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आलोकयतु तावत् कल्याणाभिभिवे शी लक्ष्मीमेव प्रथमम्। इयं भि सुिटखड् गमण्डलोत्पलविभवभ्रमभ्रमरी लक्ष्मीीः

क्षीरसागरात्पाररजातपल्लवे म्यो रागम्, इन्दु शकलादे कान्तवक्रताम्, उच्चीः श्रवसश्चञ्चलताम्, कालकूटान्मोििशक्तं


मभदराया मदम्, कौस्तु िमणेिैष्ठु यय म्, इत्ये ताभि सिवासपररचयवशात् भवरिभविोदभचह्नाभि गृिीत्वचवोद्गता। ि
ह्येवंभवधमपररभचतभमि जगभत भकभञ्चदक्स्त यथेयमिायाय । लब्धाभप खलु दु ीःखेि पररपाल्यते ।
दृढगु णपाशसन्दािभिस्पन्दीकृता अभप िश्यभत। उद्दामदपयिटसिस्नोल्लाभसताभसलतापञ्जरभवधृता अप्यपक्रामभत।
मदजलदु भदय दिान्धकारगजघभटतघिघटापररपाभलता अभप प्रपलायते । ि पररचयं रक्षभत। िाभिजिमीक्षते । ि
रूपमालोकयते। ि कुलक्रममिुवतय ते। ि शीलं पश्यभत। ि वचदग्ध्यं गणयभत। ि श्रुतमाकणययभत। ि धमयमिुरुध्यते ।
ि त्यागमाभियते । ि भवशे षज्ञतां भवचारयभत। िाचारं पालयभत। ि सत्यमिुबुध्यते । ि लक्षणं प्रमाणीकरोभत।
गन्धवय िगरले खा इव पश्यत एव िश्यभत।

िे राजकुमार! आप का कल्याण िो। आप सवय प्रथम लक्ष्मी को िी दे ख लें । समुि मंथि से जब यि उत्पन्न
हुई तो क्षीर सागर के पाररजात पल्लवों से राग, चन्द्रमा से वक्रता, उच्चीःश्रवा से संचलता, कालकूट से
मोििशक्त, मभदरा से मादकता, कौस्तुि मभण से कठोरता ग्रिण कर उि-उि वस्तु ओं के भवरि में अपिे
मिोरं जि के भलए उिके भचह्नों के साथ बािर भिकली। जन्मकाल में मथिी रूपी मन्दराचल के घू मिे से क्षीर
सागर में जो िंवर पड़ गयी उसकी भ्रामकता लक्ष्मी में आज िी भवद्यमाि िच । यि भिीःस्पृि तथा बड़ी चंचल
िच । दृढ़ता से बां धकर रखिे पर िी चली जाती िच। यि भकसी से जाि पिचाि ििीं रखती िच तथा कुल-
शीलाभद का िी भवचार ििीं करती िच । अपिे भवभवध मायावी रूपों को भदखािे के भलए िी लक्ष्मी िे भवराट्
पुरुष भवष्णु िगवाि् का आश्रय भलया िच । यि मूखों के पास भिवास करती िच तथा सरस्वती के उपासकों से
सदा दू र रिती िच । इसिे अपिे भवरोधी चररत्र का संसार में एक जाल-सा भबछा रखा िच । दे क्खये ि, जल से
उत्पन्न िोिे पर िी लक्ष्मी तृष्णा को बढ़ाती िच । उन्नत िोकर िी स्विाव में िीचता लाती िच । अमृत की
सिोदरा िोकर िी कडु का फल दे ती िच । यि चं चला लक्ष्मी जच से-जच से चमकती िच वचसे-वच से दीपभशखा की
िााँ भत मभलि काजल रूपी कमय उत्पन्न करती िच । यि शास्त्ररूपी िेत्रों के भलए अज्ञािरूपी रतौंधी िच , भशष्टाचार
को िटािे के भलए बेंत की छड़ी िच , धमयरूपी चन्द्रमा को ग्रसि करिे के भलए राहु की जीि िच । यि दु ष्टा
लक्ष्मी) जाि पभिचाि की रक्षा ििीं करती, उत्तम कुल का िी ध्याि ििीं रखती, सुन्दरता को ििीं दे खती,
कुलक्रम का अिुगमि ििीं करती, शील को ििीं दे खती, पाक्ण्डत्य को ििीं भगिती, शास्त्रों के (ज्ञाि) को
ििीं सुिती, धमय का अिुरोध ििीं करती, त्याग का आदर ििीं करती, भवशे षज्ञता को ििीं भवचारती, आचरण
का पालि ििीं करती, सत्य को ििीं जािती,

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