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करिया कक्का की आत्मकथा

‘काकी, कक्का हैं ? जिा दिवाजे पि भेज दो.’

‘हैं कहााँ वे आाँ गन में .’

‘काहे , कहााँ गए इतने भोिे -भोि?’

‘का बताएं , बच्चू को कब से कह िहा था पम्प सेट के लिए. आज चाि बजे जाकि िगाया खेत
में . िाजमा के पौधे पीिे पड़ते जा िहे थे. उसी की लसंचाई में िगे हुए हैं .’

‘आज तो मौसम बहुते ख़िाब है । इसी मौसम में उन्हें यह सब किना था.’

हााँ . आज दोपहि से पहिे धूप क्या लनकिेगी. िेलकन बच्चू को अगि आज ना कह दे ते तो


अब पौधे मिणासन्न हो जाते . क्या किोगे. ऐसे ही चिती है . यह लजंदगी.’

‘हााँ . सो तो है . तुम कक्का को चाय पहुाँ चा दो. सदी बहुत है . उन्हें थोड़ी िाहत लमिेगी.’

‘हााँ . मैं भी खेत की तिफ ही लनकि िही हाँ . िेलकन पहिे इन बकरियों को कुछ चािा डाि
दू ाँ . नहीं तो बेचािी लमलमयाती िहें गी.’

‘क्या खखिाओगी बकरियों को?’

‘पीछे से जिेबी का एक डं ठि तोड़ िाती हाँ . उसी के पत्ते में िटकी िहें गी.’

‘ओ.’

‘तु म सु नाओ. कैसे आये ?’

‘आज इतवाि है काकी. सोचा था लक इतनी सदी है तो कक्का बड़ा सा घूिा िगा के बैठे
होंगे. मैं भी बैठ जाऊंगा. गप्पें किें गे. तुम अदिक वािी चाय जरूि लपिाओगी.’
‘चाय पीना है तो क्षलणक बैठो. अभी बना दे ती हाँ .’

‘नहीं काकी. िहने दो. तू ना, बकिी को चािा डािकि कक्का को चाय पहुं चा दो. मैं लफि
आ जाऊंगा. शाम को.’

‘जरूि आना. दोपहि तक लसंचाई का काम भी ख़त्म हो जायेगा. लफि तो कक्का घूिे के पास
ही जमे िहें गे.’

जरूि आऊंगा काकी.

बािह बजे के िगभग सूिज दे व ने सबको दशशन लदया था. िेलकन दो बजते न बजते पलछया ने
जोि िगा दी तो लफि वे कुहासे की ओट में पता नहीं कहााँ लछप गए. अभी चाि भी नहीं बजे
थे औि ऐसा िग िहा था लक िात होने वािी है . सदी के लदनों में जब भी इस तिह का खिाब
मौसम होता है , िोग अपने-अपने घिों में ही दु बके िहते हैं . िेलकन कक्का अब तक नहीं िौटे
थे. खेत से. दिवाजे पि घूिा सुिग िहा था. सूखे गोबि, गोबि से बने उपिे औि बााँ स की
जड़ से जोड़ा गया यह घूिा आज पहिे से ज्यादा मजबूत िग िहा था. नहीं तो काकी घूिे में
उपिे कहााँ दे तीं हैं . कहती हैं लक उपिे तो भोजन बनाने के लिए होता है . घूिे के लिए कक्का
पहिे ही सू खे गोबि औि कटे बााँ स की जगह से उसकी जड़ उखाड़ कि ढे ि िगा दे ते हैं .
सदी खत्म हो जाती है िेलकन घूिे की सामग्री खत्म नहीं होती.

काकी बकरियों को घि के अंदि िे जा िही थीं. लफि उन्होंने गाय की पीठ पि जूट से बने
बोिे को सी कि बनाया गया झूि िख लदया.

‘कक्का अभी तक नहीं िौटे हैं ?’

‘िौटने ही वािे हैं .’

‘बड़ी दे ि हो गई?’

‘अिे , आफत आती है तो दो चाि आ जाती है .’

‘क्यों, क्या हुआ?’


‘मौसम को नहीं दे ख िहे !’

‘हााँ . सो तो है . बहुत लबगड़ा हुआ है .’

‘ऊपि से आधे खेत की लसंचाई भी नहीं हुई लक मशीन का डीजि खत्म हो गया.’

‘िे लकन डीजि तो लकितु के यहााँ लमिता है न?’

‘आज नहीं था. खत्म था. मशीन खेत से चिा जाता तो लफि खींच के िाने में लकतनी पिे शानी
होती है .’

‘तब?’

‘तब क्या. कक्का तुम्हािे छतिपुि गए. डीजि िाए. अब जाकि काम खत्म हुआ है . िो, आ
गए.’

‘चाय बना दो.’

कक्का ट्यू बेि के पास चिे गए.

‘अिे कक्का, पहिे हाथ-पां व सेंक िो.’

‘आता हं . आता हाँ . घूिे के पास ही आता हाँ . पहिे दे ह पि एक बाल्टी पानी उढे ि िूं.’

‘मैं कहती हाँ लक इस बखत स्नान किने का क्या तुक है . लसफश दे ह-हाथ पोंछ िो.’

‘हााँ कक्का, समय नहीं दे ख िहे .’

‘कुछ नहीं होगा.’

कक्का ने दे ह पि पानी उढे ि ही लिया-हि-हि गंगे… हि-हि गंगे!

‘कभी लकसी की सुने तब न!’

‘तू चाय बनाकि घूिे के पास िेती आ. शाम को भुनभुना मत. िक्ष्मी बुिा मान जाती है .’
‘काकी घू िे के पास पीढा िख गई. कक्का जब िौटे , घूिा पूिा सुिग चुका था. इससे पहिे
उससे कुछ-कुछ धुआं लनकि िहा था. लजस गोबि से धुआं लनकि िहा था, अब वह सूख गया
था औि िु हाि की भट्ठी की तिह अंगाि की शक्ल में आ गया था.’

‘ठीक हो?’

‘हााँ कक्का.’

‘औि बाि-बच्चा?’

‘सब ठीक है .’

‘सदी बढ गई है . सबको ध्यान से िहना पड़े गा. नहीं तो यह दबोच िेती है .’

‘जै से आप िहते हैं कक्का!’ मुझे हाँ सी आ गई.

‘अिे , यह जो दे ह है न, इसका सब पचाया हुआ है . अब के िोगों की बात दू सिी है . लफि


हमािा क्या है . हम तो पके आम ठहिे . जब टपक जाएं . लजस लवलध से टपक जाएं .’

काकी दो लगिास में चाय िेती आई. काकी के हाथ का चाय पीकि मजा आ जाता है . पता
नहीं लकस मात्रा में क्या लमिाती है लक स्वाद इतना लदव्य हो जाता है . लफि आज कि तो
अदिक भी लमिाती है . आह! अदिक सदी के मौसम को लकतना स्वालदष्ट बना दे ता है .

‘तू भी अपनी चाय यहीं िे आ.’

‘औि चू ल्हा-चौका कौन किे गा?’

‘अिे , सब हो जाएगा. हड़बड़-हड़बड़ में चूल्हा पि कुछ पकाएगी तो स्वाद लबगड़ जाएगा. िे
आ. अपनी चाय यहीं िे आ. दे ख तो, घूिे की आग लकतना सुख दे िही है . आह!’

‘काकी अपना लगिास िे आई.’

‘कहो तो, सदी के मौसम में हाथ में चाय का लगिास हो औि आदमी घूिे के पास बैठा हो तो
उसे लकतना सुख लमिता है !’
‘हााँ कक्का, आप सच कहते हैं . लकतना अच्छा िग िहा है .’

‘हााँ . घू िे की आाँ च जब दे ह में सदी के स्थान पि गमी िोपने िगती है न, मन आनंद से भि


उठता है . इस पि तुम क्या कहती हो िक्ष्मी?’

‘जे ठ की गमी में कभी चूल्हे के पास घंटा-दो घंटा बैठो तो सही बात पता चिे .’

‘यह भी तु मने खूब कही.’

‘अच्छा बता. खाने में क्या बनाओगी?’

‘तु म कहो, क्या बना दू ाँ ?’

‘ज्यादा ताम-झाम मत किना. िोटी बना िो औि िहसून की चटनी. दू ध तो है ही.’

‘ठीक है .’ काकी जूठे लगिास समेट कि लनकि गईं.

‘िहसू न की चटनी का स्वाद भी बड़ा लदव्य होता है कक्का.’

‘हााँ नहीं तो क्या. जाड़े का यह मौसम औि िहसून की चटनी. आह! हमािे पूवशजों ने लकतने
लदव्य स्वाद का उपहाि लदए हैं हमें !’

‘काकी तो औि जबिदस्त बनाती होंगी?’

‘हां । यह तो है . तेिी काकी के हाथों में कोई जादू है जैसे. बड़ी तन्मय हो कि खाना बनाती
हैं . लफि िहसून की चटनी बनाना भी कोई बच्चों का खेि नहीं है .’

‘हााँ कक्का.’

‘िहसू न औि हिी लमचश को आग में ठीक से भूनो. गि िहसून थोड़ा सा भी कच्चा िह गया तो
वो स्वाद नहीं आ पाएगा. लफि उसमें सिसों का कच्चा तेि डािो. नमक औि आम का अचाि
सही मात्रा में लमिाओ. लफि दे खो स्वाद.’

‘बं द किो कक्का.’


‘काहे , मुाँ ह में पानी आ गया!’

गाय चु प िेटी पगुिा िही थीं. कक्का के ठहाके से वह चौंक उठीं. मेिी भी खखिखखिाहट
लनकि गई. हम दे ि तक हाँ सते िहे .

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