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Gita
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तियः॥12.17॥
भावार्थ :
जो न कभी हर्षथत होता है , न द्वे ष करता है , न शोक करता है , न कामना करता है तर्ा जो शुभ
और अशु भ सम्पूर्थ कमों का त्यागी है - वह भक्तियुि पुरुष मुझको र्िय है ।
एिां तवभूतिं योगं च मम यो वेतत्त ित्त्विः । सोऽतवकम्पेन योगेन युज्यिे नार्त्र संशयः ॥10.7॥
भावार्थ :
जो पु रुष मे री इस परमैश्वयथरूप र्वभूर्त को और योगशक्ति को तत्त्व से जानता है (जो कुछ
दृश्यमात्र सं सार है वह सि भगवान की माया है और एक वासुदेव भगवान ही सवथत्र पररपूर्थ है ,
यह जानना ही तत्व से जानना है ), वह र्नश्चल भक्तियोग से युि हो जाता है - इसमें कुछ भी
सं शय नहीं है ।
बुक्तधज्ञाम नमसम्मोिः क्षमा सत्यं दमः शमः । सुखं दु ःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च ॥ अतिंसा
समिा िुतिस्तपो दानं यशोऽयशः । भवक्तन्त भावा भूिानां मत्त एव पृर्क्तििाः ॥10.4-5॥
भावार्थ :
र्नश्चय करने की शक्ति, यर्ार्थ ज्ञान, असम्मूढ़ता, क्षमा, सत्य, इं र्ियों का वश में करना, मन का र्नग्रह
तर्ा सु ख-दु िःख, उत्पर्ि-िलय और भय-अभय तर्ा अर्हं सा, समता, संतोष तप (स्वधमथ के आचरर्
से इं र्ियार्द को तपाकर शुि करने का नाम तप है ), दान, कीर्तथ और अपकीर्तथ - ऐसे ये िार्र्यों
के नाना िकार के भाव मुझसे ही होते हैं ।
अंिकाले च मामेव स्मिन्मुक्त्वा कलेविम । यः ियाति स मद्भावं याति नास्त्यर्त्र संशयः ॥8.5॥
भावार्थ :
जो पु रुष अंतकाल में भी मुझको ही स्मरर् करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है , वह मेरे
साक्षात स्वरूप को िाप्त होता है - इसमें कुछ भी संशय नहीं है ।
नाियम तमदं तवश्वं न तकंतचतदति तनियी। तनवामसनः स्फूतिममार्त्रो न तकंतचतदव शाम्यति ॥11-8॥
भावार्थ :
अनेक आश्चयों से युि यह र्वश्व अक्तस्तत्वहीन है , ऐसा र्नर्श्चत रूप से जानने वाला, इच्छा रर्हत और
शु ि अक्तस्तत्व हो जाता है। वह अपार शां र्त को िाप्त करता है ।
तचन्तया जायिे दु ःखं नान्यर्ेिेति तनियी। िया िीनः सुखी शान्तः सवमर्त्र गतलिस्पृिः॥
भावार्थ :
र्चं ता से ही दु िःख उत्पि होते हैं र्कसी अन्य कारर् से नहीं, ऐसा र्नर्श्चत रूप से जानने वाला, र्चंता
से रर्हत होकर सुखी, शांत और सभी इच्छाओं से मुि हो जाता है ।
आपदः सं पदः काले दै वादे वेति तनियी। िृप्तः स्वस्र्ेक्तियो तनत्यं न वान्छति न शोचति॥
भावार्थ :
सं पर्ि (सु ख) और र्वपर्ि (दु िःख) का समय िारब्धवश (पूवथ कृत कमों के अनुसार) है , ऐसा
र्नर्श्चत रूप से जानने वाला संतोष और र्नरं तर संयर्मत इक्तियों से युि हो जाता है । वह न इच्छा
करता है और न शोक ।
सवमद्वािे षु दे िेऽक्तस्मन्प्रकाश उपजायिे । ज्ञानं यदा िदा तवद्यातद्ववृधं सत्त्वतमत्युि ॥14.11॥
भावार्थ :
र्जस समय इस दे ह में तर्ा अन्तिःकरर् और इक्तियों में चेतनता और र्ववेक शक्ति उत्पि होती है ,
उस समय ऐसा जानना चार्हए र्क सत्त्वगुर् िढ़ा है ।
कमम णः सु कृिस्याहः साक्तत्त्वकं तनममलं फलम । िजसस्तु फलं दु ःखमज्ञानं िमसः फलम ॥
भावार्थ :
श्रेष्ठ कमथ का तो साक्तत्त्वक अर्ाथ त् सुख, ज्ञान और वैराग्यार्द र्नमथल फल कहा है , राजस कमथ का
फल दु िःख एवं तामस कमथ का फल अज्ञान कहा है ।
यत्साङख्ै
् ः िाप्यिे स्र्ानं िद्यौगैितप गम्यिे । एकं साङ्ख्ं च योगं च यः पश्यति स पश्यति
॥
भावार्थ :
ज्ञान योर्गयों द्वारा जो परमधाम िाप्त र्कया जाता है , कमथयोर्गयों द्वारा भी वही िाप्त र्कया जाता
है । इसर्लए जो पुरुष ज्ञानयोग और कमथयोग को फलरूप में एक दे खता है , वही यर्ार्थ दे खता है
।
नादत्ते कस्यतचत्पापं न चैव सुकृिं तवभुः । अज्ञानेनावृिं ज्ञानं िेन मुह्यक्तन्त जन्तवः ॥5.15॥
भावार्थ :
सवथव्यापी परमेश्वर भी न र्कसी के पाप कमथ को और न र्कसी के शुभकमथ को ही ग्रहर् करता
है , र्कन्तु अज्ञान द्वारा ज्ञान ढाँ का हुआ है , उसी से सि अज्ञानी मनुष्य मोर्हत हो रहे हैं ।
स्वयमे वात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम । भूिभावन भूिेश दे वदे व जगत्पिे ॥10.15॥
भावार्थ :
हे भू तों को उत्पि करने वाले ! हे भूतों के ईश्वर! हे दे वों के दे व! हे जगत् के स्वामी! हे
पु रुषोिम! आप स्वयं ही अपने से अपने को जानते हैं ।
कर्ं तवद्यामिं योतगंस्त्वां सदा परितचन्तयन । केषु केषु च भावेषु तचन्त्योऽतस भगवन्मया
॥10.17॥
भावार्थ :
हे योगे श्वर! मैं र्कस िकार र्नरं तर र्चंतन करता हुआ आपको जानूाँ और हे भगवन्! आप र्कन-
र्कन भावों में मेरे द्वारा र्चंतन करने योग्य हैं ?
रुद्राणां शङकििाक्त
् स्म तवत्तेशो यक्षिक्षसाम । वसूनां पावकिाक्तस्म मेरुः तशखरिणामिम
॥10.23॥
भावार्थ :
मैं एकादश रुिों में शंकर हाँ और यक्ष तर्ा राक्षसों में धन का स्वामी कुिेर हाँ । मैं आठ वसुओं
में अर्ि हाँ और र्शखरवाले पवथतों में सुमेरु पवथत हाँ ।