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भैरवी चक्र साधना.

यह केवल भैरवी चक्र का ही सत्य नहीीं है । सभी प्रकार की ससद्धि-साधनाओीं में पूजन की प्रसक्रया को
जसिल से जसिलतम बनाया गया है । पर जब साधना की बात आती है , तो वातावरण, मुद्राओीं, शरीर के
चक्रोीं पर ध्यान लगाकर मींत्र जप करना ही सववत्र है । चाहे श्मसान में साधना करनी हो या घर में इसकी
वास्तसवक वैज्ञासनक प्रसक्रया यही है ; शेष सभी तामझाम है ; जो केवल सींकल्प को और साधक की धैयव
सीमा को परसने के सलए सलए है । कारण यह है सक यहााँ भी सभी मागव के प्रससि आचायों ने मानससक
पूजा का ही महत्तव सिया है । मानससक पूजा के सबना बाह्यपूजा का कोई अर्व नहीीं है ।
अतः शीघ्र और सरल रूप में इन साधानाओ से लाभ उठाने के सलए चक्र में की गयी भैरवी और घि का
पूजन पयाव प्त है । यहााँ भी सवसध प्रसक्रया का महत्त्व नहीीं है ।
मानससक रूप से अपने भाव में भैरवी को िे वी मानकर उसके चरणोीं, मस्तक पर फूल चढ़ाना(मींत्र ईष्ट
िे वी का ); उसके ऊपर सिल, जौ, िू ब, फूल, चावल जो मसिरा या गींगोि (सींस्कार के अनुरूप) से ससक्त
हो, 1188 मन्त्ोीं से पूजा करना और सिा वही भाव बनाये रखना( पूजा केवल कृष्ण पक्ष चतुिवशी को की
जाती है । कुछ शुल्क पक्ष की चतुिवशी में भी कराते हैं । इसमें कोई व्यवधान आने पर नवमी प्रशस्त है )
पयाव प्त है । शेष सभी चक्रोीं, मुद्राओीं, आसनोीं एवीं मानससक सक्रयाएीं है ।
साधना का काल काल रासत्र (नौ से डे ढ़ बजे ) तक माना जाता है । समस्त सक्रयाएीं केवल इसी काल में
होती है ।
भैरवी चक्र की साधनाओीं का प्रारीं सभक चरण भी यद्यसप गोपनीय क्षेत्र से सम्बींसधत है ; क्ोींसक प्राचीन काल
में गुरु साधारण जानकारी भी सबना िीक्षा और सबना गुरु सेवा के नहीीं सकया करते र्े। परन्तु , मेरा सवचार
है सक इन प्रारद्धिक क्षेत्र को गोपनीयता के िायरे से मुक्त करके लोगोीं तक पहाँ चाना चासहए; क्ोींसक यह
16 वषव से ऊपर के हर स्त्री-पुरुष के गृहस्र् जीवन एवीं मानससक सींसार को सुखमय बनाने वाला है ।
जनसहत में इसका साववजसनक रूप से जानना ही उसचत है । हम एक बारगी सभी कुछ नहीीं बता सकते;
इससलए क्रम में इसके बारें में बता रहे है ।
मूलाधार और सहस्त्रार की उपयोसगता एवीं सशद्धक्तकरण
शरीर चाहे सकसी का हो; भैरवी चक्र में ही होता है और उनमें समस्त ऊजाव -सींरचनाएीं एक ही प्रकार की
होती है । यह मनुष्य ही नहीीं , प्रत्येक प्राकृसतक इकाई का सत्य है ।
स्त्री हो या पुरुष – उनका मूलाधार और सहस्त्रार उनके शरीर, जीवन, आयु , आध्याद्धिक भौसतक
सवकास, िाम्पत्य जीवन , शारीररक – मानससक सुख के सलए परम आवश्यक होता है ।
सहस्त्रार चक्र ससर के चन्द्रमा से सवकससत होता है और इसको सशक्त करने के सलए इस चााँ ि से
सम्बींसधत ही समस्त सक्रयाएीं की जाती है । यह शरीर का + पोल है । यहााँ से हमें ईींधन भी समलता है और
जीवन सार भी।
मूलाधार चक्र कमर –हड्डी के जोड़ के मध्य सबींिु पर होता है । यह हमारे शरीर का नेगेसिव प्वाइीं िें है ,
जहााँ से धाराएीं पृथ्वी की ओर जाती है और जानवरोीं एवीं वृक्षोीं में लम्बी पूाँछ सवकससत होती है ।
मूलाधार साधना:-
सभी प्रकार की तींत्र साधनाओीं में मूलाधार पर ही सबसे पहला काम सकया जाता है । यहााँ श्याम सशवसलींग
है (भैरवी चक्र का ही एक रूप);सजसके शीषव में महाकाली का वास माना जाता है । यहाीं से श्यामल लाल
रीं ग की तरीं गें सनकलती है ; जो खून, माीं स, मज्जा, हड्डी, बाल, नस, चबी, आसि की उत्पसत्त करती है । सच
पूसछए तो यही तरीं ग मुख्य आधार शद्धक्त है ।
साधना से पहले:-
साधक- सासधका को बीमार रोगग्रस्त नहीीं होना चासहए। यसि ऐसा है , तो पहले रोग की सचसकत्सा करें ।
उसे कब्ज नहीीं होना चासहए। स्त्री को सलकोररया नहीीं होना चासहए और पुरुष को अन चाहे वीयवपतन की
िशा नहीीं होना चासहए। स्वप्न िोष इन वजवना में नहीीं आता यसि वह महीने में एक – िो बार हो। पर पााँ च
से असधक बार धातु का स्खलन या सलकोररया चाहे श्वेत हो या रक्त प्रिर-रोग है और पहले इसकी
सचसकत्सा पहले करनी चासहए।
शरीर में धातु की कमी ओज और मानससकता को सनबवल कर िे ती है । यह स्त्री-पुरुष िोनोीं में आजकल
असधक पाया जाता है । िू सरी ओर कृसत्रम मैर्ुन साधनोीं का प्रयोग भी आजकल बहत बढ़ गया है ; क्ोींसक
शािी अब असधक उम्र में होती है । इससे योनी और सलींग में सवकृसत उत्पन्न हो जाती है और कामशद्धक्त
उत्पन्न होकर भी उसमें बाहरी और आतींररक िोनोीं बल नहीीं होता। आन्तररक बल को ग्लानी और हीन
भावना नष्ट कर िे ती है ।
शरीर शुद्धि (सामन्य आचरण):-
1. यसि आप स्वस्र् है ; तो मिार, अपामागव, धतूरा, मीरचईया( या समचव जैसा पुधा सड़क सकनारे एवीं परता
मैिानोीं में उगता है । इसमें से तोड़ने से िू ध सनकलता है ) , बच , सफिकरी, हल्दी, वायसवडीं ग मुरिाशींख में
चूणव करके इसके वजन के बराबर मुल्तानी समििी समलाएीं ; सफर इसमें कपूर समलाये – इसे स्नान से पूवव
पानी में पतला पेस्ट बनाकर सारे शरीर में मलकर सुखाएीं , सफर ठन्डे पानी से स्नान करें । यह मलते
समय मन्त् है “ हीं अस्त्राय फि”
2. तलवोीं को साफ़ रखें , ससर पर िोपी या िु पट्टा या आाँ चल रखें।
3. स्नान करते समय ‘हीं अस्त्राय फि’मन्त् का जाप करते हए ससर से पानी डालें और मानससक कल्पना
करें सक वह पानी नहीीं ऊजाव धारा है , जो चमकती लहरोीं की तरह आपके ससर से पैरोीं तक बहती समस्त
सवकार बहाए जा रही है ।
शरीर शुद्धि मींत्रासभषेक:-
इसे शास्त्रीय भाषा में ‘न्यास’ कहा जाता है । पर इसके शास्त्रीय रूप में न पड़कर पूवव उया उत्तर
याईशान की ओर मुख करके सुखासन या पिमासन में बैठे और ससर के चााँ ि, खोपड़ी, बनपसट्टयोीं ,
कानोीं, गालोीं, ठु ड्डी, ओठो, िाीं तोीं , जीभ, कींठ, गिव न का पृ ष्ठ , िोनोीं बाहोीं , िोनोीं हार्ो, हर्ेसलयोीं ऊींगसलयोीं,
िोनोीं पीठ, कमर, रीढ़ की हड्डी, मूलाधार का प्लेि और कमर की हड्डी , छाती , स्तन, ह्रिय मध्य, कमर
की बगल, पेि , नासभ, पेडू , कुल्ोीं, सनतम्बोीं, जींघाओीं , घुिनोीं , िाीं गोीं सपींडसलयोीं, पैरो , तलवोीं, ऊींगसलयोीं –
में ससर से प्रारीं भ करके यह मन्त् पढ़ते हए ‘ ओअअअअ ह्रीीं क्ीीं क्ीीं क्ीीं कामेश्वरी फि स्वाहा’ हार्ो से
स्पशव करें । इस समय आपको कल्पना करनी होगी सक एक रूप गुण समता तेज और प्रेम से भरी
ज्यासतमवय िे वी , सभी जगह अपनी ज्योसत स्र्ासपत कर रही है । द्धस्त्रयोीं को इस समय पुरुष रूप कामेश्वर
या श्री कृष्ण का ध्यान लगाना चासहए।
यह सक्रया तीन बार करनी चासहए। इसमें सचल्लू में जल का भी प्रयोग सकया जा सकता है ।
नोि:मींत्रासभषेक एक ही बार करना है ।
स्र्ान शुद्धि:-
कोई ऐसा स्र्ान चुसनए , जहााँ प्राकृसतक धूप-हवा आती हो और रात में एकाीं त हो।कोई शोर-शराबा
सबहन न हो। एयर कींसडशन्ड रूम भी उपयुक्त होता है , पर यहााँ सीलन नहीीं होनी चासहए।शुद्धि का
तरीका वही है , जो पूजा गृह के सलए होता है । साफ़ करके धूप-िीप जलाएीं ; पर धूप प्राकृसतक ले या
बनाएीं ।
प्रयोग-सवसध:-
1. पहला अभ्यास
अपने िोनोीं पैरोीं को पीछे मोड़कर एसड़योीं पर बैठे। हार्ोीं को घुिनोीं पर रखें। मूलाधार मध्य को सींकुसचत
(ससकोड़ते ) करते हए छाती को ताने और गहरी सााँ स लेते हए कुिकरे यक करें ।( साीं स गहरी द्धखींचकर
रोकें , सफर छोड़े ) असधक िे र तक श्वााँ स न रोके। बस कुछ क्षण रोकें। ऐसा 21 बार करें । इस मुद्रा का
अभ्यास कुछ सिन (9 सिन) करें और इस समय सींकुसचत मूलाधार प्ले ि के मध्य से ऊपर उठती
ऊजाव बल को मानससक शद्धक्त से ऊपर खीींचने का अभ्यास करें । इस मुद्रा में आज्ञाचक्र पर मिार एवीं
हल्दी का सतलक लगाना मानससक शद्धक्त को बल िे ता है । सहीं गुल (ससींगरफ लाल) पीसकर महीन चूणव
शहि के सार् लगाना भी बल िे ता है ।
भैरवी (चाहे वह पत्नी हो या अन्य) की भी शुद्धि उपयुवक्त प्रकार से कराकर इस मुद्रा का अभ्यास करायें।
भैरवी के आज्ञा चक्र पर सतलक लगायें। शास्त्रीय स्तर पर िोनोीं का शुद्धि करण गुरु करता है और मुद्रा
का ज्ञान िे कर उसे सही द्धस्र्सत में गुरु ही लाता है ; पर क्ा सकया जाए इस आधुसनक युग में गुरु की
िसक्षणा या समय की कीमत िे ने में लालच-लोभ सामने आ जाता है ।
िू सरा चरण:-
भैरवी के सार् इसी मुद्रा में आमने -सामने ऐसे बैठें सक िोनोीं के नग्न घुिने सैि जाएाँ । भैरवी के वस्त्र-श्रृींगार
कामोत्तेजक होने चासहए। िोनोीं अपना िोनोीं हार् एक-िू सरे के कींधो पर रखकर नजरें समलाकर
‘ओअअअअअम क्ीीं क्ीीं क्ीीं फि स्वाहा’ का मानससक या वासचक जप करें । इस समय िोनोीं को
काम भाव का ध्यान करना चासहए। ‘क्ीीं’ काम बीज ही है । 9-9 सिन के क्रम में एक-एक मुद्रा का
अभ्यास न्यूनतम अपेसक्षत है ।
इसमें पहले हार् कन्ोीं पर – एक मुद्रा
हार् कमर पर – िू सरी मुद्रा
हार् जींघोीं पर – तीसरी मुद्रा
हार् बगलोीं में – चौर्ी मुद्रा
हार् स्तनोीं पर – पाीं चवी मुद्रा
(मन्त् जप सभी में होींगे।मूलाधार सींकोचन एवीं ऊपर की ओर मानससक बल सभी में लगेंगे)
तीसरा चरण:-
छठी मुद्रा – जींघाओीं पैरोीं को सामने समाीं तर फैलाएीं । जींघाओीं पर सामने भैरवी को बैठाएीं और
आसलींगनबि हो कर नेत्रोीं में झााँ कते मींत्र जप करें । इस समय िोनोीं को एक-िू सरे के नेत्रोीं में उतरते
अनन्त व्योम तक जाने का प्रयत्न करना चासहए।
सातवीीं मुद्रा – इसमें आज्ञा चक्र पर सतलक साधना के बाि लगता है । उपयुवक्त मुद्रा में ही भैरवी के
आज्ञाचक्र पर ओठोीं को रख कर चूसने का बल लगायें। 21 मन्त् के बाि भैरवी से वैसा करने के सलए
कहें ।
आठवी ीं मुद्रा – पैरोीं को मोड़कर आगे फैलाएीं । गोि में उसी मुद्रा में भैरवी को बैठाकर बाहोीं की बगल से
हार् डालकर िोनोीं कुचोीं को पकड़े और गिव न कन्ोीं के जोड़ पर होठ रहते चूसने का बल लगाते मन्त्
पढ़े । सफर स्वयीं भैरवी की गोि में इसी मुद्रा में बैठे और उससे वैसा करने के सलए कहें ।
सवशेष:-यहााँ तक शरीर पर एक वस्त्र होता है ।
चौर्ा चरण:-
इसमें िोनोीं नग्न होते है । सातवीीं एवीं आठवी ीं मुद्रा में मन्त् जप सकया जाता है इस प्रकार इसमें भी िो और
िो चार मुद्राएीं हो जाती है । इन तमाम सक्रयाओीं एवीं जप के मध्य मूलाधार सींकोचन एवीं उर्ध्व गमन जारी
रहता है ।
भैरवी चक्र की साधनाओीं का प्रारीं सभक चरण भी यद्यसप गोपनीय क्षेत्र से सम्बींसधत है ; क्ोींसक प्राचीन काल
में गुरु साधारण जानकारी भी सबना िीक्षा और सबना गुरु सेवा के नहीीं सकया करते र्े। परन्तु , मेरा सवचार
है सक इन प्रारद्धिक क्षेत्र को गोपनीयता के िायरे से मुक्त करके लोगोीं तक पहाँ चाना चासहए; क्ोींसक यह
16 वषव से ऊपर के हर स्त्री-पुरुष के गृहस्र् जीवन एवीं मानससक सींसार को सुखमय बनाने वाला है ।
जनसहत में इसका साववजसनक रूप से जानना ही उसचत है । हम एक बारगी सभी कुछ नहीीं बता सकते;
इससलए क्रम में इसके बारें में बता रहे है ।
मूलाधार और सहस्त्रार की उपयोसगता एवीं सशद्धक्तकरण
शरीर चाहे सकसी का हो; भैरवी चक्र में ही होता है और उनमें समस्त ऊजाव – सींरचनाएीं एक ही प्रकार
की होती है । यह मनुष्य ही नहीीं , प्रत्येक प्राकृसतक इकाई का सत्य है ।
स्त्री हो या पुरुष – उनका मूलाधार और सहस्त्रार उनके शरीर, जीवन, आयु , आध्याद्धिक भौसतक
सवकास, िाम्पत्य जीवन , शारीररक – मानससक सुख के सलए परम आवश्यक होता है ।
सहस्त्रार चक्र ससर के चन्द्रमा से सवकससत होता है और इसको सशक्त करने के सलए इस चााँ ि से
सम्बींसधत ही समस्त सक्रयाएीं की जाती है । यह शरीर का + पोल है । यहााँ से हमें ईींधन भी समलता है और
जीवन सार भी।
मूलाधार चक्र कमर –हड्डी के जोड़ के मध्य सबींिु पर होता है । यह हमारे शरीर का नेगेसिव प्वाइीं िें है ,
जहााँ से धाराएीं पृथ्वी की ओर जाती है और जानवरोीं एवीं वृक्षोीं में लम्बी पूाँछ सवकससत होती है ।

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