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यथा द्यौश्च पृथथवी च न थिभीतो न रिष्यतः। एवा मे प्राण मा थवभेः।।1।।- अथवववेद

अर्थ : जिस प्रकार आकाश एवं पृथ्वी न भयग्रस्त होते हैं और न इनका नाश होता है ,
उसी प्रकार हे मेरे प्राण! तुम भी भयमुक्त रहो।
अर्ाथ त व्यक्तक्त को कभी जकसी भी प्रकार का भय नहीं पालना चाजहए। भय से िहां
शारीररक रोग उत्पन्न होते हैं वहीं मानजसक रोग भी िन्मते हैं । डरे हुए व्यक्तक्त का कभी
जकसी भी प्रकार का जवकास नहीं होता। संयम के सार् जनजभथकता होना िरूरी है । डर
जसर्थ ईश्वर का रखें।

अलसस्य कुतः थवद्या अथवद्यस्य कुतः धनम्। अधनस्य कुतः थमत्रम् अथमत्रस्य कुतः
सुखम्।।
अर्थ : आलसी को जवद्या कहां , अनपढ़ या मूखथ को धन कहां , जनधथन को जमत्र कहां और
अजमत्र को सुख कहां ।

श्लोक : आलस्यं जह मनुष्याणां शरीरस्र्ो महान् ररपु :। नास्त्युद्यमसमो बन्ुुः कृत्वा यं


नावसीदजत।।
अर्ाथ त् : मनुष्यों के शरीर में रहने वाला आलस्य ही (उनका) सबसे बड़ा शत्रु होता है ।
पररश्रम िैसा दू सरा (हमारा) कोई अन्य जमत्र नहीं होता, क्ोंजक पररश्रम करने वाला कभी
दु खी नहीं होता।

सहसा थवदधीत न थियामथववेकः पिमापदाां पदम्। वृणते थह थवमृश्यकारिणां गुणलुब्ाः


स्वयमेव सांपदः।।
अर्थ : अचानक (आवेश में आकर जबना सोचे -समझे ) कोई कायथ नहीं करना चाजहए,
कयोंजक जववेकशून्यता सबसे बड़ी जवपजियों का घर होती है । (इसके जवपरीत) िो व्यक्तक्त
सोच-समझकर कायथ करता है , गुणों से आकृष्ट होने वाली मां लक्ष्मी स्वयं ही उसका चुनाव
कर लेती है ।

शिीिमाद्यां खलु धमवसाधनम्।। -उपथनषद्


अथव : शिीि ही सभी धमों (कतवव्ोां) को पूिा किने का साधन है।
अर्ाथ त : शरीर को सेहतमंद बनाए रखना िरूरी है । इसी के होने से सभी का होना है
अत: शरीर की रक्षा और उसे जनरोगी रखना मनुष्य का सवथप्रर्म कतथव्य है । पहला सुख
जनरोगी काया।
ब्रह्मचयेण तपसा दे वा मृत्युमपाघ्नत। (सामवेद 11.5.19)
अथव : ब्रह्मचयव के तप से दे वोां ने मृत्यु पि थवजय प्राप्त की।
अर्ाथ त : मानजसक और शारीररक शक्तक्त का सं चय करके रखना िरूरी है । इस शक्तक्त के
बल पर ही मनुष्य मृत्यु पर जविय प्राप्त कर सकता है । शक्तक्तजहन मनुष्य तो जकसी भी
कारण से मुत्यु को प्राप्त कर िाता है । ब्रह्मचयथ का अर्थ और इसके महत्व को समझना
िरूरी है ।

येषाां न थवद्या न तपो न दानां, ज्ञानां न शीलां न गुणो न धमवः । ते मृत्युलोके भुथव
भािभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चिन्ति।।
अथव : थजसके पास थवद्या, तप, ज्ञान, शील, गुण औि धमव में से कुछ नही ां वह मनुष्य
ऐसा जीवन व्तीत किते हैं जैसे एक मृग।
अर्ाथ त : जिस मनुष्य ने जकसी भी प्रकार से जवद्या अध्ययन नहीं जकया, न ही उसने व्रत
और तप जकया, र्ोड़ा बहुत अन्न-वस्त्र-धन या जवद्या दान नहीं जदया, न उसमें जकसी भी
प्राकार का ज्ञान है , न शील है , न गुण है और न धमथ है । ऐसे मनुष्य इस धरती पर भार
होते हैं । मनुष्य रूप में होते हुए भी पशु के समान िीवन व्यतीत करते हैं ।

* अजत सवथत्र विथयेत्। अर्ाथ त : अजधकता सभी िगह बुरी होती है ।


* कालाय तस्मै नमुः।। *कालेन समौषधम्।। समय सबसे बेहतर मरहम लगाने वाला है ।
*िननी िन्मभूजमश्च स्वगाथदजप गरीयसी।। अर्ाथ त: िहां आपने िन्म जलया है वह स्वगथ से भी
बड़ी भूजम है । उसके प्रजत वर्ादारी िरूरी है ।
*दु लथभं भारते िन्म मानुष्यं तत्र दु लथभम्।। अर्ाथ त मनुष्यों के जलए भारत में िन्म लेना सबसे
दु लथभ है । भाग्यशाली है जिन्ोंने भारत में िन्म जलया।
*नाक्तस्त सत्यसमो धमथुः।।
अर्ाथ त: सत्य के बराबर कोई दू सरा धमथ नहीं।

*बुक्तधुः कमाथ नुसाररणी।। अर्ाथ त बुक्तध कमथ का अनुसरण करती है ।


*बुक्तधयथस्य बलं तस्य।।
बुक्तध तलवार से अजधक शक्तक्तशाली है ।
* जपतृदेवो भव।।
*आचायथदेवो भव।।
*अजतजर्दे वो भव।।
*मूढुः परप्रत्यनेयबुक्तधुः।।
*जवनाशकाले जवपरीतबुक्तध।।

सां गच्छध्वम् सां वदध्वम्।। (ऋग्वे द 10.181.2)


अथावत: साथ चलें थमलकि िोलें। उसी सनातन मागव का अनुसिण किो थजस पि
पूववज चले हैं।
ॐ भूभुववः स्वः तत्सथवतुवविेण्यां भगो दे वस्य धीमथह थधयो यो नः प्रचोदयात्।। -ऋग्वेद
अथव : उस प्राणस्वरूप, दु ुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेिस्वी, पापनाशक, दे वस्वरूप परमात्मा
को हम अंत:करण में धारण करें । वह परमात्मा हमारी बुक्तध को सन्मागथ में प्रेररत करे ।
इस मंत्र या ऋग्वे द के पहले वाक् का जनरं तर ध्यान करते रहने से व्यक्तक्त की बुक्तध में
क्ां जतकारी पररवतथन आ िाता है । उसका िीवन अचानक ही बदलना शु रू हो िाता है ।
यजद व्यक्तक्त जकसी भी प्रकार से शराब, मां स और क्ोध आजद बुरे कमों का प्रयोग करता है
तो उतनी ही तेिी से उसका पतन भी हो िाता है । यह पजवत्र और चमत्काररक श्लोक है ।
इसका ध्यान करने से पूवथ जनयम और शतों को समझ लें।

उथिष्ठत जाग्रत प्राप्य विाथििोधत।।


क्षुिस्य धािा थनथशता दु ित्यया दु गं पथस्तत्कवयो वदन्ति।।14।। -कठोपथनषद् (कृष्ण
यजुवेद)
अर्थ : (हे मनुष्यों) उठो, िागो (सचेत हो िाओ)। श्रेष्ठ (ज्ञानी) पुरुषों को प्राप्त (उनके
पास िा) करके ज्ञान प्राप्त करो। जत्रकालदशी (ज्ञानी पुरुष) उस पर् (तत्वज्ञान के मागथ)
को छु रे की तीक्ष्ण (लां घने में कजठन) धारा के (के सदृश) दु गथम (घोर कजठन) कहते हैं ।

थवद्या थमत्रां प्रवासेषु भायाव थमत्रां गृहेषु च।


रुग्णस्य चौषधां थमत्रां धमो थमत्रां मृतस्य च।।
अर्ाथ त : प्रवास की जमत्र जवद्या, घर की जमत्र पत्नी, मरीिों की जमत्र औषजध और मृत्योपरां त
जमत्र धमथ ही होता है ।

ॐ असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योथतगवमय। मृत्योमावमृतां गमय।।


अर्ाथ त : हे ईश्वर (हमको) असत्य से सत्य की ओर ले चलो। अंधकार से प्रकाश की
ओर ले चलो। मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।
उक्त प्रार्थना करते रहने से व्यक्तक्त के िीवन से अंधकार जमट िाता है । अर्ाथ त नकारात्मक
जवचार हटकर सकारात्मक जवचारों का िन्म होता है ।

ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीयं किवावहै। तेजन्तस्वनावधीतमस्तु मा


थवथिषावहै।।19।। (कठोपथनषद -कृष्ण यजुवेद)
अर्ाथ त : परमेश्वर हम जशष्य और आचायथ दोनों की सार्-सार् रक्षा करें , हम दोनों को
सार्-सार् जवद्या के र्ल का भोग कराए, हम दोनों एकसार् जमलकर जवद्या प्राक्तप्त का
सामर्थ्थ प्राप्त करें , हम दोनों का पढ़ा हुआ तेिस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वे ष न करें ।

उक्त तरह की भावना रखने वाले का मन जनमथल रहता है । जनमथल मन से जनमथल भजवष्य
का उदय होता है ।

मा भ्राता भ्रातिां थिक्षन्, मा स्वसािमुत स्वसा। सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचां वदत
भद्रया।।2।। (अथवववेद 3.30.3)
अर्ाथ त : भाई, भाई से द्वे ष न करें , बहन, बहन से द्वे ष न करें , समान गजत से एक-दू सरे का
आदर- सम्मान करते हुए परस्पर जमल-िुलकर कमों को करने वाले होकर अर्वा एकमत
से प्रत्येक कायथ करने वाले होकर भद्रभाव से पररपूणथ होकर संभाषण करें ।

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