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Goa Galatta
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Ebook631 pages5 hours

Goa Galatta

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About this ebook


In Netaji Jehangir Contractor's Khandala house, Rajaram Lokhande shoots dead his cook Fazal Haque who has turned an informer. Jeet Singh kills Rajaram in his hotel room and escapes with his seventy-five lakh rupees to Goa. Amidst multiple high-profile intrigues and conspiracies at the gambling den of Club Kokiro, Jeet Singh meets the don of the city, Lawrence Briganza, who offers him a contract to kill. Who is he going to kill next?
Languageहिन्दी
PublisherCollins India
Release dateJan 17, 2015
ISBN9789351771623
Goa Galatta
Author

Surender Mohan Pathak

Surender Mohan Pathak is considered the undisputed king of Hindi crime fiction. He has nearly 300 bestselling novels to his credit. He started his writing career with Hindi translations of Ian Flemings' James Bond novels and the works of James Hadley Chase. Some of his most popular works are Meena Murder Case, Paisath Lakh ki Dakaiti, Jauhar Jwala, Hazaar Haath, Jo Lare Deen Ke Het and Goa Galatta.

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    Goa Galatta - Surender Mohan Pathak

    बुधवार : 27 मई

    कुत्ता भौंका।

    कुत्ते का भौंकना मिमियाहट जैसा था, शेर जैसे कद्दावर, खतरनाक, खूंखार राटवीलर शिकारी कुत्ते जैसा नहीं था, फिर भी राजाराम लोखण्डे का दिल हिल गया।

    एक कुत्ता होश में आने लगा था तो मतलब था कि बाकी तीन भी होश में आने वाले ही थे। खानसामा फज़ल हक ने उन्हें बेहोशी की दवा लगे गोश्त के लोथड़े डाले थे जिन्हें खा कर वो कम से कम दो घन्टे तक होश में नहीं आने वाले थे लेकिन लगता था उसका अन्दाजा गलत था, बेहोशी की दवा पूरे दो घन्टे कुत्तों पर हावी रही नहीं जान पड़ती थी।

    खानसामे को शूट करने के बाद राजाराम ने जीतसिंह को भी शूट करना चाहा था लेकिन वो न सिर्फ उसकी गोली से बच गया था, बंगले की स्टडी की खिड़की से कूद कर वहां से सुरक्षित भाग निकलने में भी कामयाब हो गया था।

    खण्डाला का वो बंगला नेताजी बहरामजी कान्ट्रैक्टर का था जो कि कभी समगलर और कालाबाजारिया होता था लेकिन अब मराठा मंच नामक पोलिटिकल पार्टी का संस्थापक और प्रेसीडेंट था और विधान सभा में चालीस एम.एल.ए. की शक्ति रखने वाला नेता था। स्टडी में मौजूद एक वाल्ट जैसी सेफ को जीतसिंह खोलने में कामयाब हो गया था जिसमें कि दो करोड़ दस लाख रुपये बन्द पाये गये थे। उस रकम में एक तिहाई हिस्सा खानसामे का था जो उसको सौंपने की जगह राजाराम ने उसे शूट कर दिया था। अब वही हिस्सा एक सूटकेस में बन्द राजाराम के कब्जे में था। बाकी की रकम सेफ में ही रह गयी थी जो कि गोली से बचने की कोशिश में जीतसिंह लड़खड़ाया था तो उसके शरीर के धक्के से बन्द हो गयी थी और अब वापिस खोली नहीं जा सकती थी। उसे दोबारा जीतसिंह ही खोल सकता था जो कि जान बचाने की कोशिश में वहां से भाग गया था इसलिये राजाराम को सेफ से बाहर रह गयी एक तिहाई रकम से ही सब्र करना पड़ा था।

    उसकी वैगन-आर, जिस पर कि वो मुम्बई से खण्डाला पहुंचे थे, उसे यकीन था कि जीतसिंह ले गया था और अब रात के ढ़ाई बजे ये भी उसके सामने बड़ी समस्या थी कि उसने मुम्बई वापिस लौटने का कोई इन्तजाम करना था।

    कुत्ता हौले से फिर भौंका।

    फिर गुर्राया।

    इस बार बाकी तीन कुत्तों की कुनमुनाहट सी भी उसे सुनाई दी।

    सूटकेस सम्भाले वो तेजी से फाटक की तरफ लपका।

    वातावरण में चांद की रोशनी की जगह सिर्फ सितारों की लौ थी जिस में उसे लगता था कि कोई कुत्ता अभी उस पर झपटा कि झपटा।

    मुंह को आते कलेजे को सम्भालता वो विशाल फाटक पर पहुंचा।

    फाटक के भीतर का लोहे का भारी कुंडा उसने अपनी जगह से सरका पाया। कुंडे का न लगा होना साबित करता था कि जीतसिंह फाटक के रास्ते वहां से भागा था; उसने वैसे दीवार फांदने की कोशिश नहीं की थी जैसे कि उन्होंने भीतर दाखिला पाया था।

    उसने हौले से फाटक को इतना खोला कि वो उसमें से गुजर सकता, पार कदम रखा और फिर अपने पीछे फाटक के खुले पल्ले को बन्द पल्ले के साथ भिड़का दिया।

    उस क्षण पीछे चारों कुत्ते सम्वेत् स्वर में भौंकने लगे।

    बंगले में जाग हो गयी।

    बंगला चारों तरफ से खुले विशाल प्लॉट में था, जिसके पिछवाड़े में एक छोटा सा कॉटेज था जहां रात को नेताजी के दो बाडीगार्ड, एक ड्राइवर और एक डॉग ट्रेनर यानी चार जने सोते थे। सबसे पहले डॉग ट्रेनर की तन्द्रा टूटी जिसे कि अपने शानदार, कीमती जर्मन शेपर्ड नस्ल के कुत्तों की जुबान समझने का अभ्यास था।

    लेकिन उससे पहले बंगले में अपने मास्टर बैडरूम में सोया पड़ा नेताजी जाग चुका था। पिछली रात मुम्बई में उसके कोलाबा वाले आवास पर पार्टी थी जिसमें कुछ ज्यादा हो गयी थी जिसकी वजह से वो बेचैन सोया था और ढ़ाई बजे अभी बेचैन करवटें बदल रहा था जब कि उसने पहले कुत्ते का भौंकना सुना था। आंखें मिचमिचाता वो उठ कर बैठा।

    ‘‘फज़ल!’’ — उसने खानसामे को आवाज लगायी जिसे कि उससे पहले जाग गया होना चाहिये था।

    कोई जवाब न मिला।

    खानसामा फज़ल हक पिछवाड़े के कॉटेज में बाकी स्टाफ के साथ सोने की जगह बंगले के भीतर, मास्टर बैडरूम के बाहर फर्श पर सोता था ताकि रात की किसी घड़ी नेताजी को उसकी किसी खिदमत की जरूरत पड़े तो वो उसे बजा ला सके।

    नेताजी ने साइड टेबल पर पड़े टेबल लैम्प का स्विच ऑन कर के कमरे में रौशनी की और अपने विशाल शाहाना बैड से नीचे कदम रखा।

    कुत्ता फिर भौंका, गुर्राया।

    नेताजी उठकर दरवाजे पर पहुंचा। अधखुले दरवाजे से उसने बाहर झांका तो पाया कि खानसामा वहां नहीं था जहां कि उसे होना चाहिये था।

    जो कि अजीब, हैरान करने वाली बात थी।

    रात की उस घड़ी कहां जा सकता था कम्बख्त!

    टायलेट में।

    ‘‘फज़ल!’’ — नेताजी ने पहले से ज्यादा ऊंचे सुर में आवाज लगाई।

    जवाब नदारद!

    तभी बाहर चारों कुत्ते भौंकने लगे।

    फिर बाहर से दौड़ते कदमों की आवाज़ें आने लगीं।

    फिर काल बैल बजी।

    नेताजी मेन डोर पर पहुंचा।

    मेन डोर भीतर से मजबूती से बन्द था जो इस बात का सबूत था कि खानसामा रात को एकाएक उठकर कहीं बाहर नहीं चला गया था।

    नेताजी ने दरवाजा खोला।

    बाहर खालिद और मंजूर — उसके दोनों बॉडीगार्ड — खड़े थे।

    ‘‘क्या हुआ?’’ — नेताजी भुनभुनाता सा बोला — ‘‘कुत्ते क्यों भौंक रहे हैं?’’

    ‘‘पता नहीं, बाप।’’ — खालिद अदब से बोला — ‘‘जेकब देखने गया है। मोहन उसके साथ है।’’

    जेकब डॉग ट्रेनर था और मोहन ड्राइवर का नाम था।

    ‘‘हूं!’’ — नेताजी ने अप्रसन्न हूंकार भरी।

    ‘‘बाप’’ — मंजूर बोला — ‘‘दरवाजा तुम खुद खोला! फज़ल किधर है?’’

    ‘‘पता नहीं। जहां होना चाहिये था, वहां तो नहीं था! पता नहीं कहां चला गया!’’

    ‘‘बाप, दरवाजा भीतर से बन्द तो होगा तो भीतर ही!’’

    ‘‘भीतर कहां! पता तो लगे!’’

    ‘‘शायद ऊपर हो! शायद उसे किसी चोर की भनक लगी हो!’’

    तभी ड्राइवर मोहन दौड़ता हुआ वहां पहुंचा।

    ‘‘बाप’’ — वो हांफता सा बोला — ‘‘स्टडी की एक खिड़की खुली है।’’

    ‘‘क्या!’’ — नेताजी हड़बड़ाया।

    ‘‘दोनों पट ऐन आजू बाजू। पर्दे भी अपनी जगह पर नहीं।’’

    ‘‘देखो जाकर।’’

    दोनों बॉडीगार्डों के सिर सहमति में हिले, तत्काल वो उस गलियारे की तरफ बढ़े जिसके सिरे पर स्टडी थी।

    नेताजी उनके पीछे चला।

    ड्राइवर नेताजी के पीछे चला।

    बाहर कुत्तों का भौंकना बन्द हो चुका था, डॉग ट्रेनर जेकब ने उन्हें चुप करा लिया हुआ था।

    खालिद ने स्टडी का दरवाजा खोला।

    भीतर अन्धेरा था।

    उसने दरवाजे के पहलू में दीवार टटोल कर स्विच बोर्ड ढ़ूंढ़ा और उस पर का एक स्विच आन किया। तत्काल कमरा ट्यूब लाइट की रौशनी से रौशन हुआ।

    सबसे पहले सब को फर्श पर लुढ़का पड़ा खानसामा का अचेत शरीर दिखाई दिया जिसकी छाती में बने सुराख में से खून तब भी रिस रहा था और कार्पेट पर बिखरे खून के ढेर में इजाफा कर रहा था।

    ‘‘अल्लाह!’’ — मंजूर के मुंह से निकला।

    लेकिन खानसामे से ज्यादा अहम और तवज्जोतलब कमरे का बुरा हाल था।

    कमरे में पैडेस्टल लैम्प उलटा पड़ा था, उससे परे एक सूटकेस जमीन पर खड़ी पोजीशन में रखा था, खुली खिड़की के दोहरे पर्दे अपनी जगह से उखड़ कर खिड़की के नीचे फर्श पर ढेर हुए पड़े थे और...

    एक बुकशेल्फ अपनी जगह से सरका हुआ था और उसके पीछे से सेफ झांक रही थी।

    नेताजी के मुंह से तीखी सिसकारी निकली।

    अल्लाह! चोर घुस आये! और अपना काम भी कर गये!

    जो नहीं हो सकता था, वो सामने हुआ पड़ा दिखाई दे रहा था।

    ऊपर से उस खुफिया सेफ का राज स्टाफ पर उजागर हो गया था। उस सेफ की स्टडी में मौजूदगी की, उस अपनी जगह से सरक जाने वाले बुक शेल्फ की, किसी को खबर नहीं थी, अब सब को खबर थी।

    उस घड़ी नेताजी को खानसामे की सुध लेनी चाहिये थी लेकिन वो उसके अचेत शरीर को लांघ कर लपकता सा सेफ के करीब पहुंचा।

    उसने सेफ का हैंडल पकड़ कर घुमाया तो वो अपनी जगह से न हिला।

    सेफ मजबूती से बन्द थी।

    नेताजी की जान में जान आयी।

    लेकिन माजरा क्या था!

    जब चोर से सेफ नहीं खुल पायी थी तो खूनखराबे की नौबत क्यों आयी?

    क्योंकि खानसामा एकाएक ऊपर से पहुंच गया!

    सूटकेस वहां क्या कर रहा था?

    नेताजी ने आगे बढ़ कर सूटकेस का मुआयना किया तो पाया कि वो खाली था।

    लेकिन क्यों था वहां!

    कौन लाया!

    चोर वहां तक पहुंचने में कामयाब क्योंकर हो पाया?

    कुत्ते जो अब भौंक रहे थे, चोर की आमद के वक्त पहले क्यों न भौंके?

    चोर भीतर कैसे दाखिल हुआ?

    कैसे उसे उस खुफिया सेफ की खबर थी? और खबर थी कि उसके सामने का बुक शैल्फ एक बटन दबाने से अपनी जगह से सरक जाता था!

    नेताजी का दिमाग भन्ना गया।

    ‘‘जिन्दा है!’’ — एकाएक खालिद सस्पैंसभरे लहजे से बोला — ‘‘अभी जिन्दा है! बाप, फजल की छाती में गोली लगी है पण ये अभी जिन्दा है। सांस फंस फंसकर आ रही है पण आ रही है बरोबर।’’

    ‘‘मुंह में पानी टपका।’’ — नेताजी ने आदेश दिया — ‘‘छींटे मार।’’

    वहीं टेबल पर एक पानी की जग जैसी बोतल मौजूद थी जिसको काबू में करके खालिद ने वो सब किया।

    खानसामे की पलकें फड़फड़ाईं।

    ‘‘सहारा दे।’’ — नेताजी बोला — ‘‘सिर ऊंचा कर।’’

    मंजूर उसके सिरहाने बैठ गया। उसने सावधानी से खानसामे के सिर को ऊंचा किया और उसे अपनी जांघ पर टिका लिया।

    नेताजी उसके सामने उकड़ू हुआ।

    ‘‘फज़ल! फज़ल!’’ — वो व्यग्र भाव से बोला — ‘‘सुन रहा है!’’

    ‘‘हं-हं-हां।’’ — खानखामा बड़ी मुश्किल से बोल पाया।

    ‘‘क्या हुआ? किसने शूट किया तेरे को?’’

    ‘‘रा-रा-राजा... राजा-राम।’’

    ‘‘क्यों?’’

    ‘‘धो-धो-धोखा!’’

    ‘‘किसने दिया? किसको दिया?’’

    खामोशी।

    ‘‘फज़ल, तू अल्लाह वाला फर्द है। अल्लाह के घर जा रहा है। मरते वक्त कोई झूठ नहीं बोलता। इत्तफाक से ...इत्तफाक से तेरी चन्द सांसें अभी बाकी हैं, उनको अच्छे काम में लगा, अल्लाह तेरे को इसका अज्र देगा बोल! बोल, फजल, बोल खुदा के वास्ते।’’

    ‘‘रा-राजा राम को...सेफ...सेफ का...सब मालूम। एक सेफ बस्टर कारीगर के साथ...के साथ इधर। का-कारीगर...सेफ खोल...खोल लिया।’’

    ‘‘क्या!’’

    ‘‘स-सत्तर लाख...लाख बाहर ...’’

    ‘‘सेफ से सत्तर लाख रुपया बाहर निकाल लिया!’’

    ‘‘मेरे को...मेरे को...देने का था...धोखा...गोली...गोली मार दी।’’

    ‘‘किसने? राजाराम ने? सेफ बस्टर कारीगर ने?’’

    ‘‘रा-राजा...राम ने।’’

    ‘‘पूरा नाम बोल।’’

    ‘‘लो-लो...लो...खण्डे।’’

    ‘‘कौन है? कहां पाया जाता है?’’

    फिर खामोशी।

    ‘‘फज़ल!’’

    जवाब न मिला।

    ‘‘खालिद!’’

    ‘‘बोलो, बाप!’’ — खालिद तत्पर स्वर में बोला।

    ‘‘देख, चल तो नहीं दिया!’’

    ‘‘अभी।’’

    खालिद ने उसकी छाती पर दिल के ऊपर हाथ रखा, कलाई में नब्ज तलाशी, शाहरग टटोली।

    ‘‘अभी है।’’ — वो बोला।

    ‘‘मुंह में पानी डाल। छींटा मार।’’

    फजल ने पहले की तरह फिर दोनों काम किये।

    खानसामा कुनमुनाया।

    ‘‘फज़ल! फज़ल!’’ — नेताजी ने व्यग्र भाव से गुहार लगाई।

    ‘‘हं-हां।’’ — क्षीण सा जवाब मिला।

    ‘‘हुलिया न सही, अगर वो मुश्किल काम है तेरे वास्ते। इस राजाराम लोखण्डे के बारे में और कुछ जानता है तो वो बोल।’’

    ‘‘न-न-नम्बर!’’

    ‘‘मोबाइल नम्बर?’’

    ‘‘हं-हं-हां।’’

    ‘‘बढ़िया। बोल!’’

    ‘‘9-7-8-1-4-2-1-0-0-7’’

    ‘‘शाबाश! राजाराम का कोई छोटा मोटा हुलिया तो बयान कर। कोशिश तो कर!’’

    खामोशी।

    ‘‘तू उनसे मिला हुआ था! मेरी सेफ लूटने में उनकी मदद करने में तेरी फीस थी! सत्तर लाख! वो रकम जो तू बोला सेफ से बाहर थी! इसका मतलब है सेफ खुल गयी थी। उसे खोलने में वो कारीगर कामयाब हो गया था!’’

    ‘‘हं-हं-हां।’’

    ‘‘पर सेफ तो बन्द है!’’

    फिर खामोशी।

    ‘‘सिर्फ सत्तर निकाला! सारा माल क्यों न निकला!’’

    खामोशी।

    ‘‘वो बंगले की भीतर कैसे दाखिल हुए? कुत्तों से कैसे बचे? तूने मदद की? सच बोल, फजल, अब आखिरी वक्त में झूठ न बोलना। तेरे को अल्लाह की कसम।’’

    ‘‘हं-हां-हां।’’

    ‘‘लाकबस्टर कारीगर का नाम मालूम?’’

    ‘‘न-हीं।’’

    ‘‘हुलिया तो मालूम! वो बोल जैसे तैसे! वही बोल चाहे औना पौना! बोल, फजल, बोल!’’

    ‘‘ज-ज-जवान...ती-ती-तीसेक का...ग-गो-गोरा...होंठ...पतले...ना...नाक...सीधी...दाढ़-दा-दाढ़ी...मू-मू-मूंछ...नक्को...ब-बाल...बाल घने...भ-भ-भवें ...घनी...दु-दु-दुबला ...म-म-मराठा न...नहीं...’’

    उसकी आंखें उलट गयीं।

    ‘‘गया।’’ — खालिद दबे स्वर में बोला।

    मंजूर ने अपनी जांघ पर से उसका सिर हटा दिया और उठ खड़ा हुआ।

    नेताजी भी उठ कर सीधा हुआ।

    ‘‘कमीना!’’ — वो तिरस्कारभरे स्वर में बोला — ‘‘अहसानफरामोश! दगाबाज! जिस थाली में खाया, उसी में छेद किया। सत्तर लाख कमाने चला था! गोली कमाई! अच्छा हुआ नालायक, नामाकूल के साथ! कुत्तों के साथ जो हुआ इसने किया। इसने चोरों को भीतर घुसाया। कीड़े पड़ेंगे कम्बख्त की कब्र में।’’

    कोई कुछ न बोला।

    ‘‘लेकिन सेफ खोल ली! ये कह के गया सेफ खोल ली! कारीगर ने सेफ खोल ली! तो बन्द क्यों है? खोली तो बन्द करने की क्या जरूरत थी?’’

    ‘‘गुस्ताखी माफ, बाप’’ — खालिद विनीत भाव से बोला — ‘‘अभी खोल के तो देखने का!’’

    नेताजी ने उस बात पर विचार किया।

    सेफ का राज तो खुल ही चुका था, अब आगे कुछ छुपाने में क्या रखा था!

    उसने मेज के पीछे जा कर उसके एक दराज में से चाबी बरामद की और फिर उसकी मदद से सेफ को खोला। भीतर नोट मौजूद पाकर उसने चैन की सांस ली। फिर मोटे तौर पर उसने हजार-हजार के नोटों की उन गड्डियों को गिना।

    ‘‘एक करोड़ चालीस लाख!’’ — वो बोला — ‘‘सत्तर लाख कम हैं। जो कि घुसपैठिये ले गये।’’

    ‘‘बाप’’ — खालिद हैरान होता बोला — ‘‘बाकी क्यों छोड़ गये? छोटी रकम ले गये, बड़ी रकम छोड़ गये। ऐसा क्यों?’’

    ‘‘क्या पता! कितने ही राज हैं तमाम सिलसिले में जो फज़ल हक की मौत के साथ दफ्न हो गये। लेकिन याद करेंगे वो हराम के पिल्ले कि किसके साथ पंगा लिया था! छोड़ूंगा नहीं। पाताल से भी खोद निकालूंगा। वो मोबाइल नम्बर जो फज़ल बोला! किसी ने याद भी रखा या नहीं, कम्बख्त मारो!’’

    ‘‘मैंने अपने मोबाइल पर नोट किया न, बाप, बरोबर!’’ — खालिद बोला।

    ‘‘बजा। और राजाराम लोखण्डे को पूछ।’’

    ‘‘अभी।’’

    खालिद ने वो काम किया।

    ‘‘कोई जवाब नहीं, बाप।’’ — फिर बोला।

    ‘‘रात का टेम है’’ — नेताजी बोला — ‘‘साला ढ़ाई से भी ऊपर का, लोग बाग रात को जवाब नहीं देता या ऑफ करके सोता है, इस वास्ते। वान्दा नहीं, दिन में फिर बजाना।’’

    ‘‘बरोबर, बाप।’’

    ‘‘अभी पुलिस को फोन लगाने का और इधर की वारदात की खबर करने का।’’

    ‘‘करता है, बाप।’’

    तत्काल खालिद मेज पर रखे लैण्डलाइन के टेलीफोन पर पहुंच गया।

    तभी डॉग ट्रेनर जेकब ने वहां कदम रखा। फर्श पर लुढ़की पड़ी खानसामे की लाश को देखकर उसके नेत्र फैले।

    ‘‘मर गया।’’ — नेताजी भावहीन लहजे से बोला — ‘‘किसी ने इधर घुस के शूट कर दिया। बड़ी वारदात हो गयी इधर।’’

    ‘‘गॉड!’’ — जेकब के मुंह से निकला।

    ‘‘साली तमाम सिक्योरिटी धरी रह गयी। अभी तू अपना बोल।’’

    ‘‘यू सैड इट, बॉस, बड़ी वारदात हुई। कुत्तों को गोश्त के लोथड़ों पर लगा कर बेहोशी की दवा खिलाई गयी थी। चारों अभी भी नार्मल नहीं हैं।’’

    ‘‘इसी का काम है।’’ — नेताजी ने लाश को ठोकर मारी — ‘‘ये घुसपैठियों से मिला हुआ था। उनके हाथों बिका हुआ था सेफ से जो माल बरामद हो, उसके एक तिहाई हिस्से की एवज में।’’

    ‘‘दो जने दीवार फांद कर आये — फूलों की क्यारियों में उनके जूतों के निशान हैं — और फाटक खोल कर आराम से निकल कर गये।’’

    ‘‘बढ़िया। खुदा करे इस नाहंजार फज़ल हक की रूह जहन्नुम की आग में झुलसे।’’

    कोई कुछ न बोला।

    ‘‘अभी मेरे को जाकर सोने का। कोई डिस्टर्ब न करे। पुलिस आये तो सम्भालना।’’

    ‘‘बरोबर, बाप।’’ — खालिद बोला।

    ‘‘और बंगले का ऊपर तक चक्कर लगाने का। मालूम करने का कि किधर क्या नार्मल नहीं है!’’

    ‘‘बरोबर, बाप।’’

    खानसामे का जैसे फातिहा पढ़ कर नेताजी यूं फिर सोने चला गया जैसे उसका कोई मुलाजिम नहीं, गली का कोई आवारा कुत्ता मरा हो।

    गुरुवार : 28 मई

    राजाराम लोखण्डे के नये बॉडीगार्ड का नाम किशोर विचारे था। उसको ग्यारह बजे तक अपने नये बॉस का फोन आ जाता था कि उसने क्या करना था, कहां पहुंचना था लेकिन उस रोज दोपहर से ऊपर का टाइम हो गया था और फोन नहीं आया था। उसकी नयी-नयी नौकरी थी और वो जरूरतमन्द था इसलिये वफादारी दिखाने के लिये उसने बॉस के मोबाइल पर खुद फोन लगाया।

    घन्टी बजने लगी, बजती रही, लेकिन जवाब न मिला।

    किधर बिजी था बॉस। शायद टायलेट में।

    दस मिनट बाद उसने फिर काल लगाई।

    जवाब तब भी न मिला।

    वफादारी दिखाने के लिये उसने बॉस के होटल जाने का फैसला किया।

    वो घाटकोपर और आगे होटल आनन्द पहुंचा।

    लॉबी में उपलब्ध एक हाउस टेलीफोन से उसने बॉस के रूम नम्बर पर काल लगाई।

    जवाब फिर भी न मिला। लोकल फोन भी मोबाइल की तरह बजता रहा लेकिन काल रिसीव न की गयी।

    क्या माजरा था!

    लिफ्ट द्वारा वो छटे माले पर पहुंचा।

    ‘605’ के दरवाजे पर दस्तक देने के लिये उसने हाथ उठाया तो पाया कि दरवाजे का पल्ला चौखट से मिला हुआ नहीं था। हौले से उसने दरवाजे को धकेला तो वो निशब्द खुला। उसने झिझकते हुए दरवाजा खोला तो कमरे में उसने कृत्रिम प्रकाश का सर्वदा अभाव पाया। कमरे के भीतरी सिरे पर एक विशाल प्लेट ग्लास विंडो थी जिस पर पड़े मोटे पर्दे में से छन कर जो रोशनी भीतर आ जा रही थी, वही कमरे में रौशनी का अपर्याप्त साधन थी।

    उसने झिझकते हुए चौखट से भीतर कदम डाला और आगे निगाह दौड़ाई।

    जो नजारा उसे दिखाई दिया, उसने उसके प्राण कंपा दिये।

    कमरे में बैड के पहलू में कार्पेट बिछे फर्श पर उसका बॉस राजाराम लोखण्डे मरा पड़ा था। उसकी पथराई आंखें छत पर कहीं टिकी हुई थीं, उसके माथे पर दोनों भवों के ऐन बीच में गोली का सुराख था जिसमें से बहा खून कार्पेट पर ढेर हुआ और कनपटी पर लम्बी लकीर के तौर पर जमा दिखाई दे रहा था।

    देवा! देवा!

    किसी ने बॉस को प्वायन्ट ब्लैंक शूट करके उसका कत्ल कर दिया था और अब ये भी कहना मुहाल था कि ऐसा कब हुआ था, कब से वो वहां मरा पड़ा था।

    तभी अपने पीछे से उसे एक तीखी सिसकारी सुनाई दी।

    उसने घूमकर पीछे देखा तो उसे अपने पीछे एक वर्दीधारी मेड दिखाई दी जिसका मुंह खुला हुआ था, नेत्र फटे पड़ रहे थे और वो जड़ हो गयी जान पड़ती थी।

    विचारे घूमा, उसने मेड को बांह से पकड़ा और उसे बाहर गलियारे में ले आया।

    ‘‘क-क-क्या हुआ!’’ — मेड के मुंह से निकला।

    ‘‘खून!’’ — विचारे बोला — ‘‘मर्डर! कत्ल का केस है।’’

    ‘‘क-कौन-कौन?’’

    ‘‘नाम राजाराम लोखण्डे! इस रूम का आकूपेंट।’’

    ‘‘आ-आकूपेंट बोले तो!’’

    ‘‘भई, जिसका ये रूम है।’’

    मेड ने जोर से, मजबूती से इंकार में सिर हिलाया।

    ‘‘क्या हुआ?’’

    ‘‘ये वो भीड़ू...वो साहब नहीं।’’

    ‘‘क्या मतलब?’’

    ‘‘वो तो नौ-नौजवान था। काला सूट पहने था। टाई लगाये था। हाथ में चमड़े का ब्रीफकेस थामे था। वो था वो साहब जिसका ये कमरा है।’’

    ‘‘तुम्हें कैसे मालूम!’’

    ‘‘मेरे सामने इधर आया। मैं इधर हाउसकीपिंग का काम करती थी — टावल्स चेंज करती थी, बैड की चादरें चेंज करती थी, सिरहानों के गिलाफ चेंज करती थी, जब कि वो हाथ में रूम का की-कार्ड थामे इधर पहुंचा। रूम को पहले ही खुला पाकर भीतर आया, मेरे को गुडमार्निंग बोला, ब्रीफकेस उधर सोफे पर फेंका, कोट उतार कर उसके ऊपर उछाला और टाई ढ़ीली करता सोफाचेयर पर ढेर हुआ क्योंकि खुद बोला ब्रेकफास्ट ज्यास्ती हो गया था, थोड़ा रैस्ट करना मांगता था, इस वास्ते अपना रूम में वापिस लौटा। बोले तो वो था इस रूम का...वो जो तुम बोला...आकूपेंट।’’

    ‘‘तुम्हें कोई गलतफहमी हुई है।’’

    ‘‘काहे कू! वो खुद मेरे को यहीच बोला। उसका हर एक्शन अपनी जुबानी बोलता था कि ये रूम उसका। मेरे को ये तक पूछा वो मेरे काम में रुकावट तो नहीं था! बोला, ऐसा था तो वो बाहर जाता था। मैं बोली मेरे को खाली पांच मिनट का काम, तो तब वो उधर सोफाचेयर पर सैटल हुआ। मैं बोले तो ये कमरा उस भीड़ू... उस काला सूट, ब्रीफकेस वाला साहब का।’’

    ‘‘कहां है वो?’’

    ‘‘किधर चला गया अपने काम से।’’

    ‘‘तो ये कौन है तुम्हारे खयाल से?’’

    ‘‘मैं क्या बोलेगी! क्या पता ये साहब कौन है!

    ‘‘राजाराम लोखण्डे है। ये कमरा इसका है। जिस भीड़ू को तू इधर का आकूपेंट बोलती है, वो ही इसका कत्ल किया।’’

    ‘‘पण...’’

    ‘‘सिक्योरिटी को खबर कर। मैनेजर को बुला।’’

    ‘‘पण...’’

    ‘‘सुना नहीं!’’

    मेड सरपट वहां से भागी।

    नेताजी का वो बहुत व्यस्त दिन था।

    सुबह नौ बजे ही वो हैलीकाप्टर से मुम्बई आ गया था और कोलाबा स्थित अपने आवास पर अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से मीटिंग में इतना मसरूफ हो गया था कि दोपहरबाद दो बजे तक उसे सांस लेने की फुरसत नहीं मिली थी। तब मीटिंग्स के उस सिलसिले से, जो कि शाम तक चलने वाला था, उसने एक घण्टे का ब्रेक लिया। तभी उसकी तवज्जो पिछली रात के वाकयात की तरफ गयी।

    उसने अपने बॉडीगार्ड खालिद को तलब किया।

    ‘‘वो पिछली रात वाला मोबाइल नम्बर’’ — नेताजी ने पूछा — ‘‘जिससे जवाब नहीं मिला था, तू ने फिर ट्राई किया?’’

    ‘‘जो फज़ल बोल के मरा था’’ — खालिद बोला — ‘‘कि किसी राजाराम लोखण्डे का था?’’

    ‘‘अरे, वही, और कौन सा! रात को वो खड़काया था तो जवाब नहीं मिला था न! दिन में फिर ट्राई किया?’’

    ‘‘वो तो बाप, नहीं किया!’’

    ‘‘क्यों!’’

    ‘‘आपका हुक्म नहीं हुआ न फिर ट्राई करने का!’’

    ‘‘अपनी अक्ल से कोई काम नहीं कर सकता?’’

    ‘‘बाप, सॉरी बोलता है। वो क्या है कि...’’

    ‘‘अब कर।’’

    ‘‘अभी।’’

    खालिद ने अपना मोबाइल पॉकेट से निकाल कर हाथ में लिया और पिछली रात वाले नम्बर पर — 9781421007 पर — काल लगाई।

    तत्काल उत्तर मिला।

    ‘‘कौन बोलता है?’’ — कोई कर्कश स्वर में बोला।

    ‘‘मेरे को राजाराम लोखण्डे से बात करने का।’’ — खालिद सावधान स्वर में बोला।

    ‘‘कौन बोलता है!’’ — फिर पूछा गया।

    ‘‘अरे, जिसका फोन लगाया, उसको बोलेगा न!’’

    ‘‘कौन बोलेगा? नाम बोलो अपना। ये भी बोलो क्या बात करना मांगता है?’’

    ‘‘अरे, भीड़ू, तू राजाराम लोखण्डे है या नहीं है?’’

    ‘‘कौन पूछता है?’’

    ‘‘फिर वही बात...’’

    ‘‘क्या बात है?’’ — नेताजी उतावले स्वर में बोला।

    ‘‘होल्ड करने का।’’ — खालिद ने फोन में बोला, फिर फोन को मुंह से परे किया और नेताजी से सम्बोधित हुआ — ‘‘फोन से जवाब तो मिला, बाप, पण कोई लोचा। कोई सवाल के बदले में सवाल करता है, जवाब नहीं देता। ये भी नहीं बताता कि वो राजाराम लोखण्डे बोल रयेला है कि नहीं।’’

    ‘‘मेरे को दे।’’

    खालिद ने मोबाइल नेताजी को थमा दिया।

    ‘‘हल्लो!’’ — नेताजी रौबदार लहजे से मोबाइल में बोला — ‘‘मैं बहरामजी कान्ट्रैक्टर बोलता हूं।’’

    ‘‘मराठा मंच का सुप्रीमो?’’ — पूछा गया।

    ‘‘वही। तुम कौन है उधर?’’

    ‘‘मैं इन्स्पेक्टर अनिल विनायक। एएसएचओ घाटकोपर पुलिस स्टेशन...’’

    होटल आनन्द के रूम नम्बर 605 के भीतर और बाहर लोगों की भीड़ लगी हुई थी जिसमें होटल का मैनेजर विनोद निगम, सिक्योरिटी आफिसर अशोक किशनानी, दोनों के मातहत और कई पुलिस वाले शामिल थे जिनका सरगना लोकल पुलिस थाने से आया उसका एडीशनल स्टेशन हाउस आफिसर अनिल विनायक था।

    लाश की निर्विवाद रूप से शिनाख्त हो चुकी थी कि वो होटल में पिछले दो हफ्ते से ठहरा हुआ मुअज्जिज मेहमान राजाराम लोखण्डे था। शिनाख्त का सर्वोपरि साधन मकतूल का मुलाजिम, कथित बॉडीगार्ड किशोर विचारे था। लिहाजा हाउस कीपिंग मेड की दुहाई कब की खारिज हो चुकी थी कि उस रूम का आकूपेंट कोई और था।

    पुलिस के एक्सपर्ट्स लाश का, मौकायवारदात का मुआयना कर चुके थे और जो कुछ वो जान सके थे, वो था :

    कत्ल अड़तीस कैलीबर की स्मिथ एण्ड वैसन ब्रांड की गन से हुआ था जो कि वहीं लाश के करीब पड़ी पायी गयी थी।

    गन पर से उसका सीरियल नम्बर रेती से घिस कर मिटा दिया गया हुआ था जिसकी वजह से उसके मालिक को ट्रेस कर पाना नामुमकिन था। वैसे भी उसके चोरी की गन होने की ही ज्यादा सम्भावना थी।

    गोली चलने की आवाज किसी ने नहीं सुनी थी — गलियारे में मौजूद हाउस कीपिंग मेड ने भी नहीं — क्योंकि नाल पर चार इंच लम्बा साइलेंसर चढ़ा पाया गया था।

    गन पर कहीं भी किसी भी प्रकार के फिंगरप्रिंट्स नहीं थे जो कि इस बात की तरफ इशारा था कि इस्तेमाल के बाद तिलांजलि देने से पहले उसको रगड़ कर पोंछ दिया गया था।

    गोली माथे पर ऐन भवों के बीच लगी थी जो इत्तफाक भी हो सकता था और कातिल के क्रैक शॉट होने की तरफ इशारा भी हो सकता था।

    कातिल उसी शख्स के होने की सम्भावना थी जिस को हाउसकीपिंग मेड ने उस कमरे का आकूपेंट समझा था।

    मेड का — जिसका नाम मीनल खोटे था — बहुत सख्ती से, बहुत बारीकी से बयान हुआ। बार बार उसको उस काले सूट और चमड़े के ब्रीफकेस वाले शख्स का कद काठ और हुलिया बयान करने को बोला गया जो कि तब उस रूम में पहुंचा था जब कि वो उसे ठीक कर रही थी, संवार रही थी जो कि उसका काम था, उसकी डेली रूटीन थी। जो हुलिया उसने बयान किया, पुलिस का एक ग्राफिक आर्टिस्ट वहीं कम्प्यूटर पर उसके आधार पर एक कम्पोजिट पिक्चर तैयार करने में जुट गया।

    तभी मकतूल का मोबाइल फोन बज उठा।

    वो फोन, जो मकतूल के बाकी साजोसामान के साथ उसी के रूमाल में एक पोटली की सूरत में बन्धा हुआ था और पुलिस टीम के एक सब-इन्स्पेक्टर के कब्जे में था।

    सब-इन्स्पेक्टर ने पोटली खोल कर फोन निकाला और काल रिसीव की।

    ‘‘कौन बोलता है?’’ — उसने पूछा।

    आगे कुछ क्षण फोन पर तकरार सी चली जिसे इन्स्पेक्टर अनिल विनायक ने बोर होते सुना।

    ‘‘कौन है!’’ — आखिर वो तिक्त स्वर में बोला।

    ‘‘पता नहीं, सर।’’ — एस आई बोला — ‘‘मकतूल को पूछता है पर सवाल ही करता है, किसी सवाल का जवाब नहीं देता।’’

    ‘‘मेरे को दे।’’

    इन्स्पेक्टर ने फोन लिया तो लाइन पर बड़े और ताकतवर पोलीटिकल लीडर बहरामजी कान्ट्रैक्टर को पाया।

    ‘‘मैं इन्स्पेक्टर अनिल विनायक, एएसएचओ घाटकोपर पुलिस स्टेशन। सर, फोन के मालिक राजाराम लोखण्डे का अभी थोड़ी देर पहले इधर घाटकोपर के होटल आनन्द के रूम नम्बर 605 में कत्ल हो गया है। किसी ने साइलेंसर लगी गन से उसे प्वायन्ट ब्लैंक शूट कर दिया। किसी जाती रंजिश का मामला जान पड़ता है...नहीं, सर, मौकायवारदात से कोई बड़ी रकम बरामद नहीं हुई। ...जी हां, तफ्तीश जारी है। एक शख्स हमारे शक का बायस बना है जो कि कातिल हो सकता है और जिसकी बाबत और जानकारी निकालने की कोशिश की जा रही है। एक मेड ने उसको देखा था। उसके बयान की बिना पर संदिग्ध व्यक्ति की सूरत की एक कम्पोजिट पिक्चर तैयार की जा रही है। उम्मीद है कि वो पिक्चर उसकी शिनाख्त में मददगार साबित होगी। ...जी हां, नोन क्रिमिनल्स के रिकार्ड से उसका मिलान किया जायेगा। कातिल पहले से कोई सजायाफ्ता मुजरिम हुआ तो पहचान में आ जायेगा। जी! आपका कोई खास आदमी यहां आयेगा? क्या नाम बोला...इकबाल रज़ा! ठीक! ठीक! पर आप की केस में क्या दिलचस्पी है? ...इकबाल रज़ा बोलेगा... ठीक है।... जी हां। आपका हुक्म है तो हम आपके आदमी के साथ पूरा सहयोग करेंगे। यस, सर। थैंक्यू, सर। जयहिन्द, सर।’’

    शाम को छ: बजे नेताजी का खास आदमी इकबाल रज़ा नेताजी के हुजूर में पेश हुआ।

    वो लम्बा — छ: फुट से ऊपर निकलते कद का — पतला, क्लीनशेव्ड आदमी था जो कि उम्र में कोई पैंतालीस साल का था।

    केस की जो जानकारी उसे मौकायवारदात से हासिल हुई थी, वो उसने नेताजी के लिये दोहराई और फिर एक कम्प्यूटर पुलआउट पेश किया।

    ‘‘बॉस, ये वो कम्पोजिट पिक्चर है’’ — रज़ा बोला — ‘‘जो पुलिस के आर्टिस्ट ने उधर की मीनल खोटे नाम की मेड के बयान की बिना पर बनाई है।’’

    ‘‘कोई शिनाख्त हुई?’’ — नेताजी ने पूछा।

    ‘‘मोटे तौर पर नहीं। बारीक तफ्तीश अभी जारी है।’’

    ‘‘फिर क्या फायदा हुआ?’’

    ‘‘फायदा हो सकता है।’’

    ‘‘कैसे?’’

    ‘‘आप ने मुझे खण्डाला वाले बंगले के तमाम वाकयात की बावत बताया था। मेरी अक्ल ये कहती है कि कल रात के खण्डाला के वाकये का आज के घाटकोपर के होटल आनन्द में हुए कत्ल से रिश्ता हो सकता है।’’

    ‘‘ऐसा?’’

    ‘‘जी हां। मेरे को साफ लगता है कि जिन दो जनों का कल का बंगले का खेल था, वही दो जने होटल

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