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यो न हृष्यति न द्वे ति न शोचति न काङ्‍क्षति। शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे

तियः॥12.17॥
भावार्थ :
जो न कभी हर्षथत होता है , न द्वे ष करता है , न शोक करता है , न कामना करता है तर्ा जो शुभ
और अशु भ सम्पूर्थ कमों का त्यागी है - वह भक्तियुि पुरुष मुझको र्िय है ।

न ति कतित्क्षणमतप जािु तिष्ठत्यकममकृि । कायमिे ह्यवशः कमम सवमः िकृतिजैगुमणैः॥3.5॥


भावार्थ :
र्निःसं देह कोई भी मनुष्य र्कसी भी काल में क्षर्मात्र भी र्िना कमथ र्कए नहीं रहता क्ोंर्क सारा
मनुष्य समुदाय िकृर्त जर्नत गुर्ों द्वारा परवश हुआ कमथ करने के र्लए िाध्य र्कया जाता है ।

यद्यदाचिति श्रेष्ठस्तत्तदे वेििो जनः । स यत्प्रमाणं कुरुिे लोकस्तदनुविमिे ॥3.21॥


भावार्थ :
श्रेष्ठ पु रुष जो-जो आचरर् करता है , अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरर् करते हैं । वह जो कुछ
िमार् कर दे ता है , समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार िरतने लग जाता है (यहााँ र्िया में
एकवचन है , परन्तु 'लोक' शब्द समुदायवाचक होने से भाषा में िहुवचन की र्िया र्लखी गई है ।

कस्माच्च िे न नमेिन्मिात्मन गिीयसे ब्रह्मणोऽप्यातदकर्त्रे। अनन्त दे वेश जगतिवास त्वमक्षिं


सदसत्तत्पिं यि ॥11.37॥
भावार्थ :
हे महात्मन्! ब्रह्मा के भी आर्दकताथ और सिसे िडे आपके र्लए वे कैसे नमस्कार न करें क्ोंर्क
हे अनन्त! हे दे वेश! हे जगर्िवास! जो सत्, असत् और उनसे परे अक्षर अर्ाथ त सक्तिदानन्दघन
ब्रह्म है , वह आप ही हैं ।

कमे क्तियातण संयम्य य आस्ते मनसा स्मिन । इक्तियार्ामक्तिमूढात्मा तमथ्याचािः स उच्यिे


॥3.6॥
भावार्थ :
जो मूढ़ िु क्ति मनुष्य समस्त इक्तियों को हठपूवथक ऊपर से रोककर मन से उन इक्तियों के र्वषयों
का र्चन्तन करता रहता है , वह र्मथ्याचारी अर्ाथ त दम्भी कहा जाता है ।

यो मामजमनातदं च वेतत्त लोकमिेश्विम । असम्मूढः स मत्येषु सवमपापैः िमुच्यिे ॥10.3॥


भावार्थ :
जो मुझको अजन्मा अर्ाथ त् वास्तव में जन्मरर्हत, अनार्द (अनार्द उसको कहते हैं जो आर्द रर्हत
हो एवं सिका कारर् हो) और लोकों का महान् ईश्वर तत्त्व से जानता है , वह मनुष्यों में ज्ञानवान्
पु रुष सं पूर्थ पापों से मुि हो जाता है ।

न कमम णामनािं भािैष्कम्यं पुरुषोऽश्नुिे । न च सन्न्यसनादे व तसक्तधं समतिगच्छति ॥3.4॥


भावार्थ :
मनुष्य न तो कमों का आरं भ र्कए र्िना र्नष्कमथता (र्जस अवस्र्ा को िाप्त हुए पुरुष के कमथ
अकमथ हो जाते हैं अर्ाथ त फल उत्पि नहीं कर सकते , उस अवस्र्ा का नाम 'र्नष्कमथता' है । को
यानी योगर्नष्ठा को िाप्त होता है और न कमों के केवल त्यागमात्र से र्सक्ति यानी सां ख्यर्नष्ठा को
ही िाप्त होता है ।

एिां तवभूतिं योगं च मम यो वेतत्त ित्त्विः । सोऽतवकम्पेन योगेन युज्यिे नार्त्र संशयः ॥10.7॥
भावार्थ :
जो पु रुष मे री इस परमैश्वयथरूप र्वभूर्त को और योगशक्ति को तत्त्व से जानता है (जो कुछ
दृश्यमात्र सं सार है वह सि भगवान की माया है और एक वासुदेव भगवान ही सवथत्र पररपूर्थ है ,
यह जानना ही तत्व से जानना है ), वह र्नश्चल भक्तियोग से युि हो जाता है - इसमें कुछ भी
सं शय नहीं है ।

अिाद्भवक्तन्त भूिातन पजमन्यादिसम्भवः । यज्ञाद्भवति पजमन्यो यज्ञः कममसमुद्भवः ॥ कमम ब्रह्मोद्भवं


तवक्तध ब्रह्माक्षिसमुद्भवम । िस्मात्सवमगिं ब्रह्म तनत्यं यज्ञे ितितष्ठिम ॥3.14-15॥
भावार्थ :
सम्पू र्थ िार्ी अि से उत्पि होते हैं , अि की उत्पर्ि वृर्ि से होती है , वृर्ि यज्ञ से होती है और
यज्ञ र्वर्हत कमों से उत्पि होने वाला है । कमथसमुदाय को तू वेद से उत्पि और वेद को अर्वनाशी
परमात्मा से उत्पि हुआ जान। इससे र्सि होता है र्क सवथव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही
यज्ञ में िर्तर्ष्ठत है ।

बुक्तधज्ञाम नमसम्मोिः क्षमा सत्यं दमः शमः । सुखं दु ःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥ अतिंसा
समिा िुतिस्तपो दानं यशोऽयशः । भवक्तन्त भावा भूिानां मत्त एव पृर्क्तििाः ॥10.4-5॥
भावार्थ :
र्नश्चय करने की शक्ति, यर्ार्थ ज्ञान, असम्मूढ़ता, क्षमा, सत्य, इं र्ियों का वश में करना, मन का र्नग्रह
तर्ा सु ख-दु िःख, उत्पर्ि-िलय और भय-अभय तर्ा अर्हं सा, समता, संतोष तप (स्वधमथ के आचरर्
से इं र्ियार्द को तपाकर शुि करने का नाम तप है ), दान, कीर्तथ और अपकीर्तथ - ऐसे ये िार्र्यों
के नाना िकार के भाव मुझसे ही होते हैं ।

अक्षिं ब्रह्म पिमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यिे । भूिभावोद्भवकिो तवसगमः कममसंतज्ञिः ॥8.3॥


भावार्थ :
श्री भगवान ने कहा- परम अक्षर 'ब्रह्म' है , अपना स्वरूप अर्ाथ त जीवात्मा 'अध्यात्म' नाम से कहा
जाता है तर्ा भूतों के भाव को उत्पि करने वाला जो त्याग है , वह 'कमथ ' नाम से कहा गया है ।

यदा ति नेक्तियार्ेषु न कममस्वनुषज्जिे । सवमसङकल्पसन्न्यासी


्‍ योगारूढ़स्तदोच्यिे ॥6.4॥
भावार्थ :
र्जस काल में न तो इक्तियों के भोगों में और न कमों में ही आसि होता है , उस काल में
सवथसंकल्ों का त्यागी पुरुष योगारूढ़ कहा जाता है ।

िं तवद्याद दु ःखसं योगतवयोगं योगसक्तञज्ञिम। स तनियेन योिव्यो योगोऽतनतवमण्णचेिसा ॥6.23॥


भावार्थ :
जो दु िःखरूप संसार के संयोग से रर्हत है तर्ा र्जसका नाम योग है , उसको जानना चार्हए। वह
योग न उकताए हुए अर्ाथत धैयथ और उत्साहयुि र्चि से र्नश्चयपूवथक करना कतथव्य है ।
यस्त्वात्मितििे व स्यादात्मिृप्ति मानवः । आत्मन्येव च सन्तुिस्तस्य कायं न तवद्यिे ॥3.17॥
भावार्थ :
परन्तु जो मनुष्य आत्मा में ही रमर् करने वाला और आत्मा में ही तृप्त तर्ा आत्मा में ही सन्तुि
हो, उसके र्लए कोई कतथव्य नहीं है ।

िकृिे गुमणसम्मूढ़ाः सज्जन्ते गुणकममसु । िानकृत्स्नतवदो मन्दान्कृत्स्नतवि तवचालयेि ॥3.29॥


भावार्थ :
िकृर्त के गुर्ों से अत्यन्त मोर्हत हुए मनुष्य गुर्ों में और कमों में आसि रहते हैं , उन पूर्थतया
न समझने वाले मन्दिुक्ति अज्ञार्नयों को पूर्थतया जानने वाला ज्ञानी र्वचर्लत न करे ैै ।

अंिकाले च मामेव स्मिन्मुक्त्वा कलेविम । यः ियाति स मद्भावं याति नास्त्यर्त्र संशयः ॥8.5॥
भावार्थ :
जो पु रुष अंतकाल में भी मुझको ही स्मरर् करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है , वह मेरे
साक्षात स्वरूप को िाप्त होता है - इसमें कुछ भी संशय नहीं है ।

नाियम तमदं तवश्वं न तकंतचतदति तनियी। तनवामसनः स्फूतिममार्त्रो न तकंतचतदव शाम्यति ॥11-8॥
भावार्थ :
अनेक आश्चयों से युि यह र्वश्व अक्तस्तत्वहीन है , ऐसा र्नर्श्चत रूप से जानने वाला, इच्छा रर्हत और
शु ि अक्तस्तत्व हो जाता है। वह अपार शां र्त को िाप्त करता है ।

नािं दे िो न मे दे िो बोिोऽितमति तनियी। कैवल्यं इव संिाप्तो न स्मित्यकृिं कृिम ॥11-6॥


भावार्थ :
न मैं यह शरीर हाँ और न यह शरीर मेरा है , मैं ज्ञानस्वरुप हाँ , ऐसा र्नर्श्चत रूप से जानने वाला
जीवन मु क्ति को िाप्त करता है । वह र्कये हुए (भूतकाल) और न र्कये हुए (भर्वष्य के) कमों
का स्मरर् नहीं करता है ।

एवमे िद्यर्ात्थ त्वमात्मानं पिमेश्वि । द्रष्टु तमच्छातम िे रूपमैश्विं पुरुषोत्तम ॥11.3॥


भावार्थ :
हे परमे श्वर! आप अपने को जैसा कहते हैं , यह ठीक ऐसा ही है , परन्तु हे पुरुषोिम! आपके ज्ञान,
ऐश्वयथ , शक्ति, िल, वीयथ और तेज से युि ऐश्वयथ-रूप को मैं ित्यक्ष दे खना चाहता हाँ ।

तचन्तया जायिे दु ःखं नान्यर्ेिेति तनियी। िया िीनः सुखी शान्तः सवमर्त्र गतलिस्पृिः॥
भावार्थ :
र्चं ता से ही दु िःख उत्पि होते हैं र्कसी अन्य कारर् से नहीं, ऐसा र्नर्श्चत रूप से जानने वाला, र्चंता
से रर्हत होकर सुखी, शांत और सभी इच्छाओं से मुि हो जाता है ।

आपदः सं पदः काले दै वादे वेति तनियी। िृप्तः स्वस्र्ेक्तियो तनत्यं न वान्छति न शोचति॥
भावार्थ :
सं पर्ि (सु ख) और र्वपर्ि (दु िःख) का समय िारब्धवश (पूवथ कृत कमों के अनुसार) है , ऐसा
र्नर्श्चत रूप से जानने वाला संतोष और र्नरं तर संयर्मत इक्तियों से युि हो जाता है । वह न इच्छा
करता है और न शोक ।
सवमद्वािे षु दे िेऽक्तस्मन्प्रकाश उपजायिे । ज्ञानं यदा िदा तवद्यातद्ववृधं सत्त्वतमत्युि ॥14.11॥
भावार्थ :
र्जस समय इस दे ह में तर्ा अन्तिःकरर् और इक्तियों में चेतनता और र्ववेक शक्ति उत्पि होती है ,
उस समय ऐसा जानना चार्हए र्क सत्त्वगुर् िढ़ा है ।

यदा सत्त्वे िवृधे िु िलयं याति दे िभृि । िदोत्तमतवदां लोकानमलान्प्रतिपद्यिे ॥


भावार्थ :
जि यह मनुष्य सत्त्वगुर् की वृक्ति में मृत्यु को िाप्त होता है , ति तो उिम कमथ करने वालों के
र्नमथ ल र्दव्य स्वगाथ र्द लोकों को िाप्त होता है ।

कमम णः सु कृिस्याहः साक्तत्त्वकं तनममलं फलम । िजसस्तु फलं दु ःखमज्ञानं िमसः फलम ॥
भावार्थ :
श्रेष्ठ कमथ का तो साक्तत्त्वक अर्ाथ त् सुख, ज्ञान और वैराग्यार्द र्नमथल फल कहा है , राजस कमथ का
फल दु िःख एवं तामस कमथ का फल अज्ञान कहा है ।

मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो तमर्त्रारिपक्षयोः । सवामिम्भपरित्यागी गुणािीिः सा उच्यिे ॥


भावार्थ :
जो मान और अपमान में सम है , र्मत्र और वैरी के पक्ष में भी सम है एवं सम्पूर्थ आरम्भों में
कताथ पन के अर्भमान से रर्हत है , वह पुरुष गुर्ातीत कहा जाता हैूाँ ।

यत्साङख्ै
्‍ ः िाप्यिे स्र्ानं िद्यौगैितप गम्यिे । एकं साङ्‍ख्ं च योगं च यः पश्यति स पश्यति

भावार्थ :
ज्ञान योर्गयों द्वारा जो परमधाम िाप्त र्कया जाता है , कमथयोर्गयों द्वारा भी वही िाप्त र्कया जाता
है । इसर्लए जो पुरुष ज्ञानयोग और कमथयोग को फलरूप में एक दे खता है , वही यर्ार्थ दे खता है

न किृम त्वं न कमामतण लोकस्य सृजति िभुः । न कममफलसंयोगं स्वभावस्तु िविमिे ॥


भावार्थ :
परमे श्वर मनुष्यों के न तो कताथपन की, न कमों की और न कमथफल के संयोग की रचना करते हैं ,
र्कन्तु स्वभाव ही ितथ रहा है ।

नादत्ते कस्यतचत्पापं न चैव सुकृिं तवभुः । अज्ञानेनावृिं ज्ञानं िेन मुह्यक्तन्त जन्तवः ॥5.15॥
भावार्थ :
सवथव्यापी परमेश्वर भी न र्कसी के पाप कमथ को और न र्कसी के शुभकमथ को ही ग्रहर् करता
है , र्कन्तु अज्ञान द्वारा ज्ञान ढाँ का हुआ है , उसी से सि अज्ञानी मनुष्य मोर्हत हो रहे हैं ।

िद्‍बुधयस्तदात्मानस्ततिष्ठास्तत्पिायणाः । गच्छन्त्यपुनिावृतत्तं ज्ञानतनिूमिकल्मषाः ॥5.17॥


भावार्थ :
र्जनका मन तिू प हो रहा है , र्जनकी िुक्ति तिू प हो रही है और सक्तिदानन्दघन परमात्मा में ही
र्जनकी र्नरं तर एकीभाव से क्तस्र्र्त है , ऐसे तत्परायर् पुरुष ज्ञान द्वारा पापरर्हत होकर अपुनरावृर्ि
को अर्ाथ त परमगर्त को िाप्त होते हैं ।

शक्नोिीिै व यः सोढुं िाक्शिीितवमोक्षणाि । कामक्रोिोद्भवं वेगं स युिः स सुखी निः


॥5.23॥
भावार्थ :
जो साधक इस मनुष्य शरीर में, शरीर का नाश होने से पहले-पहले ही काम-िोध से उत्पि होने
वाले वेग को सहन करने में समर्थ हो जाता है , वही पुरुष योगी है और वही सुखी है ।

लभन्ते ब्रह्मतनवामणमृषयः क्षीणकल्मषाः । तछिद्वै िा यिात्मानः सवमभूितििे ििाः ॥5.25॥


भावार्थ :
र्जनके सि पाप नि हो गए हैं , र्जनके सि संशय ज्ञान द्वारा र्नवृि हो गए हैं , जो सम्पूर्थ िार्र्यों
के र्हत में रत हैं और र्जनका जीता हुआ मन र्नश्चलभाव से परमात्मा में क्तस्र्त है , वे ब्रह्मवेिा
पु रुष शां त ब्रह्म को िाप्त होते हैं ।

स्वयमे वात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम । भूिभावन भूिेश दे वदे व जगत्पिे ॥10.15॥
भावार्थ :
हे भू तों को उत्पि करने वाले ! हे भूतों के ईश्वर! हे दे वों के दे व! हे जगत् के स्वामी! हे
पु रुषोिम! आप स्वयं ही अपने से अपने को जानते हैं ।

कर्ं तवद्यामिं योतगंस्त्वां सदा परितचन्तयन । केषु केषु च भावेषु तचन्त्योऽतस भगवन्मया
॥10.17॥
भावार्थ :
हे योगे श्वर! मैं र्कस िकार र्नरं तर र्चंतन करता हुआ आपको जानूाँ और हे भगवन्! आप र्कन-
र्कन भावों में मेरे द्वारा र्चंतन करने योग्य हैं ?

6अिमात्मा गुडाकेश सवमभूिाशयक्तस्र्िः । अिमातदि मध्यं च भूिानामन्त एव च ॥10.20॥


भावार्थ :
मैं सि भू तों के हृदय में क्तस्र्त सिका आत्मा हाँ तर्ा संपूर्थ भूतों का आर्द, मध्य और अंत भी मैं
ही हाँ ।

वेदानां सामवेदोऽक्तस्म दे वानामक्तस्म वासवः । इं तद्रयाणां मनिाक्तस्म भूिानामक्तस्म चेिना ॥10.22॥


भावार्थ :
मैं वेदों में सामवेद हाँ , दे वों में इं ि हाँ , इं र्ियों में मन हाँ और भूत िार्र्यों की चेतना अर्ाथ त् जीवन-
शक्ति हाँ ।

रुद्राणां शङकििाक्त
्‍ स्म तवत्तेशो यक्षिक्षसाम । वसूनां पावकिाक्तस्म मेरुः तशखरिणामिम
॥10.23॥
भावार्थ :
मैं एकादश रुिों में शंकर हाँ और यक्ष तर्ा राक्षसों में धन का स्वामी कुिेर हाँ । मैं आठ वसुओं
में अर्ि हाँ और र्शखरवाले पवथतों में सुमेरु पवथत हाँ ।

मिषीणां भृ गुििं तगिामस्म्येकमक्षिम । यज्ञानां जपयज्ञोऽक्तस्म स्र्ाविाणां तिमालयः ॥10.25॥


भावार्थ :
मैं महर्षथयों में भृगु और शब्दों में एक अक्षर अर्ाथत् ओंकार हाँ । सि िकार के यज्ञों में जपयज्ञ
और क्तस्र्र रहने वालों में र्हमालय पहाड हाँ ।

पवनः पविामक्तस्म िामः शस्त्रभृिामिम । झषाणां मकििाक्तस्म स्रोिसामक्तस्म जाह्नवी॥10.31॥


भावार्थ :
मैं पर्वत्र करने वालों में वायु और शस्त्रधाररयों में श्रीराम हाँ तर्ा मछर्लयों में मगर हाँ और नर्दयों
में श्री भागीरर्ी गंगाजी हाँ ।

सगाम णामातदिन्ति मध्यं चैवािमजुमन । अध्यात्मतवद्या तवद्यानां वादः िवदिामिम ॥10.32॥


भावार्थ :
सृ र्ियों का आर्द और अंत तर्ा मध्य भी मैं ही हाँ। मैं र्वद्याओं में अध्यात्मर्वद्या अर्ाथ त् ब्रह्मर्वद्या
और परस्पर र्ववाद करने वालों का तत्व-र्नर्थय के र्लए र्कया जाने वाला वाद हाँ ।

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