भगवान शिव सृष्टि के आद्य गुरु हैं। उनके भिन्न - भिन्न रूपों की साधना भक्त करते हैं। भक्तों को शिव आराधना से आत्म तृप्ति प्राप्त होती है। वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक भारतीय मानस भगवान् शिव को पूजता रहा है। शिव की दयालुता, उनके समान करुणावरुणालय कौन है? "शिव समान दाता नहीं" कहकर कवियों ने उनकी उदारता को प्रकट किया है। राष्ट्र के सुदूर प्रान्तों में अपने द्वादश जोतिर्लिंग के रूप में विराजमान भगवान् शिव लोक चेतना को ऊर्जा संपन्न करते रहते हैं।
दक्षिणामूर्ति स्वरुप भगवान के कैलाश पर्वत पर आसन लगाये हुए स्वरुप का है। उनका मुख दक्षिण की और है। दक्षिणमुखी होकर वह शिष्यों (ऋषियों,मुनियों) को ज्ञान प्रदान कर रहे हैं। यहाँ पर भगवान् शिव युवा हैं और उनके शिष्य वृद्ध। भाव यह है कि आत्म ज्ञान सदा तरो ताजा रहता है। भगवान शिव की इस मुद्रा की, अपने दस श्लोकों में, आद्य जगद्गुरु भगवान् शंकराचार्य ने स्तुति की है।
भगवान शिव सृष्टि के आद्य गुरु हैं। उनके भिन्न - भिन्न रूपों की साधना भक्त करते हैं। भक्तों को शिव आराधना से आत्म तृप्ति प्राप्त होती है। वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक भारतीय मानस भगवान् शिव को पूजता रहा है। शिव की दयालुता, उनके समान करुणावरुणालय कौन है? "शिव समान दाता नहीं" कहकर कवियों ने उनकी उदारता को प्रकट किया है। राष्ट्र के सुदूर प्रान्तों में अपने द्वादश जोतिर्लिंग के रूप में विराजमान भगवान् शिव लोक चेतना को ऊर्जा संपन्न करते रहते हैं।
दक्षिणामूर्ति स्वरुप भगवान के कैलाश पर्वत पर आसन लगाये हुए स्वरुप का है। उनका मुख दक्षिण की और है। दक्षिणमुखी होकर वह शिष्यों (ऋषियों,मुनियों) को ज्ञान प्रदान कर रहे हैं। यहाँ पर भगवान् शिव युवा हैं और उनके शिष्य वृद्ध। भाव यह है कि आत्म ज्ञान सदा तरो ताजा रहता है। भगवान शिव की इस मुद्रा की, अपने दस श्लोकों में, आद्य जगद्गुरु भगवान् शंकराचार्य ने स्तुति की है।
भगवान शिव सृष्टि के आद्य गुरु हैं। उनके भिन्न - भिन्न रूपों की साधना भक्त करते हैं। भक्तों को शिव आराधना से आत्म तृप्ति प्राप्त होती है। वैदिक काल से लेकर आधुनिक काल तक भारतीय मानस भगवान् शिव को पूजता रहा है। शिव की दयालुता, उनके समान करुणावरुणालय कौन है? "शिव समान दाता नहीं" कहकर कवियों ने उनकी उदारता को प्रकट किया है। राष्ट्र के सुदूर प्रान्तों में अपने द्वादश जोतिर्लिंग के रूप में विराजमान भगवान् शिव लोक चेतना को ऊर्जा संपन्न करते रहते हैं।
दक्षिणामूर्ति स्वरुप भगवान के कैलाश पर्वत पर आसन लगाये हुए स्वरुप का है। उनका मुख दक्षिण की और है। दक्षिणमुखी होकर वह शिष्यों (ऋषियों,मुनियों) को ज्ञान प्रदान कर रहे हैं। यहाँ पर भगवान् शिव युवा हैं और उनके शिष्य वृद्ध। भाव यह है कि आत्म ज्ञान सदा तरो ताजा रहता है। भगवान शिव की इस मुद्रा की, अपने दस श्लोकों में, आद्य जगद्गुरु भगवान् शंकराचार्य ने स्तुति की है।