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ू
दे वों ने था िजसे बनाया,
दे वों ने था िजसे बजाया,
मानव के हाथों में कैसे इसको आज समिपर्त कर दँ ?ू
िकस कर में यह वीणा धर दँ ?ू
किव की वासना
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
1
सृिष्ट के ूारम्भ में
मैने उषा के गाल चूमे,
बाल रिव के भाग्य वाले
दीप्त भाल िवशाल चूमे,
तािरका-किल से सुसिज्जत
नव िनशा के बाल चूमे,
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
िवगत-बाल्य वसुन्धरा के
उच्च तुग
ं -उरोज उभरे ,
तरु उगे हिरताभ पट धर
काम के ध्वज मत्त फहरे ,
ृ
चपल उच्छखल करों ने
जो िकया उत्पात उस िदन,
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
दीप रिव-शिश-तारकों ने
बाहरी कुछ केिल दे खी,
जो पलक पर कर िनछावर
थी गई मधु यािमनी वह;
यह समािध बनी हई
ु है
यह न शयनागार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
4
आज िमट्टी से िघरा हँू
पर उमंगें हैं पुरानी,
सोमरस जो पी चुका है
आज उसके हाथ पानी,
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
भंग कर दे ता तपःया
िसद्ध, ऋिष, मुिन सत्तमों की
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
वेद-लोकाचार ूहरी
ताकते हर चाल मेरी,
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
7
थी तृषा जब शीत जल की
खा िलए अंगार मैंने,
चीथड़ों से उस िदवस था
कर िलया ौृग
ं ार मैंने
राजसी पट पहनने को
जब हई
ु इच्छा ूबल थी,
वासना जब तीोतम थी
बन गया था संयमी मैं,
है रही मेरी क्षुधा ही
सवर्दा आहार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
कह रहा जग वासनामय
हो रहा उद्गार मेरा!
–
Other Information
Collection: Madhukalash (Published: 1937)
This poem was originally inspired by a comment by Pt. Banarsi Das
Chaturvedi in the publication “Vishaal Bharat”, of which he was the
editor. In response to that comment Bachchan wrote this poem and sent it
to another well-known publication “Saraswati” with a note that it is in
response to somebody’s comment (without naming him). When Pt.
Banarsi Das Chaturvedi noticed this poem, he got it publihed in
“Viashaal Bharat” itself, while openly accepting that he was the one who
had written a comment like that. (Source: Preface by Bachchan in the 7th
edition of Madhukalash)
इस पार, उस पार
1
3
प्याला है पर पी पाएँगे,
है ज्ञात नहीं इतना हमको,
इस पार िनयित ने भेजा है ,
असमथर्बना िकतना हमको,
कहने वाले, पर कहते है ,
हम कमोर्ं में ःवाधीन सदा,
करने वालों की परवशता
है ज्ञात िकसे, िजतनी हमको?
कह तो सकते हैं , कहकर ही
कुछ िदल हलका कर लेते हैं ,
उस पार अभागे मानव का
अिधकार न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
8
उतरे इन आखों के आगे
जो हार चमेली ने पहने,
वह छीन रहा, दे खो, माली,
सुकुमार लताओं के गहने,
दो िदन में खींची जाएगी
ऊषा की साड़ी िसन्दरी
ू ,
पट इन्िधनुष का सतरं गा
पाएगा िकतने िदन रहने;
जब मूितर्मती सत्ताओं की
शोभा-सुषमा लुट जाएगी,
तब किव के किल्पत ःवप्नों का
ौृग
ं ार न जाने क्या होगा!
इस पार, िूये मधु है तुम हो,
उस पार न जाने क्या होगा!
–
Collection: Madhubala (Published 1936)
मधुबाला
मैं मधुबाला मधुशाला की,
मैं मधुशाला की मधुबाला!
मैं मधु-िवबेता को प्यारी,
मधु के धट मुझपर बिलहारी,
प्यालों की मैं सुषमा सारी,
मेरा रुख दे खा करती है
मधु-प्यासे नयनों की माला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
था एक समय, थी मधुशाला,
था िमट्टी का घट, था प्याला,
थी, िकन्तु, नहीं साकीबाला,
था बैठा ठाला िवबेता
दे बंद कपाटों पर ताला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
तब इस घर में था तम छाया,
था भय छाया, था ॅम छाया,
था मातम छाया, गम छाया,
ऊषा का दीप िलए सर पर,
मैं आई करती उिजयाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
7
ू
मुझको छकर मधुघट छलके,
प्याले मधु पीने को ललके ,
मािलक जागा मलकर पलकें,
अँगड़ाई लेकर उठ बैठी
िचर सुप्त िवमूिच्छर् त मधुशाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
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मधु कौन यहाँ पीने आता,
है िकसका प्यालों से नाता,
जग दे ख मुझे है मदमाता,
िजसके िचर तंििल नयनों पर
तनती मैं ःवप्नों का जाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
15
यह ःवप्न-िविनिमर्त मधुशाला,
यह ःवप्न रिचत मधु का प्याला,
ःविप्नल तृंणा, ःविप्नल हाला,
ःवप्नों की दिनया
ु में भूला
िफरता मानव भोलाभाला।
मैं मधुशाला की मधुबाला!
–
Other Information
Collection: Madhubala (Published: 1936)
‘मेघदत
ू ’ के ूित
‘मेघ’ िजस-िजस काल पढ़ता
मैं ःवयं बन मेघ जाता!
दगर्
ु दे वल, पथ सुिवःतृत
और बीड़ोद्यान-सारे
मिन्ऽता किव-लेखनी के
ःपशर् से होते अगोचर
दे खता इस शैल के ही
अंक में बहु-पूज्य पुंकर,
पुण्य-जल िजनको िकया था
जनक-तनया ने नहाकर
संग जब ौी राम के वे
थीं यहाँ जब वास करतीं,
ूेयसी को एक क्षण उर से
लगा सब कष्ट भूला,
दे ख मुझको ूाण-प्यारी
दािमनी को अंक में भर
घूमते उन्मुक्त नभ में
वायु के मृद-ु मन्द रथ पर,
अट्टहास-िवहास से मुख-
िरत बनाते शून्य को भी
ूयिणनी भुज-पाश से जो
है रहा िचरकाल वंिचत,
यक्ष मुझको दे ख कैसे
िफर न दख
ु में डब
ू जाता।
कामना से वह मुझे उठ
बार-बार ूणाम करता;
कनक िवलय-िवहीन कर से
िफर कुटज के फूल चुनकर
ूीित से ःवागत-वचन कह
भेंट मेरे ूित चढ़ाता।
पुंकरावतर्क घनों के
वंश का मुझको बताकर,
कामरूप सुनाम दे , कह
मेघपित का मान्य अनुचर
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हे जलद, ौीवृिद्ध कर तू
संग वषार्-दािमनी के,
हो न तुझको िवरह दख
ु जो
आज मैं िविधवश उठाता!’
–
Other Information
Collection: Madhukalash (Published: 1937)
ूतीक्षा
अँधेरे का दीपक
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है ?
जुगनू
अँधेरी रात में दीपक जलाए कौन बैठा है ?
दतकारा
ु मिःजद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,
ठु कराया ठाकुरद्वारे ने दे ख हथेली पर प्याला,
कहाँ िठकाना िमलता जग में भला अभागे कािफर को?
शरणःथल बनकर न मुझे यिद अपना लेती मधुशाला।।४६।
पिथक बना मैं घूम रहा हँू , सभी जगह िमलती हाला,
सभी जगह िमल जाता साकी, सभी जगह िमलता प्याला,
मुझे ठहरने का, हे िमऽों, कष्ट नहीं कुछ भी होता,
िमले न मंिदर, िमले न मिःजद, िमल जाती है मधुशाला।।४७।
याद न आए दखमय
ू जीवन इससे पी लेता हाला,
जग िचंताओं से रहने को मुक्त, उठा लेता प्याला,
शौक, साध के और ःवाद के हे तु िपया जग करता है ,
पर मै वह रोगी हँू िजसकी एक दवा है मधुशाला।।७८।
ज्ञात हआ
ु यम आने को है ले अपनी काली हाला,
पंि◌डत अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला,
और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला,
िकन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला।।८६।
बहते
ु रे मिदरालय दे खे, बहते
ु री दे खी हाला,
भाँित भाँित का आया मेरे हाथों में मधु का प्याला,
एक एक से बढ़कर, सुन्दर साकी ने सत्कार िकया,
जँची न आँखों में, पर, कोई पहली जैसी मधुशाला।।१०९।
एक समय छलका करती थी मेरे अधरों पर हाला,
एक समय झूमा करता था मेरे हाथों पर प्याला,
एक समय पीनेवाले, साकी आिलंगन करते थे,
आज बनी हँू िनजर्न मरघट, एक समय थी मधुशाला।।११०।
बहतों
ु के िसर चार िदनों तक चढ़कर उतर गई हाला,
बहतों
ु के हाथों में दो िदन छलक झलक रीता प्याला,
पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही
और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।
ूतीक्षा
और उतने फ़ासले पर आज तक
सौ यत्न करके भी न आये िफर कभी हम।
िफर न आया वक्त वैसा
िफर न मौका उस तरह का
िफर न लौटा चाँद िनमर्म।
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊँ।
क्या नहीं ये पंिक्तयाँ खुद बोलती हैं ?
बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो
रख िदया था हाथ पर अंगार तुमने।
रात आधी खींच कर मेरी हथेली
याऽा और याऽी
चल रहा है तारकों का
दल गगन में गीत गाता,
चल रहा आकाश भी है
शून्य में ॅमता-ॅमाता,
पाँव के नीचे पड़ी
अचला नहीं, यह चंचला है ,
एक कण भी, एक क्षण भी
एक थल पर िटक न पाता,
शिक्तयाँ गित की तुझे
सब ओर से घेरे हए
ु है ;
ःथान से अपने तुझे
टलना पड़े गा ही, मुसािफर!
साँस चलती है तुझे
चलना पड़े गा ही मुसािफर!
वह किठन पथ और कब
उसकी मुसीबत भूलती है ,
साँस उसकी याद करके
भी अभी तक फूलती है ;
यह मनुज की वीरता है
या िक उसकी बेहयाई,
साथ ही आशा सुखों का
ःवप्न लेकर झूलती है
सत्य सुिधयाँ, झूठ शायद
ःवप्न, पर चलना अगर है ,
झूठ से सच को तुझे
छलना पड़े गा ही, मुसािफर;
साँस चलती है तुझे
चलना पड़े गा ही मुसािफर!
ऊँचाई
सच्चाई यह है िक
केवल ऊँचाई ही कािफ नहीं होती,
सबसे अलग-थलग,
पिरवेश से पृथक,
अपनों से कटा-बंटा,
शून्य में अकेला खड़ा होना,
पहाड़ की महानता नहीं,
मजबूरी है ।
ऊँचाई और गहराई में
आकाश-पाताल की दरू ी है ।
जो िजतना ऊँचा,
उतना एकाकी होता है ,
हर भार को ःवयं ढोता है ,
चेहरे पर मुःकानें िचपका,
मन ही मन रोता है ।
जरूरी यह है िक
ऊँचाई के साथ िवःतार भी हो,
िजससे मनुंय,
ठंू ट सा खड़ा न रहे ,
औरों से घुले-िमले,
िकसी को साथ ले,
िकसी के संग चले।
भीड़ में खो जाना,
यादों में डब
ू जाना,
ःवयं को भूल जाना,
अिःतत्व को अथर्,
जीवन को सुगंध दे ता है ।
धरती को बौनों की नहीं,
ऊँचे कद के इन्सानों की जरूरत है ।
इतने ऊँचे िक आसमान छू लें,
नये नक्षऽों में ूितभा की बीज बो लें,
िकन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,
िक पाँव तले दब
ू ही न जमे,
कोई कांटा न चुभे,
कोई किल न िखले।
मेरे ूभु!
मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत दे ना,
गैरों को गले न लगा सकूँ,
इतनी रुखाई कभी मत दे ना।
चाँद और किव
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है !
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और िफर बेचैन हो जगता, न सोता है ।
लोहे के मदर्
पुरुष वीर बलवान,
दे श की शान,
हमारे नौजवान
घायल होकर आये हैं ।
आग की भीख
धुँधली हई
ु िदशाएँ, छाने लगा कुहासा,
ु िशखा से आने लगा धुआँसा।
कुचली हई
कोई मुझे बता दे , क्या आज हो रहा है ,
मुंह को िछपा ितिमर में क्यों तेज सो रहा है ?
दाता पुकार मेरी, संदीिप्त को िजला दे ,
ु िशखा को संजीवनी िपला दे ।
बुझती हई
प्यारे ःवदे श के िहत अँगार माँगता हँू ।
चढ़ती जवािनयों का ौृग
ं ार मांगता हँू ।
ठहरी हई
ु तरी को ठोकर लगा चला दे ,
जो राह हो हमारी उसपर िदया जला दे ।
गित में ूभंजनों का आवेग िफर सबल दे ,
इस जाँच की घड़ी में िनष्ठा कड़ी, अचल दे ।
हम दे चुके लहु हैं , तू दे वता िवभा दे ,
अपने अनलिविशख से आकाश जगमगा दे ।
प्यारे ःवदे श के िहत वरदान माँगता हँू ।
तेरी दया िवपद् में भगवान माँगता हँू ।
बािलका से वधु
लेन-दे न
लेन-दे न का िहसाब
लंबा और पुराना है ।
लआमी थी या दगार्
ु थी वह ःवयं वीरता की अवतार,
दे ख मराठे पुलिकत होते उसकी तलवारों के वार,
नकली युद्ध-व्यूह की रचना और खेलना खूब िशकार,
सैन्य घेरना, दग
ु र् तोड़ना ये थे उसके िूय िखलवार।
महाराष्टर-कुल-दे वी उसकी भी आराध्य भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुह
ँ हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
हई
ु वीरता की वैभव के साथ सगाई झाँसी में,
ब्याह हआ
ु रानी बन आई लआमीबाई झाँसी में,
राजमहल में बजी बधाई खुिशयाँ छाई झाँसी में,
िचऽा ने अजुन
र् को पाया, िशव से िमली भवानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुह
ँ हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
उिदत हआ
ु सौभाग्य, मुिदत महलों में उिजयाली छाई,
िकंतु कालगित चुपके-चुपके काली घटा घेर लाई,
तीर चलाने वाले कर में उसे चूिड़याँ कब भाई,
रानी िवधवा हई
ु , हाय! िविध को भी नहीं दया आई।
िनसंतान मरे राजाजी रानी शोक-समानी थी,
बुंदेले हरबोलों के मुह
ँ हमने सुनी कहानी थी,
खूब लड़ी मदार्नी वह तो झाँसी वाली रानी थी।।
ु ू िकसने जानी?
ऊँच-नीच का ज्ञान नहीं था छआछत
बनी हई
ु थी वहाँ झोंपड़ी और चीथड़ों में रानी॥
िकये दध
ू के कुल्ले मैंने चूस अँगूठा सुधा िपया।
िकलकारी िकल्लोल मचाकर सूना घर आबाद िकया॥
ु
ठकरा दो या प्यार करो
उजड़े हए
ु कुंज
रौंदी हई
ु लताएँ
आकाश पर छायी हई
ु धूल
क्या तुझे यह नहीं बता रहीं
िक आज उस राह से
कृ ंण की अठारह अक्षौिहणी सेनाएँ
युद्ध में भाग लेने जा रही हैं !
आज उस पथ से अलग हट कर खड़ी हो
बावरी!
लताकुंज की ओट
िछपा ले अपने आहट प्यार को
आज इस गाँव से
द्वारका की युद्धोन्मत्त सेनाएँ गुजर रही हैं
मान िलया िक कनु तेरा
सवार्िधक अपना है
मान िलया िक तू
उसकी रोम-रोम से पिरिचत है
मान िलया िक ये अगिणत सैिनक
एक-एक उसके हैं :
पर जान रख िक ये तुझे िबलकुल नहीं जानते
पथ से हट जा बावरी
यह आॆवृक्ष की डाल
उनकी िवशेष िूय थी
तेरे न आने पर
सारी शाम इस पर िटक
उन्होंने वंशी में बार-बार
तेरा नाम भर कर तुझे टे रा था-
आज यह आम की डाल
सदा-सदा के िलए काट दी जायेगी
क्योंिक कृ ंण के सेनापितयों के
वायुवेगगामी रथों की
गगनचुम्बी ध्वजाओं में
यह नीची डाल अटकती है
और यह पथ के िकनारे खड़ा
छायादार पावन अशोक-वृक्ष
आज खण्ड-खण्ड हो जाएगा तो क्या -
यिद मामवासी, सेनाओं के ःवागत में
तोरण नहीं सजाते
तो क्या सारा माम नहीं उजाड़ िदया जायेगा?
दःख
ु क्यों करती है पगली
क्या हआ
ु जो
कनु के ये वतर्मान अपने,
तेरे उन तन्मय क्षणों की कथा से
अनिभज्ञ हैं
गवर् कर बावरी!
कौन है िजसके महान ् िूय की
अठारह अक्षौिहणी सेनाएँ हों?
न,
मैं कुछ सोचती नहीं
कुछ याद भी नहीं करती
िसफर् मेरी, अनमनी, भटकती उँ गिलयाँ
मेरे अनजाने, धूल में तुम्हारा
वह नाम िलख जाती हैं
जो मैंने प्यार के गहनतम क्षणों में
खुद रखा था
और िजसे हम दोनों के अलावा
कोई जानता ही नहीं
और ज्यों ही सचेत हो कर
अपनी उँ गिलयों की
इस धृष्टता को जान पाती हँू
चौंक कर उसे िमटा दे ती हँू
(उसे िमटाते द:ु ख क्यों नहीं होता कनु!
क्या अब मैं केवल दो यन्ऽों का पुज
ं -माऽ हँू ?
- दो परःपर िवपरीत यन्ऽ-
उन में से एक िबना अनुमित के नाम िलखता है
दसरा
ू उसे िबना िहचक िमटा दे ता है !)
–
तीसरे पहर
चुपचाप यहाँ छाया में बैठती हँू
और हवा ऊपर ताजी नरम टहिनयों से,
और नीचे कपोलों पर झूलती मेरी रूखी अलकों
से खेल करती है
और मैं आँख मूँद कर बैठ जाती हँू
और कल्पना करना चाहती हँू िक
उस िदन बरसते में िजस छौने को
अपने आँचल में िछपा कर लायी थी
वह आज िकतना, िकतना, महान ् हो गया है
लेिकन मैं कुछ नहीं सोच पाती
िसफर्-
जहाँ तुमने मुझे अिमत प्यार िदया था
ु
वहीं बैठ कर कंकड़, पत्ते, ितनके, टकड़े चुनती रहती हँू
तुम्हारे महान ् बनने में
ू कर िबखर गया है कनु!
क्या मेरा कुछ टट
वह सब अब भी
ज्यों का त्यों है
िदन ढले आम के नये बौरों का
चारों ओर अपना मायाजाल फेंकना
जाल में उलझ कर मेरा बेबस चले आना
नया है
केवल मेरा
सूनी माँग आना
सुनी माँग, िशिथल चरण, असमिपर्ता
ज्यों का त्यों लौट जाना…….
आज वह जूड़े से िगरे हए
ु बेले-सा
ू है , म्लान है
टटा
दगु
ु ना सुनसान है
बीते हए
ु उत्सव-सा, उठे हए
ु मेले-सा-
मेरा यह िजःम -
ू खंडहरों के उजाड़ अन्तःपुर में
टटे
ू
छटा हआ
ु एक सािबत मिणजिटत दपर्ण-सा -
आधी रात दं श भरा बाहहीन
ु
प्यासा सपीर्ला कसाव एक
िजसे जकड़ लेता है
अपनी गुज
ं लक में:
कौन था वह
िजस ने तुम्हारी बाँहों के आवतर् में
गिरमा से तन कर समय को ललकारा था!
कौन था वह
िजस की अलकों में जगत ् की समःत गित
बँध कर परािजत थी!
कौन था वह
िजसके चरम साक्षात्कार का एक गहरा क्षण
सारे इितहास से बड़ा था, सशक्त था!
कौन था कनु, वह
तुम्हारी बाँहों में
जो सूरज था, जाद ू था, िदव्य था, मंऽ था
अब िसफर् मैं हँू , यह तन है , और याद है !
ू गए तुम तो कनु,
मंऽ-पढ़े बाण-से छट
शेष रही मैं केवल,
काँपती ूत्यंचा-सी
अब भी जो बीत गया,
उसी में बसी हई
ु
अब भी उन बाँहों के छलावे में
कसी हई
ु
िजन रूखी अलकों में
मैंने समय की गित बाँधी थी -
हाय उन्हीं काले नागपाशों से
िदन-ूितिदन, क्षण-ूितक्षण बार-बार
डँ सी हई
ु
- बुझी हई
ु राख में िछपी िचनगारी-सा
रीते हए
ु पाऽ की आिखरी बूँद-सा
पा कर खो दे ने की व्यथा-भरी गूज
ँ सा…..
कनुिूया (सृिष्ट-संकल्प - केिलसखी)
आज की रात
हर िदशा में अिभसार के संकेत क्यों हैं ?
और यह क्यों लगता है
िक यिद और कोई नहीं तो
यह िदगन्त-व्यापी अँधेरा ही
मेरे िशिथल अधखुले गुलाब-तन को
पी जाने के िलए तत्पर है
और भय,
आिदम भय, तकर्हीन, कारणहीन भय जो
मुझे तुमसे दरू ले गया था, बहत
ु दरू-
क्या इसी िलए िक मुझे
दगु
ु ने आवेग से तुम्हारे पास लौटा लावे
और क्या यह भय की ही काँपती उँ गिलयाँ हैं
जो मेरे एक-एक बन्धन को िशिथल
करती जा रही हैं
और मैं कुछ कह नहीं पाती!
लो मेरे असमंजस!
अब मैं उन्मुक्त हँू
और मेरे नयन अब नयन नहीं हैं
ूतीक्षा के क्षण हैं
और मेरी बाँहें, बाँहें नहीं हैं
पगडिण्डयाँ हैं
और मेरा यह सारा
हलका गुलाबी, गोरा, रुपहली
धूप-छाँव वाला सीपी जैसा िजःम
अब िजःम नहीं-
िसफर् एक पुकार है
आओ मेरे अधैय!र्
िदशाएँ घुल गयी हैं
जगत ् लीन हो चुका है
समय मेरे अलक-पाश में बँध चुका है ।
और इस िनिखल सृिष्ट के
अपार िवःतार में
तुम्हारे साथ मैं हँू - केवल मैं-
अगर ये उमड़ती हई
ु मेघ-घटाएँ
मेरी ही बल खाती हई
ु वे अलकें हैं
िजन्हें तुम प्यार से िबखेर कर
अक्सर मेरे पूण-र् िवकिसत
चन्दन फूलों को ढँ क दे ते हो
अक्सर आकाशगंगा के
सुनसान िकनारों पर खड़े हो कर
जब मैंने अथाह शून्य में
अनन्त ूदीप्त सूयोर्ं को
ू
कोहरे की गुफाओं में पंख टटे
जुगनुओं की तरह रें गते दे खा है
तो मैं भयभीत होकर लौट आयी हँू ……
और अक्सर जब मैंने
चन्िलोक के िवराट्, अपिरिचत, झुलसे
पहाड़ों की गहरी, दलर्ं
ु घ्य घािटयों में
अज्ञात िदशाओं से उड़ कर आने वाले
धुॆपुंजों को टकराते और
अिग्नवणीर् करकापात से
वळ की चट्टानों को
घायल फूल की तरह िबखरते दे खा है
तो मुझे भय क्यों लगा है
और मैं लौट क्यों आयी हँू मेरे बन्धु!
क्या चन्िमा मेरे ही माथे का
सौभाग्य-िबन्द ु नहीं है ?
कहाँ से आता है यह भय
जो मेरे इन िहमिशखरों पर
महासागरों पर
चन्दनवन पर
ःवणर्वणीर् झरनों पर
मेरे उत्फुल्ल लीलातन पर
कोहरे की तरह
फन फैला कर
गुंजलक बाँध कर बैठ गया है ।
कौन है वह
िजसकी खोज में तुमने
काल की अनन्त पगडं डी पर
सूरज और चाँद को भेज रखा है
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कौन है िजसे तुमने
झंझा के उद्दाम ःवरों में पुकारा है
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कौन है िजसके िलए तुमने
महासागर की उत्ताल भुजाएँ फैला दी हैं
कौन है िजसकी आत्मा को तुमने
फूल की तरह खोल िदया है
और कौन है िजसे
निदयों जैसे तरल घुमाव दे -दे कर
तुमने तरं ग-मालाओं की तरह
अपने कण्ठ में, वक्ष पर, कलाइयों में
लपेट िलया है -
और लो
वह आधी रात का ूलयशून्य सन्नाटा
िफर
काँपते हए
ु गुलाबी िजःमों
गुनगुने ःपशोर्ं
कसती हई
ु बाँहों
अःफुट सीत्कारों
गहरी सौरभ भरी उसाँसों
और अन्त में एक साथर्क िशिथल मौन से
आबाद हो जाता है
रचना की तरह
सृिष्ट की तरह-
अक्सर जब तुम ने
माला गूथ
ँ ने के िलए
कँटीले झाड़ों में चढ़-चढ़ कर मेरे िलए
श्वेत रतनारे करौंदे तोड़ कर
मेरे आँचल में डाल िदये हैं
तो मैंने अत्यन्त सहज ूीित से
गरदन झटका कर
वेणी झुलाते हए
ु कहा है :
‘कनु ही मेरा एकमाऽ अंतरं ग सखा है !’
अक्सर जब तुम ने
दावािग्न में सुलगती डािलयों,
ू
टटते वृक्षों, हहराती हई
ु लपटों और
घुटते हए
ु धुएँ के बीच
िनरुपाय, असहाय, बावली-सी भटकती हई
ु
मुझे
साहसपूवक
र् अपने दोनों हाथों में
फूल की थाली-सी सहे ज कर उठा िलया
और लपटें चीर कर बाहर ले आये
तो मैंने आदर, आभार और ूगाढ़ ःनेह से
भरे -भरे ःवर में कहा है :
‘कान्ह मेरा रक्षक है , मेरा बन्धु है
सहोदर है ।’
पर जब तुम ने दष्टता
ु से
अक्सर सखी के सामने मुझे बुरी तरह छे ड़ा है
तब मैंने खीझ कर
आँखों में आँसू भर कर
शपथें खा-खा कर
सखी से कहा है :
‘कान्हा मेरा कोई नहीं है , कोई नहीं है
मैं कसम खाकर कहती हँू
मेरा कोई नहीं है !’
पर दसरे
ू ही क्षण
जब घनघोर बादल उमड़ आये हैं
और िबजली तड़पने लगी है
और घनी वषार् होने लगी है
और सारे वनपथ धुँधला कर िछप गये हैं
तो मैंने अपने आँचल में तुम्हें दबका
ु िलया है
तुम्हें सहारा दे -दे कर
अपनी बाँहों मे घेर गाँव की सीमा तक तुम्हें ले आयी हँू
और सच-सच बताऊँ तुझे कनु साँवरे !
िक उस समय मैं िबलकुल भूल गयी हँू
िक मैं िकतनी छोटी हँू
और तुम वही कान्हा हो
जो सारे वृन्दावन को
जलूलय से बचाने की सामथ्यर् रखते हो,
और मुझे केवल यही लगा है
िक तुम एक छोटे -से िशशु हो
असहाय, वषार् में भीग-भीग कर
मेरे आँचल में दबक
ु े हए
ु
िकन्तु दसरे
ू ही क्षण
जब तुम ने वेतसलता-कुंज में
गहराती हई
ु गोधूिल वेला में
आम के एक बौर को चूर-चूर कर धीमे से
अपनी एक चुटकी में भर कर
मेरे सीमन्त पर िबखेर िदया
तो मैं हतूभ रह गयी
मुझे लगा इस िनिखल पारावार में
शिक्त-सी, ज्योित-सी, गित-सी
फैली हई
ु मैं
अकःमात ् िसमट आयी हँू
सीमा में बँध गयी हँू
ऐसा क्यों चाहा तुमने कान्ह?
पर जब मुझे चेत हआ
ु
तो मैंने पाया िक हाय सीमा कैसी
मैं तो वह हँू िजसे िदग्वधू कहते हैं , कालवधू-
समय और िदशाओं की सीमाहीन पगडं िडयों पर
अनन्त काल से, अनन्त िदशाओं में
तुम्हारे साथ-साथ चलती आ रही हँू , चलती
चली जाऊँगी…..
ु हो
पर तुम इतने िनठर
और इतने आतुर िक
तुमने चाहा है िक मैं इसी जन्म में
इसी थोड़-सी अविध में जम्नजन्मांतर की
समःत याऽाएँ िफर से दोहरा लूँ
और इसी िलए सम्बन्धों की इस घुमावदार पगडं डी पर
क्षण-क्षण पर तुम्हारे साथ
मुझे इतने आकिःमक मोड़ लेने पड़े हैं
िक मैं िबलकुल भूल ही गयी हँू िक
मैं अब कहाँ हँू
और तुम मेरे कौन हो
और इस िनराधार भूिम पर
चारों ओर से पूछे जाते हए
ु ूश्नों की बौछार से
घबरा कर मैंने बार-बार
तुम्हें शब्दों के फूलपाश में जकड़ना चाहा है ।
सखा-बन्धु-आराध्य
िशशु-िदव्य-सहचर
और अपने को नयी व्याख्याएँ दे नी चाही हैं
सखी-सािधका-बान्धवी-
माँ-वधू-सहचरी
और मैं बार-बार नये-नये रूपों में
उमड़- उ ड कर
तुम्हारे तट तक आयी
और तुम ने हर बार अथाह समुि की भाँित
मुझे धारण कर िलया-
िवलीन कर िलया-
िफर भी अकूल बने रहे
हाँ चन्दन,
तुम्हारे िशिथल आिलंगन में
मैंने िकतनी बार इन सबको रीतता हआ
ु पाया है
मुझे ऐसा लगा है
जैसे िकसी ने सहसा इस िजःम के बोझ से
मुझे मुक्त कर िदया है
और इस समय मैं शरीर नहीं हँू …
मैं माऽ एक सुगन्ध हँू -
आधी रात में महकने वाले इन रजनीगन्धा के फूलों की
ूगाढ़, मधुर गन्ध -
आकारहीन, वणर्हीन, रूपहीन…
–
और मान लो न भी रीते
और मैं ऐसी ही बनी रहँू तो
तो क्या?
मेरे हर बावलेपन पर
कभी िखन्न हो कर, कभी अनबोला ठानकर, कभी हँ स कर
तुम जो प्यार से अपनी बाँहों में कस कर
बेसुध कर दे ते हो
उस सुख को मैं छोड़ँू क्यों?
करूँगी!
बार-बार नादानी करूँगी
तुम्हारी मुँहलगी, िजद्दी, नादान िमऽ भी तो हँू न!
–
आम का वह पहला बौर
मौसम का पहला बौर था
ू , ताजा सवर्ूथम!
अछता
मैंने िकतनी बार तुम में डब
ू -डब
ू कर कहा है
िक मेरे ूाण! मुझे िकतना गुमान है
िक मैंने तुम्हें जो कुछ िदया है
ू
वह सब अछता था, ताजा था,
सवर्ूथम ूःफुटन था
तो क्या तुम्हारे पास की डार पर िखली
तुम्हारे कन्धों पर झुकी
वह आम की ताजी, क्वाँरी, तुशर् मंजरी मैं ही थी
और तुम ने मुझ से ही मारी माँग भरी थी!
यमुना के घाट पर
ु
मछओं ने अपनी नावें बाँध दीं
और कंधों पर पतवारें रख चले गये -
मैं नहीं आयी
पर मेरे ूाण
यह क्यों भूल जाते हो िक मैं वही
बावली लड़की हँू न जो - कदम्ब के नीचे बैठ कर
जब तुम पोई की जंगली लतरों के पके फलों को
तोड़ कर, मसल कर, उन की लाली से मेरे पाँवों को
महावर रचने के िलए अपनी गोद में रखते हो
तो मैं लाज से धनुष की तरह दोहरी हो जाती हँू
और अपने पाँव पूरे बल से समेट कर खींच लेती हँू
अपनी दोनों बाँहों में अपने घुटने कस
मुँह फेर कर िनश्चल बैठ जाती हँू
पर शाम को जब घर आती हँू तो
िनभृत एकांत में दीपक के मन्द आलोक में
अपने उन्हीं चरणों को
अपलक िनहारती हँू
बावली-सी उन्हें प्यार करती हँू
जल्दी-जल्दी में अधबनी उन महावर की रे खाओं को
चारों ओर दे ख कर धीमे-से
चूम लेती हँू ।
–
रात गहरा गई है
और तुम चले गए हो
और मैं िकतनी दे र तक बाँह से
उसी आॆ डाली को घेरे चुपचाप रोती रही हँू
िजस पर िटक कर तुम मेरी ूतीक्षा करते हो
एक अज्ञात भय,
अपिरिचत संशय,
आमह भरा गोपन,
और सुख के क्षण
में भी िघर आने वाली िनव्यार्ख्या उदासी-
ओ पथ के िकनारे खड़े
छायादार पावन अशोक वृक्ष
तुम यह क्यों कहते हो िक
तुम मेरे चरणों के ःपशर् की ूतीक्षा में
जन्मों से पुंपहीन खड़े थे
कनुिूया (पूवरर् ाग - दस
ू रा गीत)
यह जो अकःमात ्
आज मेरे िजःम के िसतार के
एक-एक तार में तुम झंकार उठे हो -
सच बतलाना मेरे ःविणर्म संगीत
तुम कब से मुझ में िछपे सो रहे थे।
"तुमल
ु कोलाहल कलह में
मैं हृदय की बात रे मन!
िचर-िवषाद-िवलीन मन की,
इस व्यथा के ितिमर-वन की;
मैं उषा-सी ज्योित-रे खा,
कुसुम-िवकिसत ूात रे मन!
ूयाणगीत
िहमािि तुग
ं ौृग
ं से ूबुद्ध शुद्ध भारती -
ःवयंूभा समुज्जवला ःवतंऽता पुकारती -
अमत्यर् वीर पुऽ हो, दृढ़-ूितज्ञ सोच लो,
ूशःत पुण्य पंथ हैं - बढ़े चलो बढ़े चलो।
जय जय जय जननी। जय जय जय जननी।
जय जननी, जय जन्मदाियनी।
िवश्व विन्दनी लोक पािलनी।
दे िव पावर्ती, शिक्त शािलनी।
जय जय जय जननी। जय जय जय जननी।
जय जय जय जननी। जय जय जय जननी।
सवर्रिक्षका, अन्नपूणार्।
महामािननी, महामयी मां।
ज्योतोरूिपणी, पथूदिशर्नी।
जय जय जय जननी। जय जय जय जननी।
िसंहवािहनी, शस्तर्धािरणी।
पापभंिजनी, मुिक्तकािरणी।
मिहषासुरमिदर् नी, िवजियनी।
जय जय जय जननी। जय जय जय जननी।
यादगारों के साये
जीवन दीप
मेरा एक दीप जलता है ।
अंिधयारों में ूखर ूज्ज्विलत,
तूफानों में अचल, अिवचिलत,
यह दीपक अिविजत, अपरािजत।
मेरे मन का ज्योितपुंज
जो जग को ज्योितमर्य करता है ।
मेरा एक दीप जलता है ।
यह िवशाल ॄह्मांड
यहाँ मैं लघु हँू
लेिकन हीन नहीं हँू ।
मैं पदाथर् हँू
ऊजार् का भौितकीकरण हँू ।
नश्वर हँू ,
पर क्षीण नहीं हँू ।
मैं हँू अपना अहम
शिक्त का अिमट ॐोत, जो
न्यूटन के िसद्धान्त सरीखा
परम सत्य है ,
सुन्दर है , िशव है शाश्वत है ।
मेरा यह िवश्वास िनरन्तर
मेरे मानस में पलता है ।
मेरा एक दीप जलता है ।
ूवासी गीत
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर;
जहाँ अभी तक बाट तक रही
ज्योितहीन गीले नयनों से
(िजनमें हैं भिवंय के सपने
कल के ही बीते सपनों से),
आँचल में मातृत्व समेटे,
ू
माँ की क्षीण, टटती काया।
वृद्ध िपता भी थका परािजत
िकन्तु ूवासी पुऽ न आया।
साँसें भी बोिझल लगती हैं
उस बूढ़ी दबर्
ु ल छाती पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर;
जहाँ बहन की कातर आँखें
ताक रही हैं नीला अम्बर।
आँसू से िमट गई उसी की
सजी हई
ु अल्पना द्वार पर।
सूना रहा दज
ू का आसन,
चाँद सरीखा भाई न आया।
अपनी सीमाओं में बंदी,
एक ूवासी लौट न पाया।
सूख गया रोचना हाँथ में,
िबखर गये चावल के दाने।
छोटी बहन उदास, रुवासी,
भैया आये नहीं मनाने।
अब तो िकतनी धूल जम गई
राखी की रे शम डोरी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
िकतना िवषम, िववश है जीवन!
रोज़गार के िकतने बन्धन!
केवल एक पऽ आया है ,
छोटा सा संदेश आया है ,
बहत
ु व्यःत हैं , आ न सकेंगे।
शायद अगले साल िमलेंगे।
एक वषर् की और ूतीक्षा,
ममता की यह िवकट परीक्षा।
धीरे धीरे िदये बुझ रहे
हैं आशाओं की दे हरी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
अगला साल कहाँ आता है
आिखर सब कुछ खो जाता है
अन्तराल की गहराई में।
जीवन तो चलता रहता है
भीड़ भाड़ की तनहाई में।
नई नई मिहिफ़लें लगेंगी,
नये दोःत अहबाब िमलेंगे।
इस िमथ्या माया नगरी में
नये साज़ो-सामान सजेंगे।
लेिकन िफर वह बात न होगी,
जो अपने हैं , वह न रहें गे।
घर का वह माहौल न होगा,
ये बीते क्षण िमल न सकेंगे।
वतर्मान तो जल जाता है
काल दे वता की काठी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
जहाँ अभी भी प्यार िमलेगा,
रूठे तो मनुहार िमलेगा,
अपने सर की कसम िमलेगी,
नाज़ुक सा इसरार िमलेगा।
होली और िदवाली होगी,
राखी का त्योहार िमलेगा।
सावन की बौछार िमलेगी,
मधुिरम मेघ-मल्हार िमलेगा।
धुनक धुनक ढोलक की धुन पर
कजरी का उपहार िमलेगा।
एक सरल संसार िमलेगा,
एक ठोस आधार िमलेगा
एक अटल िवश्वास जगेगा,
अपनी ूामािणक हःती पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
पूरी होती नहीं ूतीक्षा,
कभी ूवासी लौट न पाये।
िकतना रोती रही यशोदा,
गये द्वारका ँयाम न आये।
द्शरथ गए िसधार िचता, पर
राम गए वनवास, न आये।
िकतने रक्षाबन्धन बीते,
भैया गये िवदे श, न आये।
अम्बर एक, एक है पृथ्वी,
िफर भी दे श-दे श दरी
ू पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
जहाँ ूतीक्षा करते करते
सूख गई आँसू की सिरता।
उद्वे िलत, उत्पीिड़त मन के
आहत सपनों की आकुलता।
तकते तकते बाट, िचता पर।
राख हो गई माँ की ममता।
दरू गगन के पार गई वह
आँखों में ले िसफर् िववशता।
एक फूल ही अिपर्त कर दें
उस सूखी, जजर्र अःथी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
जहाँ अभी वह राख िमलेगी,
िजसमें िनिहत एक ःनेिहल छिव,
ःमृितयों के कोमल ःवर में
मधुर मधुर लोरी गायेगी।
और उसी आँचल में िछप कर,
िकसी ूवासी मन की पीड़ा,
युगों युगों की यह व्याकुलता,
िपघल िपघल कर बह जायेगी।
एक अलौिकक शािन्त िमलेगी।
आँख मूँद कर सो जायेंगे,
सर रख कर माँ की िमट्टी पर।
चलो, घर चलें,
लौट चलें अब उस धरती पर।
प्यार का नाता
बादल को िघरते दे खा है
अमल धवल िगिर के िशखरों पर,
बादल को िघरते दे खा है ।
छोटे -छोटे मोती जैसे
उसके शीतल तुिहन कणों को,
मानसरोवर के उन ःविणर्म
कमलों पर िगरते दे खा है ,
बादल को िघरते दे खा है ।
दगर्
ु म बफार्नी घाटी में
शत-सहॐ फुट ऊँचाई पर
अलख नािभ से उठने वाले
िनज के ही उन्मादक पिरमल-
के पीछे धािवत हो-होकर
तरल-तरुण कःतूरी मृग को
अपने पर िचढ़ते दे खा है ,
बादल को िघरते दे खा है ।
कहाँ गय धनपित कुबेर वह
कहाँ गई उसकी वह अलका
नहीं िठकाना कािलदास के
व्योम-ूवाही गंगाजल का,
ढँू ढ़ा बहत
ु िकन्तु लगा क्या
मेघदत
ू का पता कहीं पर,
कौन बताए वह छायामय
बरस पड़ा होगा न यहीं पर,
जाने दो वह किव-किल्पत था,
मैंने तो भीषण जाड़ों में
नभ-चुंबी कैलाश शीषर् पर,
महामेघ को झंझािनल से
गरज-गरज िभड़ते दे खा है ,
बादल को िघरते दे खा है ।
शत-शत िनझर्र-िनझर्रणी कल
मुखिरत दे वदारु कनन में,
शोिणत धवल भोज पऽों से
छाई हई
ु कुटी के भीतर,
रं ग-िबरं गे और सुगंिधत
फूलों की कुंतल को साजे,
इं िनील की माला डाले
शंख-सरीखे सुघड़ गलों में,
कानों में कुवलय लटकाए,
शतदल लाल कमल वेणी में,
रजत-रिचत मिण खिचत कलामय
पान पाऽ िाक्षासव पूिरत
रखे सामने अपने-अपने
लोिहत चंदन की िऽपटी पर,
नरम िनदाग बाल कःतूरी
मृगछालों पर पलथी मारे
मिदरारुण आखों वाले उन
उन्मद िकन्नर-िकन्निरयों की
मृदल
ु मनोरम अँगुिलयों को
वंशी पर िफरते दे खा है ।
बादल को िघरते दे खा है ।
कौन तुम मेरे हृदय में?
ितिमर-पारावार में
आलोक-ूितमा है अकिम्पत;
आज ज्वाला से बरसता
क्यों मधुर घनसार सुरिभत?
सुन रही हँू एक ही
झंकार जीवन में, ूलय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?
मूक सुख-दख
ु कर रहे
मेरा नया ौृग
ं ार-सा क्या?
झूम गिवर्त ःवगर् दे ता -
नत धरा को प्यार-सा क्या?
आज पुलिकत सृिष्ट क्या
करने चली अिभसार लय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?
मेरे दीपक
िम
ु के अंग हिरत कोमलतम,
ज्वाला को करते हृदयंगम;
वसुधा के जड़ अंतर में भी,
बन्दी नहीं है तापों की हलचल!
िबखर-िबखर मेरे दीपक जल!
दसरी
ू होगी कहानी
शून्य में िजसके िमटे ःवर, धूिल में खोई िनशानी;
आज िजसपर प्यार िविःमत,
मैं लगाती चल रही िनत,
मोितयों की हाट औ, िचनगािरयों का एक मेला!
हास का मधु-दत
ू भेजो,
रोष की ॅूभिं गमा पतझार को चाहे सहे जो;
ले िमलेगा उर अचंचल
वेदना-जल ःवप्न-शतदल,
जान लो, वह िमलन-एकाकी िवरह में है दक
ु े ला!
िूय िचरन्तन है सजिन