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Shreemad Bhagwad Geeta 15th Chapter
Shreemad Bhagwad Geeta 15th Chapter
शीभ गव ानुव ाच
ऊध वव मूलम धः शा खम शतथ ं प ाहु रव ययम ।
छनदा ंिस यसय पण ाव िन यसत ं व ेद स व ेदिव त ॥ १ ॥
उस संसारवक
ृ की तीनो गुणोरप जल के दारा बढ़ी हुई एवं िवषय-भोगरप कोपोवाली दे व,
मनुषय और ितयक
व ् आिद योिनरप शाखाएँ नीचे और ऊपर सवत
व फैली हुई है तथा
मनुषयलोक मे कमो के अनुसार बाँधनेवाली अहं ता-ममता और वासनारप जड़े भी नीचे
और ऊपर सभी लोको मे वयाप हो रही है । (२)
इस संसारवक
ृ का सवरप जैसा कहा है वैसा यहाँ िवचारकाल मे नहीं पाया जाता कयोिक
न तो इसका आिद है और न अनत है तथा न इसकी अचछी पकार से िसथित ही है ।
इसिलए इस अंहता, ममता और वासनारप अित दढ़ मूलोवाले संसाररप पीपल के वक
ृ को
वैरागयरप शस दारा काटकर । उसके पशात उस परम पदरप परमेशर को भलीभाँित
खोजना चािहए, िजसमे गये हुए पुरष िफर लौटकर संसार मे नहीं आते और िजस परमेशर
से इस पुरातन संसार-वक
ृ की पविृत िवसतार को पाप हुई है , उसी आिदपुरष नारायण के
मै शरण हूं- इस पकार दढ़ िनशय करके उस परमेशर का मनन और िनिदधयासन करना
चािहए । (३,४)
िजस परमपद को पाप होकर मनुषय लौटकर संसार मे नहीं आते, उस सवयंपकाश
परमपद को न सूय व पकािशत कर सकता है , न चनदमा और न अिगन ही । वही मेरा
परमधाम है । (६)
ममैव ांश ो ज ीवल ोके ज ीवभू तः सन ात नः ।
मनः षष ान ीिनदय ािण प कृितस थािन क षव ित ॥ ७ ॥
शरीर ं यद वा पन ोित य चचापय ुतक ामती शरः ।
गृ ह ीत वैत ािन स ं या ित व ायुग व नध ािनव ाश या त ॥ ८ ॥
शोतं चकु ः सप शव नं च र सनं घ ाणम े व च ।
अिध षाय मन शा यं िवष या नु पसेवत े ॥ ९ ॥
शरीर को छोड़कर जाते हुए को अथवा शरीर मे िसथत हुए को अथवा िवषयो को भोगते
हुए को इस पकार तीनो गुणो से युक हुए को भी अजानीजन नहीं जानते, केवल जानरप
नेतोवाले िववेकशील जानी ही ततव से जानते है ।(१ 0)
सुयव मे िसथत जो तेज समपूणव जगत को पकािशत करता है तथा जो तेज चनदमा मे है
और जो अिगन मे है - उसको तू मेरा ही तेज जान ।(१२)
और मै ही पथ
ृ वी मे पवेश करके अपनी शिक से सब भूतो को धारण करता हूँ ओर
रससवरप अथात
व ् अमत
ृ मय चनदमा होकर समपूण व औषिधयो को अथात
व ् वनसपितयो को
पुष करता हूँ ।(१३)
इन दोनो से उतम पुरष तो अनय ही है ,जो तीनो लोको मे पवेश करके सबका धारण-
पोषण करता है एवं अिवनाशी परमेशर और परमातमा-इस पकार कहा गया है ।(१७)
यसम ात कर मती तो ડहमक राद िप च ोतमः ।
अत ोડिसम ल ोक ो वेदे च प िथ तः पुर षो तम ः ॥ १८॥
हे िनषपाप अजुन
व ! इस पकार यह अित रहसययुक गोपनीय शास मेरे दारा कहा गया,
इसको ततव से जानकर मनुषय जानवान और कृ ताथव हो जाता है । (२०)
-:हरी ॐ :-