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अनुकर्म
व्यासजी द्वारा मंगल स्तुित।
कुन्ती द्वारा स्तुित।
शुकदेव जी द्वारा स्तुित।
बर्ह्माजी द्वारा स्तुित।
देवताओं द्वारा स्तुित।
धर्ुव द्वारा स्तुित।
महाराज पृथु द्वारा स्तुित।
रूदर् द्वारा स्तुित।
पर्ह्लाद द्वारा स्तुित।
गजेन्दर् द्वारा स्तुित।
अकर्ूरजी द्वारा स्तुित।
नारदजी द्वारा स्तुित।
दक्ष पर्जापित द्वारा स्तुित।
देवताओं द्वारा गभर्-स्तुित।
वेदों द्वारा स्तुित।
चतुःश्लोकी भागवत।
पर्ाथर्ना का पर्भाव।
हे लीलाधर ! जैसे मूढ़ लोग दूसरा भेष धारण िकये हुए नट को पर्त्यक्ष देखकर भी नहीं पहचान सकते, वैसे ही आप
िदखते हुए भी नहीं िदखते। आप शुद्ध हृदय वाले, िवचारशील जीवन्मुक्त परमहंसो के हृदय मंे अपनी पर्ेममयी भिक्त
का सृजन करने के िलए अवतीणर् हुए हंै। िफर हम अल्पबुिद्ध िस्तर्याँ आपको कैसे पहचान सकती हंै? आप शर्ीकृष्ण,
वासुदेव, देवकीनन्दन, नन्दगोप लाडले लाल गोिवन्द को हमारा बारम्बार पर्णाम है।
िजनकी नािभ से बर्ह्मा का जन्मस्थान कमल पर्कट हुआ है, जो सुन्दर कमलों की माला धारण करते हंै, िजनके नेतर्
कमल के समान िवशाल और कोमल हंै, िजनके चरमकमलों मंे कमल का िचह्न है, ऐसे शर्ीकृष्ण को मेरा बार-बार
नमस्कार है। हृिषकेष ! जैसे आपने दुष्ट कंस के द्वारा कैद की हुई और िचरकाल से शोकगर्स्त देवकी रक्षा की थी,
वैसे ही आपने मेरी भी पुतर्ों के साथ बार-बार िवपित्तयों से रक्षा की है। आप ही हमारे स्वामी हंै। आप सवर्शिक्तमान
हंै। शर्ीकृष्ण ! कहाँ तक िगनाऊँ? िवष से, लाक्षागृह की भयानक आग से, िहिडम्ब आिद राक्षसों की दृिष्ट से, दुष्टों की
द्यूत-सभा से, वनवास की िवपित्तयों से और अनेक बार के युद्धों मंे अनेक महारिथयों के शस्तर्ास्तर्ों से और अभी-अभी
इस अश्वत्थामा के बर्ह्मास्तर् से भी आपने ही हमारी रक्षा की है।
िवपदः सन्तु न शश्वत्ततर् ततर् जगद् गुरो।
भवतो दशर्नं यत्स्यादपुनभर्वदशर्नम्।।
हे जगदगुरो ! हमारे जीवन मंे सवर्दा पग-पग पर िवपित्तयाँ आती रहंे, क्योंिक िवपित्तयों मंे ही िनिश्चत रूप से आपके
दशर्न हुआ करते हंै और आपके दशर्न हो जाने पर िफर जन्म-मृत्यु के चक्कर मंे नहीं आना पड़ता। अनुकर्म
(शर्ीमद् भागवतः 1.8.25)
ऊँचे कुल मंे जन्म, ऐश्वयर्, िवद्या और सम्पित्त के कारण िजसका घमंड बढ़ रहा है, वह मनुष्य तो आपका नाम भी
नहीं ले सकता, क्योंिक आप तो उन लोगों को दशर्न देते हंै, जो अिकंचन हंै। आप िनधर्नों के परम धन हंै। माया
का पर्पंच आपका स्पशर् भी नहीं कर सकता। आप अपने-आप मंे ही िवहार करने वाले एवं परम शांतस्वरूप हंै। आप
ही कैवल्य मोक्ष के अिधपित है। मंै आपको अनािद, अनन्त, सवर्व्यापक, सबके िनयन्ता, कालरूप, परमेश्वर समझती
हँू और बारम्बार नमस्कार करती हँू। संसार के समस्त पदाथर् और पर्ाणी आपस टकरा कर िवषमता के कारण
परस्पर िवरूद्ध हो रहे हंै, परंतु आप सबमंे समान रूप से िवचर रहे हंै। भगवन् ! आप जब मनुष्यों जैसी लीला करते
हंै, तब आप क्या करना चाहते हंै यह कोई नहीं जानता। आपका कभी कोई न िपर्य है और न अिपर्य। आपके
सम्बन्ध मंे लोगों की बुिद्ध ही िवषम हुआ करती है। आप िवश्व के आत्मा हंै, िवश्वरूप हंै। न आप जन्म लेते हंै और
न कमर् करते हंै। िफर भी पशु-पक्षी, मनुष्य, ऋिष, जलचर आिद मंे आप जन्म लेते हंै और उन योिनयों के अनुरूप
आपने दूध की मटकी फोड़कर यशोदा मैया को िखजा िदया था और उन्होंने आपको बाँधने के िलए हाथ मंे रस्सी ली
थी, तब आपकी आँखों मंे आँसू छलक आये थे, काजल कपोलों पर बह चला था, नेतर् चंचल हो रहे थे और भय की
भावना से आपने अपने मुख को नीचे की ओर झुका िलया था ! आपकी उस दशा का, लीला-छिव का ध्यान करके
मंै मोिहत हो जाती हँू। भला, िजससे भय भी भय मानता है, उसकी यह दशा !
आपने अजन्मा होकर भी जन्म क्यों िलया है, इसका कारण बतलाते हुए कोई-कोई महापुरुष यों कहते हंै िक जैसे
मलयाचल की कीितर् का िवस्तार करने के िलए उसमंे चंदन पर्कट होता, वैसे ही अपने िपर्य भक्त पुण्यश्लोक राजा यदु
की कीितर् का िवस्तार करने के िलए ही आपने उनके वंश मंे अवतार गर्हण िकया है। दूसरे लोग यों कहते हंै िक
वासुदेव और देवकी ने पूवर् जन्म मंे (सुतपा और पृिश्न के रूप मंे) आपसे यही वरदान पर्ाप्त िकया था, इसीिलए आप
अजन्मा होते हुए भी जगत के कल्याण और दैत्यों के नाश के िलए उनके पुतर् बने हंै। कुछ और लोग यों कहते हंै
िक यह पृथ्वी दैत्यों के अत्यंत भार से समुदर् मंे डूबते हुए जहाज की तरह डगमगा रही थी, पीिड़त हो रही थी, तब
बर्ह्मा की पर्ाथर्ना से उसका भार उतारने के िलए ही आप पर्कट हुए। कोई महापुरुष यों कहते हंै िक जो लोग इस
संसार मंे अज्ञान, कामना और कमोर्ं के बंधन मंे जकड़े हुए पीिड़त हो रहे हंै, उन लोगों के िलए शर्वण और स्मरण
करने योग्य लीला करने के िवचार से ही आपने अवतार गर्हण िकया है। भक्तजन बार-बार आपके चिरतर् का शर्वण,
गान, कीतर्न एवं स्मरण करके आनंिदत होते रहते हंै, वे ही अिवलम्ब आपके उन चरणकमलों के दशर्न कर पाते हंै,
जो जन्म-मृत्यु के पर्वाह को सदा के िलए रोक देते हंै।
भक्तवांछा हम लोगों को छोड़कर जाना चाहते हं? ै आप जानते हंै िक आपके चरमकमलों के अितिरक्त हमंे और िकसी
का सहारा नहीं है। पृथ्वी के राजाओं के तो हम यों ही िवरोधी हो गये हंै। जैसे जीव के िबना इिन्दर्याँ शिक्तहीन हो
जाती हंै, वैसे ही आपके दशर्न िबना यदुवंिशयों के और हमारे पुतर् पाण्डवों के नाम तथा रूप का अिस्तत्व ही क्या
रह जाता है। गदाधर ! आपके िवलक्षण चरणिचह्नों से िचिह्नत यह कुरुजांगल देश की भूिम आज जैसी शोभायमान
हो रही है, वैसी आपके चले जाने के बाद न रहेगी। आपकी दृिष्ट के पर्भाव से ही यह देश पकी हुई फसल तथा लता-
वृक्षों से समृद्ध हो रहा है। ये वन, पवर्त, नदी और समुदर् भी आपकी दृिष्ट से ही वृिद्ध को पर्ाप्त हो रहे हंै। आप िवश्व
के स्वामी हंै, िवश्व के आत्मा हंै और िवश्वरूप हंै। यदुवंिशयों और पाण्डवों मंे मेरी बड़ी ममता हो गयी है। आप कृपा
करके स्वजनों के साथ जोड़े हुए इस स्नेह की दृढ़ फाँसी को काट दीिजये। शर्ीकृष्ण ! जैसे गंगा की अखण्ड धारा
समुदर् मंे िगरती रहती है, वैसे ही मेरी बुिद्ध िकसी दूसरी ओर न जाकर आपसे ही िनरंतर पर्ेम करती रहे। अनुकर्म
शर्ीकृष्ण ! अजर्ुन के प्यारे सखा, यदुवंशिशरोमणे ! आप पृथ्वी के भाररूप राजवेशधारी दैत्यों को जलाने के िलए
अिग्नरूप है। आपकी शिक्त अनन्त है। गोिवन्द ! आपका यह अवतार गौ, बर्ाह्मण और देवताओं का दुःख िमटाने के
िलए ही है। योगेश्वर ! चराचर के गुरु भगवन् ! मंै आपको नमस्कार करती हँू।
(शर्ीमद् भागवतः 1.8.18.43)
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चतुःश्लोकी भागवत
बर्ह्माजी द्वारा भगवान नारायण की स्तुित िकये जाने पर पर्भु ने उन्हंे सम्पूणर् भागवत-तत्त्व का उपदेश केवल चार
श्लोकों मे िदया था। वही मूल चतुःश्लोकी भागवत है। अनुकर्म
अहमेवासमेवागर्े नान्यद् यत् सदसत् परम।
पश्चादहं यदेतच्च योऽविशष्येत सोऽरम्यहम्।।1।।
ऋतेऽथर्ं यत् पर्तीयेत न पर्तीयेत चात्मिन।
तिद्वद्यादात्मनो मया यथाऽऽभासो यथा तमः।।2।।
यथा महािन्त भूतािन भूतेषूच्चावचेष्वनु।
पर्िवष्टान्यपर्िवष्टािन तथा तेषु न तेष्वहम्।।3।।
एतावदेव िजज्ञास्यं तत्त्विजज्ञासुनाऽऽत्मनः।
अन्वयव्यितरेकाभ्यां यत् स्यात् सवर्तर् सवर्दा।।4।।
सृिष्ट से पूवर् केवल मंै ही था। सत्, असत् या उससे परे मुझसे िभन्न कुछ नहीं था। सृिष्ट न रहने पर (पर्लयकाल मंे)
भी मंै ही रहता हँू। यह सब सृिष्टरूप भी मंै ही हँू और जो कुछ इस सृिष्ट, िस्थित तथा पर्लय से बचा रहता है, वह
भी मै ही हँू।(1)
जो मुझ मूल तत्त्व को छोड़कर पर्तीत होता है और आत्मा मंे पर्तीत नहीं होता, उसे आत्मा की माया समझो। जैसे
(वस्तु का) पर्ितिबम्ब अथवा अंधकार (छाया) होता है।(2)
जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अिग्न, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदाथोर्ं मंे पर्िवष्ट होते हुए भी उनमंे
पर्िवष्ट नहीं हंै, वैसे ही मंै भी िवश्व मंे व्यापक होने पर भी उससे सम्पृक्त हँू।(3)
आत्मतत्त्व को जानने की इच्छा रखने वाले के िलए इतना ही जानने योग्य है िक अन्वय (सृिष्ट) अथवा व्यितरेक
(पर्लय) कर्म मंे जो तत्त्व सवर्तर् एवं सवर्दा रहता है, वही आत्मतत्त्व है।(4)
इस चतुःश्लोकी भागवत के पठन एवं शर्वण से मनुष्य के अज्ञानजिनत मोह और मदरूप अंधकार का नाश हो
वास्तिवक ज्ञानरूपी सूयर् का उदय होता है। अनुकर्म
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पर्ाथर्ना का पर्भाव
सन् 1956 मंे मदर्ास इलाके मंे अकाल पड़ा। पीने का पानी िमलना भी दुलर्भ हो गया। वहाँ का तालाब 'रेड
स्टोन लेक' भी सूख गया। लोग तर्ािहमाम् पुकार उठे। उस समय के मुख्यमंतर्ी शर्ी राजगोपालाचारी ने धािमर्क
जनता से अपील की िक 'सभी लोग दिरया के िकनारे एकितर्त होकर पर्ाथर्ना करंे।' सभी समुदर् तट पर एकितर्त
हुए। िकसी ने जप िकया तो िकसी ने गीता का पाठ, िकसी ने रामायण की चौपाइयाँ गंुजायी तो िकसी ने अपनी
भावना के अनुसार अपने इष्टदेव की पर्ाथर्ना की। मुख्यमंतर्ी ने सच्चे हृदय से, गदगद कंठ से वरुणदेव, इन्दर्देव
और सबमंे बसे हुए आिदनारायण िवष्णुदेव की पर्ाथर्ना की। लोग पर्ाथर्ना करके शाम को घर पहँुचे। वषार् का
मौसम तो कब का बीत चुका था। बािरश का कोई नामोिनशान नहीं िदखाई दे रहा था। 'आकाश मे बादल तो
रोज आते और चले जाते हंै।' – ऐसा सोचते-सोचते सब लोग सो गये। रात को दो बजे मूसलाधार बरसात ऐसी
बरसी, ऐसी बरसी िक 'रेड स्टोन लेक' पानी से छलक उठा। बािरश तो चलती ही रही। यहाँ तक िक मदर्ास
सरकार को शहर की सड़कों पर नावंे चलानी पड़ीं। दृढ़ िवश्वास, शुद्ध भाव, भगवन्नाम, भगवत्पर्ाथर्ना छोटे-से-छोटे
व्यिक्त को भी उन्नत करने मंे सक्षम है। महात्मा गाँधी भी गीता के पाठ, पर्ाथर्ना और रामनाम के स्मरण से
िवघ्न-बाधाओं को चीरते हुए अपने महान उद्देश्य मंे सफल हुए, यह दुिनया जानती है। पर्ाथर्ना करो.... जप करो...
ध्यान करो... ऊँचा संग करो... सफल बनो, अपने आत्मा-परमात्मा को पहचान कर जीवनमुक्त बनो।
अनुकर्म
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