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सवथा ही
यह उ चत है
औ' हमारी काल- स , स
चर-वीर स वनी,
व
ा भमानी भू म से
सवदा या शत यही है
जब हमे कोई चुनौती दे ,
हमे कोई चारे,
तब कड़क
हम ृंग से आ सधु
यह उठ पड़,
ँकारे-
क धरती काँपे,
अ बर म दखाई द दरार।
श द ही के
बीच म दन-रात बरसता आ
उनक श से, साम य
से-
अ र-
अप र चत नह ँ।
ओ हमारे
व - दम दे श के
व ु ध- ोधातुर
जवान !
कट कटाकर
आज अपने व के-से
दाँत भ चो,
खड़े हो,
आगे बढ़ो,
ऊपर बढ़ो,
बे-कंठ खोले।
बोलना हो तो
तु हारे हाथ क दो चोट बोल!
अगर मन
ख चकर तलवार
करता वार
उससे न य या शत यही है
चा हए इसके लए तैयार रहना;
य द अप र चत-अजनबी
कर खड् ग ले
आगे खड़ा हो जाए,
अचरज बड़ा होगा,
कम क ठन होगा नह उससे सँभालना;
कत ु युग-युग मीत अपना,
जो क भाई क हाई दे
दशाएँ हो गुँजाता,
शीलवान जहान भर को हो जानता,
पीठ म सहसा छु रा य द भ कता,
प रताप से, व ोभ से, आ ोश से,
आम
ा तड़पती,
नी त धुनती शीश
छाती पीट मयादा बलखती,
व व मानस के लए संभव न होता
इस तरह का पाश वक आघात सहना;
शाप इससे भी बड़ा है श ु का छ न
रहना।
इस लए फर आज
सूरज-चाँद
पृ वी, पवन को, आकाश को
साखी बताकर
तुम करो
सं त
पर गंभीर, ढ़
भी म- त ा
दे श जन-गण-मन समाए राम!-
अ त आन,
अ त ाण,
अ त काय,
'जो म राम तो कुल स हत कह ह दशानन आय!'
3. गाँधी
एक दन इ तहास पूछेगा
क तुमने ज म
गाँधी को दया था,
जस समय हसा,
कु टल व ान बल से हो समं वत,
धम, सं क
ृ त, स य
ता पर डाल पदा,
व व के संहार का ष ं रचने म लगी थी,
तुम कहाँ थे? और तुमने या कया था!
एक दन इ तहास पूछेगा
क तुमने ज म
गाँधी को दया था,
जस समय अ याय ने पशु-बल सुरा पी-
उ , उ त, दं भ-उ म
द-
एक नबल, नरपराध, नरीह को
था कुचल डाला
तुम कहाँ थे? और तुमने या कया था?
एक दन इ तहास पूछेगा
क तुमने ज म
गाँधी को दया था,
जस समय अ धकार, शोषण, व
ाथ
हो नल ज, हो न:शंक, हो न
स : जगे, संभले रा म घुन-से लगे
जजर उसे करते रहे थे,
तुम कहाँ थे? और तुमने या कया था?
य क गाँधी य
थ
य द मलती न हसा को चुनौ ती,
य क गाँधी य
थ
य द अ याय क ही जीत होती,
य क गाँधी य
थ
जा त व
तं होकर
जा त व तं होकर
य द न अपने पाप धोती!
4. युग-पंक
कहाँ ह वे संत
जनके द य ग
ावरण को भेद आए दे ख-
सत
क णा सधु के नव नील नीरज लोचन से
यो त नझर बह रहा है,
बैठकर द काल
ढ़ व वास क अ वचल शला पर
न
ान करते जा रहे ह
और उनका कलुष-क मष
पाप-ताप-' भशाप घुलता जा रहा है।
कहाँ ह वे क व
म दर- ग, मधुर-कंठ
और उनक क पना-संजात
ेय सयाँ, पटारी जा क,
हास म जनके नहाती है जु हाई,
जो क अपनी ब से घेर
बाड़व के दय का ताप हरत ,
और अपने चम कारी आँचल से
प छ जीवन-का लमा को
ला लमा म बदलत ,
छलत समय को।
आज उनक मुझे, तुमको,
और सबको है ज रत।
कहाँह वे संत?
वे क व ह कहाँ पर?-
नह उ त
र।
वायवी सब क पनाएँ-भावनाएँ
आज युग के स य से ले ट कर
गायब ई ह।
कुछ नह उपयोग उनका।
था कभी? संदेह मुझको।
- वंचना जो कभी संभव थी
क तु आ म
नह अब रह गई है।
तो फँसा युग-पंक म मानव रहेगा?
तो जला युग-ताप से मानव करेगा?
नह ।
ले कन, न
ान करना उसे होगा
आँसु से- पर नह असमथ, नबल और कायर,
सबल प चा के उन आँसु से,
जो कलंको का वगत इ तहास धोते।
ेद से- पर नह दास के, खरीदे और बेचे,-
व
खुद बहाए, मृ का जसे क अपना ऋण चुकाए।
र त से- पर नह अपने या पराए,
उसी पावन र त से
5. ग यवरोध
बीतती जब रात,
करवट पवन लेता
गगन क सब ता रकाएँ
मोड़ लेती बाग,
उदयो मुखी र व क
बाल- करण दौड़
यो तमान करत
तज पर पूरब दशा का ार,
मुग़ मुंडेर पर चढ़
त मर को ललकारता,
पर वह न मुड़कर दे खता,
धर पाँव सर पर भागता,
फटकार कर पर
जाग दल के दल वहग
क लोल से भूगोल और खगोल भरते,
जागकर सपने नशा के
चाहते होना दवा-साकार,
युग- ृंगार।
कैसा यह सवेरा!
ख च-सी ली गई बरबस
रात क ही सौर जैसे और आगे-
कुढ़न-कुंठा-सा कुहासा,
पवन का दम घुट रहा-सा,
धुंध का चौफेर घेरा,
सूय पर चढ़कर कसी ने
दाब-जैसा उसे नीचे को दया है,
दये-जैसा धुएँ से वह घरा,
गहरे कुएँ म है वह दप दपाता,
व
यं अपनी साँस खाता।
एक घु घू,
प छमी छाया-छपे बन के
गरे; बखरे पर को ख स
बैठा है बकुल क डाल पर,
गोले ग पर धूप का च मा लगाकर-
ात का अ त व अ वीकार रने के लए
पूरी तरह तैयार होकर।
6. श द-शर
-भेद
ल य
श द-शर बरसा,
मुझे न च
य सु ढ़,
यह समर जीवन का
न जीता जा सकेगा।
कब तलक,
औ' कब तलक,
यह लेखनी क जीभ क असम यता
नज भा य पर रोती रहेगी?
कब तलक,
औ' कब तलक,
अपमान औ' उपहासकर
ऐसी उपे ा श द क होती रहेगी?
कब तलक,
जब तक न होगी
जीभ मु खया
व दं त, नशंक मुख क ;
मुख न होगा
गगन-ग वले,
समु नत-भाल
सर का;
सर न होगा
सधु क गहराइय से
धड़कनेवाले दय से यु त
धड़ का;
धड़ न होगा
उन भुजा का
क जो है एक पर
संजीवनी का ृंग साधो,
एक म व वंस- य
गदा संभाले,
उन पग का-
अंगद व वासवाले-
जो क नीचे को पड़ तो
भूमी काँपे
और ऊपर को उठ तो
दे खते ही दे खते
ैलो य नाप।
सह महा सं ाम
जीवन का, जगत का,
जीतना तो र है, लड़ना भी
कभी संभव नह है
श द के शर छोड़नेवाले
सतत ल घमा-उपासक मानव से;
एक म हमा ही सकेगी
होड़ ले इन दानव से।
7. लेखनी का इशारा
ना ऽ ऽ ऽ ग!
-मने रा गनी तुझको सुनाई ब त,
अनका तू न सनका-
कान तेरे नह होते,
क तु अपना कान केवल गान के ही लए
मने कब सुनाया,
तीन-चौथाई दय के लए होता।
इस लए कही तो तुझेमने कुरेदा और छे ड़ा
भी क तुझम जान होगी अगर
तो तू फनफनाकर उठ खड़ाा होगा,
गरल-फुफकार छोड़ेगा,
चुनौती करेगा व
ीकार मेरी,
क तु उलझी र जु क तू एक ढे री।
इसी बल पर,
धा ऽ ऽ ऽ ध,
कुंडल मारकर तू
उस खजाने पर तू डटा बैठा आ है
जो हमारे पूवज के
याग, तप ब लदान,
मक व ेद क गाढ़ कमाई?
हम सौपी गई थी यह न ध
क भोगे याग से हम उसे,
जससे हो सके दन- दन सवाई;
क तु कसका भोग,
कसका याग,
कसक वृ ।
पाई ई भी है
आज अपनाई-गँवाई।
र भग,
भय कट चुका,
म हट चुका-
अनुनय- वनय से
रीझनेवाला दय तुझम नह है-
खोल कुंडल,
भेद तेरा खुल चुका है,
गरल-बल तुझम नह अब,
य क उससे वषमतर वषपर
ब त दन तू पला है,
चाटता चाँद रहा है,
सूँघता सोना रहा है।
ल बाज क कमी
कुछ नह मेरे भाइय म,
पर मरे को मार करके-
लया ही जसने, दया कुछ नह ,
य द वह जया तो कौन मुदा?
कौन शाह मदार अपने को कहाए!
क़लम से ही
मार सकता ँ तुझे म;
क़लम का मारा या
बचता नह है।
कान तेरे नह ,
सुनता नह मेरी बात
आँख खोलकर के दे ख
मेरी लेखनी का तो इशारा-
उगा-डू बा है इसी पर
कह तुझसे बड़ ,
तुझसे जड़ का
़क मत- सतारा!
8. वभा जत के त
द ध होना ही
अगर इस आग म है
य
थ है डर,
पाँव पीछे को हटाना
य
थ बावेला मचाना।
पूछ अपने आप से
उत
र मुझे दो,
अ नयुत हो?
ब नयुत हो?
आग अ लगन करे
य द आग को
कस लए झझके?
चा हए उसको भुजा भर
और भभके!
और अ न
नर न को य द
अंग से अपने लगाती,
और सुलगाती, जलाती,
और अपने-सा बनाती,
तो सौभा य
रेखा जगमगाई-
आग जाकर लौट आई!
य क जीना और मरना
एकता ही जानती है,
वह बभाजन संतुलन का
भेद भी पहचानती है।
9. भगाए जा, रे
भीग चुक अब जब सारी,
जतना चाह भगाए जा, रे
र त मेरा माँगते ह।
कौन?
वे ही द प जनको न
ेह से मने जगाया।
बड़ा अचरज या
क तु ववेक बोला:
आज अचरज क जगह नया नहरं है,
जो असंभव को और संभव को वभा जत कर रही थी
रेख अब वह मट रही है।
आँख फाड़ और दे खो
- नमम सामने जो आज आया।
नन
र त मेरा माँगते ह।
कौन?
वे ही द प जनको न
ेह से मने जगाया।
व भह
क तु व वेक बोला:
ोध ने कोई सम य ा हल कभी क ?
द प चकताचूर होकर भू म के ऊपर पड़ा है,
तेल म सोख़ती है,
व तका मुँह कए काला,
बोल तेरी आँख को यह च भाया?
र त मेरा माँगते ह।
कौन?
वे ही द प जनको न
ेह से मने जगाया।
मन बड़ा ही खी,
क तु ववेक चुप है।
भा य-च म पड़ा कतना क म से दया हो,
लाख आँसु के कण का स त कण भर न
ेह वजेता,
व तका म दय तंतु बटे गए थे,
ाण ही जलता रहा है।
हाय, पावस क नशा म, द प, तुमने या सुनाया?
र त मेरा माँगते ह।
कौन?
वे ही द प जनको न
ेह से मने जगाया।
न
ेह सब कुछ दान,
मने या बचाया?
एक अंतदाह, चा ँ तो कभी गल- पघल पाऊँ।
या बदा था, अंत म म र त के आँसू बहाऊँ?
माँग पूरी कर चुका ँ,
र त द पक भर चुका ँ,
है मुझे संतोष मने आज यह ऋण भी चुकाया।
र त मेरा माँगते ह।
कौन?
वे ही द प जनको न
ेह से मने जगाया।
11. दो बज नए
और मेरी प नी ने व
न दे खा है
क एक नर-कंकाल आधी रात को
एक हाथ म खून क बा ट लए आता है
और सरा हाथ उसम डु बोकर
हमारे ार पर एक छापा लगाकर चला जाता है;
फर एक सरा आता है,
फर सरा, आता है,
फर सरा, फर सरा, फर सरा... फर...
क तु क व- ार पर
छापे ये लगे रह,
जो अनी त, अ क
कथा कह, य
था कह,
और श द-य म मनु य के कलुष दह।
और मेरी प नी ने व
न दे खा है
क नर-कंकाल
क व-क व के ार पर
ऐसे ही छापे लगा रहे ह,
ऐसे ही श द- वाला जगा रहे ह।