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क वता सं ह

खाई के परे

मोती लाल
भूिमका

सा ह यक वमश और उनके दशन म यह नह ं होता क सृजन क

नवसं कृ ित का अथ समकालीन सापे ता से संबंिधत प रघटनाओं को खंगालना

भर हो । यहां उनके साथ जहां जीना है वह ं चीज के नये अथ म उनके होने न

होने के बीच जो संवेदनाएं हमारे बीच तैरती ह नह ं ब क कुरे दती भी है , वह ं

खोजना होता है , चुक गये अथ म क वताओं क तह तक, जो मेरे ’’खाई के

परे ’’ म पूरे िश त व साथक अथ लेते हए


ु आकार लेते ह और उजा के नये

ितज क ओर अ सर होते ह ।

म यह नह ं कह सकता क क वता के मापदं ड और प र थितय क

जकडबंद क वकालत यहां कतने ऊंचे प र े य म हो सका है , पर यहां जो कुछ

भी है , वे आज के कटु समय के बीच से उपजी वे संवेदनाएं ह, ज ह हम ना

नजरअंदाज कर सकते ह और ना ह बा द के ढे र पर बैठा ह सकते ह ।

जा हर है के बीच चलता तूिलका कसी न कसी प म चेतन-

अचेतन, इ छा-उपे ा के भेद को तोड़ती कोई य तो बनाएगा ह , यह अंतधारा


उन य के भीतर चुपचाप बह नह ं िनकलता ब क टकराता है उन सभी कोण

से और उफान बनकर कुछ आभास दे ता है क हां इसके परे भी कुछ है ।

अब यह जैसा है , आफ सम है और शायद इन क वताओं से कुछ उजा

िनकलता हो तो म समझूंगा क साथक कुछ तो हआ


ु है । अपनी राय, आलोचना

व सलाह से अवगत कराने क कृ पा अव य कर ।

मोती लाल

संपक: कायालय- व ुत लोको शड, ब डामु डा

राउरकेला - 770 032-उड़ सा

िनवास- ड़ गाकांटा, ख ड कायालय के पीछे

मनोहरपुर - 833 104-झारख ड

फोन - 099313 46271

अनु म

शीषक पृ शीषक पृ

ब ती 04 म खोया नह ं रहंू गा 76
मंगलसू 06 चुनौती 78

वजूद 09 मुझे बताना 80

िचंताएं 12 वह ं होगा ेम 82

कुछ नह ं होता 15 ी का जीवन 84

उजाला 18 अंत र म ब तयाँ 86

टे ढ़े समय म 20 पर परा का िनवाह 89

उनसे ेम 23 मेरे पास 91

ववशता 25 आ खर या करता 93

दे हर के पीछे 27 दरअसल 95

मेर नींद 29 वंिचत के बारे म 97

गांधी के दे श म खौफ 31 सूची के बाहर 100

अंतह न 34 पहली बार 102

ठ क समय 36 अभी जहां समय है 105

हार 39 अभी है हमार पास 107

वारदात 42 तय होगा समय 108

करवट लेना है 45 यह या है 110

हम ह उसम 47 उसक िनयित 113

िसंदरू के भीतर 50 शायद कह ं 115

बची हई
ु पृ वी 52 श द का होना 117
बचाए रखने क मजबूर 55 सू का रह य 120

फासले 57 स य क कल 123

दासता 59 सजक 125

अपने कमरे म 61 सलाह 127

फर कभी नह ं 63 हम नह ं थे 129

षडयं 65 होना दे खने के ित 131

तलाश 67 म नह ं था भीड़ म 133

सूरज उगेगा 69 सुरंग 135

यव था 71 अ त व

137

आकां ा 74 खाई के परे 139

ब ती

यहाँ भूख जगती है

चमड़े को छूने से

और मन बहकता है

गम सांस क महक से

उधर महज िचकनी जांघ को छूने पर


दध
ू उतर आता है

उनक आंख म

यहाँ फूल झड़ जाता है

उनके दे खने भर से

और तन फैल जाता है

पसरते डै न को दे खकर

उधर गंध क बार क डोर

तब बंध जाती है

उनक नाक म कह ं

यहाँ नींद उचट जाती है

सपन से तंग आकर

और आंच ख म होती है

पेट के आंच म ह कह ं

उधर बजबजाते क ड़े रग जाते ह

उनके हर सपन म

यहाँ भूख, फूल या नींद

तु हारे कसते तन से कह ं यादा

बेपरदा होकर झूलने को तैयार ह

इन दरवाजे वह न घर म

काश क कोई होता यहाँ


तु हार बरादर का

और दे खता

झड़ते तन से

खून क िसफ दो बूद


ं ह

कैसे सुला पाती है

हमारे घर म ब च को ।

मंगलसू
जब बक गई थी

तु हार हाथ क

सार चू ड़यां

कान के झुमके

नाक क नथनी

पांव के पाजेब

मन का शीशा

पता नह ं तब

ू था या नह ं
टटा

तु हारे भीतर भी कुछ

जब बक गये थे

तु हार रसोई के

सारे बतन

चू हे क राख के साथ-साथ

रजनीगंधा का गमला भी

पता नह ं य

तु हारे ह ठ ने पी िलया

आंसुओं को

या सूख गया

बेजान आंख म ह कह ं
जब बक गये थे

तु हारे घर के

सारे कपड़े

और नह ं बची थी

कोई एक प क ट भी

पता नह ं य

नल का पानी

तु हारे खून म उतर आया

या पहंु च गई तुम

इन सबसे परे

संवेदना वह न ितज पर

अब जब बची है

िसफ एक मंगलसू

और वह

िछन लेना चाहता है इसे भी

दो घूंट शराब के िलए

पता नह ं य

जसे होना चा हए

तु हारे भीतर

वह नजर नह ं आता है

और लाल-ितरछ रे खाएँ

तु हारे चेहरे पर जम जाती है


और कह ं नजर नह ं आता है

उसका या तु हारा

पता नह ं कसका मंगलसू ।


वजूद

तुम ितज पर

सुबह क सूरज सी हो

तुम हो िच ड़य जैसी

फुदकती रहती हो

अपने आंगन म

चांद क शीतलता भी तुमम ह

और फूल सी मु कान भी

तुम हो सकती हो

गंगा

यमुना

सर वती

या फर

ल मी
पावती

म रयम

पर तुम नह ं हो सकती

इनम से कोई एक आ था

जब भी

तु हारा प रचय दया गया

तु हार दे हय को सराहा गया

क फूल सी तुम कोमल हो

कमल सा नयन है

चाल हरणी सी है

पर नह ं दे खा गया

कभी तु हारे भीतर के भाव को

और झ क दया गया तु ह

रसोई क आंच पर

दहे ज क बिल वेद पर

बताया गया

क असल म तुम लड़क हो

एक गीली लकड़ क तरह

इन सबसे परे

तु ह बताना चा हए

क तुम इ दरा हो
मदर टे रेसा हो

मेधा पाटकर हो

या फर तुम

महादे वी हो

अमृता हो

और हो आंग सान सूची भी

तु ह नह ं बनना है

चू हे क आंच

या दहे ज क जांच

बनानी है एक रे खा

जो तु हार दे हर से

ितज क ओर जाती हो

और पहंु चती हो

तु हारे अपने सूरज के पास ।


िचंताएँ

मेर िचंता है क

कैसे आज क रोट कमाऊं

और सुला सकूं ब च को

उनक िचंता है क

कैसे छठ मं जल शीश का हो

और ाइं ग म म हो
हसै
ु न क सव म कलाकृ ित

तु हार िचंता है क

कैसे इस बार भी

िमल जाए कुस

और खुल जाए

वदे शी बक म एक खाता

िचंताएं अनंत है

कसी के िलए

ेम एक िचंता है

तो दहे ज दसर
ू िचंता

नौकर एक िचंता है

तो टे टस दसर
ू िचंता

पर िचंताओं के इस बक म

एक अ छ िचंता भी है

जैसे पयावरण

एक अ छ सी रचना

परमाणु िनश ीकरण

शांित वाता

और मानवािधकार हनन क िचंता


जब कोई आंच

उठती है आकाश क ओर

और नह ं िमलता है उसे

तवे पर रोट

तब वह पेट म समा जाती है

और जलाती है

सभी िचंताओं को

सूखी टहनी पर

जो चील बैठा है

उसक नजर टटोलती है

मुग के ब च को

और उड़ाना चाहता है

उन मासूम ब च को

िचंताओं क पं

यह ं नह ं ख म हो जाती

एक ितरछ रे खा

रसोई से उठकर
मंगल तक पहंु चती है

जो हो

सम त िचंताओं के बीच

एक असली िचंता

हमेशा से हािशये पर

चली जाती है

आम आदमी क िचंता

जसे चील उड़ा ले जाता है ।

कुछ नह ं होता
एक सा कभी कुछ नह ं होता

न ज म, न मृ यु

दो लाल गुलाब

सुख खून सा

जो मेरे गमले म हँ स रहे ह

मने दे खा

वे एक सा नह ं ह

आज क रात

पछली रात जैसी भी नह ं है

गुजरा हआ
ु दन

आज के दन सा भी नह ं है

मने यह भी दे खा

मेरे व पताजी का खून

एक सा नह ं है

डरते-डरते ह मने

चढ़ायी थी आंच पर

जंदगी म पहली बार


चाय क केतली

और दे खा था

भाप बनते हए
ु पानी को

दध
ू तो कब का

उतर चुका था

सेठ क ितजोर म

ब कुल आधी रात म

पहली बार डरा था म

चमगादड़ के ची कार से

घटाटोप अंधेरे म

एकदम से नह ं सुझा

और चाय उफनकर जल चुक थी

इस दिनया
ु के चमकते रोशनी म

जब पहली बार

आंख खुली थी

तभी जाना था

रोशनी क दिनया
ु को

और आंख च िधया गई थी

नह ं समेट पाया था म अपने आपको

और उन रोशिनय को भी

आजतक मेर आंख म


चुभता है रोशनी क चमक

लाख कोिशश के बावजूद

अपने को नह ं ढाल पा रहाहै

इस दिनया
ु क चमकती रोशनी म

हाँ सभी रोशनी

एक सा कभी नह ं होती ।
उजाला

मुझे अ छा लगता है

कटे -फटे चांद के बजाए

भरा-पूरा चांद

मुझे अ छा लगता है

शांत नद क बजाए

संगीत छे ड़ती नद

मुझे अ छा लगता है

गम से झुलसे फूल के बजाए

सद से जूझते फूल
मुझे अ छा लगता है

क वता सुनाने क बजाए

क वता बुनना

मुझे अ छा लगता है

सुबह म मं दर क घंट

म जद का अजान

िच ड़य का कलरव

सूय का उगना

मुझे अ छा लगता है

हरा रं ग

जैसे हं सता हआ
ु पेड़

लाल रं ग

जैसे िसमट हई
ु गोधूिल क बेला

पव आदमी

जैसे महान सुक़रात क मु कान

िन छल सेवा

जैसे मदर टे रेसा का समपण

मुझे अ छा लगता है

सम त जीव

सम त संभावनाएं
जो दे सके

मानव को उनका अथ

सारे तक को ताक पर रखकर

और जल सके वे द प

सारे अंधकार को िमटाकर ।

टे ढ़े समय म

म चाहता हंू

सबकुछ भूल जाऊं

चाहे िच ड़य का संगीत हो

या न दय का

चाहे माँ क लोर हो

या फर पता क संवेदना

इस टे ढ़े समय म
य न भूलने वाल म

कुछ ऐसे भी चेहरे ह

जो बरबस खंचता है मन को

और आईने म दख जाता है

उनक चमकती आंख

नीला आकाश सा फैली बाँह

गम सांस क धड़कन

जो बहते ह

नद क तरह

महकते ह

फूल क तरह

चमकते ह

सूरज क तरह

बहत
ु मु कल होता है

सबकुछ भूल जाना

भले ह समय टे ढ़ा जा जाए

म चाहता हंू

कुछ बुन लूं

समय के धाग से

अपने ब च के िलए कमीज

ब टया के िलए फ स
या फर माँ के िलए अदद साड़

समय के गुणा-भाग म

ब कुल नह ं बचता है

कसी के िलए कोई चीज

गये दो दशक से

मेरे फटे च पल ने

आजतक नह ं बुन सका है

कोई अ छा समय

और मने आजतक

फूल क ख़ुशबुओं से

बचाए रखा है अपने प रजन को

य भूलने क तार ख़

सदा ब साई म ढलते रहे ह

और उन धुंओं के बीच

कमरे का छ पर

ब कुल नह ं दखता

ना ह नजर आता

मेरे िलए कोई आकाश

मु ने के िलए खलौना

और उनके िलए चू ड़याँ


मने दे खा

भूलने का समय

अभी नह ं आया है

नह ं सूखी है

अभी याह

और बची है आंच

इन सारे टे ढ़े समय के बीच भी ।

उनसे ेम
एक दन मेरा ेम

घु प अंधेरे से िनकलकर

उनके आंगन म जा बैठा

और दे र तक सकता रहा

धूप क करण

जस दन

तु हार आंख म कुछ गड़ा था

और तु हारा हाथ

गोबर से सना था

म वहं सता रहा

तु हार ववशता को दे ख

उस दन

मेर आंख म चढ़ा था

एक उ माद वर

सागर सा वार

और एकदम उगा था

एक न हा सा पौधा

मेरे दय म ह कह ं
नह ं ठ क-ठ क

यह याद नह ं

म कहां था उस व

जब लहरायी थी

तु हार फा गुनी दप
ु टा

और अंगड़ाई के ार पर

थाप के कतने रदम पड़े थे

लाल-लाल यामल का फूल

कह ं िगरा था तु हारे पास

उड़ रह थी उन हवाओं म ह कह ं

महआ
ु क तेज गंध

एक पल को लगा

घड़े का ठं डा पानी

तुम उं डे ले बैठ हो

अपनी िचकनी जांघ म

और बना पतवार के नाव

तु हारे सुडौल तन के बीच

हचकोले खा रहा हो

बहत
ु संभव था फसल जाना

तु हार पु बांह म कह ं
क म िलपट पड़ा था

ठ क लताओं क तरह ।

ववशता

बंद कमरे म

हवा के द वार के बीच

कह ं कोई छे द नह ं है

जो उतरता हो

ू मन म
मेरे टटे

एक िच ड़या

जो च च मारती है

शीश क खड़क पर

हर रोज ठ क सुबह सात बजे

जब सुना जाता है समाचार

चाय के याले के साथ

तब वािचका के मु कान को

वो न ह ं िच ड़या नह ं दे ख पाती

य द दे ख पाती तो

अपना च च य घायल करती

तब नह ं बैठ जाती
मुंडेर पे ह कह ं

और गुंथती उस मु कान क लड़

ठ क उसी समय

कुछ मेघ

उतर आते ह

मेरे इसी कमरे म

नह ं खबर सुनने नह ं

बस कुछ बोने के िलए

ू मन म
मेरे टटे

बांध दरक जाते ह

फूल क खु बूएं

उड़ जाती ह

उतर आते ह

िच लाहट क पूर दिनया


इस छोटे से कमरे म

घर क खड़क के पीछे से

बस, कार, ेन

और आदिमय क दौड़

आंधी क तरह

डोलते दखते ह

तब मन ब कुल नह ं चाहता
भागने को

उनके पीछे

और हर रोज

ठ क इसी समय

प ी ट फन पकड़ा दे ती है

और बेट क फ स

मुझे बस म ठे ल दे ती है ।

दे हर के पीछे

वह क वताएं नह ं िलखती

मुझे लगता है क वह

कभी भी क वताएं नह ं िलख सकेगी

और यह बात क वता सी तैरती है

मेर आंख म

वह बुनती है

बांस से टोकर

प से दोना

और बांटती है र सी

वह बनती है

चावल से कंकड़

जंगल से लक ड़यां
और फंचती है कपड़े

वह जाती है खेत

गोबर से लीपती है आंगन

दो कोस से लाती है पानी

उसका सूरज कभी अ त नह ं होता

और वह अंधेरे म

शरबत बनकर बछ जाती है ख टया पर

वह होने को हो सकती है

एक मुक मल कताब

पर उनके अ र को

चू हे क आंच ने गला दया है

और बना डाला है उसे

नार से मोम

जो पघल जाता है

घर क रसोई म ह कह ं

सपने बुनने क चाहत िलए

वह भी चाहती है

दे ख चांदनी रात म

फसल को झूमते हए

गाते हए
ु िच ड़य को सुने

और गुनगुना ले अपने िलए कोई गीत

जो वह गाती थी

अ हड़ बचपन म

म चाहता हंू

वह िलखे अपनी क वताएं

अपने सूरज के बारे म

जो कभी भी नह ं चमका है

उसक दे हर म कह ं ।

मेर नींद

मुझे नींद क ज रत थी

और वह कह ं दख नह ं रह थी

पर म कैसे भूल सकता हंू

पछली बार वह

उतर तो थी मेर ह आंख म

उसे ढंू ढने क या म

म था उस फुटपाथ पर

जहाँ जांघ उघाड़े एक औरत

अपने ब चे को िचमट

बेखबर सो रह थी फट गुदड़ म
और उधर वह लंगड़ा

म छर के िभनिभनाहट पर भी

कतने मजे से नींद के आगोश म था

रात के इस तीसरे पहर म

सारा शहर सोया पड़ा था

और म अकेला जग रहा था

ठ क रे लवे टे शन क तरह

मने दे खा आकाश को

दे खा कुछ तारे लु थे

जो पहले पहर म

मेरे साथ-साथ चले थे

नींद को खोजने

शायद वो पा गये होगे

मेर उसी नींद को

इसिलए वो भी लु हो गये ह

मेर नजर से ।
गांधी के दे श म खौफ

अभी म या कर रह थी

ओह, कुछ याद य नह ं आ रहा


यह होता है

हमेशा यह होता ह यहां

जब भी कुछ काम करती है

दस
ू रे ह पल भूल जाती है

क म या कर रह थी

नह ं, टटा
ू नह ं है

कुछ भी मेरे भीतर

हाँ, याद आया

कल शाम आईना दरक गया था

जब म बैठ थी

अपने बाल को गूंथने के िलए

उसी रात मने दे खी थी

एक काली ह शी ब ली

चूहे को झपटते हए

हाँ, शायद परस सुबह

जब ओस से भीगे घास म

खुले पांव चली थी

रात क बा रश ने

सुबह को धोकर चमका दया था

म चूज को मुगदाना खला रह थी


तभी िनम ह चील ने

एक चूजा उड़ा िलया था

और मुग िचिचयाती दौड़ थी

आज दोपहर क बात है शायद

लू क मार से सभी

घर म दबक
ु े बैठे थे

शायद युग चल रहा था ट वी पर

पहले छत हली थी

फर द वार

कुछ समझूं

तभी धमाका हआ

और सुनी थी मने एक ची कार

शायद मेरे गली के उस कोने से

म, चाहती थी झांकूं गली म

मुझे नह ं खोलने दया गया दरवाजा

शाम को

म नह ं दे ख पायी लािलमा

बजली गुल थी

डबर के म म रोशनी म

मने सुना

उसे मार दया गया

बड़ बेदद से
पहले गभ को चीर डाला

फर लहू से लथपथ

ूण को िनकाला गया

और एक-एक कर अंग को उफ.....

रात खुली आंख से गुजर

बार-बार मेरे सामने

ह शी काली ब ली

और काली चील

मंडराते रहे थे

सुबह चू हे म

म लकड़ ठू ं स रह थी

तभी चुभा था

उस आईने का टु कड़ा पांव म

और म भूल गई

क अभी म या कर रह थी ।
अंतह न

अंतह न के अंत म

कुछ उलझ गया है

मेर डोर के वे तमाम ल छे

पर कोई नह ं है

न इस पार

न उस पार

बीच म

जो नद बह रह है

धाग के समु म

नह ं िमलती है

और नह ं सी पाती है

दर जन िच ड़या

मेरे िलए कोई घ सला

समय के अंतराल से

पृ वी के ितज पर
एक दहकता फूल

उस अंतह न बेला म खला था

जब ब चा बोलना सीखा ह था

और सूख गया था सारा दध


माँ के आंचल म ह कह ं

पेड़ क फुनगी पर

मेर नजर जा पहंु ची

तब भी नह ं दखा

दहकता सा सूरज

और ओस से भीगा पांव

लौट आया था

अपने ह दहलीज पर

उस अंतह न का पता पूछने ।


ठ क समय

जब ठ क होगा समय

कुहरे छं ट जाएंगे

शीतल यार बहने लगेगी

फसल झूमने लगगे

गाय रं भाने लगेगी

और आंगन म गूंजने लगेगी

गांव-वधू के गीत क लहर

जब ठ क होगा समय

हम ठ क रहगे
और रहे गी हमार आ थाएं

िम ट के संग

हम बांच पायगे

सबक संवेदनाएं

एक दसरे
ू के संग

हम ढो पायगे

दःख
ु का पहाड़ भी

हर मु कान के संग

और ले जाएंगे कदम

वन क ओर

जहाँ नाच पाएंगे

मयूर के संग

जब होगा ठ क समय

बची रहे गी मृितयां

बची रहे गी क वताएं

बची रहे गी न दयां

बचे रहगे पेड़

और बची रहे गी मानवता

जब िसर पर आती डाल

और रे त का कला

द वार घड़ सा

टक-टक बजने लगता है

और उतर आता है कुहरा

आंगन से होता हआ

अंतमन म

तब हिथयार का धार

और जला हआ
ु खिलहान

पूरा का पूरा पेड़ बनकर

जकड़ लेता है समय को

धानी रं ग सा

जुगनुओं क चमक


ं ृ ार नह ं बन पाती है

और उमंग के अफलातून म

हम नह ं कटा पाते ह टकट

धूप भी नह ं छं टती है

और पगडं ड़ लापता हो जाती है

उन समय के बीच

जहाँ मृितय का समु

आंगन म उफन आता है

और नह ं िमल पाता है

ब चे को रोट

ठ क होने का

ठ क समय

अभी नह ं उतरा है

हमारे शहर म
जंगल क हवा ने

जकड़ रखा है

हमारे समय के समय को ।

हार

मृित-शेष के सीलन पर

हम चूर-चूर हो जाएंगे

और चांद-तार के पार
अंत र म हम

बसा लगे ब तयां

सफेद हं स सी आंख

िन तेज नह ं होगी

और ई के बोर सा

हलक होने से रह भाषा

हम चीर लगे धूमकेतु क धार को

और बचा लगे

अपने ह से का सूरज

क धती चीख

जब कभी भी

फूटने ह वाली होती है कंठ से

महाशू य के तलुए

चौखट पर जाम नह ं हो जाते

ितज क ओट म

उ का पर ण कर

जब हम थके-मांदे

इितहास के प ने खोलते ह

हजार ब ब क सी आंख

कैले डर क तार ख म बदल जाते ह


चु पी साधे

मो क साधना म हम

प थर बनने से रहे

अंतमन को बुहार कर हम

ज र पका लगे रोट

और नुक ली चीख क तरह

बचा लगे दाद क कहािनयां

खो जाने क बार

उसके पंजे म नह ं जाएगी

मांद म त द ल होने वाला घर

हम छोड़ चुके ह छठ सद म ह

अभी क णा क जमीन

पुखता हो रह है

हम साफ कर रहे ह जंगली घास

और गम कर रहे ह हथेली

ता क जब कभी बछड़ा

भूल चुका होगा अपना चारागाह

और नेप य क घंट

जब उ ह सुनाई नह ं दे गा

तब हमार गम हथेली

बन जाएंगे हजार सूरज


हमार भाषा

धूमकेतु सा चमकेगी

और जला डालेगी

उन हाथ को

जो तनती हो हमार सीमाओं म ।


वारदात

चू हे म सुलगती लक ड़यां

कोई वारदात क खबर नह ं बनती ह

और हाथ सकने का उप म

पहंु च जाती है संसद भवन तक

कसी भी थित के व

गोलबंद होने क परछा

जब असंसद य हो जाता है

एक क ड़ा रग जाता है

वारदात से कुछ पहले

ता क सतक तं को

ठ क से ठोक दया जाए

और बठा िलया जाए

जाँच कमीशन

जो फबती तो हो

कालर के रं ग के संग

अभी-अभी दबे पाँव


सड़क उतर आया है

फुटपाथ पर

और घुल गया है

खौफ का धुआं

हवा बदनाम हो गई है

और चीख क आवाज

बता दे ती है

क वारदात तो हई
ु है

िलफाफे क तरह

बंद नह ं हो जाएंगे

सोमािलया या कालाहांड़

खुलेगी वे वारदात भी

पो टकाड क तरह

और उनका सपना

बह जाएगा नाली म

जब नह ं बन पाएगा

यह दे श एक सोमािलया

वारदात

िसफ वह ं ह

और सपने यहाँ ह
नीले समु

हरे जंगल

नीले आकाश

और हरे पवत के बीच

जहाँ बसी है

हमार अपनी िम ट

इतनी ज द

नह ं बदलेगी

कसी भी वारदात म ।
करवट लेना है

मान लो ण भर म ह

सुहागन लाज से िलपट शरद

घटा घनघोर बखराकर

लोट जाती हो तु हार चरण म

और सुकोमल क पनाएं

गुलाबी पंखुर सा

केसर से झड़कर

आंख क रोशनी बन जाती हो

तब या िशिथल सतरं िगया आंचल


लहरा उठे गा आकाश म

और हरिसंगार सी रमती धूप

पसर जायेगी आंगन म

तु हार कचनार के पश का जाद ू

रं गे हए
ु अथह न म

त द ल होने से रह

और नागफनी क गोद म

बेदाग त नाई

कहाँ मचल जायेगी

बरसात के दपहर
ु सा

अभी नश का बादल

मदभर अंगड़ाई नह ं ली है

चांद अभी धुला भी नह ं है

और मु पथ पर

याग का स मान

अभी कहाँ धड़का है दय म

रोशनी से भर अनिगनत रात

घोर कजराई म

तब भी नह ं बदलेगी

जब तुम झांक लोगी दे हर के पार


कोई समु नह ं आ जायेगा आंगन म

और कोई बव डर

नह ं उड़ा लेगा छत को

महज य व के िनखार पर

बंदक
ू क गोली

य द छूटती है तो

या तुम इं दरा नह ं बन पाओगी

और या माँ टे रेसा को

अपने चौखट म कैद करना चाहती हो

अभी भी समय है

दे हर के पार झांकने का

और बुनने का सपना

जसे तुमने

चू हे क आंच म झ क द हो ।

हम ह उसम

बया घोसले बना रह है

उमड़ती लहर म कह ं

नौकाएं आगे बढ़ जा रह है

कतार म आते ब चे

परछा सा डोल रहे ह

और लंबे पेड़ के वन म
रात चुपके से उतर गयी है

कॉफ हाउस क भाप

मन को उ े िलत कर रह है

और िगरजाघर क मीनार से

जो फूल मुसकुरा रहे ह

वे कह ं से भी

मातमी प रधान म िलपट नह ं ह

और तेज बा रश क तरह

धुंधलायी खड़ कयां गुम हो गई है

उसी न कारखाने म

जहाँ संसद बैठा ऊंघ रहा है

और जल रह है आग

जंगल के उस कोने से

हमार रसोई तक

और जसक आंच से

वे दरवाजे ह गुम हो गये ह

जसे होना था माकूल अपनी जगह

हवा मलबे म चली गई है

और फटने को है वालामुखी

इधर ऋतुएं बहत


ु ज द म

बदलने क या म है
और हर य क सीमा

अमरबेल क तरह

अंत र तक चली गयी ह

कल जो हवा

जंगल से होकर गुजरती थी

हम सुकून से भर दे ती थी

आज वह हवा

हम वचिलत कर जाती है

हम पेड़ क चीख सुनाई दे ती है

और सनी होती है उनम

खून क अजीब गंध

वा तव म

ज द क रै जीमट ने

हमारे व ास को हला दया है

और सुब कयां लेती तमाम य थाएं

अब कोई मायने नह ं रखती ह

हमार कोिशश है

बखरने से बची रहे हमार ऋतुएं

और मौजूद रहे

अणु क वह सार श यां

जसम है हमारा समय ।


िसंदरू के भीतर

यह तु ह वीकार नह ं

क अकुला आये फूल से

फौलाद क धधकती सलाख

तुमसे एक सौदा करे

और कै टस के कांट म

दोपहर बंद होकर रह जाए

अंतर का कुछ पाट

िच ह बनकर

भा यरे खाओं पर डोलती ह

और काले कु े का जीभ लपलपाना

चाहे अ त व बगाड़ दे

या चांदनी चटका दे

सारे सुकून को दर कनार कर

तु हारे वीकार के अ त व म

य नह ं सुबह जग पाता है

यहाँ उधार क खामोशी

जजी वषा का मू य नह ं बन पाता है

चू हे क आंच पर
और ओस क बूंद पर

सारे ह

बेदखल कर दये जाते ह

और पसीने के रस से

आ खर कबतक रोट खायी जा सकती है

तु हारा सूरज

ज म बंद है

और उजाले क धार

खड़क से ओझल

कब वीकार के प ने

प ी के पर क तरह

करण झाड़कर

ब साई म बदल जाते ह

कब जंग लगे सूरज से

एक धधकता आंचल

मू य के भाव म

व मंड म चले जाते ह

कुछ पता ह नह ं चलता

और धर रह जाती है

तु हार सार संवेदनाएं

चू हे क आंच म ह कह ं ।
बची हई
ु पृ वी

ती ा और इ तजार से बना धीरज

वतमान क अंकुवाई हई
ु रोट ह तो है

िस ांत शू यता के घूरे को

आ खर पायदान समझे हम

पहंु च चुके ह सद क आग म

क यूटर कृ त युग म

वंिचत के िलए

हम कहां से उगाये फसल

हम तो बस क यूटर म भरते ह मानव

सोते ह हम अंत र म

और बनाते ह रं ग के सपने

य के भीतर म कह ं

क जागा हआ
ु आदमी

वंिचत क ब ती म

कोई प ा न खड़का दे
और बुन न ले प थर म मानवीय र ता

व बाजार

मेरे घर म घुस आया है

क वताएं अब नह ं बची है

पढने क चीज

इं टरनेट ने सार उजा

सोख ली है क वताओं क

हमार क वताओं म अब

बादल, हवा, पेड़, न दयाँ, आंगन व र ते

िसरे से गायब ह

और परमाणु, क यूटर

भर जा रह है

और बन गयी ह क वताएं

अंत र का मीर

रोट के य के भीतर

पेड़ नह ं लहलहाता है

और िच ड़य का संगीत

सूय ने लील िलया है


संवेदनाओं का वसंत

या आपने कह ं सुना है

और भावना मक आ मीयता

कह ं आपने दे खा है

मेरे सं हालय से

ये चीज गायब हो गई है

मुझे लगता है

ये कसी िसर फरे मानव क

कार तानी हो सकती है

हो सके तो मुझे

उस मानव से िमलाना

रोबट के इस युग म

ज र है उस मानव से िमलना ।
बचाए रखने क मजबूर

हम उस समय म ह

जब हिथयार हमार ज रत ह

और सामा जक बंधन


टटने के कगार पे ह

सारे जीवन का भा य

इं टरनेट म समा चुक है


और संवेदनाओं क सीढ़

वाद-सं कृ ित म ख म हो रह है

अभी वकट समय

अपने आप पर हँ स रहा है

कुछ व ोह होते ह

जो मोच बनाते रहते ह

समय क खड़ पहाड़ पर

और बचा पाते ह

संवेदनाएं

आपसी र ते

और जीवन का भा य

अभी सुर त समाज का आ ासन

अ यवहा रक मानकर

ब च को नह ं स पा जा सकता

और िस ा त के हिथयार को

शह द नह ं कया जा सकता

वकृ ितय का अजायबघर

बौ क अवधारणाओं के प म

भले मनो व ान क ध जयां उड़ा द


और अ टहास कर ल

साधने क पूर मशीनर पर

पर खूं टय म लटके

बदलाव क आंधी को

आने से हम नह ं रोक सकते

तालमेल क राजनीित

भला िस ा त को या खलायेगा

और या बना पायेगा

लोहे को गम

जहां सहानुभूित क आग

समानांतर ताकत क तरह

हमार ब ती म वराजती ह ।

फासले

मह वपूण है उस या से गुजरना

जहाँ स दय के खलाफ
चल रहे षडयं म

ितब ता क चुनौती

कलम से फूटकर

बड़ िश त से

सवाल को पाट दे ता है

साफ श द म

संपूण असहमितयां

छाए संकट के बादल के पार

सुंदरता बन जाती है क णा

और उ मीद के फटसी समय म

तमाम आ ोश

भ व य के उजाले को

आ त करती है

इस असामा य असंब समय म

समाज व प रवेश के ित संल नता

बगैर माट के महक का

आ खर सुंदरता को

कहां ले जाएगा

और यथाथ क असहमितय म

समय क संवद
े नशीलता को

कौन ढोकर ले जाएगा


उस ऊंचे िशखर क ओर

जहां उजाले का यथाथ

अनुभूितय के परे

सांस रोके आंख बछाए हए


ु ह

समय का मुकाबला

छं द क शु ता नह ं है

और सभी उ र का मुंह

बुिनयाद सवाल से दरू

उस उजाले म खुलते ह

जहाँ जीवन क अनुभूितयां

ड को म त द ल हो गई ह ।
दासता

हम नह ं चा हए कोई द य भवन

उ ह ं दो प ल के बीच

जहाँ अब भी गूंज उठते ह

सुर त संगीत के तराने

तुम इसे मेरा पागलपन भी कह सकते हो

पर उस काले प न को

मानिच से हमने िमटा डाले ह

जहाँ बूचड़खाने क बात

हमारे वोट म तय होती ह

यह जो है रा त के बीच बीच

यान से दे खो

छुपी है प थर म आग

और कोई भी पगडं ड़

अभी नह ं बदली है

अभी समथ के सभी रं ग

क णा क ऊंची चोट पर

ितरं गे क तरह लहरा रहा है

पो टकाड बनना हम मंजूर नह ं


और संवेदना पर काल का हार

तु हारे कमर म फैली िमलेगी

यहाँ तो क वताओं क डायर है

जहाँ हम संवेदनाओं को

हमेशा से ओढ़ते- बछाते रहे ह

तु हार डायर म होगी

कोई द य-भवन के न शे

पर क णा क जमीन

तु हार डायर से गायब ह

जो चीज उतरती ह

हमार अंतस क गहराइय म

और दे जाती है फूित

उ ह ं से भय है तु ह

और धूप क गम म

आने से तुम डरते हो

यह ं से शु आत है

समय क नई द वार पर

िलखने के सारे सपने

ता क चैन क नींद

तु हार तरह
हम न आए

इसिलए तुम दे ना चाहते हो

हम भी कोई द य-भवन ।

अपने कमरे म

ऐसा है क

म आदमी बना रहना चाहता हंू

अपने आईने के सम

गहन व तार के खोल म

जैसे कसी एकाक घर क गंध

जैसे ज मता हो एक िशशु

ऐसा है क

नींद म कंपकंपाते हए

ज ब करते हए
ु वचार को

बाल और परछाई से

नह ं दे खा जाता व ाम के पल को

म नह ं चाहता

अकेली सुरंग क तरह

गरम खून के कदम

ोध और व मरण के साथ
कह ं शम और भय से

उन दरवाज म लटक जाए

जहाँ न रं गीन िच ड़या आती है

न ह बजते ह शंख क विन

म गुजरता हंू शांत

उन मुहान से होकर

अपने सीलन भरे मकान क ओर

जहाँ न जहर के दांत ह

न बेचे जा रहे ह लाश

ऐसा है क

रे शा-रे शा नम तंतुओं के बीच

इस जजर कमरे म

भले उ र आधुिनकता के पंख

जीव त व बनकर नह ं आये ह

पर कताब क दिनया
ु है

पीड़ाओं के सूखे गुलाब ह

तभी तो र म थकान से भरे पांव

न हो चुक चीज के बीच

एक नामालूम जीव त व के मौन म

पसर जाते ह अपने बछावन म ।


फर कभी नह ं

आदमी मसल डालते ह

कठोर धातु को भी अपने हाथ से

काश के उन सारे पंखु ड़य को

फट गयी ताश क तरह

जब नह ं िमलती है उ ह शांित

कपड़े और धुएं के बीच

मौजूद है वे आ माएं

जो मानव वसंत क म लका के पास

समु ोत से

चुन लेते ह फ टक

और बना लेते ह चाकू को धार


जहां पतझड़ के कोटर के बीच

कोई फूल अपना बीजाणु सुर त रख सके

औ ंधे पड़े मुखौट का एक झुंड

मुसीबतजदा भूिम को

उ मु सी टय के बीच

कसी भी गोधूिल बेला म

अपना पता स पते हए


अ य जीवन के खोखले लहर म

ब कुल त हा पाता है

जस ह से म

जल ोत क धार

अनवरत बहती जाती है

और जस प म

छायाओं क आवाज के नीचे

कोई नाव

खूनी लहर म बह जाती है

वहां होने क हर ज रत

लौटा चुका होता है

मानवी सुख क उस खोह म

जहां न चुंबन क क ध है

न ह दोहराया जाता है

पहली छुवन क सघन उ कष को


जो कुछ फैल रहा था

हवा के तंग रा ते तक

जीवन बखरता गया

और अ य भंडार म

कई छे द हो गये

तब पहली बार ित या क मौत

उन आ खर कदम म

अधूरे टु कड़ सा फैल गये

जो दे गया उ ह

एक धारदार चाकू

और जहर ले िमथेल को

वे हवाओं म िमला चुके थे ।

षडयं

समय तब भी बरसता था

जब हमारे पास

न चू हे म लकड़ थी

न चौखट म सूरज

काल और धूल के संबंध म

एक बात ब कुल साफ थी

क सभी हदशा
ऊंची रसोई म ह पकते थे

और जमीन म लोटती

हमारे काल के सभी खंड

समय के उपर

कभी भी नह ं उड़ पाये

वह भला या जानेगा

क मृ यु के भय से

आंगन के सभी बीज

अ ांश पर जा टं गी है

और हम बादल के गरजने से

खेत म हल चला रहे ह

छोटे -बडे दन क तरह

फसल भी

योगशालाओं म जा पहंु ची है

और यव था क खेती

उनके पेटट म

बंद होकर रह गई है

अभी भी ह

हमारे सम

अपने प रवार क

ज ह हम हल तो बना लगे
और जोत दगे बैल क जगह

पर मृित म पड़ती धूल से

या उनक हदशा को

सुधार पायगे

और या उगा पायगे

समय के इस रे त से

एक मु ठ भर अनाज

समय अब भी बरस रहा है

उन चमकती हवाओं म

उन दमकते ऑ फस म

जहाँ से तय होते ह

हमारे मू य का

वह भयानक मू यांकन

क बंद होकर रह जाये

हमारे चू हे का जलना ।

तलाश

म अपने अंग क छांह म बैठ जाता है

ललचते हए
ु चमेली क सुगंध

परखते हए
ु पश म पुराना िमलन

लरजते हए
ु हँ सी क चमक

और खोते हए
ु सृ का शू य
बैठने क इ छा तो है

उन बरगद क छांह म

जनक डािलय म कोयल कूकते ह

उन नद क तीर पर भी

जहां पैर को चूमने

मछिलयाँ आ जाती ह

और उन गोबर िलपे आंगन म भी

जहां तुलसी हम परो ले जाती है

कभी काश को छूकर

तो कभी हवा को चूमकर

कदािचत एक थकान अधबुझी सी

सरकती जाती है एका त म

कोई अंकुर कभी नह ं फूटने के िलए

और प रिचत दे ह क गंध से

चमेली क सुगंध

कपूर बन जाती है

मेरे सामने जो है

अ वकल, अख डत

सृ के शू य म

समा जाने के िलए


उनके सह अथ क खोज म

म अपने अंग क छांह म बैठ जाता है ।


सूरज उगेगा

श द फूटगे

झोपड़ से

ू हए
टटे ु इं सान से

मासूम के यातनाओं से

कूड़ के ड ब से

भूख से बलखते मुख से

और लुट आब के आंचल से

फूटगे श द

तमाम अनैितकताओं के बोझ से

जब काला-कलूटा अंधेरा

लाठ चाज म फूट

खोप ड़य से चीखेगा

जब सद से ठठु रता हर रे शा

काले बाजार म

बेचे गये अनाज से क धेगा

जब महाकाल के हाथ क मशाल

इं सािनयत को सड़ाकर

बटोर संप य से उगेगा

तब श द ज र फूटगे
श द को फूटना ह चा हए

तभी बचेगी संगीन

बचेगी हमार हवाएं

चू हे म आंच

तन म कपड़े

मांग म िसंदरू

क वताओं म आग

और जंगल म फूल

एक दन इतने श द फूटगे

क उनके जेल कम पड़ जाएंगे

और उनके तमाम बल

हमारे श द के पांव धोएंगे

और उस दन हमारा सूरज उगेगा ।


यव था

तुम सोचते हो

नीची छत के प र य के उपर

वह तीखा सूरज

पु छल तारे क तरह

य नह ं चमक रहा होता है

और धीमी आंच के पकाव म

आसमान फोड़कर

कसी पौधे का उगना

य नह ं चम कृ त कर

सामने आ पाता है

तुम सोचते हो

अघो षत यव था क ज रत

इतना ासंिगक हो

क ताजादम ब तय से होकर
राख का सीधा र ता

उन पेड़ से झंडे

जहां हमारे तारे बसते ह

यादा क ठन िचंता है क

उन तार के पार

ताजादम ब तयाँ नह ं होती ह

और धीमी आंच का चम कार

बहत
ु भीतर अनुप थत रहकर भी

प यां पीली होने से बच जाती ह

यह ं रहते ह

हमारे समझ के अपने सपने

यहां छोट सी छोट ज रत भी

कसी अ याशी से कम नह ं होती

तु हारे मौसमी आम क तरह

एक च कत करने वाली यव था

यहां होने से रह

तुम सोचते हो

पानी म बीज क तरह

यहां पका लोगे रोट

बांध लोगे
हमार य के ल बे बाल को

अपने आंगन म

बछा लोगे यिभचार के तने म

हमारे कपड़ के धाग को

पर कसी पु छल तारे क तरह

संपूण िनभयता

चीन क द वार क तरह

अ डग खड़ा है

और जमीन से जुडे हमारे पांव

आकाश म उड़ने को तैयार नह ं है

हमारे िलए धीमी आंच

कसी तेज आंच से

कम कहां रह गया है ।
आकां ा

मने वयं से कहा

यह दे खना

क कुएं के तल म

आवाज क ित विन

आ खर कस कार
काली परछा को चीरती है

और सभी परो उप थित म

कैसा त हा स नाटा बुनती है

अ सर पृ वी पर कोई लु जाित

पेड़ क शाखाओं से उतरकर

कसी एक समय म

गोल म त द ल नह ं हो जाती

समय के दे शा तर म

ित विन के सभी िशकार

उसे पहले बींध डालते ह

और बंद कर जाते ह

उन दरवाज को

जहां से पीली िच ड़या

एकटक मुंडेर को ताकती है

क शायद ितज दरवाजे पर उतर आये

बचे रह गये आकाश के परे

थोड़ा शर र य द बचा रहे

भले रे तघड़ क तरह चले

यह सुकून तो दे डालती है

क संवेदनाओं के पाँव के अंगूठे

इतनी ज द ऑ ंच से नह ं पघलगे
और असं य समापन क ओर

स नाटे क ित विन नह ं उतरे गी

आ खर िलखने के म म

क वता क जगह

काली परछांयी क उप थित

धूप म गुलमोहर से लाल पंखु ड़याँ सा

उसी सांस म य अटक जाती है

जहां न वीणा क तार झनझनाती है

न क वता क रे तघड़

फर य द म वयं से कहा

क यह दे खना

उनको दे खने सा य नह ं है

जहां दे खने क पर परा

स नाटे म ज र ख म होती है ।

म खोया नह ं रहंू गा

एक दन यहां
द पक क रोशनी म

िम ट से दो ती करे गा सपना

और अंगुली के इशारे पर

म खोदं ग
ू ा

गहरे अंधेरे के सीने म

उन सपन के िम टय को

जहां एक जोड़ आंख

मेर बाट जोह रह है

एक दन यहां

आकाश क तरफ हाथ बढ़ाते

तु हार अंगुिलय क कोमलता को

व का लहू

न न वृ म बदल दगे

और कोरे कागज पर भी

उतर आयेगा

गहराई तक क सार िम ट

जनसे सपने

रोशनी से च िधया जाएगा

यहां एक दन

सारे व जत रा त पर
क वताएं चीखगी

और श द के तीर से

यु म भी बजेगा

वसंतो सव के गीत

तब नंगी रात क चीख

मेरे और तु हारे सपन म आकर

िम ट क बात बताएगा

जब वह कहे गा

खिलहान और संसद के बीच

अभी दरू िमटने ह वाली है

और झोपड़ से अंत र तक

एक रा ता बनने ह वाला है

तु हार आंख चमक उठे गी

तुम बुनने लगोगे सपने

म सोचूंगा

द पक क रोशनी म

सचलाइट सी आंख

कह ं मेरे सपन म तो उगी नह ं है

क नंगी रात क चीख

उमस के सारे काई को

अंत र म उड़ाने को त पर हो ।
चुनौती

अभी नुक ली च च म

कुछ उ मीद के पल

आशीष से प ल वत पु प सा

समय के अंितम छोर तक

जार रखी जा सकती है

अभी सभी टे ढ़ जगह म

अपने िलए अलग

भाषा क अंधड़ से उड़ता अथ

समु म वार क तरह

श दह न कायवाह म त द ल होने को है

सबसे पहले

अनुपयु श दकोश से

गहरे व तार के संकेत को

कसी या ा म बदलूग
ं ा

ता क संदेहा पद चीज के बीच

उजाड़ दन से भर कोई गूंज

दगंत तक सुनायी न दे

और असमंजस के बीच बीच

धुंधली भाषाह न पड़ाव म


भरभराकर ढह न जाए नीव

ज र है

त धता को तोड़ने के िलए

एक पक हई
ु रोट

एक धधकती हई
ु िचता

क सारे बयान के म य

धुंधली होती आईने म

एक सहज ज ासा बची रहे ।


मुझे बताना

तु ह नह ं पता होगा

पानी के बाहर फक गयी

मछिलय क तरह

एक छटपटाहट

यं णाओं क िनःश दता म

दा खल होने के िलए

मेरे कंठ म अव हो गया है

तु ह नह ं पता होगा

य पूवक भुलाई गयी

चीज क तरह

एक बेबसी

द ु दन के कह ं कोने म

स मिलत होने के िलए


मेर दे ह पर िचपक कर रह गयी है

तु ह नह ं पता होगा

कसी ढ ठ अ वराम घड़ क तरह

एक यास

ज म लेने क कसी संक प म

प रवितत होने के िलए

मेर आ मा म बंद होकर रह गयी है

तु ह नह ं पता होगा

कसी असुर त कताब के

अ र क तरह

कोई ेम

पुराने अलबम के कसी िच म

त द ल होने के िलए

मेरे बंद दरवाजे म अटक पड़ है

तु ह पता हो शायद

कोई पसीना

कागज म नह ं उतर पाता

और कोई रोशनी

चू हे म नह ं समाती

ना ह कोई बाजा

हाथ िमलाने पर बजता है


शायद तु ह पता हो

क बांसुर क तान

और आकाश क लािलमा म

कोई र ता बैठता है या नह ं

मुझे बताना

इस र ते म म कहां हंू

मुझे पता है

क तु ह यह नह ं पता होगा ।

वह ं होगा ेम

जब कुछ नह ं रहे गा

तब गले से िनकली

सांस क िगनती

भला सुकून क बात कैसे बनेगी

और ज र सवाल के कांटे

तब भी यह ं कह ं टं गे ह गे

सूजी हई
ु आंख म धारणा

बहत
ु कुछ कहता रहे गा

और यह ं कह ं ह गे

उ सव के वे गीत
जहां महए
ु के संग

पांव िथरकते ह गे

और सांस क िगनती

जस फूल म महकेगी

वे जंगल क कु टया म

कसी नद -तट के पास

आंख म उतर रहे ह गे

जब कुछ

होने न होने क उ मीद िलए

अंतस का हक

आधे चांद क सा ी म

उबर रहा होगा

आकाश के कसी कोने म

तब यह ं कह ं वे सभी पल

जंगल से िनकलकर

आंख म समाने के िलए आतुर ह गे

और कसी प क लौ म

भटकाव क सुरंग के पार

एक न ह सी रोशनी

ज र अंतस म मु कुरा रह होगी ।


ी का जीवन

ी के जीवन म होती है

इतनी आंच

क जीवन हाथ से छूट पड़ता है

ी क आंच म होती है
इतना जीवन

क आंच आंचल को ह झुलसा दे ती है

ी क खुशी म होती है

इतनी खुशी

क फूल ठ क से खल नह ं पाता है

ी के ेम म होता है

इतना ेम

क पूरा हांड कम पड़ने लगता है

ी के दख
ु म होता है

इतना दख

क समु चू हे म सुख जाता है

ी क मधुरता म होती है

इतनी मधुरता

क भंवरे िचपककर रह जाते ह

ी क हं सी म होती है
इतनी हं सी

क वसंत खलना भूल जाता है

ी के डर म होता है

इतना डर

क घर का कोना कम पड़ जाता है

ी क लाई म होती है

इतनी लाई

क आंगन म समु बहने लगता है

ी के जीवन म होता है

इतना जीवन

क सृ तृ होकर रह जाती है ।

अंत र म ब तयाँ
जमीन से छूटकर

अंत र म बसी ब तयाँ

या अिच हत रा त म

कुछ बीज बोना चाहते ह

या फर तमाम रह य के बीच

अपने को भूल जाने क है या

धुंओं क लक र से

आसमान पर खींची गई रे खाएँ

बहत
ु कुछ बताती ह

जैसे आम का पकना

और चादर का फटना

अभी बाक है अंत र म

अभी बाक है

शू य के बीच से गुजरकर

उस फूल तक पहंु चना

जहां आ द श क तेज

अभी कली म बंद है

और दरवाजे के खुलने क ती ा म

वसंत वहां नह ं पहंु च पाया है

ना ह उलट िगनती के अ र
कोई तालमेल ह बठा पाया है

सार संचय क िनिध

और वार का उ च र चाप

अभी कसी कगार पर

संकुिचत सा पैर मोड़े बैठा है

और ताक रहा है

उन न हे ह क ओर

जो जमीन और सूय के बीच रहकर भी

अपने वजूद पर कायम है

एक फूल बनकर

गुजरने क सीमा

अभी तय होनी है

और संवेदनाओं के जहर

अभी मूल प म

य क य तैयार है

सभी याओं को लीलने के िलए

फर जाने क सार संभावनाएं

अभी से कहां बनेगी

जो बस जाएगी

अंत र म ब तयाँ
तय होने क सार तैयार

अ छा है

ठं डे ब ते म ह बंद रहे

तब हम दे ख पाएंगे

धरती क ह रयाली

और वषा का आगमन

कैसे मयूर को

पैर दे दे ते ह

तभी तो वे

हमारे िलए नाचते ह ।


पर परा का िनवाह

जब कभी भी

सूय क लािलमा

र म होकर आंगन म पसरे गी

और पलाश के फूल

कसी धधकते ग
ं ृ ार सा

चू हे म आ समायेगी

तब दे खना

कैसे कताब से बाहर

कोई वसंत मु कुरायेगा

और कमरे के भीतर

बादल झूमने लगगे

कुछ चीज

रोशन हए
ु बगैर
आभा बखेरती है

जैसे कोई मूंगा

या फर कोई श द

पर परा के िनवाह म

फसल क ताजगी

अभी रा ता बनाने म

ता जंदगी जुट है

और कसी चमकते तारे सा

कोई सुंदर सपना

अभी माथे म टं गने को आतुर है

अभी धूप और छांव

नद और पहाड़

आकाश और जमीन के बीच से

एक दस
ू रे को ध कयाते

पर परा बनने क होड़ म

ना लािलमा को

न ह पलाश को

सह कोण से दे ख पा रहे ह ।
मेरे पास

अभी नह ं है मेरे पास

मं -मु ध कर दे ने क कला

क मेर रसोई पक सके

और सो सकूं िचंता मु

शायद कला क सार श

कसी तेज चाकू क धार म

और कसी पहाड़ नद क वाह म

बला गया है वह भी बेवजह


अभी मेरे पास

पसीन के कांटे ह

और है बना मू यांकन का आटा

तभी तो उ के ाय प म

सभी नैितकता

उनके प म बदल गये ह

और बादल क ओट म

मेरा सूरज बदरं ग हो गया है

उन सभी आ थाओं म

जहाँ द पक क रोशनी

चंद ितनक के सहारे

िशखर पर चढने को आतुर है

और मटमैली चांदनी म भी

लौ क दपदपाहट

बचाए रखी है सभी आ थाएं

तब नैितकता के सारे

एक िसरे से खा रज होने को ह

अभी सवाल के आईने म

चांद, नद , पहाड़, आ था, नैितकता

िसरे से गायब ह

और इनके बीच से उपजी संवेदनाएं


अपने समय क उ ेजना म

बचने क संभावनाएं िलए

सारे जो खम उठाने को तैयार ह ।

आ खर या करता

कभी सोचा भी नह ं था

क वकास का मतलब
खर दे जाने का बल होगा

क श द के धूप से

उ भर लड़े गी क वता

कभी सोचा भी न था

समकालीनता का मतलब

बंदक
ू क गोली तय करे गी

और गांधी के दशन म

पराजय का इितहास बोलेगा

बेकार है मेरे िलए

श द क छाया खोजना

और मानवता के लु हो जाने का खतरा

कताब के भीतर ढंू ढना

आ खर करता भी तो या

िस के के दोन पहलुओं के बीच

खु बू को नह ं लाया जा सकता

और उ लास क चमकती रोशनी म

मधुर गीत भी नह ं सुनने को है

जब िध कार और बौखलाहट से भरे भीड़ म

समकालीनता का वैभव

वकास के पैमाने पर नापा जा रहा हो ।


दरअसल

जहां से क णा रसती है

वह एक समय

द वार क जंग खायी हई


क ल क तरह

अंधेरे म गुम हो जाती है

जहां से वसंत पुकारता है

वह एक समय

जलती िसगरे ट क अंितम लौ क तरह

पतझड़ म बदल जाता है

जहां से नद फूटती है

वह भी एक समय

पूणमासी क चांद क तरह

सागर म छुप जाती है

दरअसल
क णा

वसंत क हो

या फर नद क

खाली घर को

उजाले से भरने क चाह म

या फर

समाना तर रोशिनय क खोज म

बहत
ु आ ह ता-आ ह ता

सभी मोच पर

आ खर कब तक

अकेली लड़ पायेगी

इस वकट समय म

दरअसल

वसंत

नद क हो

या फर क णा क

हम बचाए रखना है इसे

सभी वकट समय म ।


वंिचत के बारे म

अपनी ह आंच से गरमाती आग

जब मृित से

लु होती ाथनाओं क तरह

बंद आंख के कपाट पर

द तक दे ने से वंिचत रहे

और अपनी ह लहर से त नद

जब थके हए
ु वर के आवेग से

कांपती लौ क तरह

अित क गित से डरती रहे

तब सचमुच

िमथक बनने के यास म हम


च ककर एक दसरे
ू के सवाल म

उलझ जाते ह

और खो गई नद के बारे म

या घटते जंगल क िचंता म

अपने बंद आंख के कपाट को

बहत
ु मु कल से खोल पाते ह

इस धुंध और धूल म

हर मनु य के व

मानव के भीतर तक

िम टय और च टान से

सा ा कार लेता हर समय

जंदगी म दा खल होने के िलए बेचैन है

और े म से बाहर खड़ा वह

बंजर जमीन पर

बीज बोने को आतुर है

ठ क है हर प रिध के बाहर

िन कािसत समय और धूल के वर

हर कसी युग म

उ लािसत होने से रह

तब ज र है
उ मीद के क चे सूत से भी

ब च क खल खलाहट क तरह

नीरस संयोजन म भी

हम बांध ले असीम पल को

जो सपन को द तक दे सके

और दिनया
ु के शोरगुल से

बेखबर मु हाथ से

आकाश छू लेने क ह मत कर सके

हर ज रत के दराज पर

ज र है

आंच क गरमी

और कांपती लौ म

ज र है

िमथक से परे सोचना

क सवाल के मुख पर

च टान खड़े न हो

और भागती भीड़ म भी

अपने वर को सुर त रख सके ।


सूची से बाहर

ऐसी तो नह ं थी

इतनी लंबी नाखून

और सु वधा का अंधकार
क कोई वृत

मेर सूची से बाहर

एक दसर
ू सूची बनाने म

सार रात य ह गुजार दे

ऐसी तो नह ं थी

वे सार जगह

और रात का संताप

क कोई य

मेरे मन से बाहर

एक दसरा
ू दल बनाने म

सारे खेत को उजाड़ दे

नह ं ऐसी नह ं थी

मेरे संक प क बुिनयाद

और चीज के अथ

क कोई समय

मेरे कताब से बाहर

आंगन म फुदफुदाय

और कोिशश करने क साथकता

िशिथल पड़े नस म

कोई सुई चुभो द


अब जब क

अ त होने को है सूय

और थका-हारा शर र

घर लौटने को है

तब गद म त द ल होने क कला

चाहे सूची म हो

या मन म

या कसी समय म ह

साथकता का अंधकार

और संताप का सूय

अभी जगाए रखेगा मुझे

क चीज नह ं है वैसी

जैसी हम नह ं रखते ह

कभी भी अपने नाखून को लंबी ।

पहली बार
जब पहली बार

हम सुन रहे थे संगीत

अब कसी से या छुपाना

क आवाज के आसपास

जीवन के सारे याकरण

िनःश द लाप क यातना क तरह

डू ब चुके थे

समु के अंतस म

और चौखट के बाहर-भीतर

बज रह थी

अजब सी झनझनाहट

कंधे पर रखे हाथ भी

कांप रहे थे

और हं सी लु हो गयी थी

सूखे प के ढे र म

जब पहली बार

सवाल के उलझन म

हम झांक रहे थे

अपने आईने म

तब अ सर हम सूंघते थे

घने वन का सा रोमांच
इस शहर के चौराहे म

जहां गा ड़य के का फले

पृ वी क आंख क तरह

काली आंिधय सी दौड़ती थी

हम नह ं पूछ सकते थे

कसी वसंत का पता

िम ट क स धी महक से

और नह ं जान सकते थे

चू हे क आंच से

गहमा गहमी का जीवन

यह तो हम थे

िस के क एक ओर

और दसर
ू ओर

आगत-अनागत स यताएं

र दा करते थे

इितहास के प न को

उस समय

चौखट का लांघना


जीवन से टटने का डर था

और चौखट के पार

नद क आंख
व मय से आज भी

हमारे आंगन को ताक रह है

सांस के गुणा-भाग म

मन और दे ह का स क

आ खर कतने आयाम म

काश को दे ख पाएंगे

और कैसे सुनी जाएगी

अंतस क आवाज

पहली बार कसी वसंत म ।


अभी जहां समय है

अभी जहां पर म है

घास हवा से झूमती ह

और करण

आंगन म मचलती ह

पर जहां अभी समय है

वहां न न दय का कलरव है

ना ह वसंत क महक

बस समय के मुंह पर

एक उ लास से र

ची टय का रे ला है

और धुआं छोड़ती

कारखान क िचमिनयां है
अभी सभी वरोध के बीच

नामालूम सी ज दगी है

जसम धूप क करण

और वसंत क अकुलाहट

बंद कमरे क आलमार म है

और िगनती के तमाम अ र

अभी ह ठ पर आया ह नह ं है

और सुलगते सवाल

दे हर के भीतर ह बंद ह

चेतना क सार सीमाय

घास-प म सरसरा रह है

और बौ कता के कांटे

आंचल म बंधने को आतुर है

अभी-अभी तो

सांप रगा है

मेरे आंगन म

और अभी-अभी तो

बो झलता से लबालब

सारे ह वा य

कताब से झड़े ह
मेरे कमरे म

अभी समय क उ से

कोई पतंग नह ं उड़ है

और साथकता क तलाश म

अभी बीज नह ं बोया गया है

क समय को ठोक दया जाए

कसी द वार पर

या फर सड़क के बीच -बीच

ले आया जाए वसंत को ।

अभी है हमारे पास

अभी है हमारे पास

कई समय

काल के भंडार म

कई लय

माट क महक म

कई गीत

हांड क कोख म

कई बीज

जीवन क डगर म

कई भ व य
सद के आंचल म

अभी जो है हमारे पास

हमार संवेदनाओं क तरह

पल के असीम पल म

ज र है वचार करना

सारे व के प र े य म

ता क बचायी जा सके कलकार

महकाया जा सके ेम-पु प

और लाया जा सके शांित

जीवन के सभी े म ।

तय होगा समय

उस दन तय होगा समय

जब पछाड़ खाता समु

एक दन ठठक कर

वािभमान के नाम पर

बाहर और भीतर के उहापोह म

चुपके से भाप बन उड़ जाएगा

उस दन तय होगा समय

जब इठलाता बहकता वसंत


एक दन ठठक कर

अ मता के नाम पर

वन और नगर के उहापोह म

चुपके से बना संवरे सो जाएगा

उस दन तय होगा समय

जब शांत शीतल नद

एक दन ठठक कर

अनुभूित के नाम पर

गांव और पहाड़ के उहापोह म

चुपके से बहने क जद छोड़ चुकेगी

उस दन तय होगा समय

जब सभी मू य का आटा

एक दन ठठक कर

भूख के नाम पर

पेट और आ मा के उहापोह म

चुपके से िगला कर दया जाएगा

उस दन तय होगा समय

जब सभी मू यांकन

एक दन ठठक कर
सं ांत बनने के नाम पर

अभी और तभी के क ल म

चुपके से ठोक दया जाएगा

हाँ, उस दन तय होगा

हमारा समय ।

यह या है ?

आजकल

मेरे गाँव म

सकुचाती हई
ु सुबह पसरती है
िच ड़य क चहचहाहट म

मधुर संगीत सुनने को नह ं िमलती है

मुग ने बांग दे ना भी छोड़ दया है

गाय का रं भाना

बैल का हंु कारना

अब बीते कल क बात हो गई

आजकल

मेरे गाँव म

स नाटे का दोपहर डोलता है

ब चे जहां पेड़ क छांव म

गोिलयां-कंचे नह ं खेलते

वह ं ब चयां

कत कत भी नह ं खेलती

फसल से िच ड़य को

खेदने वाला कोई नह ं रहता

आजकल

मेरे गाँव म
पनघट म बहओं
ु ने

अपने गीत को डु बो चुक है

चौपाल म बुजुग

अपने क से भुला चुके ह

आंगन म माँ

दआ
ु क टोकर िलए

हरपल आकाश ताकती है

जब क खेत म पता

घर क िचंता क िम ट को

जोत रहा होता है

आजकल

मेरे गाँव म

सहमा-सहमा शाम िछटकता है

आंगन म दया बाती ज र होती है

पर उ लास खो जाता है

लालटे न क लौ धीमी कर द जाती है

और भात रांधने क गंध

अब कोई भूख नह ं जगाती है


आजकल

मेरे गाँव म

युवाओं क बैठक

स नाट भर घूप अंधेर रात म

च टान के बीच होती है

और पौ फटने से पहले तक

पता नह ं या कुछ गुपचुप

खैिनय के बीच

हवाओं म सरसराती रहती है

आजकल

मेरे गाँव म

यह या हो रहा है ?
उसक िनयित

कैसा अजीब है

वह य

जहां यहाँ से वहाँ तक

ज म से मृ यु तक

िगनी जा सकती है अंगुिलय पर

सांस क हर िगनती

क आंख खोलने से पहले

आंसू सोख िलया जाए

चू हे से बछावन तक क वड बना म

कैसा अजीब है

वह य
जहां सर से पाँव तक

दे हर से आंगन तक

दो जोड़ आंख पीछा करती ह

हर चाल क आहट

क ार खुलने से पहले

वचार को कुचल दया जाए

दे हर से तुलसी तक क दरू म

कैसा अजीब है

वह य

जहां जड़ से फुनगी तक

अंधेरे से उजाले तक

िसखाई जाती है उसे

घर का जीवन

क रोशनी आने से पहले

कैसे बछ जाना है

िनयम से अपण तक धूर म

कैसा अजीब है
वह य

जहां सर से पाँव तक

धरा से गगन तक

वह सोचती रहती है दनभर

जंदगी के प न को खोलकर

क सुबह आने से पहले

कैसे िसमटा जाए जीवन

राख से अंत र तक क झंकार म ।

शायद कह ं

या आपने कह ं दे खा है

मेर बुढ़ापे क लाठ को

जो आई थी

आफ इसी शहर म

मजदरू करने

जसने बीते स ाह ह
दो रोट िभजवायी थी गांव म

हाँ

इसी शहर का नाम

उसने बतायी थी

जहां ढोती थी वह

गारा और ट

और उठाती थी

आफ घर को

अपने माथे पर

पसीन के कांटे चुआते हए


तब भी

नह ं बना पायी थी वह

अपने िलए एक घर

आफ इसी शहर म

और गांव म भला

ितनके के छ पर को

कह ं घर कहा जाता है

उनका नाम

आफ नाम से मेल नह ं खायेगा

भला जंगल क हर फुनगी को

धूप के एक फुदकते टु कड़े को


या हम बांध सकते ह

कसी नाम के र सी से

उसे तो हम

महए
ु के गंध से ह

दरू से पहचान लेते ह

जंगली घास के आहट से ह

हम उसे सुन लेते ह

शायद आपने

कह ं दे खी हो

ऐसे ह िच

जो खो गया है

आफ इसी शहर म ह कह ं ।

श द का होना

श द जहां

वाणी का सागर है
वहां लाप भी

श द जहां

फूल क मु कान है

वहां पतझड़ भी

श द जहां

न दय क धारा है

वहां बंधन भी

श द जहां

नार का गहना है

वहां दन भी

श द जहां

ब च का खलौना है

वहां ठना भी

श द जहां

मानवता क पुकार है
वहां संताप भी

श द जहां

काश क तरं ग है

वहां गोधूिल भी

श द जहां

आकाश क ग रमा है

वहां भेदन भी

श द जहां

ेम का वसंत है

वहां मौन भी

श द जहां

संवेदना क अकुलाहट है

वहां संधान भी

श द जहां

क वता क वाणी है

वहां मृ यु भी
श द जहां

समय का रथ है

वहां झंकृित भी

श द जहां

ांित का बगुल है

वहां मातम भी

श द जहां

दे श क गित है

वहां गुलामी भी

श द जहां

श द का अथ है

वहां अनथ भी

श द जहां

अथ का होना है

वहां रोना भी ।
सू का रह य

इस तरह भी दे ख

क उललािसत मन

समय से पहले

त ा म त लीन

जो कुछ खोजती है

दे श के ाइं ग म म

वह कुछ

छोटे -छोटे फासल म

अकुलाता रहता है

उनके हल म

और व से जूझते

कसी ब ली क तरह

उग आते ह

िचंगा रय का ढे र

जो संसद क सड़क पर

बछ जाते ह
दे खे इस तरह भी

क क वता के भीतर

हर घटना के बाद

भार कदम का उसांस

जब चल पड़ता है

अमूत य क सतह पर

तब बुरास का जंगल

आ मीयता और उ ेजना के बीच

हवा के थर होने क हद तक

जंदगी को चुनने क बजाए

संसद क ओर झांकता है

वह बना लेना चाहता है

एक मु क मल क वता

जो कसी आने वाले समय म

ठ क-ठाक रा ता पार करा दे

और एक िच ठ िलखा दे

जो भेजा जा सके

खेत के हल को

क वे आये

और जोत ले

संसद क गिलयार म

अपनी मु क मल फसल
इस तरह दे खने क बार

अब वह ं से दख

जहाँ हम और हमारा समय

त ा म लीन

ढंू ढती है

उन रह य को

जनका सू

शायद तु हारे हाथ म है ।


स य क कल

जीवन का अंतह न जल

जब छलक उठा हो

तु हार आंख म

तब सभी काल म

पानी का ताप

दे ह म भर जाती है

और अंतरं ग मौन का व तार

झुक हई
ु सांझ म
करण बन जाती है

इस आकृ ित होती चेतना को

हम दे ख पाते ह

जल के साये म

और बुन लेते ह सपने

अनुभव मा से

कालांत तक

अपलक अंतह न वाह

सांझ के अंधेरे म

टम टमाता है ाण बन

के भीतर

और उभरता है

पेड़ व बादल के नाम

तु हारे ह ठ पर

लगता है

एक चंचल पश

स य क क ल बन गई है

इस स य के दय म

बचा है कोई अंतरा

क कोई आस

धाग के साथ
चला आता है

जीवन के अंतमन म

और क ध उठता है

द पक क वह बाती

तु हारे अ र क बेला म

तब हम आ त हो जाते है

क पानी का ताप

ज र व नगंधी वायु से िमलकर

शांत जल म बनाएगी सी ढ़याँ

जहां तु हारा नाम

कसी पृ से नह ं खसकेगा

और गूंजेगी

वाह का संगीत

उस ितज तक

जहाँ स य क क ल ठु क हई
ु है ।

सजक

म चाहता हंू

अभी कोई भी फूल

इस टे ढ़े समय म

समय के धाग से
उ दत होने को त पर ह

अभी कोई भी नद

भ व य के ितज पर

बची रहे आंच बनकर

अभी आकाश भी

नार म उछलकर

हर कंठ का वर बने

और धरती िनकल पड़े

धूप के वागत म

म चाहता हंू

असहनीय बोझ लादे हुए लोग

उनसे आंत कत न रहे

और गम सांस क धड़कन

चमके सूरज क तरह

अभी भंवरे क तान

और सूखी याह

बफ बनने क मु हम न बने

और नीले आकाश सी फैली बाँह

खोल दे ार दय के
तब दे खना

इस टे ढ़े समय म भी

धाग से चलकर कोई समय

कैसे मु नी का खलौना बनती है ।


सलाह

घेरो ऊंची द वार से

अपने सपन को

ता क दिनयावी
ु सलाख के बीच

कोई फूल न मुरझाये

और टांग लो

अपने सवाल को

आकाशगंगा से भी ऊपर

जहाँ उगने दो उ मु

ढे र सारे नागफनी

अपनी चीज

इस तरह बचा के रखो

जैसे मुग बचाती है

अपने चूज को

क सभी ऋतुओं के संग

उ माद और ववेक

सपन के साथ

एक भुज बन सके
कर लो अपने को

इतना हं

क कठोरता और कायरता

बेबस हो जाए

काली च टान से टकराते हए


हाँ उदार क णा

शायद बन पाये

हमार पृ वी क तरह

क दप और यं णा म

पूर हो हमार श ल

तभी हम दे ख सकते ह

उ ात सपने

जहाँ शायद हो सुकून ।


हम नह ं थे

आईना नह ं था/आईने क तरह

भूिम भी नह ं थी/भूिम क तरह

और हम भी नह ं थे/ वयं क तरह

एक लाश टं गी थी

आईने के क ल म

उसका मुंह खुला था

भूिम क ओर

और य क खामोशी

हम सब म ठु ं सी थी

कहने को अभी

नोटबुक के फूल
चुभे थे आंख म

और अनुभव क सं या

मटमैले थे जीवन म

यक नन/इ पात के इस शहर म

िसरे से/आदमी क सर क जगह

भूना हआ
ु लोहा/दमक रहा था

तभी तो

हम सबने छोड़ रखा था धुआं

भूिम के भीतर

और कुआं

खुदा था हर घर म

यह ं हम

यह नह ं कह सकते

क कब हमसे

ू गया
आईना टट

और बखर गयी

अपनी भूिम क सुगंध ।


होना दे खने के ित

दे खना

दरअसल एक है

इनके भीतर

चीज का आकार

का व तार पाता है

और होना
दरअसल एक आकां ा है

इनके भीतर भी

इ छाओं का तपण

आकार हण कर पाता है

दे खना और होना

नजर का पहलू हो सकता है

और आइने के प र े य म

कई बार दे खना

होना नह ं हो पाता है

हो सकता है

आकां ाओं क हमार सीढ़

म क खोज म

स य से टकरा कर

अपनी साथकता

भूला बैठता हो

और म के आयाम म

मन का कोना

कह ं काश से भर उठता हो

जब अंधेर के गत म

सुलग उठती हो बाती


कांपती हो लौ

जीवन के झंझावात म

तब दे खना

गुम हो जाता है

होने के आईने म ।

म नह ं था भीड़ म
म उस भीड़ म नह ं था

नह ं था भीड़ का चेहरा भी

जहाँ अभी-अभी

भार चीख म त द ल हर सूरत

आवेग के आवेश म

हांफने को मजबूर था

हर चेहरे क रे खा

उस अ ांश पर खींची थी

जहां यव था का मौसम

उनके हाथ म तमतमाये

और दे शांतर क हर रे खा

ठ क ऐन कुस के नीचे

दबोच ले दे श के दय को

सभी याह पल म

बचती है जुगनुओं क रोशनी

जहां हम आ त हो सकते ह

क रे खाओं के ग णत

अभी उतनी नह ं बखर है

क अ मता क रे खा

हर भीड़ का अंग ह बन जाए

और दावानल क तरह
उतर जाए मेरे चेहरे पर

म नह ं था उस भीड़ म ।
सुरंग

जीवन के आयाम

नह ं है

अंधेर क सुरंग

चलते रहने क जद

वसंत बनाता है पतझड़ को

हम कई कोण से

उन आयाम म झांकते ह

जहाँ हमारे िलए ह दरवाजे

और सुर त भ व य क खोज म

जगह बनाने क होड़

हम ठे ल दे ता है सुरंग म

हम नह ं दे ख पाते

अपने कॉलर के मैल


बस ढंू ढते ह दसर
ू म

अपने हसाब से ग़लितय का अंबार

और छे ड़ते ह यु

मेड़ से संसद तक

हम याओं के िस के तो ह नह ं

क रे तीले िससकन म

आंिधय क तरह डोले

और लील ल

सभी वसंत को

पतझड़ क राह म

ता क जीवन के आयाम

त द ल न ह सुरंग म ।
अ त व

जहां से आरं भ है

अंत भी वह ं है

जहाँ अंत है

आरं भ भी वह ं से

अंत व आरं भ को
अलग-अलग करना

न हमारे वश म है

ना ह य के वश म

ये दोन इतने घुल-े िमले ह

क इनके बंदओ
ु ं को खोजना

अ त व से सा ा कार करना है

नह ं यह ठ क नह ं होगा

क हम आरं भ से चले

और अंत म पूर हो जाये

सम प से

पूरा होना

होना नह ं हो सकता

य क यह ं दखगे हम

आरं भ के बंद ु

और या ा फर शु होगी

या ा का पड़ाव

अंत म नह ं
आरं भ म हो

तभी हम पा सकते ह

वराट शू य के वे शू य

जहां हम

नह ं रहते ह हम

और न आ मा

आ मा ह रह पाता है

तभी होता है सा ा कार

वराट अ त व से

और हम होते ह पूण

आरं भ व अंत से परे ।

खाई के परे
जो खड़ा है

भीतर

पांव नह ं ह

जमीं पर

और आंख

ट क गई है

आकाश पर

जो खड़ा है

भीतर

उतर है सीढ़

अनंत पर

और सांस

थर है

कसी शू य पर
जो है

भीतर खड़ा

अनंत शू य के

िशखर पर

और संवेदना

जी उठ है

अंतस पर

भीतर के

दबाव पर

वचिलत नह ं होती

हमार तरं गे

उठती है

हर िच कार के परे

वार सा

कह ं भीतर

और हम

उछल पड़ते ह

समय के

अंतराल से परे ।

... ’’’ ...


प रचय व सा ह यक गित विधयां

1. नाम - मोती लाल

2. ज म-ितिथ - 08.12.1962

3. ज म थान व थायी पता - ड़ गाकांटा, मनोहरपुर-833

104, झारखंड

4. िश ा - बी. ए.

5. सं ित - भारतीय रे ल सेवा म कायरत

6. काशन - दे श के विभ न मह वपूण

प -प काओं

म कई क वताएं कािशत यथाः-


भारत सरकार वदे श मं ालय क प का-गगनाचंल/ द ली, म य दे श

सा ह य अकादमी क प का-सा ा कार/भोपाल, राज थान सा ह य अकादमी क

प का-मधुमती/उदयपुर, वहार वधान प रषद क प का-सा य/पटना, भारत

सरकार, मानव संसाधन मं ालय क प का-भाषा/ द ली, हमाचल दे श

मु णालय क प का- हम थ/िशमला, अ र-पव/रायपुर,

आधारिशला/नैनीताल, उ नयन/इलाहाबाद, यु रत आम आदमी/हजार बाग,

तेवर/सुलतानपुर, संदश/बीसलपुर, ल य/पू णयां, का या/मु बई,

वषयव तु/ द ली, भारत-एिशयाई सा ह य/ द ली, कदम/मउनाथभंजन,

ेरणा/भोपाल, अिभधा/मुजफफरपुर, संवेद/वाराणसी, श दिशखर/सागर,

समकालीन क वता/पटना, सू /जगदलपुर, अलाव/ द ली, आवत/मुजफरपुर,

आशय/लखनऊ, सृजनपथ/िसलीगुड़ , सनद/पटना, साथक/राँची, ऋतुच /इं दौर,

उ रा/नैनीताल, िश वर/िशमला, ितब /पू णयां, यावत/बडवानी,

समीचीन/मु बई, क वता समय/पू णयां, अरावली उदघोष/उदयपुर,

दशा/कलक ा, अंजुर / द ली, जजी वशा/बेगूसराय, सू /जगदलपुर,

यास/अलीगढ, मु बोध/राजना दगांव, अ तः प


े पूवा/वन थली, आज क

क वताएं/बांका, अपूवा/कलक ा, प र मा/रानीगंज, आकार/दे हरादन


ु ,

उदगार/कोलकाता ककसाड/ब तर, भा र म/दे वघर, अ नपु प/ द ली, मु -

पव/उ रांचल, पंखु डया/ बलासपुर, मानसरोवर/ द ली, सांराश/बोकारो, सा ह य

ा त/गुना, संगत/कांकेर, शोध/ित वन तपुरम , आकंठ/ पप रया,


आवेग/इं दौर, ह द संघ समाचार/ द ली, अनुकृित/जयपुर, सबके

दावेदार/आजमगढ, कथा बंब/मु बई, भावापण/सतना, ित िृ त/जोधपुर, रै न

बसेरा/मु बई, सा ह य पा रजात/ द ली, सूप/अ मोडा, वात/सीधी,

हम थ/िशमला, सृजन वाह/तालपुकुर, गुलशन/जोधपुर, अवध

अचना/फैजाबाद, झंकृित/धनबाद, स यक/मथुरा, सा ह य सं हता/अहमदाबाद,

सजक/िशमला, श द/लखनउ, सतह/पटना, अिभनव संगवश/अलीगढ,

तट थ/ पलानी, समकालीन अिभ य / द ली, अनभै/मुंबई, सम वय/गोरखपुर,

तीसरा प /जबलपुर, सं ेषण/जयपुर, सं ित-पथ/ द ली, शीराजा/ज मू,

पाठ/ बलासपुर, अिभ य /कोटा, भारतीय रे ल/ द ली, आवाज, आईना, भात

खबर, राँची ए स ेस, िग रराज, िनदलीय, मंथन, स यर ा, इ पात मेल,

नव योित, भा कर, नवभारत, लोकमत, राज थान प का, जनस ा संबरं ग

इ या द ।

न , धरा से गगन तक, वागत नयी सद एवं क वतायन - का य संकलन म

क वताएं संकिलत

7. िनवास पता - ड़ गाकांटा, ख ड कायालय क पीछे ,

मनोहरपुर-833104

8. कायालय एवं प ाचार पता - व ुत लोको शेड, बंडामुंडा, राउरकेला-

77003
ई-बुक तुित : रचनाकार http://rachanakar.blogspot.com/ ारा

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