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िकस कर में यह वीणा धर दँ ?


दे वों ने था िजसे बनाया,
दे वों ने था िजसे बजाया,
मानव के हाथों में कैसे इसको आज समिपर्त कर दँ ?ू
िकस कर में यह वीणा धर दँ ?ू

इसने ःवगर् िरझाना सीखा,


ःविगर्क तान सुनाना सीखा,
जगती को खुश करनेवाले ःवर से कैसे इसको भर दँ ?ू
िकस कर में यह वीणा धर दँ ?ू

क्यों बाकी अिभलाषा मन में,


झंकृत हो यह िफर जीवन में?
क्यों न हृदय िनमर्म हो कहता अंगारे अब धर इस पर दँ ?ू
िकस कर में यह वीणा धर दँ ?ू

साथी, सब कुछ सहना होगा!


मानव पर जगती का शासन,
जगती पर संसिृ त का बंधन,
संसिृ त को भी और िकसी के ूितबंधों में रहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!

हम क्या हैं जगती के सर में!


जगती क्या, संसिृ त सागर में!
एक ूबल धारा में हमको लघु ितनके-सा बहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!
आओ, अपनी लघुता जानें,
अपनी िनबर्लता पहचानें,
जैसे जग रहता आया है उसी तरह से रहना होगा!
साथी, सब कुछ सहना होगा!

िदन जल्दी-जल्दी ढलता है !

हो जाय न पथ में रात कहीं,


मंिज़ल भी तो है दरू नहीं -
यह सोच थका िदन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है !
िदन जल्दी-जल्दी ढलता है !

बच्चे ूत्याशा में होंगे,


नीड़ों से झाँक रहे होंगे -
यह ध्यान परों में िचिड़यों के भरता िकतनी चंचलता है !
िदन जल्दी-जल्दी ढलता है !

मुझसे िमलने को कौन िवकल?


मैं होऊँ िकसके िहत चंचल? -
यह ूश्न िशिथल करता पद को, भरता उर में िवह्वलता है !
िदन जल्दी-जल्दी ढलता है !

किव की वासना
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

1
सृिष्ट के ूारम्भ में
मैने उषा के गाल चूमे,
बाल रिव के भाग्य वाले
दीप्त भाल िवशाल चूमे,

ूथम संध्या के अरुण दृग


चूम कर मैने सुलाए,

तािरका-किल से सुसिज्जत
नव िनशा के बाल चूमे,

वायु के रसमय अधर


पहले सके छू हॉठ मेरे
मृित्तका की पुतिलयॉ से
आज क्या अिभसार मेरा?

कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

िवगत-बाल्य वसुन्धरा के
उच्च तुग
ं -उरोज उभरे ,
तरु उगे हिरताभ पट धर
काम के ध्वज मत्त फहरे ,


चपल उच्छखल करों ने
जो िकया उत्पात उस िदन,

है हथेली पर िलखा वह,


पढ़ भले ही िवश्व हहरे ;
प्यास वािरिध से बुझाकर
भी रहा अतृप्त हँू मैं,
कािमनी के कुच-कलश से
आज कैसा प्यार मेरा!

कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

इन्िधनु पर शीश धरकर


बादलों की सेज सुखकर
सो चुका हँू नींद भर मैं
चंचला को बाहु में भर,

दीप रिव-शिश-तारकों ने
बाहरी कुछ केिल दे खी,

दे ख, पर, पाया न कोई


ःवप्न वे सुकुमार सुन्दर

जो पलक पर कर िनछावर
थी गई मधु यािमनी वह;
यह समािध बनी हई
ु है
यह न शयनागार मेरा!

कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

4
आज िमट्टी से िघरा हँू
पर उमंगें हैं पुरानी,
सोमरस जो पी चुका है
आज उसके हाथ पानी,

होठ प्यालों पर झुके तो


थे िववश इसके िलए वे,

प्यास का ोत धार बैठा;


आज है मन, िकन्तु मानी;

मैं नहीं हँू दे ह-धमोर्ं से


बँधा, जग, जान ले तू,
तन िवकृ त हो जाए लेिकन
मन सदा अिवकार मेरा!

कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

िनंपिरौम छोड़ िजनको


मोह लेता िवश्न भर को,
मानवों को, सुर-असुर को,
वृद्ध ॄह्मा, िवंणु, हर को,

भंग कर दे ता तपःया
िसद्ध, ऋिष, मुिन सत्तमों की

वे सुमन के बाण मैंने,


ही िदए थे पंचशर को;
शिक्त रख कुछ पास अपने
ही िदया यह दान मैंने,
जीत पाएगा इन्हीं से
आज क्या मन मार मेरा!

कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

ूाण ूाणों से सकें िमल


िकस तरह, दीवार है तन
काल है घिड़याँ न िगनता,
बेिड़यों का शब्द झन-झन,

वेद-लोकाचार ूहरी
ताकते हर चाल मेरी,

बद्ध इस वातावरण में


क्या करे अिभलाष यौवन!

अल्पतम इच्छा यहाँ


मेरी बनी बन्दी पड़ी है ,
िवश्व बीड़ाःथल नहीं रे
िवश्व कारागार मेरा!

कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

7
थी तृषा जब शीत जल की
खा िलए अंगार मैंने,
चीथड़ों से उस िदवस था
कर िलया ौृग
ं ार मैंने

राजसी पट पहनने को
जब हई
ु इच्छा ूबल थी,

चाह-संचय में लुटाया


था भरा भंडार मैंने;

वासना जब तीोतम थी
बन गया था संयमी मैं,
है रही मेरी क्षुधा ही
सवर्दा आहार मेरा!

कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!

कल िछड़ी, होगी ख़तम कल


ूेम की मेरी कहानी,
कौन हँू मैं, जो रहे गी
िवश्व में मेरी िनशानी?

क्या िकया मैंने नही जो


कर चुका संसार अबतक?

वृद्ध जग को क्यों अखरती


है क्षिणक मेरी जवानी?
मैं िछपाना जानता तो
जग मुझे साधु समझता,
शऽु मेरा बन गया है
छल-रिहत व्यवहार मेरा!

कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!


Other Information
Collection: Madhukalash (Published: 1937)
This poem was originally inspired by a comment by Pt. Banarsi Das
Chaturvedi in the publication “Vishaal Bharat”, of which he was the
editor. In response to that comment Bachchan wrote this poem and sent it
to another well-known publication “Saraswati” with a note that it is in
response to somebody’s comment (without naming him). When Pt.
Banarsi Das Chaturvedi noticed this poem, he got it publihed in
“Viashaal Bharat” itself, while openly accepting that he was the one who
had written a comment like that. (Source: Preface by Bachchan in the 7th
edition of Madhukalash)

इस पार, उस पार
1

इस पार, िूये मधु है तुम हो,


उस पार न जाने क्या होगा!
यह चाँद उिदत होकर नभ में
कुछ ताप िमटाता जीवन का,
लहरालहरा यह शाखाएँ
कुछ शोक भुला दे ती मन का,
कल मुझार्नेवाली किलयाँ
हँ सकर कहती हैं मगन रहो,
बुलबुल तरु की फुनगी पर से
संदेश सुनाती यौवन का,
तुम दे कर मिदरा के प्याले
मेरा मन बहला दे ती हो,
उस पार मुझे बहलाने का
उपचार न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

जग में रस की निदयाँ बहती,


रसना दो बूंदें पाती है ,
जीवन की िझलिमलसी झाँकी
नयनों के आगे आती है ,
ःवरतालमयी वीणा बजती,
िमलती है बस झंकार मुझे,
मेरे सुमनों की गंध कहीं
यह वायु उड़ा ले जाती है ;
ऐसा सुनता, उस पार, िूये,
ये साधन भी िछन जाएँगे;
तब मानव की चेतनता का
आधार न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

3
प्याला है पर पी पाएँगे,
है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार िनयित ने भेजा है ,
असमथर्बना िकतना हमको,
कहने वाले, पर कहते है ,
हम कमोर्ं में ःवाधीन सदा,
करने वालों की परवशता
है ज्ञात िकसे, िजतनी हमको?
कह तो सकते हैं , कहकर ही
कुछ िदल हलका कर लेते हैं ,
उस पार अभागे मानव का
अिधकार न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

कुछ भी न िकया था जब उसका,


उसने पथ में काँटे बोये,
वे भार िदए धर कंधों पर,
जो रो-रोकर हमने ढोए;
महलों के सपनों के भीतर
जजर्र खँडहर का सत्य भरा,
उर में ऐसी हलचल भर दी,
दो रात न हम सुख से सोए;
अब तो हम अपने जीवन भर
उस बूर किठन को कोस चुके;
उस पार िनयित का मानव से
व्यवहार न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

संसिृ त के जीवन में, सुभगे


ऐसी भी घिड़याँ आएँगी,
जब िदनकर की तमहर िकरणे
तम के अन्दर िछप जाएँगी,
जब िनज िूयतम का शव, रजनी
तम की चादर से ढक दे गी,
तब रिव-शिश-पोिषत यह पृथ्वी
िकतने िदन खैर मनाएगी!
जब इस लंबे-चौड़े जग का
अिःतत्व न रहने पाएगा,
तब हम दोनो का नन्हा-सा
संसार न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

ऐसा िचर पतझड़ आएगा


कोयल न कुहक
ु िफर पाएगी,
बुलबुल न अंधेरे में गागा
जीवन की ज्योित जगाएगी,
अगिणत मृद-ु नव पल्लव के ःवर
‘मरमर’ न सुने िफर जाएँगे,
अिल-अवली किल-दल पर गुंजन
करने के हे तु न आएगी,
जब इतनी रसमय ध्विनयों का
अवसान, िूये, हो जाएगा,
तब शुंक हमारे कंठों का
उद्गार न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

सुन काल ूबल का गुरु-गजर्न


िनझर्िरणी भूलेगी नतर्न,
िनझर्र भूलेगा िनज ‘टलमल’,
सिरता अपना ‘कलकल’ गायन,
वह गायक-नायक िसन्धु कहीं,
चुप हो िछप जाना चाहे गा,
मुँह खोल खड़े रह जाएँगे
गंधवर्, अप्सरा, िकन्नरगण;
संगीत सजीव हआ
ु िजनमें,
जब मौन वही हो जाएँगे,
तब, ूाण, तुम्हारी तंऽी का
जड़ तार न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

8
उतरे इन आखों के आगे
जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा, दे खो, माली,
सुकुमार लताओं के गहने,
दो िदन में खींची जाएगी
ऊषा की साड़ी िसन्दरी
ू ,
पट इन्िधनुष का सतरं गा
पाएगा िकतने िदन रहने;
जब मूितर्मती सत्ताओं की
शोभा-सुषमा लुट जाएगी,
तब किव के किल्पत ःवप्नों का
ौृग
ं ार न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!

दृग दे ख जहाँ तक पाते हैं ,


तम का सागर लहराता है ,
िफर भी उस पार खड़ा कोई
हम सब को खींच बुलाता है ;
मैं आज चला तुम आओगी
कल, परसों सब संगीसाथी,
दिनया
ु रोती-धोती रहती,
िजसको जाना है , जाता है ;
मेरा तो होता मन डगडग,
तट पर ही के हलकोरों से!
जब मैं एकाकी पहँु चूँगा
मँझधार, न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!


Collection: Madhubala (Published 1936)

मधुबाला
मैं मधुबाला मधुशाला की,
मैं मधुशाला की मधुबाला!
मैं मधु-िवबेता को प्यारी,
मधु के धट मुझपर बिलहारी,
प्यालों की मैं सुषमा सारी,
मेरा रुख दे खा करती है
मधु-प्यासे नयनों की माला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

इस नीले अंचल की छाया


में जग-ज्वाला का झुलसाया
आकर शीतल करता काया,
मधु-मरहम का मैं लेपन कर
अच्छा करती उर का छाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

मधुघट ले जब करती नतर्न,


मेरे नूपुर के छम-छनन
में लय होता जग का बंदन,
झूमा करता मानव जीवन
का क्षण-क्षण बनकर मतवाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

मैं इस आँगन की आकषर्ण,


मधु से िसंिचत मेरी िचतवन,
मेरी वाणी में मधु के कण,
मदमत्त बनाया मैं करती,
यश लूटा करती मधुशाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

था एक समय, थी मधुशाला,
था िमट्टी का घट, था प्याला,
थी, िकन्तु, नहीं साकीबाला,
था बैठा ठाला िवबेता
दे बंद कपाटों पर ताला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

तब इस घर में था तम छाया,
था भय छाया, था ॅम छाया,
था मातम छाया, गम छाया,
ऊषा का दीप िलए सर पर,
मैं आई करती उिजयाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
7

सोने की मधुशाना चमकी,


मािणत द्युित से मिदरा दमकी,
मधुगंध िदशाओं में चमकी,
चल पड़ा िलए कर में प्याला
ूत्येक सुरा पीनेवाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

थे मिदरा के मृत-मूक घड़े ,


थे मूितर् सदृश मधुपाऽ खड़े ,
थे जड़वत ् प्याले भूिम पड़े ,

जाद ू के हाथों से छकर
मैंने इनमें जीवन डाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!


मुझको छकर मधुघट छलके,
प्याले मधु पीने को ललके ,
मािलक जागा मलकर पलकें,
अँगड़ाई लेकर उठ बैठी
िचर सुप्त िवमूिच्छर् त मधुशाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

10

प्यासे आए, मैंने आँका,


वातायन से मैंने झाँका,
पीनेवालों का दल बाँका,
उत्कंिठत ःवर से बोल उठा,
‘कर दे पागल, भर दे प्याला!’
मैं मधुशाला की मधुबाला!

11

खुल द्वार गए मिदरालय के,


नारे लगते मेरी जय के,
िमट िचह्न गए िचंता भय के,
हर ओर मचा है शोर यही,
‘ला-ला मिदरा ला-ला’!,
मैं मधुशाला की मधुबाला!

12

हर एक तृिप्त का दास यहाँ,


पर एक बात है खास यहाँ,
पीने से बढ़ती प्यास यहाँ,
सौभाग्य मगर मेरा दे खो,
दे ने से बढ़ती है हाला!
मैं मधुशाला की मधुबाला!

13

चाहे िजतना मैं दँ ू हाला,


चाहे िजतना तू पी प्याला,
चाहे िजतना बन मतवाला,
सुन, भेद बताती हँू अिन्तम,
यह शांत नही होगी ज्वाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

14
मधु कौन यहाँ पीने आता,
है िकसका प्यालों से नाता,
जग दे ख मुझे है मदमाता,
िजसके िचर तंििल नयनों पर
तनती मैं ःवप्नों का जाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!

15

यह ःवप्न-िविनिमर्त मधुशाला,
यह ःवप्न रिचत मधु का प्याला,
ःविप्नल तृंणा, ःविप्नल हाला,
ःवप्नों की दिनया
ु में भूला
िफरता मानव भोलाभाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!


Other Information
Collection: Madhubala (Published: 1936)

‘मेघदत
ू ’ के ूित
‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता
मैं ःवयं बन मेघ जाता!

हो धरिण चाहे शरद की


चाँदनी में ःनान करती,
वायु ऋतु हे मन्त की चाहे
गगन में हो िवचरती,

हो िशिशर चाहे िगराता


पीत-जजर्र पऽ तरु के,

कोिकला चाहे वनों में


हो वसन्ती राग भरती,

मींम का मातर्ण्ड चाहे


हो तपाता भूिम-तल को,
िदन ूथम आषाढ़ का मैं
‘मेघ-चर’ द्वारा बुलाता।

‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता


मैं ःवयं बन मेघ जाता!

भूल जाता अिःथ-मज्जा-


माँस युक्त शरीर हँू मैं,
भासता बस - धूॆ-संयुत
ज्योित-सिलल समीर हँू मैं,

उठ रहा हँू उच्च भवनों के


िशखर से और ऊपर,

दे खता संसार नीचे


इन्ि का वर वीर हँू मैं,

मन्द गित से जा रहा हँू


पा पवन अनुकूल अपने,
संग हैं बक-पंिक्त, चातक-
दल मधुर ःवर में गीत गाता।

‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता


मैं ःवयं बन मेघ जाता!

झोपड़ी, गृह, भवन भारी,


महल औ’ ूासाद सुन्दर,
कलश, गुम्बद, ःतम्भ, उन्नत
धरहरे , मीनार दृढ़तर,

दगर्
ु दे वल, पथ सुिवःतृत
और बीड़ोद्यान-सारे

मिन्ऽता किव-लेखनी के
ःपशर् से होते अगोचर

और सहसा रामिगिर पवर्त


उठाता शीश अपना
गोद िजसकी िःनग्ध-छाया-
वान कानन लहलहाता!

‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता


मैं ःवयं बन मेघ जाता!

दे खता इस शैल के ही
अंक में बहु-पूज्य पुंकर,
पुण्य-जल िजनको िकया था
जनक-तनया ने नहाकर

संग जब ौी राम के वे
थीं यहाँ जब वास करतीं,

दे खता अंिकत चरण उनके


अनेक अचल-िशला पर,

जान ये पद-िचह्न वंिदत


िवश्व से होते रहे हैं ,
दे ख इनको शीश मैं भी
भिक्त-ौद्धा से नवाता।

‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता


मैं ःवयं बन मेघ जाता!

दे खता िगिर की शरण में


एक सर के रम्य तट पर
एक लघु आौम िघरा वन
तरु लताओं में सघनतर,

इस जगह कतर्व्य से च्युत


यक्ष को पाता अकेला,

िनज िूया के ध्यान में जो


अौुमय उच्छवास भर-भर

क्षीणतन हो, दीनमन हो


और मिहमाहीन होकर
वषर् भर कांता-िवरह के
शाप में दिदर्
ु न िबताता।

‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता


मैं ःवयं बन मेघ जाता!

था िदया अिभशाप अलका-


ध्यक्ष ने िजस यक्षवर को,
वषर् भर का दण्ड सहकर
वह गया कब का ःवघर को

ूेयसी को एक क्षण उर से
लगा सब कष्ट भूला,

िकन्तु शािपत यक्ष तेरा


रे महाकिव जन्म-भर को!

रामिगिर पर िचर िवधुर हो


युग-युगान्तर से पड़ा है ,
िमल न पाएगा ूलय तक
हाय, उसका ौाप ऽाता।

‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता


मैं ःवयं बन मेघ जाता!

दे ख मुझको ूाण-प्यारी
दािमनी को अंक में भर
घूमते उन्मुक्त नभ में
वायु के मृद-ु मन्द रथ पर,

अट्टहास-िवहास से मुख-
िरत बनाते शून्य को भी

जन तुखी भी क्षुब्ध होते


भाग्य सुख मेरा िसहाकर;

ूयिणनी भुज-पाश से जो
है रहा िचरकाल वंिचत,
यक्ष मुझको दे ख कैसे
िफर न दख
ु में डब
ू जाता।

‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता


मैं ःवयं बन मेघ जाता!

दे खता जब यक्ष मुझको


शैल-ौृग
ं ों पर िवचरता,
एकटक हो सोचता कुछ
लोचनों में नीर भरता,

यिक्षणी को िनज कुशल-


संवाद मुझसे भेजने की

कामना से वह मुझे उठ
बार-बार ूणाम करता;

कनक िवलय-िवहीन कर से
िफर कुटज के फूल चुनकर
ूीित से ःवागत-वचन कह
भेंट मेरे ूित चढ़ाता।

‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता


मैं ःवयं बन मेघ जाता!

पुंकरावतर्क घनों के
वंश का मुझको बताकर,
कामरूप सुनाम दे , कह
मेघपित का मान्य अनुचर

कण्ठ कातर यक्ष मुझसे


ूाथर्ना इस भाँित करता -

‘जा िूया के पास ले


सन्दे श मेरा, बन्धु जलधर!

वास करती वह िवरिहणी


धनद की अलकापुरी में,
शम्भु िशर-शोिभत कलाधर
ज्योितमय िजसको बनाता।

‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता


मैं ःवयं बन मेघ जाता!

10

यक्ष पुनः ूयाण के अनु-


कूल कहते मागर् सुखकर,
िफर बताता िकस जगह पर
िकस तरह का है नगर, घर,

िकस दशा, िकस रूप में है


िूयतमा उसकी सलोनी,

िकस तरह सूनी िबताती


रािऽ, कैसे दीघर् वासर,

क्या कहँू गा, क्या करूँगा,


मैं पहँु चकर पास उसके;
िकन्तु उत्तर के िलए कुछ
शब्द िजह्वा पर न आता।

‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता


मैं ःवयं बन मेघ जाता!

11

मौन पाकर यक्ष मुझको


सोचकर यह धैयर् धरता,
सत्पुरुष की रीित है यह
मौन रहकर कायर् करता,

दे खकर उद्यत मुझे


ूःथान के िहत, कर उठाकर

वह मुझे आशीष दे ता-


‘इष्ट दे शों में िवचरता,

हे जलद, ौीवृिद्ध कर तू
संग वषार्-दािमनी के,
हो न तुझको िवरह दख
ु जो
आज मैं िविधवश उठाता!’

‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता


मैं ःवयं बन मेघ जाता!


Other Information
Collection: Madhukalash (Published: 1937)

ूतीक्षा

मधुर ूतीक्षा ही जब इतनी, िूय तुम आते तब क्या होता?

मौन रात इस भांित िक जैसे, कोई गत वीणा पर बज कर,


अभी-अभी सोई खोई-सी, सपनों में तारों पर िसर धर
और िदशाओं से ूितध्विनयाँ, जामत सुिधयों-सी आती हैं ,
कान तुम्हारे तान कहीं से यिद सुन पाते, तब क्या होता?

तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आने वाले,


पर ऐसे ही वक्त ूाण मन, मेरे हो उठते मतवाले,
साँसें घूमघूम िफरिफर से, असमंजस के क्षण िगनती हैं ,
िमलने की घिड़याँ तुम िनिश्चत, यिद कर जाते तब क्या होता?

उत्सुकता की अकुलाहट में, मैंने पलक पाँवड़े डाले,


अम्बर तो मशहर
ू िक सब िदन, रहता अपने होश सम्हाले,
तारों की महिफल ने अपनी आँख िबछा दी िकस आशा से,
मेरे मौन कुटी को आते तुम िदख जाते तब क्या होता?
बैठ कल्पना करता हँू , पगचाप तुम्हारी मग से आती,
रगरग में चेतनता घुलकर, आँसू के कणसी झर जाती,
नमक डलीसा गल अपनापन, सागर में घुलिमलसा जाता,
अपनी बाँहों में भरकर िूय, कण्ठ लगाते तब क्या होता?

अँधेरे का दीपक
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?

कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंिदर बना था ,


भावना के हाथ से िजसमें िवतानों को तना था,
ःवप्न ने अपने करों से था िजसे रुिच से सँवारा,
ःवगर् के दंूाप्य
ु रं गों से, रसों से जो सना था,
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर कंकड़ों को
एक अपनी शांित की कुिटया बनाना कब मना है ?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?

बादलों के अौु से धोया गया नभनील नीलम


का बनाया था गया मधुपाऽ मनमोहक, मनोरम,
ूथम उशा की िकरण की लािलमासी लाल मिदरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम,
ू िमलाकर हाथ की दोनो हथेली,
वह अगर टटा
एक िनमर्ल ॐोत से तृंणा बुझाना कब मना है ?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?
क्या घड़ी थी एक भी िचंता नहीं थी पास आई,
कािलमा तो दरू, छाया भी पलक पर थी न छाई,
आँख से मःती झपकती, बातसे मःती टपकती,
थी हँ सी ऐसी िजसे सुन बादलों ने शमर् खाई,
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार माना,
पर अिथरता पर समय की मुसकुराना कब मना है ?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?

हाय, वे उन्माद के झोंके िक िजसमें राग जागा,


वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा,
एक अंतर से ध्विनत हो दसरे
ू में जो िनरन्तर,
भर िदया अंबरअविन को मत्तता के गीत गागा,
अन्त उनका हो गया तो मन बहलने के िलये ही,
ले अधूरी पंिक्त कोई गुनगुनाना कब मना है ?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?

हाय वे साथी िक चुम्बक लौहसे जो पास आए,


पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए,
िदन कटे ऐसे िक कोई तार वीणा के िमलाकर
एक मीठा और प्यारा िज़न्दगी का गीत गाए,
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे,
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है ?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?

क्या हवाएँ थीं िक उजड़ा प्यार का वह आिशयाना,


कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना,
नाश की उन शिक्तयों के साथ चलता ज़ोर िकसका,
िकन्तु ऐ िनमार्ण के ूितिनिध, तुझे होगा बताना,
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं ूकृ ित के जड़ िनयम से,
पर िकसी उजड़े हए
ु को िफर बसाना कब मना है ?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?

जुगनू
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है ?

उठी ऐसी घटा नभ में


िछपे सब चांद औ' तारे ,
उठा तूफान वह नभ में
गए बुझ दीप भी सारे ,
मगर इस रात में भी लौ लगाए कौन बैठा है ?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है ?

गगन में गवर् से उठउठ,


गगन में गवर् से िघरिघर,
गरज कहती घटाएँ हैं ,
नहीं होगा उजाला िफर,
मगर िचर ज्योित में िनष्ठा जमाए कौन बैठा है ?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है ?
ितिमर के राज का ऐसा
किठन आतंक छाया है ,
उठा जो शीश सकते थे
उन्होनें िसर झुकाया है ,
मगर िविोह की ज्वाला जलाए कौन बैठा है ?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है ?

ूलय का सब समां बांधे


ूलय की रात है छाई,
िवनाशक शिक्तयों की इस
ितिमर के बीच बन आई,
मगर िनमार्ण में आशा दृढ़ाए कौन बैठा है ?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है ?

ूभंजन, मेघ दािमनी ने


न क्या तोड़ा, न क्या फोड़ा,
धरा के और नभ के बीच
कुछ सािबत नहीं छोड़ा,
मगर िवश्वास को अपने बचाए कौन बैठा है ?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है ?

ूलय की रात में सोचे


ूणय की बात क्या कोई,
मगर पड़ ूेम बंधन में
समझ िकसने नहीं खोई,
िकसी के पथ में पलकें िबछाए कौन बैठा है ?
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है ?

कहते हैं तारे गाते हैं


कहते हैं तारे गाते हैं !
सन्नाटा वसुधा पर छाया,
नभ में हमने कान लगाया,
िफर भी अगिणत कंठों का यह राग नहीं हम सुन पाते हैं !
कहते हैं तारे गाते हैं !

ःवगर् सुना करता यह गाना,


पृिथवी ने तो बस यह जाना,
अगिणत ओस-कणों में तारों के नीरव आँसू आते हैं !
कहते हैं तारे गाते हैं !

ऊपर दे व तले मानवगण,


नभ में दोनों गायन-रोदन,
राग सदा ऊपर को उठता, आँसू नीचे झर जाते हैं ।
कहते हैं तारे गाते हैं !
लो िदन बीता, लो रात गई

लो िदन बीता, लो रात गई,


सूरज ढलकर पिच्छम पहँु चा,
डबा
ू , संध्या आई, छाई,
सौ संध्या-सी वह संध्या थी,
क्यों उठते-उठते सोचा था,
िदन में होगी कुछ बात नई।
लो िदन बीता, लो रात गई।

धीमे-धीमे तारे िनकले,


धीरे -धीरे नभ में फैले,
सौ रजनी-सी वह रजनी थी
क्यों संध्या को यह सोचा था,
िनिश में होगी कुछ बात नई।
लो िदन बीता, लो रात गई।

िचिड़याँ चहकीं, किलयाँ महकी,


पूरब से िफर सूरज िनकला,
जैसे होती थी सुबह हई
ु ,
क्यों सोते-सोते सोचा था,
होगी ूातः कुछ बात नई।
लो िदन बीता, लो रात गई,
मधुशाला

मृद ु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,


िूयतम, अपने ही हाथों से आज िपलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ तेरा िफर ूसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा ःवागत करती मेरी मधुशाला।।१।

प्यास तुझे तो, िवश्व तपाकर पूणर् िनकालूग


ँ ा हाला,
एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला,
जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका,
आज िनछावर कर दँ ग
ू ा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२।

िूयतम, तू मेरी हाला है , मैं तेरा प्यासा प्याला,


अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला,
मैं तुझको छक छलका करता, मःत मुझे पी तू होता,
एक दसरे
ू की हम दोनों आज परःपर मधुशाला।।३।

भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,


किव साकी बनकर आया है भरकर किवता का प्याला,
कभी न कण-भर खाली होगा लाख िपएँ, दो लाख िपएँ!
पाठकगण हैं पीनेवाले, पुःतक मेरी मधुशाला।।४।

मधुर भावनाओं की सुमधुर िनत्य बनाता हँू हाला,


भरता हँू इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला,
उठा कल्पना के हाथों से ःवयं उसे पी जाता हँू ,
अपने ही में हँू मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।५।
मिदरालय जाने को घर से चलता है पीनेवला,
'िकस पथ से जाऊँ?' असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हँू -
'राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।'। ६।

चलने ही चलने में िकतना जीवन, हाय, िबता डाला!


'दरू अभी है ', पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,
िहम्मत है न बढँू आगे को साहस है न िफरुँ पीछे ,
िकंकतर्व्यिवमूढ़ मुझे कर दरू खड़ी है मधुशाला।।७।

मुख से तू अिवरत कहता जा मधु, मिदरा, मादक हाला,


हाथों में अनुभव करता जा एक लिलत किल्पत प्याला,
ध्यान िकए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का,
और बढ़ा चल, पिथक, न तुझको दरू लगेगी मधुशाला।।८।

मिदरा पीने की अिभलाषा ही बन जाए जब हाला,


अधरों की आतुरता में ही जब आभािसत हो प्याला,
बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे,
रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे िमलेगी मधुशाला।।९।

सुन, कलक , छलछ मधुघट से िगरती प्यालों में हाला,


सुन, रूनझुन रूनझुन चल िवतरण करती मधु साकीबाला,
बस आ पहंु चे, दरु नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है ,
चहक रहे , सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला।।१०।
जलतरं ग बजता, जब चुंबन करता प्याले को प्याला,
वीणा झंकृत होती, चलती जब रूनझुन साकीबाला,
डाँट डपट मधुिवबेता की ध्विनत पखावज करती है ,
मधुरव से मधु की मादकता और बढ़ाती मधुशाला।।११।

मेंहदी रं िजत मृदल


ु हथेली पर मािणक मधु का प्याला,
अंगूरी अवगुंठन डाले ःवणर् वणर् साकीबाला,
पाग बैंजनी, जामा नीला डाट डटे पीनेवाले,
इन्िधनुष से होड़ लगाती आज रं गीली मधुशाला।।१२।

हाथों में आने से पहले नाज़ िदखाएगा प्याला,


अधरों पर आने से पहले अदा िदखाएगी हाला,
बहते
ु रे इनकार करे गा साकी आने से पहले,
पिथक, न घबरा जाना, पहले मान करे गी मधुशाला।।१३।

लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे दे ना ज्वाला,


फेिनल मिदरा है , मत इसको कह दे ना उर का छाला,
ददर् नशा है इस मिदरा का िवगत ःमृितयाँ साकी हैं ,
पीड़ा में आनंद िजसे हो, आए मेरी मधुशाला।।१४।

जगती की शीतल हाला सी पिथक, नहीं मेरी हाला,


जगती के ठं डे प्याले सा पिथक, नहीं मेरा प्याला,
ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की किवता है ,
जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला।।१५।

बहती हाला दे खी, दे खो लपट उठाती अब हाला,


ू ही होंठ जला दे नेवाला,
दे खो प्याला अब छते
'होंठ नहीं, सब दे ह दहे , पर पीने को दो बूद
ं िमले'
ऐसे मधु के दीवानों को आज बुलाती मधुशाला।।१६।

धमर्मन्थ सब जला चुकी है , िजसके अंतर की ज्वाला,


मंिदर, मसिजद, िगिरजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,
पंिडत, मोिमन, पािदरयों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का ःवागत मेरी मधुशाला।।१७।

लालाियत अधरों से िजसने, हाय, नहीं चूमी हाला,



हषर्-िवकंिपत कर से िजसने, हा, न छआ मधु का प्याला,
हाथ पकड़ लिज्जत साकी को पास नहीं िजसने खींचा,
व्यथर् सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।।१८।

बने पुजारी ूेमी साकी, गंगाजल पावन हाला,


रहे फेरता अिवरत गित से मधु के प्यालों की माला'
'और िलये जा, और पीये जा', इसी मंऽ का जाप करे '
मैं िशव की ूितमा बन बैठू ं , मंिदर हो यह मधुशाला।।१९।

बजी न मंिदर में घिड़याली, चढ़ी न ूितमा पर माला,


बैठा अपने भवन मुअिज्ज़न दे कर मिःजद में ताला,
लुटे ख़जाने नरिपतयों के िगरीं गढ़ों की दीवारें ,
रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला।।२०।

बड़े बड़े िपरवार िमटें यों, एक न हो रोनेवाला,


हो जाएँ सुनसान महल वे, जहाँ िथरकतीं सुरबाला,
राज्य उलट जाएँ, भूपों की भाग्य सुलआमी सो जाए,
जमे रहें गे पीनेवाले, जगा करे गी मधुशाला।।२१।

सब िमट जाएँ, बना रहे गा सुन्दर साकी, यम काला,


सूखें सब रस, बने रहें गे, िकन्तु, हलाहल औ' हाला,
धूमधाम औ' चहल पहल के ःथान सभी सुनसान बनें,
झगा करे गा अिवरत मरघट, जगा करे गी मधुशाला।।२२।

भुरा सदा कहलायेगा जग में बाँका, मदचंचल प्याला,


छै ल छबीला, रिसया साकी, अलबेला पीनेवाला,
पटे कहाँ से, मधु औ' जग की जोड़ी ठीक नहीं,
जग जजर्र ूितदन, ूितक्षण, पर िनत्य नवेली मधुशाला।।२३।

िबना िपये जो मधुशाला को बुरा कहे , वह मतवाला,


पी लेने पर तो उसके मुह पर पड़ जाएगा ताला,
दास िोिहयों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की,
िवश्विवजियनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।।२४।

हरा भरा रहता मिदरालय, जग पर पड़ जाए पाला,


वहाँ मुहरर्म का तम छाए, यहाँ होिलका की ज्वाला,
ःवगर् लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दख
ु क्या जाने,
पढ़े मिसर्या दिनया
ु सारी, ईद मनाती मधुशाला।।२५।

एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,


एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दिनयावालों
ु , िकन्तु, िकसी िदन आ मिदरालय में दे खो,
िदन को होली, रात िदवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६।

नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीनेवाला,


कौन अिपिरचत उस साकी से, िजसने दध
ू िपला पाला,
जीवन पाकर मानव पीकर मःत रहे , इस कारण ही,
जग में आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।२७।

बनी रहें अंगूर लताएँ िजनसे िमलती है हाला,


बनी रहे वह िमटटी िजससे बनता है मधु का प्याला,
बनी रहे वह मिदर िपपासा तृप्त न जो होना जाने,
बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला।।२८।

सकुशल समझो मुझको, सकुशल रहती यिद साकीबाला,


मंगल और अमंगल समझे मःती में क्या मतवाला,
िमऽों, मेरी क्षेम न पूछो आकर, पर मधुशाला की,
कहा करो 'जय राम' न िमलकर, कहा करो 'जय मधुशाला'।।२९।

सूयर् बने मधु का िवबेता, िसंधु बने घट, जल, हाला,


बादल बन-बन आए साकी, भूिम बने मधु का प्याला,
झड़ी लगाकर बरसे मिदरा िरमिझम, िरमिझम, िरमिझम कर,
बेिल, िवटप, तृण बन मैं पीऊँ, वषार् ऋतु हो मधुशाला।।३०।

तारक मिणयों से सिज्जत नभ बन जाए मधु का प्याला,


सीधा करके भर दी जाए उसमें सागरजल हाला,
मज्ञल्तऌ◌ा समीरण साकी बनकर अधरों पर छलका जाए,
फैले हों जो सागर तट से िवश्व बने यह मधुशाला।।३१।
अधरों पर हो कोई भी रस िजहवा पर लगती हाला,
भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला,
हर सूरत साकी की सूरत में पिरवितर्त हो जाती,
आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२।

पौधे आज बने हैं साकी ले ले फूलों का प्याला,


भरी हई
ु है िजसके अंदर िपरमल-मधु-सुिरभत हाला,
माँग माँगकर ॅमरों के दल रस की मिदरा पीते हैं ,
झूम झपक मद-झंिपत होते, उपवन क्या है मधुशाला!।३३।

ूित रसाल तरू साकी सा है , ूित मंजिरका है प्याला,


छलक रही है िजसके बाहर मादक सौरभ की हाला,
छक िजसको मतवाली कोयल कूक रही डाली डाली
हर मधुऋतु में अमराई में जग उठती है मधुशाला।।३४।

मंद झकोरों के प्यालों में मधुऋतु सौरभ की हाला


भर भरकर है अिनल िपलाता बनकर मधु-मद-मतवाला,
हरे हरे नव पल्लव, तरूगण, नूतन डालें, वल्लिरयाँ,
छक छक, झुक झुक झूम रही हैं , मधुबन में है मधुशाला।।३५।

साकी बन आती है ूातः जब अरुणा ऊषा बाला,


तारक-मिण-मंिडत चादर दे मोल धरा लेती हाला,
अगिणत कर-िकरणों से िजसको पी, खग पागल हो गाते,
ूित ूभात में पूणर् ूकृ ित में मुिखरत होती मधुशाला।।३६।
उतर नशा जब उसका जाता, आती है संध्या बाला,
बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली िनत्य ढला जाती हाला,
जीवन के संताप शोक सब इसको पीकर िमट जाते
सुरा-सुप्त होते मद-लोभी जागृत रहती मधुशाला।।३७।

अंधकार है मधुिवबेता, सुन्दर साकी शिशबाला


िकरण िकरण में जो छलकाती जाम जुम्हाई का हाला,
पीकर िजसको चेतनता खो लेने लगते हैं झपकी
तारकदल से पीनेवाले, रात नहीं है , मधुशाला।।३८।

िकसी ओर मैं आँखें फेरूँ, िदखलाई दे ती हाला


िकसी ओर मैं आँखें फेरूँ, िदखलाई दे ता प्याला,
िकसी ओर मैं दे ख,ूं मुझको िदखलाई दे ता साकी
िकसी ओर दे ख,ूं िदखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।३९।

साकी बन मुरली आई साथ िलए कर में प्याला,


िजनमें वह छलकाती लाई अधर-सुधा-रस की हाला,
योिगराज कर संगत उसकी नटवर नागर कहलाए,
दे खो कैसों-कैसों को है नाच नचाती मधुशाला।।४०।

वादक बन मधु का िवबेता लाया सुर-सुमधुर-हाला,


रािगिनयाँ बन साकी आई भरकर तारों का प्याला,
िवबेता के संकेतों पर दौड़ लयों, आलापों में,
पान कराती ौोतागण को, झंकृत वीणा मधुशाला।।४१।

िचऽकार बन साकी आता लेकर तूली का प्याला,


िजसमें भरकर पान कराता वह बहु रस-रं गी हाला,
मन के िचऽ िजसे पी-पीकर रं ग-िबरं गे हो जाते,
िचऽपटी पर नाच रही है एक मनोहर मधुशाला।।४२।

घन ँयामल अंगूर लता से िखंच िखंच यह आती हाला,


अरूण-कमल-कोमल किलयों की प्याली, फूलों का प्याला,
लोल िहलोरें साकी बन बन मािणक मधु से भर जातीं,
हं स मज्ञल्तऌ◌ा होते पी पीकर मानसरोवर मधुशाला।।४३।

िहम ौेणी अंगूर लता-सी फैली, िहम जल है हाला,


चंचल निदयाँ साकी बनकर, भरकर लहरों का प्याला,
कोमल कूर-करों में अपने छलकाती िनिशिदन चलतीं,
पीकर खेत खड़े लहराते, भारत पावन मधुशाला।।४४।

धीर सुतों के हृदय रक्त की आज बना रिक्तम हाला,


वीर सुतों के वर शीशों का हाथों में लेकर प्याला,
अित उदार दानी साकी है आज बनी भारतमाता,
ःवतंऽता है तृिषत कािलका बिलवेदी है मधुशाला।।४५।

दतकारा
ु मिःजद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,
ठु कराया ठाकुरद्वारे ने दे ख हथेली पर प्याला,
कहाँ िठकाना िमलता जग में भला अभागे कािफर को?
शरणःथल बनकर न मुझे यिद अपना लेती मधुशाला।।४६।

पिथक बना मैं घूम रहा हँू , सभी जगह िमलती हाला,
सभी जगह िमल जाता साकी, सभी जगह िमलता प्याला,
मुझे ठहरने का, हे िमऽों, कष्ट नहीं कुछ भी होता,
िमले न मंिदर, िमले न मिःजद, िमल जाती है मधुशाला।।४७।

सजें न मिःजद और नमाज़ी कहता है अल्लाताला,


सजधजकर, पर, साकी आता, बन ठनकर, पीनेवाला,
शेख, कहाँ तुलना हो सकती मिःजद की मिदरालय से
िचर िवधवा है मिःजद तेरी, सदा सुहािगन मधुशाला।।४८।

बजी नफ़ीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला,


गाज िगरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीनेवाला,
शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहँू तो मिःजद को
अभी युगों तक िसखलाएगी ध्यान लगाना मधुशाला!।४९।

मुसलमान औ' िहन्द ू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,


एक, मगर, उनका मिदरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मिःजद मिन्दर में जाते,
बैर बढ़ाते मिःजद मिन्दर मेल कराती मधुशाला!।५०।

कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंिडत जपता माला,


बैर भाव चाहे िजतना हो मिदरा से रखनेवाला,
एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर िनकले,
दे खूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला!।५१।

और रसों में ःवाद तभी तक, दरू जभी तक है हाला,


इतरा लें सब पाऽ न जब तक, आगे आता है प्याला,
कर लें पूजा शेख, पुजारी तब तक मिःजद मिन्दर में
घूँघट का पट खोल न जब तक झाँक रही है मधुशाला।।५२।

आज करे परहे ज़ जगत, पर, कल पीनी होगी हाला,


आज करे इन्कार जगत पर कल पीना होगा प्याला,
होने दो पैदा मद का महमूद जगत में कोई, िफर
जहाँ अभी हैं मनि◌दर
् मिःजद वहाँ बनेगी मधुशाला।।५३।

यज्ञ अिग्न सी धधक रही है मधु की भटठी की ज्वाला,


ऋिष सा ध्यान लगा बैठा है हर मिदरा पीने वाला,
मुिन कन्याओं सी मधुघट ले िफरतीं साकीबालाएँ,
िकसी तपोवन से क्या कम है मेरी पावन मधुशाला।।५४।

सोम सुरा पुरखे पीते थे, हम कहते उसको हाला,


िोणकलश िजसको कहते थे, आज वही मधुघट आला,
वेिदविहत यह रःम न छोड़ो वेदों के ठे केदारों,
युग युग से है पुजती आई नई नहीं है मधुशाला।।५५।

वही वारूणी जो थी सागर मथकर िनकली अब हाला,


रं भा की संतान जगत में कहलाती 'साकीबाला',
दे व अदे व िजसे ले आए, संत महं त िमटा दें गे!
िकसमें िकतना दम खम, इसको खूब समझती मधुशाला।।५६।

कभी न सुन पड़ता, 'इसने, हा, छू दी मेरी हाला',


कभी न कोई कहता, 'उसने जूठा कर डाला प्याला',
सभी जाित के लोग यहाँ पर साथ बैठकर पीते हैं ,
सौ सुधारकों का करती है काम अकेले मधुशाला।।५७।
ौम, संकट, संताप, सभी तुम भूला करते पी हाला,
सबक बड़ा तुम सीख चुके यिद सीखा रहना मतवाला,
व्यथर् बने जाते हो िहरजन, तुम तो मधुजन ही अच्छे ,

ठकराते िहर मंि◌दरवाले, पलक िबछाती मधुशाला।।५८।

एक तरह से सबका ःवागत करती है साकीबाला,


अज्ञ िवज्ञ में है क्या अंतर हो जाने पर मतवाला,
रं क राव में भेद हआ
ु है कभी नहीं मिदरालय में,
साम्यवाद की ूथम ूचारक है यह मेरी मधुशाला।।५९।

बार बार मैंने आगे बढ़ आज नहीं माँगी हाला,


समझ न लेना इससे मुझको साधारण पीने वाला,
हो तो लेने दो ऐ साकी दरू ूथम संकोचों को,
मेरे ही ःवर से िफर सारी गूँज उठे गी मधुशाला।।६०।

कल? कल पर िवश्वास िकया कब करता है पीनेवाला


हो सकते कल कर जड़ िजनसे िफर िफर आज उठा प्याला,
आज हाथ में था, वह खोया, कल का कौन भरोसा है ,
कल की हो न मुझे मधुशाला काल कुिटल की मधुशाला।।६१।

आज िमला अवसर, तब िफर क्यों मैं न छकूँ जी-भर हाला


आज िमला मौका, तब िफर क्यों ढाल न लूँ जी-भर प्याला,
छे ड़छाड़ अपने साकी से आज न क्यों जी-भर कर लूँ,
एक बार ही तो िमलनी है जीवन की यह मधुशाला।।६२।
आज सजीव बना लो, ूेयसी, अपने अधरों का प्याला,
भर लो, भर लो, भर लो इसमें, यौवन मधुरस की हाला,
और लगा मेरे होठों से भूल हटाना तुम जाओ,
अथक बनू मैं पीनेवाला, खुले ूणय की मधुशाला।।६३।

सुमुखी तुम्हारा, सुन्दर मुख ही, मुझको कन्चन का प्याला


छलक रही है िजसमं◌े मािणक रूप मधुर मादक हाला,
मैं ही साकी बनता, मैं ही पीने वाला बनता हँू
जहाँ कहीं िमल बैठे हम तु वहीं गयी हो मधुशाला।।६४।

दो िदन ही मधु मुझे िपलाकर ऊब उठी साकीबाला,


भरकर अब िखसका दे ती है वह मेरे आगे प्याला,
नाज़, अदा, अंदाजों से अब, हाय िपलाना दरू हआ
ु ,
अब तो कर दे ती है केवल फ़ज़र् -अदाई मधुशाला।।६५।

छोटे -से जीवन में िकतना प्यार करुँ , पी लूँ हाला,


आने के ही साथ जगत में कहलाया 'जानेवाला',
ःवागत के ही साथ िवदा की होती दे खी तैयारी,
बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन-मधुशाला।।६६।

क्या पीना, िनद्वर् न्द न जब तक ढाला प्यालों पर प्याला,


क्या जीना, िनरं ि◌चत न जब तक साथ रहे साकीबाला,
खोने का भय, हाय, लगा है पाने के सुख के पीछे ,
िमलने का आनंद न दे ती िमलकर के भी मधुशाला।।६७।

मुझे िपलाने को लाए हो इतनी थोड़ी-सी हाला!


मुझे िदखाने को लाए हो एक यही िछछला प्याला!
इतनी पी जीने से अच्छा सागर की ले प्यास मरुँ ,
िसंधँ◌-ु तृषा दी िकसने रचकर िबंद-ु बराबर मधुशाला।।६८।

क्या कहता है , रह न गई अब तेरे भाजन में हाला,


क्या कहता है , अब न चलेगी मादक प्यालों की माला,
थोड़ी पीकर प्यास बढ़ी तो शेष नहीं कुछ पीने को,
प्यास बुझाने को बुलवाकर प्यास बढ़ाती मधुशाला।।६९।

िलखी भाग्य में िजतनी बस उतनी ही पाएगा हाला,


िलखा भाग्य में जैसा बस वैसा ही पाएगा प्याला,
लाख पटक तू हाथ पाँव, पर इससे कब कुछ होने का,
िलखी भाग्य में जो तेरे बस वही िमलेगी मधुशाला।।७०।

कर ले, कर ले कंजूसी तू मुझको दे ने में हाला,


ू फूटा प्याला,
दे ले, दे ले तू मुझको बस यह टटा
मैं तो सॄ इसी पर करता, तू पीछे पछताएगी,
जब न रहँू गा मैं, तब मेरी याद करे गी मधुशाला।।७१।

ध्यान मान का, अपमानों का छोड़ िदया जब पी हाला,


गौरव भूला, आया कर में जब से िमट्टी का प्याला,
साकी की अंदाज़ भरी िझड़की में क्या अपमान धरा,
दिु नया भर की ठोकर खाकर पाई मैंने मधुशाला।।७२।

क्षीण, क्षुि, क्षणभंगुर, दबर्


ु ल मानव िमटटी का प्याला,
ु है िजसके अंदर कटु -मधु जीवन की हाला,
भरी हई
मृत्यु बनी है िनदर् य साकी अपने शत-शत कर फैला,
काल ूबल है पीनेवाला, संसिृ त है यह मधुशाला।।७३।

प्याले सा गढ़ हमें िकसी ने भर दी जीवन की हाला,


नशा न भाया, ढाला हमने ले लेकर मधु का प्याला,
जब जीवन का ददर् उभरता उसे दबाते प्याले से,
जगती के पहले साकी से जूझ रही है मधुशाला।।७४।

अपने अंगूरों से तन में हमने भर ली है हाला,


क्या कहते हो, शेख, नरक में हमें तपाएगी ज्वाला,
तब तो मिदरा खूब िखंचेगी और िपएगा भी कोई,
हमें नमक की ज्वाला में भी दीख पड़े गी मधुशाला।।७५।

यम आएगा लेने जब, तब खूब चलूँगा पी हाला,


पीड़ा, संकट, कष्ट नरक के क्या समझेगा मतवाला,
बूर, कठोर, कुिटल, कुिवचारी, अन्यायी यमराजों के
डं डों की जब मार पड़े गी, आड़ करे गी मधुशाला।।७६।

यिद इन अधरों से दो बातें ूेम भरी करती हाला,


यिद इन खाली हाथों का जी पल भर बहलाता प्याला,
हािन बता, जग, तेरी क्या है , व्यथर् मुझे बदनाम न कर,
ू िदल का है बस एक िखलौना मधुशाला।।७७।
मेरे टटे

याद न आए दखमय
ू जीवन इससे पी लेता हाला,
जग िचंताओं से रहने को मुक्त, उठा लेता प्याला,
शौक, साध के और ःवाद के हे तु िपया जग करता है ,
पर मै वह रोगी हँू िजसकी एक दवा है मधुशाला।।७८।

िगरती जाती है िदन ूितदन ूणयनी ूाणों की हाला


भग्न हआ
ु जाता िदन ूितदन सुभगे मेरा तन प्याला,
रूठ रहा है मुझसे रूपसी, िदन िदन यौवन का साकी
सूख रही है िदन िदन सुन्दरी, मेरी जीवन मधुशाला।।७९।

यम आयेगा साकी बनकर साथ िलए काली हाला,


पी न होश में िफर आएगा सुरा-िवसुध यह मतवाला,
यह अंि◌तम बेहोशी, अंितम साकी, अंितम प्याला है ,
पिथक, प्यार से पीना इसको िफर न िमलेगी मधुशाला।८०।

ढलक रही है तन के घट से, संिगनी जब जीवन हाला


पऽ गरल का ले जब अंितम साकी है आनेवाला,
हाथ ःपशर् भूले प्याले का, ःवाद सुरा जीव्हा भूले
कानो में तुम कहती रहना, मधु का प्याला मधुशाला।।८१।

मेरे अधरों पर हो अंितम वःतु न तुलसीदल प्याला


मेरी जीव्हा पर हो अंितम वःतु न गंगाजल हाला,
मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे रखना
राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।।८२।

मेरे शव पर वह रोये, हो िजसके आंसू में हाला


आह भरे वो, जो हो सुिरभत मिदरा पी कर मतवाला,
दे मुझको वो कान्धा िजनके पग मद डगमग होते हों
और जलूं उस ठौर जहां पर कभी रही हो मधुशाला।।८३।
और िचता पर जाये उं ढे ला पऽ न ियत का, पर प्याला
कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला,
ूाण िूये यिद ौाध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
पीने वालां◌े को बुलवा कऱ खुलवा दे ना मधुशाला।।८४।

नाम अगर कोई पूछे तो, कहना बस पीनेवाला


काम ढालना, और ढालना सबको मिदरा का प्याला,
जाित िूये, पूछे यिद कोई कह दे ना दीवानों की
धमर् बताना प्यालों की ले माला जपना मधुशाला।।८५।

ज्ञात हआ
ु यम आने को है ले अपनी काली हाला,
पंि◌डत अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला,
और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला,
िकन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला।।८६।

यम ले चलता है मुझको तो, चलने दे लेकर हाला,


चलने दे साकी को मेरे साथ िलए कर में प्याला,
ःवगर्, नरक या जहाँ कहीं भी तेरा जी हो लेकर चल,
ठौर सभी हैं एक तरह के साथ रहे यिद मधुशाला।।८७।

पाप अगर पीना, समदोषी तो तीनों - साकी बाला,


िनत्य िपलानेवाला प्याला, पी जानेवाली हाला,
साथ इन्हें भी ले चल मेरे न्याय यही बतलाता है ,
कैद जहाँ मैं हँू , की जाए कैद वहीं पर मधुशाला।।८८।
शांत सकी हो अब तक, साकी, पीकर िकस उर की ज्वाला,
'और, और' की रटन लगाता जाता हर पीनेवाला,
िकतनी इच्छाएँ हर जानेवाला छोड़ यहाँ जाता!
िकतने अरमानों की बनकर कॄ खड़ी है मधुशाला।।८९।

जो हाला मैं चाह रहा था, वह न िमली मुझको हाला,


जो प्याला मैं माँग रहा था, वह न िमला मुझको प्याला,
िजस साकी के पीछे मैं था दीवाना, न िमला साकी,
िजसके पीछे था मैं पागल, हा न िमली वह मधुशाला!।९०।

दे ख रहा हँू अपने आगे कब से मािणक-सी हाला,


दे ख रहा हँू अपने आगे कब से कंचन का प्याला,
'बस अब पाया!'- कह-कह कब से दौड़ रहा इसके पीछे ,
िकंतु रही है दरू िक्षितज-सी मुझसे मेरी मधुशाला।।९१।

कभी िनराशा का तम िघरता, िछप जाता मधु का प्याला,


िछप जाती मिदरा की आभा, िछप जाती साकीबाला,
कभी उजाला आशा करके प्याला िफर चमका जाती,
आँिखमचौली खेल रही है मुझसे मेरी मधुशाला।।९२।

'आ आगे' कहकर कर पीछे कर लेती साकीबाला,


होंठ लगाने को कहकर हर बार हटा लेती प्याला,
नहीं मुझे मालूम कहाँ तक यह मुझको ले जाएगी,
बढ़ा बढ़ाकर मुझको आगे, पीछे हटती मधुशाला।।९३।

हाथों में आने-आने में, हाय, िफसल जाता प्याला,



अधरों पर आने-आने में हाय, ढलक जाती हाला,
दिनयावालो
ु , आकर मेरी िकःमत की ख़ूबी दे खो,
रह-रह जाती है बस मुझको िमलते- िमलते मधुशाला।।९४।

ूाप्य नही है तो, हो जाती लुप्त नहीं िफर क्यों हाला,


ूाप्य नही है तो, हो जाता लुप्त नहीं िफर क्यों प्याला,
दरू न इतनी िहम्मत हारुँ , पास न इतनी पा जाऊँ,
व्यथर् मुझे दौड़ाती मरु में मृगजल बनकर मधुशाला।।९५।

िमले न, पर, ललचा ललचा क्यों आकुल करती है हाला,


िमले न, पर, तरसा तरसाकर क्यों तड़पाता है प्याला,
हाय, िनयित की िवषम लेखनी मःतक पर यह खोद गई
'दरू रहे गी मधु की धारा, पास रहे गी मधुशाला!'।९६।

मिदरालय में कब से बैठा, पी न सका अब तक हाला,


यत्न सिहत भरता हँू , कोई िकंतु उलट दे ता प्याला,
मानव-बल के आगे िनबर्ल भाग्य, सुना िवद्यालय में,
'भाग्य ूबल, मानव िनबर्ल' का पाठ पढ़ाती मधुशाला।।९७।

िकःमत में था खाली खप्पर, खोज रहा था मैं प्याला,


ढँू ढ़ रहा था मैं मृगनयनी, िकःमत में थी मृगछाला,
िकसने अपना भाग्य समझने में मुझसा धोखा खाया,
िकःमत में था अवघट मरघट, ढँू ढ़ रहा था मधुशाला।।९८।

उस प्याले से प्यार मुझे जो दरू हथेली से प्याला,


उस हाला से चाव मुझे जो दरू अधर से है हाला,
प्यार नहीं पा जाने में है , पाने के अरमानों में!
पा जाता तब, हाय, न इतनी प्यारी लगती मधुशाला।।९९।

साकी के पास है ितनक सी ौी, सुख, संिपत की हाला,


सब जग है पीने को आतुर ले ले िकःमत का प्याला,
रे ल ठे ल कुछ आगे बढ़ते, बहते
ु रे दबकर मरते,
जीवन का संघषर् नहीं है , भीड़ भरी है मधुशाला।।१००।

साकी, जब है पास तुम्हारे इतनी थोड़ी सी हाला,


क्यों पीने की अिभलषा से, करते सबको मतवाला,
हम िपस िपसकर मरते हैं , तुम िछप िछपकर मुसकाते हो,
हाय, हमारी पीड़ा से है बीड़ा करती मधुशाला।।१०१।

साकी, मर खपकर यिद कोई आगे कर पाया प्याला,


पी पाया केवल दो बूंदों से न अिधक तेरी हाला,
जीवन भर का, हाय, िपरौम लूट िलया दो बूंदों ने,
भोले मानव को ठगने के हे तु बनी है मधुशाला।।१०२।

िजसने मुझको प्यासा रक्खा बनी रहे वह भी हाला,


िजसने जीवन भर दौड़ाया बना रहे वह भी प्याला,
मतवालों की िजहवा से हैं कभी िनकलते शाप नहीं,
दखी
ु बनाय िजसने मुझको सुखी रहे वह मधुशाला!।१०३।

नहीं चाहता, आगे बढ़कर छीनूँ औरों की हाला,


नहीं चाहता, धक्के दे कर, छीनूँ औरों का प्याला,
साकी, मेरी ओर न दे खो मुझको ितनक मलाल नहीं,
इतना ही क्या कम आँखों से दे ख रहा हँू मधुशाला।।१०४।

मद, मिदरा, मधु, हाला सुन-सुन कर ही जब हँू मतवाला,


क्या गित होगी अधरों के जब नीचे आएगा प्याला,
साकी, मेरे पास न आना मैं पागल हो जाऊँगा,
प्यासा ही मैं मःत, मुबारक हो तुमको ही मधुशाला।।१०५।

क्या मुझको आवँयकता है साकी से माँगूँ हाला,


क्या मुझको आवँयकता है साकी से चाहँू प्याला,
पीकर मिदरा मःत हआ
ु तो प्यार िकया क्या मिदरा से!
मैं तो पागल हो उठता हँू सुन लेता यिद मधुशाला।।१०६।

दे ने को जो मुझे कहा था दे न सकी मुझको हाला,


दे ने को जो मुझे कहा था दे न सका मुझको प्याला,
समझ मनुज की दबर्
ु लता मैं कहा नहीं कुछ भी करता,
िकन्तु ःवयं ही दे ख मुझे अब शरमा जाती मधुशाला।।१०७।

एक समय संतुष्ट बहत


ु था पा मैं थोड़ी-सी हाला,
भोला-सा था मेरा साकी, छोटा-सा मेरा प्याला,
छोटे -से इस जग की मेरे ःवगर् बलाएँ लेता था,
िवःतृत जग में, हाय, गई खो मेरी नन्ही मधुशाला!।१०८।

बहते
ु रे मिदरालय दे खे, बहते
ु री दे खी हाला,
भाँित भाँित का आया मेरे हाथों में मधु का प्याला,
एक एक से बढ़कर, सुन्दर साकी ने सत्कार िकया,
जँची न आँखों में, पर, कोई पहली जैसी मधुशाला।।१०९।
एक समय छलका करती थी मेरे अधरों पर हाला,
एक समय झूमा करता था मेरे हाथों पर प्याला,
एक समय पीनेवाले, साकी आिलंगन करते थे,
आज बनी हँू िनजर्न मरघट, एक समय थी मधुशाला।।११०।

जला हृदय की भट्टी खींची मैंने आँसू की हाला,


छलछल छलका करता इससे पल पल पलकों का प्याला,
आँखें आज बनी हैं साकी, गाल गुलाबी पी होते,
कहो न िवरही मुझको, मैं हँू चलती िफरती मधुशाला!।१११।

िकतनी जल्दी रं ग बदलती है अपना चंचल हाला,


िकतनी जल्दी िघसने लगता हाथों में आकर प्याला,
िकतनी जल्दी साकी का आकषर्ण घटने लगता है ,
ूात नहीं थी वैसी, जैसी रात लगी थी मधुशाला।।११२।

बूँद बूँद के हे तु कभी तुझको तरसाएगी हाला,


कभी हाथ से िछन जाएगा तेरा यह मादक प्याला,
पीनेवाले, साकी की मीठी बातों में मत आना,
मेरे भी गुण यों ही गाती एक िदवस थी मधुशाला।।११३।

छोड़ा मैंने पथ मतों को तब कहलाया मतवाला,


चली सुरा मेरा पग धोने तोड़ा जब मैंने प्याला,
अब मानी मधुशाला मेरे पीछे पीछे िफरती है ,
क्या कारण? अब छोड़ िदया है मैंने जाना मधुशाला।।११४।
यह न समझना, िपया हलाहल मैंने, जब न िमली हाला,
तब मैंने खप्पर अपनाया ले सकता था जब प्याला,
जले हृदय को और जलाना सूझा, मैंने मरघट को
अपनाया जब इन चरणों में लोट रही थी मधुशाला।।११५।

िकतनी आई और गई पी इस मिदरालय में हाला,


ू चुकी अब तक िकतने ही मादक प्यालों की माला,
टट
िकतने साकी अपना अपना काम खतम कर दरू गए,
िकतने पीनेवाले आए, िकन्तु वही है मधुशाला।।११६।

िकतने होठों को रक्खेगी याद भला मादक हाला,


िकतने हाथों को रक्खेगा याद भला पागल प्याला,
िकतनी शक्लों को रक्खेगा याद भला भोला साकी,
िकतने पीनेवालों में है एक अकेली मधुशाला।।११७।

दर दर घूम रहा था जब मैं िचल्लाता - हाला! हाला!


मुझे न िमलता था मिदरालय, मुझे न िमलता था प्याला,
िमलन हआ
ु , पर नहीं िमलनसुख िलखा हआ
ु था िकःमत में,
मैं अब जमकर बैठ गया हँ ◌,ू घूम रही है मधुशाला।।११८।

मैं मिदरालय के अंदर हँू , मेरे हाथों में प्याला,


प्याले में मिदरालय िबंि◌बत करनेवाली है हाला,
इस उधेड़-बुन में ही मेरा सारा जीवन बीत गया -
मैं मधुशाला के अंदर या मेरे अंदर मधुशाला!।११९।

िकसे नहीं पीने से नाता, िकसे नहीं भाता प्याला,


इस जगती के मिदरालय में तरह-तरह की है हाला,
अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार सभी पी मदमाते,
एक सभी का मादक साकी, एक सभी की मधुशाला।।१२०।

वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला,


िजसमें मैं िबंि◌बत-ूितबंि◌बत ूितपल, वह मेरा प्याला,
मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मिदरा बेची जाती है ,
भेंट जहाँ मःती की िमलती मेरी तो वह मधुशाला।।१२१।

मतवालापन हाला से ले मैंने तज दी है हाला,


पागलपन लेकर प्याले से, मैंने त्याग िदया प्याला,
साकी से िमल, साकी में िमल अपनापन मैं भूल गया,
िमल मधुशाला की मधुता में भूल गया मैं मधुशाला।।१२२।

मिदरालय के द्वार ठोंकता िकःमत का छं छा प्याला,


गहरी, ठं डी सांसें भर भर कहता था हर मतवाला,
िकतनी थोड़ी सी यौवन की हाला, हा, मैं पी पाया!
बंद हो गई िकतनी जल्दी मेरी जीवन मधुशाला।।१२३।

कहाँ गया वह ःविगर्क साकी, कहाँ गयी सुिरभत हाला,


कहँ ◌ा गया ःविपनल मिदरालय, कहाँ गया ःविणर्म प्याला!
पीनेवालों ने मिदरा का मूल्य, हाय, कब पहचाना?
ू चुकी जब मधुशाला।।१२४।
फूट चुका जब मधु का प्याला, टट

अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हई


ु अपनी हाला,
अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हआ
ु अपना प्याला,
िफर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उज्ञल्तऌ◌ार पाया -
अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!।१२५।

'मय' को करके शुद्ध िदया अब नाम गया उसको, 'हाला'


'मीना' को 'मधुपाऽ' िदया 'सागर' को नाम गया 'प्याला',
क्यों न मौलवी चौंकें, िबचकें ितलक-िऽपुड
ं ी पंि◌डत जी
'मय-मिहफल' अब अपना ली है मैंने करके 'मधुशाला'।।१२६।

िकतने ममर् जता जाती है बार-बार आकर हाला,


िकतने भेद बता जाता है बार-बार आकर प्याला,
िकतने अथोर्ं को संकेतों से बतला जाता साकी,
िफर भी पीनेवालों को है एक पहे ली मधुशाला।।१२७।

िजतनी िदल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला,


िजतनी मन की मादकता हो उतनी मादक है हाला,
िजतनी उर की भावुकता हो उतना सुन्दर साकी है ,
िजतना ही जो िरसक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला।।१२८।

ु , बना दे मःत उन्हें मेरी हाला,


िजन अधरों को छए
ू दे , कर दे िविक्षप्त उसे मेरा प्याला,
िजस कर को छ◌ू
आँख चार हों िजसकी मेरे साकी से दीवाना हो,
पागल बनकर नाचे वह जो आए मेरी मधुशाला।।१२९।

हर िजहवा पर दे खी जाएगी मेरी मादक हाला


हर कर में दे खा जाएगा मेरे साकी का प्याला
हर घर में चचार् अब होगी मेरे मधुिवबेता की
हर आंगन में गमक उठे गी मेरी सुिरभत मधुशाला।।१३०।

मेरी हाला में सबने पाई अपनी-अपनी हाला,


मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला,
मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी दे खा,
िजसकी जैसी रुि◌च थी उसने वैसी दे खी मधुशाला।।१३१।

यह मिदरालय के आँसू हैं , नहीं-नहीं मादक हाला,


यह मिदरालय की आँखें हैं , नहीं-नहीं मधु का प्याला,
िकसी समय की सुखदःमृित है साकी बनकर नाच रही,
नहीं-नहीं िकव का हृदयांगण, यह िवरहाकुल मधुशाला।।१३२।

कुचल हसरतें िकतनी अपनी, हाय, बना पाया हाला,


िकतने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला!
पी पीनेवाले चल दें गे, हाय, न कोई जानेगा,
िकतने मन के महल ढहे तब खड़ी हई
ु यह मधुशाला!।१३३।

िवश्व तुम्हारे िवषमय जीवन में ला पाएगी हाला


यिद थोड़ी-सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला,
शून्य तुम्हारी घिड़याँ कुछ भी यिद यह गुंिजत कर पाई,
जन्म सफल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला।।१३४।

बड़े -बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला,


िकलत कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला,
मान-दलारों
ु से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को,
िवश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हँू मधुशाला।।१३५।
िपिरशष्ट से

ःवयं नहीं पीता, औरों को, िकन्तु िपला दे ता हाला,


ू , औरों को, पर पकड़ा दे ता प्याला,
ःवयं नहीं छता
पर उपदे श कुशल बहते
ु रों से मैंने यह सीखा है ,
ःवयं नहीं जाता, औरों को पहंु चा दे ता मधुशाला।

मैं कायःथ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,


मेरे तन के लोहू में है पचहज्ञल्तऌ◌ार ूितशत हाला,
पुँतैनी अिधकार मुझे है मिदरालय के आँगन पर,
मेरे दादों परदादों के हाथ िबकी थी मधुशाला।

बहतों
ु के िसर चार िदनों तक चढ़कर उतर गई हाला,
बहतों
ु के हाथों में दो िदन छलक झलक रीता प्याला,
पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही
और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।

िपऽ पक्ष में पुऽ उठाना अध्यर् न कर में, पर प्याला


बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला
िकसी जगह की िमटटी भीगे, तृिप्त मुझे िमल जाएगी
तपर्ण अपर्ण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला।
मुझे पुकार लो

इसीिलए खड़ा रहा िक तुम मुझे पुकार लो!

ज़मीन है न बोलती न आसमान बोलता,


जहान दे खकर मुझे नहीं जबान खोलता,
नहीं जगह कहीं जहाँ न अजनबी िगना गया,
कहाँ-कहाँ न िफर चुका िदमाग-िदल टटोलता,
कहाँ मनुंय है िक जो उमीद छोड़कर िजया,
इसीिलए खड़ा रहा िक तुम मुझे पुकार लो

इसीिलए खड़ा रहा िक तुम मुझे पुकार लो!

ितिमर-समुि कर सकी न पार नेऽ की तरी,


िवनष्ट ःवप्न से लदी, िवषाद याद से भरी,
न कूल भूिम का िमला, न कोर भोर की िमली,
न कट सकी, न घट सकी िवरह-िघरी िवभावरी,
कहाँ मनुंय है िजसे कमी खली न प्यार की,
इसीिलए खड़ा रहा िक तुम मुझे दलार
ु लो!

इसीिलए खड़ा रहा िक तुम मुझे पुकार लो!

उजाड़ से लगा चुका उमीद मैं बहार की,


िनदघ से उमीद की बसंत के बयार की,
मरुःथली मरीिचका सुधामयी मुझे लगी,
अंगार से लगा चुका उमीद मै तुषार की,
कहाँ मनुंय है िजसे न भूल शूल-सी गड़ी
इसीिलए खड़ा रहा िक भूल तुम सुधार लो!

इसीिलए खड़ा रहा िक तुम मुझे पुकार लो!


पुकार कर दला
ु र लो, दलार
ु कर सुधार लो!

ूतीक्षा

मधुर ूतीक्षा ही जब इतनी, िूय तुम आते तब क्या होता?

मौन रात इस भांित िक जैसे, कोई गत वीण पर बज कर,


अभी-अभी सोई खोई-सी, सपनों में तारों पर िसर धर
और िदशाओं से ूितध्विनयाँ, जामत सुिधयों-सी आती हैं ,
कान तुम्हारे तान कहीं से यिद सुन पाते, तब क्या होता?

तुमने कब दी बात रात के सूने में तुम आने वाले,


पर ऐसे ही वक्त ूाण मन, मेरे हो उठते मतवाले,
साँसें घूमघूम िफरिफर से, असमंजस के क्षण िगनती हैं ,
िमलने की घिड़याँ तुम िनिश्चत, यिद कर जाते तब क्या होता?

उत्सुकता की अकुलाहट में, मैंने पलक पाँवड़े डाले,


अम्बर तो मशहर
ू िक सब िदन, रहता अपने होश सम्हाले,
तारों की महिफल ने अपनी आँख िबछा दी िकस आशा से,
मेरे मौन कुटी को आते तुम िदख जाते तब क्या होता?
बैठ कल्पना करता हँू , पगचाप तुम्हारी मग से आती,
रगरग में चेतनता घुलकर, आँसू के कणसी झर जाती,
नमक डलीसा गल अपनापन, सागर में घुलिमलसा जाता,
अपनी बाँहों में भरकर िूय, कण्ठ लगाते तब क्या होता?

रात आधी खींच कर मेरी हथेली

रात आधी खींच कर मेरी हथेली


एक उं गली से िलखा था प्यार तुमने।

फ़ासला था कुछ हमारे िबःतरों में


और चारों ओर दिनया
ु सो रही थी।
तािरकाऐं ही गगन की जानती हैं
जो दशा िदल की तुम्हारे हो रही थी।
मैं तुम्हारे पास होकर दरू तुमसे
अधजगा सा और अधसोया हआ
ु सा।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उं गली से िलखा था प्यार तुमने।

एक िबजली छू गई सहसा जगा मैं


कृ ंणपक्षी चाँद िनकला था गगन में।
इस तरह करवट पड़ी थी तुम िक आँसू
बह रहे थे इस नयन से उस नयन में।
मैं लगा दँ ू आग इस संसार में
है प्यार िजसमें इस तरह असमथर् कातर।
जानती हो उस समय क्या कर गुज़रने
के िलए था कर िदया तैयार तुमने!
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उं गली से िलखा था प्यार तुमने।

ूात ही की ओर को है रात चलती


औ उजाले में अंधेरा डब
ू जाता।
मंच ही पूरा बदलता कौन ऐसी
खूिबयों के साथ परदे को उठाता।
एक चेहरा सा लगा तुमने िलया था
और मैंने था उतारा एक चेहरा।
वो िनशा का ःवप्न मेरा था िक अपने
पर ग़ज़ब का था िकया अिधकार तुमने।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
एक उं गली से िलखा था प्यार तुमने।

और उतने फ़ासले पर आज तक
सौ यत्न करके भी न आये िफर कभी हम।
िफर न आया वक्त वैसा
िफर न मौका उस तरह का
िफर न लौटा चाँद िनमर्म।
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ।
क्या नहीं ये पंिक्तयाँ खुद बोलती हैं ?
बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो
रख िदया था हाथ पर अंगार तुमने।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
याऽा और याऽी

साँस चलती है तुझे


चलना पड़े गा ही मुसािफर!

चल रहा है तारकों का
दल गगन में गीत गाता,
चल रहा आकाश भी है
शून्य में ॅमता-ॅमाता,
पाँव के नीचे पड़ी
अचला नहीं, यह चंचला है ,
एक कण भी, एक क्षण भी
एक थल पर िटक न पाता,
शिक्तयाँ गित की तुझे
सब ओर से घेरे हए
ु है ;
ःथान से अपने तुझे
टलना पड़े गा ही, मुसािफर!
साँस चलती है तुझे
चलना पड़े गा ही मुसािफर!

थे जहाँ पर गतर् पैरों


को ज़माना ही पड़ा था,
पत्थरों से पाँव के
छाले िछलाना ही पड़ा था,
घास मखमल-सी जहाँ थी
मन गया था लोट सहसा,
थी घनी छाया जहाँ पर
तन जुड़ाना ही पड़ा था,
पग परीक्षा, पग ूलोभन
ज़ोर-कमज़ोरी भरा तू
इस तरफ डटना उधर
ढलना पड़े गा ही, मुसािफर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़े गा ही मुसािफर!

शूल कुछ ऐसे, पगो में


चेतना की ःफूितर् भरते,
तेज़ चलने को िववश
करते, हमेशा जबिक गड़ते,
शुिबया उनका िक वे
पथ को रहे ूेरक बनाए,
िकन्तु कुछ ऐसे िक रुकने
के िलए मजबूर करते,
और जो उत्साह का
दे ते कलेजा चीर, ऐसे
कंटकों का दल तुझे
दलना पड़े गा ही, मुसािफर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़े गा ही मुसािफर!

सूयर् ने हँ सना भुलाया,


चंिमा ने मुःकुराना,
और भूली यािमनी भी
तािरकाओं को जगाना,
एक झोंके ने बुझाया
हाथ का भी दीप लेिकन
मत बना इसको पिथक तू
बैठ जाने का बहाना,
एक कोने में हृदय के
आग तेरे जग रही है ,
दे खने को मग तुझे
जलना पड़े गा ही, मुसािफर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़े गा ही मुसािफर!

वह किठन पथ और कब
उसकी मुसीबत भूलती है ,
साँस उसकी याद करके
भी अभी तक फूलती है ;
यह मनुज की वीरता है
या िक उसकी बेहयाई,
साथ ही आशा सुखों का
ःवप्न लेकर झूलती है
सत्य सुिधयाँ, झूठ शायद
ःवप्न, पर चलना अगर है ,
झूठ से सच को तुझे
छलना पड़े गा ही, मुसािफर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़े गा ही मुसािफर!
ऊँचाई

ऊँचे पहाड़ पर,


पेड़ नहीं लगते,
पौधे नहीं उगते,
न घास ही जमती है ।
जमती है िसफर् बफर्,
जो, कफन की तरह सफेद और,
मौत की तरह ठं डी होती है ।
खेलती, िखल-िखलाती नदी,
िजसका रूप धारण कर,
अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है ।
ऐसी ऊँचाई,
िजसका परस
पानी को पत्थर कर दे ,
ऐसी ऊँचाई
िजसका दरस हीन भाव भर दे ,
अिभनन्दन की अिधकारी है ,
आरोिहयों के िलये आमंऽण है ,
उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं ,
िकन्तु कोई गौरै या,
वहाँ नीड़ नहीं बना सकती,
ना कोई थका-मांदा बटोही,
उसकी छांव में पलभर पलक ही झपका सकता है ।

सच्चाई यह है िक
केवल ऊँचाई ही कािफ नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
पिरवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बंटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं,
मजबूरी है ।
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दरू ी है ।
जो िजतना ऊँचा,
उतना एकाकी होता है ,
हर भार को ःवयं ढोता है ,
चेहरे पर मुःकानें िचपका,
मन ही मन रोता है ।

जरूरी यह है िक
ऊँचाई के साथ िवःतार भी हो,
िजससे मनुंय,
ठंू ट सा खड़ा न रहे ,
औरों से घुले-िमले,
िकसी को साथ ले,
िकसी के संग चले।
भीड़ में खो जाना,
यादों में डब
ू जाना,
ःवयं को भूल जाना,
अिःतत्व को अथर्,
जीवन को सुगंध दे ता है ।
धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इन्सानों की जरूरत है ।
इतने ऊँचे िक आसमान छू लें,
नये नक्षऽों में ूितभा की बीज बो लें,
िकन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
िक पाँव तले दब
ू ही न जमे,
कोई कांटा न चुभे,
कोई किल न िखले।

न वसंत हो, न पतझड़,


हों िसफर् ऊँचाई का अंधड़,
माऽ अकेलापन का सन्नाटा।

मेरे ूभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत दे ना,
गैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत दे ना।
चाँद और किव
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है !
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और िफर बेचैन हो जगता, न सोता है ।

जानता है तू िक मैं िकतना पुराना हँू ?


मैं चुका हँू दे ख मनु को जनमते-मरते
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ ःवप्नों पर सही करते।

आदमी का ःवप्न? है वह बुलबुला जल का


आज बनता और कल िफर फूट जाता है
िकन्तु, िफर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, किवता बनाता है ।

मैं न बोला िकन्तु मेरी रािगनी बोली,


दे ख िफर से चाँद! मुझको जानता है तू?
ःवप्न मेरे बुलबुले हैं ? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो ःवप्न पर केवल सही करते,


आग में उसको गला लोहा बनाता हँू ,
और उस पर नींव रखता हँू नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हँू ।
मनु नहीं, मनु-पुऽ है यह सामने, िजसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है ,
बाण ही होते िवचारों के नहीं केवल,
ःवप्न के भी हाथ में तलवार होती है ।

ःवगर् के सॆाट को जाकर खबर कर दे -


रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोिकये, जैसे बने इन ःवप्नवालों को,
ःवगर् की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।

लोहे के मदर्
पुरुष वीर बलवान,
दे श की शान,
हमारे नौजवान
घायल होकर आये हैं ।

कहते हैं , ये पुंप, दीप,


अक्षत क्यों लाये हो?

हमें कामना नहीं सुयश-िवःतार की,


फूलों के हारों की, जय-जयकार की।

तड़प रही घायल ःवदे श की शान है ।


सीमा पर संकट में िहन्दःतान
ु है ।
ले जाओ आरती, पुंप, पल्लव हरे ,
ले जाओ ये थाल मोदकों ले भरे ।

ितलक चढ़ा मत और हृदय में हक


ू दो,
दे सकते हो तो गोली-बन्दक
ू दो।

Other Information
Written: November 1, 1962
Collection: Parshuram Kee Prateeksha (Published: 1963)

आग की भीख

धुँधली हई
ु िदशाएँ, छाने लगा कुहासा,
ु िशखा से आने लगा धुआँसा।
कुचली हई
कोई मुझे बता दे , क्या आज हो रहा है ,
मुंह को िछपा ितिमर में क्यों तेज सो रहा है ?
दाता पुकार मेरी, संदीिप्त को िजला दे ,
ु िशखा को संजीवनी िपला दे ।
बुझती हई
प्यारे ःवदे श के िहत अँगार माँगता हँू ।
चढ़ती जवािनयों का ौृग
ं ार मांगता हँू ।

बेचैन हैं हवाएँ, सब ओर बेकली है ,


कोई नहीं बताता, िकँती िकधर चली है ?
मँझदार है , भँवर है या पास है िकनारा?
यह नाश आ रहा है या सौभाग्य का िसतारा?
आकाश पर अनल से िलख दे अदृष्ट मेरा,
भगवान, इस तरी को भरमा न दे अँधेरा।
तमवेिधनी िकरण का संधान माँगता हँू ।
ीुव की किठन घड़ी में, पहचान माँगता हँू ।

आगे पहाड़ को पा धारा रुकी हई


ु है ,
बलपुंज केसरी की मीवा झुकी हई
ु है ,
अिग्नःफुिलंग रज का, बुझ डे र हो रहा है ,
है रो रही जवानी, अँधेर हो रहा है !
िनवार्क है िहमालय, गंगा डरी हई
ु है ,
िनःतब्धता िनशा की िदन में भरी हई
ु है ।
पंचाःयनाद भीषण, िवकराल माँगता हँू ।
जड़तािवनाश को िफर भूचाल माँगता हँू ।

मन की बंधी उमंगें असहाय जल रही है ,


अरमानआरज़ू की लाशें िनकल रही हैं ।
भीगीखुशी पलों में रातें गुज़ारते हैं ,
सोती वसुन्धरा जब तुझको पुकारते हैं ,
इनके िलये कहीं से िनभीर्क तेज ला दे ,
ु अनल का इनको अमृत िपला दे ।
िपघले हए
उन्माद, बेकली का उत्थान माँगता हँू ।
िवःफोट माँगता हँू , तूफान माँगता हँू ।

आँसूभरे दृगों में िचनगािरयाँ सजा दे ,


मेरे शमशान में आ ौंगी जरा बजा दे ।
िफर एक तीर सीनों के आरपार कर दे ,
िहमशीत ूाण में िफर अंगार ःवच्छ भर दे ।
आमषर् को जगाने वाली िशखा नयी दे ,
अनुभूितयाँ हृदय में दाता, अनलमयी दे ।
िवष का सदा लहू में संचार माँगता हँू ।
बेचैन िज़न्दगी का मैं प्यार माँगता हँू ।

ठहरी हई
ु तरी को ठोकर लगा चला दे ,
जो राह हो हमारी उसपर िदया जला दे ।
गित में ूभंजनों का आवेग िफर सबल दे ,
इस जाँच की घड़ी में िनष्ठा कड़ी, अचल दे ।
हम दे चुके लहु हैं , तू दे वता िवभा दे ,
अपने अनलिविशख से आकाश जगमगा दे ।
प्यारे ःवदे श के िहत वरदान माँगता हँू ।
तेरी दया िवपद् में भगवान माँगता हँू ।

बािलका से वधु

माथे में सेंदरू पर छोटी दो िबंदी चमचम-सी,


पपनी पर आँसू की बूँदें मोती-सी, शबनम-सी।
लदी हई
ु किलयों में मादक टहनी एक नरम-सी,
यौवन की िवनती-सी भोली, गुमसुम खड़ी शरम-सी।

पीला चीर, कोर में िजसकी चकमक गोटा-जाली,


चली िपया के गांव उमर के सोलह फूलोंवाली।
पी चुपके आनंद, उदासी भरे सजल िचतवन में,
आँसू में भींगी माया चुपचाप खड़ी आंगन में।

आँखों में दे आँख हे रती हैं उसको जब सिखयाँ,


मुःकी आ जाती मुख पर, हँ स दे ती रोती अँिखयाँ।
पर, समेट लेती शरमाकर िबखरी-सी मुःकान,
िमट्टी उकसाने लगती है अपरािधनी-समान।

भींग रहा मीठी उमंग से िदल का कोना-कोना,


भीतर-भीतर हँ सी दे ख लो, बाहर-बाहर रोना।
तू वह, जो झुरमुट पर आयी हँ सती कनक-कली-सी,
तू वह, जो फूटी शराब की िनझर्िरणी पतली-सी।

तू वह, रचकर िजसे ूकृ ित ने अपना िकया िसंगार,


तू वह जो धूसर में आयी सुबज रं ग की धार।
मां की ढीठ दलार
ु ! िपता की ओ लजवंती भोली,
ले जायेगी िहय की मिण को अभी िपया की डोली।

कहो, कौन होगी इस घर तब शीतल उिजयारी?


िकसे दे ख हँ स-हँ स कर फूलेगी सरसों की क्यारी?
वृक्ष रीझ कर िकसे करें गे पहला फल अपर्ण-सा?
झुकते िकसको दे ख पोखरा चमकेगा दपर्ण-सा?

िकसके बाल ओज भर दें गे खुलकर मंद पवन में?


पड़ जायेगी जान दे खकर िकसको चंि-िकरन में?
महँ -महँ कर मंजरी गले से िमल िकसको चूमेगी?
कौन खेत में खड़ी फ़सल की दे वी-सी झूमेगी?

बनी िफरे गी कौन बोलती ूितमा हिरयाली की?


कौन रूह होगी इस धरती फल-फूलों वाली की?
हँ सकर हृदय पहन लेता जब किठन ूेम-ज़ंजीर,
खुलकर तब बजते न सुहािगन, पाँवों के मंजीर।

घड़ी िगनी जाती तब िनिशिदन उँ गली की पोरों पर,


िूय की याद झूलती है साँसों के िहं डोरों पर।
पलती है िदल का रस पीकर सबसे प्यारी पीर,
बनती है िबगड़ती रहती पुतली में तःवीर।

पड़ जाता चःका जब मोहक ूेम-सुधा पीने का,


सारा ःवाद बदल जाता है दिनया
ु में जीने का।
मंगलमय हो पंथ सुहािगन, यह मेरा वरदान;
हरिसंगार की टहनी-से फूलें तेरे अरमान।

जगे हृदय को शीतल करनेवाली मीठी पीर,


िनज को डबो
ु सके िनज में, मन हो इतना गंभीर।
छाया करती रहे सदा तुझको सुहाग की छाँह,
सुख-दख
ु में मीवा के नीचे हो िूयतम की बाँह।

पल-पल मंगल-लग्न, िज़ंदगी के िदन-िदन त्यौहार,


उर का ूेम फूटकर हो आँचल में उजली धार।
कुंजी

घेरे था मुझे तुम्हारी साँसों का पवन,


जब मैं बालक अबोध अनजान था।

यह पवन तुम्हारी साँस का


सौरभ लाता था।
उसके कंधों पर चढ़ा
मैं जाने कहाँ-कहाँ
आकाश में घूम आता था।

सृिष्ट शायद तब भी रहःय थी।


मगर कोई परी मेरे साथ में थी;
मुझे मालूम तो न था,
मगर ताले की कूंजी मेरे हाथ में थी।

जवान हो कर मैं आदमी न रहा,


खेत की घास हो गया।

तुम्हारा पवन आज भी आता है


और घास के साथ अठखेिलयाँ करता है ,
उसके कानों में चुपके चुपके
कोई संदेश भरता है ।

घास उड़ना चाहती है


और अकुलाती है ,
मगर उसकी जड़ें धरती में
बेतरह गड़ी हईं
ु हैं ।
इसिलए हवा के साथ
वह उड़ नहीं पाती है ।

शिक्त जो चेतन थी,


अब जड़ हो गयी है ।
बचपन में जो कुंजी मेरे पास थी,
उॆ बढ़ते बढ़ते
वह कहीं खो गयी है ।

लेन-दे न

लेन-दे न का िहसाब
लंबा और पुराना है ।

िजनका कजर् हमने खाया था,


उनका बाकी हम चुकाने आये हैं ।
और िजन्होंने हमारा कजर् खाया था,
उनसे हम अपना हक पाने आये हैं ।

लेन-दे न का व्यापार अभी लंबा चलेगा।


जीवन अभी कई बार पैदा होगा
और कई बार जलेगा।

और लेन-दे न का सारा व्यापार


जब चुक जायेगा,
ईश्वर हमसे खुद कहे गा -

तुम्हार एक पावना मुझ पर भी है ,


आओ, उसे महण करो।
अपना रूप छोड़ो,
मेरा ःवरूप वरण करो।

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,


आदमी भी क्या अनोखा जीव है !
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और िफर बेचैन हो जगता, न सोता है ।

जानता है तू िक मैं िकतना पुराना हँू ?


मैं चुका हँू दे ख मनु को जनमते-मरते
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ ःवप्नों पर सही करते।

आदमी का ःवप्न? है वह बुलबुला जल का


आज उठता और कल िफर फूट जाता है
िकन्तु, िफर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, किवता बनाता है ।

मैं न बोला िकन्तु मेरी रािगनी बोली,


दे ख िफर से चाँद! मुझको जानता है तू?
ःवप्न मेरे बुलबुले हैं ? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो ःवप्न पर केवल सही करते,


आग में उसको गला लोहा बनाता हँू ,
और उस पर नींव रखता हँू नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाता हँू ।

मनु नहीं, मनु-पुऽ है यह सामने, िजसकी


कल्पना की जीभ में भी धार होती है ,
वाण ही होते िवचारों के नहीं केवल,
ःवप्न के भी हाथ में तलवार होती है ।

ःवगर् के सॆाट को जाकर खबर कर दे -


रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोिकये, जैसे बने इन ःवप्नवालों को,
ःवगर् की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।
झाँसी की रानी

िसंहासन िहल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी,


बूढ़े भारत में आई िफर से नयी जवानी थी,
गुमी हई
ु आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी,
दरू िफरं गी को करने की सबने मन में ठानी थी।
चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुह
ँ हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कानपूर के नाना की, मुँहबोली बहन छबीली थी,


लआमीबाई नाम, िपता की वह संतान अकेली थी,
नाना के सँग पढ़ती थी वह, नाना के सँग खेली थी,
बरछी ढाल, कृ पाण, कटारी उसकी यही सहे ली थी।
वीर िशवाजी की गाथायें उसकी याद ज़बानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुह
ँ हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

लआमी थी या दगार्
ु थी वह ःवयं वीरता की अवतार,
दे ख मराठे पुलिकत होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब िशकार,
सैन्य घेरना, दग
ु र् तोड़ना ये थे उसके िूय िखलवार।
महाराष्टर-कुल-दे वी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुह
ँ हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
हई
ु वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हआ
ु रानी बन आई लआमीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुिशयाँ छाई झाँसी में,
िचऽा ने अजुन
र् को पाया, िशव से िमली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुह
ँ हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

उिदत हआ
ु सौभाग्य, मुिदत महलों में उिजयाली छाई,
िकंतु कालगित चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूिड़याँ कब भाई,
रानी िवधवा हई
ु , हाय! िविध को भी नहीं दया आई।
िनसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुह
ँ हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

बुझा दीप झाँसी का तब डलहौज़ी मन में हरषाया,


राज्य हड़प करने का उसने यह अच्छा अवसर पाया,
फ़ौरन फौजें भेज दगर्
ु पर अपना झंडा फहराया,
लावािरस का वािरस बनकर िॄिटश राज्य झाँसी आया।
अौुपूणार् रानी ने दे खा झाँसी हई
ु िबरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुह
ँ हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

अनुनय िवनय नहीं सुनती है , िवकट शासकों की माया,


व्यापारी बन दया चाहता था जब यह भारत आया,
डलहौज़ी ने पैर पसारे , अब तो पलट गई काया,

राजाओं नव्वाबों को भी उसने पैरों ठकराया।
रानी दासी बनी, बनी यह दासी अब महरानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुह
ँ हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

िछनी राजधानी िदल्ली की, लखनऊ छीना बातों-बात,


ु में, हआ
कैद पेशवा था िबठर ु नागपुर का भी घात,
उदै पुर, तंजौर, सतारा, करनाटक की कौन िबसात?
जबिक िसंध, पंजाब ॄह्म पर अभी हआ
ु था वळ-िनपात।
बंगाले, मिास आिद की भी तो वही कहानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुह
ँ हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी रोयीं िरनवासों में, बेगम ग़म से थीं बेज़ार,


उनके गहने कपड़े िबकते थे कलकत्ते के बाज़ार,
सरे आम नीलाम छापते थे अंमेज़ों के अखबार,
'नागपूर के ज़ेवर ले लो लखनऊ के लो नौलख हार'।
यों परदे की इएज़त परदे शी के हाथ िबकानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुह
ँ हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

कुिटयों में भी िवषम वेदना, महलों में आहत अपमान,


वीर सैिनकों के मन में था अपने पुरखों का अिभमान,
नाना धुंधूपंत पेशवा जुटा रहा था सब सामान,
बिहन छबीली ने रण-चण्डी का कर िदया ूकट आहवान।
हआ
ु यज्ञ ूारम्भ उन्हें तो सोई ज्योित जगानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुह
ँ हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

महलों ने दी आग, झोंपड़ी ने ज्वाला सुलगाई थी,


यह ःवतंऽता की िचनगारी अंतरतम से आई थी,
झाँसी चेती, िदल्ली चेती, लखनऊ लपटें छाई थी,
मेरठ, कानपूर, पटना ने भारी धूम मचाई थी,
जबलपूर, कोल्हापूर में भी कुछ हलचल उकसानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुह
ँ हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इस ःवतंऽता महायज्ञ में कई वीरवर आए काम,


नाना धुंधूपंत, ताँितया, चतुर अज़ीमुल्ला सरनाम,
अहमदशाह मौलवी, ठाकुर कुँवरिसंह सैिनक अिभराम,
भारत के इितहास गगन में अमर रहें गे िजनके नाम।
लेिकन आज जुमर् कहलाती उनकी जो कुरबानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुह
ँ हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

इनकी गाथा छोड़, चले हम झाँसी के मैदानों में,


जहाँ खड़ी है लआमीबाई मदर् बनी मदार्नों में,
लेिफ्टनेंट वाकर आ पहँु चा, आगे बड़ा जवानों में,
रानी ने तलवार खींच ली, हया
ु द्वन्द्ध असमानों में।
ज़ख्मी होकर वाकर भागा, उसे अजब है रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुह
ँ हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
रानी बढ़ी कालपी आई, कर सौ मील िनरं तर पार,
घोड़ा थक कर िगरा भूिम पर गया ःवगर् तत्काल िसधार,
यमुना तट पर अंमेज़ों ने िफर खाई रानी से हार,
िवजयी रानी आगे चल दी, िकया ग्वािलयर पर अिधकार।
अंमेज़ों के िमऽ िसंिधया ने छोड़ी रजधानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुह
ँ हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

िवजय िमली, पर अंमेज़ों की िफर सेना िघर आई थी,


अबके जनरल िःमथ सम्मुख था, उसने मुहँ की खाई थी,
काना और मंदरा सिखयाँ रानी के संग आई थी,
युद्ध ौेऽ में उन दोनों ने भारी मार मचाई थी।
पर पीछे ह्यूरोज़ आ गया, हाय! िघरी अब रानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुह
ँ हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

तो भी रानी मार काट कर चलती बनी सैन्य के पार,


िकन्तु सामने नाला आया, था वह संकट िवषम अपार,
घोड़ा अड़ा, नया घोड़ा था, इतने में आ गये अवार,
रानी एक, शऽु बहते
ु रे, होने लगे वार-पर-वार।
घायल होकर िगरी िसंहनी उसे वीर गित पानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुह
ँ हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

रानी गई िसधार िचता अब उसकी िदव्य सवारी थी,


िमला तेज से तेज, तेज की वह सच्ची अिधकारी थी,
अभी उॆ कुल तेइस की थी, मनुज नहीं अवतारी थी,
हमको जीिवत करने आयी बन ःवतंऽता-नारी थी,
िदखा गई पथ, िसखा गई हमको जो सीख िसखानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुह
ँ हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

जाओ रानी याद रखेंगे ये कृ तज्ञ भारतवासी,


यह तेरा बिलदान जगावेगा ःवतंऽता अिवनासी,
होवे चुप इितहास, लगे सच्चाई को चाहे फाँसी,
हो मदमाती िवजय, िमटा दे गोलों से चाहे झाँसी।
तेरा ःमारक तू ही होगी, तू खुद अिमट िनशानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुह
ँ हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।

मेरा नया बचपन

बार-बार आती है मुझको मधुर याद बचपन तेरी।


गया ले गया तू जीवन की सबसे मःत खुशी मेरी॥

िचंता-रिहत खेलना-खाना वह िफरना िनभर्य ःवच्छं द।


कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुिलत आनंद?

ु ू िकसने जानी?
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छआछत
बनी हई
ु थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥
िकये दध
ू के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा िपया।
िकलकारी िकल्लोल मचाकर सूना घर आबाद िकया॥

रोना और मचल जाना भी क्या आनंद िदखाते थे।


बड़े -बड़े मोती-से आँसू जयमाला पहनाते थे॥

मैं रोई, माँ काम छोड़कर आईं, मुझको उठा िलया।


झाड़-पोंछ कर चूम-चूम कर गीले गालों को सुखा िदया॥

दादा ने चंदा िदखलाया नेऽ नीर-युत दमक उठे ।


धुली हई
ु मुःकान दे ख कर सबके चेहरे चमक उठे ॥

वह सुख का साॆाज्य छोड़कर मैं मतवाली बड़ी हई।



लुटी हई
ु , कुछ ठगी हई
ु -सी दौड़ द्वार पर खड़ी हई॥

लाजभरी आँखें थीं मेरी मन में उमँग रँ गीली थी।


तान रसीली थी कानों में चंचल छै ल छबीली थी॥

िदल में एक चुभन-सी भी थी यह दिनया


ु अलबेली थी।
मन में एक पहे ली थी मैं सब के बीच अकेली थी॥

िमला, खोजती थी िजसको हे बचपन! ठगा िदया तूने।


अरे ! जवानी के फंदे में मुझको फँसा िदया तूने॥

सब गिलयाँ उसकी भी दे खीं उसकी खुिशयाँ न्यारी हैं ।


प्यारी, ूीतम की रँ ग-रिलयों की ःमृितयाँ भी प्यारी हैं ॥
माना मैंने युवा-काल का जीवन खूब िनराला है ।
आकांक्षा, पुरुषाथर्, ज्ञान का उदय मोहनेवाला है ॥

िकंतु यहाँ झंझट है भारी युद्ध-क्षेऽ संसार बना।


िचंता के चक्कर में पड़कर जीवन भी है भार बना॥

आ जा बचपन! एक बार िफर दे दे अपनी िनमर्ल शांित।


व्याकुल व्यथा िमटानेवाली वह अपनी ूाकृ त िवौांित॥

वह भोली-सी मधुर सरलता वह प्यारा जीवन िनंपाप।


क्या आकर िफर िमटा सकेगा तू मेरे मन का संताप?

मैं बचपन को बुला रही थी बोल उठी िबिटया मेरी।


नंदन वन-सी फूल उठी यह छोटी-सी कुिटया मेरी॥

'माँ ओ' कहकर बुला रही थी िमट्टी खाकर आयी थी।


कुछ मुँह में कुछ िलये हाथ में मुझे िखलाने लायी थी॥

पुलक रहे थे अंग, दृगों में कौतुहल था छलक रहा।


मुँह पर थी आह्लाद-लािलमा िवजय-गवर् था झलक रहा॥

मैंने पूछा 'यह क्या लायी?' बोल उठी वह 'माँ, काओ'।


हआ
ु ूफुिल्लत हृदय खुशी से मैंने कहा - 'तुम्हीं खाओ'॥

पाया मैंने बचपन िफर से बचपन बेटी बन आया।


उसकी मंजुल मूितर् दे खकर मुझ में नवजीवन आया॥

मैं भी उसके साथ खेलती खाती हँू , तुतलाती हँू ।


िमलकर उसके साथ ःवयं मैं भी बच्ची बन जाती हँू ॥

िजसे खोजती थी बरसों से अब जाकर उसको पाया।


भाग गया था मुझे छोड़कर वह बचपन िफर से आया॥


ठकरा दो या प्यार करो

दे व! तुम्हारे कई उपासक कई ढं ग से आते हैं ।


सेवा में बहमु
ु ल्य भेंट वे कई रं ग की लाते हैं ॥

धूमधाम से साजबाज से वे मंिदर में आते हैं ।


मुक्तामिण बहमु
ु ल्य वःतुऐं लाकर तुम्हें चढ़ाते हैं ॥

मैं ही हँू गरीिबनी ऐसी जो कुछ साथ नहीं लायी।


िफर भी साहस कर मंिदर में पूजा करने चली आयी॥

धूप-दीप-नैवेद्य नहीं है झांकी का ौृग


ं ार नहीं।
हाय! गले में पहनाने को फूलों का भी हार नहीं॥

कैसे करूँ कीतर्न, मेरे ःवर में है माधुयर् नहीं।


मन का भाव ूकट करने को वाणी में चातुयर् नहीं॥

नहीं दान है , नहीं दिक्षणा खाली हाथ चली आयी।


पूजा की िविध नहीं जानती, िफर भी नाथ! चली आयी॥
पूजा और पुजापा ूभुवर! इसी पुजािरन को समझो।
दान-दिक्षणा और िनछावर इसी िभखािरन को समझो॥

मैं उनमत्त ूेम की प्यासी हृदय िदखाने आयी हँू ।


जो कुछ है , वह यही पास है , इसे चढ़ाने आयी हँू ॥

चरणों पर अिपर्त है , इसको चाहो तो ःवीकार करो।



यह तो वःतु तुम्हारी ही है ठकरा दो या प्यार करो॥
कनुिूया (इितहास: अमंगल छाया)
घाट से आते हए

कदम्ब के नीचे खड़े कनु को
ध्यानमग्न दे वता समझ, ूणाम करने
िजस राह से तू लौटती थी बावरी
आज उस राह से न लौट

उजड़े हए
ु कुंज
रौंदी हई
ु लताएँ
आकाश पर छायी हई
ु धूल
क्या तुझे यह नहीं बता रहीं
िक आज उस राह से
कृ ंण की अठारह अक्षौिहणी सेनाएँ
युद्ध में भाग लेने जा रही हैं !

आज उस पथ से अलग हट कर खड़ी हो
बावरी!
लताकुंज की ओट
िछपा ले अपने आहट प्यार को
आज इस गाँव से
द्वारका की युद्धोन्मत्त सेनाएँ गुजर रही हैं
मान िलया िक कनु तेरा
सवार्िधक अपना है
मान िलया िक तू
उसकी रोम-रोम से पिरिचत है
मान िलया िक ये अगिणत सैिनक
एक-एक उसके हैं :
पर जान रख िक ये तुझे िबलकुल नहीं जानते
पथ से हट जा बावरी

यह आॆवृक्ष की डाल
उनकी िवशेष िूय थी
तेरे न आने पर
सारी शाम इस पर िटक
उन्होंने वंशी में बार-बार
तेरा नाम भर कर तुझे टे रा था-

आज यह आम की डाल
सदा-सदा के िलए काट दी जायेगी
क्योंिक कृ ंण के सेनापितयों के
वायुवेगगामी रथों की
गगनचुम्बी ध्वजाओं में
यह नीची डाल अटकती है

और यह पथ के िकनारे खड़ा
छायादार पावन अशोक-वृक्ष
आज खण्ड-खण्ड हो जाएगा तो क्या -
यिद मामवासी, सेनाओं के ःवागत में
तोरण नहीं सजाते
तो क्या सारा माम नहीं उजाड़ िदया जायेगा?
दःख
ु क्यों करती है पगली
क्या हआ
ु जो
कनु के ये वतर्मान अपने,
तेरे उन तन्मय क्षणों की कथा से
अनिभज्ञ हैं

उदास क्यों होती है नासमझ


िक इस भीड़-भाड़ में
तू और तेरा प्यार िनतान्त अपिरिचत
ू गये हैं ,
छट

गवर् कर बावरी!
कौन है िजसके महान ् िूय की
अठारह अक्षौिहणी सेनाएँ हों?

कनुिूया (इितहास: उसी आम के नीचे)


उस तन्मयता में
तुम्हारे वक्ष में मुँह िछपाकर
लजाते हए

मैंने जो-जो कहा था
पता नहीं उसमें कुछ अथर् था भी या नहीं:

आॆ-मंजिरयों से भरी माँग के दपर् में


मैंने समःत जगत ् को
अपनी बेसुधी के
एक क्षण में लीन करने का
जो दावा िकया था - पता नहीं
वह सच था भी या नहीं:
जो कुछ अब भी इस मन में कसकता है
इस तन में काँप काँप जाता है
वह ःवप्न था या यथाथर्
- अब मुझे याद नहीं

पर इतना ज़रूर जानती हँू


िक इस आम की डाली के नीचे
जहाँ खड़े होकर तुम ने मुझे बुलाया था
अब भी मुझे आ कर बड़ी शािन्त िमलती है

न,
मैं कुछ सोचती नहीं
कुछ याद भी नहीं करती
िसफर् मेरी, अनमनी, भटकती उँ गिलयाँ
मेरे अनजाने, धूल में तुम्हारा
वह नाम िलख जाती हैं
जो मैंने प्यार के गहनतम क्षणों में
खुद रखा था
और िजसे हम दोनों के अलावा
कोई जानता ही नहीं

और ज्यों ही सचेत हो कर
अपनी उँ गिलयों की
इस धृष्टता को जान पाती हँू
चौंक कर उसे िमटा दे ती हँू
(उसे िमटाते द:ु ख क्यों नहीं होता कनु!
क्या अब मैं केवल दो यन्ऽों का पुज
ं -माऽ हँू ?
- दो परःपर िवपरीत यन्ऽ-
उन में से एक िबना अनुमित के नाम िलखता है
दसरा
ू उसे िबना िहचक िमटा दे ता है !)

तीसरे पहर
चुपचाप यहाँ छाया में बैठती हँू
और हवा ऊपर ताजी नरम टहिनयों से,
और नीचे कपोलों पर झूलती मेरी रूखी अलकों
से खेल करती है
और मैं आँख मूँद कर बैठ जाती हँू
और कल्पना करना चाहती हँू िक
उस िदन बरसते में िजस छौने को
अपने आँचल में िछपा कर लायी थी
वह आज िकतना, िकतना, महान ् हो गया है
लेिकन मैं कुछ नहीं सोच पाती
िसफर्-
जहाँ तुमने मुझे अिमत प्यार िदया था

वहीं बैठ कर कंकड़, पत्ते, ितनके, टकड़े चुनती रहती हँू
तुम्हारे महान ् बनने में
ू कर िबखर गया है कनु!
क्या मेरा कुछ टट

वह सब अब भी
ज्यों का त्यों है
िदन ढले आम के नये बौरों का
चारों ओर अपना मायाजाल फेंकना
जाल में उलझ कर मेरा बेबस चले आना

नया है
केवल मेरा
सूनी माँग आना
सुनी माँग, िशिथल चरण, असमिपर्ता
ज्यों का त्यों लौट जाना…….

उस तन्मयता में - आॆ-मंजरी से सजी माँग को


तुम्हारे वक्ष में िछपाकर लजाते हए

बेसुध होते-होते
जो मैंने सुना था
क्या उसमें भी कुछ अथर् नहीं था?

कनुिूया (इितहास - सेतु : मैं)


नीचे की घाटी से
ऊपर के िशखरों पर
िजस को जाना था वह चला गया -
हाय मुझी पर पग रख
मेरी बाँहों से
इितहास तुम्हें ले गया!

सुनो कनु, सुनो


क्या मैं िसफर् एक सेतु थी तुम्हारे िलए
लीलाभूिम और युद्धक्षेऽ के
अलंघ्य अन्तराल में!

अब इन सूने िशखरों, मृत्यु-घािटयों में बने


सोने के पतले गुथ
ँ े तारों वालों पुल- सा
िनजर्न
िनरथर्क
ू गया - मेरा यह सेतु िजःम
काँपता-सा, यहाँ छट

- िजस को जाना था वह चला गया

कनुिूया (इितहास - िवूलब्धा)


बुझी हई ू हए
ु राख, टटे ु गीत, बुझे हए
ु चाँद,
रीते हए
ु पाऽ, बीते हए
ु क्षण-सा -
- मेरा यह िजःम

कल तक जो जाद ू था, सूरज था, वेग था


तुम्हारे आश्लेष में

आज वह जूड़े से िगरे हए
ु बेले-सा
ू है , म्लान है
टटा
दगु
ु ना सुनसान है
बीते हए
ु उत्सव-सा, उठे हए
ु मेले-सा-
मेरा यह िजःम -
ू खंडहरों के उजाड़ अन्तःपुर में
टटे

छटा हआ
ु एक सािबत मिणजिटत दपर्ण-सा -
आधी रात दं श भरा बाहहीन

प्यासा सपीर्ला कसाव एक
िजसे जकड़ लेता है
अपनी गुज
ं लक में:

अब िसफर् मैं हँू , यह तन है , और याद है


खाली दपर्ण में धुध
ँ ला-सा एक ूितिबंब
मुड़-मुड लहराता हआ

िनज को दोहराता हआ
ु !
…………………………………
…………………………………

कौन था वह
िजस ने तुम्हारी बाँहों के आवतर् में
गिरमा से तन कर समय को ललकारा था!

कौन था वह
िजस की अलकों में जगत ् की समःत गित
बँध कर परािजत थी!

कौन था वह
िजसके चरम साक्षात्कार का एक गहरा क्षण
सारे इितहास से बड़ा था, सशक्त था!
कौन था कनु, वह
तुम्हारी बाँहों में
जो सूरज था, जाद ू था, िदव्य था, मंऽ था
अब िसफर् मैं हँू , यह तन है , और याद है !

ू गए तुम तो कनु,
मंऽ-पढ़े बाण-से छट
शेष रही मैं केवल,
काँपती ूत्यंचा-सी
अब भी जो बीत गया,
उसी में बसी हई

अब भी उन बाँहों के छलावे में
कसी हई

िजन रूखी अलकों में
मैंने समय की गित बाँधी थी -
हाय उन्हीं काले नागपाशों से
िदन-ूितिदन, क्षण-ूितक्षण बार-बार
डँ सी हई

अब िसफर् मैं हँू , यह तन है -


- और संशय है

- बुझी हई
ु राख में िछपी िचनगारी-सा
रीते हए
ु पाऽ की आिखरी बूँद-सा
पा कर खो दे ने की व्यथा-भरी गूज
ँ सा…..
कनुिूया (सृिष्ट-संकल्प - केिलसखी)
आज की रात
हर िदशा में अिभसार के संकेत क्यों हैं ?

हवा के हर झोंके का ःपशर्


सारे तन को झनझना क्यों जाता है ?

और यह क्यों लगता है
िक यिद और कोई नहीं तो
यह िदगन्त-व्यापी अँधेरा ही
मेरे िशिथल अधखुले गुलाब-तन को
पी जाने के िलए तत्पर है

और ऐसा क्यों भान होने लगा है


िक मेरे ये पाँव, माथा, पलकें, होंठ
मेरे अंग-अंग - जैसे मेरे नहीं हैं -
मेरे वश में नहीं हैं -बेबस
एक-एक घूँट की तरह
अँिधयारे में उतरते जा रहे हैं
खोते जा रहे हैं
िमटते जा रहे हैं

और भय,
आिदम भय, तकर्हीन, कारणहीन भय जो
मुझे तुमसे दरू ले गया था, बहत
ु दरू-
क्या इसी िलए िक मुझे
दगु
ु ने आवेग से तुम्हारे पास लौटा लावे
और क्या यह भय की ही काँपती उँ गिलयाँ हैं
जो मेरे एक-एक बन्धन को िशिथल
करती जा रही हैं
और मैं कुछ कह नहीं पाती!

मेरे अधखुले होठ काँपने लगे हैं


और कण्ठ सूख रहा है
और पलकें आधी मुँद गयी हैं
और सारे िजःम में जैसे ूाण नहीं हैं

मैंने कस कर तुम्हें जकड़ िलया है


और जकड़ती जा रही हँू
और िनकट, और िनकट
िक तुम्हारी साँसें मुझमें ूिवष्ट हो जायें
तुम्हारे ूाण मुझमें ूितिष्ठत हो जायें
तुम्हारा रक्त मेरी मृतपाय िशराओं में ूवािहत होकर
िफर से जीवन संचिरत कर सके-

और यह मेरा कसाव िनमर्म है


और अन्धा, और उन्माद भरा; और मेरी बाँहें
नागवधू की गुंजलक की भाँित
कसती जा रही हैं
और तुम्हारे कन्धों पर, बाँहों पर, होठों पर
नागवधू की शुॅ दन्त-पंिक्तयों के नीले-नीले िचह्न
उभर आये हैं
और तुम व्याकुल हो उठे हो
धूप में कसे
अथाह समुि की उत्ताल, िवक्षुब्ध
हहराती लहरों के िनमर्म थपेड़ों से-
छोटे -से ूवाल-द्वीप की तरह
बेचैन-
……………………………………….
………………………………….
……………………………
…………………….

उठो मेरे ूाण


और काँपते हाथों से यह वातायन बंद कर दो

यह बाहर फैला-फैला समुि मेरा है


पर आज मैं उधर नहीं दे खना चाहती
यह ूगाढ़ अँधेरे के कण्ठ में झूमती
महों-उपमहों और नक्षऽों की
ज्योितमार्ला मैं ही हँू
और अंख्य ॄह्माण्डों का
िदशाओं का, समय का
अनन्त ूवाह मैं ही हँू
पर आज मैं अपने को भूल जाना चाहती हँू
उठो और वातायन बन्द कर दो
िक आज अँधेरे में भी दृिष्टयाँ जाग उठी हैं
और हवा का आघात भी मांसल हो उठा है
और मैं अपने से ही भयभीत हँू

………………………………….
………………………………………

लो मेरे असमंजस!
अब मैं उन्मुक्त हँू
और मेरे नयन अब नयन नहीं हैं
ूतीक्षा के क्षण हैं
और मेरी बाँहें, बाँहें नहीं हैं
पगडिण्डयाँ हैं
और मेरा यह सारा
हलका गुलाबी, गोरा, रुपहली
धूप-छाँव वाला सीपी जैसा िजःम
अब िजःम नहीं-
िसफर् एक पुकार है

उठो मेरे उत्तर!


और पट बन्द कर दो
और कह दो इस समुि से
िक इसकी उत्ताल लहरें द्वार से टकरा कर लौट जाएँ
और कह दो िदशाओं से
िक वे हमारे कसाव में आज
घुल जाएँ
और कह दो समय के अचूक धनुधरर् से
िक अपने शायक उतार कर
तरकस में रख ले
और तोड़ दे अपना धनुष
और अपने पंख समेट कर द्वार पर चुपचाप
ूतीक्षा करे -
जब तक मैं
अपनी ूगाढ़ केिलकथा का अःथायी िवराम िचह्न
अपने अधरों से
तुम्हारे वक्ष पर िलख कर, थक कर
शैिथल्य की बाँहों में
डब
ू न जाऊँ…..

आओ मेरे अधैय!र्
िदशाएँ घुल गयी हैं
जगत ् लीन हो चुका है
समय मेरे अलक-पाश में बँध चुका है ।
और इस िनिखल सृिष्ट के
अपार िवःतार में
तुम्हारे साथ मैं हँू - केवल मैं-

तुम्हारी अंतरं ग केिलसखी!


कनुिूया (सृिष्ट-संकल्प - आिदम भय)

अगर यह िनिखल सृिष्ट


मेरा ही लीलातन है
तुम्हारे आःवादन के िलए-

अगर ये उत्तुंग िहमिशखर


मेरे ही - रुपहली ढलान वाले
गोरे कंधे हैं - िजन पर तुम्हारा
गगन-सा चौड़ा और साँवला और
तेजःवी माथा िटकता है

अगर यह चाँदनी में


िहलोरें लेता हआ
ु महासागर
मेरे ही िनरावृत िजःम का
उतार-चढ़ाव है

अगर ये उमड़ती हई
ु मेघ-घटाएँ
मेरी ही बल खाती हई
ु वे अलकें हैं
िजन्हें तुम प्यार से िबखेर कर
अक्सर मेरे पूण-र् िवकिसत
चन्दन फूलों को ढँ क दे ते हो

अगर सूयार्ःत वेला में


पिच्छम की ओर झरते हए
ु ये
अजॐ-ूवाही झरने
मेरी ही ःवणर्-वणीर् जंघाएँ हैं

और अगर यह रात मेरी ूगाढ़ता है


और िदन मेरी हँ सी
और फूल मेरे ःपशर्
और हिरयाली मेरा आिलंगन

तो यह तो बताओ मेरे लीलाबंधु


िक कभी-कभी “मुझे” भय क्यों लगता है ?

अक्सर आकाशगंगा के
सुनसान िकनारों पर खड़े हो कर
जब मैंने अथाह शून्य में
अनन्त ूदीप्त सूयोर्ं को

कोहरे की गुफाओं में पंख टटे
जुगनुओं की तरह रें गते दे खा है
तो मैं भयभीत होकर लौट आयी हँू ……

क्यों मेरे लीलाबन्धु


क्या वह आकाशगंगा मेरी माँग नहीं है ?
िफर उसके अज्ञात रहःय
मुझे डराते क्यों हैं ?

और अक्सर जब मैंने
चन्िलोक के िवराट्, अपिरिचत, झुलसे
पहाड़ों की गहरी, दलर्ं
ु घ्य घािटयों में
अज्ञात िदशाओं से उड़ कर आने वाले
धुॆपुंजों को टकराते और
अिग्नवणीर् करकापात से
वळ की चट्टानों को
घायल फूल की तरह िबखरते दे खा है
तो मुझे भय क्यों लगा है
और मैं लौट क्यों आयी हँू मेरे बन्धु!
क्या चन्िमा मेरे ही माथे का
सौभाग्य-िबन्द ु नहीं है ?

और अगर ये सारे रहःय मेरे हैं


और तुम्हारा संकल्प मैं हँू
और तुम्हारी इच्छा मैं हँू
और इस तमाम सृिष्ट में मेरे अितिरक्त
यिद कोई है तो केवल तुम, केवल तुम, केवल तुम,
तो मैं डरती िकससे हँू मेरे िूय!

और अगर यह चन्िमा मेरी उँ गिलयों के


पोरों की छाप है
और मेरे इशारों पर घटता और बढ़ता है
और अगर यह आकाशगंगा मेरे ही
केश-िवन्यास की शोभा है
और मेरे एक इं िगत पर इसके अनन्त
ॄह्माण्ड अपनी िदशा बदल
सकते हैं -
तो मुझे डर िकससे लगता है
मेरे बन्धु!

कहाँ से आता है यह भय
जो मेरे इन िहमिशखरों पर
महासागरों पर
चन्दनवन पर
ःवणर्वणीर् झरनों पर
मेरे उत्फुल्ल लीलातन पर
कोहरे की तरह
फन फैला कर
गुंजलक बाँध कर बैठ गया है ।

उद्दाम बीड़ा की वेला में


भय का यह जाल िकसने फेंका है ?
दे खो न
इसमें उलझ कर मैं कैसे
शीतल चट्टानों पर िनवर्सना जलपरी की तरह
छटपटा रही हँू
और मेरे भींगे केशों से
िसवार िलपटा है
और मेरी हथेिलयों से
समुिी पुखराज और पन्ने
िछटक गये हैं
और मैं भयभीत हँू !

सुनो मेरे बन्धु


अगर यह िनिखल सृिष्ट
मेरा लीलातन है
तुम्हारे आःवादन के िलए
तो यह जो भयभीत है - वह छायातन
िकसका है ?
िकस िलए है मेरे िमऽ?

कनुिूया (सृिष्ट-संकल्प - सृजन-संिगनी)

सुनो मेरे प्यार-


यह काल की अनन्त पगडं डी पर
अपनी अनथक याऽा तय करते हए
ु सूरज और चन्दा,
बहते हए
ु अन्धड़
गरजते हए
ु महासागर
झकोरों में नाचती हई
ु पित्तयाँ
धूप में िखले हए
ु फूल, और
चाँदनी में सरकती हई
ु निदयाँ

इनका अिन्तम अथर् आिखर है क्या?


केवल तुम्हारी इच्छा?
और वह क्या केवल तुम्हारा संकल्प है
जो धरती में सोंधापन बन कर व्याप्त है
जो जड़ों में रस बन कर िखंचता है
कोंपलों में पूटता है ,
पत्तों में हिरयाता है ,
फूलों में िखलता है ,
फलों में गदरा आता है -

यिद इस सारे सृजन, िवनाश, ूवाह


और अिवराम जीवन-ूिबया का
अथर् केवल तुम्हारी इच्छा है
तुम्हारा संकल्प,
तो जरा यह तो बताओ मेरे इच्छामय,
िक तुम्हारी इस इच्छा का,
इस संकल्प का-
अथर् कौन है ?

कौन है वह
िजसकी खोज में तुमने
काल की अनन्त पगडं डी पर
सूरज और चाँद को भेज रखा है
……………………………………….
कौन है िजसे तुमने
झंझा के उद्दाम ःवरों में पुकारा है
………………………………………..
कौन है िजसके िलए तुमने
महासागर की उत्ताल भुजाएँ फैला दी हैं
कौन है िजसकी आत्मा को तुमने
फूल की तरह खोल िदया है
और कौन है िजसे
निदयों जैसे तरल घुमाव दे -दे कर
तुमने तरं ग-मालाओं की तरह
अपने कण्ठ में, वक्ष पर, कलाइयों में
लपेट िलया है -

वह मैं हँू मेरे िूयतम!


वह मैं हँू
वह मैं हँू

और यह समःत सृिष्ट रह नहीं जाती


लीन हो जाती है
जब मैं ूगाढ़ वासना, उद्दाम बीड़ा
और गहरे प्यार के बाद
थक कर तुम्हारी चन्दन-बाँहों में
अचेत बेसुध सो जाती हँू

यह िनिखल सृिष्ट लय हो जाती है

और मैं ूसुप्त, संज्ञाशून्य,


और चारों ओर गहरा अँधेरा और सूनापन-
और मजबूर होकर
तुम िफर, िफर उसी गहरे प्यार
को दोहराने के िलए
मुझे आधी रात जगाते हो
आिहःते से, ममता से-
और मैं िफर जागती हँू
संकल्प की तरह
इच्छा ती तरह

और लो
वह आधी रात का ूलयशून्य सन्नाटा
िफर
काँपते हए
ु गुलाबी िजःमों
गुनगुने ःपशोर्ं
कसती हई
ु बाँहों
अःफुट सीत्कारों
गहरी सौरभ भरी उसाँसों
और अन्त में एक साथर्क िशिथल मौन से
आबाद हो जाता है
रचना की तरह
सृिष्ट की तरह-

और मैं िफर थक कर सो जाती हँू


अचेत-संज्ञाहीन-
और िफर वही चारों ओर फैला
गहरा अँधेरा और अथाह सूनापन
और तुम िफर मुझे जगाते हो!
और यह ूवाह में बहती हई

तुम्हारी असंख्य सृिष्टयों का बम
महज हमारे गहरे प्यार
ूगाढ़ िवलास
और अतृप्त बीड़ा की अनन्त पुनरावृित्तयाँ हैं -
ओ मेरे ॐष्टा
तुम्हारे सम्पूणर् अिःतत्व का अथर् है
माऽ तुम्हारी सृिष्ट

तुम्हारी सम्पूणर् सृिष्ट का अथर् है


माऽ तुम्हारी इच्छा

और तुम्हारी सम्पूणर् इच्छा का अथर् हँू


केवल मैं!
केवल मैं!!
केवल मैं!!!

कनुिूया (मंजरी पिरणय - तुम मेरे कौन हो?)


तुम मेरे कौन हो कनु
मैं तो आज तक नहीं जान पायी

बार-बार मुझ से मेरे मन ने


आमह से, िवःमय से, तन्मयता से पूछा है -
‘यह कनु तेरा है कौन? बूझ तो!’
बार-बार मुझ से मेरी सिखयों ने
व्यंग्य से, कटाक्ष से, कुिटल संकेत से पूछा है -
‘कनु तेरा कौन है री, बोलती क्यों नहीं?’

बार-बार मुझ से मेरे गुरुजनों ने


कठोरता से, अूसन्नता से, रोष से पूछा है -
‘यह कान्ह आिखर तेरा है कौन?’

मैं तो आज तक कुछ नहीं बता पायी


तुम मेरे सचमुच कौन हो कनु!

अक्सर जब तुम ने
माला गूथ
ँ ने के िलए
कँटीले झाड़ों में चढ़-चढ़ कर मेरे िलए
श्वेत रतनारे करौंदे तोड़ कर
मेरे आँचल में डाल िदये हैं
तो मैंने अत्यन्त सहज ूीित से
गरदन झटका कर
वेणी झुलाते हए
ु कहा है :
‘कनु ही मेरा एकमाऽ अंतरं ग सखा है !’

अक्सर जब तुम ने
दावािग्न में सुलगती डािलयों,

टटते वृक्षों, हहराती हई
ु लपटों और
घुटते हए
ु धुएँ के बीच
िनरुपाय, असहाय, बावली-सी भटकती हई

मुझे
साहसपूवक
र् अपने दोनों हाथों में
फूल की थाली-सी सहे ज कर उठा िलया
और लपटें चीर कर बाहर ले आये
तो मैंने आदर, आभार और ूगाढ़ ःनेह से
भरे -भरे ःवर में कहा है :
‘कान्ह मेरा रक्षक है , मेरा बन्धु है
सहोदर है ।’

अक्सर जब तुम ने वंशी बजा कर मुझे बुलाया है


और मैं मोिहत मृगी-सी भागती चली आयी हँू
और तुम ने मुझे अपनी बाँहों में कस िलया है
तो मैंने डब
ू कर कहा है :
‘कनु मेरा लआय है , मेरा आराध्य, मेरा गन्तव्य!’

पर जब तुम ने दष्टता
ु से
अक्सर सखी के सामने मुझे बुरी तरह छे ड़ा है
तब मैंने खीझ कर
आँखों में आँसू भर कर
शपथें खा-खा कर
सखी से कहा है :
‘कान्हा मेरा कोई नहीं है , कोई नहीं है
मैं कसम खाकर कहती हँू
मेरा कोई नहीं है !’
पर दसरे
ू ही क्षण
जब घनघोर बादल उमड़ आये हैं
और िबजली तड़पने लगी है
और घनी वषार् होने लगी है
और सारे वनपथ धुँधला कर िछप गये हैं
तो मैंने अपने आँचल में तुम्हें दबका
ु िलया है
तुम्हें सहारा दे -दे कर
अपनी बाँहों मे घेर गाँव की सीमा तक तुम्हें ले आयी हँू
और सच-सच बताऊँ तुझे कनु साँवरे !
िक उस समय मैं िबलकुल भूल गयी हँू
िक मैं िकतनी छोटी हँू
और तुम वही कान्हा हो
जो सारे वृन्दावन को
जलूलय से बचाने की सामथ्यर् रखते हो,
और मुझे केवल यही लगा है
िक तुम एक छोटे -से िशशु हो
असहाय, वषार् में भीग-भीग कर
मेरे आँचल में दबक
ु े हए

और जब मैंने सिखयों को बताया िक


गाँव की सीमा पर
िछतवन की छाँह में खड़े हो कर
ममता से मैंने अपने वक्ष में
उस छौने का ठण्ढा माथा दबका
ु कर
अपने आँचल से उसके घने घुँघराले बाल पोंछ िदये
तो मेरे उस सहज उद्गार पर
सिखयाँ क्यों कुिटलता से मुसकाने लगीं
यह मैं आज तक नहीं समझ पायी!

लेिकन जब तुम्हीं ने बन्धु


तेज से ूदीप्त हो कर इन्ि को ललकारा है ,
कािलय की खोज में िवषैली यमुना को मथ डाला है
तो मुझे अकःमात ् लगा है
िक मेरे अंग-अंग से ज्योित फूटी पड़ रही है
तुम्हारी शिक्त तो मैं ही हँू
तुम्हारा संबल,
तुम्हारी योगमाया,
इस िनिखल पारावार में ही पिरव्याप्त हँू
िवराट्,
सीमाहीन,
अदम्य,
ददार्
ु न्त;

िकन्तु दसरे
ू ही क्षण
जब तुम ने वेतसलता-कुंज में
गहराती हई
ु गोधूिल वेला में
आम के एक बौर को चूर-चूर कर धीमे से
अपनी एक चुटकी में भर कर
मेरे सीमन्त पर िबखेर िदया
तो मैं हतूभ रह गयी
मुझे लगा इस िनिखल पारावार में
शिक्त-सी, ज्योित-सी, गित-सी
फैली हई
ु मैं
अकःमात ् िसमट आयी हँू
सीमा में बँध गयी हँू
ऐसा क्यों चाहा तुमने कान्ह?

पर जब मुझे चेत हआ

तो मैंने पाया िक हाय सीमा कैसी
मैं तो वह हँू िजसे िदग्वधू कहते हैं , कालवधू-
समय और िदशाओं की सीमाहीन पगडं िडयों पर
अनन्त काल से, अनन्त िदशाओं में
तुम्हारे साथ-साथ चलती आ रही हँू , चलती
चली जाऊँगी…..

इस याऽा का आिद न तो तुम्हें ःमरण है न मुझे


और अन्त तो इस याऽा का है ही नहीं मेरे सहयाऽी!

ु हो
पर तुम इतने िनठर
और इतने आतुर िक
तुमने चाहा है िक मैं इसी जन्म में
इसी थोड़-सी अविध में जम्नजन्मांतर की
समःत याऽाएँ िफर से दोहरा लूँ
और इसी िलए सम्बन्धों की इस घुमावदार पगडं डी पर
क्षण-क्षण पर तुम्हारे साथ
मुझे इतने आकिःमक मोड़ लेने पड़े हैं
िक मैं िबलकुल भूल ही गयी हँू िक
मैं अब कहाँ हँू
और तुम मेरे कौन हो
और इस िनराधार भूिम पर
चारों ओर से पूछे जाते हए
ु ूश्नों की बौछार से
घबरा कर मैंने बार-बार
तुम्हें शब्दों के फूलपाश में जकड़ना चाहा है ।
सखा-बन्धु-आराध्य
िशशु-िदव्य-सहचर
और अपने को नयी व्याख्याएँ दे नी चाही हैं
सखी-सािधका-बान्धवी-
माँ-वधू-सहचरी
और मैं बार-बार नये-नये रूपों में
उमड़- उ ड कर
तुम्हारे तट तक आयी
और तुम ने हर बार अथाह समुि की भाँित
मुझे धारण कर िलया-
िवलीन कर िलया-
िफर भी अकूल बने रहे

मेरे साँवले समुि


तुम आिखर हो मेरे कौन
मैं इसे कभी माप क्यों नहीं पाती?
कनुिूया (मंजरी पिरणय - आॆ-बौर का अथर्)
अगर मैं आॆ-बौर का ठीक-ठीक
संकेत नहीं समझ पायी
तो भी इस तरह िखन्न मत हो
िूय मेरे!

िकतनी बार जब तुम ने अद्धोर्न्मीिलत कमल भेजा


तो मैं तुरत समझ गयी िक तुमने मुझे संझा िबिरयाँ बुलाया है
िकतनी बार जब तुम ने अँजुरी भर-भर बेले के फूल भेजे
तो मैं समझ गयी िक तुम्हारी अंजिु रयों ने
िकसे याद िकया है
िकतनी बार जब तुम ने अगःत्य के दो
उजले कटावदार फूल भेजे
तो मैं समझ गई िक
तुम िफर मेरे उजले कटावदार पाँवों में
- तीसरे पहर - टीले के पास वाले
सहकार की घनी छाँव में
बैठ कर महावर लगाना चाहते हो।

आज अगर आम के बौर का संकेत नहीं भी


समझ पायी तो क्या इतना बड़ा मान ठान लोगे?

मैं मानती हँू


िक तुम ने अनेक बार कहा है :
“राधन ्! तुम्हारी शोख चंचल िवचुिम्बत पलकें तो
पगडिण्डयाँ माऽ हैं :
जो मुझे तुम तक पहँु चा कर रीत जाती हैं ।”

तुम ने िकतनी बार कहा है :


“राधन ्! ये पतले मृणाल सी तुम्हारी गोरी अनावृत बाँहें
पगडिण्डयाँ माऽ हैं : जो मुझे तुम तक पहँु चा कर
रीत जाती हैं ।”

तुम ने िकतनी बार कहा है :


“सुनो! तुम्हारे अधर, तुम्हारी पलकें, तुम्हारी बाँहें, तुम्हारे
चरण, तुम्हारे अंग-ूत्यंग, तुम्हारी सारी चम्पकवणीर् दे ह
माऽ पगडिण्डयाँ हैं जो
चरम साक्षात्कार के क्षणों में रहती ही नहीं -
रीत-रीत जाती हैं !”

हाँ चन्दन,
तुम्हारे िशिथल आिलंगन में
मैंने िकतनी बार इन सबको रीतता हआ
ु पाया है
मुझे ऐसा लगा है
जैसे िकसी ने सहसा इस िजःम के बोझ से
मुझे मुक्त कर िदया है
और इस समय मैं शरीर नहीं हँू …
मैं माऽ एक सुगन्ध हँू -
आधी रात में महकने वाले इन रजनीगन्धा के फूलों की
ूगाढ़, मधुर गन्ध -
आकारहीन, वणर्हीन, रूपहीन…

मुझे िनत नये िशल्प मे ढालने वाले !


मेरे उलझे रूखे चन्दनवािसत केशों मे
पतली उजली चुनौती दे ती हई
ु मांग
क्या वह आिखरी पगडण्डी थी िजसे तुम िरता दे ना चाहते थे
इस तरह
उसे आॆ मंजरी से भर भरकर;

मैं क्यों भूल गयी थी िक


मेरे लीलाबन्धु, मेरे सहज िमऽ की तो पिद्ध्त ही यह है
िक वह िजसे भी िरक्त करना चाहता है
उसे सम्पूणत
र् ा से भर दे ता है ।
यह मेरी मांग क्या मेरे-तुम्हारे बीच की
अिन्तम पाथर्क्य रे खा थी,
क्या इसी िलए तुमने उसे आॆ मंजिरयों से
भर-भर िदया िक वह
ू जाए!
भर कर भी ताजी, क्वाँरी, रीती छट

तुम्हारे इस अत्यन्त रहःयमय संकेत को


ठीक-ठीक न समझ मैं उसका लौिकक अथर् ले बैठी
तो मैं क्या करूँ,
तुम्हें तो मालूम है
िक मैं वही बावली लड़की हँू न
जो पानी भरने जाती है
तो भरे घड़े में
अपनी चंचल आँखों की छाया दे ख कर
ु मछिलयाँ समझ कर
उन्हें कुलेल करती चटल
बार-बार सारा पानी ढलका दे ती है !

सुनो मेरे िमऽ


यह जो मुझ में, इसे, उसे, तुम्हें , अपने को -
कभी-कभी न समझ पाने की नादानी है न
इसे मत रोको
होने दो:
वह भी एक िदन हो-हो कर
रीत जायेगी

और मान लो न भी रीते
और मैं ऐसी ही बनी रहँू तो
तो क्या?

मेरे हर बावलेपन पर
कभी िखन्न हो कर, कभी अनबोला ठानकर, कभी हँ स कर
तुम जो प्यार से अपनी बाँहों में कस कर
बेसुध कर दे ते हो
उस सुख को मैं छोड़ँू क्यों?
करूँगी!
बार-बार नादानी करूँगी
तुम्हारी मुँहलगी, िजद्दी, नादान िमऽ भी तो हँू न!

आज इस िनभृत एकांत में


तुम से दरू पड़ी मैं:
और इस ूगाढ़ अँधकार में
तुम्हारे चंदन कसाव के िबना मेरी दे हलता के
बड़े -बड़े गुलाब धीरे -धीरे टीस रहे हैं
और ददर् उस िलिप का अथर् खोल रहा है
जो तुम ने आॆ मंजिरयों के अक्षरों में
मेरी माँग पर िलख दी थी

आम के बौर की महक तुशर् होती है -


तुम ने अक्सर मुझमें डब
ू -डब
ू कर कहा है
िक वह मेरी तुशीर् है
िजसे तुम मेरे व्यिक्तत्व में
िवशेष रूप से प्यार करते हो!

आम का वह पहला बौर
मौसम का पहला बौर था
ू , ताजा सवर्ूथम!
अछता
मैंने िकतनी बार तुम में डब
ू -डब
ू कर कहा है
िक मेरे ूाण! मुझे िकतना गुमान है
िक मैंने तुम्हें जो कुछ िदया है

वह सब अछता था, ताजा था,
सवर्ूथम ूःफुटन था
तो क्या तुम्हारे पास की डार पर िखली
तुम्हारे कन्धों पर झुकी
वह आम की ताजी, क्वाँरी, तुशर् मंजरी मैं ही थी
और तुम ने मुझ से ही मारी माँग भरी थी!

यह क्यों मेरे िूय!


क्या इस िलए िक तुमने बार-बार यह कहा है
िक तुम अपने िलए नहीं
मेरे िलए मुझे प्यार करते हो
और क्या तुम इसी का ूमाण दे रहे थे
जब तुम मेरे ही िनजत्व को, मेरे ही आन्तिरक अथर् को
मेरी माँग में भर रहे थे

और जब तुम ने कहा िक, “माथे पर पल्ला डाल लो!”


तो क्या तुम िचता रहे थे
िक अपने इसी िनजत्व को, अपने आन्तिरक अथर् को
मैं सदा मयार्िदत रक्खू,ँ रसमय और
पिवऽ रक्खूँ
नववधू की भाँित!

हाय! मैं सच कहती हँू


मैं इसे नहीं समझी; नहीं समझी; िबलकुल नहीं समझी!
यह सारे संसार से पृथक् पद्धित का
जो तुम्हारा प्यार है न
इस की भाषा समझ पाना क्या इतना सरल है
ितस पर मैं बावरी
जो तुम्हारे पीछे साधारण भाषा भी
इस हद तक भूल गई हँू

िक ँयाम ले लो! ँयाम ले लो!


पुकारती हई
ु हाट-बाट में
नगर-डगर में
अपनी हँ सी कराती घूमती हँू !

िफर मैं उपनी माँग पर


आम के बौर की िलिप में िलखी भाषा
का ठीक-ठीक अथर् नहीं समझ पायी
तो इसमें मेरा क्या दोष मेरे लीला-बन्धु!

आज इस िनभृत एकांत में


तुम से दरू पड़ी हँू
और तुम क्या जानो कैसे मेरे सारे िजःम में
आम के बौर टीस रहे हैं
और उन की अजीब-सी तुशर् महक
तुम्हारा अजीब सा प्यार है
जो सम्पूणत
र् : बाँध कर भी
सम्पूणत
र् : मुक्त छोड़ दे ता है !

छोड़ क्यों दे ता ही िूय?


क्या हर बार इस ददर् के नये अथर्
समझने के िलए!
कनुिूया (मंजरी पिरणय - आॆ-बौर का गीत)
यह जो मैं कभी-कभी चरम साक्षात्कार के क्षणों में
िबलकुल जड़ और िनःपंद हो जाती हँू
इस का ममर् तुम समझते क्यों नहीं साँवरे !

तुम्हारी जन्म-जन्मांतर की रहःयमयी लीला की


एकान्त-संिगनी मैं
इन क्षणों में अकःमात ्
तुम से पृथक् नहीं हो जाती मेरे ूाण,
तुम यह क्यों नहीं समझ पाते िक लाज
िसफर् िजःम की नहीं होती
मन की भी होती है
एक मधुर भय
एक अनजाना संशय,
एक आमह भरा गोपन,
एक िनव्यार्ख्या वेदना; उदासी,
जो मुझे बार-बार चरम सुख के क्षणों में भी
अिभभूत कर लेती है ।

भय, संशय, गोपन, उदासी


ये सभी ढीठ, चंचल, सरचढ़ी सहे िलयों की तरह
मुझे घेर लेती हैं
और मैं चाह कर भी तुम्हारे पास ठीक उसी समय
नहीं पहँु च पाती जब आॆ मंजिरयों के नीचे
अपनी बाँसुरी में मेरा नाम भर भर के मुझे बुलाते हो!
उस िदन तुम उस बौर लदे आम की
झुकी डािलयों से िटके िकतनी दे र मुझे वंशी से टे रते रहे
ढलते सूरज की उदास काँपती िकरणें
तुम्हारे माथे के मोरपंखों
से बेबस िवदा माँगने लगीं -
मैं नहीं आयी

यमुना के घाट पर

मछओं ने अपनी नावें बाँध दीं
और कंधों पर पतवारें रख चले गये -
मैं नहीं आयी

तुम ने वंशी होठों से हटा ली थी


और उदास, मौन, तुम आॆ-वृक्ष की जड़ों से िटक कर
बैठ गये थे
और बैठे रहे , बैठे रहे , बैठे रहे
मैं नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी
तुम अन्त में उठे
एक झुकी टाल पर िखला एक बौर तुमने तोड़ा
और धीरे -धीरे चल िदये
अनमने तुम्हारे पाँव पगडं डी पर चल रहे थे
पर जानते हो तुम्हारे अनजान में ही तुम्हारी उँ गिलयाँ
क्या कर रही थीं!
वे उस आॆ मंजरी को चूर-चूर कर
ँयामल वनघासों में िबछी उस माँग-सी उजली पगडण्डी पर
िबखेर रहीं थीं…

यह तुम ने क्या िकये िूय!


क्या अनजाने में ही
उस आम के बौर से मेरी क्वाँरी उजली पिवऽ माँग
भर रहे थे साँवरे ?
पर मुझे दे खो िक मैं उस समय भी तो माथा नीचा कर
इस अलौिकक सुहाग से ूदीप्त हो कर
माथे पर पल्ला डाल कर
झुक कर तुम्हारी चरणधूिल ले कर
तुम्हें ूणाम करने -
नहीं आयी, नहीं आयी, नहीं आयी!

पर मेरे ूाण
यह क्यों भूल जाते हो िक मैं वही
बावली लड़की हँू न जो - कदम्ब के नीचे बैठ कर
जब तुम पोई की जंगली लतरों के पके फलों को
तोड़ कर, मसल कर, उन की लाली से मेरे पाँवों को
महावर रचने के िलए अपनी गोद में रखते हो
तो मैं लाज से धनुष की तरह दोहरी हो जाती हँू
और अपने पाँव पूरे बल से समेट कर खींच लेती हँू
अपनी दोनों बाँहों में अपने घुटने कस
मुँह फेर कर िनश्चल बैठ जाती हँू
पर शाम को जब घर आती हँू तो
िनभृत एकांत में दीपक के मन्द आलोक में
अपने उन्हीं चरणों को
अपलक िनहारती हँू
बावली-सी उन्हें प्यार करती हँू
जल्दी-जल्दी में अधबनी उन महावर की रे खाओं को
चारों ओर दे ख कर धीमे-से
चूम लेती हँू ।

रात गहरा गई है
और तुम चले गए हो
और मैं िकतनी दे र तक बाँह से
उसी आॆ डाली को घेरे चुपचाप रोती रही हँू
िजस पर िटक कर तुम मेरी ूतीक्षा करते हो

और मैं लौट रही हँू ,


हताश, और िनंफल
और ये आम के बौर के कण-कण
मेरे पावों में बुरी तरह साल रहे हैं ।
पर तुम्हें यह कौन बतायेगा साँवरे
िक दे र ही में सही
पर मैं तुम्हारे पुकारने पर आ तो गयी
और माँग-सी उजली पगडं डी पर िबखरे
ये मंजरी कण भी अगर मेरे चरणों में गड़ते हैं तो
इसी िलए न िक िकतने लंबा राःता
िकतना जल्दी-जल्दी पार कर मुझे आना पड़ा है
और काँटों और काँकिरयों से
मेरे पाँव िकस बुरी तरह घायल हो गये हैं !

यह कैसे बताऊँ तुम्हें


िक चरम साक्षात्कार के ये अनूठे क्षण भी
ू जाते हैं
जो कभी-कभी मेरे हाथ से छट
तुम्हारी ममर्-पुकार जो मैं कभी-कभी मैं नहीं सुन पाती
तुम्हारी भेंट की अथर् जो नहीं समझ पाती
तो मेरे साँवरे -
लाज मन की भी होती है

एक अज्ञात भय,
अपिरिचत संशय,
आमह भरा गोपन,
और सुख के क्षण
में भी िघर आने वाली िनव्यार्ख्या उदासी-

िफर भी उसे चीर कर


दे र में ही आऊँगी ूाण,
तो क्या तुम मुझे अपनी लम्बी
चन्दन-बाँहों में भर कर बेसध
ु नहीं
कर दोगे?
कनुिूया (पूवरर् ाग - पहला गीत)
ओ पथ के िकनारे खड़े
छायादार पावन अशोक वृक्ष
तुम यह क्यों कहते हो िक
तुम मेरे चरणों के ःपशर् की ूतीक्षा में
जन्मों से पुंपहीन खड़े थे
तुम को क्या मालूम िक
मैं िकतनी बार केवल तुम्हारे िलए -
धूल में िमली हँू
धरती से गहरे उतर
जड़ों के सहारे
तुम्हारे कठोर तने के रे शों में
किलयाँ बन, कोंपल बन, सौरभ बन, लाली बन -
चुपके से सो गई हँू
िक कब मधुमास आये और तुम कब मेरे
ूःफुटन से छा जाओ!

िफर भी तुम्हें याद नहीं आया, नहीं आया,


तब तुम को मेरे इन जावक-रिचत पाँवों ने
केवल यह ःमरण करा िदया िक मैं तुम्हीं में हँू
तुम्हारे ही रे शे-रे शे में सोयी हई
ु -
और अब समय आ गया िक
मैं तुम्हारी नस-नस में पंख पसार कर उड़ँू गी
और तुम्हारी डाल-डाल में गुच्छे -गुच्छे लाल-लाल
किलयाँ बन िखलूँगी!

ओ पथ के िकनारे खड़े
छायादार पावन अशोक वृक्ष
तुम यह क्यों कहते हो िक
तुम मेरे चरणों के ःपशर् की ूतीक्षा में
जन्मों से पुंपहीन खड़े थे

कनुिूया (पूवरर् ाग - दस
ू रा गीत)
यह जो अकःमात ्
आज मेरे िजःम के िसतार के
एक-एक तार में तुम झंकार उठे हो -
सच बतलाना मेरे ःविणर्म संगीत
तुम कब से मुझ में िछपे सो रहे थे।

सुनो, मैं अक्सर अपने सारे शरीर को -


पोर-पोर को अवगुण्ठन में ढँ क कर तुम्हारे सामने गयी
मुझे तुमसे िकतनी लाज आती थी,
मैंने अक्सर अपनी हथेिलयों में
अपना लाज से आरक्त मुँह िछपा िलया है
मुझे तुमसे िकतनी लाज आती थी
मैं अक्सर तुमसे केवल तम के ूगाढ़ परदे में िमली
जहाँ हाथ को हाथ नहीं सूझता था
मुझे तुमसे िकतनी लाज आती थी,

पर हाय मुझे क्या मालूम था


िक इस वेला में जब अपने को
अपने से िछपाने के िलए मेरे पास
कोई आवरण नहीं रहा
तुम मेरे िजःम के एक-एक तार से
झंकार उठोगे
सुनो! सच बतलाना मेरे ःविणर्म संगीत
इस क्षण की ूतीक्षा मे तुम
कब से मुझ में िछपे सो रहे थे!

कनुिूया (पूवरर् ाग - तीसरा गीत)


घाट से लौटते हए

तीसरे पहर की अलसायी वेला में
मैंने अक्सर तुम्हें कदम्ब के नीचे
चुपचाप ध्यानमग्न खड़े पाया
मैंने कोई अज्ञात वनदे वता समझ
िकतना बार तुम्हें ूणाम कर सर झुकाया
पर तुम खड़े रहे अिडग, िनिलर्प्त, वीतराग, िनश्चल!
तुम ने कभी उसे ःवीकारा ही नहीं!
िदन पर िदन बीतते गये
और मैंने तुम्हें ूणान करना भी छोड़ िदया
पर मुझे क्या मालूम था िक वह अःवीकृ ित ही
ू बंधन बन कर
अटट
मेरी ूणाम-बद्ध अंजिलयों में, कलाइयों में इस तरह
िलपट जायेगी िक कभी खुल ही नहीं पायेगी

और मुझे क्या मालूम था िक


तुम केवल िनश्चल खड़े नहीं रहे
तुम्हें वह ूणाम की मुिा और हाथों की गित
इस तरह भा गई िक
तुम मेरे एक-एक अंग की एक-एक गित को
पूरी तरह बाँध लोगे
इस सम्पूणर् के लोभी तुम
भला उस ूणाम माऽ को क्यों ःवीकारते?
और मुझ पगली को दे खो िक मैं
तुम्हें समझती थी िक तुम िकतने वीतराग हो
िकतने िनिलर्प्त!
कनुिूया (पूवरर् ाग - चौथा गीत)
यह जो दोपहर के सन्नाटे में
यमुना के इस िनजर्न घाट पर अपने सारे वस्तर्
िकनारे रख
मैं घण्टों जल में िनहारती हँू

क्या समझते हो िक मैं


इस भाँित अपने को दे खती हँू ?

नहीं मेरे साँवरे !


यमुने के नीले जल में
मेरा यह वेतसलता-सा काँपता तन-िबम्ब, और उस के चारों
ओर साँवली गहराई का अथाह ूसार, जानते हो
कैसा लगता है -

मानों यह यमुना की साँवली गहराई नहीं है


यह तुम हो जो सारे आवरण दरू कर
मुझे चारों ओर से कण-कण, रोम-रोम
अपने ँयामल ूगाढ़ अथाह आिलंगन में पोर-पोर
कसे हए
ु हो!

यह क्या तुम समझते हो


घण्टों - जल में - मैं अपने को िनहारती हँू
नहीं, मेरे साँवरे
कनुिूया (पूवरर् ाग - पाँचवाँ गीत)
यह जो मैं गृहकाज से अलसा कर अक्सर
इधर चली आती हँू
और कदम्ब की छाँह में िशिथल, अःतव्यःत
अनमनी-सी पड़ी रहती हँू …

यह पछतावा अब मुझे हर क्षण


सालता रहता है िक
मैं उस रास की रात तुम्हारे पास से लौट क्यों आयी?
जो चरण चुम्हारे वेणुमादन की लय पर
तुम्हारे नील जलज तन की पिरबमा दे कर नाचते रहे
वे िफर घर की ओर उठ कैसे पाये
मैं उस िदन लौटी क्यों -
कण-कण अपने को तुम्हें दे कर रीत क्यों नहीं गयी?
तुम ने तो उस रास की रात
िजसे अंशतः भी आत्मसात ् िकया
उसे सम्पूणर् बना कर
वापस अपने-अपने घर भेज िदया

पर हाय वही सम्पूणत


र् ा तो
इस िजःम के एक-एक कण में
बराबर टीसती रहती है ,
तुम्हारे िलए!
कैसे हो जी तुम?
जब जाना ही नहीं चाहती
तो बाँसुरी के एक गहरे आलाप से
मदे न्मत्त मुझे खींच बुलाते हो

और जब वापस नहीं आना चाहती


तब मुझे अंशतः महण कर
सम्पूणर् बना कर लौटा दे ते हो!
कामायनी
('लज्जा' पिरच्छे द)

कोमल िकसलय के अंचल में नन्हीं किलका ज्यों िछपती-सी,


गोधुली के धूिमल पट में दीपक के ःवर में िदपती-सी।
मंजुल ःवप्नओं की िवःमृित में मन का उन्माद िनखरता ज्यों -
सुरिभत लहरों की छाया में बुल्ले का िवभव िबखरता ज्यों -
वैसी ही माया से िलपटी अधरों पर उँ गली धरे हए
ु ,
माधव के सरस कुतूहल का आँखों में पानी भरे हए।

नीरव िनशीथ में लितका-सी तुम कौन आ रही हो बढ़ती?
कोमल-बाहें फैलाये-सी आिलंगन का जाद ू पढ़ती!
िकन इं िजाल के फूलों से लेकर सुहाग-कण राग-भरे ,
िसर नीचा कर हो गूँथ रही माला िजससे मधु धार ढरे ?
पुलिकत कदं ब की माला-सी पहना दे ती हो अन्तर में,
झुक जाती है मन की डाली अपनी फलभरता के डर में।
वरदान सदृश हो डाल रही नीली िकरनों से बुना हआ
ु ,
यह अंचल िकतना हल्का-सा िकतना सौरभ से सना हआ।

सब अंग मोम से बनते हैं कोमलता में बल खाती हँू ,
मैं िसमट रही-सी अपने में पिरहास-गीत सुन पाती हँू ।
िःमत बन जाती है तरल हँ सी नयनों में भर कर बाँकपना,
ूत्यक्ष दे खती हँू सब जो वह बनता जाता है सपना।
मेरे सपनों में कलरव का संसार आँख जब खोल रहा,
अनुराग समीरों पर ितरता था इतराता-सा डोल रहा।
अिभलाषा अपने यौवन में उठती उस सुख के ःवागत को,
जीवन भर के बल-वैभव से सत्कृ त करती दरागत
ू को।
िकरनों की रज्जु समेट िलया िजसका अवलम्बन ले चढ़ती,
रस के िनझर्र में धँस कर मैं आनन्द-िशखर के ूित बढ़ती।
ू में िहचक, दे खने में पलकें आँखों पर झुकती हैं ,
छने
कलरव पिरहास भरी गूँजें अधरों तक सहसा रुकती हैं ।
संकेत कर रही रोमाली चुपचाप बरजाती खड़ी रही,
भाषा बन भौहों की काली रे खा-सी ॅम में पड़ी रही।
तुम कौन! हृदय की परवशता? सारी ःवतंऽता छीन रही,
ःवच्छं द सुमन जो िखले रहे जीवन-वन से हो बीन रही!"
संध्या की लाली में हँ सती, उसका ही आौय लेती-सी,
छाया ूितमा गुनगुना उठी, ौद्धा का उत्तर दे ती-सी।

"इतना न चमकृ त हो बाले! अपने मन का उपकार करो,


मैं एक पकड़ हँू जो कहती ठहरो कुछ सोच-िवचार करो।
अंबर-चुंबी िहम-ौृग
ं ों से कलरव कोलाहल साथ िलये,
िवद्युत की ूाणमयी धारा बहती िजसमें उन्माद िलये।
मंगल कुंकुम की ौी िजसमें िनखरी हो ऊषा की लाली,
भोला सुहाग इठलाता हो ऐसा हो िजसमें हिरयाली,
हो नयनों का कल्याण बना आनन्द सुमन-सा िवकसा हो,
वासंती के वन-वैभव में िजसका पंचमःवर िपक-सा हो,
जो गूँज उठे िफर नस-नस में मूछर्ना समान मचलता-सा,
आँखों के साँचे में आकर रमणीय रूप बन ढलता-सा,
नयनों की नीलम की घाटी िजस रस घन से छा जाती हो,
वह कौंध िक िजससे अन्तर की शीतलता ठं ढक पाती हो,
िहल्लोल भरा हो ऋतुपित का गोधुली की सी ममता हो,
जागरण ूात-सा हँ सता हो िजसमें मध्याह्न िनखरता हो,
हो चिकत िनकल आई सहसा जो अपने ूाची के घर से,
उस नवल चंििका-से िबछले जो मानस की लहरों पर से,
फूलों की कोमल पंखिड़याँ िबखरें िजसके अिभनन्दन में,
मकरं द िमलाती हों अपना ःवागत के कुंकुम चन्दन में,
कोमल िकसलय ममर्र-रव-से िजसका जयघोष सुनाते हों,
िजसमें दःख
ु सुख िमलकर मन के उत्सव आनंद मनाते हों,
उज्जवल वरदान चेतना का सौन्दय्यर् िजसे सब कहते हैं ,
िजसमें अनंत अिभलाषा के सपने सब जगते रहते हैं ।
मैं उसई चपल की धाऽी हँू , गौरव मिहमा हँू िसखलाती,
ठोकर जो लगने वाली है उसको धीरे से समझाती,
मैं दे व-सृिष्ट की रित-रानी िनज पंचबाण से वंिचत हो,
बन आवजर्ना-मूितर् दीना अपनी अतृिप्त-सी संिचत हो,
अविशष्ट रह गईं अनुभव में अपनी अतीत असफलता-सी,
लीला िवलास की खेद-भरी अवसादमयी ौम-दिलता-सी,
मैं रित की ूितकृ ित लज्जा हँू मैं शालीनता िसखाती हँू ,
मतवाली सुन्दरता पग में नूपुर सी िलपट मनाती हँू ,
लाली बन सरल कपोलों में आँखों में अंजन सी लगती,
कुंिचत अलकों सी घुँघराली मन की मरोर बनकर जगती,
चंचल िकशोर सुन्दरता की मैं करती रहती रखवाली,
मैं वह हलकी सी मसलन हँू जो बनती कानों की लाली।"

"हाँ, ठीक, परन्तु बताओगी मेरे जीवन का पथ क्या है ?


इस िनिवड़ िनशा में संसिृ त की आलोकमयी रे खा क्या है ?
यह आज समझ तो पाई हँू मैं दबर्
ु लता में नारी हँू ,
अवयव की सुन्दर कोमलता लेकर मैं सबसे हारी हँू ।
पर मन भी क्यों इतना ढीला अपने ही होता जाता है ,
घनँयाम-खंड-सी आँखों में क्यों सहसा जल भर आता है ?
सवर्ःव-समपर्ण करने की िवश्वास-महा-तरु-छाया में,
चुपचाप पड़ी रहने की क्यों ममता जगती हैं माया में?
छायापथ में तारक-द्युित सी िझलिमल करने की मधु-लीला,
अिभनय करती क्यों इस मन में कोमल िनरीहता ौम-शीला?
िनःसंबल होकर ितरती हँू इस मानस की गहराई में,
चाहती नहीं जागरण कभी सपने की इस सुघराई में।
नारी जीवन की िचऽ यही क्या? िवकल रं ग भर दे ती हो,
अःफुट रे खा की सीमा में आकार कला को दे ती हो।
रुकती हँू और ठहरती हँू पर सोच-िवचार न कर सकती,
पगली-सी कोई अंतर में बैठी जैसे अनुिदत बकती।
मैं जभी तोलने का करती उपचार ःवयं तुल जाती हँू ,
भुजलता फँसा कर नर-तरु से झूले-सी झोंके खाती हँू ।
इस अपर्ण में कुछ और नहीं केवल उत्सगर् छलकता है ,
मैं दे दँ ू और न िफर कुछ लूँ, इतना ही सरल झलकता है ।
"क्या कहती हो ठहरो नारी! संकल्प-अौु जल से अपने -
तुम दान कर चुकी पहले ही जीवन के सोने-से सपने।
नारी! तुम केवल ौद्धा हो िवश्वास-रजत-नग पगतल में,
पीयूष-ॐोत बहा करो जीवन के सुंदर समतल में।
दे वों की िवजय, दानवों की हारों का होता युद्ध रहा,
संघषर् सदा उर-अंतर में जीिवत रह िनत्य-िवरुद्ध रहा।
आँसू से भींगे अंचल पर मन का सब कुछ रखना होगा -
तुमको अपनी िःमत रे खा से यह संिधपऽ िलखना होगा।"
कामायनी
('िनवेर्द' पिरच्छे द के कुछ छं द)

"तुमल
ु कोलाहल कलह में
मैं हृदय की बात रे मन!

िवकल होकर िनत्य चंचल,


खोजती जब नींद के पल,
चेतना थक-सी रही तब,
मैं मलय की वात रे मन!

िचर-िवषाद-िवलीन मन की,
इस व्यथा के ितिमर-वन की;
मैं उषा-सी ज्योित-रे खा,
कुसुम-िवकिसत ूात रे मन!

जहाँ मरु-ज्वाला धधकती,


चातकी कन को तरसती,
उन्हीं जीवन-घािटयों की,
मैं सरस बरसात रे मन!

पवन की ूाचीर में रुक


जला जीवन जी रहा झुक,
इस झुलसते िवश्व-िदन की
मैं कुसुम-ऋतु-रात रे मन!
िचर िनराशा नीरधर से,
ूितच्छाियत अौु-सर में,
मधुप-मुखर-मरं द-मुकुिलत,
मैं सजल जलजात रे मन!"

ूयाणगीत

िहमािि तुग
ं ौृग
ं से ूबुद्ध शुद्ध भारती -
ःवयंूभा समुज्जवला ःवतंऽता पुकारती -
अमत्यर् वीर पुऽ हो, दृढ़-ूितज्ञ सोच लो,
ूशःत पुण्य पंथ हैं - बढ़े चलो बढ़े चलो।

असंख्य कीितर्-रिँमयाँ िवकीणर् िदव्य दाह-सी।


सपूत मातृभूिम के रुको न शूर साहसी।
अराित सैन्य िसंधु में - सुबाड़वािग्न से जलो,
ूवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो बढ़े चलो।

बीती िवभावरी जाग री!

बीती िवभावरी जाग री!


अम्बर पनघट में डबो
ु रही
तारा घट ऊषा नागरी।
खग कुल-कुल सा बोल रहा,
िकसलय का अंचल डोल रहा,
लो यह लितका भी भर लाई
मधु मुकुल नवल रस गागरी।
अधरों में राग अमंद िपये,
अलकों में मलयज बंद िकये
तू अब तक सोई है आली
आँखों में भरे िवहाग री।
दगार्
ु वन्दना

जय जय जय जननी। जय जय जय जननी।

जय जननी, जय जन्मदाियनी।
िवश्व विन्दनी लोक पािलनी।
दे िव पावर्ती, शिक्त शािलनी।

जय जय जय जननी। जय जय जय जननी।

परम पूिजता, महापुनीता।


जय दगार्
ु , जगदम्बा माता।
जन्म मृत्यु भवसागर तिरणी।

जय जय जय जननी। जय जय जय जननी।

सवर्रिक्षका, अन्नपूणार्।
महामािननी, महामयी मां।
ज्योतोरूिपणी, पथूदिशर्नी।

जय जय जय जननी। जय जय जय जननी।

िसंहवािहनी, शस्तर्धािरणी।
पापभंिजनी, मुिक्तकािरणी।
मिहषासुरमिदर् नी, िवजियनी।
जय जय जय जननी। जय जय जय जननी।

यादगारों के साये

जब कभी तेरी याद आती है


चांदनी में नहा के आती है ।
भीग जाते हैं आँख में सपने
शब में शबनम बहा के आती है ।

मेरी तनहाई के तसव्वुर में


तेरी तसवीर उभर आती है ।
तू नहीं है तो तेरी याद सही
िज़न्दगी कुछ तो संवर जाती है ।

जब बहारों का िज़ब आता है


मेरे माज़ी की दाःतानों में
तब तेरे फूल से तबःसुम का
रं ग भरता है आसमानों में।

तू कहीं दरू उफ़क से चल कर


मेरे ख्यालों में उतर आती है ।
मेरे वीरान िबयाबानों में
प्यार बन कर के िबखर जाती है ।

तू िकसी पंखरी के दामन पर


ओस की तरह िझलिमलाती है ।
मेरी रातों की हसरतें बन कर
तू िसतारों में िटमिटमाती है ।

वक्ते रुख़सत की बेबसी ऐसी


आँख से आरज़ू अयाँ न हई।

िदल से आई थी बात होठों तक
बेज़ुबानी मगर ज़ुबां न हई।

एक लमहे के ददर् को लेकर


िकतनी सिदयां उदास रहती हैं ।
दिरयां
ू जो कभी नहीं िमटतीं
मेरी मंिज़ल के पास रहती हैं ।

रात आई तो बेकली लेकर


सहर आई तो बेकरार आई।
चन्द उलझे हये
ु से अफ़साने
िज़न्दगी और कुछ नहीं लाई।

चँमे पुरनम बही, बही, न बही।


िज़न्दगी है , रही, रही, न रही।
तुम तो कह दो जो तुमको कहना था
मेरा क्या है कही, कही, न कही।

जीवन दीप
मेरा एक दीप जलता है ।
अंिधयारों में ूखर ूज्ज्विलत,
तूफानों में अचल, अिवचिलत,
यह दीपक अिविजत, अपरािजत।
मेरे मन का ज्योितपुंज
जो जग को ज्योितमर्य करता है ।
मेरा एक दीप जलता है ।

सूयर् िकरण जल की बून्दों से


छन कर इन्िधनुष बन जाती,
वही िकरण धरती पर िकतने
रं ग िबरं गे फूल िखलाती।
ये िकतनी िविभन्न घटनायें,
पर दोनों में िनिहत
ूकृ ित का िनयम एक है ,
ू है ।
जो अटट
इस पर अिडग आःथा मुझको
जो िवज्ञान मुझे जीवन में
पग पग पर ूेिरत करता है ।
मेरा एक दीप जलता है ।

यह िवशाल ॄह्मांड
यहाँ मैं लघु हँू
लेिकन हीन नहीं हँू ।
मैं पदाथर् हँू
ऊजार् का भौितकीकरण हँू ।
नश्वर हँू ,
पर क्षीण नहीं हँू ।
मैं हँू अपना अहम
शिक्त का अिमट ॐोत, जो
न्यूटन के िसद्धान्त सरीखा
परम सत्य है ,
सुन्दर है , िशव है शाश्वत है ।
मेरा यह िवश्वास िनरन्तर
मेरे मानस में पलता है ।
मेरा एक दीप जलता है ।

ूवासी गीत

चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर;
जहाँ अभी तक बाट तक रही
ज्योितहीन गीले नयनों से
(िजनमें हैं भिवंय के सपने
कल के ही बीते सपनों से),
आँचल में मातृत्व समेटे,

माँ की क्षीण, टटती काया।
वृद्ध िपता भी थका परािजत
िकन्तु ूवासी पुऽ न आया।
साँसें भी बोिझल लगती हैं
उस बूढ़ी दबर्
ु ल छाती पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर;
जहाँ बहन की कातर आँखें
ताक रही हैं नीला अम्बर।
आँसू से िमट गई उसी की
सजी हई
ु अल्पना द्वार पर।
सूना रहा दज
ू का आसन,
चाँद सरीखा भाई न आया।
अपनी सीमाओं में बंदी,
एक ूवासी लौट न पाया।
सूख गया रोचना हाँथ में,
िबखर गये चावल के दाने।
छोटी बहन उदास, रुवासी,
भैया आये नहीं मनाने।
अब तो िकतनी धूल जम गई
राखी की रे शम डोरी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।

चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
िकतना िवषम, िववश है जीवन!
रोज़गार के िकतने बन्धन!
केवल एक पऽ आया है ,
छोटा सा संदेश आया है ,
बहत
ु व्यःत हैं , आ न सकेंगे।
शायद अगले साल िमलेंगे।
एक वषर् की और ूतीक्षा,
ममता की यह िवकट परीक्षा।
धीरे धीरे िदये बुझ रहे
हैं आशाओं की दे हरी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।

चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
अगला साल कहाँ आता है
आिखर सब कुछ खो जाता है
अन्तराल की गहराई में।
जीवन तो चलता रहता है
भीड़ भाड़ की तनहाई में।
नई नई मिहिफ़लें लगेंगी,
नये दोःत अहबाब िमलेंगे।
इस िमथ्या माया नगरी में
नये साज़ो-सामान सजेंगे।
लेिकन िफर वह बात न होगी,
जो अपने हैं , वह न रहें गे।
घर का वह माहौल न होगा,
ये बीते क्षण िमल न सकेंगे।
वतर्मान तो जल जाता है
काल दे वता की काठी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।

चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
जहाँ अभी भी प्यार िमलेगा,
रूठे तो मनुहार िमलेगा,
अपने सर की कसम िमलेगी,
नाज़ुक सा इसरार िमलेगा।
होली और िदवाली होगी,
राखी का त्योहार िमलेगा।
सावन की बौछार िमलेगी,
मधुिरम मेघ-मल्हार िमलेगा।
धुनक धुनक ढोलक की धुन पर
कजरी का उपहार िमलेगा।
एक सरल संसार िमलेगा,
एक ठोस आधार िमलेगा
एक अटल िवश्वास जगेगा,
अपनी ूामािणक हःती पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।

चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
पूरी होती नहीं ूतीक्षा,
कभी ूवासी लौट न पाये।
िकतना रोती रही यशोदा,
गये द्वारका ँयाम न आये।
द्शरथ गए िसधार िचता, पर
राम गए वनवास, न आये।
िकतने रक्षाबन्धन बीते,
भैया गये िवदे श, न आये।
अम्बर एक, एक है पृथ्वी,
िफर भी दे श-दे श दरी
ू पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।

चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
जहाँ ूतीक्षा करते करते
सूख गई आँसू की सिरता।
उद्वे िलत, उत्पीिड़त मन के
आहत सपनों की आकुलता।
तकते तकते बाट, िचता पर।
राख हो गई माँ की ममता।
दरू गगन के पार गई वह
आँखों में ले िसफर् िववशता।
एक फूल ही अिपर्त कर दें
उस सूखी, जजर्र अःथी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
जहाँ अभी वह राख िमलेगी,
िजसमें िनिहत एक ःनेिहल छिव,
ःमृितयों के कोमल ःवर में
मधुर मधुर लोरी गायेगी।
और उसी आँचल में िछप कर,
िकसी ूवासी मन की पीड़ा,
युगों युगों की यह व्याकुलता,
िपघल िपघल कर बह जायेगी।
एक अलौिकक शािन्त िमलेगी।
आँख मूँद कर सो जायेंगे,
सर रख कर माँ की िमट्टी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।

प्यार का नाता

िज़न्दगी के मोड़ पर यह प्यार का नाता हमारा।


राह की वीरािनयों को िमल गया आिखर सहारा।

ज्योत्सना सी िःनग्ध सुन्दर, तुम गगन की तािरका सी।


पुिंपकाओं से सजी, मधुमास की अिभसािरका सी।

रूप की साकार छिव, माधुय्यर् की ःवच्छन्द धारा।


प्यार का नाता हमारा, प्यार का नाता हमारा।
मैं तुम्ही को खोजता हँू , चाँद की परछाइयों में।
बाट तकता हँू तुम्हारी, रात की तनहाइयों में।

आज मेरी कामनाओं ने तुम्हे िकतना पुकारा।


प्यार का नाता हमारा, प्यार का नाता हमारा।

दरू हो तुम िकन्तु िफर भी दीिपका हो ज्योित मेरी।


ूेरणा हो शिक्त हो तुम, ूीित की अनुभूित मेरी।

गुनगुना लो प्यार से, यह गीत मेरा है तुम्हारा।


प्यार का नाता हमारा, प्यार का नाता हमारा।
गुलाबी चूिड़याँ
ूाइवेट बस का साइवर है तो क्या हआ
ु ,
सात साल की बच्ची का िपता तो है !
सामने िगयर से उपर
हक
ु से लटका रक्खी हैं
काँच की चार चूिड़याँ गुलाबी
बस की रझतार के मुतािबक
िहलती रहती हैं …
झुककर मैंने पूछ िलया
खा गया मानो झटका
अधेड़ उॆ का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आिहःते से बोला: हाँ सा’ब
लाख कहता हँू नहीं मानती मुिनया
टाँगे हए
ु है कई िदनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने
मैं भी सोचता हँू
क्या िबगाड़ती हैं चूिड़याँ
िकस ज़ुमर् पे हटा दँ ू इनको यहाँ से?
और साइवर ने एक नज़र मुझे दे खा
और मैंने एक नज़र उसे दे खा
छलक रहा था दिधया
ू वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में
तरलता हावी थी सीधे-साधे ूश्न पर
और अब वे िनगाहें िफर से हो गईं सड़क की ओर
और मैंने झुककर कहा -
हाँ भाई, मैं भी िपता हँू
वो तो बस यूँ ही पूछ िलया आपसे
वनार् िकसे नहीं भाएँगी?
नन्हीं कलाइयों की गुलाबी चूिड़याँ!

बादल को िघरते दे खा है
अमल धवल िगिर के िशखरों पर,
बादल को िघरते दे खा है ।
छोटे -छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुिहन कणों को,
मानसरोवर के उन ःविणर्म
कमलों पर िगरते दे खा है ,
बादल को िघरते दे खा है ।

तुंग िहमालय के कंधों पर


छोटी बड़ी कई झीलें हैं ,
उनके ँयामल नील सिलल में
समतल दे शों ले आ-आकर
पावस की उमस से आकुल
ितक्त-मधुर िबसतंतु खोजते
हं सों को ितरते दे खा है ।
बादल को िघरते दे खा है ।
ऋतु वसंत का सुूभात था
मंद-मंद था अिनल बह रहा
बालारुण की मृद ु िकरणें थीं
अगल-बगल ःवणार्भ िशखर थे
एक-दसरे
ू से िवरिहत हो
अलग-अलग रहकर ही िजनको
सारी रात िबतानी होती,
िनशा-काल से िचर-अिभशािपत
बेबस उस चकवा-चकई का
बंद हआ
ु बंदन, िफर उनमें
उस महान ् सरवर के तीरे
शैवालों की हरी दरी पर
ूणय-कलह िछड़ते दे खा है ।
बादल को िघरते दे खा है ।

दगर्
ु म बफार्नी घाटी में
शत-सहॐ फुट ऊँचाई पर
अलख नािभ से उठने वाले
िनज के ही उन्मादक पिरमल-
के पीछे धािवत हो-होकर
तरल-तरुण कःतूरी मृग को
अपने पर िचढ़ते दे खा है ,
बादल को िघरते दे खा है ।
कहाँ गय धनपित कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं िठकाना कािलदास के
व्योम-ूवाही गंगाजल का,
ढँू ढ़ा बहत
ु िकन्तु लगा क्या
मेघदत
ू का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो वह किव-किल्पत था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीषर् पर,
महामेघ को झंझािनल से
गरज-गरज िभड़ते दे खा है ,
बादल को िघरते दे खा है ।

शत-शत िनझर्र-िनझर्रणी कल
मुखिरत दे वदारु कनन में,
शोिणत धवल भोज पऽों से
छाई हई
ु कुटी के भीतर,
रं ग-िबरं गे और सुगंिधत
फूलों की कुंतल को साजे,
इं िनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रिचत मिण खिचत कलामय
पान पाऽ िाक्षासव पूिरत
रखे सामने अपने-अपने
लोिहत चंदन की िऽपटी पर,
नरम िनदाग बाल कःतूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मिदरारुण आखों वाले उन
उन्मद िकन्नर-िकन्निरयों की
मृदल
ु मनोरम अँगुिलयों को
वंशी पर िफरते दे खा है ।
बादल को िघरते दे खा है ।
कौन तुम मेरे हृदय में?

कौन तुम मेरे हृदय में?

कौन मेरी कसक में िनत


मधुरता भरता अलिक्षत?
कौन प्यासे लोचनों में
घुमड़ िघर झरता अपिरिचत?
ःवणर् ःवप्नों का िचतेरा
नींद के सूने िनलय में!
कौन तुम मेरे हृदय में?

अनुसरण िनश्वास मेरे


कर रहे िकसका िनरन्तर?
चूमने पदिचन्ह िकसके
लौटते यह श्वास िफर िफर?
कौन बन्दी कर मुझे अब
बँध गया अपनी िवजय मे?
कौन तुम मेरे हृदय में?

एक करुण अभाव िचर -


तृिप्त का संसार संिचत,
एक लघु क्षण दे रहा
िनवार्ण के वरदान शत-शत;
पा िलया मैंने िकसे इस
वेदना के मधुर बय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?

गूंजता उर में न जाने


दरू के संगीत-सा क्या!
आज खो िनज को मुझे
खोया िमला िवपरीत-सा क्या!
क्या नहा आई िवरह-िनिश
िमलन-मधिदन के उदय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?

ितिमर-पारावार में
आलोक-ूितमा है अकिम्पत;
आज ज्वाला से बरसता
क्यों मधुर घनसार सुरिभत?
सुन रही हँू एक ही
झंकार जीवन में, ूलय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?

मूक सुख-दख
ु कर रहे
मेरा नया ौृग
ं ार-सा क्या?
झूम गिवर्त ःवगर् दे ता -
नत धरा को प्यार-सा क्या?
आज पुलिकत सृिष्ट क्या
करने चली अिभसार लय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?
मेरे दीपक

मधुर मधुर मेरे दीपक जल!


युग युग ूितिदन ूितक्षण ूितपल;
िूयतम का पथ आलोिकत कर!

सौरभ फैला िवपुल धूप बन;


मृदल
ु मोम-सा घुल रे मृद ु तन;
दे ूकाश का िसंधु अपिरिमत,
तेरे जीवन का अणु गल-गल!
पुलक-पुलक मेरे दीपक जल!

सारे शीतल कोमल नूतन,


माँग रहे तुझको ज्वाला-कण;
िवश्वशलभ िसर धुन कहता "मैं
हाय न जल पाया तुझमें िमल"!
िसहर-िसहर मेरे दीपक जल!

जलते नभ में दे ख असंख्यक;


ःनेहहीन िनत िकतने दीपक;
जलमय सागर का उर जलता;
िवद्युत ले िघरता है बादल!
िवहं स-िवहं स मेरे दीपक जल!

िम
ु के अंग हिरत कोमलतम,
ज्वाला को करते हृदयंगम;
वसुधा के जड़ अंतर में भी,
बन्दी नहीं है तापों की हलचल!
िबखर-िबखर मेरे दीपक जल!

मेरे िनश्वासों से िततर


ु ,
सुभग न तू बुझने का भय कर;
मैं अंचल की ओट िकये हँू ,
अपनी मृद ु पलकों से चंचल!
सहज-सहज मेरे दीपक जल!

सीमा ही लघुता का बन्धन,


है अनािद तू मत घिड़याँ िगन;
मैं दृग के अक्षय कोशों से -
तुझमें भरती हँू आँस-जल!

सजल-सजल मेरे दीपक जल!

तम असीम तेरा ूकाश िचर;


खेलेंगे नव खेल िनरन्तर;
तम के अणु-अणु में िवद्युत सा -
अिमट िचऽ अंिकत करता चल!
सरल-सरल मेरे दीपक जल!

तू जल जल होता िजतना क्षय;


वह समीप आता छलनामय;
मधुर िमलन में िमट जाना तू -
उसकी उज्जवल िःमत में घुल-िखल!
मिदर-मिदर मेरे दीपक जल!

िूयतम का पथ आलोिकत कर!

पंथ होने दो अपिरिचत

पंथ होने दो अपिरिचत


ूाण रहने दो अकेला!

और होंगे चरण हारे ,


अन्य हैं जो लौटते दे शूल को संकल्प सारे ;
दखोती
ु िनमार्ण-उन्मद
यह अमरता नापते पद;
बाँध दें गे अंक-संसिृ त से ितिमर में ःवणर् बेला!

दसरी
ू होगी कहानी
शून्य में िजसके िमटे ःवर, धूिल में खोई िनशानी;
आज िजसपर प्यार िविःमत,
मैं लगाती चल रही िनत,
मोितयों की हाट औ, िचनगािरयों का एक मेला!

हास का मधु-दत
ू भेजो,
रोष की ॅूभिं गमा पतझार को चाहे सहे जो;
ले िमलेगा उर अचंचल
वेदना-जल ःवप्न-शतदल,
जान लो, वह िमलन-एकाकी िवरह में है दक
ु े ला!
िूय िचरन्तन है सजिन

िूय िचरन्तन है सजिन,


क्षण क्षण नवीन सुहािगनी मैं!

श्वास में मुझको िछपा कर वह असीम िवशाल िचर घन,


शून्य में जब छा गया उसकी सजीली साध-सा बन,
िछप कहाँ उसमें सकी
बुझ-बुझ जली चल दािमनी मैं!

छाँह को उसकी सजिन नव आवरण अपना बना कर,


धूिल में िनज अौु बोने मैं पहर सूने िबता कर,
ूात में हँ स िछप गई
ले छलकते दृग यािमनी मैं!

िमलन-मिन्दर में उठा दँ ू जो सुमुख से सजल गुण्ठन,


मैं िमटँू िूय में िमटा ज्यों तप्त िसकता में सिलल-कण,
सजिन मधुर िनजत्व दे
कैसे िमलूँ अिभमािननी मैं!

दीप-सी युग-युग जलूँ पर वह सुभग इतना बता दे ,


फूँक से उसकी बुझूँ तब क्षार ही मेरा पता दे !
वह रहे आराध्य िचन्मय
मृण्मयी अनुरािगनी मैं!

सजल सीिमत पुतिलयाँ पर िचऽ अिमट असीम का वह,


चाह वह अनन्त बसती ूाण िकन्तु ससीम सा यह,
रज-कणों में खेलती िकस
िवरज िवधु की चाँदनी मैं?

तुम मुझमें िूय! िफर पिरचय क्या

तुम मुझमें िूय! िफर पिरचय क्या


तारक में छिव, ूाणों में ःमृित,
पलकों में नीरव पद की गित,
लघु उर में पुलकों की संसिृ त,
भर लाई हँू तेरी चंचल
और करूँ जग में संचय क्या!

तेरा मुख सहास अरुणोदय,


परछाई रजनी िवषादमय,
वह जागृित वह नींद ःवप्नमय,
खेलखेल थकथक सोने दे
मैं समझूँगी सृिष्ट ूलय क्या!

तेरा अधरिवचुंिबत प्याला


तेरी ही िःमतिमिौत हाला,
तेरा ही मानस मधुशाला,
िफर पूछू ँ क्या मेरे साकी!
दे ते हो मधुमय िवषमय क्या?

रोमरोम में नंदन पुलिकत,


साँससाँस में जीवन शतशत,
ःवप्न ःवप्न में िवश्व अपिरिचत,
मुझमें िनत बनते िमटते िूय!
ःवगर् मुझे क्या िनिंबय लय क्या?

हारूँ तो खोऊँ अपनापन


पाऊँ िूयतम में िनवार्सन,
जीत बनूँ तेरा ही बंधन
भर लाऊँ सीपी में सागर
िूय मेरी अब हार िवजय क्या?

िचिऽत तू मैं हँू रे खाबम,


मधुर राग तू मैं ःवर संगम,
तू असीम मैं सीमा का ॅम,
काया छाया में रहःयमय।
ूेयिस िूयतम का अिभनय क्या
तुम मुझमें िूय! िफर पिरचय क्या

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