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मित्रो!

आज दू सरा सप्तक के कमि के रूप िें मिख्यात और िालिा मििासी श्री िरे श िे हता के एक
काव्यिय गद्य से आपको पररचय करिा रहा हूं । कदामचत आपिें से कुछ लोगोूं िे उन्हें पढ़ा हो!
ज्ञािपीठ पुरस्कार से सम्मामित महूं दी के यशस्वी कमि श्री नरे श मेहता उि शीर्ष स्थ लेखकोूं िें हैं जो
भारतीयता की अपिी गहरी दृमि के मलए जािे जाते हैं । िरे श िे हता िे आधुमिक कमिता को ियी
व्यूं जिा के साथ िया आयाि मदया। रागात्मकता, सूंिेदिा और उदात्तता उिकी सजष िा के िू ल तत्त्व है ,
जो उन्हें प्रकृमत और सिू ची सृमि के प्रमत मजज्ञासु बिाते हैं । आगे आप स्वयूं सिझें। यह अूंश उिकी
“उत्तरकथा” उपन्यास का शु रुआती अूंश है जो लमलत मिबूंध सा अहसास करता है । असिय भीर्ण
गरिी के सिय कदामचत आपको शीतलता का अहसास हो ... इस आस िें आज पहला अूंश:

चातुिाष स –

आर्ाढ़, श्रािण, भाद्रपद और आमिि –

उिाले (ऊष्ण काल ) और मसयाले (शीतकाल ) के सेतु–िास !! आकाश के िे घ बिकर धरती पर


िीचे उतरिे के िास। आकाश, बादल बिकर धरती पर एक आत्मीय, एक स्वजि बिकर, रूप
और गूंध बिकर उतरे इसकी कैसी उत्कट लालसा होती है . सिस्त सृमि, आकूंठ पृथ्वी को जै सी
आकुलता होती है इसकी कोई कल्पिा आकाश को कभी िहीूं हो सकती है । जो तपा ि हो िह इस
स्वत्वगत मपपासा को कभी अिु भि िहीूं कर सकता। आकाश बिे रहिे िें अमितीयता भले ही हो
परन्तु जो सिग्रता, जो आत्मीय कुल बान्धिता, जो िैमिकता कीच-कादोूं िाली इस धररत्री िें है िहा
इस अगाध आकाशीय अमियता िें कहाूं ? सारी ऋतुएूं, सारे िक्षत्र लगते तो आकाश िें है परन्तु
उिके कोप, उिकी कृपा की साक्षी, भोक्ता धरती ही है । िैशाख–जयेि की भुलास और तपि के बाद
आर्ाढ़ का प्रथि िक्षत्र लगा िहीूं मक पशु -पक्षी, झुलसे फूल, म्लाि ििस्पमतयाूं सबके सब कैसे
स्वागत-सिारोह की छोटी-छोटी घूंमटयाूं तुितुिाते लगते हैं । स्त्रियोूं के चपल िे त्रोूं की भाूं मत एक
मि:शब्द कोलाहल, िृक्षोूं-ििस्पमतयोूं, िमदयोूं-िालोूं िें भरिा लगता है । पठारी एकाूं त के सन्नाटें िें
हिा, कैसी बाूं शी–भार्ा सी सुिायी पड़िे लगती है । पमिि मदशा के अरब-सागर से उठािे िाले काले -
कजरारे िे घोूं के मलए कौि-मकतिा हिास रहा है इसे कोई िहीूं व्यक्त कर सकता। पाखी ऐसी उड़ािे
भरिे लगते हैं मक जै से अपिे चोचोूं िें िे घोूं को उठाकर ले आएूं गे और मकसी िे टोका िहीूं तो
सूयाष स्त को दे आएूं गे। हिा िें झूिती हुई फुिमगयाूं ऐसी उझकी पड़ें गी मक अगर पेड़ोूं िे उन्हें थि ि
रखा होता तो सबका सब पक्षी बि जातीूं। थू हर, खजू र,आि, केला-कदली, िीबू-िागकेसर, सूखे
िाले , उूं डी (गहरी) बािमड़याूं , ििस्पमतहीि डूूंगररयाूं , खु रदरे चरागाह कौि है मजसे िे घोूं की गूंध िहीूं
आिे लगती है ?

धरती पर जब पहली आर्ाढ़ बूूंद टपकती है ऊिी-ऊिी (गरि-गरि) धुल कैसे हौले से, फूल-सी
मि:शब्द मचटख उठती है । गाि-गोयरोूं (सीिािोूं) पगडूं मडयोूं और गरिटोूं की गरि-गरि धुल िें कैसे
बताशे ही बताशे मछटक उठते हैं । सूखे राड़ें चबाते बैल, कपासे मबिौले खातीूं गायें-भै सें गदष िें महला
गलघूंमतयााँ बजाते हुए कैसे हे र ले िे लगते हैं मक अरे , आर्ाढी िे घ आ गए क्या ? और हिें मकसी िे
बताया तक िहीूं ? आर्ाढ़ के स्मरण िात्र से उि पशु ओूं की मचकिी त्वचा कैसी थरथराते लगती है
जै से जल के एकाूं त को मकसी िे छू मदया हो। हिा के स्पशष िें हलकी सी िादष िता आ जाती है मजसे
मकलोलते बछड़े अपिी उठी पूूंछोूं से छूिा चाहते हैं । यमद खू टोूं से बूंधे ि होते तो आर्ाढ़ की अगिािी
ऐसे बूंधे-बूंधे होती? अब तक तो िदी पेले पार पहुाँ च गए होते ! िे घोूं के खूूं ट िुूं ह िें दबाये सीधे
अपिे गाूं ि ही पहले लाते। त्वचा पर बूूंदोूं का प्रथि स्पशष कैसा अप्रमति ठूं ढा लगता है ि ? आर्ाढ़
िहाकर दे ह कैसी िु लायि धूमल मचकिी हो जाती है । भैं सोूं का आबिू सपि तक कैसा चिचिािे लगता
है मक िणष तो बस कृष्ण-िणष ही है । थािोूं का दू ध तक उजला गया लगता है । रोि-रोि से,
अूंतरति से कासी उत्कूंठा, पुकार आिे लगती है मक - आर्ाढ़ आये तो !! आर्ाढ़ ि हुआ बस्त्रि
एक ऐसा सूंबोधि हुआ मजसकी प्रतीक्षा िें धरती अद्यस्नाि राधा बिी तपी है । िी-दे ह को भी ऐसे
आत्मीय, एकाूं त सूंबोधि की प्रतीक्षा िहीूं होती होगी जै सी मक सहस्र िुखी, सहस्र –ियिा धरती को
अकेले आर्ाढ़ की होती है।

आर्ाढ़ का पहला दोूंगरा बरसा िहीूं मक पीली-पीली घासोूं-मतिकोूं के बीच से िर्ाष बारीक-बारीक
रास्ते बिाते कैसे सोचता हुआ चलता लगता है ि मक जै से चीमटयोूं की िक़ल करता चल रहा है ।
अिूं त पररश्रि करता िह मशशु िर्ाष -जल अज्ञात से अज्ञात, अिाि से अिाि, छोटी-छोटी जड़ोूं तक
आज िहीूं तो कल, कल िहीूं तो परसोूं दो-चार मदिोूं िें पहुूं च कर ही रहता है । छोटो-छोटो गड्ढो िें
चलते जब िह हठात मगरकर भरिे लगता है तो आपको हूं सी आती है मक इस ििजात को अभी
धरती पर ठीक से चलािा भी िहीूं आया। घासोूं-ििस्पमतयोूं के ज्ये ष्ठ िमस धुल-धूसररत व्यस्त्रक्तत्व,
उदास,पीले -स्त्रखन्न िु ख आर्ाढ़ जल को अपिे मिकट पहुूं चा दे खकर कैसे झटपट अपिी दे ह की धुल
झाड़िे लगते हैं । उिके स्वत्व, उिके िु ख मकतिे दयिीय थे परन्तु चार-आठ मदिोूं की आर्ाढ़ के
िर्ाष के बाद तो ऐसा लगता है मक आर्ाढ़, जड़ोूं से होता हुआ फुिमगयोूं तक पहुूं च कर ही रहे गा।
ििस्पमतयोूं की दे ह भरिे लगती है । खाया-पीया अूंग लगा दे खते हैं । िृक्षोूं-पौधोूं की ियी-ियी मिष्कलु र्
कोपलें कैसी पलक-भार्ा लगती हैं । इि मदिोूं सारे अरण्य कैसे सूंपन्न और सूंतुि लगते हैं । कल तक
िि िें , हिा िें कैसा उदास, सुिा सन्नाटा था, पीले पत्ते कराहते लगते थे पर दो ही चार मदिोूं िें
मिटटी तक से कैसी गूंध आिे लगती है मक जै से, क्या गूंध केिल चन्दि की ही होती है , िाटी की
िहीूं? यह िाटी-गूंध िि िें जािे पर ऐसा लगता है मक भार्ा के मलए आकुल मकसी व्यस्त्रक्तत्व के पास
आए हैं । आपको अपिी अूंगुमलयोूं िें उस व्यस्त्रक्तत्व के स्पशष का बोध तक अिु भि होता है ।

िैशाख-ज्ये ष्ठ िें छाहोूं और सघिता की तलाश िें जािे कहाूं िीपाूं तर कर गए पाखी िापस अपिे पेड़ोूं
पर लौटिे लगते हैं . इि पेड़ोूं की प्रसन्नता दे खकर लगता है मक पत्ते , ि उड़ पािे िाले पाखी हैं और
पाखी, उड़ते हुए पत्ते हैं। इि मदिोूं की िाचाली हिा िें झुके पड़ रहे पेड़ कैसे लगते हैं जै से मक
दु हरी होती हुई स्त्रियााँ स्त्रखलस्त्रखला रही होूं। और ये तोते? कैसे भार्ा-प्रिीि पाखी झरती होती है । ऐसी
उत्फुल्ल और उन्मु क्त भार्ाियता मकसी अन्य पाखी िें िहीूं होती है । िै िा िें पटटिमहमर्योूं िाला िाधुयष
अिश्य होता है पर चपलता िहीूं। कोयल की चपलता िें राजकुिाररयोूं की चूंचलता होती है पर तोतोूं
िाली आकूंठियता िहीूं। तोते जै से ध्वमि और भार्ा से मिमिष त पाखु लगते हैं । तोते कुछ भी करें , भले
ही मि:शब्द धुप िें उड़ते हुए मदख भर जाएूं –भार्ा का ही बोध दे ते हैं । मकसी अिार या आि पर
तोते होूं, तब उिका व्यिहार दे स्त्रखये। बच्चे भी अपिी िााँ पर ऐसे लादे िहीूं पड़ें गे जै से तोते अिार
और आि पर लदे पड़ते हैं । आि िें अभी िूंजररयाूं आयीूं िहीूं मक तोतोूं िे िूं डरािा शु रू मकया िहीूं।
केरी से आि होिे तक एक-एक आि कुतर डालें गे। कोई मकतिा पत्तोूं से अपिे आि इि शै ताि
तोतोूं से बचाएआर्ाढ़ आिे तक आि बचाते ही मकतिे हैं तब भी इि बचे-खु चे आिोूं पर भी तोते जब
दे खोूं टू ट पद रहे हैं । आि ि हुए, िााँ के स्ति हुए। कोई आि से मलपटा पड़ा है , तो कोई उसकी
लम्बी टहिी से मचपटा झुला पद रहा है . कोई स्थाि ि मिलिे पर चारोूं ओर िूं डराते हुए झपटिे के
मलए आकुल है ट कोई मछपाते पड़े तोते को ही चोूंच से िार-िार कर हटा दे िे पर लगा है । कोई
तोता मकसी दू सरे तोते की तरह िहीूं है । और यह शोर? - बाबा रे बाबा! रे बाबा ! उस आम्रिृक्ष
के ही िहीूं, दे खिे िाले तक के कािे तोतोूं की इि भार्ा-चीखोूं से फट कर रह जाएूं । आि पर फैले
धुप की िलिल कैसी मचथड़े -मचथड़े मकये दे रहे हैं ये तोते! – पाखी हैं मक आफत !!

भीगी िृक्ष-छालोूं पर काले चीतोूं की लम्बी-लम्बी कतारें आि, ििृषक्ष के टिोूं से सखा और शाखा से
प्रशाखाओूं की ओर जा ही रही होती हैं । िाटोूं के चारोूं ओर लाल फलोूं को कुतर कर फैला कर
छीटें उिके चारोूं ओर िूं डराते कैसे प्रसन्न मदखलाई दे ते हैं । कैसी दु िषह और मकतिी असह्य लू -गरिी
के बाद तो िृक्षोूं, ििस्पमतयोूं, पमक्षयोूं और जीिोूं को यह आर्ाढ़ की उत्सिता मिली है । भला इस
उत्सिता िें भी कोई मििं द ि हो! कोयल की िाचालता अब काफी कि हो गइ है इसमलए कोयल-
कौिोूं की झड़पें भी काफी कि हो गई हैं । ब्याएूं भी अपिे लटकते घोसलोूं िें बार-बार आ जा रही
हैं । पीपल की सबसे ऊाँची फुिगी पर पजे साधे, पर तुले, गदष ि उठाये चील पमिि मक्षमतज की ओर
ऐसे ताक रही है मक आर्ाढ़ के िे घ इसी ओर से तो आएूं गे? आर्ाढ़ की िे घोूं का आिा आिा ही
िहीूं, िह चाहे , और दो-चार पर िारे तो थोड़े उड़िे पर अरब-सागर तक दे ख सकती है । ढे र
सारी चीलें गोल की गोल िें उपरले आकाशोूं िें ऐसे मिमिूं त िूंडरा रही हैं जै से इन्दर रजा के आूं गि
िें गरबा िृ त्य करिे का उन्हें आिूं त्रण मिला था। उिकी मिमिूं त उड़ाि दे ख कर ऐसा लगता है मक
उन्हें िीचे उतरिे की कोई उतािली िहीूं क्योूंमक िर्ाष हो तो उन्हें िीचे आिे िें दे र ही मकतिी लगेगी
? और मफर ये िे घ पहिे इधर ही से तो आएूं गे। उन्हें िालिी धरती का मििूंत्रण कौि दे गा? िदी-
िाले , ये थू हर-बबूल? इतिे ऊपर से उि बेचारे िे घोूं को कुछ मदखे गा भी? दे खिा, िे घोूं को कैसे
घेर कर िालिी धरती पर हि उतार कर लाती है ।

…………………..

श्रीिरे श िे हता के सुप्रमसद्ध उपन्यास “उत्तर कथा” िें चातुिाष स िें (मिशेर्कर िालि क्षे त्र के) प्रकृमत
के आलोडि का लामलत्यपूणष िणषि मिलता है . गत मदिोूं इसके कुछ अूंश इस फोरि पर शे यर मकया
था . आज से श्रािण िाह की शु रुआत हो गई है इसमलए पमढ़ए श्रािण िाह के बारे िें िमणषत इसके
अूंश :

श्रािण

ििु ष्य की रचिा प्रकृमत िे उसके ‘स्व’ के मलए की ही िहीूं है . िह तो सृमि िात्र के प्रमतमिमधत्व के
मलए जन्मा है . तभी तो ििु ष्य आर्ाढ़ भर तो मकसी प्रकार प्रतीक्षा करता है मक थोड़ी सी बाररश हो
तो िदी-िाले चलिे लगे, हिा िें थोड़ी ठूं डक आ जाए, िृक्षोूं की िािस्पमतक उपस्त्रस्थमत अिुभि होिे
लगे और ऐसी िाधिता श्रािण आते-आते बहुत कुछ हो भी जाती है . मजस स्त्रखड़की से कभी लू की
लपटें आती थीूं अब उसी से ठूं डी िायरे के झोूंकें रह-रह कर आिे लगते हैं . इस बीच िृक्षोूं के पत्तें
िहा मलए तो कैसी हरीमतिा आ गई ि? िे घगजष ि पर ऐसा लगता है मक जै से खम्ोूं पर जलती
मचिमियाूं चौक-चौक पड रही हैं . घर-आूं गि सभी जगह कैसी सुहाििा लगिे लगता है जै से कोई
िे हिाि आिे को है और अभी तक सतरूं जी ओटले पर मकसी िे मबछायी िहीूं है . भला ऐसी रम्य,
काम्य ऋतु िें सिस्त सृमि की ओर से अब ििु ष्य को कोई उत्सि ििािे से रोक सकता है . गोठोूं
के मलए श्रािणी फुहार िें भीगते हुए सुदूर ििोूं के जलाशयोूं तक जािे से कोई रोक सकता है ?
आिूं द के मलए उपकरण की िहीूं, िि की उत्सिता चामहए. जूं गल िें पीपल या िट िृक्ष के भीगे
तिे से पीठ मटकाये िर्ाष िें टाट सर से ओढ़े , ठूं डी हिा िें काूं पते मकसी ग्वाले , घोर् से पूमछए मक
तेज सपाटे िारती हिा िें मछतरी पड़ती बाूं शी की इस बेसुरी ताि िें क्योूं आिूंद आ रहा है ! िर्ाष की
िाधिता जब अूंतर िें सूंपन्न होगी तभी तो िर्ोत्सि अिु भि मकया जा सकता है . गीली, भीगी गोधूली
िें गायोूं-भैं सोूं के साथ लौटिा भी एक उत्सि है , यह अिु भि करिे के मलए अपिे अूंतर िें अिासक्त
चरिोत्कर्ष ता चामहए. स्त्रियाूं हैं मक िर्ाष थोड़ी सी ररिमझि हुई और मिकल पड़ीूं. गाूं ि के बाहर मजस
आि या पीपल या िीि की शाखा थोड़ी िीचे हुई उसी पर रस्सी का झूला डाला और महचकोले ले िे
लगीूं और कहीूं दो-चार हुई तो रस्सी िें पमियाूं फूंसाया और दोिोूं ओर सस्त्रखयाूं खड़ी हो गईूं. कैसे
हुिस-हुिस कर पेंगें बढ़ाईूं जा रही हैं . बाल हिा के साथ मछतरे पड़ रहे हैं . पल्लू का पता ही िहीूं
चल रहा है . ररिमझि िें सारा िुूं ह कैसा मछूं टा पड़ रहा है जै से कोई दू ध की धार िुूं ह पर छीूंट रहा
हो. झूले के साथ दे ह और दे ह के साथ हीरािि िि भी कैसा िीचे-उपर आ जा रहा है . जल को
ठे लिे की तरह ही हिा को भी ठे लते हुए ऊपर जाते सिय सीिे पर कैसा िीठा-िीठा सा दबाि
लगता है , जै से मकसी का हाथ हो-मकसका? महश्ट!! पर लौटते िें पैरोूं के बीच से उड़ते लु गड़े के
बीच से हिा की लकीर कैसी ठूं डी-ठूं डी सी, मपूंडमलयोूं को जाूं घोूं को थरथरा दे ती हैं . किर तक सब
सुन्न सा पड जाता है जै से रस्सी िहीूं थािोूं तो बस अभी चू ही पड़ें गे. और इस उब-चुभ िें िि का
रमसया हीरािि ि जािे मकतिे िदी-िाले , गाूं ि-काूं कड़ सूंबूंधोूं के औमचत्य-अिौमचत्य को लाूं घकर कैसे-
कैसे सपिे दे खिे लगता है मक मकसी को उिकी जरा सी भिक या आहट हो जाए तो मफर कुूंए िें
ही फाूं दिा पड़े . गीत की एक महलोर ऊपर से िीचे को आती है और मफर हिा के दबाि िें कैसे
थरथराती ऊपर चली जाती है – चालो रे गािड़े िालिे !!! – झूले की यह उपकरणहीि िि की
उत्सिता अधषचूंद्राकार स्त्रस्थमत िें आती है , मफर ऊपर आकाश िें मफर कैसे पलटती है . ऐसी उत्सिता
िें सारे िि-प्राूं तर, िदी-िाले , ििरामजयाूं , पशु -पक्षी सभी तो िारी कूंठ की इस आकुल रसियता िें
अमभर्े मकत हो जाते हैं . ििु ष्य की यह कैसी उत्सि-सुगूंध है मजससे सिय की दे ह भी सुिामसत लगती
है . श्रािण िें अरण्य की भाूं मत आकूंठ भीगिा और क्या होता है ?

और श्रािण बीतते ि बीतते श्रािण पूमणषिा आ जाती है . तीज के मलए पीहर आई ििबधुएूं पुिः
लड़मकयाूं बिी कैसे दु ईपाटी के फूल लगती हैं . श्रािण पूमणषिा के रक्षा बूंधि के बाद मफर ससुराल
लौट जाती हैं . अपिे गाूं ि के साथ कन्यात्व कैसा बाूं धा हुआ है ; बाकी कहीूं जाओ, बधू तो होिा ही
है .

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मित्रो! आज से भाद्रपद अथाष त भादो िास का पहला मदि है . इस िाह के बारे िें श्री िरे श िे हता िे
अपिे उपन्यास “उत्तरकथा” िें िालिा के सन्दभष िें लमलत मिबूंध की शै ली िें प्रकाश डाला है . दू सरा
सप्तक के कमि के रूप िें मिख्यात और िालिा मििासी श्री िरे श िे हता के काव्यिय गद्य से
कदामचत आपिें से कुछ लोग पररमचत हो! ज्ञािपीठ पुरस्कार से सम्मामित महूं दी के यशस्वी कमि श्री
नरे श मेहता उि शीर्ष स्थ ले खकोूं िें हैं जो भारतीयता की अपिी गहरी दृमि के मलए जािे जाते हैं ।
िरे श िे हता िे आधुमिक कमिता को ियी व्यूंजिा के साथ िया आयाि मदया। रागात्मकता, सूंिेदिा और
उदात्तता उिकी सजषिा के िू ल तत्त्व है, जो उन्हें प्रकृमत और सिू ची सृमि के प्रमत मजज्ञासु बिाते हैं ।
यह अूंश उिकी “उत्तरकथा” उपन्यास का शु रुआती अूंश है . आज तीसरा ि अूंमति अूंश:

चातुिाष स – भाद्रपद
श्रािण फुहारोूं का िास है परन्तु भाद्रपद तो झड़ी के मलए ऐसा ही प्रमसद्ध है जै से मक कथाकार
सखाराि बुिा की कथा, मजसे सुिते हुए डूबते जाओ. आज से भाद्रपद आरम् हो जाएगा. आर्ाढ़ िें
जल धरती पहुूं चा ही होगा मक श्रािण िें िह अूंकुररत हुआ और भाद्रपद िें तो फूल बिकर स्त्रखल
उठता है . दू िाष और कोमट-कोमट अिाि घासें, िात्र मलखी हुई ििस्पमतयाूं ही ि रहकर भाद्रपद िें
चलते हुए पौधे लगिे लगती हैं . कल तक के उघडे धरती के सारे अूंग धािी चुिरी से ढूं के-िुूं द जाते
हैं जै से कन्या अब गौरी हो गयी है , अूंग ढूं किा आिा ही चामहए.

श्रािण िें उपििोूं, जलाशयोूं के मकिारे गोठें होती हैं . िैष्णि-िूं मदरोूं की हिेमलयोूं के परकोटोूं से
मिकलकर ठाकुर जी भी िि-मिहार के मलए पूरे तािझाि के साथ मिकल पड़ते हैं . ििु ष्य का या
भगिि का, मकसी का िि-मिहार को मिकलिा ही उत्सि है . ठीक ही तो है, श्रािण की िर्ाष , िर्ाष
थोड़े ही होती है , यह तो िे त्रोूं से दे खे जािे िाला िाधि-स्पशष होती है . पूणषियस्का िर्ाष तो भाद्रपद
की होती है . श्रािण की िर्ाष तो मिथु ि-ियिोूं की ऐसी भार्ा होती है जो आूं खोूं की राह सीधे अूंतर
को सूंबोमधत करती है और िि िें कैसी चाूं दी की घूंमटयाूं टु िटु िािे लगती है . ऐसे िें ियि मिलते
कहाूं हैं ? तत्काल पलकें इन्हें ि ढापें तो पता िहीूं क्या हो जाए? श्रािण-िर्ाष तो बस, िीठी गुिगुिी
धूप होती है . इस धूप की धरती का आले प करिे को जी करता है , तो िि उस धूप को ठु िरी के
बोल सा गािा चाहता है ; िहीूं, कािोूं िें झुिके सा धारण कर ले िा चाहता है . – िि-मिहार के मलए
पूमडयाूं , गुलगुले, भमजये, अचार, िु रब्बे ि जािे क्या-क्या पीतल के मडब्बोूं िें मलए आूं िला-पूजि के
मलए घर से मिकलकर खुले िें पहुूं चकर िि मकतिा सम्पू णष होता है , इसे पुरुर् क्या जािें ? मकसी िी
से पूछो. िाक िें िथ, हाथ िें गोखरू, कुहिी के ऊपर बाजू बूंद, पाूं ि िें पायल-मबमछया पहिे जब
दल की दल गाूं ि-कस्बे से बाहर मिकले और तालाब की पाल पर पहुूं चे िहीूं मक श्रािण की फुहारें
कैसे आपको हिे से मभगोिे लगती हैं , जै से िैष्णि-िूं मदर की होली हो. िु स्त्रखयाजी ठाकुरजी के झूले
से चूंडी की मपचकारी सटा कर ‘बोल मगररराज-धरण की जय!!’ कहकर सुिामसत केसर-जल से
होली खेलते हैं तो दे श, काल, िाि-ियाष दा कहीूं कुछ रह जाती है ? दे ह कैसे खु ली मकताब हो जाती
है ि? उत्सि तभी उत्सि है जब िह सूंबूंधहीि हो. िि कैसे दे ह पर से उतरी काूं चली (चोली) सा
पीछे छूट गया लगता है . फुहारोूं से छिती आती श्रािणी जूं गली हिा पोर-पोर को कैसे सजग बिा
दे ती है जै से सारे रोि मजह्वा हो गए हैं . िारी दे ह की इस उत्सि भार्ा को आज तक ि मजह्वा ही
मिल पायी और ि अमभव्यस्त्रक्त ही. ऐसी ठूं डी हिा िें दे ह के कस उठिे के साथ चोमलयाूं तक कैसी
कस उठती हैं मक साूं स लेिा भी दू भर हो जाता है . तालाब के पाल की भीगी काली मिटटी िें गोर-
पतले पाूं ि कैसे मफसले पड़ते हैं जै से दही पर चल रहे होूं. पाूं िोूं की अूंगुमलयोूं के बीच से काली
मिटटी कैसे उगी-उगी सी लगती है ि? दे ह िें कहीूं स्पशष हो, एक आयु िें भोग जै सा ही लगता है .
अूंगुमलयोूं की िस्त्रियाूं (मबमछया) काली मिटटी िें से उठती हैं . मिटटी से सिे पैर ऊपर उठाते साड़ी
भले मपूंडमलयोूं तक उठ जाए तो आप चौूंकते िहीूं मक मकसी की ललचायी दृमि पड़ रही होगी और
आप घबरा कर साड़ी िीचे करिे लग जाएूं . कैसा उन्मु क्त है ि सब? कोई मिर्े ध िहीूं, कोई
अिगुूंठि िहीूं. िि के साथ इस ति को भी मजतिा और जै सा चाहो भीगिे दो. िृक्षोूं की भाूं मत
अपिी दे ह को भी भीगिे दे िे की उन्मुक्तता, आिूं द और सुख मकतिा अप्रमति होता है यह मकसी
श्रािणी-सोििार के िि-मिहार के मदि बह बिकर ही अिु भि मकया जा सकता है .

परन्तु, भाद्रपद िें िात्र िृमि ही िहीूं होती बस्त्रि िूसलाधार िृमि होती है . मदिोूं िहीूं बस्त्रि आठ-
आठ-दस मदि तक िे घ छूं टिे का िाि ही िहीूं लेते. मकतिे ही परतोूं और रूं गोूं के िे घ उि मदिोूं
आकाश िें भरे होते हैं मक पता ही िहीूं चलता. कम्बल ओढ़े , िे िमतयोूं से मगरते पािी की अििरत
आिाज सुिते बैठे रहिे के अलािा आप और कुछ कर िहीूं सकते. सूयोदय और सूयाष स्त का प्रश्न ही
िहीूं. सूयष के दशष ि करके उपिास तोड़िे िाली स्त्रियोूं को दो-दो, तीि-तीि मदि से ज्यादा भू खा रह
जािा पड़ता है . पेड़ोूं की फुिमगयोूं तक झुक आए िे घ कैसे िाचली भाि से बरसते ही चले जाते हैं
जै से ििागता भाभी के साििे दे िर िाचाल हो जाते हैं . श्रािण िें जो िदी-िाले चलिे लगे थे िे
भाद्रपद िें कैसे अिु भि-सम्पन्न स्त्रियोूं की भाूं मत स्त्रखलस्त्रखलाकर दौड़िे लगते हैं . िालिे का सारा भीगा
पठार इि स्त्रखलस्त्रखलाते, दौड़ते-भागते िदी-िालोूं से ऐसा िु खर हो उठता है जैसे िालिी पठार की
पखािज को िदी की अूंगुमलयोूं से भाद्रपद बजा रहा हो. िालिी िदी-िाले िें पूर (बाढ़) आती है
तब भी यहाूं कभी अमतिृमि िहीूं होती. प्रत्येक िू सलाधार िृमि के बाद ऐसा लगता है मक अर्घ्ष -जल
था जो लु ढ़क कर बह गया. इस सलिटी धरती िें ठहरता कुछ िहीूं.

उत्तरी पठार का सारा जल, िालोूं से दु हता हुआ िमदयोूं और िमदयोूं से बड़ी िमदयोूं िें पहुूं च िालिी
पठार और कान्तार लाूं घ कर गूंगा-यिु िा के िै दाि िें पहुूं च जाता है . गाि-गोयरे के िदी-िाले
कालीमसूंध और मक्षप्रा से होते हुए पािषती िें मिलते हैं और पािषती, चम्बल एक दु गषि काूं ठोूं और
मिजष ि जूं गलोूं से होती हुई यिु िा िें मिसमजष त होकर अगत्या तीथष राज प्रयाग िें पहुूं च कर िालिी पठार
की पािषती भी गूंगा बि जाती है . िालिे का उत्तरी जल जहाूं एक ओर बूंगाल की खाड़ी से जु ड़ा
हुआ है िहाूं दू सरी ओर दमक्षणी जल, ििष दा के िाध्यि से ओूंकारे िर-िहे िर के तापसी काूं ठोूं से
होता हुआ अरब-सागर से जु ड़ा हुआ है . अमधकाूं श पठारी जल ढलूं ग जाता है तब भी िर्ष भर के
मलए तालाब, बािमड़याूं , कुूंड, कुूंए-सब जल भरे रहते हैं . किल और मसूंघारे , ईूंख और पूूंखड़े , गेहूं
और कपास की प्यास बुझाता िालिी पठारी मबल्लोरी जल खे तोूं-खे तोूं बहता रहता है . तभी तो इस
शस्य श्यािला िाटी िाले िालिे के मलए प्रमसद्ध है मक – िालिा धरती गहि-गूंभीर, डग डग रोटी,
पग-पग िीर..

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