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शीमद
भग वदगीता
माहातमय - शो क -
अनु वाद
(अनुकम)
पूजय बाप ू क ा प ावन सनद ेश
हम धनवान होगे या नहीं, यशसवी होगे या नहीं, चुनाव जीतेगे या नहीं इसमे शंका हो
सकती है परनतु भैया ! हम मरे गे या नहीं इसमे कोई शंका है ? िवमान उडने का समय िनिित
होता है , बस चलने का समय िनिित होता है , गाडी छूटने का समय िनिित होता है परनतु इस
जीवन की गाडी के छूटने का कोई िनिित समय है ?
आज तक आपने जगत का जो कुछ जाना है , जो कुछ पाप िकया है .... आज के बाद जो
जानोगे और पाप करोगे, पयारे भैया ! वह सब मतृयु के एक ही झटके मे छूट जायेगा, जाना
अनजाना हो जायेगा, पािप अपािप मे बदल जायेगी।
अतः सावधान हो जाओ। अनतमुख
ु होकर अपने अिवचल आतमा को, िनजसवरप के
अगाध आननद को, शाशत शांित को पाप कर लो। ििर तो आप ही अिवनाशी आतमा हो।
जागो.... उठो..... अपने भीतर सोये हुए िनियबल को जगाओ। सवद
ु े श, सवक
ु ाल मे सवोतम
आतमबल को अिजत
ु करो। आतमा मे अथाह सामथयु है । अपने को दीन-हीन मान बैठे तो िवश
मे ऐसी कोई सता नहीं जो तुमहे ऊपर उठा सके। अपने आतमसवरप मे पितिित हो गये तो
ििलोकी मे ऐसी कोई हसती नहीं जो तुमहे दबा सके।
सदा समरण रहे िक इधर-उधर विृतयो के साथ तुमहारी शिि भी िबखरती रहती है । अतः
विृतयो को बहकाओ नहीं। तमाम विृतयो को एकिित करके साधना-काल मे आतमिचनतन मे
लगाओ और वयवहार काल मे जो कायु करते हो उसमे लगाओ। दतिचत होकर हर कोई कायु
करो। सदा शानत विृत धारण करने का अभयास करो। िवचारवनत और पसनन रहो। जीवमाि को
अपना सवरप समझो। सबसे सनेह रखो। िदल को वयापक रखो। आतमिनिा मे जगे हुए
महापुरषो के सतसंग तथा सतसािहतय से जीवन की भिि और वेदानत से पुष तथा पुलिकत
करो।
(अनुकम)
अनुकम
पूजय बापू का पावन संदेश। शीमदभगवदगीता के जानने योगय िवचार।
शीमदभगवदगीता का माहातमय। शीगीतामाहातमय का अनुसध
ं ान।
गीता मे शीकृ षण भगवान के नामो के अथ।ु अजुन
ु के नामो के अथ।ु
शीमद भगवदगीता। पहले अधयाय का पहला अधयायःअजुन
ु िवषादयोग।
माहातमय।
दस
ू रे अधयाय का माहातमय। दस
ू रा अधयायः सांखय योग।
तीसरे अधयाय का माहातमय। तीसरा अधयायः कमय
ु ोग।
चौथे अधयाय का माहातमय। अधयाय चौथाः जानकमस
ु नयासयोग।
पाँचवे अधयाय का माहातमय। पाँचवाँ अधयायः कमस
ु न
ं यासयोग।
छठे अधयाय का माहातमय। छठा अधयायः आतमसंयमयोग।
सातवे अधयाय का माहातमय। सातवां अधयायः जान िवजानयोग।
आठवे अधयाय का माहातमय। आठवाँ अधयायः अकर बहयोग।
नौवे अधयाय का माहातमय। नौवाँ अधयायः राजिवदाराजगुहयोग।
दसवे अधयाय का माहातमय। दसवाँ अधयायः िवभूितयोग।
गयारहवे अधयाय का माहातमय। गयारहवाँ अधयायः िवशरपदशन
ु योग।
बारहवे अधयाय का माहातमय। बारहवाँ अधयायः भिियोग।
तेरहवे अधयाय का माहातमय। तेरहवाँ अधयायः केिकिजिवभागयोग।
चौदहवे अधयाय का माहातमय। चौदहवाँ अधयायः गुणियिवभागयोग।
पंदहवे अधयाय का माहातमय। पंदहवाँ अधयायः पुरषोतमयोग।
सोलहवे अधयाय का माहातमय। सोलहवाँ अधयायः दै वासुरसंपििभागयोग।
सिहवे अधयाय का माहातमय। सिहवाँ अधयायः शदाियिवभागयोग।
अठारहवे अधयाय का माहातमय। अठारहवाँ अधयायः मोकसंनयासयोग।
शीमद भगवदग ीता के िवषय मे जान ने योगय िवच ार
गीता म े ह दयं पा थु गीता म े सारम ुतमम।्
गीता म े जानमतय ुग ं गीता म े जानमवययम। ् ।
गीता म े चोतम ं स थान ं गीता म े पर मं पदम।्
गीता म े पर मं ग ुह ं गीता म े पर मो गुरः।।
गीता मेरा हदय है । गीता मेरा उतम सार है । गीता मेरा अित उग जान है । गीता मेरा
अिवनाशी जान है । गीता मेरा शि
े िनवाससथान है । गीता मेरा परम पद है । गीता मेरा परम
रहसय है । गीता मेरा परम गुर है ।
भगवान शी क ृषण
गीता स ुगीता कत ु वया िकम नयैः शासिवसतर ै ः।
या सवय ं पदनाभसय मुखपदािििनः सृ ता।।
जो अपने आप शीिवषणु भगवान के मुखकमल से िनकली हुई है वह गीता अचछी तरह
कणठसथ करना चािहए। अनय शासो के िवसतार से कया लाभ?
मह िष ु वयास
गेय ं गीतानामसह सं धय ेय ं श ीपितरपमज सम।्
नेय ं स जजनस ंग े िच तं द ेय ं दीनज नाय च िवतम।।
गाने योगय गीता तो शी गीता का और शी िवषणुसहसनाम का गान है । धरने योगय तो
शी िवषणु भगवान का धयान है । िचत तो सजजनो के संग िपरोने योगय है और िवत तो दीन-
दिुखयो को दे ने योगय है ।
शीमद आद श ंकराचाय ु
गीता मे वेदो के तीनो काणड सपष िकये गये है अतः वह मूितम
ु ान वेदरप है और उदारता
मे तो वह वेद से भी अिधक है । अगर कोई दस
ू रो को गीतागंथ दे ता है तो जानो िक उसने लोगो
के िलए मोकसुख का सदावत खोला है । गीतारपी माता से मनुषयरपी बचचे िवयुि होकर भटक
रहे है । अतः उनका िमलन कराना यह तो सवु सजजनो का मुखय धमु है ।
संत जान ेशर
'शीमद भगवदगीता' उपिनषदरपी बगीचो मे से चुने हुए आधयाितमक सतयरपी पुषपो से
गुथ
ँ ा हुआ पुषपगुचछ है । (अनुकम)
सवामी िवव ेकाननद
इस अदभुत गनथ के 18 छोटे अधयायो मे इतना सारा सतय, इतना सारा जान और इतने
सारे उचच, गमभीर और साििवक िवचार भरे हुए है िक वे मनुषय को िनमन-से-िनमन दशा मे से
उठा कर दे वता के सथान पर िबठाने की शिि रखते है । वे पुरष तथा िसयाँ बहुत भागयशाली है
िजनको इस संसार के अनधकार से भरे हुए सँकरे मागो मे पकाश दे ने वाला यह छोटा-सा लेिकन
अखूट तेल से भरा हुआ धमप
ु दीप पाप हुआ है ।
महामना मा लवीय जी
एक बार मैने अपना अंितम समय नजदीक आया हुआ महसूस िकया तब गीता मेरे िलए
अतयनत आशासनरप बनी थी। मै जब-जब बहुत भारी मुसीबतो से ििर जाता हूँ तब-तब मै
गीता माता के पास दौडकर पहुँच जाता हूँ और गीता माता मे से मुझे समाधान न िमला हो ऐसा
कभी नहीं हुआ है ।
महातमा ग ाँधी
जीवन के सवाग
ा ीण िवकास के िलए गीता गंथ अदभुत है । िवश की 578 भाषाओं मे गीता
का अनुवाद हो चुका है । हर भाषा मे कई िचनतको, िविानो और भिो ने मीमांसाएँ की है और
अभी भी हो रही है , होती रहे गी। कयोिक इस गनथ मे सब दे शो, जाितयो, पंथो के तमाम मनुषयो
के कलयाण की अलौिकक सामगी भरी हुई है । अतः हम सबको गीताजान मे अवगाहन करना
चािहए। भोग, मोक, िनलप
े ता, िनभय
ु ता आिद तमाम िदवय गुणो का िवकास करने वाला यह गीता
गनथ िवश मे अििितय है ।
पूजयपाद सवा मी श ी लीलाशाहजी म हार ाज
पाचीन युग की सवु रमणीय वसतुओं मे गीता से शि
े कोई वसतु नहीं है । गीता मे ऐसा
उतम और सववुयापी जान है िक उसके रचियता दे वता को असंखय वषु हो गये ििर भी ऐसा
दस
ू रा एक भी गनथ नहीं िलखा गया है ।
अमेिरकन म हातमा थ ॉरो
थॉरो के िशषय, अमेिरका के सुपिसद सािहतयकार एमसन
ु को भी गीता के िलए, अदभुत
आदर था। 'सवु भुत ेष ु चात मा नं सव ु भूतािन चातमिन ' यह शोक पढते समय वह नाच उठता
था।
बाईबल का मैने यथाथु अभयास िकया है । उसमे जो िदवयजान िलखा है वह केवल गीता
के उदरण के रप मे है । मै ईसाई होते हुए भी गीता के पित इतना सारा आदरभाव इसिलए
रखता हूँ िक िजन गूढ पशो का समाधान पािातय लोग अभी तक नहीं खोज पाये है , उनका
समाधान गीता गंथ ने शुद और सरल रीित से िदया है । उसमे कई सूि अलौिकक उपदे शो से
भरपूर लगे इसीिलए गीता जी मेरे िलए साकात ् योगेशरी माता बन रही है । वह तो िवश के
तमाम धन से भी नहीं खरीदा जा सके ऐसा भारतवषु का अमूलय खजाना है । (अनुकम)
एि .एच.मोल ेम (इंगल ै नड )
भगवदगीता ऐसे िदवय जान से भरपूर है िक उसके अमत
ृ पान से मनुषय के जीवन मे
साहस, िहममत, समता, सहजता, सनेह, शािनत और धमु आिद दै वी गुण िवकिसत हो उठते है , अधमु
और शोषण का मुकाबला करने का सामथयु आ जाता है । अतः पतयेक युवक-युवती को गीता के
शोक कणठसथ करने चािहए और उनके अथु मे गोता लगा कर अपने जीवन को तेजसवी बनाना
चािहए।
पूजयपाद स ंत श ी आसारामजी बाप ू
शी गण े शा य नमः
(अनुकम)
अजुु न के नामो के अथ ु
अनिः पापरिहत, िनषपाप। किपधवज ः िजसके धवज पर किप माने हनुमान जी है वह।
कुरश े िः कुरकुल मे उतपनन होने वालो मे शि
े । कुरन नदनः कुरवंश के राजा के पुि।
कुरपवीरः कुरकुल मे जनमे हुए पुरषो मे िवशेष तेजसवी। कौ नतेयः कुंती का पुि। गुडाकेश ः
िनदा को जीतने वाला, िनदा का सवामी अथवा गुडाक माने िशव िजसके सवामी है वह। धनंजयः
िदिगवजय मे सवु राजाओं को जीतने वाला। धनु धु रः धनुष को धारण करने वाला। परंतपः
परम तपसवी अथवा शिुओं को बहुत तपाने वाला। पा थु ः पथ
ृ ा माने कुंती का पुि। पुरषवया घः
पुरषो मे वयाघ जैसा। पुरष षु भः पुरषो मे ऋषभ माने शि
े । पाणडव ः पाणडु का पुि। भरत शे ि ः
भरत के वंशजो मे शि
े । भरतसतम ः भरतवंिशयो मे शि
े । भरत षु भः भरतवंिशयो मे शि
े ।
भारतः भा माने बहिवदा मे अित पेमवाला अथवा भरत का वंशज। महाबाह ु ः बडे हाथो वाला।
सवयसािचन ् बाये हाथ से भी सरसनधान करने वाला। (अनुकम)
ॐॐॐॐॐॐॐॐ
शीमद भगवदगी ता
पहले अ धयाय का माहा तमय
शी पाव ु ती जी न े क हाः भगवन ् ! आप सब तिवो के जाता है । आपकी कृ पा से मुझे
शीिवषणु-समबनधी नाना पकार के धमु सुनने को िमले, जो समसत लोक का उदार करने वाले है ।
दे वेश ! अब मै गीता का माहातमय सुनना चाहती हूँ, िजसका शवण करने से शीहिर की भिि
बढती है ।
शी महाद े वजी बोल े ः िजनका शीिवगह अलसी के िूल की भाँित शयाम वणु का है ,
पिकराज गरड ही िजनके वाहन है , जो अपनी मिहमा से कभी चयुत नहीं होते तथा शेषनाग की
शयया पर शयन करते है , उन भगवान महािवषणु की हम उपासना करते है ।
एक समय की बात है । मुर दै तय के नाशक भगवान िवषणु शेषनाग के रमणीय आसन
पर सुखपूवक
ु िवराजमान थे। उस समय समसत लोको को आननद दे ने वाली भगवती लकमी ने
आदरपूवक
ु पश िकया।
शीलक मीजी ने प ूछाः भगवन ! आप समपूणु जगत का पालन करते हुए भी अपने
ऐशयु के पित उदासीन से होकर जो इस कीरसागर मे नींद ले रहे है , इसका कया कारण है ?
शीभ गवान बोल े ः सुमिु ख ! मै नींद नहीं लेता हूँ, अिपतु तिव का अनुसरण करने वाली
अनतदु िष के िारा अपने ही माहे शर तेज का साकातकार कर रहा हूँ। यह वही तेज है , िजसका
योगी पुरष कुशाग बुिद के िारा अपने अनतःकरण मे दशन
ु करते है तथा िजसे मीमांसक िविान
वेदो का सार-तिव िनििचत करते है । वह माहे शर तेज एक, अजर, पकाशसवरप, आतमरप, रोग-
शोक से रिहत, अखणड आननद का पुंज, िनषपनद तथा िै तरिहत है । इस जगत का जीवन उसी के
अधीन है । मै उसी का अनुभव करता हूँ। दे वेशिर ! यही कारण है िक मै तुमहे नींद लेता सा
पतीत हो रहा हूँ।
शीलक मीजी ने कहा ः हिषकेश ! आप ही योगी पुरषो के धयेय है । आपके अितिरि भी
कोई धयान करने योगय तिव है , यह जानकर मुझे बडा कौतूहल हो रहा है । इस चराचर जगत की
सिृष और संहार करने वाले सवयं आप ही है । आप सवस
ु मथु है । इस पकार की िसथित मे होकर
भी यिद आप उस परम तिव से िभनन है तो मुझे उसका बोध कराइये।
शी भग वान बोल े ः िपये ! आतमा का सवरप िै त और अिै त से पथ
ृ क, भाव और अभाव
से मुि तथा आिद और अनत से रिहत है । शुद जान के पकाश से उपलबध होने वाला तथा
परमाननद सवरप होने के कारण एकमाि सुनदर है । वही मेरा ईशरीय रप है । आतमा का एकतव
ही सबके िारा जानने योगय है । गीताशास मे इसी का पितपादन हुआ है । अिमत तेजसवी
भगवान िवषणु के ये वचन सुनकर लकमी दे वी ने शंका उपिसथत करे हुए कहाः भगवन ! यिद
आपका सवरप सवयं परमानंदमय और मन-वाणी की पहुँच के बाहर है तो गीता कैसे उसका बोध
कराती है ? मेरे इस संदेह का िनवारण कीिजए।
शी भग वान बोल े ः सुनदिर ! सुनो, मै गीता मे अपनी िसथित का वणन
ु करता हूँ। कमश
पाँच अधयायो को तुम पाँच मुख जानो, दस अधयायो को दस भुजाएँ समझो तथा एक अधयाय
को उदर और दो अधयायो को दोनो चरणकमल जानो। इस पकार यह अठारह अधयायो की
वाङमयी ईशरीय मूितु ही समझनी चािहए। यह जानमाि से ही महान पातको का नाश करने
वाली है । जो उतम बुिदवाला पुरष गीता के एक या आधे अधयाय का अथवा एक, आधे या
चौथाई शोक का भी पितिदन अभयास करता है , वह सुशमाु के समान मुि हो जाता है ।
शी लक मीजी ने प ूछाः दे व ! सुशमाु कौन था? िकस जाित का था और िकस कारण से
उसकी मुिि हुई? (अनुकम)
शीभ गवान बोल े ः िपय ! सुशमाु बडी खोटी बुिद का मनुषय था। पािपयो का तो वह
िशरोमिण ही था। उसका जनम वैिदक जान से शूनय और कूरतापूणु करने वाले बाहणो के कुल
मे हुआ था वह न धयान करता था, न जप, न होम करता था न अितिथयो का सतकार। वह
लमपट होने के कारण सदा िवषयो के सेवन मे ही लगा रहता था। हल जोतता और पते बेचकर
जीिवका चलाता था। उसे मिदरा पीने का वयसन था तथा वह मांस भी खाया करता था। इस
पकार उसने अपने जीवन का दीिक
ु ाल वयतीत कर िदया। एकिदन मूढबुिद सुशमाु पते लाने के
िलए िकसी ऋिष की वािटका मे िूम रहा था। इसी बीच मे कालरपधारी काले साँप ने उसे डँ स
िलया। सुशमाु की मतृयु हो गयी। तदननतर वह अनेक नरको मे जा वहाँ की यातनाएँ भोगकर
मतृयुलोक मे लौट आया और वहाँ बोझ ढोने वाला बैल हुआ। उस समय िकसी पंगु ने अपने
जीवन को आराम से वयतीत करने के िलए उसे खरीद िलया। बैल ने अपनी पीठ पर पंगु का
भार ढोते हुए बडे कष से सात-आठ वषु िबताए। एक िदन पंगु ने िकसी ऊँचे सथान पर बहुत दे र
तक बडी तेजी के साथ उस बैल को िुमाया। इससे वह थककर बडे वेग से पथ
ृ वी पर िगरा और
मूिचछु त हो गया। उस समय वहाँ कुतूहलवश आकृ ष हो बहुत से लोग एकिित हो गये। उस
जनसमुदाय मे से िकसी पुणयातमा वयिि ने उस बैल का कलयाण करने के िलए उसे अपना
पुणय दान िकया। ततपिात ् कुछ दस
ू रे लोगो ने भी अपने-अपने पुणयो को याद करके उनहे उसके
िलए दान िकया। उस भीड मे एक वेशया भी खडी थी। उसे अपने पुणय का पता नहीं था तो भी
उसने लोगो की दे खा-दे खी उस बैल के िलए कुछ तयाग िकया।
तदननतर यमराज के दत
ू उस मरे हुए पाणी को पहले यमपुरी मे ले गये। वहाँ यह
िवचारकर िक यह वेशया के िदये हुए पुणय से पुणयवान हो गया है , उसे छोड िदया गया ििर वह
भूलोक मे आकर उतम कुल और शील वाले बाहणो के िर मे उतपनन हुआ। उस समय भी उसे
अपने पूवज
ु नम की बातो का समरण बना रहा। बहुत िदनो के बाद अपने अजान को दरू करने
वाले कलयाण-तिव का िजजासु होकर वह उस वेशया के पास गया और उसके दान की बात
बतलाते हुए उसने पूछाः 'तुमने कौन सा पुणय दान िकया था?' वेशया ने उतर िदयाः 'वह िपंजरे मे
बैठा हुआ तोता पितिदन कुछ पढता है । उससे मेरा अनतःकरण पिवि हो गया है । उसी का पुणय
मैने तुमहारे िलए दान िकया था।' इसके बाद उन दोनो ने तोते से पूछा। तब उस तोते ने अपने
पूवज
ु नम का समरण करके पाचीन इितहास कहना आरमभ िकया।
शुक बो लाः पूवज
ु नम मे मै िविान होकर भी िविता के अिभमान से मोिहत रहता था।
मेरा राग-िे ष इतना बढ गया था िक मै गुणवान िविानो के पित भी ईषयाु भाव रखने लगा ििर
समयानुसार मेरी मतृयु हो गयी और मै अनेको ििृणत लोको मे भटकता ििरा। उसके बाद इस
लोक मे आया। सदगुर की अतयनत िननदा करने के कारण तोते के कुल मे मेरा जनम हुआ।
पापी होने के कारण छोटी अवसथा मे ही मेरा माता-िपता से िवयोग हो गया। एक िदन मै गीषम
ऋतु मे तपे मागु पर पडा था। वहाँ से कुछ शि
े मुिन मुझे उठा लाये और महातमाओं के आशय
मे आशम के भीतर एक िपंजरे मे उनहोने मुझे डाल िदया। वहीं मुझे पढाया गया। ऋिषयो के
बालक बडे आदर के साथ गीता के पथम अधयाय की आविृत करते थे। उनहीं से सुनकर मै भी
बारं बार पाठ करने लगा। इसी बीच मे एक चोरी करने वाले बहे िलये ने मुझे वहाँ से चुरा िलया।
ततपिात ् इस दे वी ने मुझे खरीद िलया। पूवक
ु ाल मे मैने इस पथम अधयाय का अभयास िकया
था, िजससे मैने अपने पापो को दरू िकया है । ििर उसी से इस वेशया का भी अनतःकरण शुद
हुआ है और उसी के पुणय से ये ििजशि
े सुशमाु भी पापमुि हुए है ।
इस पकार परसपर वाताल
ु ाप और गीता के पथम अधयाय के माहातमय की पशंसा करके वे
तीनो िनरनतर अपने-अपने िर पर गीता का अभयास करने लगे, ििर जान पाप करके वे मुि हो
गये। इसिलए जो गीता के पथम अधयाय को पढता, सुनता तथा अभयास करता है , उसे इस
भवसागर को पार करने मे कोई किठनाई नहीं होती। (अनुकम)
।। अथ िित ीयोऽध या यः ।।
संजय उ वाच
तं तथा क ृपयािवषमश ु पूणा ु कुल ेकणम।्
िवषीद नतिम दं वाकयम ुवाच म धुस ूदनः।। 1।।
संजय बोलेः उस पकार करणा से वयाप और आँसूओं से पूणु तथा वयाकुल नेिो वाले
शोकयुि उस अजुन
ु के पित भगवान मधुसूदन ने ये वचन कहा।(1)
शीभगवान ुवाच
कुतसतवा कश मलिम दं िवषम े सम ुपिसथ तम।्
अना यु जुष मसवगय ु मकीित ु करमज ु न।। 2।।
कलैबय ं म ा सम गम ः पाथ ु नैतिव ययुपपदत े।
कुद ं हदयदौब ु लयं तयिवोिति पर ं तप।। 3।।
शी भगवान बोलेः हे अजुन
ु ! तुझे इस असमय मे यह मोह िकस हे तु से पाप हुआ?
कयोिक न तो यह शि
े पुरषो िारा आचिरत है , न सवगु को दे ने वाला है और न कीितु को करने
वाला ही है । इसिलए हे अजुन
ु ! नपुंसकता को मत पाप हो, तुझमे यह उिचत नहीं जान पडती। हे
परं तप ! हदय की तुचछ दब
ु ल
ु ता को तयागकर युद के िलए खडा हो जा। (2,3)
अजुु न उ वाच
कथं भीष ममह ं स ंखय े दोण च मध ु सूदन।
इषुिभ ः पितयोतसयािम प ू जाहा ु विरस ूदन।। 4।।
अजुन
ु बोलेः हे मधुसूदन ! मै रणभूिम मे िकस पकार बाणो से भीषम िपतामह और
दोणाचायु के िवरद लडू ँ गा? कयोिक हे अिरसूदन ! वे दोनो ही पूजनीय है ।(4)
गुरनहतवा िह म हा नुभावा -
ञछेयो भोि ुं भ ैकयमपीह लोक े।
हतवाथ ु काम ांसत ु ग ुरिनह ैव
भुंजीय भोगान ् रिधरप िदगधान। ् ।5।।
इसिलए इन महानुभाव गुरजनो को न मारकर मै इस लोक मे िभका का अनन भी खाना
कलयाणकारक समझता हूँ, कयोिक गुरजनो को मारकर भी इस लोक मे रिधर से सने हुए अथु
और कामरप भोगो को ही तो भोगूँगा।(5)
न चैत ििदः कतरननो गरीयो -
यिा ज येम यिद वा नो जय ेय ु ः।
यान ेव हतवा न िजजी िवषाम -
सते ऽविसथ ताः प मुख े धात ु राषाः।। 6।।
हम यह भी नहीं जानते िक हमारे िलए युद करना और न करना – इन दोनो मे से
कौन-सा शि
े है , अथवा यह भी नहीं जानते िक उनहे हम जीतेगे या हमको वे जीतेगे और िजनको
मारकर हम जीना भी नहीं चाहते, वे ही हमारे आतमीय धत
ृ राष के पुि हमारे मुकाबले मे खडे है ।
(6) (अनुकम)
काप ु णदोषोपहतसवभाव ः
पृ चछा िम तवा ं ध मु स ममूढच ेता ः।
यचछेयः सयािनन िित ं ब ू िह त नमे
िशषयसत ेऽह ं शा िि मा ं तव ां पप ननम।् । 7।।
इसिलए कायरतारप दोष से उपहत हुए सवभाववाला तथा धमु के िवषय मे मोिहत िचत
हुआ मै आपसे पूछता हूँ िक जो साधन िनिित कलयाणकारक हो, वह मेरे िलए किहए कयोिक मै
आपका िशषय हूँ, इसिलए आपके शरण हुए मुझको िशका दीिजए।
न िह पपशय ािम ममापन ुदा -
दचछोकम ुच छोषणिम िनदयाणाम। ्
अवापय भ ूमाव सपतम ृ दं -
राजय ं सुराण ाम िप चािध पतयम।् ।8।।
कयोिक भूिम मे िनषकणटक, धन-धानयसमपनन राजय को और दे वताओं के सवामीपने को
पाप होकर भी मै उस उपाय को नहीं दे खता हूँ, जो मेरी इिनदयो को सुखाने वाले शोक को दरू
कर सके।
संजय उ वाच
एव मुिवा हिषक े शं ग ुडाके शः परन तप।
न योतस य इ ित गोिव नदम ुिवा त ूषण ीं बभ ूव ह।। 9।।
संजय बोलेः हे राजन ! िनदा को जीतने वाले अजुन
ु अनतयाम
ु ी शीकृ षण महाराज के पित
इस पकार कहकर ििर शी गोिवनद भगवान से 'युद नहीं करँगा' यह सपष कहकर चुप हो गये।
(9)
तमुवा च हिषक े शः प हसिनन व भारत।
सेनयोरभयोम ु धये िवषीदनत िमद ं वच ः।। 10।।
हे भरतवंशी धत
ृ राष ! अनतयाम
ु ी शीकृ षण महाराज ने दोनो सेनाओं के बीच मे शोक करते
हुए उस अजुन
ु को हँ सते हुए से यह वचन बोले।(10)
शी भ गवान ुवाच
अशोचया ननव शोचसतव ं पजावादा ं ि भाषस े।
गतास ूनगता सूंि ना नुशो चिनत प िणडताः।। 11।।
शी भगवान बोलेः हे अजुन
ु ! तू न शोक करने योगय मनुषयो के िलए शोक करता है और
पिणडतो के जैसे वचनो को कहता है , परनतु िजनके पाण चले गये है , उनके िलए और िजनके
पाण नहीं गये है उनके िलए भी पिणडतजन शोक नहीं करते। (11) (अनुकम)
न तव ेवाह ं जात ु नास ं न तव ं न े मे जनािधपाः।
न च ैव न भ िवषयामः स वे वयमतः परम। ् ।12।।
न तो ऐसा ही है िक मै िकसी काल मे नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे
और न ऐसा ही है िक इससे आगे हम सब नहीं रहे गे।(12)
देिहनो ऽिसम नयथा द ेहे कौमार ं यौव नं जरा।
तथा द े हानतरपािपधीरसति न म ु हित।। 13।।
जैसे जीवातमा की इस दे ह मे बालकपन, जवानी और वद
ृ ावसथा होती है , वैसे ही अनय
शरीर की पािप होती है , उस िवषय मे धीर पुरष मोिहत नहीं होता।
मा िासपशा ु सतु कौनत ेय शीतोषणस ुखद ु ःखदाः।
आगमापाियनोऽिनतयासता ंिसत ित कसव भारत।। 14।।
हे कुनतीपुि ! सदी-गमी और सुख-दःुख दे ने वाले इिनदय और िवषयो के संयोग तो
उतपित-िवनाशशील और अिनतय है , इसिलए हे भारत ! उसको तू सहन कर।(14)
यं िह न वयथयनतय ेत े प ुर षं प ुरषष ु भ।
समद ु ःख सुख ं धीर ं सोऽ मृ ततवाय क लपत े।। 15।।
कयोिक हे पुरषशि
े ! दःुख-सुख को समान समझने वाले िजस धीर पुरष को ये इिनदय
और िवषयो के संयोग वयाकुल नहीं करते, वह मोक के योगय होता है ।(15)
नासतो िवदत े भावो नाभाव ो िवदत े स तः।
उभयो रिप दषोऽन तसतवन योसतिवद िश ु िभ ः।। 16।।
असत ् वसतु की सता नहीं है और सत ् का अभाव नहीं है । इस पकार तिवजानी पुरषो
िारा इन दोनो का ही तिव दे खा गया है । (16)
अिवनाश त ु तिििद य ेन सव ु िमद ं त तम।्
िवनाशमवययस यासय न क िितकत ु महु ित ।। 17।।
नाशरिहत तो तू उसको जान, िजससे यह समपूणु जगत दशयवगु वयाप है । इस अिवनाशी
का िवनाश करने मे भी कोई समथु नहीं है । (17)
अनतवन त इम े द ेहा िनतयसयोिाः शरीरणः।
अनािशनोऽपम ेयसय तसमाद ुधयसव भारत।। 18।।
इस नाशरिहत, अपमेय, िनतयसवरप जीवातमा के ये सब शरीर नाशवान कहे गये है ।
इसिलए हे भरतवंशी अजुन
ु ! तू युद कर। (18)
य एन ं व ेित हन तार ं यि ैन ं मन यते ह तम।्
उभौ तौ न िवजानीतो नाय ं हिनत न हनयत े।। 19।।
जो उस आतमा को मारने वाला समझता है तथा जो इसको मरा मानता है , वे दोनो ही
नहीं जानते, कयोिक यह आतमा वासतव मे न तो िकसी को मारता है और न िकसी के िारा मारा
जाता है ।(अनुकम)
न जायत े िियत े वा कदा िच -
नना यं भ ूतवा भ िवता वा न भ ूय ः।
अजो िनतय ः शाशतोऽय ं प ुराणो
न ह नयत े हनयमा ने शरीर े।। 20।।
यह आतमा िकसी काल मे भी न तो जनमता है और न मरता ही है तथा न यह उतपनन
होकर ििर होने वाला ही है कयोिक यह अजनमा, िनतय, सनातन और पुरातन है । शरीर के मारे
जाने पर भी यह नहीं मारा जाता है ।
वेदािवना िशन ं िनतय ं य एनमज मवय यम।्
कथं स पुरषः पा थु कं िातयित ह िनत क म।् । 21।।
हे पथ
ृ ापुि अजुन
ु ! जो पुरष इस आतमा को नाशरिहत िनतय, अजनमा और अवयय जानता
है , वह पुरष कैसे िकसको मरवाता है और कैसे िकसको मारता है ? (21)
वास ांिस जीणा ु िन य था िवहाय
नवािन ग ृ हणा ित नर ोऽ परािण।
तथा शरीरािण िवहाय जीणा ु-
नयनयािन संयाित नवािन देही।। 22।।
जैसे मनुषय पुराने वसो को तयागकर दस
ू रे नये वसो को गहण करता है , वैसे ही
जीवातमा पुराने शरीरो को तयागकर दस
ू रे नये शरीरो को पाप होता है । (22)
नैन िछद िनत शसा िण न ै नं दह ित पावक ः
न च ैन ं कल ेयनतयापो न श ोषयित मारत ः।। 23।।
इस आतमा को शस काट नहीं सकते, इसको आग जला नहीं सकती, इसको जल गला
नहीं सकता और वायु सुखा नहीं सकती।
अचछेदोऽयम दाहोऽयमकल ेदोऽशोषय एव च।
िनतयः स वु गत ः सथान ुरचलो ऽयं सनातनः।। 24।।
कयोिक यह आतमा अचछे द है , यह आतमा अदाहा, अकलेद और िनःसंदेह अशोषय है तथा
यह आतमा िनतय, सववुयािप, अचल िसथर रहने वाला और सनातन है । (24)
अवयिोऽयम िचन तयोऽयमिवकायोऽयम ुचयत े।
तसमाद ेव ं िविदतव ैन ं नान ुशोिच तुमह ु िस।। 25।।
यह आतमा अवयि है , यह आतमा अिचनतय है और यह आतमा िवकाररिहत कहा जाता
है । इससे हे अजुन
ु ! इस आतमा को उपयुि
ु पकार से जानकर तू शोक करने के योगय नहीं है
अथात
ु ् तुझे शोक करना उिचत नहीं है । (25) (अनुकम)
अथ च ैन ं िनतयजात ं िनतय ं वा म नयस े म ृ तम।्
तथािप तव ं म हाबाहो नैव ं शो िचत ुमह ु िस।। 26।।
िकनतु यिद तू इस आतमा को सदा जनमनेवाला तथा सदा मरने वाला मानता है , तो भी
हे महाबाहो ! तू इस पकार शोक करने को योगय नहीं है । (26)
जातसय िह ध ुवो म ृ तयुध ु वं जन म म ृ तसय च।
तसमादपिर हाय े ऽथे न तव ं शो िचत ु महु िस ।। 27।।
कयोिक इस मानयता के अनुसार जनमे हुए की मतृयु िनिित है और मरे हुए का जनम
िनिित है । इससे भी इस िबना उपाय वाले िवषम मे तू शोक करने के योगय नहीं है । (27)
अवयिाद ीिन भ ू तािन वयिमधयािन भारत।
अवयििनधनानय ेव त ि का पिरद ेवना।। 28।।
हे अजुन
ु ! समपूणु पाणी जनम से पहले अपकट थे और मरने के बाद भी अपकट हो जाने
वाले है , केवल बीच मे ही पकट है ििर ऐसी िसथित मे कया शोक करना है ? (28)
आिय ु वतपशयित क ििद ेन -
मा िय ु विदित त थैव चा नयः।
आिय ु वचच ैनम नयः श ु णो ित
शु तवापय ेन ं वेद न च ैव किि त।् । 29।।
कोई एक महापुरष ही इस आतमा को आियु की भाँित दे खता है और वैसे ही दस
ू रा कोई
महापुरष ही इसके तिव का आियु की भाँित वणन
ु करता है तथा दस
ू रा कोई अिधकारी पुरष ही
इसे आियु की भाँित सुनता है और कोई-कोई तो सुनकर भी इसको नहीं जानता। (29)
दे ही िनतयमवधयोऽय ं देहे स वु सय भ ारत।
तसमातसवा ु िण भ ूतािन न तव ं शोिच तुम हु िस।। 30।।
हे अजुन
ु ! यह आतमा सबके शरीरो मे सदा ही अवधय है । इस कारण समपूणु पािणयो के
िलए तू शोक करने के योगय नहीं है । (30)
सवध मु म िप चाव ेकय न िवकिमप तुमह ु िस।
धम ् याु िद य ुदाचछ ेयोऽनयतक िियसय न िवदत े।। 31।।
तथा अपने धमु को दे खकर भी तू भय करने योगय नहीं है अथात
ु ् तुझे भय नहीं करना
चािहए कयोिक कििय के िलए धमय
ु ुि युद से बढकर दस
ू रा कोई कलयाणकारी कतवुय नहीं है ।
(31)
यदचछया चोपप ननं सव गु िारमपाव ृ तम।्
सुिखन ः किियाः पा थु लभ नते य ुदमीदशम। ् ।32।।
हे पाथु ! अपने आप पाप हुए और खुले हुए सवगु के िाररप इस पकार के युद को
भागयवान कििय लोग ही पाते है । (32) (अनुकम)
अथ च ेिव िमम ं ध म ् या संगा मं न क िरषयिस।
ततः सव धम ा की ित ा च िहतवा पापमवापसयिस।। 33।।
िकनतु यिद तू इस धमय
ु ुि युद को नहीं करे गा तो सवधमु और कीितु को खोकर पाप को
पाप होगा।(33)
अकीित ा च ािप भ ूतािन कथ ियषयिनत त े ऽवय याम।्
समभािवत सय चा कीित ु मु रणाद ितिरचयत े।। 34।।
तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने वाली अपकीितु भी कथन करे गे और माननीय
पुरष के िलए अपकीितु मरण से भी बढकर है ।(34)
भयादणा द ु परत ं म ंसयनत े तवा ं म हारथाः।
येष ां च तव ं ब हुमतो भ ूतवा यासयिस लािवम। ् । 35।.
और िजनकी दिष मे तू पहले बहुत सममािनत होकर अब लिुता को पाप होगा, वे
महारथी लोग तुझे भय के कारण युद मे हटा हुआ मानेगे।(35)
अवाचयवादा ंि ब हून ् विदषयिनत तवािह ताः।
िन नदनत सतव सामथय ा ततो द ु ःखतर ं न ु िकम।् । 36।।
तेरे वैरी लोग तेरे सामथयु की िननदा करते हुए तुझे बहुत से न कहने योगय वचन भी
कहे गे। उससे अिधक दःुख और कया होगा?(36)
हतो व पापसयिस सव गा िजतवा वा भोकयस े मही म।्
तस माद ु िति कौनत ेय य ुदा य कृतिन ियः।। 37।।
या तो तू युद मे मारा जाकर सवगु को पाप होगा अथवा संगाम मे जीतकर पथ
ृ वी का
राजय भोगेगा। इस कारण हे अजुन
ु ! तू युद के िलए िनिय करके खडा हो जा।(37)
सुखद ु ःखे स मे कृतवा लाभालाभौ जयाजयौ।
ततो य ुद ाय य ुज यसव न ैव ं पापमवापसयिस।। 38।।
जय-पराजय, लाभ-हािन और सुख-दःुख को समान समझकर, उसके बाद युद के िलए तैयार
हो जा। इस पकार युद करने से तू पाप को नहीं पाप होगा।(38)
एषा त ेऽ िभिह ता सा ंख ये ब ुिदयोग े ितवम ां श ृणु।
बुदय ा य ुिो यया पा थु कम ु ब नधं प हासयिस।। 39।।
हे पाथु ! यह बुिद तेरे िलए जानयोग के िवषय मे कही गयी और अब तू इसको कमय
ु ोग
के िवषय मे सुन, िजस बुिद से युि हुआ तू कमो के बनधन को भलीभाँित तयाग दे गा अथात
ु ्
सवथ
ु ा नष कर डालेगा।(39)
नेहा िभक मन ाशो ऽिसत प तयव ायो न िवदत े।
सवलपमपयसय धम ु सय िायत े मह तो भयात।् ।40।।
इस कमय
ु ोग मे आरमभ का अथात
ु ् बीज का नाश नहीं है और उलटा िलरप दोष भी
नहीं है , बिलक इस कमय
ु ोगरप धमु का थोडा सा भी साधन जनम मतृयुरप महान भय से रका
कर लेता है । (40) (अनुकम)
वयवसायाितमका ब ुिदर ेकेह कु रननदन।
बहुशाखा ह ननताि ब ुदयोऽवयवसाियनाम। ् । 41।।
हे अजुन
ु ! इस कमय
ु ोग मे िनियाितमका बुिद एक ही होती है , िकनतु अिसथर िवचार वाले
िववेकहीन सकाम मनुषयो की बुिदयँ िनिय ही बहुत भेदोवाली और अननत होती है ।(41)
यािमम ां प ुिषपत ां वाच ं पव दनतयिवप िित ः।
वेदवादरताः पाथ ु नानयदसतीित वा िदनः।। 42।।
कामातमानः स वगु परा ज नम कम ु िलप दाम।्
िकयािव शेषबह ु ल ां भोग ै शगु ितं पित।। 43।।
भोग ैशय ु पसिाना ं तयापहत चेतसाम।्
वयवसायाितमका ब ुिद ः समा धौ न िवधीयत े।। 44।।
हे अजुन
ु ! जो भोगो मे तनमय हो रहे है , जो कमि
ु ल के पशंसक वेदवाकयो मे ही पीित
रखते है , िजनकी बुिद मे सवगु ही परम पापय वसतु है और जो सवगु से बढकर दस
ू री कोई वसतु
ही नहीं है - ऐसा कहने वाले है , वे अिववेकी जन इस पकार की िजस पुिषपत अथात
ु ् िदखाऊ
शोभायुि वाणी को कहा करते है जो िक जनमरप कमि
ु ल दे ने वाली और भोग तथा ऐशयु की
पािप के िलए नाना पकार की बहुत सी िकयाओं का वणन
ु करने वाली है , उस वाणी िारा िजनका
िचत हर िलया गया है , जो भोग और ऐशयु मे अतयनत आसि है , उन पुरषो की परमातमा मे
िनियाितमका बुिद नहीं होती। (42, 43, 44)
िै गुणयिव षय ा व ेदा िनस ै गुणयो भवाज ु न।
िनि ु निो िनतयसिवस थो िनयोगक ेम आतमवान। ् ।45।।
हे अजुन
ु ! वेद उपयुि
ु पकार से तीनो गुणो के कायर
ु प समसत भोगो और उनके साधनो
का पितपादन करने वाले है , इसिलए तू उन भोगो और उनके साधनो मे आसििहीन, हषु-शोकािद
िनिो से रिहत, िनतयवसतु परमातमा मे िसथत योग-केम को न चाहने वाला और सवाधीन
अनतःकरण वाला हो।(45)
याव ारनथ ु उदपा ने सव ु त ः समपल ुतोदके।
तावान ् सवे षु व ेदेष ु बाहणसय िवजानतः।। 46।।
सब ओर से पिरपूणु जलाशय के पाप हो जाने पर छोटे जलाशय मे मनुषय का िजतना
पयोजन रहता है , बह को तिव से जानने वाले बाहण का समसत वेदो मे उतना ही पयोजन रह
जाता है ।(46)
कमु ण येवािध कारसत े मा ि लेष ु कदाचन।
मा कम ु ि लहेत ूभ ूु मा त े स ङगोऽसतवक मु िण।। 47।।
तेरा कमु करने मे ही अिधकार है , उनके िलो मे कभी नहीं। इसिलए तू कमो के िल का
हे तु मत हो तथा तेरी कमु न करने मे भी आसिि न हो।(47) (अनुकम)
योगसथ ः कुर कमा ु िण स ङगं तयिवा धन ंजय।
िसदयिसदयोः समो भ ूतवा स मतव ं योग उचयत े।। 48।।
हे धनंजय ! तू आसिि को तयाग कर तथा िसिद और अिसिद मे समान बुिदवाला होकर
योग मे िसथत हुआ कतवुयकमो को कर, समतवभाव ही योग कहलाता है । (48)
द ू रेण ह वरं कम ु बु िदय ोगादन ंजय।
बुदो शरण मिनव चछ कृपणा ः िलह ेतव ः।। 49।।
इस समतव बुिदयोग से सकाम कमु अतयनत ही िनमन शण
े ी का है । इसिलए हे धनंजय !
तू समबुिद मे ही रका का उपाय ढू ँ ढ अथात
ु ् बुिदयोग का ही आशय गहण कर, कयोिक िल के
हे तु बनने वाले अतयनत दीन है ।(49)
बुिदय ुिो जहातीह उ भे स ुकृतद ु ष कृत े।
तसमादोगाय युजयसव योगः कम ु सु कौश लम।् ।50।।
समबुिदयुि पुरष पुणय और पाप दोनो को इसी लोग मे तयाग दे ता है अथात
ु ् उनसे मुि
हो जाता है । इससे तू समतवरप योग मे लग जा। यह समतवरप योग ही कमो मे कुशलता है
अथात
ु ् कमब
ु नधन से छूटने का उपाय है ।(50)
कम ु जं ब ु िदय ुिा िह िल ं तयिवा मनीिषणः।
जनमब नध िविनम ु िाः प दं गच छनतयनामयम। ् । 51।।
कयोिक समबुिद से युि जानीजन कमो से उतपनन होने वाले िल को तयागकर जनमरप
बनधन से मुि हो िनिवक
ु ार परम पद को पाप हो जाते है ।(51)
यदा ते मो हकिल लं ब ुिदवय ु ितत िरषयित।
तदा ग नता िस िनव े दं श ोतवयस य श ु तसय च ।। 52।।
िजस काल मे तेरी बुिद मोहरप दलदल को भली भाँित पार कर जायेगी, उस समय तू
सुने हुए और सुनने मे आने वाले इस लोक और परलोकसमबनधी सभी भोगो से वैरागय को पाप
हो जायेगा।(52)
शु ित िवप ितपनना त े यदा स थासयित िनि ला।
समाधावच ला ब ुिदसतदा योगवापसयिस।। 53।।
भाँित-भाँित के वचनो को सुनने से िवचिलत हुई तेरी बुिद जब परमातमा मे अचल और
िसथर ठहर जायेगी, तब तू योग को पाप हो जायेगा अथात
ु ् तेरा परमातमा से िनतय संयोग हो
जायेगा।(अनुकम)
अजुु न उ वाच
िसथत पजसय का भाषा स मािध सथसय क ेशव।
िसथत धीः िकं पभाष ेत िकमासीत वज ेत िकम।् । 54।।
अजुन
ु बोले हे केशव ! समािध मे िसथत परमातमा को पाप हुए िसथरबुिद पुरष का कया
लकण है ? वह िसथरबुिद पुरष कैसे बोलता है , कैसे बैठता है और कैसे चलता है ?(54)
शीभगवान ुवाच
पज हाित यदा कामानसवा ु नपाथ ु मनोगतान। ्
आत मन येवातमना तुष ः िसथ तपजसतदोचयत े।। 55।।
शी भगवान बोलेः हे अजुन
ु ! िजस काल मे यह पुरष मन मे िसथत समपूणु कामनाओं को
भली भाँित तयाग दे ता है और आतमा से आतमा मे ही संतुष रहता है , उस काल मे वह िसथतपज
कहा जाता है ।(55)
द ु ःखेषवन ुििगनमन ाः स ुख ेष ु िवग तसप ृ ह ः।
वीतरागभयकोध ः िसथत धीम ु िनरचयत े।। 56।।
दःुखो की पािप होने पर िजसके मन पर उिे ग नहीं होता, सुखो की पािप मे जो सवथ
ु ा
िनःसपह
ृ है तथा िजसके राग, भय और कोध नष हो गये है , ऐसा मुिन िसथरबुिद कहा जाता है ।
यः स वु िानिभस नेहसतततपापय शुभाश ु भम।्
नािभन नदित न िेिष तसय पजा पित ििता।। 57।।
जो पुरष सवि
ु सनेह रिहत हुआ उस उस शुभ या अशुभ वसतु को पाप होकर न पसनन
होता है और न िे ष करता है उसकी बुिद िसथर है । (57)
यदा संहरत े चाय ं कूमोऽङ गनीव स वु श ः।
इिनद याणीिनदया थेभयसतसय पजा प ित ििता।। 58।।
और जैसे कछुवा सब ओर से अपने अंगो को समेट लेता है , वैसे ही जब यह पुरष
इिनदयो के िवषयो से इिनदयो के सब पकार से हटा लेता है , तब उसकी बुिद िसथर है । (ऐसा
समझना चािहए)।
िवषया िविनवत ु नते िनराहारस य द े िहनः।
रसव जा रसोऽपयसय पर ं दषटवा िनवत ु ते।। 59।।
इिनदयो के िारा िवषयो को गहण न करने वाले पुरष के भी केवल िवषय तो िनवत
ृ ् हो
जाते है , परनतु उनमे रहने वाली आसिि िनवत
ृ नहीं होती। इस िसथतपज पुरष की तो आसिि
भी परमातमा का साकातकार करके िनवत
ृ हो जाती है । (59)
यततो ह िप कौ नतेय पु रषसय िवप िित ः।
इिनदयािण प माथीिन हरिनत पस भं मनः।। 60।।
हे अजुन
ु ! आसिि का नाश न होने के कारण ये पमथन सवभाव वाली इिनदयाँ यत
करते हुए बुिदमान पुरष के मन को भी बलात ् हर लेती है ।(60) (अनुकम)
तािन स वाु िण स ंयमय य ुि आ सीत मतपरः।
वशे िह यस येिनदयािण त सय पजा प ितिि ता।। 61।।
इसिलए साधक को चािहए िक वह उन समपूणु इिनदयो को वश मे करके समािहतिचत
हुआ मेरे परायण होकर धयान मे बैठे, कयोिक िजस पुरष की इिनदयाँ वश मे होती है , उसी की
बुिद िसथर हो जाती है । (61)
धयायत े िवषयानप ुंसः स ङगसत ेष ूप जायत े।
सङगातस ं जायत े काम ः कामातकोधोऽ िभजायत े।। 62।।
िवषयो का िचनतन करने वालेप
ुरष की उन िवषयो मे आसिि हो जाती है , आसिि से उन
िवषयो की कामना उतपनन होती है और कामना मे िवघन पडने से कोध उतपनन होता है ।(62)
को धाद भ वित सममोह ः सम मोहातसम ृ ित िवभ मः।
सम ृ ितभ ं शाद बुिदनाशो बु िदनाशातपण शयित।। 63।।
कोध से अतयनत मूढभाव उतपनन हो जाता है , मूढभाव से समिृत मे भम हो जाता है ,
समिृत मे भम हो जाने से बुिद अथात
ु ् जानशिि का नाश हो जाता है और बुिद का नाश हो
जाने से यह पुरष अपनी िसथित से िगर जाता है ।(63)
रागि ेषिवय ुिैसत ु िवषयािनिनदय ै िर न।्
आत मवशय ैिव ु धेयातमा प सादम िधग चछित।। 64।।
परनतु अपने अधीन िकये हुए अनतः करणवाला साधक अपने वश मे की हुई, राग-िे ष से
रिहत इिनदयो िारा िवषयो मे िवचरण करता हुआ अनतःकरण की पसननता को पाप होता है ।
(64)
पसाद े सव ु द ु ःखा नां हा िनरसय ोपजायत े।
पस ननच ेतसो हाश ु ब ु िदः पय ु व ितित े।। 65।।
अनतःकरण की पसननता होने पर इसके समपूणु दःुखो का अभाव हो जाता है और उस
पसनन िचतवाले कमय
ु ोगी की बुिद शीघ ही सब ओर से हटकर परमातमा मे ही भली भाँित
िसथर हो जाती है ।(65)
नािसत ब ु िदर युिसय न च ायुिसय भावना।
न च ाभावयतः शा िनतर शानतसय क ुत ः स ुखम।् । 66।।
न जीते हुए मन और इिनदयो वाले पुरष मे िनियाितमका बुिद नहीं होती और उस
अयुि मनुषय के अनतःकरण मे भावना भी नहीं होती तथा भावनाहीन मनुषय को शािनत नहीं
िमलती और शािनतरिहत मनुषय को सुख कैसे िमल सकता है ?(66) (अनुकम)
इिनदयाणा ं िह चरत ां यनमनोऽन ु िवधीयत े।
तद सय हर ित पजा ं वाय ुना ु विमवामभ िस।। 67।।
कयोिक जैसे जल मे चलने वाली नाव को वायु हर लेती है , वैसे ही िवषयो मे िवचरती हुई
इिनदयो मे से मन िजस इिनदय के साथ रहता है वह एक ही इिनदय इस अयुि पुरष की बुिद
को हर लेती है ।(67)
तसमादसय महाबाहो िनग ृ हीतािन स वु श ः।
इिनद याणीिनदया थेभयसतसय पजा प ित ििता।। 68।।
इसिलए हे महाबाहो ! िजस पुरष की इिनदयाँ इिनदयो के िवषयो से सब पकार िनगह की
हुई है , उसी की बुिद िसथर है ।(68)
या िन शा सव ु भूताना ं त सया ं जाग ित ु संयमी।
यसया ं जाग ित भ ू तािन स ा िनशा पशयतो मुन े ः।। 69।।
समपूणु पािणयो के िलए जो रािि के समान है , उस िनतय जानसवरप परमाननद की
पािप मे िसथतपज योगी जागता है और िजन नाशवान सांसािरक सुख की पािप मे सब पाणी
जागते है , परमातमा के तिव को जानने वाले मुिन के िलए वह रािि के समान है ।
आपूय ु माणम चलप िति ं
समुदमाप ः पिव शिनत यित।्
तितकामा य ं पिव शिनत सव े
स शािनत मापनोित न कामकामी।। 70।।
जैसे नाना निदयो के जल सब ओर से पिरपूणु अचल पितिावाले समुद मे उसको
िवचिलत न करते हुए ही समा जाते है , वैसे ही सब भोग िजस िसथतपज पुरष मे िकसी पकार
का िवकार उतपनन िकये िबना ही समा जाते है , वही पुरष परम शािनत को पाप होता है , भोगो
को चाहने वाला नहीं। (70)
िव हा य कामानय ः सवा ु नपु मांिर ित िनः सप ृ हः।
िनम ु मो िनरह ंकारः स शािनत मिधग चछ ित।। 71।।
जो पुरष समपूणु कामनाओं को तयागकर ममतारिहत, अहं कार रिहत और सपह
ृ रिहत हुआ
िवचरता है , वही शािनत को पाप होता है अथात
ु ् वह शािनत को पाप है ।(71)
एषा बाही िसथ ित ः पाथ ु नैना ं पापय िवम ु हित।
िसथतवासयामनत काल ेऽ िप बहिनवा ु णम ृ चछित।। 72।।
हे अजुन
ु ! यह बह को पाप हुए पुरष की िसथित है । इसको पाप होकर योगी कभी
मोिहत नहीं होता और अनतकाल मे भी इस बाही िसथित मे िसथत होकर बहाननद को पाप हो
जाता है ।(अनुकम)
ॐ ततसिदित शीमदभगवदगीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे
शीकृ षणाजुन
ु संवादे सांखययोगो नाम िितीयोऽधयायः।।2।।
इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवदगीता के
शीकृ षण-अजुन
ु संवाद मे 'सांखययोग' नामक िितीय अधयाय समपूणु हुआ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
।। अथ त ृ तीयोऽधयायः ।।
अजुु न उ वाच
जया यसी च ेतक मु णसत े मता ब ुिदज ु नाद ु न।
तितकं क मु िण िोर े म ां िनयोजयिस क े शव।। 1।।
अजुन
ु बोलेः हे जनादु न ! यिद आपको कमु की अपेका जान शि
े मानय है तो ििर हे
केशव ! मुझे भयंकर कमु मे कयो लगाते है ?
वयािम शे णेव वाकय ेन ब ुिद ं मोहयसीव म े।
तदेकं वद िन िितय य ेन श े योऽह माप नुयाम।् । 2।।
आप िमले हुए वचनो से मेरी बुिद को मानो मोिहत कर रह है । इसिलए उस एक बात को
िनिित करके किहए िजससे मै कलयाण को पाप हो जाऊँ।(2)
शीभगवान ुवाच
लोकेऽ िसम िनि िवधा िनिा प ुरा पोिा मयानि।
जान योग ेन स ांखया नां क मु योग ेन योिगनाम। ् । 3।।
शी भगवनान बोलेः हे िनषपाप ! इस लोक मे दो पकार की िनिा मेरे िारा पहले कही
गयी है । उनमे से सांखययोिगयो की िनिा तो जानयोग से और योिगयो की िनिा कमय
ु ोग से
होती है ।(3) (अनुकम)
न कम ु णामनारमभानन ैषकमय ा पुरषोऽश ुत े।
न च सं नयसनाद ेव िसिद ं स मिधग चछित ।। 4।।
मनुषय न तो कमो का आरमभ िकये िबना िनषकमत
ु ा को यािन योगिनिा को पाप होता
है और न कमो के केवल तयागमाि से िसिद यानी सांखयिनिा को ही पाप होता है ।(4)
न िह किि तकणमिप जात ु ितितयकम ु कृत।्
काय ु ते हव शः क मु सव ु ः पकृित जैग ु णै ः।। 5।।
िनःसंदेह कोई भी मनुषय िकसी काल मे कणमाि भी िबना कमु िकये नहीं रहता, कयोिक
सारा मनुषय समुदाय पकृ ित जिनत गुणो िारा परवश हुआ कमु करने के िलए बाधय िकया जाता
है ।
कमे नदयािण स ंयमय य आसत े मन सा स मरन।्
इिनदयाथा ु िनवम ू ढातमा िमथयाचारः स उचयत े।। 6।।
जो मूढबुिद मनुषय समसत इिनदयो को हठपूवक
ु ऊपर से रोककर मन से उन इिनदयो के
िवषयो का िचनतन करता रहता है , वह िमथयाचारी अथात
ु ् दमभी कहा जाता है ।(6)
यिसतव िनदयाणी मनसा िनयमय ारभत े ऽजुु न।
कमे िनदय ै ः कम ु योगम सिः स िव िशषयत े।। 7।।
िकनतु हे अजुन
ु ! जो पुरष मन से इिनदयो को वश मे करके अनासि हुआ समसत
इिनदयो िारा कमय
ु ोग का आचरण करता है , वही शि
े है ।(7)
िनयत ं कुर कम ु तव ं क मु जया यो हक मु णः।
शरीरय ािािप च ते न पिसद येदकम ु ण ः।। 8।।
तू शासिविहत कतवुय कमु कर, कयोिक कमु न करने की अपेका कमु करना शि
े है तथा
कमु न करने से तेरी शरीर िनवाु भी िसद नहीं होगा।(8)
यजाथा ु तकम ु णोऽनयि लोको ऽयं क मु बन धनः।
तद था कम ु कौ नतेय मुिसङ गः स माचर।। 9।।
यज के िनिमत िकये जाने कमो के अितिरि दस
ू रे कमो मे लगा हुआ ही यह मनुषय
समुदाय कमो से बँधता है । इसिलए हे अजुन
ु ! तू आसिि से रिहत होकर उस यज के िनिमत
ही भलीभाँित कतवुय कमु कर।(9)
सहयजाः पजा स ृ षटवा प ुरोवाच पजाप ितः।
अनेन पस िवषयधवम ेष वोऽ िसतवष कामध ुक् ।। 10।।
पजापित बहा ने कलप के आिद मे यज सिहत पजाओं को रचकर उनसे कहा िक तुम
लोग इस यज के िारा विृद को पाप होओ और यह यज तुम लोगो को इिचछत भोग पदान करने
वाला हो।(10) (अनुकम)
देवानभावयतान ेन त े द ेवा भावयनत ु व ः।
परसपर ं भावयनत ः श े यः परमवापसयथ।। 11।।
तुम लोग इस यज के िारा दे वताओं को उननत करो और वे दे वता तुम लोगो को उननत
करे । इस पकार िनःसवाथभ
ु ाव से एक-दस
ू रे को उननत करते हुए तुम लोग परम कलयाण को पाप
हो जाओगे।(11)
इषानभोगा िनह वो द ेवा दासयनत े यजभािवता ः।
तैद ु तानपदाय ैभ यो यो भुंिे सत ेन एव स ः।। 12।।
यज के िारा बढाये हुए दे वता तुम लोगो को िबना माँगे ही इिचछत भोग िनिय ही दे ते
रहे गे। इस पकार उन दे वताओं के िारा िदये हुए भोगो को जो पुरष उनको िबना िदये सवयं
भोगता है , वह चोर ही है ।(12)
यजिशषा िशनः स नतो म ु चयनत े सव ु िकिलबष ै ः।
भुंजत े त े तवि ं पापा य े प चनतयातमकारण ात।् । 13।।
यज से बचे हुए अनन को खाने वाले शि
े पुरष सब पापो से मुि हो जाते है और पापी
लोग अपना शरीर-पोषण करने के िलये ही अनन पकाते है , वे तो पाप को ही खाते है ।(13)
अननाद भ विनत भूतािन पज ु नयादननस ंभव ः।
यजाद भ वित पज ु नयो यजः क मु समुद भव ः।। 14।।
कम ु ब होद भ वं िव िद बहाकरसम ुद भवम।्
तस मातसव ु गतं ब ह िनतय ं य जे प ितिित म।् ।15।।
समपूणु पाणी अनन से उतपनन होते है , अनन की उतपित विृष से होती है , विृष यज से
होती है और यज िविहत कमो से उतपनन होने वाला है । कमस
ु मुदाय को तू वेद से उतपनन और
वेद को अिवनाशी परमातमा से उतपनन हुआ जान। इससे िसद होता है िक सववुयापी परम अकर
परमातमा सदा ही यज मे पितिित है ।
एवं पव ित ु तं चकं ना नुवत ु यतीह यः।
अिा युिर िनदयारामो मोि ं पाथ ु स जीवित।। 16।।
हे पाथु ! जो पुरष इस लोक मे इस पकार परमपरा से पचिलत सिृषचक के अनुकूल नहीं
बरतता अथात
ु ् अपने कतवुय का पालन नहीं करता, वह इिनदयो के िारा भोगो मे रमण करने
वाला पापायु पुरष वयथु ही जीता है ।(16)
यसतवातमरितर ेव सयादा तम तृ पि मानवः।
आत मन येव च स नतुषसतसय काय ा न िवदत े।। 17।।
परनतु जो मनुषय आतमा मे ही रमण करने वाला और आतमा मे ही तप
ृ तथा आतमा मे
ही सनतष है , उसके िलए कोई कतवुय नहीं है ।(17) (अनुकम)
नैव त सय कृत ेनाथो नाकृत ेन े ह किन।
न च ासय स वु भूत ेष ु क ििद थु वयपाशयः।। 18।।
उस महापुरष का इस िवश मे न तो कमु करने से कोई पयोजन रहता है और न कमो के
न करने से ही कोई पयोजन रहता है तथा समपूणु पािणयो मे भी इसका िकंिचनमाि भी सवाथु
का समबनध नहीं रहता।(18)
तस मादसिः स ततं काय ा कम ु स माचर।
असिो ह ाचरनक मु परमापन ोित प ूरषः।। 19।।
इसिलए तू िनरनतर आसिि से रिहत होकर सदा कतवुयकमु को भली भाँित करता रह
कयोिक आसिि से रिहत होकर कम ु करता हुआ मनुषय परमातमा को पाप हो जाता है ।(19)
कमु णैव िह स ंिस िदमा िसथता जनकादयः।
लोकस ं गहम ेवािप स मपशयनकत ु म हु िस ।। 20।।
जनकािद जानीजन भी आसिि रिहत कमि
ु ारा ही परम िसिद को पाप हुए थे। इसिलए
तथा लोकसंगह को दे खते हुए भी तू कमु करने को ही योगय है अथात
ु ् तुझे कमु करना ही उिचत
है ।(20)
यदद ाचर ित श े ि सततद ेव ेतरो जनः।
स यतपमाण ं कुरत े लोकसत दनुवत ु ते।। 21।।
शि
े पुरष जो-जो आचरण करता है , अनय पुरष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते है । वह
जो कुछ पमाण कर दे ता है , समसत मनुषय-समुदाय उसके अनुसार बरतने लग जाता है ।(21)
न मे पाथा ु िसत क तु वयं ििष ु लोकेष ु िकं चन।
नानवा पमवापवय ं व तु एव च क मु िण।। 22।।
हे अजुन
ु ! मुझे इन तीनो लोको मे न तो कुछ कतवुय है न ही कोई भी पाप करने योगय
वसतु अपाप है , तो भी मै कमु मे ही बरतता हूँ।(22)
यिद हह ं न वत े यं जात ु कम ु णयिनद तः।
मम वत माु नुवत ु नते मन ुषयाः पाथ ु सव ु शः।। 23।।
कयोिक हे पाथु ! यिद कदािचत ् मै सावधान होकर कमो मे न बरतूँ तो बडी हािन हो
जाए, कयोिक मनुषय सब पकार से मेरे ही मागु का अनुसरण करते है ।(23)
उतसीद ेय ुिरम े लोका न क ुया ा क मु चेद हम।्
संकरसय च क ताु सयाम ुपह नयािममा ः पजाः।। 24।।
इसिलए यिद मै कमु न करँ तो ये सब मनुषय नष-भष हो जाये और मै संकरता का
करने वाला होऊँ तथा इस समसत पजा को नष करने वाला बनूँ।(24)
सिाः कम ु णयिवि ांसो यथा क ुव ु िनत भारत।
कुया ु िििा ं सतथासि ििकीष ु लोक संगह म।् । 25।।
हे भारत ! कमु मे आसि हुए अजानीजन िजस पकार कमु करते है , आसिि रिहत
िविान भी लोकसंगह करना चाहता हुआ उसी पकार कमु करे ।(25) (अनुकम)
न ब ुिदभ े दं जनय ेदजाना ं कम ु सिङगनाम। ्
जोषय ेतस वु कमा ु िण िविान युिः स माचरन।् ।26।।
परमातमा के सवरप मे अटल िसथत हुए जानी पुरष को चािहए िक वह शासिविहत कमो
मे आसिि वाले अजािनयो की बुिद मे भम अथात
ु ् कमो मे अशदा उनपनन न करे , िकनतु सवयं
शासिविहत समसत कमु भलीभाँित करता हुआ उनसे भी वैसे ही करवावे।(26)
पकृत ेः िकयमाणािन गुण ैः क माु िण सव ु शः।
अहंकारिवम ूढातमा क ताु हिम ित म नयत े।। 27।।
वासतव मे समपूणु कमु सब पकार से पकृ ित के गुणो िारा िकये जाते है तो भी िजसका
अनतःकरण अहं कार से मोिहत हो रहा, ऐसा अजानी 'मै कताु हूँ' ऐसा मानता है ।(27)
तिविवत ु म हाबाहो गुणकम ु िवभागयोः।
गुणा ग ुण ेष ु वत ु नत इित मतवा न स जजत े।। 28।।
परनतु हे महाबाहो ! गुणिवभाग और कमिुवभाग के तिव को जाननेवाला जानयोगी
समपूणु गुण-ही-गुणो मे बरत रहे है , ऐसा समझकर उनमे आसि नहीं होता।(28)
पकृत ेग ु णसमम ूढाः सजज नते ग ुणकम ु सु।
तानकृतसनिवदो म नदानक ृतसन िवनन िव चालय े त।् । 29।।
पकृ ित के गुणो से अतयनत मोिहत हुए मनुषय गुणो मे और कमो मे आसि रहते है , उन
पूणत
ु या न समझने वाले मनदबुिद अजािनयो को पूणत ु या जाननेवाला जानी िवचिलत न करे ।
(29)
मिय स वाु िण कमा ु िण स ंनयसयाधया तम चेतसा।
िनराशीिन ु मु मो भ ूतवा युधयसव िवगतजवरः।। 30।।
मुझ अनतयाम
ु ी परमातमा मे लगे हुए िचत िारा समपूणु कमो को मुझमे अपण
ु करके
आशारिहत, ममतारिहत और सनतापरिहत होकर युद कर।(30)
ये म े मत िमद ं िनतयमन ुिति िनत मानवाः।
शदावनतोऽनस ूयनतो म ु चयनत े त ेऽ िप कम ु िभः ।। 31।।
जो कोई मनुषय दोषदिष से रिहत और शदायुि होकर मेरे इस मत का सदा अनुसरण
करते है , वे भी समपूणु कमो से छूट जाते है ।(31)
ये तव ेतदभयस ूयन तो नान ुिति िनत म े म तम।्
सव ु जानिनम ूढ ांसतािनव िद नषा नचेत सः।। 32।।
परनतु जो मनुषय मुझमे दोषारोपण करते हुए मेरे इस मत के अनुसार नहीं चलते है , उन
मूखो को तू समपूणु जानो मे मोिहत और नष हुए ही समझ।(32) (अनुकम)
सद शं च ेषत े सवसयाः प कृत ेजा ुनवानिप।
पकृ ितं यािनत भ ूतािन िनगह ः िकं किरषयित।। 33।।
सभी पाणी पकृ ित को पाप होते है अथात
ु ् अपने सवभाव के परवश हुए कमु करते है ।
जानवान भी अपनी पकृ ित के अनुसार चेषा करते है । ििर इसमे िकसी का हठ कया करे गा।(33)
इिनद यसय े िनदयसया थे रागि ेषौ वयविसथ तौ।
तयो नु वश मागच छेतौ ह सय पिरप िनथनौ।। 34।।
इिनदय-इिनदय के अथु मे अथात
ु ् पतयेक इिनदय के िवषय मे राग और िे ष िछपे हुए
िसथत है । मनुषय को उन दोनो के वश मे नहीं होना चािहए, कयोिक वे दोनो ही इसके कलयाण
मागु मे िवघन करने वाले महान शिु है ।(34)
शे यानसव धमो िव गुण परधमा ु तसवन ुिि तात।्
सव धमे िन धनं श े यः पर धमो भयावहः।। 35।।
अचछी पकार आचरण मे लाये हुए दस
ू रे के धमु से गुण रिहत भी अपना धमु अित उतम
है । अपने धमु मे तो मरना भी कलयाणकारक है और दस
ू रे का धमु भय को दे ने वाला है ।(35)
अजुु न उ वाच
अथ केन पय ुिोऽय ं पाप ं चर ित प ुरष ः।
अिनचछनन िप वाषण ेय बला िदव िनयोिजत ः।। 36।।
अजुन
ु बोलेः हे कृ षण ! तो ििर यह मनुषय सवयं न चाहता हुआ भी बलात ् लगाये हुए
की भाँित िकससे पेिरत होकर पाप का आचरण करता है ? (36)
शीभगवान ुवाच
काम एष को ध एष रजोग ुणसम ुद भ वः
महाशनो म हापापमा िवद ेयनिमह व ै िरणम।् । 37।।
शी भगवान बोलेः रजोगुण से उतपनन हुआ यह काम ही कोध है , यह बहुत खाने वाला
अथात
ु ् भोगो से कभी न अिाने वाला और बडा पापी है , इसको ही तू इस िवषय मे वैरी जान।
(37)
धूम ेनािवयत े व ििय ु थादशो मल ेन च ।
यथोलब ेनाव ृ तो ग भु सत था त ेन ेद माव ृ तम।् । 38।।
िजस पकार धुएँ से अिगन और मैल से दपण
ु ढका जाता है तथा िजस पकार जेर से गभु
ढका रहता है , वैसे ही उस काम के िारा यह जान ढका रहता है ।(38)
आव ृ तं जानम ेत ेन जािननो िनतयव ैिरणा
कामरप ेण कौनत ेय द ु षपूरेणानल े न च।। 39।।
और हे अजुन
ु ! इस अिगन के समान कभी न पूणु होने वाले कामरप जािनयो के िनतय
वैरी के िारा मनुषय का जान ढका हुआ है ।(39) (अनुकम)
इिनदयािण मनो ब ुिदरसया िधिानम ुचयत े।
एतै िव ु मोहयतय े ष जा नमाव ृ तय द ेिहन म।् । 40।।
इिनदयाँ, मन और बुिद – ये सब वास सथान कहे जाते है । यह काम इन मन, बुिद और
इिनदयो के िारा ही जान को आचछािदत करके जीवातमा को मोिहत करता है ।(40)
तसमािव िमिनदया णयाद ौ िनयमय भ रतष ु भ।
पापमान पजिह हे नं जानिवजान नाशनम।् ।41।।
इसिलए हे अजुन
ु ! तू पहले इिनदयो को वश मे करके इस जान और िवजान का नाश
करने वाले महान पापी काम को अवशय ही बलपूवक
ु मार डाल।(41)
इिनद यािण पराणयाह ु िरिनद येभयः पर ं मन ः।
मनससत ु परा ब ुिदयो ब ुदेः परतसत ु स ः।। 42।।
इिनदयो को सथूल शरीर से पर यािन शि
े , बलवान और सूकम कहते है । इन इिनदयो से
पर मन है , मन से भी पर बुिद है और जो बुिद से भी अतयनत पर है वह आतमा है ।(42)
एवं ब ुदेः पर ं ब ुद ध वा संसतभयातमानमातमन ा।
जिह श िुं महाबाहो कामरप ं द ु रासदम।् ।43।।
इस पकार बुिद से पर अथात
ु ् सूकम, बलवान और अतयनत शि
े आतमा को जानकर और
बुिद के िारा मन को वश मे करके हे महाबाहो ! तू इस कामरप दज
ु य
ु शिु को मार डाल।(43)
(अनुकम)
ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहेिवदायां योगशासे
शीकृ षणाजुन
ु संवादे कमय
ु ोगो नाम तत
ृ ीयोऽधयायः।।3।।
इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के
शीकृ षण-अजुन
ु संवाद मे 'कमय
ु ोग' नामक तत
ृ ीय अधयाय संपूण ु हुआ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
।। अथ प ंचमोऽधयायः ।।
अजुु न उ वाच
संनयास ं कम ु ण ां कृषण प ुनय ोगं च शं सिस।
यचछेय एतयोर ेकं त नमे ब ू िह स ुिन ितम।् । 1।।
अजुन
ु बोलेः हे कृ षण ! आप कमो के संनयास की और ििर कमय
ु ोग की पशंसा करते है ।
इसिलए इन दोनो साधनो मे से जो एक मेरे िलए भली भाँित िनिित कलयाणकारक साधन हो,
उसको किहये।(1)
शीभगवान ुवाच
संनयास ः कम ु योगि िन ःश े यस कराव ुभौ।
तयोसत ु क मु संनयासातकम ु योगो िव िशषयत े।। 2।।
शी भगवान बोलेः कमस
ु ंनयास और कमय
ु ोग – ये दोनो ही परम कलयाण के करने वाले
है , परनतु उन दोनो मे भी कमस
ु ंनयास से कमय
ु ोग साधन मे सुगम होने से शि
े है ।(2)
जेयः स िनतयस ंनयासी यो न ि े िष न क ांक ित।
िनि ु निो िह म हाबाहो स ुख ं ब ंधातपम ुचयत े।। 3।।
हे अजुन
ु ! जो पुरष िकसी से िे ष नहीं करता है और न िकसी की आकांका करता है , वह
कमय
ु ोगी सदा संनयासी ही समझने योगय है , कयोिक राग-िे षािद िनिो से रिहत पुरष सुखपूवक
ु
संसारबनधन से मुि हो जाता है ।(3)
सांख योगो प ृ थगबालाः प वदिनत न प िणड ताः।
एकमपया िसथतः स मगुभयोिव ु नदत े िल म।् ।4।।
उपयुि
ु संनयास और कमय
ु ोग को मूखु लोग पथ
ृ क-पथ
ृ क िल दे ने वाले कहते है न िक
पिणडतजन, कयोिक दोनो मे से एक मे भी समयक पकार से िसथत पुरष दोनो के िलसवरप
परमातमा को पाप होता है ।(4)
यतसा ंखय ैः पापयत े स थान ं तदोग ैर िप गमयत े।
एकं सा ंखय ं य योग ं च यः पशयित स पशय ित।। 5।।
जानयोिगयो िारा जो परम धाम पाप िकया जाता है , कमय
ु ोिगयो िारा भी वही पाप िकया
जाता है इसिलए जो पुरष जानयोग और कमय
ु ोग को िलरप मे एक दे खता है , वही यथाथु
दे खता है ।(5)
संनयाससत ु महाबाहो द ु ःखमाप ुमयोगतः।
योगय ुि ो म ुिनब ु ह निचर ेणाध गचछ ित।। 6।।
परनतु हे अजुन
ु ! कमय
ु ोग के िबना होने वाले संनयास अथात
ु ् मन, इिनदय और शरीर िारा
होने वाले समपूणु कमो मे कताप
ु न का तयाग पाप होना किठन है और भगवतसवरप को मनन
करने वाला कमय
ु ोगी परबह परमातमा को शीघ ही पाप हो जाता है ।(6)
योगय ुि ो िव शुदातमा िविज तातमा िजत े िनदयः।
सव ु भू तातमभ ूतातमा क ुव ु ननिप न िलपयत े।। 7।।
िजसका मन अपने वश मे है , जो िजतेिनदय और िवशुद अनतःकरण वाला तथा समपूणु
पािणयो का आतमरप परमातम ही िजसका आतमा है , ऐसा कमय
ु ोगी कमु करता हुआ भी िलप
नहीं होता।(7) (अनुकम)
नैव िकं िचतकरोमी ित य ुि ो मन येत तिव िवत।्
पशयञश ृ णव नसप ृ शिञजघ ननशनगचछ नसवपञ शसन।् ।8।।
पलयप िनवस ृ ज नग ृ हण ननुिनम षिनन िमष ननिप।
इिनद याणीिनदया थेष ु वत ु नत इ ित धारयन। ् ।9।।
तिव को जानने वाला सांखययोगी तो दे खता हुआ, सुनता हुआ, सपशु करता हुआ, सूँिता
हुआ, भोजन करता हुआ, गमन करता हुआ, सोता हुआ, शास लेता हुआ, बोलता हुआ, तयागता हुआ,
गहण करता हुआ तथा आँखो को खोलता और मूद
ँ ता हुआ भी, सब इिनदयाँ अपने-अपने अथो मे
बरत रहीं है – इस पकार समझकर िनःसंदेह ऐसा माने िक मै कुछ भी नहीं करता हूँ।
बह णय ाधाय कमा ु िण सङग ं तयिवा करोित यः।
िलपयत े न स पाप े न पदपि िमवामभसा।। 10।।
जो पुरष सब कमो को परमातमा मे अपण
ु करके और आसिि को तयागकर कमु करता
है , वह पुरष जल से कमल के पते की भाँित पाप से िलप नहीं होता।(10)
काय ेन मनसा ब ुदया केवल ैिरिनदय ैर िप।
योिगन ः कम ु कुव ु िनत स ङगं तयिवातमश ुद ये।। 11।।
कमय
ु ोगी ममतवबुिदरिहत केवल इिनदय, मन, बुिद और शरीर िारा भी आसिि को
तयागकर अनतःकरण की शुिद के िलए कमु करते है ।(11)
युिः क मु िलं तयिवा शा िनतमापनोित न ैिि कीम।्
अयुि ः कामकार ेण ि ले सिो िनबधयत े।। 12।।
कमय
ु ोगी कमो के िल का तयाग करके भगवतपािपरप शािनत को पाप होता है और
सकाम पुरष कामना की पेरणा से िल मे आसि होकर बँधता है ।
सव ु क माु िण मनसा स ं नयसय ासत े स ुख ं व शी।
नविार े पुरे द ेही न ैव कुव ु नन कारयन। ् । 13।।
अनतःकरण िजसके वश मे है ऐसा सांखययोग का आचरण करने वाला पुरष न करता
हुआ और न करवाता हुआ ही नविारो वाले शरीर रपी िर मे सब कमो का मन से तयाग कर
आननदपूवक
ु सिचचदानंदिन परमातमा के सवरप मे िसथत रहता है ।(13)
न क तुृ तवं न क माु िण लोकसय स ृ जित प भुः।
न क मु िल संयोग ं सवभावसत ु पवत ु ते।। 14।।
परमेशर मनुषयो के न तो कताप
ु न की, न कमो की और न कमि
ु ल के संयोग की रचना
करते है , िकनतु सवभाव ही बरत रहा है ।(14)
नाद ते कसय िचतपाप ं न चैव स ुकृतं िवभ ु ः।
अजा नेन ाव ृ तं जान ं तेन म ुह िनत जनतव ः।। 15।।
सववुयापी परमेशर भी न िकसी के पापकमु को और न िकसी के शुभ कमु को ही गहण
करता है , िकनतु अजान के िारा जान ढका हुआ है , उसी से सब अजानी मनुषय मोिहत हो रहे है ।
(15)
जान ेन त ु तदजान ं य ेष ां नािशत मातमनः।
तेषामािदतयवजजान ं पका शयित ततपरम। ् ।16।।
परनतु िजनका वह अजान परमातमा के तिवजान िारा नष कर िदया गया है , उनका वह
जान सूयु के सदश उस सिचचदानंदिन परमातमा को पकािशत कर दे ता है ।(16) (अनुकम)
तद ब ुदयसतदातमानसतिननिासततपरायण ाः।
गचछ नतयप ुन राव ृ ितं जानिनध ूु तकल मषाः।। 17।।
िजनका मन तदप
ू हो रहा है , िजनकी बुिद तदप
ू हो रही है और सिचचदाननदिन परमातमा
मे ही िजनकी िनरनतर एकीभाव से िसथित है , ऐसे ततपरायण पुरष जान के िारा पापरिहत होकर
अपुनराविृत को अथात
ु ् परम गित को पाप होते है ।(17)
िवदािवनयस ंप नने बाहण े ग िव ह िसतनी।
शुिन च ैव शपाक े च पिणड ताः स मद िश ु नः।। 18।।
वे जानीजन िवदा और िवनययुि बाहण मे तथा गौ, हाथी, कुते और चाणडाल मे भी
समदशी होते है ।(18)
इहैव त ैिज ु त ः स गो येषा ं स ामय े िसथत ं मन ः।
िनदोष ं िह सम ं ब ह तसमाद बह िण त े िसथ ताः।। 19।।
िजनका मन समभाव मे िसथत है , उनके िारा इस जीिवत अवसथा मे ही समपूणु संसार
जीत िलया गया है , कयोिक सिचचदाननदिन परमातमा िनदोष और सम है , इससे वे
सिचचदाननदिन परमातमा मे ही िसथत है ।(19)
न प हषय ेितपय ं पापय नोििज ेतपापय चािपयम। ्
िसथरब ुिदरस ं मूढो बहिव द बहिण िसथ तः।। 20।।
जो पुरष िपय को पाप होकर हिषत
ु नहीं हो और अिपय को पाप होकर उििगन न हो, वह
िसथरबुिद, संशय रिहत, बहवेता पुरष सिचचदाननदिन परबह परमातमा मे एकीभाव से िनतय
िसथत है ।(20)
बाहसप शे षवसिातमा िव नदतय ातमिन यतस ुख म।्
स बहयोगय ुिातमा स ुखमकयमश ुत े।। 21।।
बाहर के िवषयो मे आसििरिहत अनतःकरण वाला साधक आतमा मे िसथत जो
धयानजिनत साििवक आननद है , उसको पाप होता है । तदननतर वह सिचचदानंदिन परबह
परमातमा के धयानरप योग मे अिभननभाव से िसथत पुरष अकय आननद का अनुभव करता है ।
(21)
ये िह स ंसपश ु जा भो गा द ु ःखयोन य एव त े।
आद नतवनत ः कौनत ेय न त ेष ु रमत े ब ुध ः।। 22।।
जो ये इिनदय तथा िवषयो के संयोग से उतपनन होने वाले सब भोग है , यदिप िवषयी
पुरषो को सुखरप भासते है तो भी दःुख के ही हे तु है और आिद-अनतवाले अथात
ु ् अिनतय है ।
इसिलए हे अजुन
ु ! बुिदमान िववेकी पुरष उनमे नहीं रमता।(22) (अनुकम)
शकनोतीह ैव य ः सोढ ु ं पाकशरीरिवमोकणात। ्
काम कोधोद भव ं व ेग ं स युिः स स ुखी नरः।। 23।।
जो साधक इस मनुषय शरीर मे, शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही काम-कोध से
उतपनन होने वाले वेग को सहन करने मे समथु हो जाता है , वही पुरष योगी है और वही सुखी
है ।(23)
योऽनत ःसुखोऽ नतरार ामसत थानतजयोितर ेव यः।
स य ोगी बह िनवा ु णं ब हभूतो ऽिध गचछ ित।। 24।।
जो पुरष अनतरातमा मे ही सुख वाला है , आतमा मे ही रमण करने वाला है तथा जो
आतमा मे ही जानवाला है , वह सिचचदाननदिन परबह परमातमा के साथ एकीभाव को पाप
सांखयोगी शानत बह को पाप होता है ।(24)
लभनत े ब हिनवा ु णम ृ षयः कीणकल मषाः।
िछ ननि ैधा यतातमानः सव ु भूतिहत े रता ः।। 25।।
िजनके सब पाप नष हो गये है , िजनके सब संशय जान के िारा िनवत
ृ हो गये है , जो
समपूणु पािणयो के िहत मे रत है और िजनका जीता हुआ मन िनिलभाव से परमातमा मे
िसथत है , वे बहवेता पुरष शानत बह को पाप होते है ।(25)
काम कोधिवय ुिाना ं यतीना ं यतच ेतसा म।्
अिभतो ब हिनवा ु णं व तु ते िव िदतातमनाम। ् ।26।।
काम कोध से रिहत, जीते हुए िचतवाले, परबह परमातमा का साकातकार िकये हुए जानी
पुरषो के िलए सब ओर से शानत परबह परमातमा ही पिरपूणु है ।(26)
सपशा ु नकृतवा बिहबा ु हांिक ुि ैवानतर े भ ुवो ः।
पाणापा नौ स मौ कृतवा नासाभयनतरचािरणौ।। 27।।
यते िनदयमनोब ुिदम ु िनमोकपरायणः।
िव गतेचछाभयकोधो यः स दा मुि एव सः ।। 28।।
बाहर के िवषय भोगो को न िचनतन करता हुआ बाहर ही िनकालकर और नेिो की दिष
को भक
ृ ु टी के बीच मे िसथत करके तथा नािसका मे िवचरने वाले पाण और अपान वायु को सम
करके, िजसकी इिनदयाँ, मन और बुिद जीती हुई है , ऐसा जो मोकपरायण मुिन इचछा, भय और
कोध से रिहत हो गया है , वह सदा मुि ही है ।(27,28)
भोिार ं यजतपस ां सव ु लोक महेशरम।्
सुहद ं स वु भूताना ं जातवा मा ं शािनत मृ च छित।। 29।।
मेरा भि मुझको सब यज और तपो का भोगने वाला, समपूणु लोको के ईशरो का भी
ईशर तथा समपूणु भूत-पािणयो का सुहद अथात
ु ् सवाथरुिहत दयालु और पेमी, ऐसा तिव से
जानकर शािनत को पाप होता है ।(29) (अनुकम)
ॐ ततसिदित शीमद भागवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे
शीकृ षणाजुन
ु संवादे कमस
ु ंनयासयोगो नाम पंचमोऽधयायः।।5।।
इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के
शीकृ षण-अजुन
ु संवाद मे 'कमस
ु ंनयास योग' नामक पाँचवाँ अधयाय संपूणु
हुआ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
।। अथ ष षोऽधयायः ।।
शीभगवान ुवाच
अनािशत ः कम ु िलं काय ा कम ु करोित य ः।
स स ं नयासी च योगी च न िनरिगन नु चा िकयः।। 1।।
शी भगवान बोलेः जो पुरष कमि
ु ल का आशय न लेकर करने योगय कमु करता है , वह
संनयासी तथा योगी है और केवल अिगन का तयाग करने वाला संनयासी नहीं है तथा केवल
िकयाओं का तयाग करने वाला योगी नहीं है ।(1)
यं स ं नयासिम ित पाह ु योग ं त ं िव िद पाणडव।
न ह संनयसतस ंकल पो योगी भव ित किन।। 2।।
हे अजुन
ु ! िजसको संनयास ऐसा कहते है , उसी को तू योग जान, कयोिक संकलपो का
तयाग न करने वाला कोई भी पुरष योगी नहीं होता।(2)
आररकोम ु नेयोग ं कम ु कारणम ुचयत े।
योगारढसय त सयैव श मः कारणम ुचयत े।। 3।।
योग मे आरढ होने की इचछावाले मननशील पुरष के िलए योग की पािप मे िनषकामभाव
से कमु करना ही हे तु कहा जाता है और योगारढ हो जाने पर उस योगारढ पुरष का जो
सवस
ु क
ं लपो का अभाव है , वही कलयाण मे हे तु कहा जाता है ।(3)
यदा िह न े िनदयाथ ेष ु न क मु सवुषजजत े।
सव ु सं कलपस ं नय ासी योगारढसतदोचयत े।। 4।।
िजस काल मे न तो इिनदयो के भोगो मे और न कमो मे ही आसि होता है , उस काल मे
सवस
ु क
ं लपो का तयागी पुरष योगारढ कहा जाता है ।(4)
उदर ेदातमन ाऽ तमान ं नातमानमवसादय े त।्
आतम ैव ह ातमन ो बन धुरातम ैव िरप ुरातमनः।। 5।।
अपने िारा अपना संसार-समुद से उदार करे और अपने को अधोगित मे न डाले, कयोिक
यह मनुषय, आप ही तो अपना िमि है और आप ही अपना शिु है ।(5)
बनधुरातमातमनसतसय य ेनातम ैवातमना िजत ः।
अनातमनसत ु श िुतव े वत े तातम ैव श िुवत।् ।6।।
िजस जीवातमा िारा मन और इिनदयो सिहत शरीर जीता हुआ है , उस जीवातमा का तो
वह आप ही िमि है और िजसके िारा मन तथा इिनदयो सिहत शरीर नहीं जीता गया है , उसके
िलए वह आप ही शिु के सदश शिुता मे बरतता है ।(6) (अनुकम)
िजतातमनः प शानतसय परमातमा समा िहत ः।
शीतोषणस ुखद ु ःखेष ु त था मानापमान योः।। 7।।
सदी-गमी और सुख-दःुख आिद मे तथा मान और अपमान मे िजसके अनतःकरण की
विृतयाँ भली भाँित शांत है , ऐसे सवाधीन आतमावाले पुरष के जान मे सिचचदाननदिन परमातमा,
समयक् पकार से ही िसथत है अथात
ु ् उसके जान मे परमातमा के िसवा अनय कुछ है ही नहीं।(7)
जानिवजा नत ृ पातमा क ूटस थो िविज तेिनदय ः।
युि इ तयुचयत े योगी सम लोषा शमक ांचन ः।। 8।।
िजसका अनतःकरण जान िवजान से तप
ृ है , िजसकी िसथित िवकार रिहत है , िजसकी
इिनदयाँ भली भाँित जीती हुई है और िजसके िलए िमटटी, पतथर और सुवणु समान है , वह योगी
युि अथात
ु ् भगवतपाप है , ऐसा कहा जाता है ।(8)
सुह िनमि ायुु दासीनमधयसथ िेषयबनध ुष ु।
साध ुषव िप च पाप ेष ु स मबुिदिव ु िशषयत े।। 9।।
सुहद, िमि, वैरी उदासीन, मधयसथ, िे षय और बनधुगणो मे, धमातुमाओं मे और पािपयो मे
भी समान भाव रखने वाला अतयनत शि
े है ।(9)
योगी युञजीत स ततमातमान ं रहिस िसथ तः।
एकाकी यत िचतातमा िनराशीरपिरगह ः।। 10।
मन और इिनदयो सिहत शरीर को वश मे रखने वाला, आशारिहत और संगहरिहत योगी
अकेला ही एकानत सथान मे िसथत होकर आतमा को िनरनतर परमातमा लगावे।(10)
शु चौ देश े पित िाप य िसथरमासनमातमनः।
नात यु िचछत ं नाितनी चं च ै लाजिनक ुशोतरम। ् । 11।।
तिैकाग ं मनः क ृतवा यत िचत ेिनद यिकयः।
उप िवशय ास ने य ुंज यादोगमातमिव शुदय े।। 12।।
शुद भूिम मे, िजसके ऊपर कमशः कुशा, मग
ृ छाला और वस िबछे है , जो न बहुत ऊँचा है
न बहुत नीचा, ऐसे अपने आसन को िसथर सथापन करके उस आसन पर बैठकर िचत और
इिनदयो की िकयाओं को वश मे रखते हुए मन को एकाग करके अनतःकरण की शुिद के िलए
योग का अभयास करे ।(11,12) (अनुकम)
समं कायिशरोगीव ं धारयननच लं िसथ रः।
संप ेकयनािसकाग ं सव ं िदश िानवलोकय न।् ।13।।
पशानतातमा िव गतभीब ु ह चािरवत े िसथत ः।
मन स ंयम य म िचचतो य ुि आसीत मतपर ः।। 14।।
काया, िसर और गले को समान एवं अचल धारण करके और िसथर होकर, अपनी नािसका
के अगभाग पर दिष जमाकर, अनय िदशाओं को न दे खता हुआ बहचारी के वत मे िसथत,
भयरिहत तथा भली भाँित शानत अनतःकरण वाला सावधान योगी मन को रोककर मुझमे
िचतवाला और मेरे परायण होकर िसथत होवे।(13,14)
युंजन नेव ं सदातमान ं योगी िनयतमानसः।
शा िनत ं िनवा ु णपरमा ं मत संसथाम िधग चछ ित।। 15।।
वश मे िकये हुए मनवाला योगी इस पकार आतमा को िनरनतर मुझ परमेशर के सवरप
मे लगाता हुआ मुझमे रहने वाली परमाननद की पराकािारप शािनत को पाप होता है ।(15)
नातय ाशतसत ु योगोऽ िसत न च ै कानतमनशत ः।
न च ाित सवपनशी लसय जा गतो नैव चा जुु न।। 16।।
हे अजुन
ु ! यह योग न तो बहुत खाने वाले का, न िबलकुल न खाने वाले का, न बहुत
शयन करने के सवभाववाले का और न सदा ही जागने वाले का ही िसद होता है ।(16)
युिाहा रिव हारस य य ुिच ेषसय कम ु सु।
युिसवपन ावबोधसय योगो भ वित द ु ःखहा।। 17।।
दःुखो का नाश करने वाला योग तो यथायोगय आहार-िवहार करने वाले का, कमो मे यथा
योगय चेषा करने वाले का और यथायोगय सोने तथा जागने वाले का ही िसद होता है ।(17)
यदा िविनयत ं िच तमातमन येवावितित े।
िन ःसप ृ ह ः सव ु काम ेभयो य ुि इ तयुचयत े तदा।। 18।।
अतयनत वश मे िकया हुआ िचत िजस काल मे परमातमा मे ही भली भाँित िसथत हो
जाता है , उस काल मे समपूणु भोगो से सपह
ृ ारिहत पुरष योगयुि है , ऐसा कहा जाता है ।(18)
यथा दीपो िन वातसथो न ेङ गते सोपमा सम ृ ता।
योिगनो यत िचतसय य ुंजतो योग मातमनः।। 19।।
िजस पकार वायुरिहत सथान मे िसथत दीपक चलायमान नहीं होता, वैसी ही उपमा
परमातमा के धयान मे लगे हुए योगी के जीते हुए िचत की कही गयी है ।(19) (अनुकम)
यिोपरमत े िचत ं िन रदं योगस ेवया।
यि च ैवातमनातमान ं पशयननातमिन त ुषयित।। 20।।
सुखमातय िनतकं यतद बुिदगाहम तीिनदयम। ्
वेित यि न चैवाय ं िसथत िल ित तिवत ः।। 21।।
यं लब धवा च ापर ं लाभ ं म नयत े ना िधकं तत ः।
यिसमन ् िसथतो न द ु ःखेन ग ुरणािप िवचालयत े।। 22।।
तं िवदाद द ु ःखस ंयोगिवयोग ं योगस ं िजतम।्
स िन ियेन योि वयो योगोऽ िनिव ु णणच ेतसा।। 23।।
योग के अभयास से िनरद िचत िजस अवसथा मे उपराम हो जाता है और िजस अवसथा
मे परमातमा के धयान से शुद हुई सूकम बुिद िारा परमातमा को साकात ् करता हुआ
सिचचदाननदिन परमातमा मे ही सनतुष रहता है । इिनदयो से अतीत, केवल शुद हुई सूकम बुिद
िारा गहण करने योगय जो अननत आननद है , उसको िजस अवसथा मे अनुभव करता है और
िजस अवसथा मे िसथत यह योगी परमातमा के सवरप से िवचिलत होता ही नहीं। परमातमा की
पािप रप िजस लाभ को पाप होकर उससे अिधक दस
ू रा कुछ भी लाभ नहीं मानता और
परमातमपािपरप िजस अवसथा मे िसथत योगी बडे भारी दःुख से भी चलायमान नहीं होता। जो
दःुखरप संसार के संयोग से रिहत है तथा िजसका नाम योग है , उसको जानना चािहए। वह योग
न उकताए हुए अथात
ु ् धैयु और उतसाहयुि िचत से िनियपूवक
ु करना कतवुय है ।
संकलपप भवानकाम ांसतयिवा स वाु नशेषतः।
मनस ैव े िनदयगाम ं िव िनयमय स मनत तः।। 24।।
शनै ः शन ैरपरम ेद ब ुदया ध ृ ित गृ हीतया।
आत मसंसथ ं मनः क ृतवा न िक ं िचद िप िचन तयेत।् । 25।।
संकलप से उतपनन होने वाली समपूणु कामनाओं को िनःशेषरप से तयागकर और मन के
िारा इिनदयो के समुदाय को सभी ओर से भलीभाँित रोककर कम-कम से अभयास करता हुआ
उपरित को पाप हो तथा धैयय
ु ुि बुिद के िारा मन को परमातमा मे िसथत करके परमातमा के
िसवा और कुछ भी िचनतन न करे ।(24,25)
यतो यतो िनिर ित मनि ं चलम िसथरम।्
ततसततो िनयमय ैतदातमन येव व शं नय ेत।् । 26।।
यह िसथर न रहने वाला और चञचल मन िजस-िजस शबदािद िवषय के िनिमत से संसार
मे िवचरता है , उस-उस िवषय से रोककर यानी हटाकर इसे बार-बार परमातमा मे ही िनरद करे ।
पशान तमनस ं ह ेन ं योिगन ं स ुख मुतमम।्
उपैित शा नतरजस ं ब हभूत मकलमषम।। 27।।
कयोिक िजसका मन भली पकार शानत है , जो पाप से रिहत है और िजसका रजोगुण
शानत हो गया है , ऐसे इस सिचचदाननदिन बह के साथ एकीभाव हुए योगी को उतम आननद
पाप होता है ।(27)
युंजनन े वं सदातमान ं योगी िव गतकल मषः।
सुख ेन ब हसंसप शु मतयनत ं स ुखमश ुत े।। 28।।
वह पापरिहत योगी इस पकार िनरनतर आतमा को परमातमा मे लगाता हुआ सुखपूवक
ु
परबह परमातमा की पािपरप अननत आननद का अनुभव करता है ।(28) (अनुकम)
सवु भूतस थमातमान ं स वु भूतािन च ातमिन।
ईकते योग युिातमा सव ु ि स मद शु नः।। 29।।
सववुयापी अननत चेतन मे एकीभाव से िसथितरप योग से युि आतमावाला तथा सबमे
समभाव से दे खने वाला योगी आतमा को समपूणु भूतो मे िसथत और समपूणु भूतो को आतमा मे
किलपत दे खता है ।(29)
यो म ां पशयित स वु ि सव ा च मिय पशयित।
तसयाह ं न पणशयािम स च मे न पणशयित।। 30।।
जो पुरष समपूणु भूतो मे सबके आतमरप मुझ वासुदेव को ही वयापक दे खता है और
समपूणु भूतो को मुझ वासुदेव के अनतगत
ु दे खता है , उसके िलए मै अदशय नहीं होता और वह
मेरे िलए अदशय नहीं होता।(30)
सवु भूत िसथत ं यो मा ं भजत येकतवमा िसथत ः।
सवु था वत ु मानोऽ िप स योगी मिय वत ु ते।। 31।।
जो पुरष एकीभाव मे िसथत होकर समपूणु भूतो मे आतमरप से िसथत मुझ
सिचचदाननदिन वासुदेव को भजता है , वह योगी सब पकार से बरतता हुआ भी मुझ मे ही
बरतता है ।(31)
आत मौपमय ेन सव ु ि स मं पशयित योऽज ु न।
सुख ं वा य िद वा द ु ःखं स योगी परमो मत ः।। 32।।
हे अजुन
ु ! जो योगी अपनी भाँित समपूणु भूतो मे सम दे खता है और सुख अथवा दःुख
को भी सबमे सम दे खता है , वह योगी परम शि
े माना गया है ।(32)
अजुु न उ वाच
योऽय ं योगसतवया पोिः साम येन म धुस ूदन।
एतसयाह ं न पशयािम च ंचलतवा ितसथ ितं िसथ राम।् । 33।।
अजुन
ु बोलेः हे मधुसूदन ! जो यह योग आपने समभाव से कहा है , मन के चंचल होने से
मै इसकी िनतय िसथित को नहीं दे खता हूँ।(33)
चंचल ं िह मनः क ृषण प मािथ ब लवद दढ म।्
तसयाह ं िन गहं मन ये वायोिरव स ुद ु षकरम।् । 34।।
कयोिक हे शी कृ षण ! यह मन बडा चंचल, पमथन सवभाव वाला, बडा दढ और बलवान है ।
इसिलए उसका वश मे करना मै वायु को रोकने की भाँित अतयनत दषुकर मानता हूँ।
शीभगवान ुवाच
असं शयं म हाबाहो मनो द ु िन ु गहं चल म।्
अभयास ेन तु कौ नतेय वैरागय ेण च ग ृ हते।। 35।।
शी भगवान बोलेः हे महाबाहो ! िनःसंदेह मन चंचल और किठनता से वश मे होने वाला है
परनतु हे कुनतीपुि अजुन
ु ! यह अभयास और वैरागय से वश मे होता है ।(35) (अनुकम)
असंयतातमन ा योगो द ु षपाप इ ित म े म ित ः।
वशयातमना तु यतता शकयोऽवाप ुम ुपायत ः।। 36।।
िजसका मन वश मे िकया हुआ नहीं है , ऐसे पुरष िारा योग दषुपापय है और वश मे िकये
हुए मनवाले पयतशील पुरष िारा साधन से उसका पाप होना सहज है – यह मेरा मत है ।(36)
अजुु न उ वाच
अय ितः श दय ोपेतो य ोगाच चिल तमानसः।
अपापय योगस ंिस िदं का ं गित ं कृषण गचछ ित।। 37।।
अजुन
ु बोलेः हे शीकृ षण ! जो योग मे शदा रखने वाला है , िकंतु संयमी नहीं है , इस कारण
िजसका मन अनतकाल मे योग से िवचिलत हो गया है , ऐसा साधक योग की िसिद को अथात
ु ्
भगवतसाकातकार को न पाप होकर िकस गित को पाप होता है ।(37)
किचचन नोभय िवभषिशछ ननाभिमव नशयित।
अप ितिो महाबाहो िवम ूढो बहण ः पिथ ।। 38।।
हे महाबाहो ! कया वह भगवतपािप के मागु मे मोिहत और आशयरिहत पुरष िछनन-िभनन
बादल की भाँित दोनो ओर से भष होकर नष तो नहीं हो जाता?(38)
एत नमे स ं शयं कृषण छ ेत ुमह ु सयश ेषत ः।
तवदनयः स ंशयसयासय छेता न ह ुपपदत े।। 39।।
हे शीकृ षण ! मेरे इस संशय को समपूणु रप से छे दन करने के िलए आप ही योगय है ,
कयोिक आपके िसवा दस
ू रा इस संशय का छे दन करने वाला िमलना संभव नहीं है ।(39)
शीभगवान ुवाच
पाथ ु नैव ेह नाम ुि िवनाशस तसय िवदत े।
न िह कलयाणक ृतकििद द ु गु ितं तात गचछ ित।। 40।।
शीमान ् भगवान बोलेः हे पाथु ! उस पुरष का न तो इस लोक मे नाश होता है और न
परलोक मे ही कयोिक हे पयारे ! आतमोदार के िलए अथात
ु ् भगवतपािप के िलए कमु करने वाला
कोई भी मनुषय दग
ु िुत को पाप नहीं होता।(40)
पापय पु णयकृता ं लोकान ुिषतवा शा शतीः स माः।
शु चीना ं शीमत ां ग ेहे योगभषोऽ िभजायत े।। 41।।
योगभष पुरष पुणयवानो लोको को अथात
ु ् सवगािुद उतम लोको को पाप होकर, उनमे
बहुत वषो तक िनवास करके ििर शुद आचरणवाले शीमान पुरषो के िर मे जनम लेता है ।(41)
अथवा योिगनाम ेव कुल े भ वित धीमताम। ्
एत िद द ु लु भ तरं ल ोके जन म यदीदशम। ् । 42।।
अथवा वैरागयवान पुरष उन लोको मे न जाकर जानवान योिगयो के ही कुल मे जनम
लेता है । परनतु इस पकार का जो यह जनम है , सो संसार मे िनःसंदेह अतयनत दल
ु भ
ु है ।(42)
(अनुकम)
ति त ं ब ुिदस ंयोग ं ल भते पौव ु देिह कम।्
यतत े च ततो भ ूयः स ं िसदौ क ुरननदन।। 43।।
वहाँ उस पहले शरीर मे संगह िकये हुए बुिद-संयोग को अथात
ु ् रामबुिद रप योग के
संसकारो को अनायास ही पाप हो जाता है और हे कुरननदन ! उसके पभाव से वह ििर परमातमा
की पािपरप िसिद के िलए पहले से भी बढकर पयत करता है ।(43)
पूवा ु भयास े न त ेन ैव िियत े हव शोऽ िप सः ।
िजजास ुर िप योगसय श बदबहाित वत ु ते।। 44।।
वह शीमानो के िर जनम लेने वाला योगभष पराधीन हुआ भी उस पहले के अभयास से
ही िनःसंदेह भगवान की ओर आकिषत
ु िकया जाता है तथा समबुिदरप योग का िजजासु भी वेद
मे कहे हुए सकाम कमो के िल को उललंिन कर जाता है ।(44)
पयताद ातमानसत ु योगी संश ुद िकिलबष ः।
अनेकज नमस ं िसदसततो याित परा ं ग ित म।् । 45।।
परनतु पयतपूवक
ु अभयास करने वाला योगी तो िपछले अनेक जनमो के संसकारबल से
इसी जनम मे संिसद होकर समपूणु पापो से रिहत हो ििर ततकाल ही परम गित को पाप हो
जाता है ।(45)
तपिसव भयोऽिध को य ोगी जािनभयोऽिप म तोऽ िधक ः।
किम ु भयिा िधको योगी त समादोगी भ वाज ु न।। 46।।
योगी तपिसवयो से शि
े है , शासजािनयो से भी शि
े माना गया है और सकाम कमु करने
वालो से भी योगी शि
े है इससे हे अजुन
ु तू योगी हो।(46)
योिगनामिप स वे षां म द गत ेनानतरातमना।
शदाव ान भजत े यो म ां स म े य ुितमो मत ः।। 47।।
समपूणु योिगयो मे भी जो शदावान योगी मुझमे लगे हुए अनतरातमा से मुझको िनरनतर
भजता है , वह योगी मुझे परम शि
े मानय है ।(47) (अनुकम)
ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे
शीकृ षणाजुन
ु संवादे आतमसंयमयोगो नाम षिोऽधयायः।।6।।
इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशासरप शीमद भगवद गीता के
शी कृ षण-अजुन
ु संवाद मे 'आतमसंयमयोग नामक छठा अधयाय संपूण ु हुआ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
आठ वे अधयाय क ा माहातमय
भगवान िश व कहत े ह ै – दे िव ! अब आठवे अधयाय का माहातमय सुनो। उसके सुनने
से तुमहे बडी पसननता होगी। लकमीजी के पूछने पर भगवान िवषणु ने उनहे इस पकार अषम ्
अधयाय का माहातमय बतलाया था।
दिकम मे आमदु कपुर नामक एक पिसद नगर है । वहाँ भावशमाु नामक एक बाहण रहता
था, िजसने वेशया को पती बना कर रखा था। वह मांस खाता था, मिदरा पीता, शि
े पुरषो का धन
चुराता, परायी सी से वयिभचार करता और िशकार खेलने मे िदलचसपी रखता था। वह बडे
भयानक सवभाव का था और और मन मे बडे -बडे हौसले रखता था। एक िदन मिदरा पीने वालो
का समाज जुटा था। उसमे भावशमाु ने भरपेट ताडी पी, खूब गले तक उसे चढाया। अतः अजीणु
से अतयनत पीिडत होकर वह पापातमा कालवश मर गया और बहुत बडा ताड का वक
ृ हुआ।
उसकी िनी और ठं डी छाया का आशय लेकर बहराकस भाव को पाप हुए कोई पित-पती वहाँ रहा
करते थे।
उनके पूवु जनम की िटना इस पकार है । एक कुशीबल नामक बाहण था, जो वेद-वेदांग
के तिवो का जाता, समपूणु शासो के अथु का िवशेषज और सदाचारी था। उसकी सी का नाम
कुमित था। वह बडे खोटे िवचार की थी। वह बाहण िविान होने पर भी अतयनत लोभवश अपनी
सी के साथ पितिदन भैस, कालपुरष और िोडे आिद दानो को गहण िकया करते था, परनतु दस
ू रे
बाहणो को दान मे िमली हुई कौडी भी नहीं दे ता था। वे ही दोनो पित-पती कालवश मतृयु को
पाप होकर बहराकस हुए। वे भूख और पयास से पीिडत हो इस पथ
ृ वी पर िूमते हुए उसी ताड
वक
ृ के पास आये और उसके मूल भाग मे िवशाम करने लगे। इसके बाद पती ने पित से पूछाः
'नाथ ! हम लोगो का यह महान दःुख कैसे दरू होगा? बहराकस-योिन से िकस पकार हम दोनो की
मुिि होगी? तब उस बाहण ने कहाः "बहिवदा के उपदे श, आदयतमततव के िवचार और कमिुविध
के जान िबना िकस पकार संकट से छुटकारा िमल सकता है ?
यह स ुनकर पती ने प ूछाः "िकं तद बह िकमधयातमं िकं कमु पुरषोतम" (पुरषोतम !
वह बह कया है ? अधयातम कया है और कमु कौन सा है ?) उसकी पती इतना कहते ही जो
आियु की िटना ििटत हुई, उसको सुनो। उपयुि
ु वाकय गीता के आठवे अधयाय का आधा शोक
था। उसके शवण से वह वक
ृ उस समय ताड के रप को तयागकर भावशमाु नामक बाहण हो
गया। ततकाल जान होने से िवशुदिचत होकर वह पाप के चोले से मुि हो गया तथा उस आधे
शोक के ही माहातमय से वे पित-पती भी मुि हो गये। उनके मुख से दै वात ् ही आठवे अधयाय
का आधा शोक िनकल पडा था। तदननतर आकाश से एक िदवय िवमान आया और वे दोनो
पित-पती उस िवमान पर आरढ होकर सवगल
ु ोक को चले गये। वहाँ का यह सारा वत
ृ ानत
अतयनत आियज
ु नक था।
उसके बाद उस बुिदमान बाहण भावशमाु ने आदरपूवक
ु उस आधे शोक को िलखा और
दे वदे व जनादु न की आराधना करने की इचछा से वह मुििदाियनी काशीपुरी मे चला गया। वहाँ
उस उदार बुिदवाले बाहण ने भारी तपसया आरमभ की। उसी समय कीरसागर की कनया भगवती
लकमी ने हाथ जोडकर दे वताओं के भी दे वता जगतपित जनादु न से पूछाः "नाथ ! आप सहसा
नींद तयाग कर खडे कयो हो गये?"
शी भग वान बोल े ः दे िव ! काशीपुरी मे भागीरथी के तट पर बुिदमान बाहण भावशमाु
मेरे भििरस से पिरपूणु होकर अतयनत कठोर तपसया कर रहा है । वह अपनी इिनदयो के वश मे
करके गीता के आठवे अधयाय के आधे शोक का जप करता है । मै उसकी तपसया से बहुत संतुष
हूँ। बहुत दे र से उसकी तपसया के अनुरप िल का िवचार का रहा था। िपये ! इस समय वह
िल दे ने को मै उतकणठित हूँ।
पाव ु ती जी ने प ूछाः भगवन ! शीहिर सदा पसनन होने पर भी िजसके िलए िचिनतत हो
उठे थे, उस भगवद भि भावशमाु ने कौन-सा िल पाप िकया?
शी महाद े वजी बोल े ः दे िव ! ििजशि
े भावशमाु पसनन हुए भगवान िवषणु के पसाद को
पाकर आतयिनतक सुख (मोक) को पाप हुआ तथा उसके अनय वंशज भी, जो नरक यातना मे पडे
थे, उसी के शुद कमु से भगवदाम को पाप हुए। पावत
ु ी ! यह आठवे अधयाय का माहातमय थोडे
मे ही तुमहे बताया है । इस पर सदा िवचार करना चािहए।(अनुकम)
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
।। अथ ाषमो ऽधयायः ।।
अजुु न उ वाच
िकं तद ब ह िक मधयातम ं िकं क मु पुरषोतम।
अिध भूत ं च िकं पोिमिध दैव ं िकम ुचयत े।। 1।।
अजुन
ु ने कहाः हे पुरषोतम ! वह बह कया है ? अधयातम कया है ? कमु कया है ? अिधभूत
नाम से कया कहा गया है और अिधदै व िकसको कहते है ?(1)
अिध यज कथ ं को ऽि द ेहेऽ िसमन मधु सूदन।
पयाणकाल े च कथ ं जेयोऽ िस िनयतातम िभः।। 2।।
हे मधुसूदन ! यहाँ अिधयज कौन है ? और वह इस शरीर मे कैसे है ? तथा युििचतवाले
पुरषो िारा अनत समय मे आप िकस पकार जानने मे आते है ? (2)
शीभगवान ुवाच
अकरं ब ह परम ं सव भावोऽधयातमम ुचयत े।
भूत भावोद भ वकरो िवस गु ः क मु संिजत ः।। 3।।
शीमान भगवान ने कहाः परम अकर 'बह' है , अपना सवरप अथात
ु ् जीवातमा 'अधयातम'
नाम से कहा जाता है तथा भूतो के भाव को उतपनन करने वाला जो तयाग है , वह 'कमु' नाम से
कहा गया है ।(3)
अिधभ ूत ं करो भावः प ुरष िािध दैवतम।्
अिधयजोऽह मेवाि द ेहे द ेहभ ृ तां वर।। 4।।
उतपित िवनाश धमव
ु ाले सब पदाथु अिधभूत है , िहरणयमय पुरष अिधदै व है ओर हे
दे हधािरयो मे शि
े अजुन
ु ! इस शरीर मे मै वासुदेव ही अनतयाम
ु ी रप से अिधयज हूँ।(4)
(अनुकम)
अनकाल े च मा मेव समरन मुिवा क लेवरम।्
यः पयाित स ं म द भाव ं याित नासतयि संशयः।। 5।।
जो पुरष अनतकाल मे भी मुझको ही समरण करता हुआ शरीर को तयाग कर जाता है ,
वह मेरे साकात ् सवरप को पाप होता है – इसमे कुछ भी संशय नहीं है ।(5)
यं यं वािप स मरनभाव ं तयजतयनत े कल ेवरम।्
तं तम ेव ै ित कौनत ेय सदा तद भा वभािवत ः।। 6।।
हे कुनतीपुि अजुन
ु ! यह मनुषय अनतकाल मे िजस-िजस भी भाव को समरण करता हुआ
शरीर का तयाग करता है , उस उसको ही पाप होता है , कयोिक वह सदा उसी भाव से भािवत रहा
है ।(6)
तसमातसव े षु का लेष ु मामन ुसमर य ुधय च ।
मययिप ु त मनोब ुिदमा ु मेव ैषयस यसं शयम।् ।7।।
इसिलए हे अजुन
ु ! तू सब समय मे िनरनतर मेरा समरण कर और युद भी कर। इस
पकार मुझमे अपण
ु िकये हुए मन-बुिद से युि होकर तू िनःसंदेह मुझको ही पाप होगा।(7)
अभयासयोगय ुिेन चेतसा नानयगािमना।
परम ं प ु रषं िदवय ं याित पाथा ु नुिच नतयन।् ।8।।
हे पाथु ! यह िनयम है िक परमेशर के धयान के अभयासरप योग से युि, दस
ू री और न
जाने वाले िचत से िनरनतर िचनतन करता हुआ मनुषय परम पकाशरप िदवय पुरष को अथात
ु ्
परमेशर को ही पाप होता है ।(8)
किवं प ुराणमन ुशािस तार -
मणोरणी यां समन ुसमर ेद।
सव ु सय धातारम िचन तयरप -
मािदतयवण ा तम सः परसतात। ् ।9।।
पयाणकाल े मनसाचल ेन
भिया युिो योगबल ेन च ैव।
भूवोम ु धये प ाणमाव े शय समयक ्
स त ं पर ं प ुरष मुप ैित िदवयम। ् । 10।।
जो पुरष सवज
ु , अनािद, सबके िनयनता, सूकम से भी अित सूकम, सबके धारण-पोषण करने
वाले, अिचनतयसवरप, सूयु के सदश िनतय चेतन पकाशरप और अिवदा से अित परे , शुद
सिचचदाननदिन परमेशर का समरण करता है । वह भिियुि पुरष अनतकाल मे भी योग बल से
भक
ृ ु टी के मधय मे पाण को अचछी पकार सथािपत करके, ििर िनिल मन से समरण करता हुआ
उस िदवयरप परम पुरष परमातमा को ही पाप होता है ।(9,10) (अनुकम)
यदकर ं व ेदिवदो वद िनत
िवश िनत यदतयो वीतरागाः।
यिद चछनतो ब हचय ा चर िनत
तते पद ं स ंगह ेण पवकय े।। 11।।
वेद के जानने वाले िविान िजस सिचचदाननदिनरप परम पद को अिवनाशी कहते है ,
आसििरिहत संनयासी महातमाजन िजसमे पवेश करते है और िजस परम पद को चाहने वाले
बहचारी लोग बहचयु का आचरण करते है , उस परम पद को मै तेरे िलए संकेप मे कहूँगा।(11)
सवु िार ािण स ंयमय मनो हिद िनरधय च।
मूध नया ु धाय ातमनः पाणमा िसथतो योगधारणाम। ् ।12।।
ओिमत येकाकर ं बह वयाहरनमामन ुसमरन।्
यः पया ित तयजनद ेहं स याित परम ां ग ितम।् । 13।।
।। अथ न वमो ऽधयायः ।।
शीभगवान ुवाच
इदं त ु त े ग ुहत मं पवकयामय नसूयव े।
जान ं िवजानसिह तं यजज ातवा मोकयस ेऽ शुभात।् ।1।।
शी भगवान बोलेः तुझ दोष दिष रिहत भि के िलए इस परम गोपनीय िवजानसिहत
जान को पुनः भली भाँित कहूँगा, िजसको जानकर तू दःुखरप संसार से मुि हो जाएगा।(1)
राजिवदा राजग ुह ं पिव ििम दमुतमम।्
पतयकावगम ं ध मया सुस ुख ं कत ु मवय यम।् ।2।।
यह िवजानसिहत जान सब िवदाओं का राजा, सब रहसयो का राजा, अित पिवि, अित
उतम, पतयक िलवाला, धमय
ु ुि साधन करने मे बडा सुगम और अिवनाशी है ।(2)
अशदधानाः प ुरषा ध मु सयासय पर ंतप।
अपापय म ां िनवत ु नते म ृ तयुस ंसारवतम ु िन।। 3।।
हे परं तप ! इस उपयुि
ु धमु मे शदारिहत पुरष मुझको न पाप होकर मतृयुरप संसारचक
मे भमण करते रहते है ।
मया तत िमद ं स वा जगदवयिम ू ित ु ना।
मत सथािन सव ु भूतािन न च ाहं त ेषवविसथ तः।। 4।।
मुझ िनराकार परमातमा से यह सब जगत जल से बिु से सदश पिरपूणु है और सब भूत
मेरे अनतगत
ु संकलप के आधार िसथत है , िकनतु वासतव मे मै उनमे िसथत नहीं हूँ।(4)
न च मतस थािन भ ूतािन पशय म े योगम ैशरम।्
भूतभ ृ नन च भूतस थो म मातमा भ ूत भावनः।। 5।।
वे सब भूत मुझमे िसथत नहीं है , िकनतु मेरी ईशरीय योगशिि को दे ख िक भूतो को
धारण-पोषण करने वाला और भूतो को उतपनन करने वाला भी मेरा आतमा वासतव मे भूतो मे
िसथत नहीं है ।(5)
यथाकाश िसथतो िनतय ं वाय ुः सव ु ि गो महान। ्
तथा सवा ु िण भ ूतािन मतसथानीतय ुपधार य।। 6।।
जैसे आकाश से उतपनन सवि
ु िवचरने वाला महान वायु सदा आकाश मे ही िसथत है , वैसे
ही मेरे संकलप िारा उतपनन होने से समपूणु भूत मुझमे िसथत है , ऐसा जान।(6) (अनुकम)
सव ु भू तािन कौनत ेय पक ृित ं य ािनत मा िमकाम।्
कल पकय े प ुनसतािन कलपादौ िवस ृ जामयहम। ् ।7।।
हे अजुन
ु ! कलपो के अनत मे सब भूत मेरी पकृ ित को पाप होते है अथात
ु ् पकृ ित मे लीन
होते है और कलपो के आिद मे उनको मै ििर रचता हूँ।(7)
पकृ ितं सवामवषभय िव सृ जािम पुनः प ुनः।
भूतगाम िमम ं कृतसनमवश ं पकृत े वु शात।् ।
अपनी पकृ ित को अंगीकार करके सवभाव के बल से परतनि हुए इस समपूणु भूतसमुदाय
को बार-बार उनके कमो के अनुसार रचता हूँ।(8)
न च मा ं तािन कमा ु िण िनबधनिनत धन ंजय।
उदासीनवद ासीनमसि ं त ेष ु कम ु सु।। 9।।
हे अजुन
ु ! उन कमो मे आसिि रिहत और उदासीन के सदश िसथत मुझ परमातमा को वे
कमु नहीं बाँधते।(9)
मयाधयक ेण प कृित ः स ूयत े सचरा चरम।्
हेत ुनान ेन कौनत ेय जग ििपिरवत ु ते।। 10।।
हे अजुन
ु ! मुझ अिधिाता के सकाश से पकृ ित चराचर सिहत सवु जगत को रचती है और
इस हे तु से ही यह संसारचक िूम रहा है ।(10)
अवजान िनत मा ं म ूढा मान ुषी ं तन ुमा िशतम।्
परं भावमजाननतो म म भ ूत महेशरम।् । 11।।
मेरे परम भाव को न जानने वाले मूढ लोग मनुषय का शरीर धारण करने वाले मुझ
समपूणु भूतो के महान ईशर को तुचछ समझते है अथात
ु ् अपनी योगमाया से संसार के उदार के
िलए मनुषयरप मे िवचरते हुए मुझ परमेशर को साधारण मनुषय मानते है ।(11)
मोिाशा मोिकमा ु णो मोिजा ना िवच े तसः।
राकसीमास ुरी ं च ैव पक ृ ितं मोिहन ीं िश ताः।। 12।।
वे वयथु आशा, वयथु कमु और वयथु जानवाले िविकपिचत अजानीजन राकसी, आसुरी और
मोिहनी पकृ ित को ही धारण िकये रहते है ।(12)
महातमानसत ु मा ं पाथ ु दै वीं पकृ ितमा िशता ः।
भजनतयननयमनसो जातव ा भ ूता िदमवययम। ् ।13।।
परनतु हे कुनतीपुि ! दै वी पकृ ित के आिशत महातमाजन मुझको सब भूतो का सनातन
कारण और नाशरिहत अकरसवरप जानकर अननय मन से युि होकर िनरनतर भजते है ।(13)
(अनुकम)
सततं कीत ु यनतो मा ं यतनत ि दढवताः।
नमसयन ति मा ं भिया िनतय युिा उपासत े।। 14।।
वे दढ िनिय वाले भिजन िनरनतर मेरे नाम और गुणो का कीतन
ु करते हुए तथा मेरी
पािप के िलए यत करते हुए और मुझको बार-बार पणाम करते हुए सदा मेरे धयान मे युि होकर
अननय पेम से मेरी उपासना करते है ।(14)
जानय जेन चापयनय े यज नतो म ामुपासत े।
एकतव ेन प ृ थिव ेन ब हुधा िवशतोम ुखम।् । 15।।
दस
ू रे जानयोगी मुझ िनगुण
ु -िनराकार बह का जानयज के िारा अिभननभाव से पूजन
करते हुए भी मेरी उपासना करते है और दस
ू रे मनुषय बहुत पकार से िसथत मुझ िवराटसवरप
परमेशर की पथ
ृ क भाव से उपासना करते है ।(15)
अहं क तुरह ं यजः स धाहम हमौषध म।्
मंिोऽह महम ेवाजयमहमिगनरह ं ह ु त म।् । 16।।
कतु मै हूँ, यज मै हूँ, सवधा मै हूँ, औषिध मै हूँ, मंि मै हूँ, ित
ृ मै हूँ, अिगन मै हूँ और
हवनरप िकया भी मै ही हूँ।(16)
िपताहमसय ज गतो म ाता ध ाता िपताम हः।
वेद ं पिव िमोकार ऋकसाम यज ुरेव च ।। 17।।
इस समपूणु जगत का धाता अथात
ु ् धारण करने वाला और कमो के िल को दे ने वाला,
िपता माता, िपतामह, जानने योगय, पिवि ओंकार तथा ऋगवेद, सामवेद और यजुवद े भी मै ही हूँ।
(17)
गित भु ताु प भुः सा की िनवासः शरण ं स ुहत।्
पभवः प लयः सथान ं िनधान ं बीजमवययम। ् ।18।।
पाप होने योगय परम धाम, भरण-पोषण करने वाला, सबका सवामी, शुभाशुभ का दे खने
वाला, सब का वाससथान, शरण लेने योगय, पतयुपकार न चाहकर िहत करने वाला, सबकी उतपित-
पलय का हे तु, िसथित का आधार, िनधान और अिवनाशी कारण भी मै ही हूँ।(18)
तपामयह महं व षा िनग ृ हामय ुतस ृ जािम च।
अमृ तं च ैव म ृ तयुि सदस चचाह मजुु न।। 19।।
मै ही सूयर
ु प से तपता हूँ, वषाु का आकषण
ु करता हूँ और उसे बरसाता हूँ। हे अजुन
ु ! मै
ही अमत
ृ और मतृयु हूँ और सत ् असत ् भी मै ही हूँ।(19) (अनुकम)
िै िवदा मा ं सो मपाः प ूतपापा
यजैिरषवा सवग ु ितं पाथ ु य नते।
ते प ु णयमासाद सुरेनदलोक -
मश िनत िदवयािनद िव द ेवभोगान। ् । 20।।
तीनो वेदो मे िवधान िकये हुए सकाम कमो को करने वाले, सोम रस को पीने वाले, पाप
रिहत पुरष मुझको यजो के िारा पूजकर सवगु की पािप चाहते है , वे पुरष अपने पुणयो के
िलरप सवगल
ु ोक को पाप होकर सवगु मे िदवय दे वताओं के भोगो को भोगते है ।
ते त ं भ ुिवा सव गु लोकं िव शाल ं
कीण े प ुण ये मतय ु लोकं िवश िनत।
एवं ि यीधम ु मनुपपनना
गतागत ं कामकामा ल भनत े।। 21।।
वे उस िवशाल सवगल
ु ोक को भोगकर पुणय कीण होने पर मतृयुलोक को पाप होते है । इस
पकार सवगु के साधनरप तीनो वेदो मे कहे हुए सकाम कमु का आशय लेने वाले और भोगो की
कामना वाले पुरष बार-बार आवागमन को पाप होते है , अथात
ु ् पुणय के पभाव से सवगु मे जाते है
और पुणय कीण होने पर मतृयुलोक मे आते है ।(21)
अननयािि नतयनतो मा ं य े जनाः पय ु पासत े।
तेषा ं िनतया िभय ुिा नां योगक ेम ं व हामयहम। ् । 22।।
जो अननय पेम भिजन मुझ परमेशर को िनरनतर िचनतन करते हुए िनषकाम भाव से
भजते है , उन िनतय-िनरनतर मेरा िचनतन करने वाले पुरषो को योगकेम मै सवयं पाप कर दे ता
हूँ।(22)
येऽपयनयद ेवता भिा यजनत े श दय ािनवताः।
ते ऽिप मा मेव कौनत ेय यजनतयिव िधप ूव ु क म।् । 23।।
हे अजुन
ु यदिप शदा से युि जो सकाम भि दस
ू रे दे वताओं को पूजते है , वे भी मुझको
ही पूजते है , िकनतु उनका पूजन अिविधपूवक
ु अथात
ु ् अजानपूवक
ु है ।(23)
अहं िह सव ु यजाना ं भोिा च प भुरेव च।
न तु मामिभ जानिनत तिव ेनातियव िनत त े।। 24।।
कयोिक समपूणु यजो का भोिा और सवामी मै ही हूँ, परनतु वे मुझ परमेशर को तिव से
नहीं जानते, इसी से िगरते है अथात
ु ् पुनजन
ु म को पाप होते है ।(25)
या िनत द ेववता द ेवा िनपत ृ नय ािनत िपत ृ वताः।
भूतािन यािनत भ ूत ेजया यािनत मदा िजनोऽिप मा म।् ।25।।
दे वताओं को पूजने वाले दे वताओं को पाप होते है , िपतरो को पूजने वाले िपतरो को पाप
होते है , भूतो को पूजने वाले भूतो को पाप होते है और मेरा पूजन करने वाले भि मुझको पाप
होते है । इसिलए मेरे भिो का पुनजन
ु म नहीं होता।(25) (अनुकम)
पिं प ुषप ं िल ं तोय ं यो मे भ िय ा पयचछ ित।
तदह ं भकतय ुपहतमशा िम पयतातमनः।। 26।।
जो कोई भि मेरे िलए पेम से पि, पुषप, िल, जल आिद अपण
ु करता है , उस शुदबुिद
िनषकाम पेमी भि का पेमपूवक
ु अपण
ु िकया हुआ वह पि-पुषपािद मै सगुणरप से पकट होकर
पीितसिहत खाता हूँ।(26)
यतकर ोिष यदशािस यजज ुहोिष ददा िस यत।्
यतपस यिस कौनत ेय ततक ुरषव मद पु णम।् । 27।।
हे अजुन
ु ! तू जो कमु करता है , जो खाता है , जो हवन करता है , जो दान दे ता है और जो
तप करता है वह सब मुझे अपण
ु कर।(27)
शु भाश ुभि लैरेव ं म ोकयस े क मु बन धनैः।
संनयासयोगय ुि ातमा िव मुिो मामप ैशयिस।। 28।।
इस पकार िजसमे समसत कमु मुझ भगवान के अपण
ु होते है – ऐसे सनयासयोग से युि
िचतवाला तू शुभाशुभ िलरप कमब
ु नधन से मुि हो जाएगा और उनसे मुि होकर मुझको ही
पाप होगा(28)
समो ऽहं सव ु भूत ेष न म े ि ेषयोऽ िसत न िपयः।
ये भज िनत त ु म ां भ कतय ा मिय त े त ेष ु च ापयहम।् । 29।।
मै सब भूतो मे समभाव से वयापक हूँ। न कोई मेरा अिपय है ओर न िपय है परनतु जो
भि मुझको पेम से भजते है , वे मुझमे है और मै भी उनमे पतयक पकट हूँ।(29)
अिप च ेतस ुद ु राचारो भ जते मामननयभाक ् ।
साध ुरेव स म नतवयः स मयगव यव िसतो िह स ः।। 30।।
यिद कोई अितशय दरुाचारी भी अननयभाव से मेरा भि होकर मुझे भजता है तो वह
साधु ही मानने योगय है , कयोिक वह यथाथु िनियवाला है अथात
ु ् उसने भली भाँित िनिय कर
िलया है िक परमेशर के भजन के समान अनय कुछ भी नहीं है ।(30)
िकप ं भ वित धमा ु तमा श शचछा िनत ं िन गचछ ित।
कौ नतेय प ित जानीिह न म े भि ः पणशयित।। 31।।
वह शीघ ही धमातुमा हो जाता है और सदा रहने वाली परम शािनत को पाप होता है । हे
अजुन
ु ! तू िनियपूवक
ु सतय जान िक मेरा भि नष नहीं होता।(31)
मां िह पाथ ु वयापािशतय य े ऽिप सय ु ः पापय ोनयः।
िसयो वैशयासतथा श ू दासत ेऽिप या िनत परा ं ग ित म।् । 32।।
हे अजुन
ु ! सी, वैशय, शूद तथा पापयोिन-चाणडालािद जो कोई भी हो, वे भी मेरे शरण होकर
परम गित को पाप होते है ।(32) (अनुकम)
िकं प ुनबा ु हणाः प ुणया भ िा राजष ु यसत था।
अिनतयमस ुख ं लोक िमम ं पाप य भज सव माम। ् ।33।।
ििर इसमे तो कहना ही कया है , जो पुणयशील बाहण तथा राजिषु भगवान मेरी शरण
होकर परम गित को पाप होते है । इसिलए तू सुखरिहत और कणभंगुर इस मनुषय शरीर को पाप
होकर िनरनतर मेरा ही भजन कर।(33)
मनमना भव म द भिो मदाजी म ां नमसक ु र।
माम ेव ैषयिस य ुकतव ैवमातमान ं म तपरा यणः।। 34।।
मुझमे मनवाला हो, मेरा भि बन, मेरा पूजनकरने वाला हो, मुझको पणाम कर। इस पकार
आतमा को मुझमे िनयुि करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही पाप होगा।(34)
ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे
शीकृ षणाजुन
ु संवादे राजिवदाराजगुह योगो नाम नवमोऽधयायः।।9।।
इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के
शीकृ षण-अजुन
ु संवाद मे 'राजिवदाराजगुहयोग' नामक नौवाँ अधयाय संपूण ु हुआ।।9।।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
।। अथ दश मोऽधयायः ।।
शीभगवान ुवाच
भूय एव म हाबाहो श ृणु म े परम ं व चः।
यतेऽह ं पीयमाणाय वकया िम िह तकामय या।। 1।।
शी भगवान बोलेः हे महाबाहो ! ििर भी मेरे परम रहसय और पभावयुि वचन को सुन,
िजसे मै तुझ अितशय पेम रखनेवाले के िलए िहत की इचछा से कहूँगा।(1)
न मे िवद ु ः स ुरगणाः प भवं न म हष ु यः।
अहमा िदिह ु देवाना ं महषीण ां च सव ु शः।। 2।।
मेरी उतपित को अथात
ु ् लीला से पकट होने को न दे वता लोग जानते है और न महिषज
ु न
ही जानते है , कयोिक मै सब पकार से दे वताओं का और महिषय
ु ो का भी आिदकरण हूँ।(2)
यो मा मजमनािद ं च वेित लोकमह ेशर म।्
असंम ूढः स म तये षु स वु पाप ैः प मुचयत े।। 3।।
जो मुझको अजनमा अथात
ु ् वासतव मे जनमरिहत, अनािद और लोको का महान ईशर,
तिव से जानता है , वह मनुषयो मे जानवान पुरष समपूणु पापो से मुि हो जाता है ।(3)
बुिदजा ु नमसममोह ः कमा सतय ं दम ः शम ः।
सुख ं द ु ःखं भ वोऽभावो भय ं चा भयम ेव च।। 4।।
अिहंसा सम ता तुिषसत पो दान ं यशोऽयश ः।
भविनत भावा भ ूताना ं मत एव प ृ थिगव धाः।। 5।।
िनिय करने की शिि, यथाथु जान, असममूढता, कमा, सतय, इिनदयो का वश मे करना,
मन का िनगह तथा सुख-दःुख, उतपित-पलय और भय-अभय तथा अिहं सा, समता, संतोष, तप, दान,
कीितु और अपकीितु – ऐसे ये पािणयो के नाना पकार के भाव मुझसे ही होते है ।(4,5)
महष ु यः सप प ूव े च तवारो मनवसत था।
मद भावा मानसा जाता य ेष ां लोक इ माः पजाः।। 6।।
सात महिषज
ु न, चार उनसे भी पूवु मे होने वाले सनकािद तथा सवायमभुव आिद चौदह
मनु – ये मुझमे भाव वाले सब के सब मेरे संकलप से उतपनन हुए है , िजनकी संसार मे यह
समपूणु पजा है ।(6)
एत ां िव भूित ं य ोगं च मम य ो व ेित तिवत ः।
सोऽ िवकमप ेन योग े न य ुजयत े नाि स ं शयः।। 7।।
जो पुरष मेरी इस परमैशयर
ु प िवभूित को और योगशिि को तिव से जानता है , वह
िनिल भिियोग से युि हो जाता है – इसमे कुछ भी संशय नहीं है ।(7)
अहं स वु सय प भवो मतः स वा पवत ु ते।
इित मतवा भज नते मा ं ब ुधा भावस मिनव ताः।। 8।।
मै वासुदेव ही समपूणु जगत की उतपित का कारण हूँ और मुझसे ही सब जगत चेषा
करता है , इस पकार समझकर शदा और भिि से युि बुिदमान भिजन मुझ परमेशर को ही
िनरनतर भजते है ।(8)
मिचचता मद ग तपाणा बो धयनतः परसपरम। ्
कथयन ति मा ं िनतय ं त ुषयिनत च रमिनत च ।। 9।।
िनरनतर मुझ मे मन लगाने वाले और मुझमे ही पाणो को अपण
ु करने वाले भिजन
मेरी भिि की चचाु के िारा आपस मे मेरे पभाव को जानते हुए तथा गुण और पभावसिहत मेरा
कथन करते हुए ही िनरनतर सनतुष होते है , और मुझ वासुदेव मे ही िनरनतर रमण करते है ।(9)
तेषा ं स ततय ुिाना ं भजत ां – पीतीप ूव ु कम।्
ददािम ब ुिदयोग ं त ं य ेन माम ुपया िनत त े।। 10।।
उन िनरनतर मेरे धयान आिद मे लगे हुए और पेमपूवक
ु भजने वाले भिो को मै वह
तिवजानरप योग दे ता हूँ, िजससे वे मुझको ही पाप होते है ।(10)
तेषाम ेवान ुकमपाथ ु मह मजानज ं त मः।
नाशयामया तम भावसथो जानद ीपेन भ ासवता।। 11।।
हे अजुन
ु ! उनके ऊपर अनुगह करने के िलए उनके अनतःकरण मे िसथत हुआ मै सवयं
ही उनके अजान जिनत अनधकार को पकाशमय तिवजानरप दीपक के िारा नष कर दे ता हूँ।
(11) (अनुकम)
अजुु न उ वाच
परं ब ह पर ं धाम प िवि ं परम ं भ वान।्
पुरष ं शाश तं िदवयमािद देवमज ं िवभ ुम।् । 12।।
आहुसतवाम ृ षयः सव े देविष ु नाु रदसतथा।
अिसतो द ेव लो वयास ः सवय ं चैव बवीिष म े।। 13।।
अजुन
ु बोलेः आप परम बह, परम धाम और परम पिवि है , कयोिक आपको सब ऋिषगण
सनातन, िदवय पुरष और दे वो का भी आिददे व, अजनमा और सववुयापी कहते है । वैसे ही दे विषु
नारद तथा अिसत और दे वल ऋिष तथा महिषु वयास भी कहते है और आप भी मेरे पित कहते
है ।(12,13)
सवु मेतदत ं म नये य नमा ं व दिस क े शव।
न िह ते भगव नवयिि ं िवद ु देवा न दानवाः।। 14।।
हे केशव ! जो कुछ भी मेरे पित आप कहते है , इस सबको मै सतय मानता हूँ। हे भगवान
! आपके लीलामय सवरप को न तो दानव जानते है और न दे वता ही।(14)
सवयम ेवातमनातमान ं वेत थ तव ं प ुरषोतम।
भूत भावन भूत े श द ेवद ेव ज गतपत े।। 15।।
हे भूतो को उतपनन करने वाले ! हे भूतो के ईशर ! हे दे वो के दे व ! हे जगत के सवामी! हे
पुरषोतम ! आप सवयं ही अपने-से-अपने को जानते है ।(15)
विु महु सयश ेष ेण िदवया ह ातमिव भूतयः।
यािभ िव ु भू ित िभलोकािनम ांसतव ं वयाप य िति िस।। 16।।
इसिलए आप ही उन अपनी िदवय िवभूितयो को समपूणत
ु ा से कहने मे समथु है , िजन
िवभूितयो के िारा आप इन सब लोके को वयाप करके िसथत है ।(16)
कथं िवदामह ं यो िगंसतवा ं स दा प िरिच नतयन।्
केष ु केष ु च भाव ेष ु िच नतयोऽिस भगव नमया।। 17।।
हे योगेशर ! मै िकस पकार िनरनतर िचनतन करता हुआ आपको जानूँ और हे भगवन !
आप िकन-िकन भावो से मेरे िारा िचनतन करने योगय है ?(17)
िवसत ेणातमनो योग ं िवभ ू ितं च जनाद ु न।
भूयः क थय त ृ िप िहु श ृणवतो नािसत म े ऽम ृ तम।् ।18।।
हे जनादु न ! अपनी योगशिि को और िवभूित को ििर भी िवसतारपूवकु किहए, कयोिक
आपके अमत
ृ मय वचनो को सुनते हुए मेरी तिृप नहीं होती अथात
ु ् सुनने की उतकणठा बनी ही
रहती है ।(18) (अनुकम)
शीभगवान ुवाच
हनत त े क थियषयािम िदवया हातम िवभ ूतयः।
पा धानयतः क ुर शे ि नासत यन तो िवसतरसय म े।। 19।।
शी भगवान बोलेः हे कुरशि
े ! अब मै जो मेरी िवभूितयाँ है , उनको तेरे िलए पधानता से
कहूँगा, कयोिक मेरे िवसतार का अनत नहीं है ।(19)
अहमातमा ग ुडाकेश स वु भूताशय िसथत ः।
अहमा िदि म धयं च भूतानामनत ए व च।। 20।।
हे अजुन
ु ! मै सब भूतो के हदय मे िसथत सबका आतमा हूँ तथा समपूणु भूतो का आिद,
मधय और अनत भी मै ही हूँ।(20)
आिदतयानामह ं िवषण ुजयोितषा ं र िवर ंश ुमान।्
मरीिच मु रताम िसम नकिाणामह ं शश ी।। 21।।
मै अिदित के बारह पुिो मे िवषणु और जयोितयो मे िकरणो वाला सूयु हूँ तथा उनचास
वायुदेवताओं का तेज और नकिो का अिधपित चनदमा हूँ।(21)
वेदाना ं सामव ेदो ऽिसम देवान ाम िसम वासव ः।
इिनदयाणा ं मन िािसम भ ूतान ाम िसम च ेतना।। 22।।
मै वेदो मे सामवेद हूँ, दे वो मे इनद हूँ, इिनदयो मे मन हूँ और भूतपािणयो की चेतना
अथात
ु ् जीवन-शिि हूँ।(22)
रदाण ां श ंकरिा िसम िवत े शो यकरकसा म।्
वसूना ं पावक िािसम म ेरः िश खिरणामह म।् । 23।।
मै एकादश रदो मे शंकर हूँ और यक तथा राकसो मे धन का सवामी कुबेर हूँ। मै आठ
वसुओं मे अिगन हूँ और िशखरवाले पवत
ु ो मे सुमेर पवत
ु हूँ।(23)
पुरोधस ां च म ुखय ं मा ं िविद पा थु ब ृ हसप ितम।्
सेनानी नामह ं सक नदः सर सामिसम सागरः।। 24।।
पुरोिहतो मे मुिखया बह
ृ सपित मुझको जान। हे पाथु ! मै सेनापितयो मे सकनद और
जलाशयो मे समुद हूँ।(24)
महषीणा ं भ ृ गुरह ं िगरामसम येकमकरम। ्
यजाना ं जपयजोऽिसम सथावराणा ं िहमालयः।। 25।।
मै महिषय
ु ो मे भग
ृ ु और शबदो मे एक अकर अथात
ु ् ओंकार हूँ। सब पकार के यजो मे
जपयज और िसथर रहने वालो मे िहमालय पवत
ु हूँ।(25)
अशत थः सव ु व ृ काणा ं द ेवषीणा ं च नारदः।
गनध वाु णां िच िरथ ः िसदाना ं क िपलो म ुिन ः।। 26।।
मै सब वक
ृ ो मे पीपल का वक
ृ , दे विषय
ु ो मे नारद मुिन, गनधवो मे िचिरथ और िसदो मे
किपल मुिन हूँ।(26) (अनुकम)
उचचै ःशव समशाना ं िविद माम मृ तोद भवम। ्
ऐरावत ं गज ेनदाणा ं नराणा ं च न रा िधपम।् । 27।।
िोडो मे अमत
ृ के साथ उतपनन होने वाला उचचैःशवा नामक िोडा, शि
े हािथयो मे ऐरावत
नामक हाथी और मनुषयो मे राजा मुझको जान।(27)
आयुधानामह ं व जं ध ेन ूनामिसम का मधुक् ।
पजनिािसम कनदप ु ः सपा ु णा िसम वास ुिक ः।। 28।।
मै शसो मे वज और गौओं मे कामधेनु हूँ। शासोि रीित से सनतान की उतपित का हे तु
कामदे व हूँ और सपो मे सपरुाज वासुकी हूँ।(28)
अनन तिािसम नागा नां वरणो यादसामह म।्
िपत ृ णामय ु मा चािसम यमः स ंयमतामह म।् ।29।।
मै नागो मे शेषनाग और जलचरो का अिधपित वरण दे वता हूँ और िपंजरो मे अयम
ु ा
नामक िपतर तथा शासन करने वालो मे यमराज मै हूँ।(29)
पहादिा िसम द ैतयाना ं काल ः कलयतामह म।्
मृ गाण ां च म ृ गेनदोऽह ं व ैनत ेयि प िकणाम।् । 30।।
मै दै तयो मे पहाद और गणना करने वालो का समय हूँ तथा पशुओं मे मग
ृ राज िसंह और
पिकयो मे मै गरड हूँ।(30)
पवन ः पवतामिसम रामः शस भृ तामहम।्
झषाण ां मकरिा िसम सोतसा मिसम जाहवी।। 31।।
मै पिवि करने वालो मे वायु और शसधािरयो मे शीराम हूँ तथा मछिलयो मे मगर हूँ
और निदयो मे शीभागीरथी गंगाजी हूँ।(31)
सगाु णामािदरनत ि मधय ं च ैवाह मजुु न।
अधयातमिवदा िवदाना ं वाद ः पवदतामह म।् ।32।।
हे अजुन
ु सिृषयो का आिद और अनत तथा मधय भी मै ही हूँ। मै िवदाओं मे
अधयातमिवदा अथात
ु ् बहिवदा और परसपर िववाद करने वालो का तिव-िनणय
ु के िलए िकया
जाने वाला वाद हूँ।(32)
अकरा णामकारोऽिसम िनि ः सामा िसकसय च।
अहम ेवाकयः का लो ध ाताह ं िवश तोम ुखः।। 33।।
मै अकरो मे अकार हूँ और समासो मे िनि नामक समास हूँ। अकयकाल अथात
ु ् काल का
भी महाकाल तथा सब ओर मुखवाला, िवराटसवरप, सबका धारण-पोषण करने वाला भी मै ही हूँ।
(33) (अनुकम)
मृ तयुः स वु हरिाहम ुद भ वि भ िवषयताम। ्
कीित ु ः शीवा ु कच नारीणा ं सम ृ ितम े धा ध ृ ित ः कमा।। 34।।
मै सबका नाश करने वाला मतृयु और उतपनन होने वालो का उतपित हे तु हूँ तथा िसयो
मे कीितु, शी, वाक् , समिृत, मेधा, धिृत और कमा हूँ।(34)
बृ हतसाम तथा सामन ां गायिी छ नदसाम हम।्
मासाना ं माग ु शीषोऽह मृ तूना ं कुस ु माकरः।। 35।।
तथा गायन करने योगय शिुतयो मे मै बह
ृ तसाम और छनदो मे गायिी छनद हूँ तथा
महीनो मे मागश
ु ीषु और ऋतुओं मे वसनत मै हूँ।(36)
दूत ं छ लयतामिसम त े जसत ेजिसवनाम हम।्
जयोऽ िसम वयवसायोऽिसम सिव ं सिववता महम।् ।36।।
मै छल करने वालो मे जुआ और पभावशाली पुरषो का पभाव हूँ। मै जीतने वालो का
िवजय हूँ, िनिय करने वालो का िनिय और साििवक पुरषो का साििवक भाव हूँ।(36)
वृ षणीना ं वास ुदेवो ऽिसम पाणडवाना ं धन ंजय ः।
मुनीन ामपयह ं वय ास ः कवीनाम ुशना क िव ः।। 37।।
विृषणवंिशयो मे वासुदेव अथात
ु ् मै सवयं तेरा सखा, पाणडवो मे धनंजय अथात
ु ् तू, मुिनयो
मे वेदवयास और किवयो मे शुकाचायु किव भी मै ही हूँ।(37)
दणडो द मयतामिसम नी ितरिसम िजगीषताम। ्
मौन ं चैवा िसम ग ुहाना ं जान ं जा नवताम हम।् ।38।।
मै दमन करने वालो का दणड अथात
ु ् दमन करने की शिि हूँ, जीतने की इचछावालो की
नीित हूँ, गुप रखने योगय भावो का रकक मौन हूँ और जानवानो का तिवजान मै ही हूँ।(38)
यच चािप सव ु भूताना ं बीज ं तदह मजुु न।
न तद िसत िवना यतसय ान मया भू तं चराचरम। ् ।39।।
और हे अजुन
ु ! जो सब भूतो की उतपित का कारण है , वह भी मै ही हूँ, कयोिक ऐसा चर
और अचर कोई भी भूत नहीं है , जो मुझसे रिहत हो।(39)
नानतोऽ िसत म म िदवयाना ं िव भूतीना ं पर ंतप।
एष त ूदेशत ः पोिो िवभ ूत े िव ु सतरो मया।। 40।।
हे परं तप ! मेरी िदवय िवभूितयो का अनत नहीं है , मैने अपनी िवभूितयो का यह िवसतार
तो तेरे िलए एकदे श से अथात
ु ् संकेप से कहा है ।(40)
यदििभ ू ितमतसिव ं श ीमद ू िज ु तमेव वा।
ततद ेवावगचछ तव ं म म त ेजो ऽशसम भवम।् । 41।।
जो-जो भी िवभूितयुि अथात
ु ् ऐशयय
ु ुि, कािनतयुि और शिियुि वसतु है , उस उसको तू
मेरे तेज के अंश की ही अिभवयिि जान(41) (अनुकम)
अथवा बह ु नैत ेन िकं जात ेन त वाज ु न।
िवषभयाहिम दं कृतसनम ेक ांश ेन िसथ तो ज गत।् । 42।।
अथवा हे अजुन
ु ! इस बहुत जानने से तेरा कया पयोजन है ? मै इस समपूणु जगत को
अपनी योगशिि के एक अंशमाि से धारण करके िसथत हूँ।(42)
ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे
शीकृ षणाजुन
ु संवादे िवभूितयोगो नाम दशमोऽधयायः।।10।।
इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के
शीकृ षण-अजुन
ु संवाद मे 'िवभूितयोग' नामक दसवाँ अधयाय संपूणु हुआ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
।। अथ ैकादशोऽधयायः ।।
अजुु न उ वाच
मदन ुगहाय परम ं ग ु हमधयातमस ं िजतम।्
यिवयोि ं व चसत ेन मोहोऽय ं िव गतो मम।। 1।।
अजुन
ु बोलेः मुझ पर अनुगह करने के िलए आपने जो परम गोपनीय अधयातमिवषयक
वचन अथात
ु ् उपदे श कहा, उससे मेरा यह अजान नष हो गया है ।(1)
भवाप ययौ िह भ ू ता नां श ु तौ िव सतरशो मया।
तवतः क मलप िाक माहातमयमिप चावययम। ् ।2।।
कयोिक हे कमलनेि ! मैने आपसे भूतो की उतपित और पलय िवसतारपूवक
ु सुने है तथा
आपकी अिवनाशी मिहमा भी सुनी है ।
एव मेतदथातथ तवमातमान ं परम ेशर।
दषुिम चछािम ते रपम ैशर ं प ुरषोतम।। 3।।
हे परमेशर ! आप अपने को जैसा कहते है , यह ठीक ऐसा ही है परनतु हे पुरषोतम !
आपके जान, ऐशयु, शिि, बल, वीयु और तेज से युि ऐशयम
ु य-रप को मै पतयक दे खना चाहता
हूँ।(3)
मनयस े यिद तच छकय ं मया दष ु िमित प भो।
योग ेशर ततो म े तव ं द शु या तमानमवययम। ् । 4।।
हे पभो ! यिद मेरे िारा आपका वह रप दे खा जाना शकय है – ऐसा आप मानते है , तो हे
योगेशर ! उस अिवनाशी सवरप का मुझे दशन
ु कराइये।(4)
शीभगवान ुवाच
पशय मे पा थु रपािण शत शोऽ थ सह सश ः।
नानािवधािन िदवय ािन नान ावणा ु कृतीिन च।। 5।।
शी भगवान बोलेः हे पाथु ! अब तू मेरे सैकडो-हजारो नाना पकार के और नाना वणु तथा
नाना आकृ ित वाले अलौिकक रपो को दे ख।(5)
पशयिदतयानवस ून ् रदानिशनौ म रतसत था।
बहूनयदषप ूवा ु िण पशयािया ु िण भारत।। 6।।
हे भरतवंशी अजुन
ु ! तू मुझमे आिदतयो को अथात
ु ् अिदित के िादश पुिो को, आठ वसुओं
को, एकादश रदो को, दोनो अिशनीकुमारो को और उनचास मरदगणो को दे ख तथा और भी बहुत
से पहले न दे खे हुए आियम
ु य रपो को दे ख।(6)
इहैकसथ ं जगतक ृतसन ं पशया द सच राचरम।्
मम द ेहे गुडाकेश यच चानयददष ुिम चछिस ।। 7।।
हे अजुन
ु ! अब इस मेरे शरीर मे एक जगह िसथत चराचरसिहत समपूणु जगत को दे ख
तथा और भी जो कुछ दे खना चाहता है सो दे ख।(7)
न तु मा ं श कयस े दष ुमन ेन ैव सव चकुषा।
िदवय ं ददािम ते चक ु ः पशय मे योगम ै शरम।् । 8।।
परनतु मुझको तू इन अपने पाकृ त नेिो िारा दे खने मे िनःसंदेह समथु नहीं है । इसी से मै
तुझे िदवय अथात
ु ् अलौिकक चकु दे ता हूँ। इससे तू मेरी ईशरीय योगशिि को दे ख।(8) (अनुकम)
संजय उ वाच
एव मुकतवा त तो राज नमहायोग ेशरो ह िरः।
दशु यामास पाथा ु य पर मं रपम ैशरम।् ।9।।
अने कवकिनय नम नेकाद ु तद शु नम।्
अनेक िदवय ाभरण ं िदवयान ेकोदताय ुधम।् ।10।।
िदवयमालयामबरधर ं िदवयग नधान ुल ेपनम।्
सवाु िय ु मयं देवमननत ं िवशतोम ुख म।् । 11।।
संजय बोलेः हे राजन ! महायोगेशर और सब पापो के नाश करने वाले भगवान ने इस
पकार कहकर उसके पिात अजुन
ु को परम ऐशयय
ु ुि िदवय सवरप िदखलाया। अनेक मुख और
नेिो से युि, अनेक अदभुत दशन
ु ोवाले, बहुत से िदवय भूषणो से युि और बहुत से िदवय शसो
को हाथो मे उठाये हुए, िदवय माला और वसो को धारण िकये हुए और िदवय गनध का सारे
शरीर मे लेप िकये हुए, सब पकार के आियो से युि, सीमारिहत और सब ओर मुख िकये हुए
िवराटसवरप परमदे व परमेशर को अजुन
ु ने दे खा।
िदिव स ूय ु सहससय भव ेद ुगपद ु ितथता।
यिद भा ः सदशी सा सयाद भासस तसय म हातमनः।। 12।।
आकाश मे हजार सूयो के एक साथ उदय होने से उतपनन जो पकाश हो, वह भी उस
िवशरप परमातमा के पकाश के सदश कदािचत ् ही हो।(12)
तिैकसथ ं जगत कृतसन ं प िवभि मनेक धा।
अपशयद ेव देवसय श रीर े पाण डवसतदा।। 13।।
पाणडु पुि अजुन
ु ने उस समय अनेक पकार से िवभि अथात
ु ् पथ
ृ क-पथ
ृ क, समपूणु जगत
को दे वो के दे व शीकृ षण भगवान के उस शरीर मे एक जगह िसथत दे खा।(13)
तत ः स िव समयािवषो हषरोमा ध नंजयः।
पणमय िशर सा दे वं कृता ं जिलर भाषत।। 14।।
उसके अननतर वे आियु से चिकत और पुलिकत शरीर अजुन
ु पकाशमय िवशरप
परमातमा को शदा-भििसिहत िसर से पणाम करके हाथ जोडकर बोलेः।(14)
अजुु न उ वाच
पशय ािम द ेव ांसतव द ेव द ेहे
सवाु सतथा भ ूत िवश ेष संिा न।्
बहाणमीश ं क मलासनस थ-
मृ षींि स वाु नुरगा ंि िदवया न।् । 15।।
अजुन
ु बोलेः हे दे व ! मै आपके शरीर मे समपूणु दे वो को तथा अनेक भूतो के समुदायो
को कमल के आसन पर िवरािजत बहा को, महादे व को और समपूणु ऋिषयो को तथा िदवय सपो
को दे खता हूँ।(15) (अनुकम)
अनेकबाह ू दरवकि नेि ं
पशय ािम तवा ं स वु तोऽननतरप म।्
नानत ं न म धयं न पुनसतवा िदं
पशय ािम िवश े शर िवशरप।। 16।।
हे समपूणु िवश के सवािमन ् ! आपको अनेक भुजा, पेट, मुख और नेिो से युि तथा सब
ओर से अननत रपो वाला दे खता हूँ। हे िवशरप ! मै आपके न तो अनत को दे खता हूँ, न मधय
को और न आिद को ही।(16)
िकरीिटन ं ग िदन ं च िकण ं च
तेजोरा िशं सव ु तो दीिपम नतम।्
पशयािम तव ां द ु िन ु रीकय ं स मन ता -
दीपा नलाकु दुित मपम ेयम।् ।17।।
आपको मै मुकुटयुि, गदायुि और चकयुि तथा सब ओर से पकाशमान तेज के पुंज,
पजविलत अिगन और सूयु के सदश जयोितयुि, किठनता से दे खे जाने योगय और सब ओर से
अपमेयसवरप दे खता हूँ।(17)
तवमकर ं परम ं व े िदतवय ं
तवमसय िव शसय पर ं िनधानम। ्
तव मवय यः शा शतध मु गोपा
सनातनसतव ं पु रषो म तो म े।। 18।।
आप ही जानने योगय परम अकर अथात
ु ् परबह परमातमा है , आप ही इस जगत के परम
आशय है , आप ही अनािद धम ु के रकक है और आप ही अिवनाशी सनातन पुरष है । ऐसा मेरा
मत है ।(18)
अनािद मधयानतमनन तवीय ु -
मन नतबाह ुं श िशस ूय ु नेिम।्
पशय ािम तवा ं दीपह ु ता शवकि ं
सवत ेजसा िवशिम दं तप नतम।् । 19।।
आपको आिद, अनत और मधय से रिहत, अननत सामथयु से युि, अननत भुजावाले, चनद-
सूयर
ु प नेिोवाले, पजजविलत अिगनरप मुखवाले और अपने तेज से इस जगत को संतप करते
हुए दे खता हूँ।(19)
दावाप ृ िथवय ोिरद मनतर ं िह
वय ापं तवय ैकेन िदश ि सवा ु ः।
दषटवादभ ु तं रपम ुग ं तव े दं
लोकिय ं पवयिथ तं महातमन। ् ।20।।
हे महातमन ! यह सवगु और पथ
ृ वी के बीच का समपूणु आकाश तथा सब िदशाएँ एक
आपसे ही पिरपूणु है तथा आपके इस अलौिकक और भयंकर रप को दे खकर तीनो लोक अित
वयथा को पाप हो रहे है ।(20) (अनुकम)
अमी िह तव ां स ुरस ंिा िव शिनत
केिचद भी ताः पा ं जलयो ग ृ णिनत ।
सवस तीत युकतवा मह िष ु िसद संिाः
सतुव िनत तव ां सत ुित भीः प ुषक लािभ ः।।
वे ही दे वताओं के समूह आपमे पवेश करते है और कुछ भयभीत होकर हाथ जोडे आपके
नाम और गुणो का उचचारण करते है तथा महिषु और िसदो के समुदाय 'कलयाण हो' ऐसा
कहकर उतम सतोिो िारा आपकी सतुित करते है ।(21)
रदािदतया व सवो ये च स ाधया
िवश ेऽ िशनौ मरतिोषमपा ि।
गनध वु यकास ुरिसदस ंिा
वीक नते तवा ं िविसम ताि ैव सव े ।। 22।।
जो गयारह रद और बारह आिदतय तथा आठ वसु, साधयगण, िवशेदेव, अिशनीकुमार तथा
मरदगण और िपतरो का समुदाय तथा गनधवु, यक, राकस और िसदो के समुदाय है – वे सब ही
िविसमत होकर आपको दे खते है ।(22)
रपं महत े बह ु वकि नेि ं
महाबाहो बह ु बाह ू रपाद म।्
बहूदरं बह ु दंषाकराल ं
दषटवा लोका ः पवयिथतासत थाहम।् ।23।।
हे महाबाहो ! आपके बहुत मुख और नेिो वाले, बहुत हाथ, जंिा और पैरो वाले, बहुत उदरो
वाले और बहुत-सी दाढो के कारण अतयनत िवकराल महान रप को दे खकर सब लोग वयाकुल हो
रहे है तथा मै भी वयाकुल हो रहा हूँ।(23)
नभःसप ृ शं दीपमन े कवण ु
वयात ानन ं दीप िवशाल नेिम।्
दषटवा िह तवा ं पवय िथतानतरातमा
धृ ितं न िव नदािम श मं च िवषणो।। 24।।
कयोिक हे िवषणो ! आकाश को सपशु करने वाले, दे दीपयमान, अनेक वणो युि तथा
िैलाये हुए मुख और पकाशमान िवशाल नेिो से युि आपको दे खकर भयभीत अनतःकरणवाला मै
धीरज और शािनत नहीं पाता हूँ।(24) (अनुकम)
दंषाकरालािन च ते म ुखािन
दषटव ैव कालानलस िननभािन।
िदशो न जान े न लभ े च श मु
पसीद द ेव ेश ज गिनन वास।। 25।।
दाढो के कारण िवकराल और पलयकाल की अिगन के समान पजविलत आपके मुखो के
दे खकर मै िदशाओं को नहीं जानता हूँ और सुख भी नहीं पाता हूँ। इसिलए हे दे वेश ! हे
जगिननवास ! आप पसनन हो।(25)
अमी च तवा ं ध ृ तराषसय पुिाः
सवे सह ैवाविन पालस ंि ैः।
भीषमो दोणः स ूतप ुिसत थासौ
सहासमदीय ैरिप योधम ुखय ैः।। 26।।
वकिा िण त े तवरमाणा िवश िनत
दंषाकरालािन भयानकािन
केिच िि लगन ा दशनानतर ेष ु
संदशयनत े चूिण ु तैरतमाङग ैः।। 27।।
वे सभी धत
ृ राष के पुि राजाओं के समुदायसिहत आपमे पवेश कर रहे है और भीषम
िपतामह, दोणाचायु तथा वह कणु और हमारे पक के भी पधान योदाओं सिहत सब के सब आपके
दाढो के कारण िवकराल भयानक मुखो मे बडे वेग से दौडते हुए पवेश कर रहे है और कई एक
चूणु हुए िसरो सिहत आपके दाँतो के बीच मे लगे हुए िदख रहे है ।(26,27)
यथा नदी नां ब हवोऽमब ुव ेगा ः
समुद मेवािभ मुखा दव िनत ।
तथा तवामी नरलोकवीरा
िवश िनत वक िाणयिभ िवजवल िनत।। 28।।
जैसे निदयो के बहुत से जल के पवाह सवाभािवक ही समुद के सममुख दौडते है अथात
ु ्
समुद मे पवेश करते है , वैसे ही वे नरलोक के वीर भी आपके पजविलत मुखो मे पवेश कर रहे
है ।
यथा पदीप ं जवलन ं पतङ गा
िव शिनत नाशाय स मृ दवेगाः।
तथैव नाशाय िव शिनत लोका -
सत वािप वकिािण स मृ दवेगाः।। 29।।
जैसे पतंग मोहवश नष होने के िलए पजविलत अिगन मे अित वेग से दौडते हुए पवेश
करते है , वैसे ही ये सब लोग भी अपने नाश के िलए आपके मुखो मे अित वेग से दौडते हुए
पवेश कर रहे है । (29) (अनुकम)
लेिल हसे ग समानः स मनता -
ललोकान समगानव दनैजव ु लिद ः।
तेजोिभराप ूय ु जगतस मगं
भाससतवो गाः पतप िनत िवषणो।। 30।।
आप उन समपूणु लोको को पजजविलत मुखो िारा गास करते हुए सब ओर से बार-बार
चाट रहे है । हे िवषणो ! आपका उग पकाश समपूणु जगत को तेज के िारा पिरपूणु करके तपा
रहा है ।(30)
आखयािह म े को भ वान ुगरपो
नमोऽ सतु त े द ेववर पसीद।
िवजात ु िमचछा िम भव नतमाद ं
न िह पजानािम तव पव ृ ितम।् ।31।।
मुझे बतलाइये िक आप उग रप वाले कौन है ? हे दे वो मे शि
े ! आपको नमसकार हो।
आप पसनन होइये। हे आिदपुरष ! आपको मै िवशेषरप से जानना चाहता हूँ, कयोिक मै आपकी
पविृत को नहीं जानता।(31)
शीभगवान ुवाच
कालोऽ िसम लोक कयकृतपव ृ द ो
लोकानस माहत ु िम ह पव ृ तः।
ऋतेऽ िप तवा ं न भ िवषयिनत सव े
येऽव िसथता ः पतयन ीकेष ु योधाः।। 32।।
शी भगवान बोलेः मै लोको का नाश करने वाला बढा हुआ महाकाल हूँ। इस समय लोको
को नष करने के िलए पवत
ृ हुआ हूँ। इसिलए जो पितपिकयो की सेना मे िसथत योदा लोग है वे
सब तेरे िबना भी नहीं रहे गे अथात
ु ् तेरे युद न करने पर भी इन सब का नाश हो जाएगा।(32)
तस मािवम ुिति यशो ल भसव
िजतवा शि ून ् भुंक व रा जयं सम ृ दम।्
मयैव ैत े िन हताः प ूव ु मे व
िन िमतमाि ं भ व सवयसािचन। ् ।33।।
अतएव तू उठ। यश पाप कर और शिुओं को जीतकर धन-धानय से समपनन राजय को
भोग। ये सब शूरवीर पहले ही से मेरे ही िारा मारे हुए है । हे सवयसािचन! तू तो केवल
िनिमतमाि बन जा।(33) (अनुकम)
दोण ं च भीषम ं च जयदथ ं च
कण ा तथा नया निप योधवीरान। ्
मया ह तांसतव ं ज िह मा वय िथिा
युधयसव ज ेता िस रण े स पत ् ना न।् । 34।।
दोणाचायु और भीषम िपतामह तथा जयदथ और कणु तथा और भी बहुत-से मेरे िारा
मारे हुए शूरवीर योदाओं को तू मार। भय मत कर। िनःसनदे ह तू युद मे वैिरयो को जीतेगा।
इसिलए युद कर।(34)
संजय उ वाच
एतचछतवा वचन ं केशव सय
कृताज िलव े पमानः िकरीटी।
नमस कृतवा भूय एवाह क ृषण ं
सगद दं भीतभीत ः पणमय।। 35।।
संजय बोलेः केशव भगवान के इस वचन को सुनकर मुकुटधारी अजुन
ु हाथ जोडकर
काँपता हुआ नमसकार करके, ििर भी अतयनत भयभीत होकर पणाम करके भगवान शीकृ षण के
पित गदगद वाणी से बोलेः।(35)
अजुु न उ वाच
सथान े ह िषकेश त व पकीतय ाु
जगतपहषयतय नुरजयत े च ।
रका ं िस भीतािन िदशो दव िनत
सवे नमसयिनत च िसद संिाः।। 36।।
अजुन
ु बोलेः हे अनतयािुमन ् ! यह योगय ही है िक आपके नाम, गुण और पभाव के कीतन
ु
से जगत अित हिषत
ु हो रहा है और अनुराग को भी पाप हो रहा है तथा भयभीत राकस लोग
िदशाओं मे भाग रहे है और सब िसदगणो के समुदाय नमसकार कर रहे है ।(36)
कसमाच च त े न नम ेरन महातमन ्
गरीयस े बहणोऽपयािदक िे ।
अनन त द ेव ेश ज गिननवास
तव मकर ं सदसततपर ं यत।् । 37।।
हे महातमन ् ! बहा के भी आिदकताु और सबसे बडे आपके िलए वे कैसे नमसकार न करे ,
कयोिक हे अननत ! हे दे वेश ! हे जगिननवास ! जो संत ,् असत ्, और उनसे परे अकर अथात
ु ्
सिचचदाननदिन बह है , वह आप ही है ।(37) (अनुकम)
तवमािद देवः प ुरष ः प ुराण -
सतव मसय िवशसय पर ं िन धानम।्
वेतािस व ेद ं पर ं च ध ाम
तवया तत ं िवश मननतरप।। 38।।
आप आिददे व और सनातन पुरष है । आप इस जगत के परम आशय और जानने वाले
तथा जानने योगय और परम धाम है । हे अननतरप ! आपसे यह सब जगत वयाप अथात
ु ् पिरपूणु
है ।(38)
वाय ुय ु मोऽिगनव ु रणः श शांक ः
पजापित सतव ं पिपताम हि।
नमो नमसत े ऽसत ु सह सकृतवः
पुनि भ ूयोऽिप नमो नमसत े।। 39।।
आप वायु, यमराज, अिगन, वरण, चनदमा, पजा के सवामी बहा और बहा के भी िपता है ।
आपके िलए हजारो बार नमसकार ! नमसकार हो ! आपके िलए ििर भी बार-बार नमसकार !
नमसकार !!
नमः प ुरसताद थ प ृ ितसत े
नमोऽ सतुं त े सव ु त एव स वु ।
अनन तवीय ाु िमतिव कमसतव ं
सव ु स मापन ोिष त तोऽिस सव ु ः।। 40।।
हे अननत सामथयु वाले ! आपके िलए आगे से और पीछे से भी नमसकार ! हे सवातुमन ्!
आपके िलए सब ओर से नमसकार हो कयोिक अननत पराकमशाली आप समसत संसार को वयाप
िकये हुए है , इससे आप ही सवर
ु प है ।(40)
सखे ित मतवा पस भं य द ु िं
हे कृषण ह े यादव हे सख े ित।
अजा नता म िहमान ं तव ेद ं
मया पमादातपणय ेन वािप।। 41।।
यच चावहासाथ ु म सतकृतोऽ िस
िव हारशययामनभोजन ेष ु।
एको ऽथवापयचय ुत ततसमक ं
ततकाम ये तवामहमपम ेयम।् ।42।।
आपके इस पभाव को न जानते हुए, आप मेरे सखा है , ऐसा मानकर पेम से अथवा पमाद
से भी मैने 'हे कृ षण !', 'हे यादव !', 'हे सखे !', इस पकार जो कुछ िबना सोचे समझे हठात ् कहा है
और हे अचयुत ! आप जो मेरे िारा िवनोद के िलए िवहार, शयया, आसन और भोजनािद मे अकेले
अथवा उन सखाओं के सामने भी अपमािनत िकये गये है – वह सब अपराध अपमेयसवरप
अथात
ु ् अिचनतय पभाववाले आपसे मै कमा करवाता हूँ।(41,42) (अनुकम)
िपतािस लोकसय चराचरसय
तव मसय पूजयि ग ुरग ु रीय ान।्
न तवत समोऽसतयभय िधकः क ु तोऽनयो
लोकि येऽपयपित मपभाव।। 43।।
आप इस चराचर जगत के िपता और सबसे बडे गुर तथा अित पूजनीय है । हे अनुपम
पभाव वाले ! तीनो लोको मे आपके समान भी दस
ू रा कोई नहीं है , ििर अिधक तो कैसे हो सकता
है ।(43)
तसमातपणमय पिण धाय काय ं
पसादय े तवामह मीशमीडयम। ्
िपत ेव प ुिसय सख ेव सखय ुः
िपयः िपयाय ाहु िस द ेव सोढ ु म।् । 44।।
अतएव हे पभो ! मै शरीर को भलीभाँित चरणो मे िनवेिदत कर, पणाम करके, सतुित करने
योगय आप ईशर को पसनन होने के िलए पाथन
ु ा करता हूँ। हे दे व ! िपता जैसे पुि के, सखा जैसे
सखा के और पित जैसे िपयतमा पती के अपराध सहन करते है – वैसे ही आप भी मेरे अपराध
सहन करने योगय है ।(44)
अद षपूव ा हिष तोऽिसम दषवा
भयेन च पवय िथत ं मनो म े।
तदेव म े दश ु य द ेवरप ं
पसीद द ेव ेश ज गिनन वास।। 45।।
मै पहले न दे खे हुए आपके इस आिमय
ु रप को दे खकर हिषत
ु हो रहा हूँ और मेरा मन
भय से अित वयाकुल भी हो रहा है , इसिलए आप उस अपने चतुभुच िवषणुरप को ही मुझे
िदखलाइये ! हे दे वेश ! हे जगिननवास ! पसनन होइये।(45)
िकरीिटन ं गिदन ं च कहसत -
िम चछािम तवा ं दष ुमह ं त थैव।
तेन ैव रप ेण चत ुभ ु जेन
सहसबाहो भव िवशम ूत े ।। 46।।
मै वैसे ही आपको मुकुट धारण िकये हुए तथा गदा और चक हाथ मे िलए हुए दे खना
चाहता हूँ, इसिलए हे िवशसवरप ! हे सहसबाहो ! आप उसी चतुभुजरप से पकट होइये।(46)
(अनुकम)
शीभगवान ुवाच
मया प सन नेन त वाज ु नेद ं
रपं पर ं द िश ु त मातमयोगात। ्
तेजोमय ं िवश मननतमाद ं
यनम े तवदन येन न दषप ूव ु म।् । 47।।
शी भगवान बोलेः हे अजुन
ु ! अनुगहपूवक
ु मैने अपनी योगशिि के पभाव से यह मेरा
परम तेजोमय, सबका आिद और सीमारिहत िवराट रप तुझको िदखलाया है , िजसे तेरे अितिरि
दस
ू रे िकसी ने नहीं दे खा था।(47)
न व ेदयजाधय यनैन ु दान ै -
नु च िकया िभन ु त पोिभर गैः।
एवंरप ः शकय अह ं न ृ लोके
दषुं तवद नयेन कुरपवीर।। 48।।
हे अजुन
ु ! मनुषयलोक मे इस पकार िवशरपवाला मै न वेद और यजो के अधययन से, न
दान से, न िकयाओं से और न उग तपो से ही तेरे अितरि दस
ू रे के िारा दे खा जा सकता हूँ।(48)
मा त े वयथा मा च िवम ूढभावो
दषटवा रप ं िोरमीदङमम ेद म।्
वयप ेतभीः पीतमनाः प ुनसतव ं
तदेव म े रप िमद ं पपशय।। 49।।
मेरे इस पकार के इस िवकराल रप को दे खकर तुझको वयाकुलता नहीं होनी चािहए और
मूढभाव भी नहीं होना चािहए। तू भयरिहत और पीितयुि मनवाला होकर उसी मेरे शंख-चक-
गदा-पदयुि चतुभुज रप को ििर दे ख।(49)
संजय उ वाच
इतयज ु नं वास ुदेवस तथोकतवा
सव कं रप ं द शु यामास भ ूयः।
आशासयामास च भीतम ेन ं
भूतवा प ुनः सौमयवप ुम ु हातमा।। 50।।
संजय बोलेः वासुदेव भगवान ने अजुन
ु के पित इस पकार कहकर ििर वैसे ही अपने
चतुभुज रप को िदखलाया और ििर महातमा शीकृ षण ने सौमयमूितु होकर इस भयभीत अजुन
ु
को धीरज बंधाया।(50)
अजुु न उ वाच
दषटव ेद ं मान ुष ं रप ं सौमय ं जनाद ु न।
इदा नीम िसम स ंव ृ त ः सच ेता ः पकृ ितं गत ः।। 51।।
अजुन
ु बोलेः हे जनादु न ! आपके इस अित शानत मनुषयरप को दे खकर अब मै िसथरिचत
हो गया हूँ और अपनी सवाभािवक िसथित को पाप हो गया हूँ।(51) (अनुकम)
शीभगवान ुवाच
सुद ु दु शु िमद ं रप ं दषवान िस यनमम।
देवा अपयसय रपसय िनतय ं द शु नका ंिकण ः।। 52।।
शी भगवान बोलेः मेरा जो चतुभुज रप तुमने दे खा है , यह सुदद
ु ुशु है अथात
ु ् इसके दशन
ु
बडे ही दल
ु भ
ु है । दे वता भी सदा इस रप के दशन
ु की आकांका करते रहते है ।(52)
नाह ं वेद ैन ु तपसा न दान ेन न च ेजयय ा।
शकय एव ंिव धो दष ुं दषवान िस मा ं यथा।। 53।।
िजस पकार तुमने मुझे दे खा है – इस पकार चतुभुजरपवाला मै न तो वेदो से, न तप से,
न दान से, और न यज से ही दे खा जा सकता हूँ।(53)
भिय ा तवननयया श कय अ हमेव ंिव धोऽज ु न।
जात ुं दष ुं च तिव ेन प वेषुं च पर ंतप।। 54।।
परनतु हे परं तप अजुन
ु ! अननय भिि के िारा इस पकार चतुभुजरपवाला मै पतयक
दे खने के िलए तिव से जानने के िलए तथा पवेश करने के िलए अथात
ु ् एकीभाव से पाप होने के
िलए भी शकय हूँ।(54)
मत कम ु कृनमतपरमो मद िः स ं गविज ु तः।
िनव ैर ः सव ु भूत ेष ु यः स माम े ित पाणड व।। 55।।
हे अजुन
ु ! जो पुरष केवल मेरे ही िलए समपूणु कतवुयकमो को करने वाला है , मेरे परायण
है , मेरा भि है , आसििरिहत है और समपूणु भूतपािणयो मे वैरभाव से रिहत है , वह अननय
भिियुि पुरष मुझको ही पाप होता है ।(55) (अनुकम)
ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे
शीकृ षणाजुन
ु संवादे िवशरपदशन
ु योगो नाम एकादशोऽधयायः ।।11।।
इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के
शीकृ षण-अजुन
ु संवाद मे िवशरपदशन
ु योग नामक गयारहवाँ अधयाय संपूण ु हुआ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
।। अथ िादशो ऽधयायः ।।
अजुु न उ वाच
एवं स ततय ुिा ये भिासतव ां पय ु पासत े।
ये चापयकरमवयि ं त ेषा ं के योग िवतमाः।। 1।।
अजुन
ु बोलेः जो अननय पेमी भिजन पूवोि पकार िनरनतर आपके भजन धयान मे लगे
रहकर आप सगुणर परमेशर को और दस
ू रे जो केवल अिवनाशी सिचचदाननदिन िनराकार बह
को ही अित शि
े भाव से भजते है – उन दोनो पकार के उपासको मे अित उतम योगवेता कौन
है ?
शीभगवान ुवाच
मययाव े शय मनो ये मा ं िनतयय ुि ा उपासत े।
शदया परयोप ेतासत े मे य ुितमा म ताः।। 2।।
शी भगवान बोलेः मुझमे मन को एकाग करके िनरनतर मेरे भजन-धयान मे लगे हुए जो
भिजन अितशय शि
े शदा से युि होकर मुझ सगुणरप परमेशर को भजते है , वे मुझको योिगयो
मे अित उतम योगी मानय है ।(2) (अनुकम)
ये तवकरमिनद ेशयमवयि ं पय ु पासत े।
सवु िग मिच नतय ं च क ूटस थम चलं ध ुवम।् । 3।।
संिनयमय ेिनद गाम ं स वु ि स मबुदयः
ते पापन ुविनत माम ेव सव ु भूतिह ते रताः।। 4।।
कले शोऽ िधकतरसत ेषामवयिासिच ेत साम।्
अवयिा िह ग ित दु ु ःखं द ेह िविद रवाप यते।। 5।।
परनतु जो पुरष इिनदयो के समुदाय को भली पकार वश मे करके मन बुिद से परे
सववुयापी, अकथीनयसवरप और सदा एकरस रहने वाले, िनतय, अचल, िनराकार, अिवनाशी,
सिचचदाननदिन बह को िनरनतर एकीभाव से धयान करते हुए भजते है , वे समपूणु भूतो के िहत
मे रत और सब मे समान भाववाले योगी मुझको ही पाप होते है । उन सिचचदाननदिन िनराकार
बह मे आसि िचतवाले पुरषो के साधन मे पिरशम िवशेष है , कयोिक दे हािभमािनयो के िारा
अवयि-िवषयक गित दःुखपूवक
ु पाप की जाित है ।(3,4,5)
ये त ु स वाु िण कमा ु िण मिय स ं नयसय म तपराः।
अननय ेन ैव योग ेन म ां ध यायनत उ पासत े।। 6।।
तेषामह ं स मुदता ु म ृ तयुस ंसारसागरात। ्
भवा िम निचरातपाथ ु म ययाव ेिशत चेतसाम।् ।7।।
परनतु जो मेरे परायण रहने वाले भिजन समपूणु कमो को मुझे अपण
ु करके मुझ
सगुणरप परमेशर को ही अननय भिियोग से िनरनतर िचनतन करते हुए भजते है । हे अजुन
ु !
उन मुझमे िचत लगाने वाले पेमी भिो का मै शीघ ही मतृयुरप संसार-समुद से उदार करने
वाला होता हूँ।(6,7)
मयये व मन आधतसव म िय ब ुिद ं िनव े शय।
िनव िसषय िस मय येव अत ऊ धव ा न स ंशय ः।। 8।।
मुझमे मन को लगा और मुझमे ही बुिद को लगा। इसके उपरानत तू मुझमे िनवास
करे गा, इसमे कुछ भी संशय नहीं है ।
अथ िच तं समा धात ुं श कनोिष मिय िसथर म।्
अभयासयोग ेन त तो मािम चछाप ुं ध नंजय।। 9।।
यिद तू मन को मुझमे अचल सथापन करने के िलए समथु नहीं है तो हे अजुन
ु !
अभयासरप योग के िारा मुझको पाप होने के िलए इचछा कर।(9)
अभयास े ऽपयसमथोऽ िस म तकम ु परमो भव।
मद थु मिप कमा ु िण कुव ु िनस िदमवापसयिस।। 10।।
यिद तू उपयुि
ु अभयास मे भी असमथु है तो केवल मेरे िलए कमु करने के ही परायण
हो जा। इस पकार मेरे िनिमत कमो को करता हुआ भी मेरी पािपरप िसिद को ही पाप होगा।
(10)
अथै तदपयशिोऽिस कत ुा मदोग मािशत ः।
सवु कम ु ि लतय ागं त तः कुर यतातमवान। ् । 11।।
यिद मेरी पािप रप योग के आिशत होकर उपयुि
ु साधन को करने मे भी तू असमथु है
तो मन बुिद आिद पर िवजय पाप करने वाला होकर सब कमो के िल का तयाग कर।(11)
शे यो िह जानमभयासाज जानादधय ानं िव िशषयत े।
धयान ातकम ु ि लतयागसतय ागाचछा िनतरननतरम। ् ।12।।
ममु को न जानकर िकये हुए अभयास से जान शि
े है । जान से मुझ परमेशर के सवरप
का धयान शि
े है और धयान से भी सब कमो के िल का तयाग शि
े है कयोिक तयाग से ततकाल
ही परम शािनत होती है ।(12) (अनुकम)
अिेषा सव ु भूताना ं म ैि ः करण एव च ।
िनम ु मो िनरह ंकारः स मद ु ःखस ुखः क मी।। 13।।
संत ुष ः सतत ं योगी यतातमा दढिनियः।
मययिप ु त मनोब ुिदय ो मद भ िः स म े िपयः।। 14।।
जो पुरष सब भूतो मे िे षभाव से रिहत, सवाथरुिहत, सबका पेमी और हे तुरिहत दयालु है
तथा ममता से रिहत, अहं कार से रिहत, सुख-दःुखो की पािप मे सम और कमावान है अथात
ु ्
अपराध करने वाले को भी अभय दे ने वाला है , तथा जो योगी िनरनतर सनतुष है , मन इिनदयो
सिहत शरीर को वश मे िकये हुए है और मुझमे दढ िनिय वाला – वह मुझमे अपण
ु िकये हुए
मन बुिदवाला मेरा भि मुझको िपय है ।(13,14)
यसमाननोिि जते लोको लोकाननोििजत े च यः।
हषा ु मष ु भय ोिेग ै मु िो यः स च मे िपयः।। 15।।
िजससे कोई भी जीव उिे ग को पाप नहीं होता और जो सवयं भी िकसी जीव से उिे ग को
पाप नहीं होता तथा जो हषु, अमषु, भय और उिे गािद से रिहत है – वह भि मुझको िपय है ।
(15)
अनप ेक ः श ु िचद ु क उ दासीन ो गतवयथ ः।
सवाु रमभपिरतयागी यो मद भि ः स म े िपयः।। 16।।
जो पुरष आकांका से रिहत, बाहर-भीतर से शुद, चतुर, पकपात से रिहत और दःुखो से छूटा
हुआ है – वह सब आरमभो का तयागी मेरा भि मुझको िपय है ।(16)
यो न ह षयित न िेिष न शो चित न का ंकित।
शु भाश ुभपिरतयागी भ ििमानयः स मे िपय ः।। 17।।
जो न कभी हिषत
ु होता है , न िे ष करता है , न शोक करता है , न कामना करता है तथा जो
शुभ और अशुभ समपूणु कमो का तयागी है – वह भिियुि पुरष मुझको िपय है ।(17)
सम ः शि ौ च िम िे च त था मानापमा नयोः।
शीतोषणस ुखद ु ःखेष ु स मः स ङग िवविज ु तः।। 18।।
तुलयिन नदासत ुित मौन ी स ंत ु षो येन केनिचत।्
अिनकेत ः िसथ रमित भु िि मानम े िपयो नरः।। 19।।
जो शिु-िमि मे और मान-अपमान मे सम है तथा सदी, गमी और सुख-दःुखािद िनिो मे
सम है और आसिि से रिहत है । जो िननदा-सतुित को समान समझने वाला, मननशील और िजस
िकसी पकार से भी शरीर का िनवाह
ु होने मे सदा ही सनतुष है और रहने के सथान मे ममता
और आसिि से रिहत है – वह िसथरबुिद भििमान पुरष मुझको िपय है ।(18,19) (अनुकम)
ये त ु ध मया ु म ृ तिम दं यथो ििं पय ु पासत े।
शद धान ा मतपरमा भिासत े ऽतीव म े िपयाः।। 20।।
परनतु जो शदायुि पुरष मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धमम
ु य अमत
ृ को
िनषकाम पेमभाव से सेवन करते है , वे भि मुझको अितशय िपय है ।(20)
ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे
शीकृ षणाजुन
ु संवादे भिियोगो नाम िादशोऽधयायः ।।12।।
इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के
शीकृ षण-अजुन
ु संवाद मे भिियोग नामक बारहवाँ अधयाय संपूणु हुआ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
।। अथ ियोदशो ऽधयायः ।।
शीभगवान ुवाच
इदं श रीर ं कौ नतेय केि िमतय िभधीयत े।
एतदो वे ित त ं पाह ु ः क ेिज इ ित त ििद ः।। 1।।
शी भगवान बोलेः हे अजुन
ु ! यह शरीर 'केि' इस नाम से कहा जाता है और इसको जो
जानता है , उसको 'केिज' इस नाम से उनके तिव को जानने वाले जानीजन कहते है ।(1)
केिज ं चा िप मा ं िविद स वु केि ेष ु भारत।
केिक ेिजोजा ु नं यतजजा नं मत ं म म।। 2।।
हे अजुन
ु ! तू सब केिो मे केिज अथात
ु ् जीवातमा भी मुझे ही जान और केि-केिज को
अथात
ु ् िवकारसिहत पकित का और पुरष का जो तिव से जानना है , वह जान है – ऐसा मेरा मत
है ।(2)
ततक ेि ं यच च यादकच यििकािर यति यत। ्
स च यो यतपभाव ि ततसमास ेन म े श ृणु।। 3।।
वह केि जो और जैसा है तथा िजन िवकारो वाला है और िजस कारण से जो हुआ है
तथा केिज भी जो और िजस पभाववाला है – वह सब संकेप मे मुझसे सुन।(3)
ऋिषिभ बु हुधा गी तं छनदो िभिव ु िवध ै ः प ृ थक् ।
बहस ू िपद ैि ै व ह ेत ुमिद िव ु िनिि तैः।। 4।।
यह केि और केिज का तिव ऋिषयो िारा बहुत पकार से कहा गया है और िविवध
वेदमंिो िारा भी िवभागपूवक
ु कहा गया है तथा भली भाँित िनिय िकए हुए युिियुि बहसूि के
पदो िारा भी कहा गया है ।(4) (अनुकम)
महाभ ू तानयह ंका रो ब ुिदरवयिम ेव च ।
इिनदयािण द शैकं च पंच च ेिनदय गोचराः।। 5।।
इचछा ि ेषः स ुख ं द ु ःखं स ंिाति ेतना ध ृ ितः।
एततक ेि ं स मास ेन स िवकारम ुदाहत म।् । 6।।
पाँच महाभूत, अहं कार, बुिद और मूल पकृ ित भी तथा दस इिनदयाँ, एक मन और पाँच
इिनदयो के िवषय अथात
ु ् शबद, सपशु, रप, रस और गनध तथा इचछा, िे ष, सुख-दःुख, सथूल दे ह का
िपणड, चेतना और धिृत – इस पकार िवकारो के सिहत यह केि संकेप से कहा गया।(5,6)
अमािनतवदिमभ तवमिह ं सा क ािनतराज ु व म।्
आचायोप ासन ं शौच ं सथ ैय ु मातम िविनग हः।। 7।।
इिनदयाथ ेष ु व ैरा गयमनह ंकार एव च ।
जन मम ृ तयुजराव यािधद ु ःखदोषान ुदश ु नम।् ।8।।
असििरनिभषव ं गः प ु िदारग ृ हािदष ु।
िनतय ं च सम िचततव िमषािनषोपपितष ु।। 9।।
मिय चान नय योग ेन भ ििरवयिभ चािरणी।
िव िविद े शसेिवतव मरितज ु नसं सिद।। 10।।
अधयातमजानिनत यतव ं तिवजानाथ ु दशु नम।्
एतजजानिम ित पोिमजान ं यदतोऽ नयथा।। 11।।
शि
े ता के जान का अिभमान का अभाव, दमभाचरण का अभाव, िकसी पाणी को िकसी
पकार भी न सताना, कमाभाव, मन-वाणी आिद की सरलता, शदा-भििसिहत गुर की सेवा, बाहर-
भीतर की शुिद, अनतःकरण की िसथरता और मन-इिनदयोसिहत शरीर का िनगह। इस लोक और
परलोक समपूणु भोगो मे आसिि का अभाव और अहं कार का भी अभाव, जनम, मतृयु, जरा और
रोग आिद मे दःुख और दोषो का बार-बार िवचार करना। पुि, सी, िर और धन आिद मे आसिि
का अभाव, ममता का न होना तथा िपय और अिपय की पािप मे सदा ही िचत का सम रहना।
मुझ परमेशर मे अननय योग के िारा अवयिभचािरणी भिि तथात एकानत और शुद दे श मे रहने
का सवभाव और िवषयासि मनुषयो के समुदाय मे पेम का न होना। अधयातमजान मे िनतय
िसथित और तिवजान के अथर
ु प परमातमा को ही दे खना – यह सब जान है और जो इससे
िवपरीत है , वह अजान है – ऐसा कहा है ।(7,8,9,10,11)
जेय ं यत तपवकयािम यजजातवाम ृ तमश ुत े।
अनािदमतपर ं ब ह न सत ननास द ु चयत े।। 12।।
जो जानने योगय है तथा िजसको जानकर मनुषय परमाननद को पाप होता है , उसको
भलीभाँित कहूँगा। वह अनािद वाला परबह न सत ् ही कहा जाता है , न असत ् ही।(12)
सवु तः पा िणपाद ं ततसव ु तो ऽिक िशरोम ुखम।्
सवु तः श ु ित मललोके सव ु माव ृ तय ितिित ।। 13।।
वह सब ओर हाथ पैर वाला, सब और नेि, िसर ओर मुख वाला तथा सब ओर कान वाला
है कयोिक वह संसार मे सबको वयाप करके िसथत है ।(13) (अनुकम)
सवे िनदय गुणाभास ं सव े िनदयिवव िज ु त म।्
असिं स वु भ ृ च चैव िनग ु णं ग ुणभोि ृ च।। 14।।
वह समपूणु इिनदयो के िवषयो को जानने वाला है , परनतु वासतव मे सब इिनदयो से रिहत
है तथा आसिि रिहत होने पर भी सबका धारण-पोषण करने वाला और िनगुण
ु होने पर भी गुणो
को भोगने वाला है ।(14)
बिहरनत ि भ ूतानामचर ं चर मेव च।
सूकमतवातदिवज ेय ं द ू रस थं चा िनतके च तत।् । 15।।
वह चराचर सब भूतो के बाहर भीतर पिरपूणु है और चर-अचर भी वही है और वह सूकम
होने से अिवजेय है तथा अित समीप मे और दरू मे भी वही िसथत है ।(15)
अिव भिं च भ ूत ेष ु िव भििम व च िसथत म।्
भूत भत ुृ च तजज ेय ं ग िसषण ु पभ िवषण ु च ।। 16।।
वह परमातमा िवभागरिहत एक रप से आकाश के सदश पिरपूणु होने पर भी चराचर
समपूणु भूतो मे िवभि-सा िसथत पतीत होता है तथा वह जानने योगय परमातमा के िवषणुरप से
भूतो को धारण-पोषण करने वाला और रदरप से संहार करने वाला तथा बहारप से सबको
उतपनन करने वाला है ।(16)
जयोितषाम िप तजजयोितसत मसः पर मुचयत े।
जान ं जेय ं जानगमय ं हिद सव ु सय िव िितम।् ।17।।
वह परबह जयोितयो का भी जयोित और माया से अतयनत परे कहा जाता है । वह
परमातमा बोधसवरप, जानने के योगय तथा तिवजान से पाप करने योगय है और सबके हदय मे
िवशेषरप से िसथत है ।(17)
इित केि ं तथा जान ं ज े यं चोि ं स मासत ः।
मद ि एतििजाय मद ावा योपपदत े।। 18।।
इस पकार केि तथा जान और जानने योगय परमातमा का सवरप संकेप से कहा गया।
मेरा भि इसको तिव से जानकर मेरे सवरप को पाप होता है ।(18)
पकृ ितं प ुरष ं च ै व िवदयन ादी उभाव िप।
िवकारा ं ि ग ुण ांि ैव िव िद पक ृ ितसमभ वा न।् । 19।।
पकृ ित और पुरष – इन दोनो को ही तू अनािद जान और राग-िे षािद िवकारो को तथा
ििगुणातमक समपूणु पदाथो को भी पकृ ित से ही उतपनन जान।(19)
काय ु करणकत ुृ तवे हेत ु ः पकृितर चयत े।
पुरषः स ुखद ु ःखाना ं भोि ृतव े ह ेत ुरचयत े।। 20।।
कायु और करण को उतपनन करने मे हे तु पकृ ित कही जाती है और जीवातमा सुख-दःुखो
के भोिापन मे अथात
ु ् भोगने मे हे तु कहा जाता है ।(20) (अनुकम)
पुरष ः पकृ ितस थो िह भ ुंिे प कृितजा नगुणान।्
कारण ं ग ुणस ं गोऽसय सदसदोिनज नमस ु।। 21।।
पकृ ित मे िसथत ही पुरष पकृ ित से उतपनन ििगुणातमक पदाथो को भोगता है और इन
गुणो का संग ही इस जीवातमा का अचछी बुरी योिनयो मे जनम लेने का कारण है ।(21)
उपदषान ुमनता च भ ताु भोिा मह े शरः।
परमातम ेित च ापय ुि ो द ेहेऽ िसमन पुरषः पर ः।। 22।।
इस दे ह मे िसथत वह आतमा वासतव मे परमातमा ही है । वही साकी होने से उपदषा और
यथाथु सममित दे ने वाला होने से अनुमनता, सबका धारण-पोषण करने वाला होने से भताु,
जीवरप से भोिा, बहा आिद का भी सवामी होने से महे शर और शुद सिचचदाननदिन होने से
परमातमा-ऐसा कहा गया है ।(22)
य एव ं व ेित प ुरष ं प कृित ं च गुण ै ः सह।
सवु था वत ु मानोऽ िप न स भूयोऽिभ जायत े।। 23।।
इस पकार पुरष को और गुणो के सिहत पकृ ित को जो मनुषय तिव से जानता है , वह
सब पकार से कतवुयकमु करता हुआ भी ििर नहीं जनमता।(23)
धयान ेनातमिन पशय िनत क ेिच दातमानमातमना।
अनये स ांखय ेन योग ेन क मु योग े न चापर े।। 24।।
उस परमातमा को िकतने ही मनुषय तो शुद हुई सूकम बुिद से धयान के िारा हदय मे
दे खते है । अनय िकतने ही जानयोग के िारा और दस
ू रे िकतने ही कमय
ु ोग के िारा दे खते है
अथात
ु ् पाप करते है ।(24)
अनये तव ेवम जाननतः श ु तवानय ेभय उपासत े।
तेऽ िप चा िततरनतय े व म ृ तयुं श ु ित परा यणाः।। 25।।
परनतु इनसे दस
ू रे अथात
ु ् जो मनद बुिद वाले पुरष है , वे इस पकार न जानते हुए दस
ू रो
से अथात
ु ् तिव के जानने वाले पुरषो से सुनकर ही तदनुसार उपासना करते है और वे
शवणपरायण पुरष भी मतृयुरप संसार सागर को िनःसंदेह तर जाते है ।(25)
यावतस ंजायत े िकंिच तसिव ं स थावरज ंगमम।्
केिक ेिजस ंयोगातिििद भर तष ु भ।। 26।।
हे अजुन
ु ! यावनमाि िजतने भी सथावर-जंगम पाणी उतपनन होते है , उन सबको तू केि
और केिज के संयोग से ही उतपनन जान।(26)
समं सव े षु भ ूत ेष ु ित िनत ं परम ेशरम।्
िवनशयतसविवनशयनत ं पशयित स पशयित।। 27।।
जो पुरष नष होते हुए सब चराचर भूतो मे परमेशर को नाशरिहत और समभाव से िसथत
दे खता है , वही यथाथु दे खता है ।(27) (अनुकम)
समं पशयिनह सव ु ि स मव िसथत मीशरम।्
न िहनसतयातमन ातमान ं ततो याित परा ं ग ितम।् ।28।।
कयोिक जो पुरष सबमे समभाव से िसथत परमेशर को समान दे खता हुआ अपने िारा
अपने को नष नहीं करता, इससे वह परम गित को पाप होता है ।(28)
पकृतय ैव च कमा ु िण िकयमाणािन सव ु शः।
यः पशयित त थातमानमकता ु रं स पशयित।। 29।।
और जो पुरष समपूणु कमो को सब पकार से पकृ ित के िारा ही िकये जाते हुए दे खता है
और आतमा को अकताु दे खता है , वही यथाथु दे खता है ।(29)
यदा भ ूतप ृ थगभावम ेकस थमन ुपशयित।
तत एव च िवसतार ं बह स मपदत े त दा।। 30।।
िजस कण यह पुरष भूतो पथ
ृ क-पथ
ृ क भाव को एक परमातमा मे ही िसथत तथा उस
परमातमा से ही समपूणु भूतो का िवसतार दे खता है , उसी कण वह सिचचदाननदिन बह को पाप
हो जाता है ।(30)
अनािदतवािनन गुु णतवातप रमातमयमवययः।
शरीरसथोऽ िप कौनत ेय न करोित न िलपयत े।। 31।।
हे अजुन
ु ! अनािद होने से और िनगुण
ु होने से यह अिवनाशी परमातमा शरीर मे िसथत
होने पर भी वासतव मे न तो कुछ करता है और न िलप ही होता है ।(31)
यथा स वु गतं सौकमयादाकाश ं नोपिलपयत े।
सव ु िाव िसथतो द ेहे त थातमा न ोप िलपयत े।। 32।।
िजस पकार सवि
ु वयाप आकाश सूकम होने के कारण िलप नहीं होता, वैसे ही दे ह मे
सवि
ु िसथत आतमा िनगुण
ु होने के कारण दे ह के गुणो से िलप नहीं होता।(32)
यथा पकाशयतय ेक ः कृतसन ं लोक िमम ं र िवः।
केि ं क े िी त था कृतसन ं पकाशयित भ ारत।। 33।।
हे अजुन
ु ! िजस पकार एक ही सूयु इस समपूणु बहाणड को पकािशत करता है , उसी पकार
एक ही आतमा समपूणु केि को पकािशत करता है ।(33)
केिक े िजय ोरेवमन तरं जा नचक ुषा।
भूतप कृित मोक ं च ये िवद ु याु िनत त े परम।् । 34।।
इस पकार केि और केिज के भेद को तथा कायस
ु िहत पकृ ित से मुि होने का जो पुरष
जान-नेिो िारा तिव से जानते है , वे महातमाजन परबह परमातमा को पाप होते है ।(34) (अनुकम)
ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे
शीकृ षणाजुन
ु संवादे केिकेिजिवभागयोगो नाम ियोदशोऽधयायः ।।13।।
इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के
शीकृ षण-अजुन
ु संवाद मे केिकेिजिवभागयोग नामक तेरहवाँ अधयाय संपूणु हुआ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
।। अथ प ंचदशोऽधयायः ।।
शीभगवान ुवाच
ऊधव ु मू लमध ःशाखम शतथ ं पाह ु रवययम।्
छनद ांिस यसय पणा ु िन यसत ं व ेद स व ेद िवत।् । 1।।
शी भगवान बोलेः आिदपुरष परमेशररप मूलवाले और बहारप मुखय शाखावाले िजस
संसाररप पीपल के वक
ृ को अिवनाशी कहते है , तथा वेद िजसके पते कहे गये है – उस संसाररप
वक
ृ को जो पुरष मूलसिहत तिव से जानता है , वह वेद के तातपयु को जानने वाला है ।(1)
(अनुकम)
अधिोधव ा प सृ तासतसय शाखा
गुणपव ृ दा िवषयपवालाः।
अध ि म ूला नय नुस ंत तािन
कमाु नुबनधीिन मन ुषयलोक े।। 2।।
उस संसार वक
ृ की तीनो गुणो रप जल के िारा बढी हुई और िवषय-भोगरप कोपलोवाली
दे व, मनुषय और ितयक
ु आिद योिनरप शाखाएँ नीचे और ऊपर सवि
ु िैली हुई है तथा
मनुषयलोक मे कमो के अनुसार बाँधनेवाली अहं ता-ममता और वासनारप जडे भी नीचे और ऊपर
सभी लोको मे वयाप हो रही है ।(2)
न रप मसय ेह त थोपलभयत े
नानतो न चा िदन ु च स मपितिा।
अशत थमेन ं सुिवरढ मूल -
मसङग शसेण दढ ेन िछतवा।। 3।।
ततः पद ं त तपिरमा िगु तवय ं
यिसमन गता न िनव तु िनत भूयः।
तमेव चाद ं प ुरष ं प पदे
यतः पव ृ ित ः पस ू ता पुराणी।। 4।।
इस संसार वक
ृ का सवरप जैसा कहा है वैसा यहाँ िवचारकाल मे नहीं पाया जाता, कयोिक
न तो इसका आिद है और न अनत है तथा न इसकी अचछी पकार से िसथित ही है । इसिलए
इस अहं ता-ममता और वासनारप अित दढ मूलो वाले संसाररप पीपल के वक
ृ को वैरागयरप शस
िारा काटकर। उसके पिात उस परम पदरप परमेशर को भली भाँित खोजना चािहए, िजसमे गये
हुए पुरष ििर लौटकर संसार मे नहीं आते और िजस परमेशर से इस पुरातन संसार-वक
ृ की
पविृत िवसतार को पाप हुई है , उसी आिदपुरष नारायण के मै शरण हूँ – इस पकार दढ िनिय
करके उस परमेशर का मनन और िनिदधयासन करना चािहए।(3,4)
िनमा ु नमोहा िज तसङगदोषा
अधयातमिनतया िविनव ृ तकामाः।
िनिै िव ु मुिाः स ुख द ु ःखस ंज ै -
गु चछनतयम ूढा ः पदमवयय ं त त।् ।5।।
िजसका मान और मोह नष हो गया है , िजनहोने आसििरप दोष को जीत िलया है ,
िजनकी परमातमा के सवरप मे िनतय िसथित है और िजनकी कामनाएँ पूणर
ु प से नष हो गयी
है - वे सुख-दःुख नामक िनिो से िवमुि जानीजन उस अिवनाशी परम पद को पाप होते है ।(5)
न त दासयत े स ूयो न श शांको न पावक ः।
यदतवा न िनवत ु नते तदाम परम ं मम।। 6।।
िजस परम पद को पाप होकर मनुषय लौटकर संसार मे नहीं आते, उस सवयं पकाश परम
पद को न सूयु पकािशत कर सकता है , न चनदमा और अिगन ही। वही मेरा परम धाम है ।(6)
(अनुकम)
ममैव ांशो जीव लोके जीव भूतः सनातनः।
मन ःषिानीिनदयािण पक ृ ितसथािन क षु ित।। 7।।
शरीर ं यदवाप नोित यच चाप युतकामतीशर ः।
गृ हीतव ैतािन स ंयाित वाय ुग ु न धािनवाशयात। ् ।8।।
शोिं चक ु ः सप शु नं च रसन ं घाणम ेव च ।
अिधिाय मनिाय ं िवषयान ुपस ेवत े।। 9।।
इस दे ह मे यह सनातन जीवातमा मेरा अंश है और वही इस पकृ ित मे िसथत मन और
पाँचो इिनदयो को आकिषत
ु करता है ।(7)
वायु गनध के सथान से गनध को जैसे गहण करके ले जाता है , वैसे ही दे हािद का सवामी
जीवातमा भी िजस शरीर का तयाग करता है , उससे इस मन सिहत इिनदयो को गहण करके ििर
िजस शरीर को पाप होता है - उसमे जाता है ।(8)
यह जीवातमा शोि, चकु और तवचा को तथा रसना, घाण और मन को आशय करके-
अथात
ु ् इन सबके सहारे से ही िवषयो का सेवन करता है ।(9)
उतकाम नतं िसथ तं वािप भ ुंजान ं वा ग ुणा िनवत म।्
िव मूढा नान ुपशयिनत जानचक ुष ः।। 10।।
शरीर को छोडकर जाते हुए को अथवा शरीर मे िसथत हुए को अथवा िवषयो को भोगते
हुए को इस पकार तीनो गुणो से युि हुए को भी अजानीजन नहीं जानते, केवल जानरप नेिोवाले
िववेकशील जानी ही तिव से जानते है ।(10)
यतनतो योिगनि ैन ं पशयनतया तम नयविसथ तम।्
यतनतोऽपयक ृतातमानो नैन ं पशयनतयच ेतस ः।। 11।।
यत करने वाले योगीजन भी अपने हदय मे िसथत इस आतमा को तिव से जानते है
िकनतु िजनहोने अपने अनतःकरण को शुद नहीं िकया है , ऐसे अजानीजन तो यत करते रहने पर
भी इस आतमा को नहीं जानते।(11)
यदािदतयगत ं त े जो ज गदासयत े ऽिखल म।्
यचच नदमिस यचचागनौ तत ेजो िव िद मामकम। ् ।12।।
सूयु मे िसथत जो तेज समपूणु जगत को पकािशत करता है तथा जो तेज चनदमा मे है
और जो अिगन मे है - उसको तू मेरा ही तेज जान।(12)
गा मािवशय च भूतािन ध ार यामयहमोजसा।
पुषणािम चौष धीः स वाु ः सोमो भ ूतवा रसातमक ः।। 13।।
और मै ही पथृवी मे पवेश करके अपनी शिि से सब भूतो को धारण करता हूँ और
रससवरप अथात
ु ् अमत
ृ मय चनदमा होकर समपूणु औषिधयो को अथात
ु ् वनसपितयो को पुष
करता हूँ।(13) (अनुकम)
अहं व ैशनरो भूतवा पा िणना देह मािश तः।
पाणापानसमाय ुिः पचामयनन ं चत ुिव ु धम।् ।14।।
मै ही सब पािणयो के शरीर मे िसथर रहने वाला पाण और अपान से संयुि वैशानर
अिगनरप होकर चार पकार के अनन को पचाता हूँ।(14)
सव ु सय चाह ं ह िद स ंिन िवषो
मत ः सम ृ ितजा ु नमपोहन ं च ।
वेद ै ि सव ैरहम ेव व ेदो
वेदानत कृिेदिव देव चाह म।् । 15।।
मै ही सब पािणयो के हदय मे अनतयाम
ु ी रप से िसथत हूँ तथा मुझसे ही समिृत, जान
और अपोहन होता है और सब वेदो िारा मै ही जानने के योगय हूँ तथा वेदानत का कताु और
वेदो को जानने वाला भी मै ही हूँ।(15)
िा िवमौ प ुरषौ लोक े करिाकर एव च।
करः स वाु िण भ ूतािन क ूटस थोऽकर उ चयत े।। 16।।
इस संसार मे नाशवान और अिवनाशी भी ये दो पकार के पुरष है । इनमे समपूणु
भूतपािणयो के शरीर तो नाशवान और जीवातमा अिवनाशी कहा जाता है ।(16)
उतम ः प ुरषसतवनयः पर मातम ेत युदाहत ः।
यो लोक ियमािवशय िबभतय ु वयय ई शरः।। 17।।
इन दोनो से उतम पुरष तो अनय ही है , जो तीनो लोको मे पवेश करके सबका धारण-
पोषण करता है तथा अिवनाशी परमेशर और परमातमा- इस पकार कहा गया है ।(17)
यसमातकरमतीतो ऽहमकरादिप च ोतमः।
अतोऽ िसम लोक े व ेदे च पिथ तः पुरषोतमः।। 18।।
कयोिक मै नाशवान जडवगु केि से सवथ
ु ा अतीत हूँ और अिवनाशी जीवातमा से भी उतम
हूँ, इसिलए लोक मे और वेद मे भी पुरषोतम नाम से पिसद हूँ।(18)
यो माम ेव मसंम ू ढो जानाित प ुर षोतम।्
स सव ु िवद जित म ां स वु भाव ेन भारत।। 19।।
भारत ! जो जानी पुरष मुझको इस पकार तिव से पुरषोतम जानता है , वह सवज
ु पुरष
सब पकार से िनरनतर मुझ वासुदेव परमेशर को ही भजता है ।(19)
इित गुहत मं शासिम दमुिं मयानि।
एत द ब ुदधवा ब ुिदमा नसया तकृत कृतयि भारत।। 20।।
हे िनषपाप अजुन
ु ! इस पकार यह अित रहसययुि गोपनीय शास मेरे िारा कहा गया,
इसको तिव से जानकर मनुषय जानवान और कृ ताथु हो जाता है ।(20) (अनुकम)
ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे
शीकृ षणाजुन
ु संवादे पुरषोतमयोगो नाम पंचदशोऽधयायः ।।15।।
इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के
शीकृ षण-अजुन
ु संवाद मे पुरषोतमयोग नामक पंदहवाँ अधयाय संपूणु हुआ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
।। अथ सप दशोऽधयायः ।।
अजुु न उ वाच
ये शास िविध मुतसजय यजनत े श दया िनवताः।
तेष ां िनिा त ु का क ृषण सिवमाहो रजसत मः।। 1।।
अजुन
ु बोलेः हे कृ षण ! जो शासिविध छोडकर (केवल) शदायुि होकर पूजा करते है , उनकी
िसथित कैसी होती है ? साििवक, राजसी या तामसी?(1)
शीभगवान ुवाच
िि िवधा भ वित श दा दे िहना ं सा स वभावजा।
साििवकी राजसी च ैव ता मसी च े ित ता ं श ृणु।। 2।।
शी भगवान बोलेः मनुषयो की वह शासीय संसकारो से रिहत केवल सवभाव से उतपनन
शदा साििवकी और राजसी तथा तामसी – ऐसे तीनो पकार की ही होती है । उसको तू मुझसे
सुन।
सिवान ुरपा स वु सय शदा भवित भारत।
शदामय ोऽय ं प ुरषो यो यच छदः स एव स ः।। 3।।
हे भारत ! सभी मनुषयो की शदा उनके अनतःकरण के अनुरप होती है । यह पुरष
शदामय है , इसिलए जो पुरष जैसी शदावाला है , वह सवयं भी वही है ।(3)
यजनत े साििव का देवानयकरका ं िस राजसाः।
पेतान भूतगण ांिान ये यजनत े तामसा जनाः।। 4।।
साििवक पुरष दे वो को पूजते है , राजस पुरष यक और राकसो को तथा अनय जो तामस
मनुषय है वे पेत और भूतगणो को पूजते है ।(4)
अशासिव िहत ं िोर ं तपयनत े य े तपो जनाः।
दमभाह ंकारस ंय ुिाः कामरागबला िनवताः।। 5।।
कशु यन तः शरीरसथ ं भूतगाम मचेत सः।
मां च ैवानतः शरीरस थं तािनवदयास ुरिनियान। ् ।6।।
जो मनुषय शासिविध से रिहत केवल मनःकिलपत िोर तप को तपते है तथा दमभ और
अहं कार से युि तथा कामना, आसिि और बल के अिभमान से भी युि है । जो शरीररप से
िसथत भूतसमुदाय को और अनतःकरण मे िसथत मुझ परमातमा को भी कृ श करने वाले है , उन
अजािनयो को तू आसुर-सवभाव वाले जान।
आहारसतविप सव ु सय िि िव धो भवित िपयः।
यजसतपसत था दान ं तेष ां भ ेदिम मं श ृणु।। 7।।
भोजन भी सबको अपनी-अपनी पकृ ित के अनुसार तीन पकार का िपय होता है । और वैसे
ही यज, तप और दान बी तीन-तीन पकार के होते है । उनके इस पथ
ृ क् -पथ
ृ क् भेद को तू मुझसे
सुन।(7) (अनुकम)
आयु ः सिवबलारोग यसुखपी ितिवव धु नाः।
रसया िसनगधाः िसथरा हदा आ हाराः साििवक िपयाः।। 8।।
आयु, बुिद, बल, आरोगय, सुख और पीित को बढाने वाले, रसयुि, िचकने और िसथर रहने
वाले तथा सवभाव से ही मन को िपय – ऐसे आहार अथात
ु ् भोजन करने के पदाथु साििवक पुरष
को िपय होते है ।(8)
कट वमललवणातय ुषणतीकणरकिवदािहन ः।
आहार ा राजससय े षा द ु ःखशोकामयपदाः।। 9।।
कडवे, खटटे , लवणयुि, बहुत गरम, तीखे, रखे, दाहकारक और दःुख, िचनता तथा रोगो को
उतपनन करने वाले आहार अथात
ु ् भोजन करने के पदाथु राजस पुरष को िपय होते है ।(9)
यातयाम ं गतरस ं प ू ित पय ु िषत ं च यत।्
उिचछ षम िप चाम े धयं भोजन ं ताम सिपयम।् ।10।।
जो भोजन अधपका, रसरिहत, दग
ु न
ु धयुि, बासी और उिचछष है तथा जो अपिवि भी है वह
भोजन तामस पुरष को िपय होता है ।(10)
अिलाक ांिक िभय ु जो िव िधदषो य इजयत े।
यषवयम ेव ेित मन ः समा धा य स सा ििवकः।। 11।।
जो शासिविध से िनयत यज करना ही कतवुय है – इस पकार मन को समाधान करके,
िल न चाहने वाले पुरषो िारा िकया जाता है , वह साििवक है ।(11)
अिभस ंधाय तु िल ं दम भाथ ु म िप च ैव यत।्
इजयत े भरतश े ि त ं यज ं िविद राजसम। ् ।12।।
परनतु हे अजुन
ु ! केवल दमभाचरण के िलए अथवा िल को भी दिष मे रखकर जो यज
िकया जाता है , उस यज को तू राजस जान।
िविध हीनमस ृ षानन ं म ं िहीनमदिकण म।्
शदािवर िहत ं यज ं ता मसं पिर चकत े।। 13।।
शासिविध से हीन, अननदान से रिहत, िबना मंिो के, िबना दिकणा के और िबना शदा के
िकये जाने वाले यज को तामस यज कहते है ।(13)
देव ििज गुरपाजप ूजन ं श ौचमाज ु व म।्
बहचय ु म िहंसा च शारीर ं तप उ चयत े।। 14।।
दे वता, बाहण, गुर और जानीजनो का पूजन, पिविता, सरलता, बहचयु और अिहं सा – शरीर
समबनधी तप कहा जाता है ।(14)
अनुिे गकर ं वाकय ं सतय ं िपय िहत ं च यत।्
सवाधयायाभ यसन ं च ै व वाङ मय ं त प उचयत े।। 15।।
जो उिे ग ने करने वाला, िपय और िहतकारक व यथाथु भाषण है तथा जो वेद-शासो के
पठन का एवं परमेशर के नाम-जप का अभयास है - वही वाणी समबनदी तप कहा जाता है ।(15)
(अनुकम)
मन ःपसादः स ौमयतव ं मौनमातम िविनग हः।
भावस ं शुिदिरत येततपो मानस मुचयत े।। 16।।
मन की पसननता, शानतभाव, भगवद िचनतन करने का सवभाव, मन का िनगह और
अनतःकरण के भावो को भली भाँित पिविता – इस पकार यह मन-समबनधी तप कहा जाता है ।
(16)
शदया परया तप ं तपसत ितििवध ं नर ैः।
अिलाका ं िकिभ युु िैः साििव कं पिर चकत े।। 17।।
िल को न चाहने वाले योगी पुरषो िारा परम शदा से िकये हुए उस पूवोि तीन पकार
के तप को साििवक कहते है ।(17)
सत कारमा नपूजाथ ु त पो द मभेन चैव यत।्
िकयत े तिद ह पोि ं राजस ं च लम धुव म।् । 18।।
जो तप सतकार, मान और पूजा के िलए तथा अनय िकसी सवाथु के िलए भी सवभाव से
या पाखणड से िकया जाता है , वह अिनिित और किणक िलवाला तप यहाँ राजस कहा गया है ।
(18)
मूढगाह ेणातमन ो यतपीडय ा िकयत े तप ः।
परसयोतसादनाथ ा वा तत मसम ुदाहत म।् ।19।।
जो तप मूढतापूवक
ु हठ से, मन वाणी और शरीर की पीडा के सिहत अथवा दस
ू रे का
अिनष करने के िलए िकया जाता है वह तप तामस कहा गया है ।(19)
दातवयिम ित यदा नं दीयत ेऽन ुपाकािरण े।
दे शे काल े च पाि े च तदान ं सा ििवकं सम ृ तम।् । 20।।
दान दे ना ही कतवुय है – ऐसे भाव से जो दान दे श तथा काल और पाि के पाप होने पर
उपकार न करने वाले के पित िदया जाता है , वह दान साििवक कहा गया है ।(20)
यतु पतय ुपकार ाथा ि लमु िदशय वा प ुनः।
दीयत े च पिर िकलष ं तदान ं राजस ं सम ृ तम।् ।21।।
िकनतु जो दान कलेशपूवक
ु तथा पतयुपकार के पयोजन से अथवा िल को दिष मे रखकर
ििर िदया जाता है , वह दान राजस कहा गया है ।(21)
अदेशकाल े यदानमपाि ेभयि दीयत े।
असतकृतमवजात ं तताम समुदाहतम। ् । 22।।
जो दान िबना सतकार के अथवा ितरसकारपूवक
ु अयोगय दे श-काल मे कुपाि के पित िदया
जाता है , वह दान तामस कहा गया है ।(22) (अनुकम)
ॐ तत सिद ित िनद े शो बहणिस िवध ः सम ृ त ः।
बाहणासत ेन व ेदाि यजाि िव िहताः प ुरा।। 23।।
ॐ, तत ्, सत ्, - ऐसे यह तीन पकार का सिचचदाननदिन बह का नाम कहा है ः उसी से
सिृष के आिद काल मे बाहण और वेद तथा यजािद रचे गये।(23)
तसमादो िमतय ुदाहत य यजदा नतप ः िकयाः।
पवत ु नते िवधानोिाः सत तं बहवािदनाम। ् ।24।।
इसिलए वेद-मनिो का उचचारण करने वाले शि
े पुरषो की शासिविध से िनयत यज, दान
और तपरप िकयाएँ सदा 'ॐ' इस परमातमा के नाम को उचचारण करके ही आरमभ होती है ।
तिदतयनिभस ं धाय ि लं यजतपः िकयाः
दानिकयाि िविव धाः िकयनत े मोकक ांिक िभः ।। 25।।
तत ् अथात
ु ् 'तत ्' नाम से कहे जाने वाले परमातमा का ही यह सब है – इस भाव से िल
को न चाह कर नाना पकार की यज, तपरप िकयाएँ तथा दानरप िकयाएँ कलयाण की इचछावाले
पुरषो िारा की जाती है ।(25)
सदाव े साध ु भाव े च सिदत येततपय ुजयत े।
पशसत े कम ु िण तथा स चछबदः पा थु युज यते।। 26।।
'सत ्' – इस पकार यह परमातमा का नाम सतयभाव मे और शि
े भाव मे पयोग िकया जाता
है तथा हे पाथु ! उतम कमु मे भी 'सत '् शबद का पयोग िकया जाता है ।(26)
यजे तप िस दा ने च िसथ ितः स िद ित चोचयत े।
कमु चैव त दथीय ं स िदत येवािभ धीयत े।। 27।।
तथा यज, तप और दान मे जो िसथित है , वह भी 'सत ्' इस पकार कही जाती है और उस
परमातमा के िलए िकया हुआ कमु िनियपूवक
ु सत ् – ऐसे कहा जाता है ।(27)
अशदया हु तं दत ं तपसतप ं कृत ं च यत।्
अस िदतय ुचयत े पा थु न च ततप ेतय नो इह।। 28।।
हे अजुन
ु ! िबना शदा के िकया हुआ हवन, िदया हुआ दान व तपा हुआ तप और जो कुछ
भी िकया हुआ शुभ कमु है – वह समसत 'असत ्' – इस पकार कहा जाता है , इसिलए वह न तो
इस लोक मे लाभदायक है और न मरने के बाद ही।(28) (अनुकम)
ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे
शीकृ षणाजुन
ु संवादे शदाियिवभागयोगो नाम सपदशोऽधयायः ।।17।।
इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के
शीकृ षण-अजुन
ु संवाद मे शदाियिवभागयोग नामक सिहवाँ अधयाय संपूणु हुआ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
।। अथ ाषादशो ऽधयायः ।।
अजुु न उ वाच
संनयाससय म हाबाहो तिविम चछािम वेिदत ुम।्
तयागसय च हषीक े श प ृ थकके िशिनष ू दन।। 1।।
अजुन
ु बोलेः हे महाबाहो ! हे अनतयािुमन ् ! हे वासुदेव ! मै संनयास और तयाग के तिव को
पथ
ृ क-पथ
ृ क जानना चाहता हूँ।
शीभगवान ुवाच
कामयाना ं कम ु ण ां नयास ं कवयो िवद ु ः।
सव ु क मु िलतयाग ं पाह ु सतयाग ं िव चकणाः।। 2।।
शी भगवान बोलेः िकतने ही पिणडतजन तो कामय कमो के तयाग को संनयास समझते है
तथा दस
ू रे िवचारकुशल पुरष सब कमो के िल के तयाग को तयाग कहते है ।(2)
तया जयं दोषविदत येके कम ु पाह ु मु नीिषणः
यजदानतपःक मु न तयाजयिमित चापर े।। 3।।
कुछे क िविान ऐसा कहते है िक कमम
ु ाि दोषयुि है , इसिलए तयागने के योगय है और
दस
ू रे िविान यह कहते है िक यज, दान और तपरप कमु तयागने योगय नहीं है ।(3)
िन ियं श ृणु म े ति तयाग े भरतसत म।
तयागो िह प ु रषवय ाघ िि िवध ः समप कीित ु त ः।। 4।।
हे पुरषशि
े अजुन
ु ! संनयास और तयाग, इन दोनो मे से पहले तयाग के िवषय मे तू मेरा
िनिय सुन। कयोिक तयाग साििवक, राजस और तामस भेद से तीन पकार का कहा गया है ।(4)
यजदानतपःक मु न तयाजय ं काय ु मेव तत।्
यजो दान ं तप िैव पावनािन मनी िषणाम।् ।5।।
यज, दान और तपरप कमु तयाग करने के योगय नहीं है , बिलक वह तो अवशय कतवुय है ,
कयोिक यज, दान और तप – ये तीनो ही कमु बुिदमान पुरषो को पिवि करने वाले है ।(5)
एतानयिप त ु कमा ु िण स ङगं तयकतवा ि लािन च।
कत ु वया नीित म े पाथ ु िनि तं मतम ुतम म।् ।6।।
इसिलए हे पाथु ! इन यज, दान और तपरप कमो को तथा और भी समपूणु कतवुयकमो
को आसिि और िलो का तयाग करके अवशय करना चािहए; यह मेरा िनिय िकया हुआ उतम
मत है ।(6)
िनयतसय तु स ंनयास ः कम ु णो नोपपदत े।
मोहातसय प िरतय ागस तामसः प िरकीित ु तः।। 7।।
(िनिषद और कामय कमो का तो सवरप से तयाग करना उिचत ही है ।) परनतु िनयत कमु
का सवरप से तयाग उिचत नहीं है । इसिलए मोह के कारण उसका तयाग कर दे ना तामस तयाग
कहा गया है ।(7) (अनुकम)
द ु ःखिमत येव यतकम ु कायकल ेश भया ियज ेत।्
स कृतवा राजस ं तय ागं न ैव तयागिल ं ल भेत।् ।
जो कुछ कमु है , वह सब दःुखरप ही है , ऐसा समझकर यिद कोई शारीिरक कलेश के भय
से कतवुय-कमो का तयाग कर दे , तो वह ऐसा राजस तयाग करके तयाग के िल को िकसी पकार
भी नहीं पाता।(8)
काय ु िमतय ेव यतकम ु िनयत ं िकयत ेऽज ु न।
सङगतयकतवा िल ं च ैव स तयागः सा ििवको मत ः।। 9।।
हे अजुन
ु ! जो शासिविहत कम ु करना कतवुय है – इसी भाव से आसिि और िल का
तयाग करके िकया जाता है वही साििवक तयाग माना गया है ।(9)
न िेषटयकुशल ं क मु कुशल े नान ुषजजत े।
तयागी सिव समािवषो म े धावी िछन नसंशयः।। 10।।
जो मनुषय अकुशल कमु से िे ष नहीं करता और कुशल कमु मे आसि नहीं होता – वह
शुद सिवगुण से युि पुरष संशयरिहत, बुिदमान और सचचा तयागी है ।(10)
न िह देहभ ृ ता श कयं तयिुं कमा ु णयश ेषतः।
यसत ु कम ु ि लतय ागी स तयागीतयिभ धीयत े।। 11।।
कयोिक शरीरधारी िकसी भी मनुषय के िारा समपूणत
ु ा से सब कमो का तयाग िकया जाना
शकय नहीं है इसिलए जो कमि
ु ल का तयागी है , वही तयागी है – यह कहा जाता है ।(11)
अिनष िमष ं िमश ं च िि िवध ं कम ु ण ः िलम।्
भवतयतयािगना ं प ेतय न त ु स ंनयािसना ं कव िचत ।् । 12।।
कमि
ु ल का तयाग न करने वाले मनुषयो के कमो का तो अचछा-बुरा और िमला हुआ –
ऐसे तीन पकार का िल मरने के पिात ् अवशय होता है , िकनतु कमि
ु ल का तयाग कर दे ने वाले
मनुषयो के कमो का िल िकसी काल मे भी नहीं होता।(12)
पं चैतािन महाबाहो कारणािन िनबोध म े।
सांखय े कृ तानत पोिािन िसद ये सव ु क मु णाम।् । 13।।
हे महाबाहो ! समपूणु कमो की िसिद के ये पाँच हे तु कमो का अनत करने के िलए उपाय
बतलाने वाले साखयशास मे कहे गये है , उनको तू मुझसे भली भाँित जान।(13)
अिध िान ं त था कता ु करण ं च प ृ थिगव धम।्
िविव धाि प ृ थकच ेषा द ैव ं च ैवाि प ंच मम।् । 14।।
इस िवषय मे अथात
ु ् कमो की िसिद मे अिधिान और कताु तथा िभनन-िभनन पकार के
करण और नाना पकार की अलग-अलग चेषाएँ और वैसे ही पाँचवाँ हे तु दै व है ।(14)
शरीरवाङ मनो िभय ु तकम ु पारभत े नरः।
नयायय ं वा िव परीत ं वा प ं चैत े तसय ह ेतवः।। 15।।
मनुषय मन, वाणी और शरीर से शासानुकूल अथवा िवपरीत जो कुछ भी कमु करता है –
उसके ये पाँचो कारण है ।(15) (अनुकम)
तिैव ं स ित कता ु रमातमान ं केव लं त ु यः।
पशयत यकृतब ुिदतवा नन स पशयित द ु मु ितः।। 16।।
परनतु ऐसा होने पर भी जो मनुषय अशुद बुिद होने के कारण उस िवषय मे यानी कमो
के होने मे केवल शुदसवरप आतमा को कताु समझता है , वह मिलन बुिदवाला अजानी यथाथु
नहीं समझता।(16)
यसय ना ं हकृतो भावो ब ुिदय ु सय न िल पयत े।
हतवा िप स इ माँल लोकानन ह िनत न िनबधयत े।। 17।।
िजस पुरष के अनतःकरण मे 'मै कताु हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा िजसकी बुिद सांसािरक
पदाथो मे और कमो मे लेपायमान नहीं होती, वह पुरष इन सब लोको को मारकर भी वासतव मे
न तो मरता है और न पाप से बँधता है ।(17)
जान ं जेय ं प िरजाता िि िवधा कम ु चोदना।
करण ं कम ु कत े ित िििव धः क मु कंग हः।। 18।।
जाता, जान और जेय – ये तीन पकार की कमु-पेरणा है और कताु, करण तथा िकया ये
तीन पकार का कमु संगह है ।(18)
जान ं क मु च कता ु च िि धैव ग ुणभ ेद तः।
पोचयत े गुणस ंखयान े यथावचछ ृण ु तानयिप।। 19।।
गुणो की संखया करने वाले शास मे जान और कमु तथा कताु गुणो के भेद से तीन-तीन
पकार के ही कहे गये है , उनको भी तू मुझसे भली भाँित सुन।(19)
सवु भूत ेष य ेन ैकं भ ावमवययमीकत े।
अिवभिं िवभिेष ु तजजान ं िविद स ाििवकम। ् । 20।।
िजस जान से मनुषय पथ
ृ क-पथ
ृ क सब भूतो मे एक अिवनाशी परमातमभाव को
िवभागरिहत समभाव से िसथत दे खता है , उस जान को तू साििवक जान।(20)
पृ थकतव ेन त ु यजजा नं ना नाभावानप ृ थ िगवधान। ्
वेित सव े षु भ ूत ेष ु तजजान ं िविद राजसम। ् ।21।।
िकनतु जो जान अथात
ु ् िजस जान के िारा मनुषय समपूणु भूतो मे िभनन-िभनन पकार के
नाना भावो को अलग-अलग जानता है , उस जान को तू राजस जान।(21)
यतु कृतसनवद ेकिसम नकाय े सि महैत ुकम।्
अतिवाथ ु वदल पं च ततामस मुदाहतम। ् ।22।।
परनतु जो जान एक कायर
ु प शरीर मे ही समपूणु के सदश आसि है तथा जो िबना
युििवाला, ताििवक अथु से रिहत और तुचछ है – वह तामस कहा गया है ।(22) (अनुकम)
िनयत ं स ंगरिह तमरागि ेषत ः कृतम।्
अिलप ेतस ुना क मु यततसाििवकम ुचयत े।। 23।।
जो कमु शासिविध से िनयत िकया हुआ और कताप
ु न के अिभमान से रिहत हो तथा
िल न चाहने वाले पुरष िारा िबना राग-िे ष के िकया गया हो – वह साििवक कहा जाता है ।
(23)
यतु काम ेपस ुना कम ु साह ंकार ेण वा प ुनः।
िकयत े बह ु लायास ं तदजासम ुदाहतम। ् । 24।।
परनतु जो कमु बहुत पिरशम से युि होता है तथा भोगो को चाहने वाले पुरष िारा या
अहं कारयुि पुरष िारा िकया जाता है , वह कमु राजस कहा गया है ।(24)
अनुब नधं कय ं िह ं सामनव ेक य च पौरष म।्
मो हादा रभयत े कम ु यततामसम ुचयत े।। 25।।
जो कमु पिरणाम, हािन, िहं सा और सामथयु को न िवचार कर केवल अजान से आरमभ
िकया जाता है , वह तामस कहा जाता है ।(25)
मुिंस ं गोऽनह ंवादी ध ृ तयुतसाहसम िनवत ः।
िसदय िसदय ोिन ु िव ु कारः कता ु साििवक उ चयत े।। 26।।
जो कताु संगरिहत, अहं कार के वचन न बोलने वाला, धैयु और उतसाह से युि तथा कायु
के िसद होने और न होने मे हषु-शोकािद िवकारो से रिहत है – वह साििवक कहा जाता है ।(26)
रागी कम ु ि लपेपस ुल ु बधो िहंसातमकोऽ शुिच ः।
हषु शोका िनवतः क ताु राजस ः पिरकी ित ु त ः।। 27।।
जो कताु आसिि से युि, कमो के िल को चाहने वाला और लोभी है तथा दस
ू रो को कष
दे ने के सवभाववाला, अशुदाचारी और हषु-शोक से िलप है – वह राजस कहा गया है ।(27)
आयुि ः पाक ृतः स तबधः श ठो न ैषकृितकोऽ लस ः।
िवषादी दीि ु सू िी च कता ु तामस उ चयत े।।
जो कताु अयुि, िशका से रिहत, िमंडी, धूतु और दस
ू रो की जीिवका का नाश करने वाला
तथा शोक करने वाला, आलसी और दीिस
ु ूिी है – वह तामस कहा जाता है ।(28)
बुदेभ े दं ध ृ तेि ैव ग ुणत िसिवध ं श ृणु।
पोचयमानमश ेष ेण प ृ थकतव ेन ध नंजय।। 29।।
हे धनंजय ! अब तू बुिद का और धिृत का भी गुणो के अनुसार तीन पकार का भेद मेरे
िारा समपूणत
ु ा से िवभागपूवक
ु कहा जाने वाला सुन।(29)
पव ृ ितं च िनव ृ ितं च काय ाु काय े भयाभय े।
बनध ं मोक ं च या व ेित ब ुिद ः सा पाथ ु सा ििवकी।। 30।।
हे पाथु ! जो बुिद पविृतमागु और िनविृतमागु को, कतवुय और अकतवुय को, भय और
अभय को तथा बनधन और मोक को यथाथु जानती है – वह बुिद साििवकी है ।(30) (अनुकम)
यया ध मु म धम ा च काय ा च ाकाय ु मेव च ।
अयथावतपजानाित ब ुिद ः सा पाथ ु राजसी।। 31।।
हे पाथु ! मनुषय िजस बुिद के िारा धमु और अधमु को तथा कतवुय और अकतवुय को
भी यथाथु नहीं जानता, वह बुिद राजसी है ।
अध मा ध मु िम ित या म नयत े तम साव ृ ता।
सवा ु थाु िनवपरीता ं ि ब ुिदः स ा पाथ ु तामसी।। 32।।
हे अजुन
ु ! जो तमोगुण से ििरी हुई बुिद अधमु को भी 'यह धमु है ' ऐसा मान लेती है
तथा इसी पकार अनय समपूणु पदाथो को भी िवपरीत मान लेती है , वह बुिद तामसी है ।(32)
धृ तया यया धारयत े मनःपाण े िनदयिकयाः।
योग ेनाव यिभचािरणया ध ृ ितः सा पाथ ु साििव की।। 33।।
हे पाथु ! िजस अवयिभचािरणी धारणशिि से मनुषय धयानयोग के िारा मन, पाण और
इिनदयो की िकयाओं को धारण करता है , वह धिृत साििवकी है ।(33)
यय ा त ु ध मु कामाथा ु नध ृ तया ध ार यतेऽ जुु न।
पसंग ेन िलाक ांकी ध ृ ितः स ा पाथ ु राजसी।। 34।।
परं तु हे पथ
ृ ापुि अजुन
ु ! िल की इचछावाला मनुषय िजस धारणशिि के िारा अतयनत
आसिि से धमु, अथु और कामो को धारण करता है , वह धारणशिि राजसी है । (34)
यया सवपन ं भय ं शोक ं िवषाद ं म दमेव च।
न िवम ुं चित द ु मे धा ध ृ ित ः सा पाथ ु ताम सी।। 35।।
हे पाथु ! दष
ु बुिदवाला मनुषय िजस धारणशिि के िारा िनदा, भय, िचनता और दःुख को
तथा उनमतता को भी नहीं छोडता अथात
ु ् धारण िकये रहता है – वह धारणशिि तामसी है ।(35)
सुख ं ितवदानी ं िि िवध ं श ृणु म े भर तष ु भ।
अभयसाद मते यि द ु ःखानत ं च िनग चछित।। 36।।
यतदग े िव षिमद प िरणाम ेऽम ृ तोपमम।्
ततस ुख ं सा ििवकं पोिमातमब ुिदप सादजम।् । 37।।
हे भरतशि
े ! अब तीन पकार के सुख को भी तू मुझसे सुन। िजस सुख मे साधक मनुषय
भजन, धयान और सेवािद के अभयास से रमण करता है और िजससे दःुखो के अनत को पाप हो
जाता है – जो ऐसा सुख है , वह आरमभकाल मे यदिप िवष के तुलय पतीत होता है , परं तु
पिरणाम मे अमत
ृ के तुलय है । इसिलए वह परमातमिवषयक बुिद के पसाद से उतपनन होने
वाला सुख साििवक कहा गया है ।(36, 37) (अनुकम)
िवषय े िनदयस ंयोगादतदग ेऽम ृ तोपमम।्
पिरणाम े िवष िमव ततस ुख ं राजस ं स मृ तम।् ।38।।
जो सुख िवषय और इिनदयो के संयोग से होता है , वह पहले भोगकाल मे अमत
ृ के तुलय
पतीत होने पर भी पिरणाम मे िवष के तुलय है , इसिलए वह सुख राजस कहा गया है ।(38)
यदग े चान ुब नधे च स ुख ं मोहनमातमनः।
िनदा लसयपमादोत थं ततामसम ुदाहत म।् ।39।।
जो सुख भोगकाल मे तथा पिरणाम मे भी आतमा को मोिहत करने वाला है – वह िनदा,
आलसय और पमाद से उतपनन सुख तामस कहा गया है ।(39)
न त दिसत प ृ िथवया ं व िद िव द ेव ेष ु वा प ुनः
सिव ं पकृ ितज ैम ु िं यद ेिभ ःसयाितििभ गुु णैः।। 40।।
पथ
ृ वी मे या आकाश मे अथवा दे वताओं मे तथा इनके िसवा और कहीं भी वह ऐसा कोई
भी सिव नहीं है , जो पकृ ित से उतपनन इन तीनो गुणो से रिहत हो।(40)
बाहणक िियिव शां श ूदाणा ं च पर ंतप।
कमाु िण पिव भिािन सवभावप भवैग ु णैः।। 41।।
हे परं तप ! बाहण, कििय और वैशयो के तथा शूदो के कमु सवभाव उतपनन गुणो िारा
िवभि िकये गये है ।(41)
शमो द मसतप ः शौच ं का िनतराज ु वमेव च ।
जान ं िवजा नमा िसतकय ं ब हकम ु सव भावजम।् ।42।।
अनतःकरण का िनगह करना, इिनदयो का दमन करना, धमप
ु ालन के िलए कष सहना,
बाहर-भीतर से शुद रहना, दस
ू रो के अपराधो को कमा करना, मन, इिनदय और शरीर को सरल
रखना, वेद,-शास, ईशर और परलोक आिद मे शदा रखना, वेद-शासो का अधययन-अधयापन करना
और परमातमा के तिव का अनुभव करना – ये सब-के-सब ही बाहण के सवाभािवक कमु है ।(42)
शौय ा तेजो ध ृ ितदा ु कयं युदे चापयपलाय नम।्
दानमीशरभावि काि ं क मु सवभावज म।् ।43।।
शूरवीरता, तेज, धैय,ु चतुरता और युद मे न भागना, दान दे ना और सवामीभाव – ये सब-
के-सब ही कििय के सवाभािवक कमु है ।(43)
कृ िषगौरकयवािणजय ं वैश यकम ु स वभावजम। ्
पिरचया ु तमकं कम ु शूदसयािप सव भावजम।् । 44।।
खेती, गौपालन और कय-िवकयरप सतय वयवहार – ये वैशय के सवाभािवक कमु है तथा
सब वणो की सेवा करना शूद का भी सवाभािवक कमु है ।(44)
सवे सव े कम ु णय िभरतः स ंिस िदं लभ ते न रः।
सव कम ु िनरतः िस िदं यथा िव नदित त चछृण ु।। 45।।
अपने-अपने सवाभािवक कमो मे ततपरता से लगा हुआ मनुषय भगवतपािपरप परम िसिद
को पाप हो जाता है । अपने सवाभािवक कमु मे लगा हुआ मनुषय िजस पकार से कमु करके
परम िसिद को पाप होता, उस िविध को तू सुन।(45) (अनुकम)
यतः पव ृ ित भूु ताना ं य ेन सव ु िमद ं ततम।्
सवकम ु णा त मभयचय ु िसिद ं िवनद ित मानवः।। 46।।
िजस परमेशर से समपूणु पािणयो की उतपित हुई है और िजससे यह समसत जगत वयाप
है , उस परमेशर की अपने सवाभािवक कमो िारा पूजा करके मनुषय परम िसिद को पाप हो जाता
है ।(46)
शे यानसव धमो िव गुणः परध माु तसवन ुिितात। ्
सवभाविनयत ं क मु कुव ु ननापन ोित िक िलबषम।् । 47।।
अचछी पकार आचरण िकये हुए दस
ू रे के धमु से गुणरिहत भी अपना धमु शि
े है , कयोिक
सवभाव से िनयत िकये हुए सवधमु कमु को करता हुआ मनुषय पाप को नहीं पाप होता।(47)
सहज ं क मु कौनत ेय सदोष मिप न तयज ेत।्
सवाु रमभा िह दोष ेण ध ूम ेनािगनिरवाव ृ ताः।। 48।।
अतएव हे कुनतीपुि ! दोषयुि होने पर भी सहज कमु को नहीं तयागना चािहए, कयोिक
धुएँ से अिगन की भाँित सभी कमु िकसी-न-िकसी दोष से युि है ।(48)
असिब ुिद ः सव ु ि िजतातमा िवगतसप ृ हः।
नैषकमय ु िस िदं परमा ं स ंनयास ेनािध गचछित ।। 49।।
सवि
ु आसिि रिहत बुिदवाला, सपह
ृ ारिहत और जीते हुए अनतःकरणवाला पुरष सांखययोग
के िारा उस परम नैषकमयिुसिद को पाप होता है ।(49)
िस िदं पापो यथा ब ह तथापनोित िनबोध म े।
समास ेन ैव कौनत ेय िनिा जा नसय या परा।। 50।।
जो िक जानयोग की परािनिा है , उस नैषकमयु िसिद को िजस पकार से पाप होक मनुषय
बह को पाप होता है , उस पकार हे कुनतीपुि ! तू संकेप मे ही मुझसे समझ।(50) (अनुकम)
बुदय ा िव शुदया युिो ध ृ तयातमा नं िनयमय च।
शबदादीिनवषया ं सतयक तवा रागि ेषौ वय ुदस य च।। 511।
िव िविस ेवी लघ वाशी यतवाकका यमानसः।
धयानय ोगपरो िनतय ं व ैरा गयं सम ुपा िशत ः।। 52।।
अहंकार ं बल ं दप ा काम ं क ोधं पिर गहम।्
िव मुचय िनम ु म ः शा नतो ब हभूयाय क लपत े।। 53।।
िवशुद बुिद से युि तथा हलका, साििवक और िनयिमत भोजन करने वाला, शबदािद
िवषयो का तयाग करके एकानत और शुद दे श का सेवन करने वाला, साििवक धारणशिि के िारा
अनतःकरण और इिनदयो का संयम करके मन, वाणी और शरीर को वश मे कर लेने वाला तथा
अहं कार, बल, िमणड, काम, कोध और पिरगह का तयाग करके िनरनतर धयानयोग के परायण रहने
वाला, ममता रिहत और शािनतयुि पुरष सिचचदाननदिन बह मे अिभननभाव से िसथत होने का
पाि होता है ।(51, 52, 53)
बहभ ू तः प सननातमा न शो चित न क ांकित ।
सम ः सव े षु भ ूत ेष ु मद ििं ल भते पराम। ् । 54।।
ििर वह सिचचदाननदिन बह मे एकीभाव से िसथत, पसनन मनवाला योगी न तो िकसी
के िलए शोक करता है और न िकसी की आकांका ही करता है । ऐसा समसत पािणयो मे
समभावना वाला योगी मेरी पराभिि को पाप हो जाता है ।(54)
भकतया माम िभजानाित यावानयिािसम तिव तः।
ततो मा ं तिवतो जातवा िवशत े तदनन तरम।् । 55।।
उस पराभिि के िारा वह मुझ परमातमा को, मै जो हूँ और िजतना हूँ, ठीक वैसा-का-वैसा
तिव से जान लेता है तथा उस भिि से मुझको तिव से जानकर ततकाल ही मुझमे पिवष हो
जाता है ।(55)
सव ु क माु णयिप सदा क ुवा ु णो मद वयापाशयः।
मत पसादादवाप नोित श ाशत ं पदमवययम। ् ।56।।
मेरे परायण हुआ कमय
ु ोगी तो समपूणु कमो को सदा करता हुआ भी मेरी कृ पा से
सनातन अिवनाशी परम पद को पाप हो जाता है ।(56)
चेत सा स वु कमा ु िण म िय स ं नयसय मतपर ः।
बुिदयोगम ुपा िशतय म िचचत ः सतत ं भ व।। 57।।
सब कमो का मन से मुझमे अपण
ु करके तथा समबुिदरप योग को अवलमबन करके मेरे
परायण और िनरनतर मुझमे िचतवाला हो।(57)
मिचच तः सव ु द ु गाु िण मतप सादातिरष यिस।
अथ च ेिवमह ं कार ानन शोषयिस िवनङकयिस।। 58।।
उपयुि
ु पकार से मुझमे िचतवाला होकर तू मेरी कृ पा से समसत संकटो को अनायास ही
पार कर जायेगा और यिद अहं कार के कारण मेरे वचनो को न सुनेगा तो नष हो जायेगा अथात
ु ्
परमाथु से भष हो जायेगा।(58)
यदह ंकारमािशतय न योतसय इ ित म नयस े।
िम थयैष वयवसा यसत े पकृ ितसतव ां िनयोक यित।। 59।।
जो तू अहं कार का आशय न लेकर यह मान रहा है िक 'मै युद नहीं करँ गा' तो तेरा यह
िनिय िमथया है कयोिक तेरा सवभाव तुझे जबरदसती युद मे लगा दे गा।(59) (अनुकम)
सवभावज ेन कौनत ेय िनबदः सव ेन कम ु णा।
कतुा नेचछिस यनमोहातकिरषयसयवशोऽ िप तत।् ।60।।
हे कुनतीपुि ! िजस कमु को तू मोह के कारण करना नहीं चाहता, उसको भी अपने पूवक
ु ृत
सवाभािवक कमु से बँधा हुआ परवश होकर करे गा।(60)
ईशरः सव ु भूताना ं हद ेश े ऽजुु न िति ित।
भामयनसव ु भू तािन ं य ंिा रढािन मायया।। 61।।
हे अजुन
ु ! शरीररप यंि मे आरढ हुए समपूणु पािणयो को अनतयाम
ु ी परमेशर अपनी
माया से उनके कमो के अनुसार भमण कराता हुआ सब पािणयो के हदय मे िसथत है ।(61)
तमेव शरण ं गच छ सव ु भाव ेन भारत।
ततप सादातपरा ं शािनत ं सथान ं पापसयिस शा शतम।् ।62।।
हे भारत ! तू सब पकार से उस परमेशर की शरण मे जा। उस परमातमा की कृ पा से ही
तू परम शािनत को तथा सनातन परम धाम को पाप होगा।(62)
इित ते जा नमाखयात ं गुहद ग ु हतर ं मया।
िव मृ श यैतद शेष ेण यथ े चछिस तथा क ुर।। 63।।
इस पकार यह गोपनीय से भी अित गोपनीय जान मैने तुझसे कह िदया। अब तू इस
रहसययुि जान को पूणत
ु या भलीभाँित िवचारकर, जैसे चाहता है वैसे ही कर।(63)
सवु गुहत मं भ ूयः श ृणु म े परम ं व चः।
इषोऽ िस म े दढ िम ित ततो वकयािम त े िहत म।् । 64।।
समपूणु गोपिनयो से अित गोपनीय मेरे परम रहसययुि वचन को तू ििर भी सुन। तू
मेरा अितशय िपय है , इससे यह परम िहतकारक वचन मै तुझसे कहूँगा।(64)
मनमना भव म द भिो मदाजी म ां नमसक ु र।
माम ेव ैषयिस स तयं ते प ितजान े िपयोऽिस मे। 65।।
हे अजुन
ु ! तू मुझमे मनवाला हो, मेरा भि बन, मेरा पूजन करनेवाला हो और मुझको
पणाम कर। ऐसा करने से तू मुझे ही पाप होगा, यह मै तुझसे सतय पितजा करता हूँ कयोिक तू
मेरा अतयनत िपय है ।(65)
सव ु धमा ु नपिरतयजय माम ेकं शरण ं व ज।
अहं तवा सव ु पाप ेभयो मोक ियषय ािम मा श ु चः।। 66।।
समपूणु धमो को अथात
ु ् समपूणु कतवुय कमो को मुझमे तयागकर तू केवल एक मुझ
सवश
ु ििमान सवाध
ु ार परमेशर की ही शरण मे आ जा। मै तुझे समपूणु पापो से मुि कर दँग
ू ा, तू
शोक मत कर।(66) (अनुकम)
इदं त े नातपसकाय नाभािाय कदा चन।
न च ाशु शू षवे वाचय ं न च म ां योऽभयस ूय ित।। 67।।
तुझे यह गीता रप रहसयमय उपदे श िकसी भी काल मे न तो तपरिहत मनुषय से कहना
चािहए, न भिि रिहत से और न िबना सुनने की इचछावाले से ही कहना चािहए तथा जो मुझमे
दोषदिष रखता है उससे तो कभी नहीं कहना चािहए।(67)
य इम ं पर मं ग ुह ं म द भिेषविभ धासयित।
भििं म िय परा ं कृतवा माम ेव ैषयतयस ंशय़ः।। 68।।
जो पुरष मुझमे परम पेम करके इस परम रहसययुि गीताशास को मेरे भिो से कहे गा,
वह मुझको ही पाप होगा – इसमे कोई सनदे ह नहीं।(68)
न च त समानमन ुषय ेष ु किि नमे िपयकृतमः।
भिवता न च म े त समादनयः िपयतरो भुिव।। 69।।
उससे बढकर मेरा कोई िपय कायु करने वाला मनुषयो मे कोई भी नहीं है तथा पथृवीभर
मे उससे बढकर मेरा िपय दस
ू रा कोई भिवषय मे होगा भी नहीं।(69)
अध येषयत े च य इ मं धमय ा सं वादमावय ोः।
जान यजेन तेनाह िमषः सया िमित म े म ित ः।। 70।।
जो पुरष इस धमम
ु य हम दोनो के संवादरप गीताशास को पढे गा, उसके िारा भी मै
जानयज से पूिजत होऊँगा – ऐसा मेरा मत है ।(70)
शदावान नसूयि श ृणुय ाद िप यो नरः
सो ऽिप म ुिः शुभौललोकानपापन ुया तपुणयक मु णाम।् ।71।।
जो मनुषय शदायुि और दोषदिष से रिहत होकर इस गीताशास को शवण भी करे गा, वह
भी पापो से मुि होकर उतम कमु करने वालो के शि
े लोको को पाप होगा।(71)
किचच देतचछत ं पाथ ु तवय ैकाग ेण च ेत सा।
किचचदजानस ंमोह ः पनषसत े धन ंजय।। 72।।
हे पाथु ! कया इस (गीताशास) को तूने एकागिचत से शवण िकया? और हे धनंजय ! कया
तेरा अजानजिनत मोह नष हो गया?(72)
अजुु न उ वाच
नषो मोह ः सम ृ ित लु बधा तवतपासादानमयाचय ुत।
िसथतो ऽिसम गतस नदेह ः किरष ये वचन ं तव।। 73।।
अजुन
ु बोलेः हे अचयुत ! आपकी कृ पा से मेरा मोह नष हो गया और मैने समिृत पाप कर
ली है । अब मै संशयरिहत होकर िसथत हूँ, अतः आपकी आजा का पालन करँगा।(73) (अनुकम)
संजय उ वाच
इतयह ं वा सुदेवसय पाथ ु सय च म हातमनः।
संवाद िममम शौषमद ु तं रोमहष ु णम।् ।74।।
संजय बोलेः इस पकार मैने शीवासुदेव के और महातमा अजुन
ु के इस अदभुत रहसययुि,
रोमांचकारक संवाद को सुना।(74)
वय ासपासादाचछतवान े तद ग ुह महं परम।्
योग ं योग ेशरातक ृषणा तसाकातक थयतः सवयम। ् । 75।।
शी वयासजी की कृ पा से िदवय दिष पाकर मैने इस परम गोपनीय योग को अजुन
ु के
पित कहते हुए सवयं योगेशर भगवान शीकृ षण से पतयक सुना है ।(75)
राजन संसम ृ तय स ंसम ृ तय स ंवाद िमम मद भ ुत म।्
केशवाज ु नयोः प ुणय ं हषयािम च मुहु मु हुः।। 76।।
हे राजन ! भगवान शीकृ षण और अजुन
ु के इस रहसययुि कलयाणकारक और अदभुत
संवाद को पुनः-पुनः समरण करके मै बार-बार हिषत
ु हो रहा हूँ।(76)
तचच स ं सम ृ तय संसम ृ तय रपमतयद ु तं हर े ः।
िवस मयो मे म हान ् राजनहषया िम च प ुनः प ुन ः।। 77।।
हे राजन ! शी हिर के उस अतयनत िवलकण रप को भी पुनः-पुनः समरण करके मेरे िचत
मे महान आियु होता है और मै बार-बार हिषत
ु हो रहा हूँ।(77)
यि योग ेशरः क ृषणो यि पाथो धन ु धु रः
ति शीिव ु जयो भू ितध ु वा नीित मु ित मु म।। 78।।
हे राजन ! जहाँ योगेवशर भगवान शीकृ षण है और जहाँ गाणडीव-धनुषधारी अजुन
ु है , वहीं
पर शी, िवजय, िवभूित और अचल नीित है – ऐसा मेरा मत है ।(78) (अनुकम)
ॐ ततसिदित शीमद भगवद गीतासूपिनषतसु बहिवदायां योगशासे
शीकृ षणाजुन
ु संवादे मोकसंनयासयोगो नाम अषादशोऽधयायः ।।18।।
इस पकार उपिनषद, बहिवदा तथा योगशास रप शीमद भगवद गीता के
शीकृ षण-अजुन
ु संवाद मे मोकसंनयासयोग नामक अठारहवाँ अधयाय संपूणु हुआ।
ॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐॐ