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ह द क वता Hindi Kavita

ह रवंशराय ब चन Harivansh Rai Bachchan

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1962-1963 Ki Rachnayen Harivansh Rai Bachchan

१९६२-१९६३ क रचनाएँ ह रवंशराय ब चन

1. सूर समर करनी कर ह

सवथा ही
यह उ चत है
औ' हमारी काल- स , स
चर-वीर स वनी,

  ा भमानी भू म से
सवदा  या शत यही है
जब हमे कोई चुनौती दे ,
हमे कोई चारे,
तब कड़क
हम ृंग से आ सधु
यह उठ पड़,
ँकारे-
क धरती काँपे,
अ  बर म दखाई द दरार।

श  द ही के
बीच म दन-रात बरसता आ
उनक श से, साम य
  से-
अ र-
अप र चत नह ँ।

कतु, सुन लो,


श  द क भी,
जस तरह संसार म हर एक क ,
कमज़ो रयाँ, मजबू रयाँ ह।
श  द सबल क
सफल तलवार ह तो
श  द नबल क
नपुंसक ढाल भी ह।
साथ ही यह भी समझ लो,
जीभ का जब-जब
भुजा का एवज़ी माना गया है,
कंठ से गाया गया है।

और ऐसा अजदहा जब सामने हो


कान ही जसके ना ह तो
गीत गाना-
हो भले ही वीर रस का तराना-
गरजना, नारा लगाना,
श अपनी ीण करना,
दम घटाना।

ओ हमारे
व - दम दे श के
व ु  ध- ोधातुर
जवान !
कट कटाकर
आज अपने व के-से
दाँत भ चो,
खड़े हो,
आगे बढ़ो,
ऊपर बढ़ो,
बे-कंठ खोले।
बोलना हो तो
तु  हारे हाथ क दो चोट बोल!

2. उघर ह अ त न होइ नबा

अगर  मन
ख चकर तलवार
करता वार
उससे न  य  या शत यही है
चा हए इसके लए तैयार रहना;
य द अप र चत-अजनबी
कर खड् ग ले
आगे खड़ा हो जाए,
अचरज बड़ा होगा,
कम क ठन होगा नह उससे सँभालना;
कत   ु युग-युग मीत अपना,
जो क भाई क हाई दे
दशाएँ हो गुँजाता,
शीलवान जहान भर को हो जानता,
पीठ म सहसा छु रा य द भ कता,
प रताप से, व ोभ से, आ ोश से,
आम
  ा तड़पती,
नी त धुनती शीश
छाती पीट मयादा बलखती,
व  व मानस के लए संभव न होता
इस तरह का पाश वक आघात सहना;
शाप इससे भी बड़ा है श ु का  छ न
  रहना।

यह नह आघात, रावण का उघरना;


राम-रावण क कथा क
आज पुनरावृ त ई है।
हो दशानन क लयुगी,
े ायुगी,

छल-छ ही आधार उसके-
बने भाई या भखारी,
जस कसी भी प म मारीच को ले साथ आए
कई उस म  कार के ह प नया म बनाए।
आज रावण द णापथ नह ,
उत
  र से उ त
 र
हर ले गया है,
नह सीता, क  तु शीता-
शीत हममं डत
शीत हममं डत
शखर क रेख-माला से
सुर त, शांत, नमल घा टय को
   ध करके,

द  ध करके,
उ  ह अपनी दानवी
गु गजना क बज लय से।
और इस सीता-हरण म,
नह केवल एक
समरो म
  ुख सह   लौह-काय जटायु
घायल मरे
अपने शौय-शो णत क कहानी
 वेत हम ग र क
शला पर
अ मट
लखते गए ह।

इस लए फर आज
सूरज-चाँद
पृ  वी, पवन को, आकाश को
साखी बताकर
तुम करो
सं  त
पर गंभीर, ढ़
भी  म- त ा
दे श जन-गण-मन समाए राम!-
अ त आन,
अ त ाण,
अ त काय,
'जो म राम तो कुल स हत कह ह दशानन आय!'

3. गाँधी

एक दन इ तहास पूछेगा
क तुमने ज म
  गाँधी को दया था,

जस समय हसा,
कु टल व ान बल से हो समं वत,
धम, सं क
  ृ त, स य
  ता पर डाल पदा,
व  व के संहार का ष ं रचने म लगी थी,
तुम कहाँ थे? और तुमने  या कया था!

एक दन इ तहास पूछेगा
क तुमने ज म
  गाँधी को दया था,
जस समय अ  याय ने पशु-बल सुरा पी-
उ , उ त, दं भ-उ म
  द-
एक नबल, नरपराध, नरीह को
था कुचल डाला
तुम कहाँ थे? और तुमने  या कया था?

एक दन इ तहास पूछेगा
क तुमने ज म
  गाँधी को दया था,
जस समय अ धकार, शोषण, व
  ाथ
हो नल  ज, हो न:शंक, हो न  
स : जगे, संभले रा   म घुन-से लगे
जजर उसे करते रहे थे,
तुम कहाँ थे? और तुमने  या कया था?

 य क गाँधी य
 थ
य द मलती न हसा को चुनौ ती,
 य क गाँधी य
 थ
य द अ  याय क ही जीत होती,
 य क गाँधी य
 थ

जा त व
  तं होकर
जा त व  तं होकर
य द न अपने पाप धोती!

4. युग-पंक

ध-सी कपूर-चंदन चाँदनी म


भी नहाकर, भीगकर
म नह नमल, नह शीतल
हो सकूँगा,
 य क मेरा तन-बसन
युग-पंक म लथड़ा-सना है
और मेरी आ म   ा युग-ताप से झुलसती ई है;
नह मेरी ही तु  हारी, औ' तु  हारी और सबक ।
व   सबके दाग़-ध  बे से भरे ह,
दे ह सबक क च-काँद म लसी, लपट , लपेट ।

कहाँ ह वे संत
जनके द य  ग
  ावरण को भेद आए दे ख-
सत
क णा सधु के नव नील नीरज लोचन से
 यो त नझर बह रहा है,
बैठकर द  काल
ढ़ व  वास क अ वचल शला पर

  ान करते जा रहे ह
और उनका कलुष-क  मष
पाप-ताप-' भशाप घुलता जा रहा है।

कहाँ ह वे क व
म दर- ग, मधुर-कंठ
और उनक क  पना-संजात
ेय सयाँ, पटारी जा क,
हास म जनके नहाती है जु  हाई,
जो क अपनी ब से घेर
बाड़व के दय का ताप हरत ,
और अपने चम  कारी आँचल से
प छ जीवन-का लमा को
ला लमा म बदलत ,
छलत समय को।
आज उनक मुझे, तुमको,
और सबको है ज रत।
कहाँह वे संत?
वे क व ह कहाँ पर?-
नह उ त
  र।

वायवी सब क  पनाएँ-भावनाएँ
आज युग के स  य से ले ट  कर
गायब ई ह।
कुछ नह उपयोग उनका।
था कभी? संदेह मुझको।
  - वंचना जो कभी संभव थी
क  तु आ म
नह अब रह गई है।
तो फँसा युग-पंक म मानव रहेगा?
तो जला युग-ताप से मानव करेगा?
नह ।
ले कन, न
  ान करना उसे होगा
आँसु से- पर नह असमथ, नबल और कायर,
सबल प  चा के उन आँसु से,
जो कलंको का वगत इ तहास धोते।
  ेद से- पर नह दास के, खरीदे और बेचे,-

खुद बहाए, मृ का जसे क अपना ऋण चुकाए।
र  त से- पर नह अपने या पराए,
उसी पावन र  त से

जनको क ईसा और गाँधी क


जनको क ईसा और गाँधी क
हथेली और छाती ने बहाए।

5. ग  यवरोध

बीतती जब रात,
करवट पवन लेता
गगन क सब ता रकाएँ
मोड़ लेती बाग,
उदयो  मुखी र व क
बाल- करण दौड़
 यो तमान करत
तज पर पूरब दशा का ार,
मुग़ मुंडेर पर चढ़
त मर को ललकारता,
पर वह न मुड़कर दे खता,
धर पाँव सर पर भागता,
फटकार कर पर
जाग दल के दल वहग
क  लोल से भूगोल और खगोल भरते,
जागकर सपने नशा के
चाहते होना दवा-साकार,
युग- ृंगार।

कैसा यह सवेरा!
ख च-सी ली गई बरबस
रात क ही सौर जैसे और आगे-
कुढ़न-कुंठा-सा कुहासा,
पवन का दम घुट रहा-सा,
धुंध का चौफेर घेरा,
सूय पर चढ़कर कसी ने
दाब-जैसा उसे नीचे को दया है,
दये-जैसा धुएँ से वह घरा,
गहरे कुएँ म है वह दप दपाता,

  यं अपनी साँस खाता।

एक घु  घू,
प छमी छाया-छपे बन के
गरे; बखरे पर को ख स
बैठा है बकुल क डाल पर,
गोले ग पर धूप का च  मा लगाकर-
ात का अ त  व अ  वीकार रने के लए
पूरी तरह तैयार होकर।

और, घुघुआना शु उसने कया है-


गु उसका वेणुवादक वही
जसक जा ई धुन पर नगर कै
सभी चूहे नकल आए थे बल से-
गु गुड़ था क  तु चेला शकर नकाला-
साँप अपनी बाँ बय को छोड़
बाहर आ गए ह,
भूख से मानो ब त दन के सताए,
और ज  द म, अँधेरे म, उ  ह ने
रात म फरती छछू ँ दर के दल को
धर दबाया है-
नगलकर हड़बड़ी म कुछ
परम ग त ा  त करने जा रहे ह,
औ' ज  ह ने अचकचाकर,
भूल अपनी भाँप मुँह फैला दया था,
वे नयन क जोत खोकर,
पेट धरती म रगड़ते,
राह अपनी बाँ बय क ढूँ ढते ह,
क  तु  यादातर छछू ँ दर छटपटाती-अधमरी
मुँह म दबाए ए
ककत य
  वमूढ़ बने पड़े ह;
और घु  घू को नह मालूम
वह अपने शकारी या शकार को
समय के अंध ग  यवरोध से कैसे नकाले,
कस तरह उनको बचा ले।

6. श  द-शर

  -भेद
ल य
श  द-शर बरसा,
मुझे न च
  य सु ढ़,
यह समर जीवन का
न जीता जा सकेगा।

श  द-संकुल उवरा सारी धरा है;


उखाड़ो, काटो, चलाओ-
कसी पर कुछ भी नह तबंध;
इतना क  ट भी करना नह ,
सबको खुला ख लहान का है कोष-
अतुल, अमाप और अनंत।

श ु जीवन के, जगत के,


दै  य अचलाकार
अ डग खड़े ए ह;
कान इनके ववर इतने बड़े
अग णत श  द-शर नत
पैठते है एक से औ'
सरे से नकल जाते।
रोम भी उनका न खता या क झड़ता
और लाचारी, नराशा,  लै य
  कुंठा का तमाशा
दे खना ही न  य पड़ता।

कब तलक,
औ' कब तलक,
यह लेखनी क जीभ क असम  यता
नज भा  य पर रोती रहेगी?
कब तलक,
औ' कब तलक,
अपमान औ' उपहासकर
ऐसी उपे ा श  द क होती रहेगी?

कब तलक,
जब तक न होगी
जीभ मु खया
व दं त, नशंक मुख क ;
मुख न होगा
गगन-ग वले,
समु  नत-भाल
सर का;
सर न होगा
सधु क गहराइय से
धड़कनेवाले दय से यु  त
धड़ का;
धड़ न होगा
उन भुजा का
क जो है एक पर
संजीवनी का ृंग साधो,
एक म व  वंस- य
 
गदा संभाले,
उन पग का-
अंगद व  वासवाले-
जो क नीचे को पड़ तो
भूमी काँपे
और ऊपर को उठ तो
दे खते ही दे खते
ैलो  य नाप।

सह महा सं ाम
जीवन का, जगत का,
जीतना तो र है, लड़ना भी
कभी संभव नह है
श  द के शर छोड़नेवाले
सतत ल घमा-उपासक मानव से;
एक म हमा ही सकेगी
होड़ ले इन दानव से।

7. लेखनी का इशारा

ना ऽ ऽ ऽ ग!
-मने रा गनी तुझको सुनाई ब त,
अनका तू न सनका-
कान तेरे नह होते,
क  तु अपना कान केवल गान के ही लए
मने कब सुनाया,
तीन-चौथाई दय के लए होता।
इस लए कही तो तुझेमने कुरेदा और छे ड़ा
भी क तुझम जान होगी अगर
तो तू फनफनाकर उठ खड़ाा होगा,
गरल-फुफकार छोड़ेगा,
चुनौती करेगा व
  ीकार मेरी,
क  तु उलझी र  जु क तू एक ढे री।

इसी बल पर,
धा ऽ ऽ ऽ ध,
कुंडल मारकर तू
उस खजाने पर तू डटा बैठा आ है
जो हमारे पूवज के
 याग, तप ब लदान,
मक व   ेद क गाढ़ कमाई?
हम सौपी गई थी यह न ध
क भोगे  याग से हम उसे,
जससे हो सके दन- दन सवाई;
क  तु कसका भोग,
कसका  याग,
कसक वृ  ।
पाई ई भी है
आज अपनाई-गँवाई।

र भग,
भय कट चुका,
म हट चुका-
अनुनय- वनय से
रीझनेवाला दय तुझम नह है-
खोल कुंडल,
भेद तेरा खुल चुका है,
गरल-बल तुझम नह अब,
 य क उससे वषमतर वषपर
ब त दन तू पला है,
चाटता चाँद रहा है,
सूँघता सोना रहा है।
ल बाज क कमी
कुछ नह मेरे भाइय म,
पर मरे को मार करके-
लया ही जसने, दया कुछ नह ,
य द वह जया तो कौन मुदा?
कौन शाह मदार अपने को कहाए!
क़लम से ही
मार सकता ँ तुझे म;
क़लम का मारा या
बचता नह है।
कान तेरे नह ,
सुनता नह मेरी बात
आँख खोलकर के दे ख
मेरी लेखनी का तो इशारा-
उगा-डू बा है इसी पर
कह तुझसे बड़ ,
तुझसे जड़ का
़क  मत- सतारा!

8. वभा जत के त

द  ध होना ही
अगर इस आग म है

  थ है डर,
पाँव पीछे को हटाना

  थ बावेला मचाना।

पूछ अपने आप से
उत
  र मुझे दो,
अ नयुत हो?
ब नयुत हो?

आग अ लगन करे
य द आग को
कस लए झझके?
चा हए उसको भुजा भर
और भभके!

और अ न
नर न को य द
अंग से अपने लगाती,
और सुलगाती, जलाती,
और अपने-सा बनाती,
तो सौभा य
  रेखा जगमगाई-
आग जाकर लौट आई!

क  तु शायद तुम कहोगे


आग आधे,
और आधे भाग पानी।
तुम पवभाजन क , धा क ,
डरी अपने आप से,
ठहरी ई-सी हो कहानी।
आग से ही नह
पानी से डरोगे,
र भागोगे,
करोगे द न ं दन,
पूव मरने के
हजार बार मरोगे।

 य क जीना और मरना
एकता ही जानती है,
वह बभाजन संतुलन का
भेद भी पहचानती है।

9. भगाए जा, रे
भीग चुक अब जब सारी,
जतना चाह भगाए जा, रे

आँख म त  वीर क सारी


सूखी-सूखी साफ़, अदागी,
पड़नी थी दो छ ट छटटकर
म तेरी छाया से भागी!
बचती तो कड़ हठ, कुंठा क
अ भमानी गठरी बन जाती;
भाग रहा था तन, मन कहता
जाता था, पछु आए जा, रे!
भीग चुक अब जब सब सारी,
जतना चाह भगाए जा, रे!

सब रंग का मेल क मेरी


उजली-उजली सारी काली
और नह गुन ात क जससे
काली को कर ँ उ जयाली;
डर के घर म लापरवाही,
नभयता का मोल बड़ा है;
अब जो तेरे मन को भाए
तू वह रंग चढ़ाए जा, रे!
भीग चुक अब जब सब सारी,
जतना चाह भगाए जा, रे!

क ठन कहाँ था गीला करना,


रँग दे ना इस बसन, बदन को,
म तो तब जानूँ रस-रं जत
कर दे जब को मेरे मन को,
तेरी पचकारी म वह रंग,
वह गुलाल तेरी झोली म,
हो तो तू घर, आँगन, भीतर,
बाहर फाग मचाए जा, रे!
भीग चुक अब जब सब सारी,
जतना चाह भगाए जा, रे!

मेरे हाथ नह पचकारी


और न मेरे काँधे झोरी,
और न मुझम हैबल, साहस,
तेरे साथ क ँ बरजोरी,
 या तेरी ग लय म होली
एक तरफ़ खेली जाती है?
आकर मेरी आ लगन म
मेरे रँग रंगाए जा, रे?
भीग चुक अब जब सब सारी,
जतना चाह भगाए जा, रे!

10. दये क माँग

र  त मेरा माँगते ह।
कौन?
वे ही द प जनको न
  ेह से मने जगाया।

बड़ा अचरज या
क  तु ववेक बोला:
आज अचरज क जगह नया नहरं है,
जो असंभव को और संभव को वभा जत कर रही थी
रेख अब वह मट रही है।
आँख फाड़ और दे खो
  - नमम सामने जो आज आया।
नन
र  त मेरा माँगते ह।
कौन?
वे ही द प जनको न
  ेह से मने जगाया।
व भह
क  तु व वेक बोला:
ोध ने कोई सम य  ा हल कभी क ?
द प चकताचूर होकर भू म के ऊपर पड़ा है,
तेल म सोख़ती है,
व तका मुँह कए काला,
बोल तेरी आँख को यह च भाया?
र  त मेरा माँगते ह।
कौन?
वे ही द प जनको न
  ेह से मने जगाया।

मन बड़ा ही खी,
क  तु ववेक चुप है।
भा  य-च म पड़ा कतना क म से दया हो,
लाख आँसु के कण का स  त कण भर न
  ेह वजेता,
व तका म दय तंतु बटे गए थे,
ाण ही जलता रहा है।
हाय, पावस क नशा म, द प, तुमने  या सुनाया?
र  त मेरा माँगते ह।
कौन?
वे ही द प जनको न
  ेह से मने जगाया।


  ेह सब कुछ दान,
मने  या बचाया?
एक अंतदाह, चा ँ तो कभी गल- पघल पाऊँ।
 या बदा था, अंत म म र  त के आँसू बहाऊँ?
माँग पूरी कर चुका ँ,
र  त द पक भर चुका ँ,
है मुझे संतोष मने आज यह ऋण भी चुकाया।
र  त मेरा माँगते ह।
कौन?
वे ही द प जनको न
  ेह से मने जगाया।

11. दो बज नए

"हमारी तो कभी शाद न ई,


न कभी बारात सजी,
न कभी  हन आई,
न घर पर बधाई बजी,
हम तो इस जीवन म  वाँरे ही रह गए।"

 हन को साथ लए लौट बारात को


 हे के घर पर लगाकर,
एक बार पूरे जोश, पूरे जोर-शोर से
बाज को बजाकर,
आधी रात सोए ए लोग को जगाकर
बड बदा हो गया।

अलग-अलग हो चले बज नए,


मौन-थके बाज को काँधे पर लादे ए,
सूनी अँधेरी, अलसाई ई राह से।
ताज़ औ' सरताज चले साथ-साथ-
दोन क ढली उमर,
थोड़े-से पके बाल,
थोड़ी-सी झुक कमर-
दोन थे एकाक ,
डेरा था एक ही।

दोन ने रँगे-चुँगी, चमकदार


वद उतारकर खूँट पर टाँग द ,
मैली-सी तहमत लगा ली,
बीड़ी सुलगा ली,
और चत लेट गए ढ ली पड़ी खाट पर।

लंबी-सी साँस ली सरताज़ ने-


"हमारी तो कभी शाद न ई,
न कभी बारात चढ़ ,
न कभी  हन आई,
न घर पर बधाई बजी,
हम तो इस जीवन म  वाँरे ही रह गए।
सर क खुशी म खु शयाँ मनाते रहे,
सर क बारात म बस बाजा बजाते रहे!
हम तो इस जीवन म..."

ताज़ सुनता रहा,


फर ज़रा खाँसकर
बैठ गया खाट पर,
और कहने लगा-
" नया बड़ी ओछ है;
और को खुश दे ख
लोग कुढ़ा करते ह,
मातम मनाते ह, मरते ह।
हमने तो और क खु शय म
खु शयाँ मनाई है।
काहे का पछतावा?
कौन क बुराई है?
कौन क बुराई है?
लोग बड़े बेहाया ह;
अपनी बारात का बाजा खुद बजाते ह,
अपना गीत गाते ह;
श ु है क और के बारात का ही
बाजा हम बजा रहे,
 हे मयाँ बनने से सदा शरमाते रहे;
मेहनत से कमाते रहे,
मेहनत का खाते रहे;
मा लक ने जो भी कया,
जो
भी दया,
उसका गुन गाते रहे।"

12. खून के छापे

सुबह-सुबह उठकर  या दे खता ँ


क मेरे ार पर
खून-रँगे हाथ से कई छापे लगे ह।

और मेरी प  नी ने व
   न दे खा है
क एक नर-कंकाल आधी रात को
एक हाथ म खून क बा  ट लए आता है
और सरा हाथ उसम डु बोकर
हमारे ार पर एक छापा लगाकर चला जाता है;
फर एक सरा आता है,
फर सरा, आता है,
फर सरा, फर सरा, फर सरा... फर...

ु ाह खून कनका है?


यह बेगन
 या उनका?
जो स दय से सताए गए,
जगह-जगह से भगाए गए,
ख सहने के इतने आद हो गए
क व ोह के सारे भाव ही खो गए,
और जब मौत के मुँह म जाने का म
  आ,
न वरोध, चुपचाप चले गए
और उसक वषैली साँस म घुटकर
सदा के लए सो गए
उनके र  त क छाप अगर लगनी थी तो
-के ार पर।

यह बेज़बान ख़ून कनका है?


ज  ह ने आ म
  ाहन् शासन के शकंजे क
पकड़ से, जकड़ से छू टकर
उठने का, उभरने का य  न कया था
और उ  ह दबाकर, दलकर, कुचलकर
पीस डाला गया है।
उनके र  त क छाप अगर लगनी थी तो
-के ार पर।

यह जवान खून कनका है?


 या उनका?
जो अपने माट का गीत गाते,
अपनी आजाद का नारा लगाते,
हाथ उठाते, पाँव बढ़ाते आए थे
पर अब ऐसी च ान से टकराकर
अपना सर फोड़ रहे ह
जो न टलती है, न हलती है, न पघलती है।
उनके र  त क छाप अगर लगनी थी तो
-के ार पर।
यह मासुम खून कनका है?
जो अपने म से धूप म, ताप म
धू ल म, धुएँ म सनकर, काले होकर
अपने सफेद- व
  ा मय के लए
साफ़ घर, साफ़ नगर, व
   छ पथ
उठाते रहे, बनाते रहे,
पर उनपर पाँव रखने, उनम पैठने का
मू  य अपने ाण से चुकाते रहे।
उनके र  त के छाप अगर लगनी थी तो
-के ार पर।

यह बेपनाह खून कनका है?


 या उनका?
जो तवारीख क एक रेख से
अपने ही वतन म एक जलावतन ह,
 या उनका?
जो ब मत के आवेश पर
सनक पर, पागलपन पर
अपराधी, दं और व  य
करार दए जाते ह,
नवास, नधन, नवसन,
नमम क़  ल कए जाते ह,
उनके र  त क छाप अगर लगनी थी तो
-के ार पर।

यह बेमालूम खून कनका है?


 या उन सपन का?
जो एक उगते ए रा   क
पलको पर झूले थे, पुत लय म पले थे,
पर लोभ ने, व
  ाथ ने, मह    वाकां ा ने
जनक आँख फोड़ द ह,
जनक गदन मरोड़ द ह।
उनके र  त क छाप अगर लगनी थी तो
-के ार पर।
ले कल इस अमानवीय अ  याचार, अ  याय
अनु चत, अकरणीय, अक ण का
दा य  व कसने लया?
जके भी ार पर यह छापे लगे उसने,
पानी से घुला दया,
चूने से पुता दया।

क  तु क व- ार पर
छापे ये लगे रह,
जो अनी त, अ क
कथा कह, य
  था कह,
और श  द-य म मनु  य के कलुष दह।
और मेरी प  नी ने व
   न दे खा है
क नर-कंकाल
क व-क व के ार पर
ऐसे ही छापे लगा रहे ह,
ऐसे ही श  द-  वाला जगा रहे ह।

 
 

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