थी। िह दानो के
उसके मुि का भाि दे िकर कुछ सहम गये और समझ लेने की धमकी
दे कर आगे बढे । िकनतु मंगर के अिधकार-केत से बाहर पहुंचते ही एक ने
पीछे से ललकार कर कहा- दे िे कहां ले के जाते हो?
मंगर ने उधर धयान नहीं िदया। जरा कदम बढाकर चलने लगा, जेसे
सनधया के एकानत मे हम किबसतान के पास से गुजरते है , हमे पग-पग पर
यह शंका होती है िक कोई शबद कान मे न पड जाय, कोई सामने आकर
िडा न हो जाय, कोई जमीन के नीचे से कफन ओढे उठ न िडा हो।
गौरा ने कहा—ये दानो बडे शोहदे थे।
मंगर – और मै िकसिलए कह रहा था िक यह जगह तुम-जैसी िसयो
के रहने लायक नहीं है ।
सहसा दािहनी तरफ से एक अंगेज घोडा दौडाता आ पहुंचा और मंगर
से बोला- िेल जमादार, ये दोनो औरते हमारी कोठी मे रहे गा। हमारे कोठी मे
कोई औरत नहीं है ।
मंगर ने दोनो औरतो को अपने पीछे कर िलया और सामने िडा
होकर बोला--साहब, ये दोनो हमारे घर की औरते है ।

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साहब- ओ हो ! तुम झूठा आदमी। हमारे कोठी मे कोई औरत नहीं और तुम
दो ले जाएगा। ऐसा नहीं हो सकता। ( गौरा की ओर इशारा करके) इसको
हमारी कोठी पर पहुंचा दो।
मंगर ने िसर से पैर तक कांपते हुए कहा- ऐसा नहीं हो सकता।
मगर साहब आगे बढ गया था, उसके कान मे बात न पहुंची। उसने
हुकम दे िदया था और उसकी तामील करना जमादार का काम था।
शेष मागग िनििघगन समाप हुआ। आगे मजूरो के रहने के िमटठी के घर
थे। दारो पर सी-पुरष जहां-तहां बैठे हुए थे। सभी इन दोनो िसयो की ओर
घूरते थे और आपस मे इशारे करते हं सते थे। गौरा ने दे िा, उनमे छोटे -बडे
का िलहाज नहीं है , न िकसी के आंिो मे शमग है ।
एक भदै सले और ने हाथ पर िचलम पीते हुए अपनी पडोिसन से कहा-
चार िदन की चांदनी, िफर अंधेरी पाि !
दस
ू री अपनी चोटी गूंथती हुई बोली – कलोर है न।

मं
गर िदन-भर दार पर बैठा रहा, मानो कोई िकसान अपने मटर के िेत
की रििाली कर रहा हो। कोठरी मे दोनो िसयां बैठी अपने नसीबो को
रही थी। इतनी दे र मे दोनो को यहां की दशा का पिरचय कराया गया था।
दोनो भूिी-पयासी बैठी थीं। यहां का रं ग दे िकर भूि पयास सब भाग गई
थी।
रात के दस बजे होगे िक एक िसपाही ने आकर मंगर से कहा- चलो,
तुमहे जणट साहब बुला रहे है ।
मंगर ने बैठे-बैठे कहा – दे िो नबबी, तुम भी हमारे दे श के आदमी हो।
कोई मौका पडे , तो हमारी मदद करोगे न? जाकर साहब से कह दो, मंगर कहीं
गया है , बहुत होगा जुरमाना कर दे गे।
नबबी – न भैया, गुससे मे भरा बैठा है , िपये हुए है , कहीं मार चले, तो
बस, चमडा इतना मजबूत नहीं है ।
मंगर – अचछा तो जाकर कह दो, नहीं आता।
नबबी- मुझे कया, जाकर कह दंग
ू ा। पर तुमहारी िैिरयत नहीं है के
बंगले पर चला। यही िही साहब थे, िजनसे आज मंगर की भेट हुई थी।
मंगर जानता था िक साहब से िबगाड करके यहां एक कि भी िनिाह
ग नहीं

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हो सकता। जाकर साहब के सामने िडा हो गया। साहब ने दरू से ही
डांटा, िह औरत कहां है ? तुमने उसे अपने घर मे कयो रिा है ?
मंगर – हजूर, िह मेरी बयाहता औरत है ।
साहब – अचछा, िह दस
ू रा कौन है ?
मंगर – िह मेरी सगी बहन है हजूर !
साहब – हम कुछ नहीं जानता। तुमको लाना पडे गा। दो मे से कोई, दो
मे से कोई।
मंगर पैरो पर िगर पडा और रो-रोकर अपनी सारी राम कहानी सुना
गया। पर साहब जरा भी न पसीजे! अनत मे िह बोला – हुजूर, िह दस
ू री
औरतो की तरह नहीं है । अगर यहां आ भी गयी, तो पाि दे दे गी।
साहब ने हं सकर कहा – ओ ! जान दे ना इतना आसान नहीं है !
नबबी – मंगर अपनी दांि रोते कयो हो? तुम हमारे घर नहीं घुसते थे!
अब भी जब घात पाते हो, जा पहुंचते हो। अब कयो रोते हो?
एजेणट – ओ, यह बदमाश है । अभी जाकर लाओ, नहीं तो हम तुमको
हणटरो से पीटे गा।
मंगर – हुजरू िजतना चाहे पीट ले, मगर मुझसे यह काम करने को न
कहे , जो मै जीते –जी नहीं कर सकता !
एजेणट- हम एक सौ हणटर मारे गा।
मंगर – हुजरू एक हजार हणटर मार ले, लेिकन मेरे घर की औरतो से
न बोले।
एजेणट नशे मे चूर था। हणटर लेकर मंगर पर िपल पडा और लगा
सडासड जमाने। दस बाहर कोडे मंगर ने धैय ग के साथ सहे , िफर हाय-हाय
करने लगा। दे ह की िाल फट गई थी और मांस पर चाबुक पडता था, तो
बहुत जबत करने पर भी कणठ से आतग-धििन िनकल आती थी टौर अभी
एक सौ मे कुछ पनदह चाबुक पडे थे।
रात के दस बज गये थे। चारो ओर सननाटा छाया था और उस नीरि
अंधकार मे मंगर का करि-ििलाप िकसी पक की भांित आकाश मे मुंडला
रहा था। िक
ृ ो के समूह भी हतबुिद से िडे मौन रोन की मूितग बने हुए थे।
यह पाषािहदय लमपट, िििेक शूनय जमादार इस समय एक अपिरिचत सी
के सतीति की रका करने के िलए अपने पाि तक दे ने को तैयार था, केिल
इस नाते िक यह उसकी पती की संिगनी थी। िह समसत संसार की नजरो
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मे िगरना गंिारा कर सकता था, पर अपनी पती की भिक पर अिंड रािय
करना चाहता था। इसमे अिुमात की कमी भी उसके िलए असह थी। उस
अलौिकक भिक के सामने उसके जीिन का कया मूलय था?
बाहिी तो जमीन पर ही सो गयी थी, पर गौरा बैठी पित की बाट जोह रही
थी। अभी तक िह उससे कोई बात नहीं कर सकी थी। सात िषो की
ििपित–कथा कहने और सुनने के िलए बहुत समय की जररत थी और रात
के िसिा िह समय िफर कब िमल सकता था। उसे बाहिी पर कुछ कोध-सा
आ रहा था िक यह कयो मेरे गले का हार हुई? इसी के कारि तो िह घर मे
नहीं आ रहे है ।
यकायक िह िकसी का रोना सुनकर चौक पडी। भगिान ्, इतनी रात
गये कौन द :ु ि का मारा रो रहा है । अिशय कोई कहीं मर गया है । िह
उठकर दार पर आयी और यह अनुमान करके िक मंगर यहां बैठा हुआ है ,
बोली – िह कौन रो रहा है ! जरा दे िो तो।
लेिकन जब कोई जिाब न िमला, तो िह सियं कान लगाकर सुनने
लगी। सहसा उसका कलेजा धक् से हो गया। तो यह उनहीं की आिाज है ।
अब आिाज साफ सुनायी दे रही थी। मंगर की आिाज थी। िह दार के
बाहर िनकल आयी। उसके सामने एक गोली के अमपे पर एजेट का बंगला
था। उसी तरफ से आिाज आ रही थी। कोई उनहे मार रहा है । आदमी मार
पडने पर ही इस तरह रोता है । मालूम होता है , िही साहब उनहे मार रहा
है । िह िहां िडी न रह सकी, पूरी शिक से उस बंगले की ओर दौडी, रासता
साफ था। एक कि मे िह फाटक पर पहुंच गयी। फाटक बंद था। उसने जोर
से फाटक पर धकका िदया, लेिकन िह फाटक न िुला और कई बार जोर-
जोर से पुकारने पर भी कोई बाहर न िनकला, तो िह फाटक के जंगलो पर
पैर रिकर भीतर कूद पडी और उस पार जाते हीं उसने एक रोमांचकारी
दशय दे िा। मंगर नंगे बदन बरामदे मे िडा था और एक अंगेज उसे
हणटरो से मार रहा था। गौरा की आंिो के सामने अंधेरा छा गया। िह एक
छलांग मे साहब के सामने जाकर िडी हो गई और मंगर को अपने अकय-
पेम-सबल हाथो से ढांककर बोली –सरकार, दया करो, इनके बदले मुझे
िजतना मार लो, पर इनको छोड दो।
एजेट ने हाथ रोक िलया और उनमत की भांित गौरा की ओर कई
कदम आकर बोला- हम इसको छोड दे , तो तुम मेरे पास रहे गा।
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मंगर के नथने फडकने लगे। यह पामर, नीच, अंगेज मेरी पती से इस
तरह की बाते कर रहा है । अब तक िह िजस अमूलय रत की रका के िलए
इतनी यातनांए सह रहा था, िही िसतु साहब के हाथ मे चली जा रही है ,
यह असह था। उसने चाहा िक लपककर साहब की गदग न

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