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गोपिकाविरहगीतम्
गोपिकाविरहगीतम्
गोपिकापिरहगीतम ्
||अपने आराध्य के चरणों में ||
योगगराज श्री कृष्ण जी ने ऊधो को इसी प्रेम-भक्तत को जानने हे तु गोपपयों के पास भेजा था!
यह प्रेम-भक्ततरस से पररपणण गन्ृ थ आप सभी के समक्ष प्रस्तुत करते हुए, मैं श्री गुरुमायी जी के चरण-
कमलों में एक श्रद्धासुमन अपपणत कर रहा हाँ, ऐसा संकल्प धारण करते हुए श्री गुरुमायी जी के श्री कमलों
की ओर एक और सोपान है , अस्तु।
गोपपकापवरहगीतम-कृष्णदासी सत
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पिषय सूचि
गोपपकापवरहगीतम-कृष्णदासी सत
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गोपिकापिरहगीतम ् -१
संसार की सभी िस्तुओं से रागके हट जाने से द्िेष भी स्ितः ही हट जायेगा!!
हे पप्रय!! सनातन काल से प्रमशद्ध ककन्तु कदागचत आपने इस मधरु तम ् रस सभर गीत को शायद न सुना
हो! इस मधरु गीत का भावानुवाद आज से कई वषों पवण मैं कर चक
ु ी हाँ, पन
ु श्च आजसे इसका संशोगधत
संस्करण मैं मेरे पप्रयतमजी" के श्रीचरणों में अपनी मोहहत बद्
ु गध से श्रीगोपिकापिरहगीतम ्" के प्रथम श्लोक
की पववेचना प्रस्तुत कर रही हं --
हे माधि मधम
ु थन िरे ण्य केशि करूणाससन्धो।।
पप्रय!! जो पवयोग, वेदना, अत्याचार, अपमान, भतणस्ना, पररत्यागआहद-आहद सभी कुछ सुख पवणक सहन
कर सकते हैं वे ही इस गोपपकापवरहगीतम ् के भाव को समझने के पात्र हो सकते हैं!!अनायास छण मात्र में
उन गोपपयों का पररत्याग कर जब मेरे हिदयेश्वरजी चले जाते हैं!! अपने प्राण-प्यारे के मथरु ा चले जाने के
बाद वन्ृ दावन में मेरे हिदयेश्वर को वन, उपवन, नदी के तट पर बावरी हो कर ढं ढती किर रही हैं उनके
साथकी हुयी किड़ाओं की मधरु स्मनृ त-जन्य पवरह में गोपपयां िंदन करती हुई कहती हैं कक हे मुरारर!! आप
तो बंशीधर है !! मुरलीधर हैं, मेरे स्वामीजी! हम ही तो आपकी मुरमलयां हैं! हम तो बंशी थीं आपकी आपकी
ही धन
ु पर आपके मद
ृ ल
ु हास्य पर नतणन करने वाली आपकी चेररयााँ!!
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इसी काँु ञ्ज में तो आप मेरे साथ पवहार करते थे, यहीं तो आपने मेरे, हम सबके प्रणय ननवेदन को स्वीकार
ककया था, अपनी बना मलया था!! ये आपही जानते हैं कक एक आपके अलावा हमारा त्रत्रलोकी में भी अब कोई
बन्धु सखा नही है !! हे नाथ!! माता, पपता, भाई, बंध,ु संतान, पती, पत्नी, ममत्र, तन-मन-धन ये सब कुछ मेरे
क्जतने भी प्रेमास्पद ममता के धागे थे, उन सभी धागों को बाँटकर मैंने-हमने एक सदृ
ु ढ रस्सी बनाकर आपके
चरण-कमलों में बााँध दी है !! तयों कक आपने ही तो कहा था कक--
हे माधव!! हे मधम
ु थन िरे ण्य आपने तो सक्ृ ष्ट के आरं भ में ही सक्ृ ष्ट के शत्रु मध-ु कैटभ को मारा था तो हमसे
भी ऐसी ही प्रीनत की!! कक जब मै आपपर न्योछावर हो गयी तो आप मुझे छोड़कर चले गये, ककतनी मधरु ता
से हमारे मन का मंथन कर हदया आपने! हे छमलया!! आपने पहले तो अपनी अप्रनतम मधरु ता से हमारे तन-
मन को मथ डाला हमारे घत
ृ तो आप ही हो!
गोपपकापवरहगीतम-कृष्णदासी सत
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वश में होगा न!! ककंतु हे केशव!! आप तो करुणाननगध हो करुणा के सागर हो आपको मुझ दीन दखु खयारी
पवरहहणी पर करुणा तयों नहीं आ रही है मेरे हिदयेश्वर!!! हे पप्रय!! इसी के साथ इस पद्यांश का भावानुवाद
पणण करती हाँ, और शेष अगले अंक में लेकर उपक्स्थत होती हाँ! आिकी सखी सुतिा!!
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गोपिकापिरहगीतम ् -२
ये तो प्रेमके प्याले हैं आि जजतने भी िीयेंगे प्यास और भी बढत जायेगी!!
हे पप्रय!! आज पुनः श्रीगोपिकापिरहगीतम ् के संशोगधत संस्करण मैं मेरे पप्रयतमजी" के श्रीचरणों में अपनी
मोहहत बुद्गध से इसके द्पवतीय श्लोक की पववेचना प्रस्तुत कर रही हं --
मेरे पप्रयतम!! दे खो न! आपके इस वन्ृ दावन में , इस काँु ञ्ज में !! सैकणों भौंरे भम
ृ र-गीत गाकर आपको
ननमन्त्रण दे रहे हैं!! हे मधस
ु दन!! हमारा गचि काम से ब्याकुल हो रहा है मदन हमारे गचि को मथ रहा है-
मैं यहां यह स्पष्टीकरण दे ना अत्यावश्यक समझती हं कक मदन एिं काम शब्द यहां पवशेषाथी हैं। मेरे
कृष्णा तो कामारर हैं- वे तो मयर-पपच्छ धारी हैं!! मदनमोहन है - नारर न मोहैं नारी के रूिा इसी
कथानुसार श्रीकृष्ण के मनमोहन स्वरूप के प्रनत महारास मे मशवाहद सभी दे वागधदे व अपने पुरुषत्व का
पररत्याग कर गोपी बनकर जस्त्रत्ि को स्वीकार कर ननकंु ज की शरण मे आये थे!!
ब्रम्हिाहदनो मुक्ताश्ि लीलया पिग्रहं कृत्िा नमजन्त। ये प्रेम का रस इतना मधरु होता है कक जीवन-
मुतत भी साक्षात ्-शरीर धारण करने को पववश हो जाते हैं!! मुमूक्षिो मक्
ु ताश्ि पिग्रहं कृत्िा भजजन्त।।
मदन का एक अथत मद-न भी तो है न! हे पप्रय!! मद अहं कार को कहते हैं!! और आपके समपणण की
प्रथम शतण है आपका मद-हीन होना!! जैसे कक स्त्रीत्व की सिलता मदहीनता में ही संभव हो सकती है !!
गोपपयााँ कहती हैं कक-ये जो हमने अपने अहं कार को छोड़ हदया!! अब यही हमारे पवरह का कारण बन चक
ु ा
है !!
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हे पप्रय!! अब तो बस हम आपसे याचना ही कर सकती हैँ त्िासमह-यािै! और काम तो पवरहाकुला का
आभषण है ! तयों कक प्रेम तो प्रेम के मलये ही ककया जाता है , और किर इसकी साधना में न कभी पवराम होता
है और न ही पवश्राम!! ब्यये कृते िधतते!! ननत्य ही उत्साह िेदना और पिरहाजनन बढती ही जाती है ! संत
कबीर बीजक•१२•२•में कहते भी हैं कक-
माँद
ू े नयन काहट कमत कल्मख संतत िअ
ु त अगारी||
ये तो प्रेम के प्याले हैं, आप क्जतने भी पीयेंगे! प्यास और भी बढती जायेगी!! ये जीभ्ह्या का पवषय नहीं है
पप्रय! यह ईक्न्ियों का पवषय तो है ही नहीं! अरी!! जब लोक-परलोक को अपणण करदे ने की क्जन्होंने ठान ली!!
वे गोपपयााँ ही तो प्रेम का दशणन कर पायेंगी!!
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गोपिकापिरहगीतम ् -३
हमारी ननश्छल भजक्त के सघन िन में िन्ृ दािन में रमण करने िाले हमारे पिया जी!
हे पप्रय!! आज पुनः श्रीगोपिकापिरहगीतम ् के संशोगधत संस्करण को मैं मेरे पप्रयतमजी" के श्रीचरणों में
अपनी मोहहत बुद्गध से इसके तत
ृ ीय श्लोक की पववेचना प्रस्तुत कर रही हं --
मेरे पप्रयतम ् जी!! नतन कमल!! के समान आप पर तो हम कीचण जैसी मलीन बद्
ु गध की गोपपयों का
बौद्गधक -जल छ भी नहीं पाता!! आप तो हम गोपपकाओं के इस हिदय-सरोवर के एकमात्र नीलकमल हो!!
पर हम भी तो आपकी ही मरु झायी हुयी कमलयां हैं!!
हे पप्रय!! आपने ही गीताजी•३•४३•में कहा है कक- जहह शत्रूं महाबाहो कामरूिं दरु ासदम ्।।
उत्तमः िरू
ु षष्तत्िन्यः िरमात्मने तद
ु ाह्यतः।।
सम्पणण समपणण ही उनसे ममलन का हे तु बन सकता है पप्रय!! इससे कम वे लेंगे नहीं, और इससे ज्यादा कुछ
हो सकता ही नहीं। और एक रहस्यमयी सच्चाई ये भी है कक वे मुझसे मुझे ही मााँग कर पनश्च मुझको अधरे
मैं से सम्पण मैं बना दे ते हैं!! मझ
ु े समची की समची लौटा दे ते हैं!! तभी तो मैं कभी-कभी गन
ु गन
ु ाती हाँ कक-
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मुझको मुझी से िरु ा लो हदल में मुझे तुम बसा लो खो ना जाऊाँ किर कहीं मैं िास आओ गले
से लगा लो!! और हे पप्रय इसीकारण सत्यभामा, जाम्बवन्ती, रुक्तमणी आहद•१६१०८•पररखणता स्त्रीयााँ
पीछे रहे गयीं और अिररणणता-राधा आगे आ गयीं!
हे पप्रय! कुमूहदनी कली ही कमल बना करती हैं!! क्जनका उल्लेख शास्त्रों में है !! जो इस पद की शास्त्रीय
अथवा सामाक्जक रूप से दावेदार थीं। सब की सब धीरे -धीरे भागवत ् के पन्नों में खोती चली गयीं और एक
रहस्य की बात आपको बता दाँ कक क्जस शक्ससयत का नाम भागवत ् महाभारत आहद गंथों में है ही नहीं वे
राधा सबसे आगे मेरे पप्रयजी के भी आगे राधा कृष्तण बन गयीं!! हे पप्रय!! सत्यभामाहद से मेरे पपयाजी ने
पववाह ककया था, एक संस्थागत पववाह बनकर रह गये वे ररश्ते। ककंतु राधा से, गोपियों से, मीरा-बाई से;
और मुझसे भी उनका संबंध प्यार का था, है और रहेगा भी!! शास्त्रों, स्मनृ तयों, सभ्हयताओं, समाजों अथवा
या किर अदालतो से क्जनके मलए हक ममल सकते थे!!
हे पप्रय!! जो कृष्ण से अपना हहस्सा मांग सकती थीं, वे कात्यायनी की तरह खो गयीं, और राधा, गोपियााँ
धीरे -धीरे प्रगाढ़ होती चली गयीं और आज वह समय आ भी गया है कक रुक्तमणी भलती जा रही हैं! और मेरे
पप्रयतम जी के साथ राधा का नाम; गोपीयों का नाम ही रह गया। तभी तो वे कहती हैं कक-हे नीलमेघ की
तरह आभा वाले घनश्यामजी!! आप तो ऐसे प्रकाशपुञ्ज! हैं, मानों कक चन्िमा ही एक पुष्प की तरह हमारे
अन्धकार मय हिदय-सरोवर में खखल उठा हो!! हे हम गोपपकाओं के हिदयेश!! आपने तो हमारी रक्षा के मलये
परे गोवधणन पवणत को भी उठा मलया था!!
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गोपिकापिरहगीतम ् -४
राधा कृष्तण एक ित्त
ृ हैं एकही रस्सीके दो छोर हैं!
हे पप्रय!! आज पुनः श्रीगोपिकापिरहगीतम ् के संशोगधत संस्करण मैं मेरे पप्रयतमजी" के श्रीचरणों में अपनी
मोहहत बुद्गध से इसके चतथ
ु ण अथाणत ् अंनतम श्लोक का भावानुवाद प्रस्तुत कर रही हाँ--
हे "राधारं ञ्जन"!!! एक आप ही तो हैं क्जनके मधरु स्नेह से रागधका जी के िदय को आनंद प्राक्प्त होती है
"अत्यन्त महत्वपणण एवं आ्लादकारी” भावना है यह! आप सोचें तो एकबार!! सांसाररक सम्बन्धों में कोई
भी स्त्री या पुरुष अपने जीवनसाथी का ककसी अन्य से ररश्ते को एक छण भी सहन नहीं कर सकता पर इन
गोपपयों का महाभाव!! कक उन्होने रागधका जी को महारानी बनाया और स्वयं को उनकी दामसयां मानती हैं
यह अहै तुकी ननःस्वाथण प्रेमकी पराकाष्ठा है !!
और हे पप्रय!! इसका कारण है की राधा ने सब कुछ छोड़ हदया मेरे कृष्ण के मलए, कृष्तण-राधा कहते आपने
कभी और ककसी को भी सुना नहीं होगा!! राधाकृष्तण, सीता-राम ही सभी कहते हैं, अतः जो सब कुछ समपणण
कर दे ती हैं, वह सब पा लेती है । जो त्रबलकुल नेपथ्य में खो जाती हैं, जो सीता की तरह सहषण अक्नन-पथ से
गुजर जाती हैं!! जीपवत ही भमम में समा जाती हैं-वे त्रबलकुल आगे हो जाती हैं। गोपपयााँ कहती हैं कक हे नाथ!!
आप क्जस मलये मथरु ा गये थे, वह काम तो हो गया- कंसननषदन!! कंस का वध तो आप कर ही चक
ु े !! अब तो
आप आ ही जाओ, हम गोपपयों का िदय आपके श्री चरणों में प्रणय- ननवेदन करता है !! हे प्यारे !! परे
ब्र्माण्ड में आपके अलावा हमारा कोई सहारा नही हैं, हम आपकी दामसयां ननराश्रया हैं!!
हे पप्रय!! राधा, गोपपयों के त्रबना कृष्ण के अक्स्तत्व की कल्पना भी आप नहीं कर सकते!! ये गोपपयााँ-
रागधका ही उनकी सारी कमनीयता हैं। ये ही मेरे पप्रयतम जी की- अजस्तत्त्िानुभूनत
अकारणकरूणािरूणालया का अलौककक भाि है , यह सब जो है , जो “महत्वपणण है , वही तो गोपपयााँ, मीरा
अथवा रागधकाभाव हैं।
गोपपकापवरहगीतम-कृष्णदासी सत
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हे पप्रय!! मैं उनके गीत, उनके नत्ृ य की घघ
ुं रू, उनकी मरु ली, पप्रया, गचतवन आहद-आहद जो कुछ भी राधा
उनके भीतर जस्त्रत्ि है वह सब मैं ही हाँ। अतः भैं और वे एक हो गए, राधाकृष्तण हो गए। तयों कक राधाकृष्ण
होते ही जीवन के दोनों पवपरीत ध्रव
ु ममल गए-अतः मैं तो कहती हं कक यह भी मेरे कृष्णजी की पणणताओं की
एक पणणता है ।
हे पप्रय!! राधा-कृष्ण एक वि
ृ हैं एक ही रस्सी के दो छोर हैं!! आप अधरा नहीं समझ सकते कृष्ण को, अलग
सोचकर वे ररतत और भयानक हो जाते हैं। महाकाल हो जाते हैं, सब रं ग खो जाते हैं!! सक्ृ ष्ट नष्ट हो जाती
है !! हे पप्रय!! मेरे कृष्ण का सारा व्यक्ततत्व प्रकामशत है राधा की ऐषणा पर। चारों तरि से रागधका भाव उन्हें
अपने आगोश में समेट कर उन्हें - मधरु ाचधिते रऽणखलम्मधरु म ् बनाता है !! वह इसी में खखल उठते हैं। मेरे
पप्रयजी नीलकमल हैं!! राधा उनकी जड़ हैं। वे एक हैं। आप उनको अलग नहीं कर सकते। यही तो युगल-
सरकार है ।
हे पप्रय!! जैसे आप रात के तारों की कल्पना नहीं कर सकते अंधकार के त्रबना, अमावस में तारे बहुत ही
उज्जवल होकर हदखाई पड़ने लगते हैं, बहुत शुभ्र हो जाते हैं, हदन में भी तारे होते हैं–परा आकाश तारों से भरा
पड़ा है अभी भी, ककंतु सरज की ककरणों में तारे हदखाई नहीं पड़ सकते। हे पप्रय!! तभी तो गोपपयााँ कहती हैं
कक-हे जनादण न!! जब आप थे-पवन के साथ लहे राता हुवा आपका पीत पीताम्बर हम अनागथननयों के सर का
आश्रय बनजाता था, हम सनाथ थीं!! हे नाथ!! हे पीताम्बर धर!! अभी भी मन्थर गनत से पवन तो इस वन
में चल रहा है पर हम अनागथकाओं को सनाथ करने वाला वह पीताम्बर ही नहीं है !! पितर िीर स्तेऽधरामत
ृ ं
अब तो आप हमें अपने अ-धरामत
ृ ् का पान करा ही दो पप्रयतमजी!
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