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मै पहले रेलवे सटेशन सेवा मे कायररत था। जबसे मै पूजय बापू के सािनधय मे आया एवं गरीबो की सेवा हेतु एक
सिमित का संचालन करने लगा, तबसे नौकरी मे मेरा मन नही लगता था। इसके िलए मैने बापू जी से चचा की तो बापू जी
ने मुझे नौकरी छोडने को कहा, जो िक मेरे मन की बात थी। आप शी के िनदरशानुसार मैने सवेचछा से सेवा-िनवृित का
आवेदन-पत रेलवे िवभाग को पसतुत कर िदया। परंतु जब मेरे पिरवार के सदसयो ने मुझे अपना तयागपत वापस लेने के
िलए उकसाया तो उनकी बातो मे आकर मैने गुरआदेश की अवहेलना कर तयागपत वापस ले िलया। िकनतु मेरे चाहने से
कया होता है ? होता तो जीवन मे वही है, जो सदगुर चाहते है। मेरे जीवन मे भी इसी पकार की िनमिलिखत घटना घटीः
30 जुलाई, 1998 को गुरपूिणरमा के अवसर पर मै अपनी पती सिहत पूजय बापू जी के पास िदलली आया था।
इसक े कु छ िदन बाद 6 अगस्त को गुड ़गाँव में सड़क पार करते हुए मैं अचानक मोटर साईिकल से दुघर्टनागर्स
इससे मेरे िसर में अित गम्भीर चोटें आईं। िजसने टक्कर मारी थी उसकी सहायता से
मेरी पती ने मुझे गुडगाव के िचिकतसालय मे भती कराया। िकनतु हालत अित गमभीर होने की वजह से मुझे सफदरगंज
िचिकत्सालय, िदलली मे ले जाया गया। वहा के िचिकतसक ने इलाज के िलए पहले फीस जमा कराने के िलए कहा तो मेरी
पती पैसा जमा कराने मे असमथर थी। िकनतु गुरकृपा से वहा उनहोने मेरा िनःशुलक इलाज करना सवीकार कर िलया।
शरीर मे सभी जगह निलया लगा रखी थी। जहा डॉकटर के िहसाब से मै जीवन एवं मृतयु के बीच संघषर कर रहा था, वही
एक िदन मुझे एहसास हुआ िक गुरदेव मेरे पास आये और उनहोने मुझसे कहा िकः
"गुर से जयादा जगवालो की बात को मानने वाले भूल कभी मत करना।"
मुझे ऐसा भी पतीत हुआ जैसे गुरजी ने मेरे िसर के घाव साफ िकये। यह सब कया था, यह मै नही जानता।
िकनतु इतना तो जानता हूँ िक यह वासतिवकता है िक जहा मै चार िदनो से पलंग से बाध रखा गया था, वही मै अपने -
आपको सब चीजो से मुकत कर सवयं शौच आिद से िनवृत होने गया, िजसे देखकर सब हैरान रह गये ! उसी केदूसरेिदन
मै वहा से छुटी लेकर घर आ गया और गुरकृपा से आज तक ठीक हूँ।
सच है, हमारे जैसे िशषय अजानतावश भले गुर की अवहेलना कर दे, िकनतु सदगुर अपने िशषयो को सही
मागरदशरन देकर उनके कषो का िनवारण करते है। अब मै रेल की सेवा छोड गुरकृपा से अपना जीवन आनंद से वयतीत
कर रहा हूँ था गुरिनिदरष मागर से दीन-दुःिखयो और गरीबो की सेवा मे कतरवयिनष हूँ।
पूजय बापू के शीचरणो मे कोिट-कोिट पणाम !
भवदीय,
के.के.खन् ना
ऋिष पर्साद , अंक 79, पृष संखया 26, नवमबर 1998
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