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अनुकर्म

शर्ीमद् भागवत महापुराणांतगर्त


शर्ी नारायण स्तुित
िनवेदन
'शर्ीमद् भागवत' के नवम स्कन्ध मंे भगवान स्वयं कहते हंै-
साध्वो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम्।
मदन्यत् ते न जानिन्त नाहं तेभ्यो मनागिप।।
अथार्त् मेरे पर्ेमी भक्त तो मेरा हृदय हंै और उन पर्ेमी भक्तों का हृदय स्वयं मंै हँू। वे मेरे अितिरक्त और कुछ नहीं
जानते तथा मंै उनके अितिरक्त और कुछ भी नहीं जानता।
पुराणिशरोमिण 'शर्ीमद् भागवत' बर्ह्माजी, देवताओं, शुकदेवजी, िशवजी, सनकािद मुिनयों, देविषर् नारद, वृतर्ासुर,
दैत्यराज बिल, भीष्म िपतामह, माता कुन्ती, भक्त पर्ह्लाद, धर्ुव, अकर्ूर आिद कई पर्भु पर्ेमी भक्तों द्वारा शर्ी नारायण
भगवान की की गयी स्तुितयों का महान भण्डार है। पर्स्तुत पुस्तक धर्ुव, पर्ह्लाद, अकर्ूर आिद कुछ उत्तम परम
भागवतों की स्तुितयों का संकलन है, िजसके शर्वण, पठन एवं मनन से आप-हम हमारा हृदय पावन करंे, िवषय रस
का नहीं अिपतु भगवद रस का आस्वादन करे, भगवान के िदव्य गुणों को अपने जीवन मंे उतार कर अपना जीवन
उन्नत बनायंे। भगवान की अनुपम मिहमा और परम अनुगर्ह का ध्यान करके इन भक्तों को जो आश्वासन िमला है,
सच्चा माधुयर् एवं सच्ची शांित िमली है, जीवन का सच्चा मागर् िमला है, वह आपको भी िमले इसी सत्पर्ाथर्ना के
साथ इस पुस्तक को करकमलों मंे पर्दान करते हुए सिमित आनंद का अनुभव करती है।
हे साधक बंधुओ ! इस पर्काशन के िवषय मंे आपसे पर्ितिकर्याएँ स्वीकायर् हंै।
शर्ी योग वेदान्त सेवा सिमित,
अमदावाद आशर्म।

अनुकर्म
व्यासजी द्वारा मंगल स्तुित।
कुन्ती द्वारा स्तुित।
शुकदेव जी द्वारा स्तुित।
बर्ह्माजी द्वारा स्तुित।
देवताओं द्वारा स्तुित।
धर्ुव द्वारा स्तुित।
महाराज पृथु द्वारा स्तुित।
रूदर् द्वारा स्तुित।
पर्ह्लाद द्वारा स्तुित।
गजेन्दर् द्वारा स्तुित।
अकर्ूरजी द्वारा स्तुित।
नारदजी द्वारा स्तुित।
दक्ष पर्जापित द्वारा स्तुित।
देवताओं द्वारा गभर्-स्तुित।
वेदों द्वारा स्तुित।
चतुःश्लोकी भागवत।
पर्ाथर्ना का पर्भाव।

व्यासजी द्वारा मंगल स्तुित


भगवान सवर्ज्ञ, सवर्शिक्तमान एवं सिच्चदानंदस्वरूप हंै। एकमातर् वे ही समस्त पर्ािणयों के हृदय मंे िवराजमान आत्मा
हंै। उनकी लीला अमोघ है। उनकी शिक्त और पराकर्म अनन्न है। महिषर् व्यासजी ने 'शर्ीमद् भागवत' के माहात्म्य
तथा पर्थम स्कंध के पर्थम अध्याय के पर्ारम्भ मंे मंगलाचरण के रुप मंे भगवान शर्ीकृष्ण की स्तुित इस पर्कार से
की हैः
सिच्चदानंदरूपाय िवश्वोत्पत्यािदहेतवे।
तापतर्यिवनाशाय शर्ीकृष्णाय वयं नुमः।।
'सिच्चदानंद भगवान शर्ीकृष्ण को हम नमस्कार करते हंै, जो जगत की उत्पित्त, िस्थित एवं पर्लय के हेतु तथा
आध्याित्मक, आिधदैिवक और आिधभौितक – इन तीनों पर्कार के तापों का नाश करने वाले हंै।'
(शर्ीमद् भागवत मा. 1.1)
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयािदतरतश्चाथर्ेष्विभज्ञः स्वराट्
तेने बर्ह्म हृदा य आिदकवये मुह्यिन्त यत्सूरयः।
तेजोवािरमृदां यथा िविनमयो यतर् ितर्सगोर्ऽमृषा
धाम्ना स्वेन सदा िनरस्तकुहकं सत्यं परं धीमिह।।
'िजससे इस जगत का सजर्न, पोषण एवं िवसजर्न होता है क्योंिक वह सभी सत् रूप पदाथोर्ं मंे अनुगत है और
असत् पदाथोर्ं से पृथक है; जड़ नहीं, चेतन है; परतंतर् नहीं, स्वयं पर्काश है; जो बर्ह्मा अथवा िहरण्यगभर् नहीं, पर्त्युत
उन्हंे अपने संकल्प से ही िजसने उस वेदज्ञान का दान िकया है; िजसके सम्बन्ध मंे बड़े-बड़े िवद्वान भी मोिहत हो
जाते हंै; जैसे तेजोमय सूयर्रिश्मयों मंे जल का, जल मंे स्थल का और स्थल मंे जल का भर्म होता है, वैसे ही
िजसमंे यह ितर्गुणमयी जागर्त-स्वप्न-सुिषप्तरूपा सृिष्ट िमथ्या होने पर भी अिधष्ठान-सत्ता से सत्यवत् पर्तीत हो रही है,
उस अपनी स्वयं पर्काश ज्योित से सवर्दा और सवर्था माया और मायाकायर् से पूणर्तः मुक्त रहने वाले सत्यरूप
परमात्मा का हम ध्यान करते हंै।'
(शर्ीमद् भागवतः 1.1.1)
अनुकर्म
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कुन्ती द्वारा स्तुित


अश्वत्थामा ने पांडवों के वंश को नष्ट करने के िलए बर्ह्मास्तर् का पर्योग िकया था। उत्तरा उस अस्तर् को अपनी ओर
आता देख देवािधदेव, जगदीश्वर पर्भु शर्ीकृष्ण से पर्ाथर्ना करने लगी िक 'हे पर्भो ! आप सवर्शिक्तमान हंै। आप ही
िनज शिक्त माया से संसार की सृिष्ट, पालन एवं संहार करते हंै। स्वािमन् ! यह बाण मुझे भले ही जला डाले, परंतु
मेरे गभर् को नष्ट न करे – ऐसी कृपा कीिजये।' भक्तवत्सल भगवान शर्ीकृष्ण ने अपने भक्त की करूण पुकार सुन
पाण्डवों की वंश परम्परा चलाने के िलए उत्तरा के गभर् को अपनी माया के कवच से ढक िदया।
यद्यिप बर्ह्मास्तर् अमोघ है और उसके िनवारण का कोई उपाय भी नहीं है, िफर भी भगवान शर्ीकृष्ण के तेज के सामने
आकर वह शांत हो गया। इस पर्कार अिभमन्यु की पत्नी उत्तरा गे गभर् मंे परीिक्षत की रक्षा कर जब भगवान शर्ीकृष्ण
द्वािरका जाने लगेष तब पाण्डु पत्नी कुन्ती ने अपने पुतर्ों तथा दर्ौपदी के साथ भगवान शर्ी कृष्ण की बड़े मधुर शब्दों
मंे इस पर्कार स्तुित कीः
'हे पर्भो ! आप सभी जीवों के बाहर और भीतर एकरस िस्थत हंै, िफर भी इिन्दर्यों और वृित्तयों से देखे नहीं जाते
क्योंिक आप पर्कृित से परे आिदपुरुष परमेश्वर हंै। मंै आपको बारम्बार नमस्कार करती हँू। इिन्दर्यों से जो कुछ जाना
जाता है, उसकी तह मंे आप ही िवद्यमान रहते हंै और अपनी ही माया के पदर्े से अपने को ढके रहते हंै। मंै अबोध
नारी आप अिवनाशी पुरुषोत्तम को भला, कैसे जान सकती हँू? अनुकर्म

हे लीलाधर ! जैसे मूढ़ लोग दूसरा भेष धारण िकये हुए नट को पर्त्यक्ष देखकर भी नहीं पहचान सकते, वैसे ही आप
िदखते हुए भी नहीं िदखते। आप शुद्ध हृदय वाले, िवचारशील जीवन्मुक्त परमहंसो के हृदय मंे अपनी पर्ेममयी भिक्त
का सृजन करने के िलए अवतीणर् हुए हंै। िफर हम अल्पबुिद्ध िस्तर्याँ आपको कैसे पहचान सकती हंै? आप शर्ीकृष्ण,
वासुदेव, देवकीनन्दन, नन्दगोप लाडले लाल गोिवन्द को हमारा बारम्बार पर्णाम है।
िजनकी नािभ से बर्ह्मा का जन्मस्थान कमल पर्कट हुआ है, जो सुन्दर कमलों की माला धारण करते हंै, िजनके नेतर्
कमल के समान िवशाल और कोमल हंै, िजनके चरमकमलों मंे कमल का िचह्न है, ऐसे शर्ीकृष्ण को मेरा बार-बार
नमस्कार है। हृिषकेष ! जैसे आपने दुष्ट कंस के द्वारा कैद की हुई और िचरकाल से शोकगर्स्त देवकी रक्षा की थी,
वैसे ही आपने मेरी भी पुतर्ों के साथ बार-बार िवपित्तयों से रक्षा की है। आप ही हमारे स्वामी हंै। आप सवर्शिक्तमान
हंै। शर्ीकृष्ण ! कहाँ तक िगनाऊँ? िवष से, लाक्षागृह की भयानक आग से, िहिडम्ब आिद राक्षसों की दृिष्ट से, दुष्टों की
द्यूत-सभा से, वनवास की िवपित्तयों से और अनेक बार के युद्धों मंे अनेक महारिथयों के शस्तर्ास्तर्ों से और अभी-अभी
इस अश्वत्थामा के बर्ह्मास्तर् से भी आपने ही हमारी रक्षा की है।
िवपदः सन्तु न शश्वत्ततर् ततर् जगद् गुरो।
भवतो दशर्नं यत्स्यादपुनभर्वदशर्नम्।।
हे जगदगुरो ! हमारे जीवन मंे सवर्दा पग-पग पर िवपित्तयाँ आती रहंे, क्योंिक िवपित्तयों मंे ही िनिश्चत रूप से आपके
दशर्न हुआ करते हंै और आपके दशर्न हो जाने पर िफर जन्म-मृत्यु के चक्कर मंे नहीं आना पड़ता। अनुकर्म
(शर्ीमद् भागवतः 1.8.25)
ऊँचे कुल मंे जन्म, ऐश्वयर्, िवद्या और सम्पित्त के कारण िजसका घमंड बढ़ रहा है, वह मनुष्य तो आपका नाम भी
नहीं ले सकता, क्योंिक आप तो उन लोगों को दशर्न देते हंै, जो अिकंचन हंै। आप िनधर्नों के परम धन हंै। माया
का पर्पंच आपका स्पशर् भी नहीं कर सकता। आप अपने-आप मंे ही िवहार करने वाले एवं परम शांतस्वरूप हंै। आप
ही कैवल्य मोक्ष के अिधपित है। मंै आपको अनािद, अनन्त, सवर्व्यापक, सबके िनयन्ता, कालरूप, परमेश्वर समझती
हँू और बारम्बार नमस्कार करती हँू। संसार के समस्त पदाथर् और पर्ाणी आपस टकरा कर िवषमता के कारण
परस्पर िवरूद्ध हो रहे हंै, परंतु आप सबमंे समान रूप से िवचर रहे हंै। भगवन् ! आप जब मनुष्यों जैसी लीला करते
हंै, तब आप क्या करना चाहते हंै यह कोई नहीं जानता। आपका कभी कोई न िपर्य है और न अिपर्य। आपके
सम्बन्ध मंे लोगों की बुिद्ध ही िवषम हुआ करती है। आप िवश्व के आत्मा हंै, िवश्वरूप हंै। न आप जन्म लेते हंै और
न कमर् करते हंै। िफर भी पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋिष, जलचर आिद मंे आप जन्म लेते हंै और उन योिनयों के अनुरूप
आपने दूध की मटकी फोड़कर यशोदा मैया को िखजा िदया था और उन्होंने आपको बाँधने के िलए हाथ मंे रस्सी ली
थी, तब आपकी आँखों मंे आँसू छलक आये थे, काजल कपोलों पर बह चला था, नेतर् चंचल हो रहे थे और भय की
भावना से आपने अपने मुख को नीचे की ओर झुका िलया था ! आपकी उस दशा का, लीला-छिव का ध्यान करके
मंै मोिहत हो जाती हँू। भला, िजससे भय भी भय मानता है, उसकी यह दशा !
आपने अजन्मा होकर भी जन्म क्यों िलया है, इसका कारण बतलाते हुए कोई-कोई महापुरुष यों कहते हंै िक जैसे
मलयाचल की कीितर् का िवस्तार करने के िलए उसमंे चंदन पर्कट होता, वैसे ही अपने िपर्य भक्त पुण्यश्लोक राजा यदु
की कीितर् का िवस्तार करने के िलए ही आपने उनके वंश मंे अवतार गर्हण िकया है। दूसरे लोग यों कहते हंै िक
वासुदेव और देवकी ने पूवर् जन्म मंे (सुतपा और पृिश्न के रूप मंे) आपसे यही वरदान पर्ाप्त िकया था, इसीिलए आप
अजन्मा होते हुए भी जगत के कल्याण और दैत्यों के नाश के िलए उनके पुतर् बने हंै। कुछ और लोग यों कहते हंै
िक यह पृथ्वी दैत्यों के अत्यंत भार से समुदर् मंे डूबते हुए जहाज की तरह डगमगा रही थी, पीिड़त हो रही थी, तब
बर्ह्मा की पर्ाथर्ना से उसका भार उतारने के िलए ही आप पर्कट हुए। कोई महापुरुष यों कहते हंै िक जो लोग इस
संसार मंे अज्ञान, कामना और कमोर्ं के बंधन मंे जकड़े हुए पीिड़त हो रहे हंै, उन लोगों के िलए शर्वण और स्मरण
करने योग्य लीला करने के िवचार से ही आपने अवतार गर्हण िकया है। भक्तजन बार-बार आपके चिरतर् का शर्वण,
गान, कीतर्न एवं स्मरण करके आनंिदत होते रहते हंै, वे ही अिवलम्ब आपके उन चरणकमलों के दशर्न कर पाते हंै,
जो जन्म-मृत्यु के पर्वाह को सदा के िलए रोक देते हंै।
भक्तवांछा हम लोगों को छोड़कर जाना चाहते हं? ै आप जानते हंै िक आपके चरमकमलों के अितिरक्त हमंे और िकसी
का सहारा नहीं है। पृथ्वी के राजाओं के तो हम यों ही िवरोधी हो गये हंै। जैसे जीव के िबना इिन्दर्याँ शिक्तहीन हो
जाती हंै, वैसे ही आपके दशर्न िबना यदुवंिशयों के और हमारे पुतर् पाण्डवों के नाम तथा रूप का अिस्तत्व ही क्या
रह जाता है। गदाधर ! आपके िवलक्षण चरणिचह्नों से िचिह्नत यह कुरुजांगल देश की भूिम आज जैसी शोभायमान
हो रही है, वैसी आपके चले जाने के बाद न रहेगी। आपकी दृिष्ट के पर्भाव से ही यह देश पकी हुई फसल तथा लता-
वृक्षों से समृद्ध हो रहा है। ये वन, पवर्त, नदी और समुदर् भी आपकी दृिष्ट से ही वृिद्ध को पर्ाप्त हो रहे हंै। आप िवश्व
के स्वामी हंै, िवश्व के आत्मा हंै और िवश्वरूप हंै। यदुवंिशयों और पाण्डवों मंे मेरी बड़ी ममता हो गयी है। आप कृपा
करके स्वजनों के साथ जोड़े हुए इस स्नेह की दृढ़ फाँसी को काट दीिजये। शर्ीकृष्ण ! जैसे गंगा की अखण्ड धारा
समुदर् मंे िगरती रहती है, वैसे ही मेरी बुिद्ध िकसी दूसरी ओर न जाकर आपसे ही िनरंतर पर्ेम करती रहे। अनुकर्म
शर्ीकृष्ण ! अजर्ुन के प्यारे सखा, यदुवंशिशरोमणे ! आप पृथ्वी के भाररूप राजवेशधारी दैत्यों को जलाने के िलए
अिग्नरूप है। आपकी शिक्त अनन्त है। गोिवन्द ! आपका यह अवतार गौ, बर्ाह्मण और देवताओं का दुःख िमटाने के
िलए ही है। योगेश्वर ! चराचर के गुरु भगवन् ! मंै आपको नमस्कार करती हँू।
(शर्ीमद् भागवतः 1.8.18.43)

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शुकदेवजी द्वारा स्तुित


उत्तरानन्दन राजा परीिक्षत ने भगवत्स्वरूप मुिनवर शुकदेवजी से सृिष्टिवषयक पर्श्न पूछा िक अनन्तशिक्त परमात्मा
कैसे सृिष्ट की उत्पित्त, रक्षा एवं संहार करते हंै और वे िकन-िकन शिक्तयों का आशर्य लेकर अपने-आपको ही िखलौने
बनाकर खेलते हंै? इस पर्कार परीिक्षत द्वारा भगवान की लीलाओं को जानने की िजज्ञासा पर्कट करने पर वेद और
बर्ह्मतत्त्व के पूणर् ममर्ज्ञ शुकदेवजी लीलापुरुषोत्तम भगवान शर्ीकृष्ण की मंगलाचरण के रूप मंे इस पर्कार से स्तुित
करते हंै-
'उन पुरुषोत्तम भगवान के चरणकमलों मंे मेरे कोिट-कोिट पर्णाम हंै, जो संसार की उत्पित्त, िस्थित और पर्लय की
लीला करने के िलए सत्त्व, रज तथा तमोगुण रूप तीन शिक्तयों को स्वीकार कर बर्ह्मा, िवष्णु और शंकर का रूप
धारण करते हंै। जो समस्त चर-अचर पर्ािणयों के हृदय मंे अंतयार्मीरूप से िवराजमान हंै, िजनका स्वरूप और उसकी
उपलिब्ध का मागर् बुिद्ध के िवषय नहीं हंै, जो स्वयं अनन्त हंै तथा िजनकी मिहमा भी अनन्त है, हम पुनः बार-बार
उनके चरणों मंे नमस्कार करते हंै। जो सत्पुरुषों का दुःख िमटाकर उन्हंे अपने पर्ेम का दान करते हंै, दुष्टों की
सांसािरक बढ़ती रोककर उन्हंे मुिक्त देते हंै तथा जो लोग परमहंस आशर्म मंे िस्थत हंै, उन्हंे उनकी भी अभीष्ट वस्तु
का दान करते हंै। क्योंिक चर-अचर समस्त पर्ाणी उन्हीं की मूितर् हंै, इसिलए िकसी से भी उनका पक्षपात नहीं है।
जो बड़े ही भक्तवत्सल हंै और हठपूवर्क भिक्तहीन साधन करने वाले लोग िजनकी छाया भी नहीं छू सकते; िजनके
समान भी िकसी का ऐश्वयर् नहीं है, िफर उससे अिधक तो हो ही कैसे सकता है तथा ऐसे ऐश्वयर् से युक्त होकर जो
िनरन्तर बर्ह्मस्वरूप अपने धाम मंे िवहार करते रहते हंै, उन भगवान शर्ीकृष्ण को मंै बार-बार नमस्कार करता हँू।
िजनका कीतर्न, स्मरण, दशर्न, वंदल, शर्वण और पूजन जीवों के पापों को तत्काल नष्ट कर देता है, उन पुण्यकीितर्
भगवान शर्ीकृष्ण को बार-बार नमस्कार है। अनुकर्म
िवचक्षणा यच्चरणोपसादनात् संगं व्युदस्योभयतोऽन्तरात्मनः।
िवन्दिन्त िह बर्ह्मगितं गतक्लमास्तस्मै सुभदर्शर्वसे नमो नमः।।
तपिस्वनो दानपरा यशिस्वनो मनिस्वनो मन्तर्िवदः सुमंगलाः।
क्षेमं न िवन्दिन्त िवना यदपर्णं तस्मै सुभदर्शर्वसे नमो नमः।।
िववेकी पुरुष िजनके चरणकमलों की शरण लेकर अपने हृदय से इस लोक और परलोक की आसिक्त िनकाल डालते
हंै और िबना िकसी पिरशर्म के ही बर्ह्मपद को पर्ाप्त कर लेते हंै, उन मंगलमय कीितर्वाले भगवान शर्ीकृष्ण को अनेक
बार नमस्कार है। बड़े-बड़े तपस्वी, दानी, यशस्वी, मनस्वी, सदाचारी और मंतर्वेत्ता जब तक अपनी साधनाओं को
तथा अपने-आपको उनके चरणों मंे समिपर्त नहीं कर देते, तब तक उन्हंे कल्याण की पर्ािप्त नहीं होती। िजनके पर्ित
आत्मसमपर्ण की ऐसी मिहमा है, उन कल्याणमयी कीितर्वाले भगवान को बार-बार नमस्कार है।
(शर्ीमद् भागवतः 2.4.16.17)
िकरात, हूण, आंधर्, पुिलन्द, पुल्कस, आभीर, कंक, यवन और खस आिद नीच जाितयाँ तथा दूसरे पापी िजनके
शरणागत भक्तों की शरण गर्हण करने से ही पिवतर् हो जाते हंै, उन सवर्शिक्तमान भगवान को बार-बार नमस्कार है।
वे ही भगवान ज्ञािनयों के आत्मा हंै, भक्तों के स्वामी हंै, कमर्कािण्डयों के िलए वेदमूितर् हंै। बर्ह्मा, शंकर आिद बड़े-बड़े
देवता भी अपने शुद्ध हृदय से उनके स्वरूप का िचंतन करते और आश्चयर्चिकत होकर देखते रहते हंै। वे मुझ पर
अपने अनुगर्ह की, पर्साद की वषार् करंे।
जो समस्त सम्पित्तयों की स्वािमनी लक्ष्मीदेवी के पित हंै, समस्त यज्ञों के भोक्ता एवं फलदाता है, पर्जा के रक्षक हंै,
सबके अंतयार्मी और समस्त लोकों के पालनकतार् हंै तथा पृथ्वीदेवी के स्वामी हंै, िजन्होंने यदुवंश मंे पर्कट होकर
अंधक, वृिष्ण एवं यदुवंश के लोगों की रक्षा की है तथा जो उन लोगों के एकमातर् आशर्य रहे हंै – वे भक्तवत्सल,
संतजनों के सवर्स्व शर्ीकृष्ण मुझ पर पर्सन्न हों। िवद्वान पुरुष िजनके चरणकमलों के िचंतनरूप समािध से शुद्ध हुई
बुिद्ध के द्वारा आत्मतत्त्व का साक्षात्कार करते हंै तथा उनके दशर्न के अनन्तर अपनी-अपनी मित और रूिच के
अनुसार िजनके स्वरूप का वणर्न करते रहते हंै, वे पर्ेम और मुिक्त को लुटाने वाले भगवान शर्ीकृष्ण मुझ पर पर्सन्न
हों। िजन्होंने सृिष्ट के समय बर्ह्मा के हृदय मंे पूवर्काल की स्मृित जागर्त करने के िलए ज्ञान की अिधष्ठातर्ी देवी को
पर्ेिरत िकया और वे अपने अंगों के सिहत वेद के रूप मंे उनके मुख से पर्कट हुई, वे ज्ञान के मूल कारण भगवान
मुझ पर कृपा करंे, मेरे हृदय मंे पर्कट हों। भगवान ही पंचमहाभूतों से इन शरीरों का िनमार्ण करके इनमंे जीवरूप से
शयन करते हंै और पाँच ज्ञानेिन्दर्यों, पाँच कमर्ेिन्दर्यों, पाँच, पर्ाण और एक मन – इन सोलह कलाओं से युक्त होकर
इनके द्वारा सोलह िवषयों का भोग करते हंै। वे सवर्भूतमय भगवान मेरी वाणी को अपने गुणों से अलंकृत कर दंे।
संतपुरुष िजनके मुखकमल से मकरन्द के समान झरती हुई ज्ञानमयी सुधा का पान करते रहते हंै, उन वासुदेवावतार
सवर्ज्ञ भगवान व्यास के चरणों मंे मेरा बार-बार नमस्कार है।' अनुकर्म
(शर्ीमद् भागवतः 2.4.12-24)
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बर्ह्मा जी द्वारा स्तुित


सृिष्ट से पूवर् यह सम्पूणर् िवश्व जल मंे डूबा हुआ था। उस समय एकमातर् शर्ीनारायण देव शेषशय्या पर लेटे हुए थे।
एक सहसर् चतुयर्ुगपयर्न्त जल मंे शयन करने के अनन्तर उन्हीं के द्वारा िनयुक्त उनकी कालशिक्त ने उन्हंे जीवों के
कमोर्ं की पर्वृित्त के िलए पर्ेिरत िकया। िजस समय भगवान की दृिष्ट अपने मंे िनिहत िलंग शरीरािद सूक्ष्म तत्त्व पर
पड़ी, तब वह सूक्ष्म तत्त्व कालािशर्त रजोगुण से क्षुिभत होकर सृिष्ट-रचना के िनिमत्त कमलकोश के रूप मंे सहसा
ऊपर उठा। कमल पर बर्ह्मा जी िवराजमान थे। वे सोचने लगेः 'इस कमल की किणर्का पर बैठा हुआ मंै कौन हँू? यह
कमल भी िबना िकसी अन्य आधार के जल मंे कहाँ से उत्पन्न हो गया? इसके नीचे अवश्य कोई वस्तु होनी
चािहए, िजसके आधार पर यह िस्थत है।' अपने उत्पित्त-स्थान को खोजते-खोजते बर्ह्माजी को बहुत काल बीत गया।
अन्त मंे पर्ाणवायु को धीरे-धीरे जीतकर िचत्त को िनःसंकल्प िकया और समािध मंे िस्थत हो गये। तब उन्होंने अपने
उस अिधष्ठान को, िजसे वे पहले खोजने पर भी नहीं देख पाये थे, अपने ही अंतःकरण मंे पर्कािशत होते देखा तथा
शर्ीहिर मंे िचत्त लगाकर उन परम पूजनीय पर्भु की स्तुित करने लगेः
'आप सवर्दा अपने स्वरूप के पर्काश से ही पर्ािणयों के भेद भर्मरूप अंधकार का नाश करते रहते हंै तथा ज्ञान के
अिधष्ठान साक्षात् परम पुरुष हंै, मंै आपको नमस्कार करता हँू। संसार की उत्पित्त, िस्थित और संहार के िनिमत्त से
जो माया की लीला होती है, वह आपका ही खेल है, अतः आप परमेश्वर को मंै बार-बार नमस्कार करता हँू।
यस्यावतारगुणकमर्िवडम्बनािन नामािन येऽसुिवगमे िववशा गृणिन्त।
ते नैकजन्मशमलं सहसैव िहत्वा संयान्त्यपावृतमृतं तमजं पर्पद्ये।।
जो लोग पर्ाणत्याग करते समय आपके अवतार, गुण और कमोर्ं को सूिचत करने वाले देवकीनन्दन, जनादर्न,
कंसिनकंदन आिद नामों का िववश होकर भी उच्चारण करते हंै, वे अनेकों जन्मों के पापों से तत्काल छूटकर मायािद
आवरणों से रिहत बर्ह्मपद पर्ाप्त करते हंै। आप िनत्य अजन्मा हंै, मंै आपकी शरण लेता हँू। अनुकर्म
(शर्ीमद् भागवतः 3.9.15)
भगवन् ! इस िवश्ववृक्ष के रूप मंे आप ही िवराजमान हंै। आप ही अपनी मूल पर्कृित को स्वीकार करके जगत की
उत्पित्त, िस्थित और पर्लय के िलए मेरे, अपने और महादेवजी के रूप मंे तीन पर्धान शाखाओं मंे िवभक्त हुए हंै और
िफर पर्जापित एवं मनु आिद शाखा-पर्शाखाओं के रूप मंे फैलकर बहुत िवस्तृत हो गये हंै। मंै आपको नमस्कार
करता हँू। भगवन् ! आपने अपनी आराधना को ही लोकों के िलए कल्याणकारी स्वधमर् बताया है, िकंतु वे इस ओर
से उदासीन रहकर सवर्दा िवपरीत (िनिषद्ध) कमोर्ं मंे लगे रहते हंै। ऐसी पर्माद की अवस्था मंे पड़े हुए इन जीवों की
जीवन-आशा को जो सदा सावधान रहकर बड़ी शीघर्ता से काटता रहता है, वह बलवान काल भी आपका ही रूप है;
मंै उसे नमस्कार करता हँू। यद्यिप मंै सत्यलोक का अिधष्ठाता हँू, जो पराद्धर्पयर्न्त रहने वाला और समस्त लोकों का
वन्दनीय है तो भी आपके उस कालरूप से डरता रहता हँू। उससे बचने और आपको पर्ाप्त करने के िलए ही मंैने बहुत
समय तक तपस्या की है। आप ही अिधयज्ञरूप से मेरी इस तपस्या के साक्षी हंै, मंै आपको नमस्कार करता हँू।
आप पूणर्काम हंै, आपको िकसी िवषयसुख की इच्छा नहीं है तो भी आपने अपनी बनायी हुई धमर्मयार्दा की रक्षा के
िलए पशु-पक्षी, मनुष्य और देवता आिद जीवयोिनयों मंे अपनी ही इच्छा से शरीर धारण कर अनेकों लीलाएँ की हंै।
ऐसे आप पुरुषोत्तम भगवान को मेरा नमस्कार है।
पर्भो ! आप अिवद्या, अिस्मता, राग द्वेष और अिभिनवेश – पाँचों मंे से िकसी के भी अधीन नहीं हंै; तथािप इस
समय जो सारे संसार को अपने उदर मंे लीन कर भयंकर तरंगमालाओं से िवक्षुब्ध पर्लयकालीन जल मंे अनन्तिवगर्ह
की कोमल शय्या पर शयन कर रहे हंै, वह पूवर्काल की कमर् परम्परा से शर्िमत हुए जीवों को िवशर्ाम देने के िलए
ही है। आपके नािभकमलरूप भवन से मेरा जन्म हुआ है। यह सम्पूणर् िवश्व आपके उदर मंे समाया हुआ है। आपकी
कृपा से ही मंै ितर्लोकी की रचना रूप उपकार मंे पर्वृत्त हुआ हँू। इस समय योगिनदर्ा का अंत हो जाने के कारण
आपके नेतर्कमल िवकिसत हो रहे हंै आपको मेरा नमस्कार है। आप सम्पूणर् सुहृद और आत्मा हंै तथा शरणागतों पर
कृपा करने वाले हंै। अतः अपने िजस ज्ञान और ऐश्वयर् से आप िवश्व को आनिन्दत करते हंै, उसी से मेरी बुिद्ध को
भी युक्त करंे – िजससे मंै पूवर्कल्प के समान इस समय भी जगत की रचना कर सकँू। आप भक्तवांछाकल्पतरु हंै।
अपनी शिक्त लक्ष्मीजी के सिहत अनेक गुणावतार लेकर आप जो-जो अदभुत कमर् करंेगे, मेरा यह जगत की रचना
करने का उद्यम भी उन्हीं मंे से एक है। अतः इसे रचते समय आप मेरे िचत्त को पर्ेिरत करंे, शिक्त पर्दान करंे,
िजससे मंै सृिष्ट रचनािवषयक अिभमानरूप मल से दूर रह सकँू। पर्भो ! इस पर्लयकालीन जल मंे शयन करते हुए
आप अनन्तशिक्त परमपुरुष के नािभ-कमल से मेरा पर्ादुभार्व हुआ है और मंै हँू भी आपकी ही िवज्ञानशिक्त अतः इस
जगत के िविचतर् रूप का िवस्तार करते समय आपकी कृपा से मेरी वेदरूप वाणी का उच्चारण लुप्त न हो। आप
अपार करुणामय पुराणपुरुष हंै। आप परम पर्ेममयी मुस्कान के सिहत अपने नेतर्कमल खोिलये और शेषशय्या से
उठकर िवश्व के उदभव के िलए अपनी सुमधुर वाणी से मेरा िवषाद दूर कीिजए।' अनुकर्म
(शर्ीमद् भागवतः 3.9.14-25)
भगवान की मिहमा असाधारण है। वे स्वयंपर्काश, आनंदस्वरूप और माया से अतीत है। उन्हीं की माया मंे तो सभी
मुग्ध हो रहे हंै परंतु कोई भी माया-मोह भगवान का स्पशर् नहीं कर सकता। बर्ह्मजी उन्हीं भगवान शर्ीकृष्ण को
ग्वाल-बाल और बछड़ों का अपहरण कर, अपनी माया से मोिहत करने चले थे। िकन्तु उनको मोिहत करना तो दूर
रहा, वे अजन्मा होने पर भी अपनी ही माया से अपने-आप मोिहत हो गये। बर्ह्माजी समस्त िवद्याओं के अिधपित हंै
तथािप भगवान के िदव्य स्वरूप को वे तिनक भी न समझ सके िक यह क्या है। यहाँ तक िक वे भगवान के
मिहमामय रूपों को देखने मंे भी असमथर् हो गये। उनकी आँखंे मँुद गयीं। भगवान शर्ीकृष्ण ने बर्ह्माजी का मोह और
असमथर्ता को जान कर अपनी माया का पदार् हटा िदया। इससे बर्ह्माजी को बर्ह्मज्ञान हुआ। िफर बर्ह्माजी ने अपने
चारों मुकुटों के अगर्भाग से भगवान के चरणकमलों का स्पशर् करके नमस्कार िकया और आनंद के आँसुओं की धारा
से उन्हंे नहला िदया। बहुत देर तक वे भगवान के चरणों मंे ही पड़े रहे। िफर धीरे-धीरे उठे और अपने नेतर्ों के आँसू
पोंछे। पर्ेम और मुिक्त के एकमातर् उदगम भगवान को देखकर उनका िसर झुक गया। अंजिल बाँधकर बड़ी नमर्ता
और एकागर्ता के साथ गदगद वाणी से वे भगवान की स्तुित करने लगेः
'पर्भो ! एकमातर् आप ही स्तुित करने योग्य हंै। मंै आपके चरणों मंे नमस्कार करता हँू। आपका यह शरीर
वषार्कालीन मेघ के समान श्यामल है, इस पर पीताम्बर िस्थर िबजली के समान िझलिमल-िझलिमल करता हुआ
शोभा पाता है, आपके गले मंे घँुघची की माला, कानों मंे मकराकृित कुण्डल तथा िसर पर मोरपंखों का मुकुट है, इन
सबकी कांित से आपके मुख पर अनोखी छटा िछटक रही है। वक्षः स्थल पर लटकती हुई वनमाला और नन्हीं-सी
हथेली पर दही-भात का कौर, बगल मंे बंेत और िसंगी तथा कमर की फंेट मंे आपकी पहचान बतानेवाली बाँसुरी
शोभा पर रही है। आपके कमल-से सुकोमल परम सुकुमार चरण और यह गोपाल बालक का सुमधुर वेष। (मंै और
कुछ नहीं जानता बस, मंै तो इन्हीं चरणों पर न्योछावर हँू।) स्वयंपर्काश परमात्मन् ! आपका यह शर्ीिवगर्ह भक्तजनों
की लालसा-अिभलाषा पूणर् करने वाला है। यह आपकी िचन्मय इच्छा का मूितर्मान स्वरूप मुझ पर आपका साक्षात
कृपा पर्साद है। मुझे अनुगृहीत करने के िलए ही आपने इसे पर्कट िकया है। कौन कहता है िक यह पंचभूतों की
रचना है?
पर्भो ! यह तो अपर्ाकृत शुद्ध सत्त्वमय है। मंै या और कोई समािध लगाकर भी आपके इस सिच्चदानंद-िवगर्ह की
मिहमा नहीं जान सकता। िफर आत्मानन्दानुभवस्वरूप साक्षात् आपकी ही मिहमा को तो कोई एकागर् मन से भी
कैसे जान सकता है।
ज्ञाने पर्यासमुदापास्य नमन्त एव जीविन्त सन्मुखिरतां भवदीयवातार्म्।
स्थाने िस्थताः शर्ुितगतां तनुवांगनोिभयर्े पर्ायशोऽिजत िजतोऽप्यिस तैिस्तर्लोक्याम्।।
पर्भो ! जो लोग ज्ञान के िलए पर्यत्न न करके अपने स्थान मंे ही िस्थत रहकर केवल सत्संग करते हंै; यहाँ तक िक
उसे ही अपना जीवन बना लेते हंै, उसके िबना जी नहीं सकते। पर्भो ! यद्यिप आप पर ितर्लोकी मंे कोई कभी िवजय
नहीं पर्ाप्त कर सकता, िफर भी वे आप पर िवजय पर्ाप्त कर लेते हंै, आप उनके पर्ेम के अधीन हो जाते हंै। अनुकर्म
(शर्ीमद् भागवतः10.15.3)
भगवन् ! आपकी भिक्त सब पर्कार के कल्याण का मूलसर्ोत-उदगम है। जो लोग उसे छोड़कर केवल ज्ञान की पर्ािप्त
के िलए शर्म उठाते और दुःख भोगते हंै, उनको बस क्लेश-ही-क्लेश हाथ लगता है और कुछ नहीं। जैसे, थोथी भूसी
कूटने वाले को केवल शर्म ही िमलता है, चावल नहीं।
हे अच्युत ! हे अनन्त ! इस लोक मंे पहले भी बहुत-से योगी हो गये हंै। जब उन्हंे योगािद के द्वारा आपकी पर्ािप्त न
हुई, तब उन्होंने अपने लौिकक और वैिदक समस्त कमर् आपके चरणों मंे समिपर्त कर िदये। उन समिपर्त कमोर्ं से
तथा आपकी लीला-कथा से उन्हंे आपकी भिक्त पर्ाप्त हुई। उस भिक्त से ही आपके स्वरूप का ज्ञान पर्ाप्त करके उन्होंने
बड़ी सुगमता से आपके परम पद की पर्ािप्त कर ली। हे अनन्त ! आपके सगुण-िनगर्ुण दोनों स्वरूपों का ज्ञान किठन
होने पर भी िनगर्ुण स्वरूप की मिहमा इिन्दर्यों का पर्त्याहार करके शुद्ध अंतःकरण से जानी जा सकती है। (जानने
की पर्िकर्या यह है िक) िवशेष आकार के पिरत्यागपूवर्क आत्माकार अंतःकरण का साक्षात्कार िकया जाय। यह
आत्माकारता घट-पटािद रूप के समान ज्ञेय नहीं है, पर्त्युत आवरण का भंगमातर् है। यह साक्षात्कार 'यह बर्ह्म है', 'मंै
बर्ह्म को जानता हँू' इस पर्कार नहीं िकंतु स्वयंपर्काश रूप से ही होता है। परंतु भगवन् ! िजन समथर् पुरुषों ने अनेक
जन्मों तक पिरशर्म करके पृथ्वी का एक-एक परमाणु, आकाश के िहमकण (ओस की बँूदंे) तथा उसमंे चमकने वाले
नक्षतर् एवं तारों तक िगन डाला है, उनमंे भी भला, ऐसा कौन हो सकता है जो आपके सगुण स्वरूप के अनन्त गुणों
को िगन सके? पर्भो ! आप केवल संसार के कल्याण के िलए ही अवतीणर् हुए हंै। सो भगवन् ! आपकी मिहमा का
ज्ञान तो बड़ा ही किठन है। इसिलए जो पुरुष क्षण-क्षण पर बड़ी उत्सुकता से आपकी कृपा का ही भलीभाँित अनुभव
करता रहता है और पर्ारब्ध के अनुसार जो कुछ सोख या दुःख पर्ाप्त होता है, उसे िनिवर्कार मन से भोग लेता है एवं
जो पर्ेमपूणर् हृदय, गदगद वाणी और पुलिकत शरीर से अपने को आपके चरणों मंे समिपर्त करता रहता है – इस
पर्कार जीवन व्यतीत करने वाला पुरुष ठीक वैसे ही आपके परम पद का अिधकारी हो जाता है, जैसे अपने िपता की
सम्पित्त का पुतर् ! अनुकर्म
पर्भो ! मेरी कुिटलता तो देिखये। आप अनन्त आिदपुरुष परमात्मा हंै और मेरे जैसे बड़े-बड़े मायावी भी आपकी
माया के चकर् मंे हंै। िफर भी मंैने आप पर अपनी माया फैलाकर अपना ऐश्वयर् देखना चाहा। पर्भो ! मंै आपके
सामने हँू ही क्या। क्या आग के सामने िचनगारी की भी कुछ िगनती है? भगवन् ! मंै रजोगुण से उत्पन्न हुआ हँू,
आपके स्वरूप को मंै ठीक-ठाक नहीं जानता। इसी से अपने को आपसे अलग संसार का स्वामी माने बैठा था। मंै
अजन्मा जगत्कतार् हँू – इस मायाकृत मोह के घने अंधकार से मंै अंधा हो रहा था। इसिलए आप यह समझकर िक
'यह मेरे ही अधीन है, मेरा भृत्य है, इस पर कृपा करनी चािहए', मेरा अपराध क्षमा कीिजए। मेरे स्वामी ! पर्कृित,
महत्तत्व, अहंकार, आकाश, वायु, अिग्न, जल और पृथ्वीरूप आवरणों से िघरा हुआ यह बर्ह्माण्ड ही मेरा शरीर है और
आपके एक-एक रोम के िछदर् मंे ऐसे-ऐसे अगिणत बर्ह्माण्ड उसी पर्कार उड़ते-पड़ते रहते हंै, जैसे झरोखे की जाली मंे
से आनेवाली सूयर् की िकरणों मंे रज के छोटे-छोटे परमाणु उड़ते हुए िदखायी पड़ते हंै। कहाँ अपने पिरमाण से साढ़े
तीन हाथ के शरीरवाला अत्यंत क्षुदर् मंै और कहाँ आपकी अनन्त मिहमा। वृित्तयों की पकड़ मंे न आनेवाले
परमात्मन् ! जब बच्चा माता के पेट मंे रहता है, तब अज्ञानवश अपने हाथ पैर पीटता है; परंतु क्या माता उसे
अपराध समझती है या उसके िलए वह कोई अपराध होता है? 'है' और 'नहीं है' – इन शब्दों से कही जाने वाली
कोई भी वस्तु ऐसी है क्या, जो आपकी कोख के भीतर न हो?
शर्ुितयाँ कहती हंै िक िजस समय तीनों लोक पर्लयकालीन जल मंे लीन थे, उस समय उस जल मंे िस्थत शर्ीनारायण
के नािभकमल से बर्ह्म का जन्म हुआ। उनका यह कहना िकसी पर्कार असत्य नहीं हो सकता। तब आप ही
बतलाइये, पर्भो ! क्या मंै आपका पुतर् नहीं हँू?
नारायणस्त्वं न िह सवर्देिहनामात्मास्यधीशािखललोकसाक्षी।
नारायणोङ्गं नरभूजलायात्तच्चािप सत्यं न तदैव माया।।
पर्भो ! आप समस्त जीवों के आत्मा हंै। इसिलए आप नारायण (नार-जीव और अयन-आशर्य) हंै। आप समस्त जगत
के और जीवों अधीश्वर है, इसिलए आप नारायण (नार-जीव और अयन-पर्वतर्क) हंै। आप समस्त लोकों के साक्षी हंै,
इसिलए भी नारायण (नार-जीव और अयन-जानने वाला) है। नर से उत्पन्न होने वाले जल मंे िनवास करने के
कारण िजन्हंे नारायण (नार-जल और अयन-िनवासस्थान) कहा जाता है, वे भी आपके एक अंश ही हंै। वह अंशरूप
से िदखना भी सत्य नहीं है, आपकी माया ही है।
(शर्ीमद् भागवतः 10.14.14)
भगवन् ! यिद आपका वह िवराट स्वरूप सचमुच उस समय कमलनाल के मागर् से उसे सौ वषर् तक जल मंे ढँूढता
रहा? िफर मंैने जब तपस्या की, तब उसी समय मेरे हृदय मंे उसका दशर्न कैसे हो गया? और िफर कुछ ही क्षणों
मंे वह पुनः क्यों नहीं िदखा, अंतधार्न क्यों हो गया? माया का नाश करने वाले पर्भो ! दूर की बात कौन करे, अभी
इसी अवतार मंे आपने इस बाहर िदखने वाले जगत को अपने पेट मंे ही िदखला िदया, िजसे देखकर माता यशोदा
चिकत हो गयी थी। इससे यही तो िसद्ध होता है िक यह सम्पूणर् िवश्व केवल आपकी माया-ही-माया है। जब आपके
सिहत यह सम्पूणर् िवश्व जैसा बाहर िदखता है वैसा ही आपके उदर मंे भी िदखा, तब क्या यह सब आपकी माया के
िबना ही आपमंे पर्तीत हुआ? अवश्य ही आपकी लीला है। उस िदन की बात जाने दीिजए, आज की ही लीिजए। क्या
आज आपने मेरे सामने अपने अितिरक्त सम्पूणर् िवश्व को अपनी माय का खेल नहीं िदखलाया है? पहले आप अकेले
थे। िफर सम्पूणर् ग्वाल-बाल, बछड़े और छड़ी-छीके भी आप ही हो गये। उसके बाद मंैने देखा िक आपके वे सब रूप
चतुभर्ुज हंै और मेरे सिहत सब-के-सब तत्त्व उनकी सेवा कर रहे हंै। आपने अलग-अलग उतने ही बर्ह्माण्डों का रूप
भी धारण कर िलया था, परंतु अब आप केवल अपिरिमत अिद्वितय बर्ह्मरूप से ही शेष रह गये हंै। अनुकर्म
जो लोग अज्ञानवश आपके स्वरूप को नहीं जानते, उन्हीं को आप पर्कृित मंे िस्थत जीव के रूप से पर्तीत होते हंै
और उन पर अपनी माया का पदार् डालकर सृिष्ट के समय मेरे (बर्ह्मा) रूप से पालन के समय अपने (िवष्णु) रूप से
और संहार के समय रूदर् के रूप मंे पर्तीत होते हंै।
पर्भो ! आप सारे जगत के स्वामी और िवधाता है। अजन्मा होने पर भी आपके देवता, ऋिष, पशु-पक्षी और जलचर
आिद योिनयों मंे अवतार गर्हण करते हंै। इसिलए की इन रूपों के द्वारा दुष्ट पुरुषों का घमण्ड तोड़ दंे और सत्पुरुषों
पर अनुगर्ह करंे। भगवन् ! आप अनन्त परमात्मा और योगेश्वर हंै? िजस समय आप अपनी माया का िवस्तार करके
लीला करने लगते हंै, उस समय ितर्लोकी मंे ऐसा कौन है, जो यह जान सके की आपकी लीला कहाँ, िकसिलए, कब
और िकतनी होती। इसिलए यह सम्पूणर् जगत स्वप्न के समान असत्य, अज्ञानरूप और दुःख-पर दुःख देनेवाला है।
आप परमानंद, परम अज्ञानस्वरूप एवं अनन्त हंै। यह माया से उत्पन्न एवं िवलीन होने पर भी आपमंे आपकी सत्ता
से सत्य के समान पर्तीत होता है। पर्भो ! आप ही एकमातर् सत्य हंै क्योंिक आप सबके आत्मा जो हंै। आप
पुराणपुरुष होने के कारण समस्त जन्मािद िवकारों से रिहत हंै। आप स्वयं पर्काश हं;ै इसिलए देश, काल और वस्तु
जो परपर्काश हंै िकसी पर्कार आपको सीिमत नहीं कर सकते। आप उनके भी आिद पर्काशक हंै। आप अिवनाशी होने
के कारण िनत्य हंै। आपका आनंद अखिण्डत है। आपमंे न तो िकसी पर्कार का मल है और न अभाव। आप पूणर्
एक हंै। समस्त उपािधयों से मुक्त होने के कारण आप अमृतस्वरूप हंै। आपका यह ऐसा स्वरूप समस्त जीवों का ही
अपना स्वरूप है। जो गुरुरूप सूयर् से तत्त्वज्ञानरूप िदव्य दृिष्ट पर्ाप्त कर के उससे आपको अपने स्वरूप के रूप मंे
साक्षात्कार कर लेते हंै, वे इस झूठे संसार-सागर को मानों पार कर जाते हंै। (संसार-सागर के झूठा होने के कारण
इससे पार जाना भी अिवचार-दशा की दृिष्ट से ही है।) जो पुरुष परमात्मा को आत्मा के रूप मंे नहीं जानते, उन्हंे
उस अज्ञान के कारण ही इस नामरूपात्मक अिखल पर्पंच की उत्पित्त का भर्म हो जाता है। िकंतु ज्ञान होते ही इसका
आत्यंितक पर्लय हो जाता है। जैसे रस्सी मंे भर्म के कारण ही साँप की पर्तीित होती है और भर्म के िनवृत्त होते ही
उसकी िनवृित्त हो जाती है। संसार सम्बन्धी बंधन और उससे मोक्ष – ये दोनों ही नाम अज्ञान से किल्पत हंै।
वास्तव मंे ये अज्ञान के ही दो नाम हंै। ये सत्य और ज्ञानस्वरूप परमात्मा से िभन्न अिस्तत्व नहीं रखते। जैसे
सूयर् मंे िदन और रात का भेद नहीं है, वैसे ही िवचार करने पर अखण्ड िचत्स्वरूप केवल शुद्ध आत्मतत्त्व मंे न बंधन
है और न तो मोक्ष। भगवन् िकतने आश्चयर् की बात है िक आप हंै अपने आत्मा, पर लोग आपको पराया मानते हंै
और शरीर आिद हंै पराये, िकंतु उनको आत्मा मान बैठते हंै और इसके बाद आपको कहीं अलग ढँूढने लगते हंै।
भला, अज्ञानी जीवों का यह िकतना बड़ा अज्ञान है। हे अनन्त ! आप तो सबके अंतःकरण मंे ही िवराजमान हंै।
इसिलए संत लोग आपके अितिरक्त जो अनुकर्म कुछ पर्तीत हो रहा है, उसका पिरत्याग करते हुए अपने भीतर
आपको ढँूढते हंै। क्योंिक यद्यिप रस्सी मंे साँप नहीं है, िफर भी उस पर्तीयमान साँप को िमथ्या िनश्चय िकये िबना
भला, कोई सत्पुरुष सच्ची रस्सी को कैसे जान सकता है?
अपने भक्तजनों के हृदय मंे स्वयं स्फुिरत होने वाले भगवन् ! आपके ज्ञान का स्वरूप और मिहमा ऐसी ही है, उससे
अज्ञानकिल्पत जगत का नाश हो जाता है। िफर भी जो पुरुष आपके युगल चरणकमलों का तिनक सा भी कृपा
पर्साद पर्ाप्त कर लेता है, उससे अनुगृहीत हो जाता है, वही आपकी सिच्चदानंदमयी मिहमा का तत्त्व जान सकता है।
दूसरा कोई भी ज्ञान वैराग्यािद साधनरूप अपने पर्यत्न से बहुत काल तक िकतना भी अनुसंधान करता रहे, वह
आपकी मिहमा का यथाथर् ज्ञान नहीं पर्ाप्त कर सकता। इसिलए भगवन् ! मुझे इस जन्म मंे, दूसरे जन्म मंे अथवा
िकसी पशु-पक्षी आिद के जन्म मंे भी ऐसा सौभाग्य पर्ाप्त हो िक मंै आपके दासों मंे से कोई एक दास हो जाऊँ और
िफर आपके चरणकमलों की सेवा करूँ। मेरे स्वामी ! जगत के बड़े-बड़े यज्ञ सृिष्ट के पर्ारम्भ से लेकर अब तक
आपको पूणर्तः तृप्त न कर सके। परंतु आपने वर्ज की गायों और ग्वािलनों के बछड़े एवं बालक बनकर उनके स्तनों
का अमृत-सा दूध बड़े उमंग से िपया है। वास्तव मंे उन्हीं का जीवन सफल है, वे ही अत्यंत धन्य हंै। अहो ! नंद
आिद वर्जवासी गोपों के धन्य भाग्य हंै वास्तव मंे उनका अहोभाग्य है, क्योंिक परमानन्दस्वरूप सनातन पिरपूणर् बर्ह्म
आप उनके अपने सगे सम्बन्धी और सृहृद हंै। हे अच्युत ! इन वर्जवािसयों के सौभाग्य की मिहमा तो अलग रही,
मन आिद ग्यारह इिन्दर्यों के अिधष्ठातृ देवता के रूप मंे रहने वाले महादेव आिद हम लोग बड़े ही भाग्यवान हंै।
क्योंिक वर्जवािसयों की मन आिद ग्यारह इिन्दर्यों को प्याले बनाकर हम आपके चरणकमलों का अमृत से भी मीठा,
मिदरा से भी मादक मधुर मकरंद का पान करते रहते हंै। जब उसका एक-एक इिन्दर्य से पान करके हम धन्य-
धन्य हो रहे हंै, तब समस्त इिन्दर्यों से उसका सेवन करने वाले वर्जवािसयों की तो बात ही क्या है। पर्भो ! इस
वर्जभूिम के िकसी वन मंे और िवशेष करके गोकुल मंे िकसी भी योिन मंे जन्म हो जाने पर आपके िकसी-न-िकसी
पर्ेमी के चरणों की धूिल अपने ऊपर पड़ ही जायेगी। पर्भो ! आपके पर्ेमी वर्जवािसयों का सम्पूणर् जीवन आपका ही
जीवन है। आप ही उनके जीवन के एकमातर् सवर्स्व हंै। इसिलए उनके चरणों की धूिल िमलना आपके ही चरणों की
धूिल िमलना है और आपके चरणों की धूिल को तो शर्ुितयाँ भी अनािद काल से अब तक ढँूढ ही रही हंै। देवताओं के
भी आराध्यदेव पर्भो ! इन वर्जवािसयों को इनकी सेवा के बदले मंे आप क्या फल दंेगे? सम्पूणर् फलों के फलस्वरूप
! आपसे बढ़कर और कोई फल तो है ही नहीं, यह सोचकर मेरा िचत्त मोिहत हो रहा है। आप उन्हंे अपना स्वरूप भी
देकर उऋण नहीं हो सकते। क्योंिक आपके स्वरूप को तो उस पूतना ने भी अपने सम्बिन्धयों अघासुर, बकासुर
आिद के साथ पर्ाप्त कर िलया, िजसका केवल वेष ही साध्वी स्तर्ी का था, पर जो हृदय से महान कर्ूर थी। िफर
िजन्होंने अपने घर, धन, स्वजन, िपर्य, शरीर, पुतर्, पर्ाण और मन, सब कुछ आपके ही चरणों मंे समिपर्त कर िदया
है, अनुकर्म िजनका सब कुछ आपके ही िलए है, उन वर्जवािसयों को भी वही फल देकर आप कैसे उऋण हो सकते
हंै। सिच्चदानंदस्वरूप श्यामसुन्दर ! तभी तक राग-द्वेष आिद दोष चोरों के समान सवर्स्व अपहरण करते रहते हंै,
तभी तक घर और उसके सम्बन्धी कैद की तरह सम्बन्ध के बन्धनों मंे बाँध रखते हंै और तभी तक मोह पैर की
बेिड़यों की तरह जकड़े रखता है, जब तक जीव आपका नहीं हो जाता। पर्भो ! आप िवश्व के बखेड़े से सवर्था रिहत
है, िफर भी अपने शरणागत भक्तजनों को अनन्त आनंद िवतरण करने के िलए पृथ्वी पर अवतार लेकर िवश्व के
समान ही लीला-िवलास का िवस्तार करते हंै।
मेरे स्वामी ! बहुत कहने की आवश्यकता नहीं। जो लोग आपकी मिहमा जानते हंै, वे जानते रहंे; मेरे मन, वाणी
और शरीर तो आपकी मिहमा जानने मंे सवर्था असमथर् हंै। सिच्चदानंद – स्वरूप शर्ीकृष्ण ! आप सबके साक्षी हंै।
इसिलए आप सब कुछ जानते हंै। आप समस्त जगत के स्वामी है। यह सम्पूणर् पर्पंच आप मंे ही िस्थत है। आपसे
मंै और क्या कहँू? अब आप मुझे स्वीकार कीिजये। मुझे अपने लोक मंे जाने की आज्ञा दीिजए। सबके मन-पर्ाण को
अपनी रूप-माधुरी से आकिषर्त करने वाले श्यामसुन्दर ! आप यदुवंशरूपी कमल को िवकिसत करने वाले सूयर् हंै।
पर्भो ! पृथ्वी, देवता, बर्ाह्मण और पशुरूप समुदर् की अिभवृिद्ध करने वाले चंदर्मा भी आप ही हंै। आप पाखिण्डयों के
धमर्रूप राितर् का घोर अंधकार नष्ट करने के िलए सूयर् और चंदर्मा दोनों के ही समान हंै। पृथ्वी पर रहने वाले राक्षसों
के नष्ट करने वाले आप चंदर्मा, सूयर् आिद आिद समस्त देवताओं के भी परम पूजनीय हंै। भगवन् ! मंै अपने
जीवनभर, महाकल्पपयर्न्त आपको नमस्कार ही करता रहँू।'
(शर्ीमद् भागवतः 10.14.1-40)
अनुकर्म
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ

देवताओं द्वारा स्तुित


बर्ह्मािदक देवताओं द्वारा िवष्णु भगवान से असुरों का िवनाश तथा संतों की रक्षा हेतु पर्ाथर्ना िकये जाने पर
सवर्शिक्तमान भगवान शर्ीकृष्ण वसुदेव-देवकी के घर पुतर् के रूप मंे अवतीणर् हुए थे। एक िदन सनकािदकों, देवताओं
और पर्जापितयों के साथ बर्ह्माजी, भूतगणों के साथ सवर्ेश्वर महादेवजी, मरुदगणों के साथ देवराज इन्दर्, आिदत्यगण,
आठों वसु, अिश्वनी कुमार, ऋभु, अंिगरा के वंशज ऋिष, ग्यारह रूदर्, िवश्वेदेव, साध्यगण, गन्धवर्, अप्सराएँ, नाग,
िसद्ध, चारण, गुह्यक, ऋिष, िपतर, िवद्याधर और िकन्नर आिद देवता मनुष्य सा मनोहर वेष धारण करने वाले और
अपने श्यामसुन्दर िवगर्ह से सभी लोगों का मन अपनी ओर खींचकर रमा लेने वाले भगवान शर्ीकृष्ण के दशर्न करने
द्वािरकापुरी मंे आते हंै तब वे पर्भु शर्ीकृष्ण की इस पर्कार से स्तुित करते हंै-
'स्वामी ! कमोर्ं के िवकट फंदों से छूटने की इच्छावाले मुमुक्षुजन भिक्तभाव से अपने हृदय मंे िजन चरणकमलों का
िचंतन करते रहते हंै। आपके उन्हीं चरणकमलों को हम लोगों ने अपनी बुिद्ध, इिन्दर्य, पर्ाण, मन और वाणी से
साक्षात् नमस्कार िकया है। अहो ! आश्चयर् है ! अिजत ! आप माियक रज आिद गुणों मंे िस्थत होकर इस अिचन्त्य
नाम-रूपात्मक पर्पंच की ितर्गुणमयी माया के द्वारा अपने-आप मंे ही रचना करते हंै, पालन करते और संहार करते हंै।
यह सब करते हुए भी इन कमोर्ं से से आप िलप्त नहीं होते हं;ै क्योंिक आप राग द्वेषािद दोषों से सवर्था मुक्त हंै और
अपने िनरावरण अखण्ड स्वरूपभूत परमानन्द मंे मग्न रहते हंै। स्तुित करने योग्य परमात्मन् ! िजन मनुष्यों की
िचत्तवृित्त राग-द्वेषािद से कलुिषत है, वे उपासना, वेदाध्यान, दान, तपस्या और यज्ञ आिद कमर् भले ही करंे, परंतु
उनकी वैसी शुिद्ध नहीं हो सकती, जैसी शर्वण के द्वारा संपुष्ट शुद्धान्तःकरण सज्जन पुरुषों की आपकी लीलाकथा,
कीितर् के िवषय मंे िदनोंिदन बढ़कर पिरपूणर् होने वाली शर्द्धा से होती है। मननशील मुमुक्षुजन मोक्षपर्ािप्त के िलए
अपने पर्ेम से िपघले हुए हृदय क द्वारा िजन्हंे िलये-िलये िफरते हंै, पांचरातर् िविध से उपासना करने वाले भक्तजन
समान ऐश्वयर् की पर्ािप्त के िलए वासुदेव, संकषर्ण, पर्द्युम्न और अिनरुद्ध – इस चतुव्यर्ूह के रूप मंे िजनका पूजन करते
हंै और िजतेिन्दर्य और धीर पुरुष स्वगर्लोक का अितकर्मण करके भगवद्धाम की पर्ािप्त के िलए तीनों वेदों के द्वारा
बतलायी हुई िविध से अपने संयत हाथों मंे हिवष्य लेकर यज्ञकुण्ड मंे आहुित देते और उन्हीं का िचंतन करते हंै।
आपकी आत्मस्वरूिपणी माया के िजज्ञासु योगीजन हृदय के अन्तदर्ेश मंे दहरिवद्या आिद के द्वारा आपके चरणकमलों
का ही ध्यान करते हंै और आपके बड़े-बड़े पर्ेमी भक्तजन उन्हीं को अपनी परम इष्ट आराध्यदेव मानते हंै। पर्भो !
आपके वे ही चरणकमल हमारी समस्त अशुभ वासनाओं, िवषय-वासनाओं को भस्म करने के िलए अिग्नस्वरूप हों।
वे हमारे पाप-तापों को अिग्न के समान भस्म कर दंे। पर्भो ! यह भगवती लक्ष्मी आपके वक्षःस्थल पर मुरझायी हुई
बासी वनमाला से भी सौत की तरह स्पधार् रखती हंै। िफर भी आप उनकी परवाह न कर भक्तों के द्वारा इस बासी
माला से की हुई पूजा भी पर्ेम से स्वीकार करते हंै; ऐसे भक्तवत्सल पर्भु के चरणकमल सवर्दा हमारी िवषय-वासनाओं
को जलाने वाले अिग्नस्वरूप हों। अनन्त ! वामनावतार मंे दैत्य राज बिल की दी हुई पृथ्वी को नापने के िलए जब
आपने पग उठाया था और वह सत्यलोक मंे पहँुच गया था, तब यह ऐसा जान पड़ता था मानों, कोई बहुत बड़ा
िवजयध्वज हो। बर्ह्माजी द्वारा चरण पखारने के बाद उससे िगरती हुई गंगाजी के जल की तीन धाराएँ ऐसी जान
पड़ती थीं मानों, ध्वज मंे लगी हुई तीन पताकाएँ फहरा नहीं हों। उन्हंे देखकर असुरों की सेना भयभीत हो गयी थी
और देवसेना िनभर्य। आपका यह चरणकमल साधुस्वभाव के पुरुषों के िलए आपके धाम वैकुण्ठलोक की पर्ािप्त का
और दुष्टों के िलए अधोगित का कारण है। भगवन् ! आपका वही पादपद्म हम भजन करने वालों के सारे पाप-ताप
धो-बहा दे। बर्ह्मा आिद िजतने भी शरीरधारी हंै, वे सत्व, रज, तम – इन तीनों अनुकर्म गुणों के परस्पर िवरोधी
ितर्िवध भावों की टक्कर से जीते-मरते रहते हंै। वे सुख-दुःख के थपेड़ों से बाहर नहीं हंै और ठीक वैसे ही आपके वश
मंे हंै, जैसे नथे हुए बैल अपने स्वामी के वश मंे होते हंै। आप उनके िलए भी कालस्वरूप हंै। उनके जीवन का
आिद, मध्य और अंत आपके ही अधीन है। इतना ही नहीं, आप पर्कृित और पुरुष से भी परे स्वयं पुरुषोत्तम हंै।
आपके चरणकमल हम लोगों का कल्याण करंे।
पर्भो ! आप इस जगत की उत्पित्त, िस्थित और पर्लय के परम कारण हंै; क्योंिक शास्तर्ों ने ऐसा कहा है िक आप
पर्कृित, पुरुष और महत्तत्व के भी िनयंतर्ण करने वाले काल हंै। शीत, गर्ीष्म और वषार्कालरूप तीन नािभयों वाले
संवत्सर के रूप मंे सबको क्षय की ओर ले जाने वाले काल आप ही हंै। आपकी गित अबाध और गम्भीर है। आप
स्वयं पुरुषोत्तम हंै। यह पुरुष आपसे शिक्त पर्ाप्त करके अमोघवीयर् हो जाता है और िफर माया के साथ संयुक्त होकर
िवश्व के महत्तत्वरूप गभर् का स्थापन करता है। इसके बाद वह महत्तत्व ितर्गुणमयी माया का अनुसरण करके पृथ्वी,
जल, तेज, वायु, आकाश, अहंकार और मनरूप सात आवरणों (परतों) वाले इस सुवणर् वणर् बर्ह्माण्ड की रचना करता
है। इसिलए हृिषकेश ! आप समस्त चराचर जगत के अधीश्वर हंै। यही कारण है िक माया की गुण-िवषमता के
कारण बनने वाले िविभन्न पदाथोर्ं का उपभोग करते हुए भी आप उनमंे िलप्त नहीं होते। यह केवल आपकी ही बात
है। आपके अितिरक्त दूसरे तो स्वयं उनका त्याग करके भी उन िवषयों से डरते रहते हंै। सोलह हजार से अिधक
रािनयाँ आपके साथ रहती हंै। वे सब अपनी मंद-मंद मुस्कान और ितरछी िचतवन युक्त मनोहर भौंहों के इशारे से
और सुर-ताल-आलापों से पर्ौढ़ सम्मोहक कामबाण चलाती हंै और कामकला की िविवध रीितयों से आपका मन
आकिषर्त करना चाहती हं;ै परंतु िफर भी वे अपने पिरपुष्ट कामबाणों से आपका मन तिनक भी न िडगा सकीं, वे
असफल ही रहीं।
िवभ्व्यस्तवामृतकथोदवहािस्तर्लोक्याः पादावनेजसिरतः शमलािन हन्तुम्।
आनुशर्वं शर्ुितिभरंिघर्जमंगसंगैस्तीथर्द्वयं शुिचषदस्त उपस्पृशिन्त।।
आपने ितर्लोकी की पापरािश को धो बहाने के िलए दो पर्कार की पिवतर् निदयाँ बहा रखी हंै – एक तो आपकी
अमृतमयी लीला से भरी कथा-नदी और दूसरी आपके पाद-पर्क्षालन के जल से भरी गंगाजी। अतः सत्संगसेवी
िववेकीजन कानों के द्वारा आपकी कथा-नदी मंे और शरीर के द्वारा गंगाजी मंे गोता लगाकर दोनों ही तीथोर्ं का सेवन
करते हंै और अपने पाप िमटा देते हंै।'
(शर्ीमद् भागवतः 11.6.7-11)
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धर्ुव द्वारा स्तुित


धर्ुव को अपने िपता उत्तानपाद की गोद मंे बैठने का यत्न करते हुए देख कर्ोिधत हुई सुरुिच ने जब धर्ुव से ये वचन
कहे 'यिद तुझे राजिसंहासन की इच्छा है तो तपस्या करके परम-पुरुष अनुकर्म शर्ीनारायण की आराधना कर और
उनकी कृपा से मेरे गभर् मंे आकर जन्म ले।' तब बालक धर्ुव माता सुनीित के यह समझाने पर िक 'जन्म-मृत्यु के
चकर् से छूटने की इच्छा करने वाले मुमुक्षु लोग िनरंतर पर्भु के चरणकमलों के मागर् की खोज िकया करते हंै। तू
स्वधमर्पालन से पिवतर् हुए अपने िचत्त मंे शर्ीपुरुषोत्तम भगवान को िबठा ले तथा अन्य सबका िचन्तन छोड़कर केवल
उन्हीं का भजन कर। धर्ुव पर्भुपर्ािप्त के िलए घर से िनकल पड़ते हंै। रास्ते मंे देविषर् नारद के िमलने पर वे उनसे
'पर्भु की पर्ािप्त कैसे हो?', 'पर्भु का ध्यान कैसे करूँ?' इस पर्कार के पर्श्न पूछते हंै। नारदजी पहले तो उनकी पर्भुभिक्त
के पर्ित दृढ़ता, तत्परता एवं पिरपक्वता की परीक्षा लेते हंै। तदुपरान्त दया के सागर, सवार्धार भगवान शर्ीकृष्ण के
सलोने, साँवले स्वरूप का वणर्न कर द्वादशाक्षर मंतर् ॐ नमो भगवते वासुदेवाय का जप करने के िलए कहते हंै।
बालक धर्ुव नारदजी के उपदेशानुसार अपनी इिन्दर्यों को िवषयों से हटाकर एवं पर्ाणों को रोककर, एकागर् िचत्त व
अनन्य बुिद्ध से िवश्वात्मा शर्ीहिर के ध्यान मंे डूब जाते हंै परंतु िजस समय उन्होंने महदािद सम्पूणर् तत्वों के आधार
तथा पर्कृित और पुरुष के भी अधीश्वर परबर्ह्म की धारणा की, उस समय तीनों लोक उनके तेज को न सह सकने के
कारण काँप उठे। तीवर् योगाभ्यास से एकागर् हुई बुिद्ध के द्वारा भगवान की िबजली के समान देदीप्यमान िजस मूितर्
का वे अपने हृदयकमल मंे ध्यान कर रहे थे, वह सहसा िवलीन हो गयी। इससे घबराकर उन्होंने ज्यों ही नेतर् खोले
िक भगवान के उसी रूप को बाहर अपने सामने खड़ा पाया।
पर्भु के दशर्न पाकर बालक धर्ुव को कुतूहल हुआ, वे पर्ेम मंे अधीर हो गये। उन्होंने पृथ्वी पर दण्ड के समान
लोटकर उन्हंे पर्णाम िकया। िफर वे इस पर्कार पर्ेमभरी दृिष्ट से उनकी ओर देखने लगे मानों, नेतर्ों से उन्हंे पी
जायंेगे, मुख से चूम लंेगे और भुजाओं मंे कस लंेगे।
वे हाथ जोड़े पर्भु के सामने खड़े थे और उनकी स्तुित करना चाहते थे, परंतु स्तुित िकस पर्कार करंे यह नहीं जानते
थे। सवार्न्तयार्मी हिर उनके मन की बात जान गये। उन्होंने कृपापूवर्क अपने वेदमय शंख को उनके गाल से छुआ
िदया। शंख का स्पशर् होते ही धर्ुव को वेदमयी िदव्य वाणी पर्ाप्त हो गयी और जीव तथा बर्ह्मा के स्वरूप का भी
िनश्चय हो गया। वे अत्यंत भिक्तभाव से धैयर्पूवर्क िवश्विवख्यात कीितर्मान शर्ीहिर की स्तुित करने लगेः
'पर्भो ! आप सवर्शिक्तसम्पन्न हंै। आप ही मेरे अंतःकरण मंे पर्वेश कर अपने तेज से मेरी इस सोयी हुई वाणी को
सजीव करते हंै तथा हाथ, पैर, कान और त्वचा आिद अन्यान्य इिन्दर्यों एवं पर्ाणों को भी चेतनता देते हंै। मंै आप
अंतयार्मी भगवान को पर्णाम करता हँू।
भगवन् ! आप एक ही हंै, परंतु अपनी अनंत गुणमयी मायाशिक्त से इस महदािद सम्पूणर् पर्पंच को रचकर
अंतयार्मीरूप से उसमंे पर्वेश कर जाते हंै और िफर इसके इिन्दर्यािद असत् गुणों मंे उनके अिधष्ठातृ-देवताओं के रूप
मंे िस्थत होकर अनेक रूप भासते हंै, ठीक वैसे ही जैसे तरह-तरह की लकिड़यों मंे पर्कट हुई आग अपनी उपािधयों
के अनुसार िभन्न-िभन्न रूपों मंे भासती है। अनुकर्म नाथ ! सृिष्ट के आरम्भ मंे बर्ह्माजी ने भी आपकी शरण लेकर
आपके िदए हुए ज्ञान के पर्भाव से ही इस जगत को सोकर उठे हुए पुरुष के समान देखा था। दीनबंधो ! उन्हीं
आपके चरणतल का मुक्त पुरुष भी आशर्य लेते हंै, कोई भी कृतज्ञ पुरुष उन्हंे कैसे भूल सकता है?
पर्भो ! इन शवतुल्य शरीरों के द्वारा भोगा जाने वाला, इिन्दर्य और िवषयों के संसगर् से उत्पन्न सुख तो मनुष्यों को
नरक मंे भी िमल सकता है। जो लोग इस िवषय सुख के िलए लालाियत रहते हंै और जो जन्म मरण के बंधन से
छुड़ा देने वाले कल्पतरूस्वरूप आपकी उपासना भगवत्पर्ािप्त के िसवाय िकसी अन्य उद्देश्य से करते हंै, उनकी वृिद्ध
अवश्य ही आपकी माया के द्वारा ठगी गयी है। नाथ ! आपके चरणकमलों का ध्यान करने से और आपके भक्तों के
पिवतर् चिरतर् सुनने से पर्ािणयों को जो आनन्द पर्ाप्त होता है, वह िनजानंदस्वरूप बर्ह्म मंे भी नहीं िमल सकता। िफर
िजन्हंे काल की तलवार काट डालती है, उन स्वगीर्य िवमानों से िगरने वाले पुरुषों को तो वह सुख िमल ही कैसे
सकता है।
भिक्तं मुहुः पर्वहतां त्विय मे पर्संगो भूयादनन्त महताममलाशयानाम्।
येनांजसोल्बणमुरुव्यसनं भवािब्धं नेष्ये भवद् गुणकथामृतपानमत्तः।।
अनन्त परमात्मन् ! मुझे तो आप उन िवशुद्ध हृदय महात्मा भक्तों का संग दीिजए, िजनका आप मंे अिविच्छन्न
भिक्तभाव है, उनके संग मंे मंै आपके गुणों और लीलाओं की कथा-सुधा को पी-पीकर उन्मत्त हो जाऊँगा और सहज
ही इस अनेक पर्कार के दुःखों से पूणर् भयंकर संसार-सागर के उस पार पहँुच जाऊँगा।
(शर्ीमद् भागवतः 4.9.11)
कमलनाथ पर्भो ! िजनका िचत्त आपके चरणकमल की सुगंध से लुभाया हुआ है, उन महानुभावों का जो लोग संग
करते हंै वे अपने इस अत्यंत िपर्य शरीर और इसके सम्बन्धी पुतर्, िमतर्, गृह और स्तर्ी आिद की सुध भी नहीं लेते।
अजन्मा परमेश्वर ! मंै तो पशु, वृक्ष, पवर्त, पक्षी, सरीसृप (सपार्िद रंेगने वाले जंतु), देवता, दैत्य और मनुष्य आिद
से पिरपूणर् तथा महदािद अनेकों कारणों से सम्पािदत आपके इस सदसदात्मक स्थूल िवश्वरूप को ही जानता हँू;
इससे परे जो आपका परम स्वरूप है, िजसमंे वाणी की गित नहीं है उसका मुझे पता नहीं है।
भगवन् ! कल्प का अंत होने पर योगिनदर्ा मंे िस्थत जो परम पुरुष इस सम्पूणर् िवश्व को अपने उदर मंे लीन करके
शेषजी के साथ उन्हीं की गोद मंे शयन करते हंै तथा िजनके नािभ-समुदर् से पर्कट हुए सवर्लोकमय सुवणर् वणर् कमल
से परम तेजोमय बर्ह्माजी उत्पन्न हुए, वे भगवान आप ही हंै, मंै आपको पर्णाम करता हँू।
पर्भो ! आप अपनी अखण्ड िचन्मयी दृिष्ट से बुिद्ध की सभी अवस्थाओं के साक्षी हंै तथा िनत्यमुक्त, शुद्धसत्त्वमय,
सवर्ज्ञ, परमात्मस्वरूप, िनिवर्कार, आिदपुरुष, षडैश्वयर्-सम्पन्न एवं तीनों गुणों के अधीश्वर हंै। आप जीव से सवर्था
िभन्न हंै तथा संसार की िस्थित के िलए यज्ञािधष्ठाता िवष्णुरूप से िवराजमान हंै। अनुकर्म
आपसे ही िवद्या-अिवद्या आिद िवरुद्ध गितयोंवाली अनेकों शिक्तयाँ धारावािहक रूप से िनरंतर पर्कट होती रहती हंै।
आप जगत के कारण, अखण्ड, अनािद, अनन्त, आनंदमय िनिवर्कार बर्ह्मस्वरूप हंै। मंै आपकी शरण हँू। भगवन् !
आप परमानंदमूितर् हंै, जो लोग ऐसा समझकर िनष्कामभाव से आपका िनरन्तर भजन करते हंै, उनके िलए राज्यािद
भोगों की अपेक्षा आपके चरणकमलों की पर्ािप्त ही भजन का सच्चा फल है। स्वािमन् ! यद्यिप बात ऐसी ही है तो भी
जैसे गौ अपने तुरंत के जन्मे हुए बछड़े को दूध िपलाती है और व्याघर्ािद से बचाती रहती हंै, उसी पर्कार आप भी
भक्तों पर कृपा करने के िलए िनरंतर िवकल रहने के कारण हम जैसे सकाम जीवों की भी कामना पूणर् करके उनकी
संसार-भय से रक्षा करते रहते हंै।'
(शर्ीमद् भागवतः 4.9.6-17)
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महाराज पृथु द्वारा स्तुित


जब राजा पृथु सौवां अश्वमेध यज्ञ कर रहे थे, तब इन्दर् ने ईष्यार्वश उनके यज्ञ का घोड़ा हर िलया। इन्दर् की इस
कुचाल का पता लगने पर महाराज पृथु इन्दर् का वध करने के िलए तैयार हो गये परंतु ऋित्वजों ने उन्हंे रोक िदया
और इन्दर् को अिग्न मंे हवन करने का वचन िदया।
याजक कर्ोधपूवर्क इन्दर् का आवाहन कर स्तर्ुवा द्वारा आहुित डालना ही चाहते थे िक बर्ह्माजी ने पर्कट होकर उन्हंे रोक
िदया और कहा िक महाराज पृथु के िनन्यानवंे ही यज्ञ रहने दो। पृथु के िनन्यानवंे यज्ञों से यज्ञभोक्ता यज्ञेश्वर
भगवान िवष्णुजी संतुष्ट हुए और पर्कट होकर राजा से इन्दर् को क्षमा करने के िलए कहा। इन्दर् अपने कमर् से
लिज्जत होकर राजा पृथु के चरणों मंे िगरना ही चाहते थे िक राजा ने उन्हंे पर्ेमपूवर्क हृदय से लगा िलया।
िफर महाराज पृथु ने िवश्वात्मा, भक्तवत्सल भगवान का पूजन िकया और क्षण-क्षण मंे उमड़ते हुए भिक्तभाव मंे
िनमग्न होकर पर्भु के चरणकमल पकड़ िलए। शर्ी हिर वहाँ से जाना चाहते थे िकंतु पृथु के पर्ित जो उनका
वात्सल्यभाव था उसने उन्हंे रोक िलया। महाराज पृथु बी नेतर्ों मंे जल भर आने के कारण न तो भगवान का दशर्न
ही कर सके और न कण्ठ गदगद हो जाने के कारण कुछ बोल ही सके। उन्हंे हृदय से आिलंगन कर पकड़े रहे और
हाथ जोड़े ज्यों-के-त्यों खड़े रह गये। िफर महाराज पृथु नेतर्ों के आँसू पोंछकर अतृप्त दृिष्ट से उनकी ओर देखते हुए
इस पर्कार स्तुित करने लगेः
'मोक्षपित पर्भो ! आप वर देने वाले बर्ह्मािद देवताओं को भी वर देने मंे समथर् हंै। कोई भी बुिद्धमान पुरुष आपसे
देहािभमािनयों के भोगने योग्य िवषयों को कैसे माँग सकता है? वे तो नारकीय जीवों को भी िमलते हंै। अतः मंै इन
तुच्छ िवषयों को आपसे नहीं माँगता। अनुकर्म
न कामये नाथ तदप्यहं क्विचन् न यतर् युष्मच्चरणाम्बुजासवः।
महत्तमान्तहर्ृदयान्मुखच्युतो िवधत्स्व कणार्युतमेष मे वरः।।
स उत्तमश्लोक महन्मुखच्युतो भवत्पदाम्भोजसुधाकणािनलः।
स्मृितं पुनिवर्स्मृततत्त्वत्मर्नां कुयोिगनां नो िवतरत्यलं वरैः।।
मुझे तो उस मोक्षपद की भी इच्छा नहीं है िजसमंे महापुरुषों के हृदय से उनके मुख द्वारा िनकला हुआ आपके
चरणकमलों का मकरन्द नहीं है, जहाँ आपकी कीितर्-कथा सुनने का सुख नहीं िमलता। इसिलए मेरी तो यही पर्ाथर्ना
है िक आप मुझे दस हजार कान दे दीिजए, िजनसे मंै आपके लीलागुणों को सुनता ही रहँू। पुण्यकीितर् पर्भो ! आपके
चरणकमल-मकरन्दरूपी अमृतकणों को लेकर महापुरुषों के मुख से जो वायु िनकलती है, उसी मंे इतनी शिक्त होती है
िक वह तत्त्व को भूले हुए हम कुयोिगयों को पुनः तत्त्वज्ञान करा देती है। अतएव हमंे दूसरे वरों की कोई आवश्यकता
नहीं है।
(शर्ीमद् भागवतः 4.20.24.25)
उत्तम कीितर् वाले पर्भो ! सत्संग मंे आपके मंगलमय सुयश को दैववश एक बार भी सुन लेने पर कोई पशुबुिद्ध पुरुष
भले ही तृप्त हो जाये; गुणगर्ाही उसे कैसे छोड़ सकता है? सब पर्कार के पुरुषाथोर्ं की िसिद्ध के िलए स्वयं लक्ष्मी जी
भी आपके सुयश को सुनना चाहती हँू। अब लक्ष्मीजी के समान मंै भी अत्यन्त उत्सुकता से आप सवर्गुणधाम
पुरुषोत्तम की सेवा ही करना चाहता हँू। िकंतु ऐसा न हो िक एक ही पित की सेवा पर्ाप्त करने की होड़ होने के कारण
आपके चरणों मंे ही मन को एकागर् करने वाले हम दोनों मंे कलह िछड़ जाये।
जगदीश्वर ! जगज्जननी लक्ष्मी जी के हृदय मंे मेरे पर्ित िवरोधभाव होने की संभावना तो है ही; क्योंिक आपके िजस
सेवाकायर् मंे उनका अनुराग है, उसी के िलए मंै भी लालाियत हँू। िकंतु आप दीनों पर दया करते हंै, उनके तुच्छ
कमोर्ं को भी बहुत करके मानते हंै। इसिलए मुझे आशा है िक हमारे झगड़े मंे भी आप मेरा ही पक्ष लंेगे। आप तो
अपने स्वरूप मंे ही रमण करते हंै, आपको भला लक्ष्मीजी से भी क्या लेना है। इसी से िनष्काम महात्मा ज्ञान हो
जाने के बाद भी आपका भजन करते हंै। आप माया के कायर् अहंकारािद का सवर्था अभाव है। भगवन् ! मुझे तो
आपके चरणकमलों का िनरंतर िचंतन करने से िसवा सत्पुरुषों का कोई और पर्योजन ही नहीं जान पड़ता। मंै भी
िबना िकसी इच्छा के आपका भजन करता हँू। आपने जो मुझसे कहा िक 'वर माँग' सो आपकी इस वाणी को तो मंै
संसार की मोह मंे डालने वाली ही मानता हँू। यही क्या, आपकी वेदरूपा वाणी ने भी तो जगत को बाँध रखा है।
यिद उस वेदवाणीरूप रस्सी से लोग बँधे न होते तो वे मोहवश सकाम कमर् क्यों करते? पर्भो ! आपकी माया से ही
मनुष्य अपने वास्तिवक स्वरूप आपसे िवमुख होकर अज्ञानवश अन्य स्तर्ी-पुतर्ािद की इच्छा करता है। िफर भी िजस
पर्कार िपता पुतर् की पर्ाथर्ना की अपेक्षा न रखकर अपने-आप ही पुतर् का कल्याण करता है, उसी पर्कार आप भी
हमारी इच्छा की अपेक्षा न करके हमारे िहत के िलए स्वयं ही पर्यत्न करंे।' अनुकर्म
(शर्ीमद् भागवतः 4.20.23-31)

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रूदर् द्वारा स्तुित


राजा पृथु के पर्पौतर् पर्ाचीनबिहर् ने बर्ह्माजी के कहने से समुदर् की कन्या शतदर्ुित से िववाह िकया था। शतदर्ुित के गभर्
से पर्ाचीनबिहर् के पर्चेता नाम के दस पुतर् हुए। वे सब बड़े ही धमर्ज्ञ तथा एक से नाम और आचरणवाले थे। िपता
द्वारा सन्तानोत्पित्त का आदेश िदये जाने पर वे सब तपस्या करते हुए शर्ीहिर की आराधना की। घर से तपस्या करने
के िलए जाते समय मागर् मंे शर्ी महादेवजी ने उन्हंे दशर्न देकर कृपापूवर्क उपदेश िदया और स्तोतर् सुनाया। वह
नारायण-परायण करूणादर्र्हृदय भगवान रूदर् द्वारा की गयी शर्ीहिर की पिवतर्, मंगलमयी एवं कल्याणकारी स्तुित इस
पर्कार से हैः
'भगवन् ! आपका उत्कषर् उच्चकोिट के आत्मज्ञािनयों के कल्याण के िलए, िनजानन्द लाभ के िलए है, उससे मेरा
भी कल्याण हो। आप सवर्दा अपने िनरितशय परमानंद-स्वरूप मंे ही िस्थत रहते हंै, ऐसे सवार्त्मक आत्मस्वरूप
आपको नमस्कार है। आप पद्मनाभ (समस्त लोकों के आिदकारण) हं;ै भूतसूक्ष्म (तन्मातर्) और इिन्दर्यों के िनयंता,
शांत, एकरस और स्वयंपर्काश वासुदेव (िचत्त के अिधष्ठाता) भी आप ही हं;ै आपको नमस्कार है। आप ही सूक्ष्म
(अव्यक्त), अनन्त और मुखािग्न के द्वारा सम्पूणर् लोकों का संहार करने वाले अहंकार के अिधष्ठाता संकषर्ण तथा
जगत के पर्वृष्ट ज्ञान के उदगमस्थान बुिद्ध के अिधष्ठाता पर्द्युम्न हंै, आपको नमस्कार है। आप ही इिन्दर्यों के स्वामी,
मनस्तत्त्व के अिधष्ठाता भगवान अिनरुद्ध हंै; आपको बार-बार नमस्कार है। आप अपने तेज से जगत को व्याप्त करने
वाले सूयर्देव हंै, पूणर् होने के कारण आपमंे वृिद्ध और क्षय नहीं होता; आपको नमस्कार है। आप स्वगर् और मोक्ष के
द्वार तथा िनरंतर पिवतर् हृदय मंे रहने वाले हंै, आपको नमस्कार है। आप ही सुवणर्रूप वीयर् से युक्त और चातुहोर्तर्
कमर् के साधन तथा िवस्तार करने वाले अिग्नदेव हंै; आपको नमस्कार है। आप िपतर और देवताओं के पोषक सोम
हंै तथा तीनों वेदों के अिधष्ठाता हंै; हम आपको नमस्कार करते हंै। आप ही समस्त पर्ािणयों को तृप्त करने वाले
सवर्रस (जल) रूप हंै; आपको नमस्कार है। आप समस्त पर्ािणयों के देह, पृथ्वी और िवराटस्वरूप हंै तथा ितर्लोकी की
रक्षा करने वाले मानिसक, ऐंिदर्य और शारीिरक गुण शब्द के द्वारा समस्त पदाथोर्ं का ज्ञान कराने वाले तथा बाहर-
भीतर का भेद करने वाले आकाश हंै तथा आप ही महान पुण्यों से पर्ाप्त होने वाले परम तेजोमय स्वगर्-वैकुण्ठािद
लोक हंै; आपको पुनः-पुनः नमस्कार है। आप िपतृलोक की पर्ािप्त कराने वाले पर्वृित्त-कमर्रूप और देवलोक की पर्ािप्त के
साधन िनवृित्त-कमर्रूप हंै तथा आप ही अधमर् के फलस्वरूप दुःखदायक अनुकर्म मृत्यु हंै; आपको नमस्कार है। नाथ
! आप ही पुराणपुरुष तथा सांख्य और योग के अधीश्वर भगवान शर्ीकृष्ण हंै, आप सब पर्कार की कामनाओं की पूितर्
के कारण, साक्षात् मंतर्मूितर् और महान धमर्स्वरूप हंै; आपकी ज्ञानशिक्त िकसी भी पर्कार कुिण्ठत होने वाली नहीं है,
आपको नमस्कार है, नमस्कार है। आप ही कतार्, करण और कमर् इन तीनों शिक्तयों के एकमातर् आशर्य हंै; आप ही
अहंकार के अिधष्ठाता रूदर् हं;ै आप ही ज्ञान और िकर्यास्वरूप हंै तथा आपसे ही परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी
इन चार पर्कार की वािणओं की अिभव्यिक्त होती है; आपको नमस्कार है।
पर्भो ! हमंे आपके दशर्नों की अिभलाषा है, अतः आपके भक्तजन िजसका पूजन करते हंै और जो आपके िनज जनों
को अत्यंत िपर्य है अपने उस अनूप रूप की आप हमंे झाँकी कराइये। आपका वह रूप अपने गुणों से समस्त
इिन्दर्यों को तृप्त करने वाला है। वह वषार्कालीन मेघ के समान िस्नग्ध, श्याम और सम्पूणर् सौन्दयोर्ं का सार-सवर्स्व
है। सुन्दर चार िवशाल भुजाएँ महामनोहर मुखारिवन्द, कमल-दल के समान नेतर्, सुन्दर भौंहे सुघड़ नािसका,
मनमोिहनी दंतपंिक्त, अमोल कपोलयुक्त मनोहर शोभाशाली समान कणर्-युगल हंै। पर्ीितपूणर् उन्मुक्त हास्य ितरछी
िचतवन, काली-काली घँुघराली अलकंे, कमलकुसुम की समान फहराता हुआ पीताम्बर, िझलिमलाते हुए कुण्डल,
चमचमाते हुए मुकुट, कंगन (कंकण), हार, नूपुर और मेखला आिद िविचतर् आभूषण तथा शंख, चकर्, गदा, पद्म,
वनमाला और कौस्तुभ मिण के कारण उसकी अपूवर् शोभा है। उसके िसंह के समान स्थूल कंधे हंै, िजन पर हार,
केयूर एवं कुण्डलािद की कांित िझलिमलाती रहती है, तथा कौस्तुभ मिण की कांित से सुशोिभत मनोहर गर्ीवा है।
उसका श्यामल वक्षःस्थल शर्ीवत्स िचह्न के रूप मंे लक्ष्मी जी का िनत्य िनवास होने के कारण कसौटी की शोभा को
भी मात करता है। उसका ितर्वली से सुशोिभत पीपल के पत्ते के समान सुडौल उदर श्वास के आने-जाने से िहलता
हुआ बड़ा ही मनोहर जान पड़ता है। उसमंे जो भँवर के समान चक्करदार नािभ है, वह इतनी गहरी है िक उससे
उत्पन्न हुआ यह िवश्व मानों, िफर उसी मंे लीन होना चाहता है। श्याम वणर् किटभाग मंे पीताम्बर और सुवणर् की
मेखला शोभायमान है। समान और सुन्दर चरण, िपंडली, जाँघ और घुटनों के कारण आपका िदव्य िवगर्ह बड़ा ही
सुघड़ जान पड़ता है। आपके चरणकमलों की शोभा शरद् ऋतु के कमलदल की कांित का भी ितरस्कार करती है।
उनके नखों से जो पर्काश िनकलता है, वह जीवों के हृदयान्धकार को तत्काल नष्ट कर देता है। हमंे आप कृपा करके
भक्तों के भयहारी एवं आशर्यस्वरूप उसी रूप का दशर्न कराइये। जगदगुरो ! हम अज्ञानावृत पर्ािणयों को अपनी पर्ािप्त
का मागर् बतलानेवाले आप ही हमारे गुरु हंै। अनुकर्म
एतदर्ूपमनुध्येयमात्म शुिद्धमभीप्सताम्।
यद् भिक्तयोगोऽभयदः स्वधमर्नुितष्ठताम्।।
भवान् भिक्तमता लभ्यो दुलर्भः सवर्देिहनाम्।
स्वाराज्यस्याप्यिभमत एकान्तेनात्मिवदगितः।।
पर्भो ! िचत्तशुिद्ध की अिभलाषा रखने वाले पुरुष को आपके इस रूप का िनरंतर ध्यान करना चािहए, इसकी भिक्त ही
स्वधमर् का पालन करने वाले पुरुष को अभय करने वाली है। स्वगर् का शासन करने वाला इन्दर् भी आपको ही पाना
चाहता है तथा िवशुद्ध आत्मज्ञािनयों की गित भी आप ही हंै। इस पर्कार आप सभी देहधािरयों के िलए अत्यंत दुलर्भ
हंै; केवल भिक्तमान पुरुष ही आपको पा सकते हंै।
(शर्ीमद् भागवतः 4.24.53.54)
सत्पुरुषों के िलए भी दुलर्भ अनन्य भिक्त से भगवान को पर्सन्न करके, िजनकी पर्सन्नता िकसी अन्य साधना से
दुःसाध्य है, ऐसा कौन होगा जो उनके चरणतल के अितिरक्त और कुछ चाहेगा। जो काल अपने अदम्य उत्साह और
पराकर्म से फड़कती हुए भौंह के इशारे से सारे संसार का संहार कर डालता है, वह भी आपके चरणों की शरण मंे
गये हुए पर्ाणी पर अपना अिधकार नहीं मानता। ऐसे भगवान के पर्ेमी भक्तों का यिद आधे क्षण के िलए भी समागम
हो जाय तो उसके सामने मंै स्वगर् और मोक्ष को कुछ नहीं समझता; िफर मत्यर्लोक के तुच्छ भोगों की तो बात ही
क्या है। पर्भो ! आपके चरण सम्पूणर् पापरािश को हर लेने वाले हंै। हम तो केवल यही चाहते हंै िक िजन लोगों ने
आपकी कीितर् और तीथर् (गंगाजी) मंे आन्तिरक और बाह्य स्नान करके मानिसक और शारीिरक दोनों पर्कार के पापों
को धो डाला है तथा जो जीवों के पर्ित दया, राग-द्वेषरिहत िचत्त तथा सरलता आिद गुणों से युक्त हंै, उन आपके
भक्तजनों का संग हमंे सदा पर्ाप्त होता रहे। यही हम पर आपकी बड़ी कृपा होगी। िजस साधक का िचत्त भिक्तयोग से
अनुगृहीत एवं िवशुद्ध होकर न तो बाह्य िवषयों मंे भटकता है और न अज्ञान-गुहारूप पर्कृित मंे ही लीन होता है, वह
अनायास ही आपके स्वरूप का दशर्न पा जाता है। िजसमंे यह सारा जगत िदखायी देता है और जो स्वयं सम्पूणर्
जगत मंे भास रहा है, वह आकाश के समान िवस्तृत और परम पर्काशमय बर्ह्मतत्त्व आप ही हंै।
भगवान ! आपकी माया अनेक पर्कार के रूप धारण करती है। इसी के द्वारा आप इस पर्कार जगत की रचना, पालन
और संहार करते हंै जैसे यह कोई सद वस्तु हो। िकंतु इससे आपमंे िकसी पर्कार का िवकार नहीं आता। माया के
कारण दूसरे लोगों मंे ही भेदबुिद्ध उत्पन्न होती है, आप परमात्मा पर वह अपना पर्भाव डालने मंे असमथर् होती है।
आपको ते हम परम स्वतन्तर् ही समझते हंै। आपका स्वरूप पंचभूत, इिन्दर्य और अंतःकरण के पर्ेरक रूप से
उपलिक्षत होता है। जो कमर्योगी पुरुष िसिद्ध पर्ाप्त करने के िलए तरह-तरह के कमोर्ं द्वारा आपके इस सगुण,
साकारस्वरूप का शर्द्धापूवर्क भलीभाँित पूजन करते हंै, वे ही वेद और शास्तर्ों के सच्चे ममर्ज्ञ हंै। पर्भो ! आप ही
अिद्वतीय आिदपुरुष हंै। सृिष्ट के पूवर् आपकी मायाशिक्त सोयी रहती है। िफर उसी के द्वारा सत्त्व, रज और तमरूप
गुणों का भेद होता है और इसके बाद उन्हीं गुणों से महत्तत्त्व, अहंकार, आकाश, वायु, अिग्न, जल, पृथ्वी, देवता,
ऋिष और समस्त पर्ािणयों से युक्त इस जगत की उत्पित्त होती है। अनुकर्म
िफर आप अपनी मायाशिक्त से रचे हुए इन जरायुज, अण्डज, स्वेदज और उदिभज्ज भेद से चार पर्कार मधुमिक्खयाँ
अपने ही उत्पन्न िकये हुए मधु का आस्वादन करती हंै, उसी पर्कार वह आपका अंश उन शरीरों मंे रहकर इिन्दर्यों
के द्वारा इन तुच्छ िवषयों को भोगता है। आपके उस अंश को ही पुरुष या जीव कहते हंै।
पर्भो ! आपका तत्त्वज्ञान पर्त्यक्ष से नहीं, अनुमान से होता है। पर्लयकाल उपिस्थत होने पर कालस्वरूप आप ही
अपने पर्चण्ड एवं असह्य वेग से पृथ्वी आिद भूतों को अन्य भूतों से िवचिलत कराकर समस्त लोकों का संहार कर
देते हंै। जैसे वायु अपने असहनीय एवं पर्चण्ड झोंकों से मेघों के द्वारा ही मेघों को िततर-िबतर करके नष्ट कर डालती
है। भगवन् ! यह मोहगर्स्त जीव पर्मादवश हर समय इसी िचंता मंे रहता है िक 'अमुक कायर् करना है।' इसका लोभ
बढ़ गया है और इसे िवषयों की ही लालसा बनी रहती है। िकंतु आप सदा ही सजग रहते हंै; भूख से जीभ
लपलपाता हुआ सपर् जैसे चूहे को चट कर जाता है, उसी पर्कार आप अपने कालस्वरूप से उसे सहसा लील जाते हंै।
आपकी अवहेलना करने के कारण अपनी आयु को व्यथर् माननेवाला ऐसा कौन िवद्वान होगा, जो आपके चरणकमलों
को िबसारेगा? इनकी पूजा तो काल की आशंका से ही हमारे िपता बर्ह्माजी और स्वायम्भुव आिद चौदह मनुओं ने भी
िबना कोई िवचार िकये केवल शर्द्धा से ही की थी। बर्ह्मन ! इस पर्कार सारा जगत रूदर्रूप काल के भय से व्याकुल
है। अतः परमात्मन् ! इस तत्त्व को जानने वाले हम लोगों के तो इस समय आप ही सवर्था भयशून्य आशर्य हंै।'
(शर्ीमद् भागवतः 4.24.33-68)
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पर्ह्लाद द्वारा स्तुित


परमभक्त पर्ह्लाद के कर्ूर िपता िहरण्यकिशपु को नृिसंह भगवान ने अपने नखरूपी शस्तर्ों द्वारा िवदीणर् कर डाला परंतु
िफर भी उनका उगर् कोप शांत नहीं हो रहा था। देवताओं ने उन्हंे शांत करने के िलए लक्ष्मीजी से पर्ाथर्ना की िकंतु
वे भी भगवान के पास जाने से डर रही थी, तत्पश्चात् बर्ह्माजी ने भक्तराज पर्ह्लाद को भेजा। भक्त पर्ह्लाद
शरणागतवत्सल भगवान के पास जाकर हाथ जोड़ पृथ्वी पर साष्टांग लोट गये। नन्हंे-से बालक को अपने चरणों मंे
नतमस्तक देखकर पर्भु का उगर् कोप शांत हो गया। उन्होंने पर्ह्लाद को उठाकर जैसे ही अपना करकमल उनके िसर
पर रखा, भक्त पर्ह्लाद को परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार हो गया। उनके हृदय मंे पर्ेम की धारा पर्वािहत होने लगी और
नेतर्ों से आनंदाशर्ु झरने लगे। वे पर्भु के गुणों का िचन्तन करते हुए गदगद वाणी से भावपूवर्क शर्ीहिर की इस पर्कार
से स्तुित करने लगेः अनुकर्म
'बर्ह्मा आिद देवता, ऋिष-मुिन और िसद्धपुरुषों की बुिद्ध िनरन्तर सत्त्वगुण मंे ही िस्थत रहती है। िफर भी वे अपनी
धारापर्वाह स्तुित और अपने िविवध गुणों से आपको अब तक भी संतुष्ट नहीं कर सके, िफर मंै तो घोर असुर जाित
मंे उत्पन्न हुआ हँू। क्या आप मुझसे सन्तुष्ट हो सकते हंै?
मंै समझता हँू िक धन, कुलीनता, रूप, तप िवद्या, ओज, तेज, पर्भाव, बल, पौरूष, बुिद्ध और योग ये सभी गुण परम
पुरुष भगवान को संतुष्ट करने मंे समथर् नहीं हंै, परंतु भिक्त से तो भगवान गजेन्दर् पर भी संतुष्ट हो गये थे। मेरी
समझ से इन बारह गुणों से युक्त बर्ाह्मण भी यिद भगवान कमलनाभ के चरणकमलों से िवमुख हो तो उससे वह
चाण्डाल शर्ेष्ठ है, िजसने अपने, मन, वचन, कमर्, धन और पर्ाण भगवान के चरणों मंे समिपर्त कर रखे हंै, क्योंिक
वह चाण्डाल तो अपने कुल तक को पिवतर् कर देता और बड़प्पन का अिभमान रखनेवाला वह बर्ाह्मण अपने को भी
पिवतर् नहीं कर सकता। सवर्शिक्तमान पर्भु अपने स्वरूप के साक्षात्कार से ही पिरपूणर् हंै। उन्हंे अपने िलए क्षुदर् पुरुषों
से पूजा गर्हण करने की आवश्यकता नहीं है। वे करूणावश ही भोले भक्तों के िहत के िलए उनके द्वारा की हुई पूजा
स्वीकार कर लेते हंै। जैसे अपने मुख का सौन्दयर् दपर्ण मंे िदखनेवाले पर्ितिबम्ब को भी सुन्दर बना देता है, वैसे ही
भक्त भगवान के पर्ित जो-जो सम्मान पर्कट करता है, वह उसे ही पर्ाप्त होता है। इसिलए सवर्था अयोग्य और
अनिधकारी होने पर भी मंै िबना िकसी शंका के अपनी बुिद्ध के अनुसार सब पर्कार से भगवान की मिहमा का वणर्न
कर रहा हँू। इस मिहमा के गान का ही ऐसा पर्भाव है िक अिवद्यावश संसारचकर् मंे पड़ा हुआ जीव तत्काल पिवतर् हो
जाता है।
भगवन् ! आप सत्त्व गुण के आशर्य हंै। ये बर्ह्मा आिद सभी देवता आपके आज्ञाकारी भक्त हंै। ये हम दैत्यों की तरह
आपसे द्वेष नहीं करते। पर्भो ! आप बड़े-बड़े सुन्दर अवतार लेकर इस जगत के कल्याण एवं अभ्युदय के िलए तथा
उसे आत्मानंद की पर्ािप्त कराने के िलए अनेकों पर्कार की लीलाएँ करते हंै। िजस असुर को मारने के िलए आपने
कर्ोध िकया था, वह मारा जा चुका है। अब आप अपना कर्ोध शांत कीिजए। जैसे िबच्छू और साँप की मृत्यु से
सज्जन भी सुखी ही होते हंै, वैसे ही इस दैत्य संहार से सभी लोगों को बड़ा सुख िमला है। अब सब आपके शांत
स्वरूप के दशर्न की बाट जोह रहे हंै। नृिसंहदेव ! भय से मुक्त होने के िलए भक्तजन आपके इस रूप का स्मरण
करंेगे।
नाहं िबभेम्यिजत तेऽितभयानकास्यिजह्वाकर्नेतर्भर्ुकुटीरभसोगर्ंदष्टर्ात्।
आन्तर्सर्जः क्षतजकेसरशंकुकणार्िग्नह्लार्भीतिदिगभादिरिभन्नखागर्ात्।।
परमात्मन् ! आपका मुख बड़ा भयावना है। आपकी जीभ लपलपा रही है। आँखंे सूयर् के समान हंै। भौहंे चढ़ी हुई हंै।
दढ़ंे बड़ी पैनी हंै। आँतों की माला, गरदन के बाल खून से लथपथ, बछर्े की तरह सीधे खड़े कान और िदग्गजों को
भी भयभीत देने वाला िसंहनाद एवं शतर्ुओं को फाड़ डालने वाले आपके इन नखों को देखकर मंै तिनख भी भयभीत
नहीं हुआ हँू। अनुकर्म
(शर्ीमद् भागवतः 7.9.15)
दीनबन्धो ! मंै भयभीत हँू तो केवल इस असह्य और उगर् संसारचकर् मंे िपसने से। मंै अपने कमर्पाशों से बँधकर इन
भयंकर जंतुओं के बीच मंे डाल िदया गया हँू। मेरे स्वामी ! आप पर्सन्न होकर मुझे कब अपने उन चरणकमलों मंे
बुलायंेगे, जो समस्त जीवों की एकमातर् शरण और मोक्षस्वरूप हंै। अनन्त ! मंै िजन-िजन योिनयों मंे गया, उन सभी
योिनयों मंे िपर्य के िवयोग और अिपर्य क संयोग से होने वाले शोक की आग मंे झुलसता रहा। उन दुःखों को
िमटाने की जो दवा है, वह भी दुःखरूप ही है। मंै न जाने कब से अपने से अितिरक्त वस्तुओं को आत्मा समझकर
इधर-उधर भटक रहा हँू। अब आप ऐसा साधन बतलाइये िजससे िक आपकी सेवा-भिक्त पर्ाप्त कर सकँू। पर्भो ! आप
हमारे िपर्य हंै, अहेतुक िहतैषी सुहृद हंै। आप री वास्तव मंे सबके परमाराध्य हंै। मंै बर्ह्माजी के द्वारा गायी हुई आपकी
लीला-कथाओं का गान करता हुआ बड़ी सुगमता से रागािद पर्ाकृत गुणों से मुक्त होकर इस संसार की किठनाइयों को
पार कर जाऊँगा, क्योंिक आपके चरणयुगलों मंे रहने वाले भक्त परमहंस महात्माओं का संग तो मुझे िमलता ही
रहेगा। भगवान नृिसंह ! इस लोक मंे दुःखी जीवों का दुःख िमटाने के िलए जो उपाय माना जाता है, वह आपके
उपेक्षा करने पर एक क्षण के िलए ही होता है। यहाँ तक िक माँ-बाप बालक की रक्षा नहीं कर सकते, औषिध रोग
नहीं िमटा सकती और समुदर् मंे डूबते हुए को नौका नहीं बचा सकती।
यिस्मन्यतो यिहर् येन च यस्य यस्माद् यस्मै यथा यदुत यस्त्वपरः परो वा।
भावः करोित िवकरोित पृथक्स्वभावः संचोिदतस्तदिखलं भवतः स्वरूपम्।।
सत्त्वािद गुणों के कारण िभन्न-िभन्न स्वभाव के िजतने भी बर्ह्मािद शर्ेष्ठ और कालािद किनष्ठ कतार् हंै, उनको पर्ेिरत
करने वाले आप ही हंै। वे आपकी पर्ेरणा से िजस आधार मंे िस्थत होकर, िजस िनिमत्त से, िजन िमट्टी आिद
उपकरणों से, िजस समय, िजन साधनों के द्वारा, िजस अदृष्ट आिद की सहायता से, िजस पर्योजन के उद्देश्य से,
िजस िविध से, जो कुछ उत्पन्न करते हंै या रूपान्तिरत करते हंै, वे सब और वह सब आपका ही स्वरूप है।
(शर्ीमद् भागवतः 7.9.20)
पुरुष की अनुमित से काल के द्वारा गुणों मंे क्षोभ होने पर माया मनःपर्धान िलंगशरीर का िनमार्ण करती हंै। यह
िलंग शरीर बलवान, कमर्मय एवं अनेक नाम-रूपों मंे आसक्त छंदोमय है। यही अिवद्या के द्वारा किल्पत मन, दस
इिन्दर्य और पाँच तन्मातर्ा – इन सोलह िवकाररूप अरों से युक्त संसार चकर् मंे डालकर ईख के समान मुझे पेर रही
है। आप अपनी चैतन्यशिक्त से बुिद्ध के समस्त गुणों को सवर्दा परािजत रखते हंै और कालरूप से सम्पूणर् साध्य
और साधनों को अपने अधीन रखते हंै। मंै आपकी शरण मंे आया हँू, आप मुझे इनसे बचाकर अपनी सिन्निध मंे
खींच लीिजए। भगवन् ! िजनके िलए संसारी लोग बड़े लालाियत रहते हंै, स्वगर् मंे िमलनेवाली समस्त लोकपालों की
वह आयु, लक्ष्मी और ऐश्वयर् मंैने खूब देख िलए। िजस समय मेरे िपता अनुकर्म तिनक कर्ोध करके हँसते थे और
उससे उनकी भौंहंे थोड़ी टेढ़ी हो जाती थीं, तब उन स्वगर् की सम्पित्तयों के िलए कहीं िठकाना नहीं रह जाता था। वे
लुटती िफरती थीं िकंतु आपने मेरे उन िपता को भी मार डाला। इसिलए मंै बर्ह्मलोक तक की आयु, लक्ष्मी, ऐश्वयर्
और वे इिन्दर्यभोग, िजन्हंे संसार के पर्ाणी चाहा करते हंै, नहीं चाहता, क्योंिक मंै जानता हँू िक अत्यंत शिक्तशाली
काल का रूप धारण करके आपने उन्हंे गर्स रखा है। इसिलए मुझे आप अपने दासों की सिन्निध मंे ले चिलए।
िवषयभोग की बातंे सुनने मंे ही अच्छी लगती हंै, वास्तव मंे वे मृगतृष्णा के जल के समान िनतान्त असत्य हंै और
यह शरीर भी, िजससे वे भोग भोगे जाते हंै अगिणत रोगों का उदगम स्थान है। कहाँ वे िमथ्या िवषयभोग और कहाँ
यह रोगयुक्त शरीर ! इन दोनों की क्षणभंगुरता और असारता जानकर भी मनुष्य इनसे िवरक्त नहीं होता। वह
किठनाई से पर्ाप्त होने वाले भोग के नन्हंे-नन्हे मधुिबंदुओं से अपनी कामना की आग बुझाने की चेष्टा करता है। पर्भो
! कहाँ तो इस तमोगुणी असुरवंश मंे रजोगुण से उत्पन्न हुआ मंै और कहाँ आपकी अनन्त कृपा ! धन्य है ! आपने
अपना परम पर्सादस्वरूप और सकल सन्तापहारी वह करकमल मेरे िसर पर रखा है, िजसे आपने बर्ह्मा, शंकर और
लक्ष्मीजी के िसर पर भी कभी नहीं रखा। दूसरे संसारी जीवों के समान आपमंे छोटे-बड़े का भेदभाव नहीं है क्योंिक
आप सबके आत्मा और अकारण पर्ेमी हंै। िफर भी कल्पवृक्ष के समान आपका कृपा-पर्साद भी सेवन-भजन से ही
पर्ाप्त होता है। सेवा के अनुसार ही जीवों पर आपकी कृपा का उदय होता है, उसमंे जाितगत उच्चता या नीचता
कारण नहीं है। भगवन् ! यह संसार एक ऐसा अँधेरा कुआँ है, िजसमंे कालरूपी सपर् डँसने के िलए सदा तैयार रहता
है। िवषयभोगों की इच्छावाले पुरुष उसी मंे िगरे हुए हंै। मंै भी संगवश उनके पीछे उसी मंे िगरने जा रहा था परंतु
भगवन् ! देविषर् नारद ने मुझे अपनाकर बचा िलया। तब भला, मंै आपके भक्तजनों की सेवा कैसे छोड़ा सकता हँू।
अनन्त ! िजस समय मेरे िपता ने अन्याय करने के िलए कमर कसकर हाथ मंे खड्ग ले िलया और कहने लगे िक
'यिद मेरे िसवा कोई और ईश्वर है तो तुझे बचा ले, मंै तेरा िसर काटता हँू' उस समय आपने मेरे पर्ाणों की रक्षा की
और मेरे िपता का वध िकया। मंै तो समझता हँू िक आपने-अपने पर्ेमी भक्त सनकािद ऋिषयों का वचन सत्य करने
के िलए ही वैसा िकया था।
भगवन् ! यह सम्पूणर् जगत एकमातर् आप ही हंै क्योंिक इसके आिद मंे आप ही कारणरूप से थे, अंत मंे आप ही
अविध के रूप मंे रहंेगे और बीच मंे इसकी पर्तीित के रूप मंे भी केवल आप ही हंै। आप अपनी माया से गुणों के
पिरणामस्वरूप इस जगत की सृिष्ट करके इसमंे पहले से िवद्यमान रहने पर भी पर्वेश की लीला करते हंै और उन
गुणों से युक्त होकर अनेक मालूम पड़ रहे हंै। भगवान ! यह जो कुछ कायर्-कारण के रूप मंे पर्तीत हो रहा है, वह
सब आप ही हंै और इससे िभन्न भी आप ही हंै। अपने-पराये का भेदभाव तो अथर्हीन शब्दों की माया है, क्योंिक
िजससे िजसका जन्म, िस्थित, लय और पर्काश होता है, वह उसका स्वरूप ही होता है। जैसे, बीज और वृक्ष कारण
और कायर् की दृिष्ट से िभन्न-िभन्न हंै, तो भी गंध-तन्मातर् की दृिष्ट से दोनों एक ही हंै। अनुकर्म
भगवन् ! आप इस सम्पूणर् िवश्व को स्वयं ही अपने मंे समेटकर आत्मसुख का अनुभव करते हुए िनिष्कर्य होकर
पर्लयकालीन जल मंे शयन करते हंै। उस समय अपने स्वयंिसद्ध योग के द्वारा बाह्य दृिष्ट को बंद कर आप अपने
स्वरूप के पर्काश मंे िनदर्ा को िवलीन कर लेते हंै और तुरीय बर्ह्मपद मंे िस्थत रहते हंै। उस समय आप न तो
तमोगुण से ही युक्त होते और न तो िवषयों को ही स्वीकार करते हंै। आप अपनी कालशिक्त से पर्कृित के गुणों को
पर्ेिरत करते हंै, इसिलए यह बर्ह्माण्ड आपका ही शरीर है। पहले यह आपमंे ही लीन था। जब पर्लयकालीन जल के
भीतर शेषशय्या पर शयन करने वाले आपने योगिनदर्ा की समािध त्याग दी, तब वट के बीज िवशाल वृक्ष के समान
आपकी नािभ से बर्ह्माण्ड कमल उत्पन्न हुआ। उस पर सूक्ष्मदशीर् बर्ह्माजी पर्कट हुए। जब उन्हंे कमल के िसवा और
कुछ भी िदखायी न पड़ा, तब वह अपने बीजरूप से व्याप्त आपको वे न जान सके और आपको अपने से बाहर
समझकर जल के भीतर घुसकर सौ वषर् तक ढँूढते रहे। परंतु वहाँ उन्हंे कुछ नहीं िमला। यह ठीक ही है, क्योंिक
अंकुर उग आने पर उसमंे व्याप्त बीज को कोई बाहर अलग कैसे देख सकता है। बर्ह्माजी को बड़ा आश्चयर् हुआ। वे
हार कर कमल पर बैठ गये। बहुत समय बीतने पर जब उनका हृदय शुद्ध हो गया, तब उन्हंे भूत, इिन्दर्य और
अंतःकरण रूप अपने शरीर मंे ही ओतपर्ोत रूप से िस्थत आपके सूक्ष्मरूप का साक्षात्कार हुआ। ठीक वैसे ही जैसे
पृथ्वी मंे व्याप्त उसकी सूक्ष्म तन्मातर्ा गन्ध का होता है।
िवराट पुरुष सहसर्ों मुख, चरण, िसर, हाथ, जंघा, नािसका, मुख, कान, नेतर्, आभूषण और आयुधों से सम्पन्न था।
चौदह लोक उनके िविभन्न अंगों के रूप मंे शोभायमान थे। वह भगवान की एक लीलामयी मूितर् थी। उसे देखकर
बर्ह्माजी को बड़ा आनंद हुआ। रजोगुण और तमोगुण रूप मधु और कैटभ नाम के दो बड़े बलवान दैत्य थे। जब वे
वेदों को चुराकर ले गये, तब आपने हयगर्ीव अवतार गर्हण िकया और उन दोनों को मारकर सत्त्वगुणरूप शर्ुितयाँ
बर्ह्माजी को लौटा दीं। वह सत्त्वगुण ही आपका अत्यंत िपर्य शरीर है – महात्मा लोग इस पर्कार वणर्न करते हंै।
पुरुषोत्तम ! इस पर्कार आप मनुष्य, पशु-पक्षी, ऋिष, देवता और मत्स्य आिद अवतार लेकर लोकों का पालन िकया
तथा िवश्व के दर्ोिहयों का संहार करते हंै। इन अवतारों के द्वारा आप पर्त्येक युग मंे उसके धमोर्ं की रक्षा करते हंै।
किलयुग मंे आप िछपकर गुप्त रूप से ही रहते हंै, इसीिलए आपका एक नाम 'ितर्युग' भी है।
वैकुण्ठनाथ ! मेरे मन की बड़ी दुदर्शा है। वह पाप-वासनाओं से तो कलुिषत है ही, स्वयं भी अत्यंत दुष्ट है। वह पर्ायः
ही कामनाओं के कारण आतुर रहता है और हषर्-शोक, भय, लोक-परलोक, धन, पत्नी, पुतर् आिद की िचंताओं से
व्याकुल रहता है। इसे आपकी लीला-कथाओं मंे तो रस ही नहीं िमलता। इसके मारे मंै दीन हो रहा हँू। ऐसे मन से
मंै आपके स्वरूप का िचंतन कैसे करूँ? अच्युत ! यह कभी न अघानेवाली जीभ मुझे स्वािदष्ट रसों की ओर खींचती
रहती है। जननेिन्दर्य सुन्दर स्तर्ी की ओर, त्वचा सुकोमल, स्पशर् की ओर, पेट भोजन की , कान मधुर अनुकर्म
संगीत की ओर, नािसका भीनी-भीनी सुगंध की ओर, और ये चपल नेतर् सौन्दयर् की ओर मुझे खींचते रहते हंै। इनके
िसवा कमर्ेिन्दर्याँ भी अपने-अपने िवषयों की ओर ले जाने के िलए जोर लगाती ही रहती हंै। मेरी तो वह दशा हो रही
है, जैसे िकसी पुरुष की बहुत सी पित्नयाँ उसे अपने-अपने शयनगृह मंे ले जाने से िलए चारों ओर से घसीट रही हों।
इस पर्कार यह जीव अपने कमोर्ं के बंधन मंे पड़कर इस संसार रूप वैतरणी नदी मंे िगरा हुआ है। जन्म से मृत्यु,
मृत्यु से जन्म और दोनों के द्वारा कमर्भोग करते-करते यह भयभीत गया है। यह अपना है, यह पराया है – इस
पर्कार के भेदभाव से युक्त होकर िकसी से िमतर्ता करता है तो िकसी से शतर्ुता। आप इस मूढ़ जीव-जाित की यह
दुदर्शा देखकर करूणा से दर्िवत हो जाइये। इस भवनदी से सवर्दा पार रहने वाले भगवन् ! इन पर्ािणयों को भी अब
पार लगा दीिजये। जगदगुरो ! आप इस सृिष्ट की उत्पित्त, िस्थित तथा पालन करने वाले हंै। ऐसी अवस्था मंे इन
जीवों को इस भवनदी से पार उतार देने मंे आपको क्या पिरशर्म है? दीनजनों के परम िहतैषी पर्भो ! भूले-भटके मूढ़
ही महान पुरुषों के िवशेष अनुगर्हपातर् होते हंै। हमंे उसकी कोई आवश्यकता नहीं है क्योंिक हम आपके िपर्यजनों की
सेवा मंे लगे रहते हंै, इसिलए पार जाने की हमंे कभी िचंता ही नहीं होती। परमात्मन् ! इस भव-वैतरणी से पार
उतरना दूसरे लोगों के िलए अवश्य ही किठन है, परंतु मुझे तो इससे तिनक भी भय नहीं है। क्योंिक मेरा िचत्त इस
वैतरणी मंे नहीं, आपकी उन लीलाओं के गान मंे मग्न रहता है, जो स्वगीर्य अमृत को भी ितरस्कृत करने वाली,
परम अमृतस्वरूप हंै। मंै उन मूढ़ पर्ािणयों के िलए शोक कर रहा हँू, जो आपके गुणगान से िवमुख रहकर इिन्दर्यों
के िवषयों का मायामय झूठा सुख पर्ाप्त करने के िलए अपने िसर पर सारे संसार का भार ढोते रहते हंै। मेरे स्वामी !
बड़े-बड़े ऋिष-मुिन तो पर्ायः अपनी मुिक्त के िलए िनजर्न वन मंे जाकर मौनवर्त धारण कर लेते हंै। वे दूसरों की
भलाई के िलए कोई िवशेष पर्यत्न नहीं करते परंतु मेरी दशा तो दूसरी ही हो रही है। मंै इन भूले हुए असहाय गरीबों
को छोड़कर अकेला मुक्त होना नहीं चाहता और इन भटकते हुए पर्ािणयों के िलए आपके िसवा और कोई सहारा भी
नहीं िदखाया पड़ता।
घर मंे फँसे हुए लोगों को जो मैथुन आिद का सुख िमलता है, वह अत्यंत तुच्छ एवं दुःखरूप ही है। जैसे, कोई दोनों
हाथों से खुजला रहा हो तो उस खुजली मंे पहले उसे कुछ थोड़ा-सा सुख मालूम पड़ता है, परंतु पीछे दुःख-ही-दुःख
होता है। िकंतु ये भूले हुए अज्ञानी मनुष्य बहुत दुःख भोगने पर भी इन िवषयों से अघाते नहीं। इसके िवपरीत धीर
पुरुष जैसे खुजलाहट को सह लेते हंै, वैसे ही कामािद वेगों को भी सह लेते हंै। सहने से ही उनका नाश होता है।
पुरुषोत्तम ! मोक्ष के दस साधन पर्िसद्ध हंै – मौन, बर्ह्मचयर्, शास्तर्-शर्वण, तपस्या, स्वाध्याय, स्वधमर्पालन, युिक्तयों से
शास्तर्ों की व्याख्या, एकांत सेवन, जप और समािध। परंतु िजनकी इिन्दर्याँ वश मंे नहीं हंै, उनके िलए ये सब
जीिवका के साधन व्यापार मातर् रह जाते हंै और दिम्भयों के िलए तो जब तक उनकी पोल खुलती नहीं, तभी तक
ये जीवन-िनवार्ह के साधन रहते हंै और भंडाफोड़ हो जाने पर वह भी नहीं। वेदों ने बीज और अंकुर के समान
आपके दो अनुकर्म रूप बताये हंै – कायर् और कारण। वास्तव मंे आप पर्ाकृत रूप से रिहत हंै परंतु इन कायर् और
कारणरूपों को छोड़कर आपके ज्ञान का कोई और साधन भी नहीं है, उसी पर्कार योिगजन भिक्तयोग की साधना से
आपको कायर् और कारण दोनों मंे ही ढँूढ िनकालते हंै। क्योंिक वास्तव मंे ये दोनों आपसे पृथक नहीं हंै, आपके
स्वरूप ही हंै। अनन्त पर्भो ! वायु, अिग्न, पृथ्वी, आकाश, जल, पंचतन्मातर्ाएँ, पर्ाण, इिन्दर्य, मन, िचत्त, अहंकार,
सम्पूणर् जगत एवं सगुण और िनगर्ुण, सब कुछ केवल आप ही हंै और तो क्या, मन और वाणी के द्वारा जो कुछ
िनरूपण िकया गया है, वह सब आपसे पृथक नहीं है। समगर् कीितर् के आशर्य भगवन् ! ये सत्त्वािद गुण और इन
गुणों के पिरणाम महत्तत्वािद, देवता, मनुष्य एवं मन आिद कोई भी आपका स्वरूप जानने मंे समथर् नहीं है क्योंिक
ये सब आिद-अंतवाले हंै और आप अनािद एवं अनन्त हंै। ऐसा िवचार करके ज्ञानीजन शब्दों की माया से उपरत हो
जाते हंै। परम पूज्य ! आपकी सेवा के छः अंग हंै – नमस्कार, स्तुित, समस्त कमोर्ं का समपर्ण, सेवा – पूजा,
चरणकमलों का िचंतन और लीला-कथा का शर्वण। इस षडंग-सेवा के िबना आपके चरणकमलों की भिक्त कैसे पर्ाप्त
हो सकती है ? और भिक्त के िबना आपकी पर्ािप्त कैसे होगी? पर्भो ! आप तो अपने परम िपर्य भक्तजनों के,
परमहंसों के ही सवर्स्व हंै।' अनुकर्म
(शर्ीमद् भागवतः 7.9.8-50)
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गजेन्दर् द्वारा स्तुित


क्षीरसागर के मध्य मंे मरकतमिणयों से सुशोिभत 'ितर्कूट' पवर्त था। उस पर वरुण देव का 'ऋतुमान' नाम का एक
संुदर उद्यान था, िजसमंे देवांगनाएँ कर्ीड़ा करती रहती थीं। उद्यान मंे सुनहले कमलोंवाला एक सरोवर था। उसमंे
गर्ीष्म-संतप्त गजराज अपनी िपर्याओं के साथ जलकर्ीड़ा कर रहा था। अचानक एक बलवान गर्ाह ने उसका पैर पकड़
िलया और वह जल मंे उसे खींचने लगा। गजराज और उसकी िपर्या हिथिनयों का रक्षा-पर्यत्न जब सवर्था िवफल हो
गया तो गजेन्दर् ने असहाय भाव से सम्पूणर् िवश्व के एकमातर् आशर्य भगवान की इस पर्कार से स्तुित कीः
'जो जगत के मूल कारण हंै और सबके हृदय मंे पुरुष के रूप मंे िवराजमान हंै एवं समस्त जगत के एकमातर् स्वामी
हंै, िजनके कारण इस संसार मंे चेतनता का िवस्तार होता है, उन भगवान को मंै नमस्कार करता हँू, पर्ेम से उनका
ध्यान करता हँू। यह संसार उन्हीं मंे िस्थत है, उन्हीं की सत्ता से पर्तीत हो रहा है, वे ही इसमंे व्याप्त हो रहे हंै और
स्वयं वे इसके रूप मंे पर्कट हो रहे हंै। यह सब होने पर भी वे इस संसार और इसके कारण पर्कृित से सवर्था परे हंै।
उन स्वयंपर्काश, स्वयंिसद्ध सत्तात्मक भगवान की मंै शरण गर्हण करता हँू। यह िवश्व पर्पंच उन्हीं की माया से उनमंे
अध्यस्त है। यह उनमंे कभी पर्तीत होता है तो कभी नहीं। परंतु उनकी दृिष्ट ज्यों-की-त्यों एक-सी रहती हंै। वे इसके
साक्षी हंै और उन दोनों को ही देखते रहते हंै। वे सबके मूल हंै और अपने मूल भी वही हंै। कोई दूसरा उनका कोई
कारण नहीं है। वे ही समस्त कायर् और कारणों से अतीत पर्भु मेरी रक्षा करंे। पर्लय के समय लोक, लोकपाल और
इन सबके कारण सम्पूणर् रूप से नष्ट हो जाते हंै। उस समय केवल अत्यंत घना और गहरा अंधकार-ही-अंधकार रहता
है। परंतु अनन्त परमात्मा उससे सवर्था परे िवराजमान रहते हंै। वे ही पर्भु मेरी रक्षा करंे। उनकी लीलाओं का रहस्य
जानना बहुत ही किठन है। वे नट की भाँित अनेकों वेष धारण करते हंै। उनके वास्तिवक स्वरूप को न तो देवता
जानते हंै और न ऋिष ही, िफर दूसरा ऐसा कौन पर्ाणी है, जो वहाँ तक जा सके और उसका वणर्न कर सके? वे
पर्भु मेरी रक्षा करंे। िजनके परम मंगलमय स्वरूप का दशर्न करने के िलए महात्मागण संसार की समस्त आसिक्तयों
का पिरत्याग कर देते हंै और वन मंे जाकर अखण्डभाव से बर्ह्मचयर् आिद अलौिकक वर्तों का पालन करते हंै तथा
अपने आत्मा को सबके हृदय मंे िवराजमान देखकर स्वाभािवक ही सबकी भलाई करते हंै। वे ही मुिनयों के सवर्स्व
भगवान मेरे सहायक हंै, वे ही मेरी गित हंै।
न उनके जन्म-कमर् हंै और न नाम-रूप, िफर उनके सम्बन्ध मंे गुण और दोष की तो कल्पना ही कैसे की जा
सकती है? िफर भी िवश्व की सृिष्ट और संहार करने के िलए समय-समय पर वे उन्हंे अपनी माया से स्वीकार करते
हंै। उन्हीं अनन्त, शिक्तमान सवर्ैश्वयर्मय परबर्ह्म परमात्मा को मंै नमस्कार करता हँू। वे अरूप होने पर भी बहुरूप हंै।
उनके कमर् अत्यंत आश्चयर्मय हंै। मंै उनके चरणों मंे नमस्कार करता हँू।
स्वयंपर्काश, सबके साक्षी परमात्मा को मंै नमस्कार करता हँू। जो मन, वाणी और िचत्त से अत्यंत दूर हंै – उन
परमात्मा को मंै नमस्कार करता हँू।
िववेकी पुरुष कमर्-संन्यास अथवा कमर्-समपर्ण के द्वारा अपना अंतःकरण शुद्ध करके िजन्हंे पर्ाप्त करते हंै तथा जो
स्वयं तो िनत्यमुक्त, परमानन्द एवं ज्ञानस्वरूप हंै ही, दूसरों को कैवल्य-मुिक्त देने का सामथ्यर् भी केवल उन्हीं मंे है
उन पर्भु को मंै नमस्कार करता हँू। जो सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों का धमर् स्वीकार करके कर्मशः शांत, घोर
और मूढ़ अवस्था भी धारण करते हंै, उन भेदरिहत समभाव से िस्थत एवं ज्ञानघन पर्भु को मंै बार-बार नमस्कार
करता हँू। आप सबके स्वामी, समस्त क्षेतर्ों के एकमातर् ज्ञाता एवं सवर्साक्षी हंै, आपको मंै नमस्कार करता हँू। आप
स्वयं ही अपने कारण हंै। पुरुष और मूल पर्कृित के रूप मंे भी आप ही हंै। आपको मेरा बार-बार नमस्कार। आप
समस्त इिन्दर्य और उनके िवषयों के दर्ष्टा हंै, समस्त पर्तीितयों के आधार हंै। अहंकार आिद छायारूप असत् वस्तुओं
के द्वारा आपका ही अिस्तत्व पर्कट होता है। समस्त वस्तुओं की सत्ता के रूप मंे भी केवल आप ही भास रहे हंै। मंै
आपको नमस्कार करता हँू। आप सबके मूल कारण हंै, आपका कोई कारण नहीं है तथा कारण होने पर भी आपमंे
िवकार या पिरणाम नहीं होता, इसिलए आप अनोखे कारण हंै। आपको मेरा बार-बार नमस्कार ! जैसे समस्त नदी-
झरने आिद का परम आशर्य समृद्ध है, वैसे ही आप समस्त वेद और शास्तर्ों के परम तात्पयर् हंै। आप मोक्षस्वरूप हंै
और समस्त संत आपकी ही शरण गर्हण करते हंै, अतः आपको अनुकर्म मंै नमस्कार करता हँू। जैसे यज्ञ के काष्ठ
अरिण मंे अिग्न गुप्त रहती है, वैसे ही आपने अपने ज्ञान को गुणों की माया से ढक रखा है। गुणों मंे क्षोभ होने पर
उनके द्वारा िविवध पर्कार की सृिष्ट-रचना का आप संकल्प करते हंै। जो लोग कमर्-संन्यास अथवा कमर्-समपर्ण के
द्वारा आत्मतत्त्व की भावना करके वेद-शास्तर्ों से ऊपर उठ जाते हंै, उनके आत्मा के रूप मंे आप स्वयं ही पर्कािशत हो
जाते हंै। आपको मंै नमस्कार करता हँू।
जैसे कोई दयालु पुरुष फंदे मंे पड़े हुए पशु का बंधन काट दे, वैसे ही आप मेरे जैसे शरणागतों की फाँसी काट देते
हंै। आप िनत्यमुक्त हंै, परम करूणामय हंै और भक्तों का कल्याण करने मंे आप कभी आलस्य नहीं करते। आपके
चरणों मंे मेरा नमस्कार है। समस्त पर्ािणयों के हृदय मंे अपने अंश के द्वारा अंतरात्मा के रूप मंे आप उपलब्ध होते
रहते हंै। आप सवर्ैश्वयर्पूणर् एवं अनन्त हंै। आपको मंै नमस्कार करता हँू। जो लोग शरीर, पुतर्, गुरुजन, गृह, सम्पित्त
और स्वजनों मंे आसक्त हंै उन्हंे आपकी पर्ािप्त अत्यंत किठन है। क्योंिक आप स्वयं गुणों की आसिक्त से रिहत हंै।
जीवनमुक्त पुरुष अपने हृदय मंे आपका िनरन्तर िचन्तन करते रहते हंै। उन सवर्ैश्वयर्पूणर्, ज्ञानस्वरूप भगवान को मंै
नमस्कार करता हँू। धमर्, अथर्, काम और मोक्ष की कामना से मनुष्य उन्हीं का भजन करके अपनी अभीष्ट वस्तु
पर्ाप्त कर लेते हंै। इतना ही नहीं, वे उनको सभी पर्कार का सुख देते हंै और अपने ही जैसा अिवनाशी पाषर्द शरीर भी
देते हंै। वे ही परम दयालु पर्भु मेरा उद्धार करंे। िजनके अनन्य पर्ेमी भक्तजन उन्हीं की शरण मंे रहते हुए उनसे
िकसी भी वस्तु की यहाँ तक िक मोक्ष की भी अिभलाषा नहीं करते, केवल उनकी परम िदव्य मंगलमयी लीलाओं का
गान करते हुए आनंद के समुदर् मंे िनमग्न रहते हंै।
तमक्षरं बर्ह्म परं परेशमव्यक्तमाध्याित्मकयोगगम्यम्।
अतीिन्दर्यं सूक्ष्मिमवाितदूरमनन्तमाद्यं पिरपूणर्मीडे।।
जो अिवनाशी, सवर्शिक्तमान, अव्यक्त, इिन्दर्यातीत और अत्यंत सूक्ष्म हंै, जो अत्यंत िनकट रहने पर भी बहुत दूर
जान पड़ते हंै, जो आध्याित्मक योग अथार्त् ज्ञानयोग या भिक्तयोग के द्वारा पर्ाप्त होते हंै, उन्हीं आिदपुरुष, अनन्त
ज्ञानयोग या भिक्तयोग के द्वारा पर्ाप्त होते हंै, उन्हीं आिदपुरुष, अनन्त एवं पिरपूणर् परबर्ह्म परमात्मा की मंै स्तुित
करता हँू।
(शर्ीमद् भागवतः 8.3.21)
िजनकी अत्यंत छोटी कला से अनेकों नाम-रूप के भेदभाव से युक्त बर्ह्मा आिद देवता, वेद और चराचर लोकों की
सृिष्ट हुई है, जैसे धधकती हुई आग से लपटंे और पर्काशमान सूयर् से उनकी िकरणंे बार-बार िनकलती और लीन
होती रहती हंै, वैसे उनकी िकरणंे बार-बार िनकलती और लीन होती रहती हंै, वैसे ही िजन स्वयंपर्काश परमात्मा से
बुिद्ध, मन, इिन्दर्य और शरीर, जो गुणों के पर्वाहरूप हंै, बार-बार पर्कट होते तथा लीन हो जाते हंै, वे भगवान न
देवता हंै और न असुर। वे मनुष्य और पशु-पक्षी भी नहीं हंै। न वे स्तर्ी हंै, न पुरुष और न नपंुसक। वे कोई साधारण
या असाधारण पर्ाणी भी नहीं हंै। न वे गुण हंै और न कमर्, न कायर् हंै और न तो अनुकर्म कारण ही। सबका िनषेध
हो जाने पर जो कुछ बचता रहता है, वही उनका स्वरूप है तथा वे ही सब कुछ हंै। वे ही परमात्मा मेरे उद्धार के
िलए पर्कट हों। मंै जीना नहीं चाहता। यह हाथी की योिन बाहर और भीतर सब ओर से अज्ञानरूप आवरण के द्वारा
ढकी हुई है, इसको रखकर करना ही क्या है? मंै तो आत्मपर्काश को ढकने वाले उस अज्ञानरूप आवरण से छूटना
चाहता हँू, जो कालकर्म से अपने-आप नहीं छूट सकता, जो केवल भगवत्कृपा अथवा तत्त्वज्ञान के द्वारा ही नष्ट होता
है। इसिलए मंै उन परबर्ह्म परमात्मा की शरण मंे हँू जो िवश्वरिहत होने पर भी िवश्व के रचियता और िवश्वस्वरूप हंै,
साथ ही जो िवश्व की अतंरात्मा के रूप मंे िवश्वरूप सामगर्ी से कर्ीड़ा भी करते रहते हंै, उन अजन्मा परम पद स्वरूप
बर्ह्म को मंै नमस्कार करता हँू। योगी लोग योग के द्वारा कमर्, कमर्-वासना और कमर्फल को भस्म करके अपने
योगशुद्ध हृदय मंे िजन योगेश्वर भगवान का साक्षात्कार करते हंै, उन पर्भु को मंै नमस्कार करता हँू।
पर्भो ! आपकी तीन शिक्तयों सत्त्व, रज और तम के रागािद वेग असह्य हंै। समस्त इिन्दर्यों और मन के िवषयों के
रूप मंे भी आप ही पर्तीत हो रहे हो। इसिलए िजनकी इिन्दर्याँ वश मंे नहीं हंै, वे तो आपकी पर्ािप्त का मागर् भी नहीं
पा सकते। आपकी शिक्त अनन्त हंै। आप शरणागतवत्सल हंै। आपको मंै बार-बार नमस्कार करता हँू। आपकी माया
अहंबुिद्ध से आत्मा का स्वरूप ढक गया है, इसी से यह जीव अपने स्वरूप को नहीं जान पाता। आपकी मिहमा
अपार है। उन सवर्शिक्तमान एवं माधुयर्िनिध भगवान की मंै शरण मंे हँू।
(शर्ीमद् भागवतः 8.3.2-21)
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अकर्ूर जी द्वारा स्तुित


अकर्ूर जी ने शर्ीकृष्ण तथा बलरामजी के साथ वर्ज से मथुरा नगरी लौटते समय यमुनाजी स्नान के पश्चात् गायतर्ी
मंतर् का जप करते हुए जब जल मंे डुबकी लगायी, तब उन्होंने शेषजी की गोद मंे िवराजमान शंख, चकर्, गदा,
पद्मधारी भगवान शर्ीकृष्ण के साक्षात् दशर्न िकये थे। भगवान की अदभुत झाँकी देखकर उनका हृदय परमानंद से
लबालब भर गया और पर्ेमभाव का उदर्ेक चरणों मंे नतमस्तक होकर गदगद स्वर मंे पर्भु की इस पर्कार से स्तुित
करने लगेः
'पर्भो ! आप पर्कृित आिद समस्त कारणों के परम कारण हंै। आप ही अिवनाशी पुरुषोत्तम नारायण हंै तथा आपके
ही नािभकमल से उन बर्ह्माजी का आिवभार्व हुआ है, िजन्होंने इस चराचर जगत की सृिष्ट की है। मंै आपके चरणों मंे
नमस्कार करता हँू। पृथ्वी, जल, अिग्न, वायु, आकाश, अहंकार, महत्तत्त्व, पर्कृित, पुरुष, मन, इिन्दर्य, सम्पूणर्
इिन्दर्यों के िवषय और उनके अिधष्ठातृ देवता – यही सब चराचर जगत तथा उसके व्यवहार के कारण हंै और ये
सब-के-सब आपके ही अंगस्वरूप हंै। पर्कृित और पर्कृित से उत्पन्न होने वाले समस्त पदाथर् 'इंदवृित्त' के द्वारा गर्हण
िकये जाते हंै, इसिलए ये सब अनात्मा हंै। अनात्मा होने के कारण जड़ हंै और इसिलए अनुकर्म आपका स्वरूप
नहीं जान सकते क्योंिक आप तो स्वयं आत्मा ही ठहरे। बर्ह्माजी अवश्य ही आपके स्वरूप हंै। परंतु वे पर्कृित के गुण
रजस से युक्त हंै, इसिलए वे भी आपकी पर्कृित का और उसके गुणों से परे का स्वरूप नहीं जानते। साधु योगी स्वयं
अपने अंतःकरण मंे िस्थत 'अन्तयार्मी' के रूप मंे समस्त भूत-भौितक पदाथोर्ं मंे व्याप्त 'परमात्मा के रूप मंे और
सूयर्, चन्दर्, अिग्न आिद देवमण्डल मंे िस्थत 'इष्टदेवता' के रूप मंे तथा उनके साक्षी महापुरुष एवं िनयन्ता ईश्वर के
रूप मंे साक्षात् आपकी ही उपासना करते हंै। बहुत-से कमर्काण्डी बर्ाह्मण कमर्मागर् का उपदेश करने वाली तर्यीिवद्या के
द्वारा, जो आपके इन्दर्, अिग्न आिद अनेक देववाचक नाम तथा वजर्हस्त, सप्तािचर् आिद अनेक रूप बतलाती हंै, बड़े-
बड़े यज्ञ करते हंै और उनसे आपकी ही उपासना करते हंै। बहुत-से ज्ञानी अपने समस्त कमोर्ं का संन्यास कर देते हंै
और शांतभाव मंे िस्थत हो जाते हंै। वे इस पर्कार ज्ञानयज्ञ के द्वारा ज्ञानस्वरूप आपकी ही आराधना करते हंै।
और भी बहुत-से संस्कार-सम्पन्न अथवा शुद्धिचत्त वैष्णवजन आपकी बतलायी हुई पांचरातर् आिद िविधयों से तन्मय
होकर आपके चतुव्यर्ूह आिद अनेक और नारायणरूप एक स्वरूप की पूजा करते हंै। भगवन् ! दूसरे लोग िशवजी के
द्वारा बतलाये हुए मागर् से, िजसके आचायर्-भेद से अनेक अवान्तर-भेद भी हंै, िशवस्वरूप आपकी ही पूजा करते हंै।
स्वािमन् ! जो लोग दूसरे देवताओं की भिक्त करते हंै और उन्हंे आपसे िभन्न समझते हंै, वे सब भी वास्तव मंे
आपकी ही आराधना करते हंै, क्योंिक आप ही समस्त देवताओं के रूप मंे हंै और सवर्ेश्वर भी हंै। पर्भो ! जैसे पवर्तों
से सब ओर बहुत-सी निदयाँ िनकलती हंै और वषार् के जल से भरकर घूमती-घामती समुदर् मंे पर्वेश कर जाती हंै,
वैसे ही सभी पर्कार के उपासना-मागर् घूम-घामकर देर-सवेर आपके ही पास पहँुच जाते हंै।
पर्भो ! आपकी पर्कृित के तीन गुण हंै – सत्त्व, रज और तम। बर्ह्मा से लेकर स्थावरपयर्न्त सम्पूणर् चराचर जीव
पर्ाकृत हंै और जैसे वस्तर् सूतर्ों से ओतपर्ोत रहते हंै, वैसे ही ये सब पर्कृित के उन गुणों से ही ओतपर्ोत हंै। परंतु आप
सवर्स्वरूप होने पर भी उनके साथ िलप्त नहीं हंै। आपकी दृिष्ट िनिलर्प्त है, क्योंिक आप समस्त वृित्तयों के साक्षी हंै।
यह गुणों के पर्वाह से होने वाली सृिष्ट अज्ञानमूलक है और वह देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आिद समस्त योिनयों मंे
व्याप्त है, परंतु उससे सवर्था अलग हंै। इसिलए मंै आपको नमस्कार करता हँू। अिग्न आपका मुख है। पृथ्वी चरण
है। सूयर् और चन्दर्मा नेतर् हंै। आकाश नािभ है। िदशाएँ कान हंै। स्वगर् िसर है। देवेन्दर्गण भुजाएँ हंै। समुदर् कोख है
यह वायु ही आपकी पर्ाणशिक्त के रूप मे उपासना के िलए किल्पत हुई है।
वृक्ष और औषिधयाँ रोम हंै। मेघ िसर के केश हंै। पवर्त आपके अिस्थसमूह और नख हंै। िदन और रात पलकों का
खोलना और मीचना है। पर्जापित जननेिन्दर्य हंै और वृिष्ट ही आपका वीयर् है। अिवनाशी भगवन् ! जैसे जल मंे
बहुत-से जलचर जीव और गूलर के फलों मंे नन्हंे-नन्हंे कीट रहते हंै, उसी पर्कार उपासना के िलए स्वीकृत आपके
मनोमय पुरुष रूप मंे अनेक पर्कार के जीव-जन्तुओं से भरे हुए लोक और उनके लोकपाल किल्पत िकये गये हंै।
पर्भो ! आप कर्ीडा अनुकर्म करने के िलए पृथ्वी पर जो-जो रूप धारण करते हंै, वे सब अवतार लोगों के शोक-मोह
को धो बहा देते हंै और िफर सब लोग बड़े आनन्द से आपके िनमर्ल यश का गान करते हंै। पर्भो ! आपने वेदों,
ऋिषयों, औषिधयों और सत्यवर्त आिद की रक्षा-दीक्षा के िलए मत्स्यरूप धारण िकया था और पर्लय के समुदर् मंे
स्वच्छन्द िवहार िकया था। आपके मत्स्यरूप को मंै नमस्कार करता हँू। आपने ही मधु और कैटभ नाम के असुरों
का संहार करने के िलए हयगर्ीव अवतार गर्हण िकया था। मंै आपके उस रूप को भी नमस्कार करता हँू।
आपने ही वह िवशाल कच्छपरूप गर्हण करके मन्दराचल को धारण िकया था, आपको मंै नमस्कार करता हँू। आपने
ही पृथ्वी के उद्धार की लीला करने के िलए वराहरूप स्वीकार िकया था, आपको मेरे बार-बार नमस्कार। पर्ह्लाद जैसे
साधुजनों का भेदभय िमटाने वाले पर्भो ! आपके उस अलौिकक नृिसंहरूप को मंै नमस्कार करता हँू। आपने
वामनरूप गर्हण करके अपने पगों से तीनों लोक नाप िलये थे, आपको मंै नमस्कार करता हँू। धमर् का उल्लंघन
करनेवाले घमंडी क्षितर्यों के वन का छेदन कर देने के िलए आपने भृगुपित परशुराम रूप गर्हण िकया था। मंै आपके
उस रूप को नमस्कार करता हँू। रावण का नाश करने के िलए आपने रघुवंश मंे भगवान राम के रूप मंे अवतार
गर्हण िकया था। मंै आपको नमस्कार करता हँू। वैष्णवजनों तथा यदुवंिशयों का पालन-पोषण करने के िलए आपने
ही अपने को वासुदेव, संकषर्ण, पर्द्युम्न और अिनरुद्ध – इस चतुव्यर्ूह के रूप मंे पर्कट िकया है। मंै आपको बार-बार
नमस्कार करता हँू। दैत्य और दानवों को मोिहत करने के िलए आप शुद्ध अिहंसा मागर् के पर्वत्तर्क बुद्ध का रूप गर्हण
करंेगे। मंै आपको नमस्कार करता हँू और पृथ्वी के क्षितर्य जब म्लेच्छपर्ाय हो जायंेगे, तब उनका नाश करने के
िलए आप ही किल्क के रूप मंे अवतीणर् होंगे। मंै आपको नमस्कार करता हँू।
भगवन् ! ये सब-के-सब जीव आपकी माया से मोिहत हो रहे हंै और इस मोह के कारण ही 'यह मंै हँू और यह मेरा
है' इस झूठे दुरागर्ह मंे फँसकर कमर् के मागोर्ं मंे भटक रहे हंै। मेरे स्वामी ! इसी पर्कार मंै भी स्वप्न मंे िदखने वाले
पदाथोर्ं के समान झूठे देह-गेह, पत्नी-पुतर् और धन-स्वजन आिद को सत्य समझकर उन्हीं के मोह मंे फँस रहा हँू और
भटक रहा हँू।
मेरी मूखर्ता तो देिखये, पर्भो ! मंैने अिनत्य वस्तुओं को िनत्य अनात्मा को आत्मा और दुःख को सुख समझ िलया।
भला, इस उलटी बुिद्ध की भी कोई सीमा है ! इस पर्कार अज्ञानवश सांसािरक सुख-दुःख आिद द्वन्द्वों मंे ही रम गया
और यह बात िबल्कुल भूल गया िक आप ही हमारे सच्चे प्यारे हंै। जैसे कोई अनजान मनुष्य जल के िलए तालाब
पर जाय और उसे उसी से पैदा हुए िसवार आिद घासों से ढका देखकर ऐसा समझ ले िक यहाँ जल नहीं हंै तथा
सूयर् की िकरणों मंे झूठ-मूठ पर्तीत होने वाले जल के िलए मृगतृष्णा की ओर दौड़ पड़े, वैसे ही मंै अपनी ही माया
से िछपे रहने के कारण आपको छोड़कर िवषयों मंे सुख की आशा से भटक रहा हँू।
मंै अिवनाशी अक्षर वस्तु के ज्ञान से रिहत हँू। इसी से मेरे मन मंे अनेक वस्तुओं की कामना और उनके िलए कमर्
करने के संकल्प उठते ही रहते हंै। इसके अितिरक्त ये इिन्दर्याँ भी अनुकर्म जो बड़ी पर्बल एवं दुदर्मनीय हंै, मन को
मथ-मथकर बलपूवर्क इधर-उधर घसीट ले जाती हंै। इसीिलए इस मन को मंै रोक नहीं पाता। इस पर्कार भटकता
हुआ मंै आपके उन चरणकमलों की छतर्छाया मंे आ पहँुचा हँू, जो दुष्टों के िलए दुलर्भ है। मेरे स्वामी ! इसे भी मंै
आपका कृपापर्साद ही मानता हँू क्योंिक पद्मनाभ ! जब जीव के संसार से मुक्त होने का समय आता है, तब सत्पुरुषों
की उपासना से िचत्तवृित्त आपमंे लगती है।
नमो िवज्ञानमातर्ाय सवर्पर्त्ययहेतवे।
पुरुषेशपर्धानाय बर्ह्मणेऽनन्तशक्तये।।
नमस्ते वासुदेवाय सवर्भूतक्षयाय च।
हृषीकेश नमस्तुभ्यं पर्पन्नं पािह मां पर्भो।
पर्भो ! आप केवल िवज्ञानस्वरूप हंै, िवज्ञानघन हंै। िजतनी भी पर्तीितयाँ होती हंै, िजतनी भी वृित्तयाँ हंै, उन सबके
आप ही कारण और अिधष्ठान हंै। जीव के रूप मंे एवं जीवों के सुख-दुःख आिद के िनिमत्त काल, कमर्, स्वभाव तथा
पर्कृित के रूप मंे भी आप ही हंै तथा आप ही उन सबके िनयन्ता भी हंै। आपकी शिक्तयाँ अनन्त हंै। आप स्वयं बर्ह्म
हंै। मंै आपको नमस्कार करता हँू।
पर्भो ! आप ही वासुदेव, आप ही समस्त जीवों के आशर्य (संकषर्ण) हंै तथा आप ही बुिद्ध और मन के अिधष्ठातृ
देवता हृिषकेश (पर्द्युम्न और अिनरुद्ध) हंै। मंै आपको बार-बार नमस्कार करता हँू। पर्भो ! आप मुझ शरणागत की
रक्षा कीिजए।'
(शर्ीमद् भागवतः 10.40.1-30)
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नारदजी द्वारा स्तुित


देविषर् नारद भगवान के परम पर्ेमी और समस्त जीवों के सच्चे िहतैषी हंै भगवान शर्ीकृष्ण द्वारा केशी असुर का वध
िकये जाने पर नारद जी कंस के यहाँ से लौटकर अनायास ही अदभुत कमर् करने वाले भगवान शर्ीकृष्ण के पास
आये और एकान्त मंे उनकी इस पर्कार से स्तुित करने लगेः
'सिच्चदानंदस्वरूप शर्ी कृष्ण ! आपका स्वरूप मन और वाणी का िवषय नहीं है। आप योगेश्वर हंै। सारे जगत का
िनयंतर्ण आप ही करते हंै। आप सबके हृदय मंे िनवास करते हंै और सब-के-सब आपके हृदय मंे िनवास करते हंै।
आप भक्तों के एकमातर् वांछनीय, यदुवंश िशरोमिण और हमारे स्वामी हंै। जैसे एक ही अिग्न सभी लकिड़यों मंे व्याप्त
रहती है, वैसे एक ही आप समस्त पर्ािणयों के आत्मा हंै। आत्मा के रूप मंे होने पर भी आप अपने को िछपाये
रखते हंै क्योंिक आप पंचकोशरूप गुफाओं के भीतर रहते हंै। िफर भी पुरुषोत्तम के रूप मंे, सबके िनयन्ता के रूप मंे
और सबके साक्षी के रूप मंे आपका अनुभव होता ही है। पर्भो ! आप सबके अिधष्ठान अनुकर्म और स्वयं
अिधष्ठानरिहत हंै। आपने सृिष्ट के पर्ारम्भ मंे अपनी माया से ही गुणों की सृिष्ट की और उन गुणों को ही स्वीकार
करके आप जगत की उत्पित्त, िस्थित और पर्लय करते रहते हंै। यह सब करने के िलए आपको अपने से अितिरक्त
और िकसी भी वस्तु की आवश्यकता नही है। क्योंिक आप सवर्शिक्तमान और सत्यसंकल्प हंै। वही आप दैत्य, पर्मथ
और राक्षसों का, िजन्होंने आजकल राजाओं का वेष धारण कर रखा है, िवनाश करने के िलए तथा धमर् की
मयार्दाओं की रक्षा करने के िलए यदुवंश मंे अवतीणर् हुए हंै। यह बड़े आनंद की बात है िक आपने खेल-ही-खेल मंे
घोड़े के रूप मंे रहने वाले इस केशी दैत्य को मार डाला। इसकी िहनिहनाहट से डरकर देवता लोग अपना स्वगर्
छोड़कर भाग जाया करते थे।
पर्भो ! अब परसों मंै आपके हाथों चाणूर, मुिष्टक, दूसरे पहलवान, कुवलयापीड हाथी और स्वयं कंस को मरते हुए
देखँूगा। उसके बाद शंखासुर, कालयवन, मुर और नरकासुर का वध देखँूगा। आप स्वगर् से कल्पवृक्ष उखाड़ लायंेगे
और इन्दर् के चीं-चपड़ करने पर उनको उसका मजा चखायंेगे। आप अपनी कृपा, वीरता, सौन्दयर् आिद का शुल्क
देकर वीर-कन्याओं से िववाह करंेगे और जगदीश्वर ! आप द्वािरका मंे रहते हुए नृग को पाप से छुड़ायंेगे। आप
जाम्बवती के साथ स्यमन्तक मिण को जाम्बवान से ले आयंेगे और अपने धाम से बर्ाह्मण के मरे पुतर्ों को ला दंेगे।
इसके पश्चात् आप पौण्डर्क-िमथ्या वासुदेव का वध करंेगे। काशीपुरी को जला दंेगे। युिधिष्ठर के राजसूय यज्ञ मंे
चेिदराज िशशुपाल को, वहाँ से लौटते समय उसके मौसेरे भाई दन्तवक्तर् को नष्ट करंेगे। पर्भो ! द्वािरका मंे िनवास
करते समय आप और भी बहुत-से पराकर्म पर्कट करंेगे, िजन्हंे आगे चलकर पृथ्वी के बड़े-बड़े ज्ञानी और पर्ितभाशाली
पुरुष गायंेगे। मंै वह सब देखँूगा। इसके बाद आप पृथ्वी का भार उतारने के िलए काल रूप से अजर्ुन के सारिथ
बनंेगे और अनेक अक्षौिहणी सेना का संहार करंेगे। यह सब मंै अपनी आँखों से देखँूगा।
िवशुद्धिवज्ञानघनं स्वसंस्थया समाप्तसवार्थर्ममोघवांिछतम्।
स्वतेजसा िनत्यिनवृत्तमायागुणपर्वाहं भगवन्तमीमिहं।।
पर्भो ! आप िवशुद्ध िवज्ञानघन हंै। आपके स्वरूप मंे और िकसी का अिस्तत्व है ही नहीं। आप िनत्य-िनरन्तर अपने
परमानन्दस्वरूप मंे िस्थत रहते हंै। इसिलए ये सारे पदाथर् आपको िनत्य पर्ाप्त ही हंै। आपका संकल्प अमोघ है।
आपकी िचन्मयी शिक्त के सामने माया और माया से होने वाला वह ितर्गुणमय संसारचकर् िनत्यिनवृत्त है, कभी हुआ
ही नहीं। ऐसे आप अखण्ड, एकरस, सिच्चदानंदस्वरूप, िनरितशय ऐश्वयर्सम्पन्न भगवान की मंै शरण गर्हण करता
हँू।
(शर्ीमद् भागवतः 10.37.23)
आप सबके अंतयार्मी और िनयन्ता हंै। अपने-आप मंे िस्थत, परम स्वतन्तर् है। जगत र उसके अशेष-िवशेष, भाव-
अभावरूप सारे भेद-िवभेदों की कल्पना केवल आपकी माया से ही हुई अनुकर्म है। इस समय आपने अपनी लीला
पर्कट करने के िलए मनुष्य का सा शर्ीिवगर्ह पर्कट िकया है और आप यदु, वृिष्ण तथा सात्वतवंिशयों के िशरोमिण
बने हंै। पर्भो ! मंै आपको नमस्कार करता हँू।'
(शर्ीमद् भागवतः 10.37,11-24)
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दक्ष पर्जापित द्वारा स्तुित


दक्ष पर्जापित ने जल, थल और आकाश मंे रहने वाले देवता, असुर एवं मनुष्य आिद पर्जा की सृिष्ट अपने संकल्प से
की थी। परंतु जब उन्होंने देखा िक वह सृिष्ट बढ़ नहीं रही है, तब उन्होंने िवन्ध्याचल के िनकटवतीर् पवर्तों पर जाकर
'अघमषर्ण' नामक शर्ेष्ठ तीथर् मंे घोर तपस्या की तथा पर्जावृिद्ध की कामना से इिन्दर्यातीत भगवान की 'हंसगुह्य'
नामक स्तोतर् से स्तुित की, जो इस पर्कार हैः
'भगवन् ! आपकी अनुभूित, आपकी िचत्-शिक्त अमोघ है। आप जीव और पर्कृित से परे, उनके िनयन्ता और उन्हंे
सत्ता-स्फूितर् देने वाले हंै। िजन जीवों ने ितर्गुणमयी सृिष्ट को ही वास्तिवक सत्य समझ रखा है, वे आपके स्वरूप का
साक्षात्कार नहीं कर सके हंै, क्योंिक आप तक िकसी भी पर्माण की पहँुच नहीं है। आपकी कोई अविध, कोई सीमा
नहीं है।
आप स्वयं पर्काश और परात्पर हंै। मंै आपको नमस्कार करता हँू। यों तो जीव और ईश्वर एक-दूसरे से सखा हंै तथा
इसी शरीर मंे इकट्ठे ही िनवास करते हंै, परंतु जीव सवर्शिक्तमान आपके सख्यभाव को नहीं जानता। ठीक वैसे ही,
जैसे – रूप, रस, गंध आिद िवषय अपने पर्कािशत करने वाली नेतर्, घर्ाण आिद इिन्दर्यवृित्तयों को नहीं जानते।
क्योंिक आप जीव और जगत के दर्ष्टा हंै, दृश्य नहीं। महेश्वर ! मंै आपके शर्ीचरणों मंे नमस्कार करता हँू। देह, पर्ाण,
इिन्दर्य, अंतःकरण की वृित्तयाँ, पंचमहाभूत और इनकी तन्मातर्ाएँ – ये सब जड़ होने के कारण अपने को और अपने
से अितिरक्त को भी नहीं जानते। परंतु जीव इन सबको और इनके कारण सत्त्व, रज और तम – इन तीन गुणों को
भी जानता है। परंतु वह भी दृश्य अथवा ज्ञेयरूप से आपको नहीं जान सकता क्योंिक आप ही सबके ज्ञाता और
अनन्त हंै। इसिलए पर्भो ! मंै तो केवल आपकी स्तुित करता हँू। जब समािधकाल मंे पर्माण, िवकल्प और िवपयर्रूप
िविवध ज्ञान और स्मरणशिक्त का लोप हो जाने से इस नाम-रूपात्मक जगत का िनरूपण करने वाला मन उपरत हो
जाता है, उस समय िबना मन के भी केवल सिच्चदानंदमयी अपनी स्वरूपिस्थित के द्वारा आप पर्कािशत होते रहते
हंै। पर्भो ! आप शुद्ध हंै और शुद्ध हृदय-मिन्दर ही आपका िनवास स्थान है। आपको मेरा नमस्कार है। जैसे यािज्ञक
लोग काष्ठ मंे िछपी हुई अिग्न को 'सािमधेनी' नाम के पन्दर्ह मन्तर्ों के द्वारा पर्कट करते हंै, वैसे ही ज्ञानी पुरुष
अपनी सत्ताइस शिक्तयों के भीतर गूढ़ भाव से िछपे हुए आपको अपनी शुद्ध बुिद्ध के द्वारा हृदय मंे ही ढँूढ िनकालते
हंै। जगत अनुकर्म मंे िजतनी िभन्नताएँ दीख पड़ती हंै वे सब माया की ही हंै। माया का िनषेध कर देने पर केवल
परम सुख के साक्षात्कारस्वरूप आप ही अवशेष रहते हंै। परंतु जब िवचार करने लगते हंै, तब आपके स्वरूप मंे
माया की उपलिब्ध-िनवर्चन नहीं हो सकता अथार्त् माया भी आप ही हंै। अतः सारे नाम और सारे रूप आपके ही हंै।
पर्भो ! आप मुझ पर पर्सन्न होइये। मुझे आत्मपर्साद से पूणर् कर दीिजये। पर्भो ! जो कुछ वाणी से कहा जाता है
अथवा जो कुछ मन, बुिद्ध और इिन्दर्यों से गर्हण िकया जाता है वह आपका स्वरूप नहीं है, क्योंिक वह तो गुणरूप
है और आप गुणों की उत्पित्त और पर्लय के अिधष्ठान हंै। आप मंे केवल उनकी पर्तीितमातर् है। भगवन् ! आप मंे ही
यह सारा जगत िस्थत है, आप से ही िनकला है और आपने और िकसी के सहारे नहीं अपने-आप से ही इसका
िनमार्ण िकया है। यह आपका ही है और आपके िलए ही है। इसके रूप मंे बनने वाले भी आप हंै और बनानेवाले भी
आप ही हंै। बनने-बनाने की िविध भी आप ही हंै। आप ही सबसे काम लेने वाले भी हंै। जब कायर् और कारण का
भेद नहीं था, तब भी आप स्वयंिसद्ध स्वरूप से िस्थत थे। इसी से आप सबके कारण भी हंै। सच्ची बात तो यह है
िक आप जीव जगत के भेद और स्वगतभेद से सवर्था रिहत एक, अिद्वितय हंै। आप स्वयं बर्ह्म हंै। आप मुझ पर
पर्सन्न हों।
पर्भो ! आपकी ही शिक्तयाँ वादी-पर्ितवािदयों के िववाद और संवाद (एकमत्य) का िवषय होती हंै और उन्हंे बार-बार
मोह मंे डाल िदया करती हंै। आप अनन्त अपर्ाकृत कल्याण-गुणगणों से युक्त एवं स्वयं अनन्त हंै। मंै आपको
नमस्कार करता हँू। भगवन् ! उपासक लोग कहते हंै िक हमारे पर्भु हस्त-पादािद से युक्त साकार-िवगर्ह हंै और
सांख्यवादी कहते हंै की भगवान हस्त-पादािद िवगर्ह से रिहत िनराकार हंै। यद्यिप इस पर्कार वे एक ही वस्तु के दो
नहीं है। क्योंिक दोनों एक ही परम वस्तु मंे िस्थत हंै। िबना आधार के हाथ-पैर आिद का होना सम्भव नहीं और
िनषेध की भी कोई-न-कोई अविध होनी ही चािहए। आप वही आधार और िनषेध की अविध हंै। इसिलए आप साकार,
िनराकार दोनों से ही अिवरुद्ध सम परबर्ह्म हंै।
योऽनुगर्हाथर्ं भजतां पादमूलमनामरूपो भगवाननन्तः।
नामािन रूपािण च जन्मकमर्िभभर्ेजे स मह्यं परमः पर्सीदतु।।
पर्भो ! आप अनन्त हंै। आपका न तो कोई पर्ाकृत नाम है और न कोई पर्ाकृत रूप, िफर भी जो आपके चरणकमलों
का भजन करते हंै, उन पर अनुगर्ह करने के िलए आप अनेक रूपों मंे पर्कट होकर अनेकों लीलाएँ करते हंै तथा उन-
उन रूपों एवं लीलाओं के अनुसार अनेकों नाम धारण कर लेते हंै। परमात्मन् ! आप मुझ पर कृपा-पर्साद कीिजए।
(शर्ीमद् भागवतः 6.4.33)
लोगों की उपासनाएँ पर्ायः साधारण कोिट की होती हंै। अतः आप सबके हृदय मंे रहकर उनकी भावना के अनुसार
िभन्न-िभन्न देवताओं के रूप मंे पर्तीत होते रहते हंै, ठीक वैसे ही जैसे हवा गन्ध का आशर्य लेकर सुगिन्धत पर्तीत
होती है, परंतु वास्तव मंे सुगिन्धत नहीं होती। ऐसे सबकी भावनाओं का अनुसरण करने वाली पर्भु मेरी अिभलाषा
पूणर् करंे।' अनुकर्म
(शर्ीमद् भागवतः 6.4.23-34)
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देवताओं द्वारा गभर्-स्तुित


जब-जब पृथ्वी पर धमर् की हािन तथा अधमर् की वृिद्ध होती है भगवान पृथ्वी पर अवतार लेते हंै। मथुरा नगरी मंे
कंस के अत्याचार पर्जाजन पर िदन-पर्ितिदन बढ़ते जा रहे थे और वह यदुवंिशयों को भी नष्ट करता जा रहा था।
भक्तवत्सल भगवान शर्ीकृष्ण ने असुरों के िवनाश हेतु पृथ्वी पर अवतार लेने के िलए वसुदेव-पत्नी देवकी गभर् मंे
पर्वेश िकया और तभी देवकी के शरीर की कांित से कंस का बंदीगृह जगमगाने लगा। भगवान शंकर, बर्ह्माजी, देविषर्
नारद तथा अन्य देवता कंस के कारागार मंे आकर सबकी अिभलाषा पूणर् करने वाले पर्भु शर्ीहिर की सुमधुर वचनों
से इस पर्कार स्तुित करते हंै-
'पर्भो ! आप सत्यसंकल्प है। सत्य ही आपकी पर्ािप्त का शर्ेष्ठ साधन है। सृिष्ट के पूवर्, पर्लय के पश्चात् और संसार की
िस्थित के समय – इन असत्य अवस्थाओं मंे भी आप सत्य हंै। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश – इन पाँच
दृश्यमान सत्यों के आप ही कारण हंै और उनमंे अन्तयार्मी रूप से िवराजमान भी हंै। आप इस दृश्यमान जगत के
परमाथर्रूप हंै। आप ही मधुर वाणी और समदशर्न के पर्वत्तर्क हंै। भगवन् ! आप तो बस, सत्यस्वरूप ही हंै। हम सब
आपकी शरण मंे आये हंै। यह संसार क्या है, एक सनातन वृक्ष। इस वृक्ष का आशर्य है एक पर्कृित। इसके दो फल
हंै – सुख और दुःख, तीन जड़े हंै सत्त्व, रज और तम, चार रस हंै – धमर्, अथर्, काम और मोक्ष। इसके जानने के
पाँच पर्कार हंै – शर्ोतर्, त्वचा, नेतर्, रसना और नािसका। इसके छः स्वभाव हंै – पैदा होना, रहना, बढ़ना, बदलना,
घटना और नष्ट हो जाना। इस वृक्ष की छाल है सात धातुएँ – रस, रूिधर, मांस, मेद, अिस्थ, मज्जा और शुकर्। आठ
शाखाएँ हंै – पाँच महाभूत, मन, बुिद्ध और अहंकार। इसमंे मुख आिद नवों द्वार खोडर हंै। पर्ाण, अपान, व्यान, उदान,
समान, नाग, कूमर्, कृकल, देवदत्त और धनंजय – ये दस पर्ाण ही इसके दस पत्ते हंै। इस संसार रूप वृक्ष की उत्पित्त
के आधार एकमातर् आप ही हंै। आप मंे ही इसका पर्लय होता है और आपके ही अनुगर्ह से इसकी रक्षा भी होती है।
िजनका िचत्त आपकी माया से आवृत्त हो रहा है, इस सत्य को समझने की शिक्त खो बैठा है – वे ही उत्पित्त, िस्थित
और पर्लय करनेवाले बर्ह्मािद देवताओं को अनेक दीखते हंै। तत्त्वज्ञानी पुरुष तो सबके रूप मंे केवल आपके ही दशर्न
करते हंै।
आप ज्ञानस्वरूप आत्मा हंै। चराचर जगत के कल्याण के िलए ही अनेकों रूप धारण करते हंै। आपके वे रूप िवशुद्ध,
अपर्ाकृत, सत्त्वमय होते हंै और संतपुरुषों को बहुत सुख देते हंै। साथ ही दुष्टों को उनकी दुष्टता का दण्ड भी देते हंै।
उनके िलए अमंगलमय भी होते हंै। अनुकर्म
त्वय्यबुजाक्षािखलसत्त्वधािम्न समािधनाऽऽवेिशतचेतसैके।
त्वत्पादपोतेन महत्कृतेन कुवर्िन्त गोवत्सपदं भवािब्धम्।।
स्वयं समुत्तीयर् सुदुस्तरं द्युमन् भवाणर्वं भीममदभर्सौहृदाः।
भवत्पदाम्भोरुहनावमतर् ते िनधाय याताः सदनुगर्हो भवान्।।
कमल के समान कोमल अनुगर्ह-भरे नेतर्ों वाले पर्भो ! कुछ िवरले लोग ही आपके समस्त पदाथोर्ं और पर्ािणयों के
आशर्यस्वरूप रूप मंे पूणर् एकागर्ता से अपना िचत्त लगा पाते हंै और आपके चरणकमलरूपी जहाज का आशर्य लेकर
इस संसारसागर को बछड़े के खुर के गढ़े के समान अनायास ही पार कर जाते हंै। क्यों न हो, अब तक के संतों ने
इसी जहाज से संसारसागर को पार जो िकया है।
परम पर्काशस्वरूप परमात्मन् ! आपके भक्तजन सारे जगत के िनष्कपट पर्ेमी, सच्चे िहतैषी होते हंै। वे स्वयं तो इस
भयंकर और कष्ट से पार करने योग्य संसारसागर को पार कर ही जाते हंै, िकंतु औरों के कल्याण के िलए भी वे
यहाँ आपके चरणकमलों की नौका स्थािपत कर जाते हंै। वास्तव मंे सत्पुरुषों पर आपकी महान कृपा है। उनके िलए
आप अनुगर्हस्वरूप ही हंै।
(शर्ीमद् भागवतः 10.2.30.31)
कमलनयन ! जो लोग आपके चरणकमलों की शरण नहीं लेते तथा आपके पर्ित भिक्तभाव से रिहत होने के कारण
िजनकी बुिद्ध भी शुद्ध नहीं है, वे अपने को झूठ-मूठ मुक्त मानते हंै। वास्तव मंे तो वे बद्ध ही हंै। वे यिद बड़ी तपस्या
और साधना का कष्ट उठाकर िकसी पर्कार ऊँचे-से-ऊँचे पद पर भी पहँुच जायंे तो भी वहाँ से नीचे िगर जाते हंै।
परंतु भगवन् ! जो आपके िनज जन है, िजन्होंने आपके चरणों मंे अपनी सच्ची पर्ीित जोड़ रखी है, वे कभी उन
ज्ञानािभमािनयों की भाँित अपने साधन मागर् से िगरते नहीं। पर्भो ! वे बड़े-बड़े िवघ्न डालने वालों की सेना के
सरदारों के िसर पर पैर रखकर िनभर्य िवचरते हंै, कोई भी िवघ्न उनके मागर् मंे रुकावट नहीं डाल सकता; क्योंिक
उनके रक्षक आप जो हंै।
आप संसार की िस्थित के िलए समस्त देहधािरयों को परम कल्याण पर्दान करने वाले िवशुद्ध सत्त्वमय,
सिच्चदानंदमय परम िदव्य मंगल-िवगर्ह पर्कट करते हंै। उस रूप के पर्कट होने से ही आपके भक्त वेद, कमर्काण्ड,
अष्टाँग-योग, तपस्या और समािध के द्वारा आपकी आराधना करते हंै। िबना िकसी आशर्य के वे िकसकी आराधना
करंेग? े पर्भो ! आप सबके िवधाता हंै। यिद आपका यह िवशुद्ध सत्त्वमय िनज स्वरूप न हो तो अज्ञान और उसके
द्वारा होने वाले भेदभाव को नष्ट करने वाला अपरोक्ष ज्ञान ही िकसी को न हो। जगत मंे िदखने वाले तीनों गुण
आपके हंै और आपके द्वारा ही पर्कािशत होते हंै, यह सत्य है। परंतु इन गुणों की पर्काशक वृित्तयों से आपके स्वरूप
का केवल अनुमान ही होता है, वास्तिवक स्वरूप का साक्षात्कार नहीं होता। (आपके स्वरूप का साक्षात्कार तो आपके
इस िवशुद्ध सत्त्वमय स्वरूप की सेवा करने पर आपकी कृपा से ही होता है।) भगवन् ! मन और वेद-वाणी के द्वारा
केवल आपके स्वरूप का अनुमानमातर् होता है क्योंिक आप उनके द्वारा दृश्य नहीं; उनके साक्षी हंै। इसिलए आपके
गुण, जन्म और कमर् अनुकर्म आिद के द्वारा आपके नाम और रूप का िनरूपण नहीं िकया जा सकता। िपर भी
पर्भो ! आपके भक्तजन उपासना आिद िकर्यायोगों के द्वारा आपका साक्षात्कार तो करते ही हंै। जो पुरुष आपके
मंगलमय नामों और रूपों का शर्वण, कीतर्न, स्मरण और ध्यान करता है और आपके चरणकमलों की सेवा मंे ही
अपना िचत्त लगाये रहता है, उसे िफर जन्म-मृत्युरूप संसार के चकर् मंे नहीं आना पड़ता। सम्पूणर् दुःखों के हरने
वाले भगवन् ! आप सवर्ेश्वर है। यह पृथ्वी तो आपका चरणकमल ही है। आपके अवतार से इसका भार दूर हो गया।
धन्य है ! पर्भो ! हमारे िलए यह बड़े सौभाग्य की बात है िक हम लोग आपके सुन्दर-सुन्दर िचह्नों से युक्त
चरणकमलों के द्वारा िवभूिषत पृथ्वी को देखंेगे और स्वगर्लोक को भी आपकी कृपा से कृताथर् देखंेगे। पर्भों ! आप
अजन्मा हंै। यिद आपके जन्म के कारण के सम्बन्ध मंे हम कोई तकर् न करंे तो यही कह सकते है िक यह आपका
एक लीला-िवनोद है। ऐसा करने का कारण यह है िक आप द्वैत के लेश से रिहत सवार्िधष्ठानस्वरूप हंै और इस जगत
की उत्पित्त, िस्थित तथा पर्लय अज्ञान के द्वारा आप मंे आरोिपत हंै।
पर्भो ! आपने जैसे अनेकों बार मत्स्य, हयगर्ीव, कच्छप, नृिसंह, वाराह, हंस, राम, परशुराम और वामन अवतार
धारण करके हम लोगों की और तीनों लोकों की रक्षा की है, वैसे ही आप इस बार भी पृथ्वी का भार हरण
कीिजये। यजुनन्दन ! हम आपके चरणों मंे वन्दना करते हंै।
(शर्ीमद् भागवतः 10.2.26-40)
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वेदों द्वारा स्तुित


िजस पर्कार पर्ातःकाल होने पर सोते हुए समर्ाट को जगाने हेतु अनुजीवी बंदीजन समर्ाट के पराकर्म और सुयश का
गान करके उसे जगाते हंै, वैसे ही जब परमात्मा अपने बनाये हुए सम्पूणर् जगत को अपने मंे लीन करके
आत्मारमण के हेतु योगिनदर्ा स्वीकार करते हंै। तब पर्लय के अंत मंे शर्ुितयाँ उनका इस पर्कार से यशोगान कर
जगाती हंै। वेदों के तात्पयर्-दृिष्ट से 28 भेद हंै, अतः यहाँ 28 शर्ुितयों ने 28 श्लोकों से पर्भु की इस पर्कार से स्तुित
की हैः
'अिजत ! आप ही सवर्शर्ेष्ठ हंै, आप पर कोई िवजय नहीं पर्ाप्त कर सकता। आपकी जय हो, जय हो। पर्भो ! आप
स्वभाव से ही समस्त ऐश्वयोर्ं से पूणर् हंै, इसिलए चराचर पर्ािणयों को फँसाने वाली माया का नाश कर दीिजये। पर्भो
! इस गुणमयी माया ने दोष के िलए जीवों के आनंदािदमय सहज स्वरूप का आच्छादन करके उन्हंे बंधन मंे डालने
के िलए ही सत्त्वािद गुणों को गर्हण िकया है। जगत मंे िजतनी साधना, ज्ञान, िकर्या आिद शिक्तयाँ हंै, उन सबको
जगानेवाले आप ही हंै। इसिलए आपको िमटाए िबना यह माया िमट नही सकती। (इस िवषय मंे यिद पर्माण पूछा
जाये तो आपकी श्वासभूता शर्ुितयाँ ही – हम पर्माण हंै।) यद्यिप हम आपका अनुकर्म स्वरूपतः वणर्न करने मंे
असमथर् हंै, परंतु जब कभी आप माया के द्वारा जगत की सृिष्ट करके सगुण हो जाते हंै या उसको िनषेध करके
स्वरूपिस्थित की लीला करते हंै अथवा अपना सिच्चदानंदस्वरूप शर्ीिवगर्ह पर्कट करके कर्ीड़ा करते हंै, तभी हम
यित्कंिचत् आपका वणर्न करने मंे समथर् होती हंै। इसमंे सन्देह नहीं िक हमारे द्वारा इन्दर्, वरूण आिद देवताओं का
भी वणर्न िकया जाता है, परंतु हमारे (शर्ुितयों के) सारे मंतर् अथवा सभी मंतर्दर्ष्टा ऋिष, पर्तीत होने वाले इस सम्पूणर्
जगत को बर्ह्मस्वरूप ही अनुभव करते हंै। क्योंिक िजस समय यह सारा जगत नहीं रहता, उस समय भी आप बच
रहते हंै। जैसे घट, शराब (िमट्टी का प्याला, कसोरा) आिद सभी िवकार िमट्टी से ही उत्पन्न और पर्लय आप मंे ही
होती है, तब क्या आप पृथ्वी के समान िवकारी हंै ? नहीं-नहीं, आप तो एकरस-िनिवर्कार हंै। इसी से तो यह जगत
आप मंे उत्पन्न नहीं, पर्तीत है। इसिलए जैसे घट, शराब आिद का वणर्न भी िमट्टी का ही वणर्न है। यही कारण है
िक िवचारशील ऋिष, मन से जो कुछ सोचा जाता है और वाणी से जो कुछ कहा जाता है, उसे आप मंे ही िस्थत,
आपका ही स्वरूप देखते हंै। मनुष्य अपना पैर चाहे कहीं भी रखे, ईँट, पत्थर या काठ पर होगा वह पृथ्वी पर ही,
क्योंिक वे सब पृथ्वीस्वरूप ही हंै। इसिलए हम चाहे िजस नाम या िजस रूप का वणर्न करंे, वह आपका ही नाम,
आपका ही रूप है।
भगवन् ! लोग सत्त्व, रज, तम – इन तीन गुणों की माया से बने हुए अच्छे-बुरे भावों या अच्छी-बुरी िकर्याओं मंे
उलझ जाया करते हंै, परंतु आप तो उस माया नटी के स्वामी, उसको नचाने वाले हंै। इसीलए िवचारशील पुरुष
आपकी लीलाकथा के अमृतसागर मंे गोते लगाते रहते हंै और इसको अपने सारे पाप-ताप को धो-बहा देते हंै। क्यों
न हो, आपकी लीला-कथा सभी जीवों के मायामल को नष्ट करने वाली जो है। पुरुषोत्तम ! िजन महापुरुषों ने
आत्मज्ञान के द्वारा अंतःकरण के राग-द्वेष आिद और शरीर के कालकृत जरा-मरण आिद दोष िमटा िदये हंै और
िनरन्तर आपके उस स्वरूप की अनुमित मंे मग्न रहते हंै, जो अखण्ड आनंदस्वरूप है, उन्होंने अपने पाप-तापों को
सदा के िलए शांत, भस्म कर िदया है, इसके िवषय मंे तो कहना ही क्या है !।
भगवन् ! पर्ाणधािरयों के जीवन की सफलता इसी मंे है िक वे आपका भजन-सेवा करंे, आपकी आज्ञा का पालन करं;े
यिद वे ऐसा नहीं करते तो उनका जीवन व्यथर् है और उनके शरीर मंे श्वास का चलना ठीक वैसा ही है, जैसा लुहार
की धौंकनी मे हवा का आना-जाना। महत्तत्त्व, अहंकार आिद ने आपके अनुगर्ह से – आपके उनमंे पर्वेश करने पर ही
इस बर्ह्माण्ड की सृिष्ट की है। अन्नमय, पर्ाणमय, मनोमय, िवज्ञानमय और आनंदमय – इन पाँचों कोशों मंे पुरुषरूप
से रहने वाले, उनमंे 'मंै-मं'ै की स्फूितर् करने वाले भी आप ही हंै? आपके ही अिस्तत्व से उन कोशों के अिस्तत्व का
अनुभव होता है और उनके न रहने पर भी अिन्तम अविधरूप से आप िवराजमान रहते हंै। इस पर्कार सबमंे अिन्वत
और सबकी अविध होने पर भी असंग ही हंै। क्योंिक वास्तव मे जो कुछ वृित्तयों के द्वारा अिस्त अथवा नािस्त के
रूप मंे अनुभव होता है, उन अनुकर्म समस्त कायर्-कारणों से आप परे हंै। 'नेित-नेित' के द्वारा इन सबका िनषेध हो
जाने पर भी आप ही शेष रहते हंै, क्योंिक आप उस िनषेध के भी साक्षी हंै और वास्तव मंे आप ही एकमातर् सत्य
हंै। (इसिलए आपके भजन के िबना जीव का जीवन व्यथर् ही है; क्योंिक वह इस महान सत्य से वंिचत है)।
ऋिषयों ने आपकी पर्ािप्त के िलए अनेकों मागर् माने हंै। उनमंे जो स्थूल दृिष्टवाले हंै, वे मिणपुर चकर् मंे अिग्नरूप से
आपकी उपासना करते हंै। अरुण वंश के ऋिष समस्त नािड़यों के िनकलने के स्थान हृदय मंे आपके परम सूक्ष्म
स्वरूप दहर बर्ह्म की उपासना करते हंै। पर्भो ! हृदय से ही आपको पर्ाप्त करने का शर्ेष्ठ मागर् सुषुम्ना नाड़ी बर्ह्मरन्धर्
तक गयी हुई है। जो पुरुष उस ज्योितमर्य मागर् को पर्ाप्त कर लेता है और उससे ऊपर की ओर बढ़ता है, वह िफर
जन्म-मृत्यु के चक्कर मंे नहीं पड़ता। भगवन् ! आपने ही देवता, मनुष्य और पशु-पक्षी आिद योिनयाँ बनायी हंै।
सदा-सवर्तर् सब रूपों मंे आप हंै ही, इसिलए कारणरूप से पर्वेश न करने पर भी आप ऐसे जान पड़ते हंै मानों, उसमंे
पर्िवष्ट हुए हों। साथ ही िविभन्न आकृितयों का अनुकरण करके कहीं उत्तम तो कहीं अधमरूप से पर्तीत होते है, जैसे
आग छोटी-बड़ी लकिड़यों और कमोर्ं के अनुसार पर्चुर अथवा अल्प पिरमाण मंे या उत्तम-अधमरूप मंे पर्तीत होती है।
इसिलए संतपुरुष लौिकक-पारलौिकक कमोर्ं की दुकानदारी से, उनके फलों से िवरक्त हो जाते हंै और अपनी िनमर्ल
बुिद्ध से सत्य-असत्य, आत्मा-अनात्मा को पहचानकर जगत के झूठे रूपों मंे नहीं फँसते; आपके सवर्तर् एकरस,
समभाव से िस्थत सत्यस्वरूप का साक्षात्कार करते हंै।
पर्भो ! जीव िजन शरीरों मंे रहता है, वे उसके कमर् के द्वारा िनिमर्त होते हंै और वास्तव मंे उन शरीरों के कायर्-
कारणरूप आवरणों से वह रिहत है, क्योंिक वस्तुतः उन आवरणों की सत्ता ही नहीं है। तत्त्वज्ञानी पुरुष ऐसा कहते हंै
िक समस्त शिक्तयों को धारण करने वाले आपका ही वह स्वरूप है। स्वरूप होने के कारण अंश न होने पर भी उसे
अंश कहते हंै और िनिमर्त न होने पर भी िनिमर्त कहते हंै। इसी से बुिद्धमान पुरुष जीव के वास्तिवक स्वरूप पर
िवचार करके परम िवश्वास के साथ आपके चरणकमलों की उपासना करते हंै। क्योंिक आपके चरण ही समस्त वैिदक
कमोर्ं के समपर्णस्थान और मोक्षस्वरूप हंै।
दुरवगमात्मतत्त्विनगमाय तवात्ततनोश्चिरतमहामृतािब्धपिरवतर्पिरशर्मणाः।
न पिरलषिन्त केिचदपवगर्मपीश्वर ते चरणसरोजहंसकुलसंगिवसृष्टगृहाः।।
भगवन् ! परमात्मतत्त्व का ज्ञान पर्ाप्त करना अत्यंत किठन है। उसी का ज्ञान कराने के िलए आप िविवध पर्कार के
अवतार गर्हण करते हंै और उनके द्वारा ऐसी लीला करते हंै, जो अमृत के महासागर से भी मधुर और मादक होती
है। जो लोग उसका सेवन करते हंै, उनकी सारी थकावट दूर हो जाती है, वे परमानन्द से मग्न हो जाते हंै। कुछ
पर्ेमी भक्त तो ऐसे होते हंै, जो आपकी लीला-कथाओं को छोड़कर मोक्ष की भी अिभलाषा नहीं करते स्वगर् आिद की
तो बात अनुकर्म ही क्या है। वे आपके चरणकमलों के पर्ेमी परमहंसों के सत्संग मंे, जहाँ आपकी कथा होती है,
इतना सुख मानते हंै िक उसके िलए इस जीवन मंे पर्ाप्त अपनी घर-गृहस्थी का भी पिरत्याग कर देते हंै।
(शर्ीमद् भागवतः 10.87.21)
पर्भो ! यह शरीर आपकी सेवा का साधन होकर जब आपके पथ का अनुरागी हो जाता है, तब आत्मा, िहतैषी, सुहृद
और िपर्य व्यिक्त के समान आचरण करता है। आप जीव के िहतैषी, िपर्यतम और आत्मा ही हंै और सदा-सवर्दा जीव
को अपनाने के िलए तैयार भी रहते हंै। इतनी सुगमता होने पर तथा अनुकूल मानव शरीर पाकर भी लोग सख्यभाव
आिद के द्वारा आपकी उपासना नहीं करते, आप मंे नहीं रमते, बिल्क इस िवनाशी और असत् शरीर तथा उसके
सम्बिन्धयों मंे ही रम जाते हंै, उन्हीं की उपासना करने लगते हंै और इस पर्कार अपने आत्मा का हनन करते हंै,
उसे अधोगित मंे पहँुचाते हंै। भला, यह िकतने कष्ट की बात है ! इसका फल शुद्ध होता है िक उनकी सारी वृित्तयाँ,
सारी वासनाएँ शरीर आिद मंे ही लग जाती हंै और िफर उनके अनुसार उनको पशु-पक्षी आिद के न जाने िकतने
बुरे-बुरे शरीर गर्हण करने पड़ते हंै और इस पर्कार अत्यंत भयावह जन्म-मृत्युरूप संसार मंे भटकना पड़ता है।
िनभृतमरून्मनोऽक्षदृढ़योगयुजो हृिद यन्मुनय उपासते तदरयोऽिप ययुः स्मरणात्।
िस्तर्य उरगेन्दर्भोगभुजदण्डिवषक्तिधयो वयमिप ते समाः समादृशोऽिङघर्सरोजसुधाः।।
पर्भो ! बड़े-बड़े िवचारशील योगी-यित अपने पर्ाण, मन और इिन्दर्यों के वश मंे करके दृढ़ योगाभ्यास के द्वारा हृदय
मंे आपकी उपासना करते हंै। परंतु आश्चयर् की बात तो यह है िक उन्हंे िजस पद की पर्ािप्त होती है, उसी की पर्ािप्त
उन शतर्ुओं को भी हो जाती है, जो आपसे वैर-भाव रखते हंै। क्योंिक स्मरण तो वे भी करते ही हंै। कहाँ तक कहंे,
भगवन् ! वे िस्तर्याँ. जो अज्ञानवश आपको पिरिच्छन्न मानती हंै और आपकी शेषनाग के समान मोटी, लंबी तथा
सुकुमार भुजाओं के पर्ित कामभाव से आसक्त रहती हंै, िजस परम पद को पर्ाप्त करती हंै, वही पद हम शर्ुितयों को
भी पर्ाप्त होता है। यद्यिप हम आपको सदा-सवर्दा एकरस अनुभव करती हंै और आपके चरणारिवन्द का मकरन्द रस
पान करती रहती हंै। क्यों न हो, आप समदशीर् जो हंै। आपकी दृिष्ट मंे उपासक के पिरिच्छन्न या अपिरिच्छन्न भाव
मंे कोई अन्तर नहीं है।
(शर्ीमद् भागवतः 10.87.23)
भगवन् ! आप अनािद और अनन्त हंै। िजसका जन्म और मृत्यु काल से सीिमत है, वह भला, आपको कैसे जान
सकता है। स्वयं बर्ह्माजी, िनवृित्तपरायण सनकािद तथा पर्वृित्तपरायण मरीिच आिद भी बहुत पीछे आपसे ही उत्पन्न
हुए हंै। िजस समय आप सबको समेटकर सो जाते हंै, उस समय ऐसा कोई साधन नहीं रह जाता, िजससे उनके
साथ ही सोया हुआ जीव आपको जान सके, क्योंिक उस समय न तो आकाशािद स्थूल जगत रहता है न तो
महत्तत्त्वािद सूक्ष्म जगत। इन दोनों से बने हुए शरीर और उनके िनिमत्त क्षण-मुहूतर् आिद काल के अंग भी अनुकर्म
नहीं रहते। उस समय कुछ भी नहीं रहता। यहाँ तक की शास्तर् भी आपमंे ही समा जाते हंै। (ऐसी अवस्था मंे आपको
जानने की चेष्टा न करके आपका भजन करना ही सवोर्त्तम मागर् है।) पर्भो ! कुछ लोग मानते हंै िक असत् जगत की
उत्पित्त होती है और कुछ कहते हंै िक सत्-रूप दुःखों का नाश होने पर मुिक्त िमलती है। दूसरे लोग आत्मा को
अनेक मानते हंै तो कई लोग कमर् के द्वारा पर्ाप्त होने वाले लोक और परलोकरूप व्यवहार को सत्य मानते हंै। इसमंे
सन्देह नहीं िक ये सभी बातंे भर्ममूलक हंै और वे आरोप करके ही ऐसा उपदेश करते हंै। पुरुष ितर्गुणमय है। इस
पर्कार का भेदभाव केवल अज्ञान से ही होता है और आप अज्ञान से सवर्था परे हंै। इसिलए ज्ञानस्वरूप आपमंे िकसी
पर्कार का भेदभाव नहीं है।
यह ितर्गुणात्मक जगत मन की कल्पनामातर् है। केवल यही नहीं, परमात्मा और जगत से पृथक् पर्तीत होने वाला
पुरुष भी कल्पनामातर् ही है। इस पर्कार वास्तव मंे असत् होने पर भी अपने सत्य अिधष्ठान आपकी सत्ता के कारण
यह सत्य-सा पर्तीत हो रहा है। इसिलए भोक्ता, भोग्य और दोनों के सम्बन्ध को िसद्ध करने वाली इिन्दर्याँ आिद
िजतना भी जगत है, सबको आत्मज्ञानी पुरुष आत्मरूप से सत्य ही मानते हंै। सोने से बने हुए कड़े, कुण्डल आिद
स्वणर्रूप ही तो हं;ै इसिलए उनको इस रूप मंे जानने वाला पुरुष उन्हंे छोड़ता नहीं, वह समझता है िक यह भी
सोना है। इसी पर्कार यह जगत आत्मा मंे ही किल्पत, आत्मा से ही व्याप्त है, इसिलए आत्मज्ञानी पुरुष तो इसे
आत्मरूप ही मानते हंै।
भगवन् ! जो लोग यह समझते हंै िक आप समस्त पर्ािणयों और पदाथोर्ं के अिधष्ठान हंै, सबके आधार हंै और
सवार्त्मभाव से आपका भजन-सेवन करते हंै, वे मृत्यु को तुच्छ समझकर उसके िसर पर लात मारते हंै अथार्त् उस
पर िवजय पर्ाप्त कर लेते हंै। जो लोग आपसे िवमुख हंै, वे चाहे िजतने बड़े िवद्वान हों, उन्हंे आप कमोर्ं का पर्ितपादन
करने वाली शर्ुितयों से पशुओं के समान बाँध लेते हंै। इसके िवपरीत िजन्होंने आपके साथ पर्ेम का सम्बन्ध जोड़
रखा है, वे न केवल अपने को बिल्क दूसरों को भी पिवतर् कर देते हंै, जगत के बंधन से छुड़ा देते हंै। ऐसा सौभाग्य
भला, आपसे िवमुख लोगों को कैसे पर्ाप्त हो सकता है।
पर्भो ! आप मन, बुिद्ध और इिन्दर्य आिद करणों से, िचन्तन, कमर् आिद साधनों से सवर्था रिहत हंै। िफर भी आप
समस्त अंतःकरण और बाह्य करणों की शिक्तयों से सदा-सवर्दा सम्पन्न हंै। आप स्वतः िसद्ध ज्ञानवान, स्वयंपर्काश हंै;
अतः कोई काम करने के िलए आपको इिन्दर्यों की आवश्यकता नहीं है। जैसे छोटे-छोटे राजा अपनी पर्जा से कर
लेकर स्वयं अपने समर्ाट को कर देते हंै, वैसे ही मनुष्यों के पूज्य देवता और देवताओं के पूज्य बर्ह्मा आिद भी
अपने अिधकृत पर्ािणयों से पूजा स्वीकार करते हंै और माया के अधीन होकर आपकी पूजा करते रहते हंै। वे इस
पर्कार आपकी पूजा करते हंै िक आपने जहाँ जो कमर् करने के िलए उन्हंे िनयुक्त कर िदया है, वे आपसे भयभीत
रहकर वहीं वह काम करते रहते हंै। िनत्यमुक्त ! आप मायातीत हंै; िफर भी जब अपने ईक्षणमातर् से, संकल्पमातर् के
माया के साथ कर्ीड़ा करते हंै, तब आपका अनुकर्म संकेत पाते ही जीवों के सूक्ष्म शरीर और उनके सुप्त कमर्-संस्कार
जग जाते हंै और चराचर पर्ािणयों की उत्पित्त होती हंै। पर्भो ! आप परम दयालु हंै। आकाश के समान सबमंे सम
होने के कारण न तो कोई आपका अपना है और न तो पराया। वास्तव मंे तो आपके स्वरूप मंे मन और वाणी की
गित ही नहीं है। आपमंे कायर्-कारणरूप पर्पंच का अभाव होने से बाह्य दृिष्ट से आप शून्य के समान ही जान पड़ते हंै,
परंतु उस दृिष्ट के भी अिधष्ठान होने के कारण आप परम सत्य हंै।
भगवन् ! आप िनत्य एकरस हंै। यिद जीव असंख्य हों और सब-के-सब िनत्य एवं सवर्व्यापक हों, तब तो वे आपके
समान ही हो जायंेगे; उस हालत मंे वे शािसत हंै और आप शासक, यह बात बन ही नहीं सकती और तब आप
उनका िनयंतर्ण कर ही नहीं सकते। उनका िनयंतर्ण आप तभी कर सकते हंै, जब वे आपसे उत्पन्न एवं आपकी
अपेक्षा न्यून हों। इसमंे सन्देह नहीं िक ये सब-के-सब जीव तथा इनकी एकता या िविभन्नता आपसे ही उत्पन्न हुई
है। इसिलए आप उनमंे कारण रूप से रहते हुए भी उनके िनयामक हंै। वास्तव मंे आप उनमंे समरूप से स्वरूप कैसा
है। क्योंिक जो लोग ऐसा समझते हंै िक हमने जान िलया, उन्होंने वास्तव मंे आपको नहीं जाना, उन्होंने तो केवल
अपनी बुिद्ध के िवषय को जाना है, िजससे आप परे हंै। और साथ ही मित के द्वारा िजतनी वस्तुएँ जानी जाती हंै, वे
मितयों की िभन्नता के कारण िभन्न-िभन्न होती हंै; इसिलए उनकी दुष्टता, एक मत के साथ दूसरे मत का िवरोध
पर्त्यक्ष ही है। अतएव आपका स्वरूप समस्त मतों के परे है। स्वािमन् ! जीव आपसे उत्पन्न होता है, यह कहने का
ऐसा अथर् नहीं है िक आप पिरणाम के द्वारा जीव बनते हंै। िसद्धान्त तो यह है िक पर्कृित और पुरुष दोनों ही
अजन्मा हंै अथार्त् उनका वास्तिवक स्वरूप, जो आप हंै, कभी वृित्तयों के अंदर उतरता नहीं, जन्म नहीं लेता। तब
पर्ािणयों का जन्म कैसे होता है? अज्ञान के कारण पर्कृित को पुरुष और पुरुष को पर्कृित समझ लेने से, एक का
दूसरे के साथ संयोग हो जाने से जैसे 'बुलबुला' नाम की कोई स्वतन्तर् वस्तु नहीं है, परन्तु उपादन-कारण जल और
िनिमत्त-कारण वायु के संयोग से उसकी सृिष्ट हो जाती है। पर्कृित मंे पुरुष और पुरुष मंे पर्कृित का अध्यास (एक मंे
दूसरे की कल्पना) हो जाने के कारण ही जीवों के िविवध नाम और गुण रख िलये जाते हंै। अंत मंे जैसे समुदर् मंे
निदयाँ और मधु मंे समस्त पुष्पों के रस समा जाते हंै, वैसे ही वे सब-के-सब उपािधरिहत आप मंे समा जाते हंै।
(इसिलए जीवों की िभन्नता और उनका पृथक् अिस्तत्व आपके द्वारा िनयंितर्त है। उनकी पृथक स्वतंतर्ता और
सवर्व्यापकता आिद वास्तिवक सत्य को न जानने के कारण ही मानी जाती है।)
भगवन् ! सभी जीव आपकी माया से भर्म मंे भटक रहे हंै, अपने को आप से पृथक मानकर जन्म-मृत्यु का चक्कर
काट रहे हंै। परंतु बुिद्धमान पुरुष इस भर्म को समझ लेते हंै और सम्पूणर् भिक्तभाव से आपकी शरण गर्हण करते हंै,
क्योंिक आप जन्म-मृत्यु के चक्कर से छुड़ानेवाले हंै। यद्यिप शीत, गर्ीष्म और वषार् इन तीन भागोंवाला कालचकर्
आपका भूिवलासमातर् है, अनुकर्म वह सभी को भयभीत करता है, परंतु वह उन्हीं को बार-बार भयभीत करता है,
जो आपकी शरण नहीं लेते। जो आपके शरणागत भक्त हंै, उन्हंे भला जन्म-मृत्युरूप संसार का भय कैसे हो सकता
है?
िविजतहृिषकवायुिभदान्तमनस्तरगं य इह यतिन्त यन्तुमितलोलमुपायिखदः।
व्यसनशतािन्वताः समवहाय गुरोश्चरणं विणज इवाज सन्त्यकृतकणर्धरा जलधौ।।
अजन्मा पर्भो ! िजन योिगयों ने अपनी इिन्दर्यों और पर्ाणों को वश मंे कर िलया है, वे भी जब गुरुदेव के चरणों की
शरण न लेकर उच्छर्ंखल एवं अत्यंत चंचल मन-तुरंग को अपने वश मंे करने का यत्न करते हंै, तब अपने साधनों मंे
सफल नहीं होते। उन्हंे बार-बार खेद और संैकड़ों िवपित्तयों का सामना करना पड़ता है, केवल शर्म और दुःख ही
उनके हाथ लगता है। उनकी ठीक वही दशा होती है, जैसी समुदर् मंे िबना कणर्धार की नाव पर यातर्ा करने वाले
व्यापािरयों की होती है। (तात्पयर् यह िक जो मन को वश मंे करना चाहते हंै, उनके िलए कणर्धार, गुरु की अिनवायर्
आवश्यकता है।)
(शर्ीमद् भागवतः 10.87.33)
भगवन् ! आप अखण्ड आनंदस्वरूप और शरणागतों के आत्मा हंै। आपके रहते स्वजन, पुतर्, देह स्तर्ी, धन, महल,
पृथ्वी, पर्ाण और रथ आिद से क्या पर्योजन है? जो लोग इस सत्य िसद्धान्त को न जानकर स्तर्ी-पुरुष के सम्बन्ध से
होने वाले सुखों मंे ही रम रहे हंै, उन्हंे संसार मंे भला, ऐसी कौन सी वस्तु है, जो सुखी कर सके। क्योंिक संसार की
सभी वस्तुएँ स्वभाव से ही िवनाशी हंै, एक-न-एक िदन मिटयामेट हो जाने वाली हंै और तो क्या, वे स्वरूप से ही
सारहीन और सत्ताहीन हंै; वे भला, क्या सुख दे सकती हंै।
भगवन् ! जो ऐश्वयर्, लक्ष्मी, िवद्या, जाित, तपस्या आिद के घमंड से रिहत हंै, वे संतपुरुष इस पृथ्वीतल पर परम
पिवतर् और सबको पिवतर् करने वाले पुण्यमय सच्चे तीथर्स्थान हंै। क्योंिक उनके हृदय मंे आपके चरणारिवन्द सवर्दा
िवराजमान रहते हंै और यही कारण है िक उन संत पुरुषों का चरणामृत समस्त पापों और तापों को सदा के िलए
नष्ट कर देने वाला है। भगवन् ! आप िनत्य-आनंदस्वरूप आत्मा ही है। जो एक बार भी आपको अपना मन समिपर्त
कर देते हंै, आपमंे मन लगा देते हंै – वे उन देह – गेहों मंे कभी नहीं फँसते जो जीव के िववेक, वैराग्य, धैयर्, क्षमा
और शांित आिद गुणों का नाश करने वाले हंै। वे तो बस, आपमंे ही रम जाते हंै।
भगवन् ! जैसे िमट्टी से बना हुआ घड़ा िमट्टीरूप ही होता है, वैसे ही सत् से बना हुआ जगत भी सत् ही है; यह बात
युिक्तसंगत नहीं है, क्योंिक कारण और कायर् का िनदर्ेश ही उनके भेद का द्योतक है। यिद केवल भेद का िनषेध करने
के िलए ही ऐसा कहा जा रहा हो तो िपता और पुतर् मंे तथा दण्ड और घटनाश मंे कायर्-कारण की एकता सवर्तर् एक
सी नहीं देखी जाती। यिद कारण शब्द से िनिमत्त-कारण न लेकर केवल उपादान-कारण िलया जाय। जैसे कुण्डल का
सोना तो भी कहीं-कहीं कायर् की असत्यता पर्मािणत होती है; जैसे रस्सी मंे साँप। यहाँ उपादान-कारण अनुकर्म के
सत्य होने पर भी उसका कायर् सपर् अवस्था असत्य है। यिद यह कहा जाय िक पर्तीत होने वाले सपर् का उपादान-
कारण केवल रस्सी नहीं है, उसके साथ अिवद्या का, भर्म का मेल भी है तो यह समझना चािहए िक अिवद्या और
सत् वस्तु के संयोग से ही इस जगत की उत्पित्त हुई है। इसिलए जैसे रस्सी मंे पर्तीत होने वाला सपर् िमथ्या है, वैसे
ही सत् वस्तु मंे अिवद्या के संयोग से पर्तीत होने वाला नाम-रूपात्मक जगत भी िमथ्या है। यिद केवल व्यवहार की
िसिद्ध के िलए ही जगत की सत्ता अभीष्ट हो तो उसमंे कोई आपित्त नहीं; क्योंिक वह पारमािथर्क सत्य न होकर केवल
व्यावहािरक सत्य है। यह भर्म अज्ञानीजन िबना िवचार िकये पूवर्-पूवर् के भय से पर्ेिरत होकर अंधपरम्परा से इसे
मानते चले आ रहे हंै। ऐसी िस्थित मंे कमर्फल की सत्य बतलानेवाली शर्ुितयाँ केवल उन्ही लोगों को भर्म मंे डालती
हंै, जो कमर् मंे जड़ हो रहे हंै और यह नहीं समझते िक इनका तात्पयर् उन कमोर्ं मंे लगाने मंे है। भगवन् !
वास्तिवक बात तो यह है िक यह जगत उत्पित्त के पहले नहीं था और पर्लय के बाद नहीं रहेगा, इससे यह िसद्ध
होता है िक यह बीच मंे भी एकरस परमात्मा मंे िमथ्या ही पर्तीत हो रहा है। इसी से हम शर्ुितयाँ इस जगत का
वणर्न ऐसी उपमा देकर करती हंै िक जैसे िमट्टी मंे घड़ा, लोहे मंे शस्तर् और सोने मंे कुण्डल आिद नाम मातर् हंै,
वास्तव मंे िमट्टी, लोहा और सोना ही हंै। वैसे ही परमात्मा मंे विणर्त जगत नाममातर् है, सत्य सवर्था िमथ्या और
मन की कल्पना है। इसे नासमझ मूखर् ही सत्य मानते हंै।
भगवन् ! जब जीव माया से मोिहत होकर अिवद्या को अपना लेता है, उस समय उसके स्वरूपभूत आनंदािद गुण
ढक जाते हं;ै वह गुणजन्य वृित्तयों, इिन्दर्यों और देहों मंे फँस जाता है तथा उन्हीं को अपना-आपा मानकर उनकी
सेवा करने लगता है। अब उनकी जन्म-मृत्यु मंे अपनी जन्म-मृत्यु मानकर उनके चक्कर मंे पड़ जाता है। परंतु पर्भो
! जैसे साँप अपने कंेचुल से कोई सम्बन्ध नहीं रखता, उसे छोड़ देता है, वैसे ही आप माया-अिवद्या से कोई सम्बन्ध
नहीं रखते, उसे सदा-सवर्दा छोड़े रहते हंै। इसी से आपके सम्पूणर् ऐश्वयर् सदा-सवर्दा आपके साथ रहते हंै। अिणमा
आिद अष्टिसिद्धयों से युक्त परमैश्वयर् मंे आपकी िस्थित है। इसी से आपका ऐश्वयर्, धमर्, यश, शर्ी, ज्ञान और सीमा से
आबद्ध नहीं है। भगवन् ! यिद मनुष्य यित-योगी होकर भी अपने हृदय की िवषय वासनाओं को उखाड़ नहीं फंेकते
तो उन असाध्यों के िलए आप हृदय मंे रहने पर भी वैसे ही दुलर्भ हंै, जैसे कोई अपने गले मंे मिण पहने हुए हो,
परंतु उसकी याद न रहने पर उसे ढँूढता िफरे इधर-उधर। जो साधक अपनी इिन्दर्यों को तृप्त करने मंे ही लगे रहते
हंै, िवषयों से िवरक्त नहीं होते, उन्हंे जीवनभर और जीवन के बाद भी दुःख-ही-दुःख भोगना पड़ता है। क्योंिक वे
साधक नहीं, दम्भी हंै। एक तो अभी उन्हंे मृत्यु से छुटकारा नहीं िमला है, लोगों को िरझाने, धन कमाने आिद के
क्लेश उठाने पड़ रहे हंै और दूसरे आपका स्वरूप न जानने के कारण अपने धमर्-कमर् का उल्लंघन करने से परलोक
मंे नरक आिद पर्ाप्त होने का भय भी बना ही रहता है। अनुकर्म
भगवन् ! आपके वास्तिवक स्वरूप को जानने वाला पुरुष आपके िदये हुए पुण्य और पापकमोर्ं के फल सुख एवं
दुःखों को नहीं जानता, नहीं भोगता, वह भोग्य और भोक्तापन के भाव से ऊपर उठ जाता है। उस समय िविधिनषेध
के पर्ितपादक शास्तर् भी उससे िनवृत्त हो जाते हंै; क्योंिक वे देहािभमािनयों के िलए हंै। उनकी ओर तो उसका ध्यान
ही नहीं जाता। िजसे आपके स्वरूप का ज्ञान नहीं हुआ है, वह भी पर्ितिदन आपकी पर्त्येक युग मंे की हुई लीलाओं,
गुणों का गान सुन-सुनकर उनके द्वारा आपको अपने हृदय मंे िबठा लेता है तो अनन्त, अिचन्तय, िदव्य गुणगणों के
िनवासस्थान पर्भो ! आपका वह पर्ेमी भक्त भी पाप-पुण्यों के फल सुख-दुःखो और िविध-िनषेधों से अतीत हो जाता
है, क्योंिक आप ही उनकी मोक्षस्वरूप गित हंै। (परंतु इन ज्ञानी और पर्ेिमयों को छोड़कर और सभी शास्तर् बंधन मंे हंै
तथा वे उसका उल्लंघन करने पर दुगर्ित को पर्ाप्त होते हंै।)
भगवन् ! स्वगार्िद लोकों के अिधपित इन्दर्, बर्ह्मा पर्भृित्त भी आपकी थाह-आपका पार न पा सके और आश्चयर् की
बात तो यह है िक आप भी उसे नहीं जानते। क्योंिक जब अंत है ही नहीं तब कोई जानेगा कैसे? पर्भो ! जैसे
आकाश मंे हवा से धूल के नन्हंे-नन्हंे कण उड़ते रहते हंै, वैसे ही आपमंे काल के वेग से अपने से उत्तरोत्तर दस गुने
सात आवरणों के सिहत असंख्य बर्ह्माण्ड एक साथ ही घूमते रहते हंै। तब भला, आपकी सीमा कैसे िमले।
हम शर्ुितयाँ भी आपके स्वरूप का साक्षात् वणर्न नहीं कर सकतीं, आपके अितिरक्त वस्तुओं का िनषेध करते-करते
अंत मंे अपना भी िनषेध कर देती हंै और आप मंे अपनी सत्ता खोकर सफल हो जाती हंै।'
(शर्ीमद् भागवतः 10.87.14-41)
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चतुःश्लोकी भागवत
बर्ह्माजी द्वारा भगवान नारायण की स्तुित िकये जाने पर पर्भु ने उन्हंे सम्पूणर् भागवत-तत्त्व का उपदेश केवल चार
श्लोकों मे िदया था। वही मूल चतुःश्लोकी भागवत है। अनुकर्म
अहमेवासमेवागर्े नान्यद् यत् सदसत् परम।
पश्चादहं यदेतच्च योऽविशष्येत सोऽरम्यहम्।।1।।
ऋतेऽथर्ं यत् पर्तीयेत न पर्तीयेत चात्मिन।
तिद्वद्यादात्मनो मया यथाऽऽभासो यथा तमः।।2।।
यथा महािन्त भूतािन भूतेषूच्चावचेष्वनु।
पर्िवष्टान्यपर्िवष्टािन तथा तेषु न तेष्वहम्।।3।।
एतावदेव िजज्ञास्यं तत्त्विजज्ञासुनाऽऽत्मनः।
अन्वयव्यितरेकाभ्यां यत् स्यात् सवर्तर् सवर्दा।।4।।
सृिष्ट से पूवर् केवल मंै ही था। सत्, असत् या उससे परे मुझसे िभन्न कुछ नहीं था। सृिष्ट न रहने पर (पर्लयकाल मंे)
भी मंै ही रहता हँू। यह सब सृिष्टरूप भी मंै ही हँू और जो कुछ इस सृिष्ट, िस्थित तथा पर्लय से बचा रहता है, वह
भी मै ही हँू।(1)
जो मुझ मूल तत्त्व को छोड़कर पर्तीत होता है और आत्मा मंे पर्तीत नहीं होता, उसे आत्मा की माया समझो। जैसे
(वस्तु का) पर्ितिबम्ब अथवा अंधकार (छाया) होता है।(2)
जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अिग्न, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदाथोर्ं मंे पर्िवष्ट होते हुए भी उनमंे
पर्िवष्ट नहीं हंै, वैसे ही मंै भी िवश्व मंे व्यापक होने पर भी उससे सम्पृक्त हँू।(3)
आत्मतत्त्व को जानने की इच्छा रखने वाले के िलए इतना ही जानने योग्य है िक अन्वय (सृिष्ट) अथवा व्यितरेक
(पर्लय) कर्म मंे जो तत्त्व सवर्तर् एवं सवर्दा रहता है, वही आत्मतत्त्व है।(4)
इस चतुःश्लोकी भागवत के पठन एवं शर्वण से मनुष्य के अज्ञानजिनत मोह और मदरूप अंधकार का नाश हो
वास्तिवक ज्ञानरूपी सूयर् का उदय होता है। अनुकर्म
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पर्ाथर्ना का पर्भाव
सन् 1956 मंे मदर्ास इलाके मंे अकाल पड़ा। पीने का पानी िमलना भी दुलर्भ हो गया। वहाँ का तालाब 'रेड
स्टोन लेक' भी सूख गया। लोग तर्ािहमाम् पुकार उठे। उस समय के मुख्यमंतर्ी शर्ी राजगोपालाचारी ने धािमर्क
जनता से अपील की िक 'सभी लोग दिरया के िकनारे एकितर्त होकर पर्ाथर्ना करंे।' सभी समुदर् तट पर एकितर्त
हुए। िकसी ने जप िकया तो िकसी ने गीता का पाठ, िकसी ने रामायण की चौपाइयाँ गंुजायी तो िकसी ने अपनी
भावना के अनुसार अपने इष्टदेव की पर्ाथर्ना की। मुख्यमंतर्ी ने सच्चे हृदय से, गदगद कंठ से वरुणदेव, इन्दर्देव
और सबमंे बसे हुए आिदनारायण िवष्णुदेव की पर्ाथर्ना की। लोग पर्ाथर्ना करके शाम को घर पहँुचे। वषार् का
मौसम तो कब का बीत चुका था। बािरश का कोई नामोिनशान नहीं िदखाई दे रहा था। 'आकाश मे बादल तो
रोज आते और चले जाते हंै।' – ऐसा सोचते-सोचते सब लोग सो गये। रात को दो बजे मूसलाधार बरसात ऐसी
बरसी, ऐसी बरसी िक 'रेड स्टोन लेक' पानी से छलक उठा। बािरश तो चलती ही रही। यहाँ तक िक मदर्ास
सरकार को शहर की सड़कों पर नावंे चलानी पड़ीं। दृढ़ िवश्वास, शुद्ध भाव, भगवन्नाम, भगवत्पर्ाथर्ना छोटे-से-छोटे
व्यिक्त को भी उन्नत करने मंे सक्षम है। महात्मा गाँधी भी गीता के पाठ, पर्ाथर्ना और रामनाम के स्मरण से
िवघ्न-बाधाओं को चीरते हुए अपने महान उद्देश्य मंे सफल हुए, यह दुिनया जानती है। पर्ाथर्ना करो.... जप करो...
ध्यान करो... ऊँचा संग करो... सफल बनो, अपने आत्मा-परमात्मा को पहचान कर जीवनमुक्त बनो।
अनुकर्म
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