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<एक लघु कथा का अंत>

" डा. िवदा कया बेिमसाल रचना िलखी है आपने ! सच पूिछए तो मैने आजतक ऐसी संवेदनायुकत किवता नही सुनी", "अरे शुकला जी आप
सुनेगे कैसे? ऐसी रचनाएँ तो सालो मे, हजारो रचनाओं मे से एक िनकल के आती है. मेरी तो आँख भर आई" "ये ऐसी वैसी नही बिलक
आपको सुभदा कुमारी चौहान और महादेवी वमा जी की शेणी मे पहुँचाने वाली कृित है िवदा जी. है की नही भटनागर साब?"
एक के बाद एक लेखन जगत के मूधरनय िवदानो के मुखारिबंद से िनकले ये शबद जैसे-जैसे डा.िवदा वाषणेय के कानो मे पड़ रहे थे वैसे
वैसे उनके हदय की वेदना बढती जा रही थी. लगता था मानो कोई िपघला हुआ शीशा कानो मे डाल रहा हो. अपनी तारीफो के बंधते पुलो
को पीछे छोड़ उस किव-गोषी की अधयका िवदा अतीत के गिलयारो मे वापस लौटती दो वषर पूवर उसी सथान पर आयोिजत एक अनय
किव-गोषी मे पहुँच जाती है, जब वह िसफर िवदा थी बेिसक िशका अिधकारी डा.िवदा नही. हा अलबता एक रसायन िवजान की शोधाथी
जरर थी.
शायद इतने ही लोग जमा थे उस गोषी मे भी, सब वही चेहरे, वही मौसम, वही माहौल. सभी तथाकिथत किव एक के बाद एक करके
अपनी-अपनी नवीनतम सवरिचत किवता, गजल, गीत आिद सुना रहे थे. अिधकाश लेखिनया शहर के मशहरू डॉकटर, पोफेसर, वकील,
इंजीिनयर और िपंिसपल आिद की थी. देखने लायक या ये कहे की हँसने लायक बात ये थी की हर कलम की कृित को किवता के
अनुरप न िमलकर रचनाकार के ओहदे के अनुरप दाद या सराहना िमल रही थी. इका दुका ऐसे भी थे जो औरो से बेहतर िलखते तो थे
लेिकन पदिवहीन या सममानजनक पेशे से न जुड़े होने की वजह से आयाराम-गयाराम की तरह अनदेखे ही रहते. गोषी पगित पे थी,
समीकाओं के बीच-बीच मे ठहाके सुनाई पड़ते तो कभी िबसकुट की कुरकुराहट या चाय की चुिसकयो की आवाजे. शायद उम मे सबसे
छोटी होने के कारण िवदा को अपनी बारी आने तक लमबा इनतेजार करना पड़ा. सबसे आिखर मे लेिकन अधयक महोदय, जो िक एक
पशासिनक अिधकारी थे, से पहले िवदा को कावयपाठ का अवसर अहसान िक तरह िदया गया. 'पुरषपधान समाज मे एक नारी का
कावयपाठ वो भी एक २२-२३ साल की अबोध लड़की का, इसका हमसे कया मुकाबला?' कई बुिदजीिवयो की तयोिरया खामोशी से ये
सवाल कर रही थी.
वैसे तो िवदा बचपन से ही किवता, कहािनया, वयंगय आिद िलखती आ रही थी लेिकन उसे यही एक दुःख था की कई बार गोिषयो मे
कावयपाठ करके भी वह उन लोगो के बीच कोई िवशेष सथान नही अिजरत कर पाई थी. िफर भी 'बीती को िबसािरये' सोच िवदा ने एक
ऐसी किवता पढनी पारंभ की िजसको सुनकर उसके दोसतो और सहपािठयो ने उसे पलको पे िबठा िलया था और उस किवता ने सभी के
िदलो और होठो पे कबजा कर िलया था. िफर भी देखना बाकी था की उस कृित को िवदान सािहतयकारो और आलोचको की पशंसा का
ठपपा िमलता है या नही.
तेजी से धड़कते िदल को काबू मे करते हुए, अपने सुमधुर कनठ से आधी किवता सुना चुकने के बाद िवदा ने अचानक महसूस िकया की
'ये कया किवता की जान समझी जाने वाली अितसंवेदनशील पंिकतयो पे भी ना आह, ना वाह और ना ही कोई पितिकया!' िफर भी हौसला
बुलंद रखते हुए उसने िबना सुर-लय-ताल िबगड़े किवता को समािपत तक पहुँचाया. परनतु तब भी ना ताली, ना तारीफ, ना सराहना और
ना ही सलाह, कया ऐसी संवेदनाशील रचना भी िकसी का धयान ना आकृष कर सकी? तभी अधयक जी ने बोला "अभी सुधार की बहुत
आवशयकता है, पयास करती रहो." मायूस िवदा को लगा की इसबार भी उससे चूक हुई है. अपने िवचिलत मन को समहालते हुए वो
अधयक महोदय की किवता सुनने लगी. एक ऐसी किवता िजसके ना सर का पता ना पैर का, ना भावः का और ना ही अथर का, या यूं कहे
की इससे बेहतर तो दजा पाच का छात िलख ले. लेिकन अचमभा ये की ऐसी कोई पंिकत नही िजसपे तारीफ ना हुई हो, ऐसा कोई मुख
नही िजसने तारीफ ना की हो और तो और समापत होने पे तािलयो की गड़गडाहट थामे ना थमती.
सािहतयजगत की उस सचची आराधक का आहत मन पूछ बैठा 'कया यहा भी राजनीित? कया यहा भी सरसवती की हार? ऐसे ही
तथाकिथत सािहितयक मठाधीशो के कारण हर रोज ना जाने िकतने योगय उदीयमान रचनाकारो को सािहितयक आतमहतया करनी पड़ती
होगी और वहीँ िविभन पदो को सुशोिभत करने वालो की नजरंदाज करने योगय रचनाएँ भी पुरसकृत होती है.' उस िदन िवदा ने ठान िलया
की अब वह भी सममानजनक पद हािसल करने के बाद ही उस गोषी मे वापस आयेगी.
वापस वतरमान मे लौट चुकी डा. िवदा के चेहरे पर खुशी नही दुःख था की िजस किवता को दो वषर पूवर धयान देने योगय भी नही समझा
गया आज वही किवता उसके पद के साथ अितिविशष हो चुकी है. अंत मे सारे घटनाकम को सबको समरण करने के बाद ऐसे छद
सािहतयजगत को दूर से ही पणाम कर िवदा ने उसमे पुनः पवेश ना करने की घोषणा कर दी. अब उसे रोकता भी कौन, सभी किव व
आलोचकगण तो सचचाई के आईने मे खुद को नंगा पाकर जमीन फटने का इनतेजार कर रहे थे.
दीपक 'मशाल'
1- ~गजल~
कोई इक खूबसूरत, गुनगुनाता गीत बन जाऊँ,
मेरी िकसमत कहा ऐसी, िक तेरा मीत बन जाऊँ.
तेरे न मुसकुराने से, यहा खामोश है महिफल,
मेरी वीरान है िफतरत, मै कैसे पीत बन जाऊँ.
तेरे आने से आती है, ईद मेरी औ दीवाली,
तेरी दीवाली का मै भी, कोई एक दीप बन जाऊँ.
लहू-ए-िजसम का इक-इक, कतरा तेरा है अब,
िसफर इतनी रजा दे दे, मै तुझपे जीत बन जाऊँ.
नाम मेरा भी शािमल हो, जो चचा इशक का आये,
जो सिदयो तक जहा माने , मै ऐसी रीत बन जाऊँ.
मुझसे देखे नही जाते, तेरे झुलसे हुए आँसू,
मेरी फिरयाद है मौला, मै मौसम शीत बन जाऊँ.
कहा जाये खफा होके, 'मशाल' तेरे आँगन से,
कोई ऐसी दवा दे दे, िक बस अतीत बन जाऊँ.
दीपक 'मशाल' ११.०४.०९

2- ~गजल~
कभी मै चल नही पाया, कभी वो रक नही पाए,
मेरे जो हमसफर थे, साथ वो रह नही पाए.
मेरे घर मे नही आई, िकतने सालो से दीवाली,
तू आ जाये तो आँगन मे, अँधेरा रह नही पाए.
लगाते है सभी तोहमत, मै तुझसे हार जाता हूँ,
मेरी हसती ही ऐसी है, िक कोई िटक नही पाए.
मै माझी हूँ मगर खुद न, कभी उस पार जा पाया,
मेरे अरमा ही लहरो पे, कभी भी बह नही पाए.
कमर टू टी नही मेरी, िकसी की जी-हुजूरी से,
बोझ बढता गया हर पल, पर काधे झुक नही पाए.
ना फरेब कह देना, िसला-ए-चाहत को 'मशाल',
सैलाबे-जुनूँ-ए-इशक, तुम ही सह नही पाए.
दीपक 'मशाल' ११.०४.०९

(3) मुझे अब जाग जाने दो


बहुत सोया रहा अब तक,
मुझे अब जाग जाने दो,
अरे खवाबो के शहजादो,
रौशनी रास आने दो.

बहुत सोया रहा अब तक,


झूठ के शािमयाने मे,
ओ सच के आसमा अब तो,
जरा सा पास आने दो.

मै रोया हूँ तेरे दुःख मे,


कलम भी आजमाया है,
िमटाने दो तेरे दुःख मा,
खडग मुझको उठाने दो.

बहुत खुद को समहाला था,


धैयर का बोलबाला था,
हावी हैवा हो गए अब,
कयामत मुझको ढाने दो.

पाप है बढ गया इतना,


मैली गंगा हो गयी,
लाने दो नया युग अब,
नयी गंगा बहाने दो.

न गम करना जरा भी तुम,


जो नरभकी मै हो जाऊं,
इन शैतानो के बेटो से,
भूख अपनी िमटाने दो.

जान जो कर गए अपरण,
मान तेरा बढाने मे,
नही वो आएंगे वापस,
नए कुछ नाम लाने दो.

तेरी सौगंध मुझको मा,


जो ना गौरव िदला पाऊं,
खड़ी होगी मौत दुलन,
गले उसको लगाने दो.
दीपक 'मशाल' ०८.०४.०९
4-~गजल~
नाम िलख िलख के तेरा िमटा देता हूँ,
खुद का चेहरा ही खुद से िछपा लेता हूँ.

देख ले न कोई तुझको इन आँखो मे,


इसिलए सबसे नजरे बचा लेता हँू.

बेवफा तुझको कहना मुनािसब नही,


कब अपनी वफा की सजा लेता हूँ..

कया मुकदर है कया है मेरे हाथ मे,


लेके खंजर लकीरे बना लेता हूँ.

पूछता है कोई जब तेरे बारे मे,


होके खामोश पलके िगरा लेता हूँ.
दीपक चौरिसया 'मशाल'

5-~गजल~
कभी वो सूरज से िमलाता था नजर ,
अब नजर खुद से िमलाई नही जाती.

बात करता था कभी गरज से बादल की,


अब सदा खुद की ही सुनायी नही जाती..

ऐसे भीगी है पलक अबके सावन मे,


लाख तूफा से वो सुखाई नही जाती.

तेरे आँगन मे िबछा के आया था जो,


वो िकरच आँख से उठाई नही जाती.

तेरी यादो को संजोने की जगह िमलती नही,


नापाक िदल मे ये खुशबू बसाई नही जाती.

चाद आये कभी जो तेरी गली तो कह देना,


दोसती चादनी से अब िनभाई नही जाती.

इस कदर तुम से खफा हो गया वो 'मशाल',


की वजह-ए-खामोशी भी बताई नही जाती..

दीपक चौरिसया 'मशाल'

6- खूंखार हुए कौरव के शर


खूंखार हुए कौरव के शर,
गाणडीव तेरा कयो हलका है?
अजुरन रण रसता देख रहा,
िवशाम नही इक पल का है.

तमतमा उठो सूरज से तुम,


खलबली खलो मे कर दो तुम,
िवधवंस रचा िजसने जग का,
उसको आतंक से भर दो तुम.
ये दुिनया िजससे काप रही,
उसको आज कंपा दो तुम.
िक हदे हदो की खतम हुई,
तुम देखो धैयर भी छलका है. खूंखार हुए कौरव के शर, गाणडीव तेरा कयो.....

कण भर भी जो तुम ठहर गए,


ये धरा मृतयु न पा जाये,
बारद यहा शैतानो का,
मानव जीवन न खा जाये.
अमृत देवो के िहससे का,
दैतयराज न पा जाये,
पीड़ा हदय की असाधय हुई,
आँसू हर नेत से ढुलका है. खूंखार हुए कौरव के शर, गाणडीव तेरा कयो.....

कयो खड़े अभी तक ठगे हुए,


अब कानहा कोई न आयेगा,
थामो अशो की बागडोर,
ना धवजरकक ही आयेगा.
तुम सवयं पूणर हो गए पाथर,
अब गीता न कोई सुनाएगा,
जो जवालामुख ये दहक उठे तुम,
सविणरम भारत िफर कल का है. खूंखार हुए कौरव के शर, गाणडीव तेरा कयो.....
दीपक 'मशाल'

7- पभु कर भी दो िवधवंश जहा.


हय लजा गई अब लाज यहा
है हर मसतक शमरसार यहा,
बेटी को खतरा बाबुल से
पभु कर भी दो िवधवंश जहा.
जो नकर यही िदखलाना था
अचछा था कोख मे मर जाना,
सब देह मे िसमट गए बंधन
बस िरशता नर-नारी ही जाना.
जो घात करे अपने खूँ पे
उसको दुगा का सममान कहा?
पभु कर भी दो.......
हम भूल गए गौहरबानो?
या कथा िशवा की याद नही
कया गोरा-बादल की तलवारे
मयादा कुल की याद नही?
फटती है छाती गंगा की
रोती है भरत की रह यहा.
पभु कर भी दो.............
िशव-रप पे लगे कलंको को
कुचल-कुचल के नाश करो,
नापाक हुई इस धरती को
खल-रकत से िफर से साफ करो.
जो हुआ िवश-गुर अपराधी,
आएंगे िफर ना राम यहा.
पभु कर भी दो..............
दीपक 'मशाल'

8- ~sher~
उनका अजीज बन के रहा, जब तक हवाओं सा था मै,
सबको नशतर सा चुभा, जो तूफा के मािफक हो गया.
मुिशकले मुिशकल न थी जब तक शराबी मै रहा,
नीलाम मै उस िदन हुआ िजस िदन से आिशक हो गया.

9-
िकतना यहा िकससे िमला ये जानना जायज नही,
ये जानना कुछ कम नही की हर तजुबे से िमला.
उनसे जब भी मै िमला तो एक अजूबे की तरह,
दोसत बन- बन के कभी, कभी रकीब बन के िमला.

10-
तुमको खोने का वो डर था, िजससे मै डरता रहा,
मेरे डर को देख तुमने कायर ही बस समझा मुझे.
जब भी िदल के हाल को मैने लफजो मे कहा,
तुमने समझा तो मगर शायर ही बस समझा मुझे.

11-
अब भी िदल मे है तू, नजरो से भले दूर हुआ,
वक्त पे खामोश रहा, ये मुझसे एक कसूर हुआ.
कुछ असर-ए-हालत था, कुछ खताएं मेरी,
जो मेरे मरहम से जखम तेरा नासूर हुआ.
तेरी उलफत के कािबल मै कभी था ही नही,
न जाने िदल मेरा कयो, िफर ये मजबूर हुआ.
दीपक 'मशाल'
12-
कैसे यकीन िदलाऊँ तुमहे
कैसे?
हा कैसे यकीन िदलाऊँ तुमहे
तुम ही पयार हो मेरा,
हर साल, हर महीने
हर िदन, हर पहर
हर पल,
तुम ही इनतेजार हो मेरा.
तुमही तो हो िजसके िलए,
मै सासो को समहाले हुए हूँ,
अधखुली आँखो मे कुछ,
रंगीन सपने पाले
तुमही तो हो,
जो जमीन से बाधे है मुझे,
और उस जमी के सर का,
तुमही िवसतार हो मेरा.
कैसे?
हा कैस.े .........हो मेरा.
तुमहारे ही सपनो के ितनको से,
मैने नीव रखी है
अपने घोसले की,
और तुमहारी आँखो की चमक से
िमलती है
खुराक हौसले की.
वना ठूँठ पे,
हा पुराने ठूँठ पे
नए घोसले नही बनते,
बनकर के होठ मेरे
तुमही तो इजहार हो मेरा.
कैसे?
हा कैस.े .....हो मेरा.
दीपक 'मशाल'

13- ~गजल~
न जाने टू टते िकतने इिखतयार देखे है,
हरेक चेहरे मे िछपे चेहरे हजार देखे है.
तू बेवफा िनकला तो कया, नजरे िमला के बात कर,
इन िनगाहो ने तुझसे भी बड़े गुनाहगार देखे है.
शुक है की तुमने खंजर िदखाया तो सही,
वना गुलदसतो मे िछपे, खंजर के वार देखे है.
अबकी इनसा से दुशमनी है कर बैठे 'मशाल',
िक आँखो मे अपने काितल के आंसू भी चार देखे है.
दीपक 'मशाल'

14- ~गजल~
िजनदगी तू न खुद को समझा सकी,
मौत के डर ने तुझको समझा िदया,
िजसको धेला समझ के था फेका कभी,
जौहरी ने उसे हीरा बतला िदया.
यूं न किहये िक ठोकर से कया फायदा,
हमको ठोकरो ने समहलना िसखला िदया.
ना खुदा सारी दुिनया मे आया नजर,
बंद आँखो ने िदल ने वो िदखला िदया.
मुझसे पूँछा िकसी ने इबादत का दर,
मैने रासता तेरे घर का िदखला िदया.
दीपक 'मशाल'

15- मुझे िफर भी तेरी जररत है.


यहा सब बहुत खूबसूरत है
पर मा,
मुझे िफर भी तेरी जररत है.
आसमान नीला है नीले शयाम की तरह
और बहुत सारी है हिरयाली.
यहा तो पते भी पतझड़ के रंग-िबरंगे होते है,
और िमटटी भी इनके आँगन की
सुनदरता की मूरत है.
पर मा,
मुझे िफर भी तेरी जररत है.

सुनदर होता है उिजयारा,


दर सुनदर दीवारे भी,
पयारी है िचिडयो की बोली,
बचचे है फूलो के जैसे
और फूल इनदधनुष जैसे.
घर हो या बाजार हो सबकी
चमकीली सी सूरत है.
पर मा,
मुझे िफर भी तेरी जररत है....
दीपक 'मशाल'

10 MARCH 2009
16-ििि िििि िि ििि िििि
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दीपक 'मशाल'

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िििि िििि ििििििि िि िििि िि िििि िि..
दीपक 'मशाल'

All by Dipak Chaurasiya ‘Mashal’


18-बेरोजगार
मै इक बेरोजगार हँू,
मै इक बेरोजगार हूँ.
नजर मे दुिनया के बेकार हूँ,
पर बेकारी के आलम से जनमे
ददर का तजुबेकार हूँ.
मै इक बेरोजगार हूँ.

सब मागते है अनुभव,
पर
अनुभव के िलए
कोई नौकरी नही देता.
इसीिलए मै बेगार हँू,
मै इक बेरोजगार हूँ.

खोखले वादो के
खखोल से उपजी
देश की
िशका-पणाली की
एक हार हूँ.
मै इक बेरोजगार हूँ.

झूठा मकार हूँ,


बरसात मे
टू टी हुई छत को तकते,
िकसी
बाप का इनतेजार हूँ.
मै इक बेरोजगार हूँ.

खामोश है जो,
कुछ कह नही सकती
िजगर के टुकड़े से,
ददर मे तड़पती उस
बीमार मा का गुनहगार हूँ.
मै इक बेरोजगार हूँ.

जो
मुझमे तलाश बैठी है
सपने कई अपने ,
ढलती उम ढोती हुई
उस नादान का मै पयार हूँ.
मै इक बेरोजगार हूँ.

दूर के
और करीब के,
समबिनधयो की
नजरो मे,
मै पढािलखा गंवार हँू.
मै इक बेरोजगार हँू.

जो चहकते थे
संग खुिशयो मे,
अब
उन यारो की
उपेका का िशकार हूँ.
मै इक बेरोजगार हूँ.

देखता नही मै
आइना,
कैसे सामना
करँ खुद का?
मै खुद का कसूरवार हूँ.
मै इक बेरोजगार हूँ......
दीपक 'मशाल'

19- मोक
पिरकमा
करते थे पश,
अँधेरे मन के
कोटर के,
उतर कोई िनकले साथरक,
िजसको
हिथया के पापत करँ,
िवचिलत हदय
संतृपत करँ।
िकस राह को
मै पा जाऊँ?
िकसपे
कर िवशास चला जाऊँ?
िकसको भरँ,
अंक मे मै,
जीवन-दशरन या जग-पीड़ा?
करँ नर-सेवा या
नारायण?
बनूँ िकसका कतरवय-परायण?
चलूँ पथ
मोक पािपत का मै,
या पीड़ा दीनो की हरँ हरी?
गुँथा हुआ मै
गंिथ मे,
था अंतमरन टटोल रहा बैठा।
सहसा िघर आये मेघा
आबनूस रंग चढे हुए,
गरजे,
बरसे,
कौधी िबजली,
मुझे वज इनद का याद हुआ,
तयाग दधीिच का सार हुआ।
तब जान हुआ जो
करनी का,
जीते जी मोक पापत हुआ।
दीपक 'मशाल' 24.05.09

20- ििििि ििििििि िििि


मुझसे पूँछेगा खुदा,
कया िकया तुमने
जमी पे जाके,
आदमी का तन पाके।
मै तुझमे ढू ंढता रहा
जगह अपनी,
और तू खुश था,
मुझे पतथरो मे ठहरा के।
अपनी िससिकयो के शोरो मे,
आह औरो की
ना सुन पाए,
सपने बुने तो सतरंगी मगर,
अपने िलए ही बुन पाए।
जो िलया सबसे
तुमहे याद नही
और देके थोड़े का िहसाब,
भूल नही पाए।
कया करँ मै
बना के वो इनसा,
काम इनसा के जो,
कर नही पाए।
मैने चाहा था,
तुम िलखो नसीब दुिनया का,
तुम रहे बैठे,
दोष अपने नसीब को लगा के।
याद मुझको तो िकया,
िकया मगर घबरा के।
बाट के मुझको कई नामो मे,
लौट आये हो जहर फैला के।
िििि 'िििि'

21- Nazm

chitrankan- Dipak ‘Mashal’


बेजार मै रोती रही, वो बे-इनतेहा हँसता रहा.
वक्त का हर एक कदम, राहे जुलम पर बढता रहा.
ये सोच के िक आँच से पयार की िपघलेगा कभी,
मै मोमिदल कहती रही, वो पतथर बना ठगता रहा.
उसको खबर नही थी िक मै बेखबर नही,
मै अमृत समझ पीती रही, वो जब भी जहर देता रहा.
मै बारहा कहती रही, ए सब मेरे सब कर,
वो बारहा इस सब िक, हद नयी गढता रहा.
था कहा आसा यूँ रखना, कायम वजूद परदेस मे,
पानी मुझे गंगा का लेिकन, िहममत बहुत देता रहा.
बनध िकतने ढंग के, लगवा िदए उसने मगर,
'मशाल' तेरा पेम मुझको, हौसला देता रहा.
दीपक 'मशाल'
22-Nazm-

chitrankan- Dipak ‘Mashal’


िक मै तो तब भी पागल था,
िक समझा नही था जब
हमारे िदल िक हलचल को,
िक जब मै पढ न पाया था
िनगाहो की िकताबो मे,
हसरत-ए-मोहबबत को,
तब तुमने ही आके तो
पागल मुझे नवाजा था.

िक मै तो तब भी पागल था
िक जब था इशक को समझा,
जमाने को भुलाया िफर
मै खुद को भी भुला बैठा,
सभी दुिनया ने िमल के तब
दीवाना पागल कह डाला.

िक मै तो अब भी पागल हूँ,
तेरा दामन रहा थामे
मै पूरे जोर से कसके,
मगर खोना पड़ा तुमको
बुरे हालात मे फँस के,
कया अब तो खुद को ही मैने
पागल सच मे बना डाला.
अब इक बात का इतना
जरा इनसाफ कर जाओ,
िक पागल कब मै जयादा था?
िसफर इतना बता जाओ.
दीपक 'मशाल' 9.8.09

---------Important----------
chitrankan- Dipak ‘Mashal’
लहू पहाड़ के िदल का, नदी मे शािमल है,
तुमहारा ददर हमारी खुशी मे शािमल है.
तुम अपना ददर अलग से िदखा न पाओगे,
तेरा जो ददर है वो मुझी मे शािमल है.

गुजरे लमहो को मै अकसर ढू ँढती िमल जाऊँगी,


िजसम से भी मै तुमहे अकसर जुदा िमल जाऊँगी.
दूर िकतनी भी रहूँ, खोलोगे जब भी आँख तुम,
मै िसरहाने पर तुमहारे जागती िमल जाऊँगी.
घर के बाहर जब कदम रखोगे अपना एक भी,
बनके मै तुमको तुमहारा रासता िमल जाऊँगी.
मुझपे मौसम कोई भी गुजरे जरा भी डर नही,
खुशक टहनी पर भी तुमको मै हरी िमल जाऊँगी.
तुम खयालो मे सही आवाज देके देखना,
घर के बाहर मै तुमहे आती हुई िमल जाऊँगी.
गर तसबबुर भी मेरे इक शेर का तुमने िकया,
सुबह घर िक दीवारो पर तुमहे िलखी हुई िमल जाऊँगी.
'बीती खुशी'(ye dono rachnayen mere kisi apne ki hain lekin meri
swayam ki likhi nahin)

23- मन चंचल गगन पखेर है


मन चंचल गगन पखेर है,
मै िकससे बाधता िकसको.
मै कयो इतना अधूरा हँू,
की िकससे चाह है मुझको.
वो बस हालात ऐसे थे,
िक बुरा मै बन नही पाया.
मै फिरशता हूँ नही पगली,
कोई समझाए तो इसको.
जमाने की हवा है ये,
ये रहानी नही साया.
मगर ताबीज ला दो तुम,
तसलली गर िमले तुमको.
उसे लमहे डराते है,
कल की गम की रातो के,
है सूरज हर घड़ी देता,
खुशी की रौशनी िजसको.
दीपक 'मशाल'

24-
मीलो साथ चले मगर
वो कुछ भी कह न पाए थे,
कहने को रोज िमलते थे
मगर हम िमल न पाए थे.
खतम सफर होने को था,
हमसफर खोने को था,
होठ खामोश थे तब भी,
अशक भी बह न पाए थे.
अब अतीत मे जाके
खोया मीत तकता हँू,
अँधेरे मे साये से
आस िमलन की रखता हँू.
मै घट भरा हुआ जल से
हर पल थोड़ा िरसता हँू,
कभी जुड़ा नही है जो
मै एक ऐसा िरशता हँू.
मै एक ऐसा िरशता हूँ..
दीपक 'मशाल'

25-
धुँआ-धुँआ सा नजर आया सब,
उसने मुझको था ठुकराया जब.
इतना बेबस के जैसे खूँ ही नही,
िगरे बदन को जमी से उठाया जब.
सब अधूरा सा नजर आया था,
चाद कोरा सा खवाब लाया जब.
रंग फूलो का हो गया काफुर,
िकतना फीका सा शफक छाया तब.
दीपक 'मशाल'

26-
लो यहा इक बार िफर, बादल कोई बरसा नही,
तपती जमी का िदल यहा, इसबार भी हरषा नही.
उड़ते हुए बादल के टुकड़े, से मैने पूछा यही,
कया हुआ कयो िफर से तू, इस हाल पे िपघला नही.
तेरी वजह से िफर कई, फासी गले लगायेगे,
अनाथ बचचे भूख से, िफर पेट को दबायेगे.
मा िजसे कहते है वो, खेत बेचे जायेगे,
मजबूिरयो से तन कई, बाजार मे आ जायेगे.
िफर रोिटयो के चोर िकतने , भूखे पीटे जायेगे,
िफर कई मासूम बचपन, पल मे जवा हो जायेगे.
दीपक 'मशाल'

27-

chitrankan- Dipak ‘Mashal’


कया खूब पायी थी उसने अदा,
खवाब तोड़े कई आंिधओं की तरह.
कतरे गए कई पिरंदो के पर,
सबको खेला था वो बािजयो की तरह.
हौसला नाम से रब के देता रहा,
औ फैसला कर गया कािजओं की तरह.
खास बनने के खवाब खूब बेचे मगर,
करके छोडा हमे हािशओं की तरह.
सािहलो को िमलाने की जुंिबश तो थी,
खुद का सािहल न था मािझओं की तरह.
िजनको िदल से लगा 'मशाल' शायर बना,
है अब लगाता उनहे कािफओं की तरह.
दीपक 'मशाल'

28-
ऐ मौत!
मै दरवाजे पे खडा हूँ,
तुम आओ तो सही,
मै भागूंगा नही.
कसम है मुझे उसकी,
िजसे
मै सबसे जयादा पयार करता हूँ,
और उसकी भी
जो मुझे सबसे जयादा पयार करता है.
या शायद दोनो.....
एक ही हो.
एक ऐसा शखस
या ऐसे दो शखस......
जो आपस मे गडडमगडड है..
मगर जो भी हो
है तो पयार से जुड़ा हुआ ही न.
वैसे भी...
गिणत के िहसाब से
अ बराबर ब
और ब बराबर स
तो अ बराबर स ही हुआ न....
जो भी हो यार
मगर सच मे
उन दोनो की कसम
उन दोनो की कसम, मै भागूँगा नही.
कुछ लोग कहते है िक-
'िजंदगी से बड़ी सजा ही नही'
अरे
तो तुम तो इनाम हुई न
और भला इनाम से
कयो कर मै भागूंगा?
और िफर वो इनाम जो.....
आिखरी हो
सबसे बड़ा हो,
िजसके बाद िकसी इनाम की जररत ही न रहे..
उससे भला मै कयो भागूंगा?
इसिलए
ऐ मौत....
तुमहे
वासता है खुद का,
खुदा का
आओ तो सही
मै भागूंगा नही.....
दीपक 'मशाल'
29-
िदल की टीसो को, िदल मे दबाये रखना,
लोग आएंगे जब, जखमो को िछपाए रखना.
इक तबससुम तो रखना होठो पे जमाने के िलए,
वक्त जररत के िलए, आंसू भी कुछ बचाए रखना.

छला गया, मै छला गया


अपनो के हाथो छला गया,
जो फूलो का न िमला मुझे,
पथ मंिजल तक चलने को,
अंगारो की इक राह चुनी,
िजस पर मै चलता चला गया.

यूँ तो इक पयासा पनघट का


और तनहा कोई जमघट का,
िमलना तो मुिशकल होता है,
पर िकसमत ऐसी िमली मुझे,
िक शीतल जल भी जला गया.
छला गया मै छला गया.

रात पूस और चंदर पूनम,


िफर भी मेरा भाग अहो,
उसका बफीला ताप मेरे,
कोमल अरमानो का इक इक
जमा हुआ िहम गला गया.
छला गया मै छला गया.

हाल-ए-िदल िजस िदलवर से,


हम सुनते और सुनाते थे,
संग राग वफा के गाते थे,
हय िदल मे रहकर वो िदल को,
कुछ जखम िदला के चला गया.
छला गया मै छला गया.
दीपक 'मशाल'
30 -गजल-
ये पिरंदा इन दरखतो से, पूछता रहता है कया,
ये आसमा की सरहदो मे, ढू ढ ं ता रहता है कया.
जो कभी खोया नही, उसको तलाश कया करना,
इन दरो को पतथरो को, चूमता रहता है कया.
खोलकर तू देख आँखे, ले रंग खुशी के तू िखला,
गम को मुकदर जान के, यूँ ऊंघता रहता है कया.
कोई मंतर नही ऐसा, जो आदिमयत िजला सके,
कान मे इस मुदे के, तू फूंकता रहता है कया.
आएँगी कहा वो खुशबुएँ , अब इनमे 'मशाल',
दरारो मे दरके िरशतो की, सूंघता रहता है कया.
दीपक 'मशाल'
Copyright Dipak Chaurasiya ‘Mashal’
my recent snap my signature

Mashal’s creation (rangoli in 2008)

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