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ISSN: 2456-947X, Vol II, Issue I, September-2018

अनघ
(An International Journal of Hindi Language, Literature and Culture)

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सां कृ ितक अवधारणा के अनुवाद क सम याएँ

रिव काश चौबे


शोध छा ,
भाषा, सािह य एवं सं कृ ित अ ययन सं थान
जवाहरलाल नेह िव िव ालय नई द ली- 110067
Email ID: ravipchaubey@gmail.com

शोध-सार – कसी भी स यता के आंकलन म उस देश या थान क सं कृ ित, िवकास तथा कला का िव ेषण होता है । यह िव ेषण तभी संभव है जब िविवध
भाषायी दीवार को अनुवाद के मा यम से िगराया जाए । आज वै ीकरण के इस दौर म अनुवाद एक मह वपूण सां कृ ितक और भौगोिलक सेतु के पम
सािहि यक एवं सां कृ ितक संपदा को िव तार देने का सश मा यम बना आ है । येक समाज क सं कृ ित म कु छ ऐसी िवशेषताएँ होती ह जो
सामा यतया दूसरे कार के समाज म नह पायी जात । ऐसे म यहाँ समुपि थत होता है क या सं कृ ित व उसके िविभ अवधारणा को भाषा तरण
के मा यम से ा याियत कया जा सकता है? या वह सं कृ ित अनुवादोपरा त अपने िनजता को बनाये रख पाएगी? या वह भाषा िजसम सं कृ ित अपने
को अिभ देख पा रही है, उसके थान पर कोई अ य भाषा उसके सदृश ही सारे मापद ड व कसौटी पर खरी उतर पाएगी? इस आलेख म इन सम त
सवाल से जूझने का य कया गया है ।

मूल श द – सं कृ ित, अनुवाद, पर परा, पा ा य, रीित- रवाज, मा यता

I. तावना आयाम और दूसरा भावगत आयाम । सां कृ ितक अवधारणा के


सं कृ ित एवं भाषा का अ यो याि त संबंध है । सां कृ ितक अनुवाद क सम या का संबंध इसी दूसरे भावप से है । जब वह
अवधारणा के िवकास या ा का मापन उसक भाषा के िवकास समाज भी समसामियक न हो तो सम या और भी गहरी हो जाती है।
ारा कया जा सकता है । जब वाता भाषा तरण अथवा अनुवाद क अनुवाद क सफलता के िलये यह आव यक है क अनुवादक मूल
हो तो सबसे बड़ी चुनौती यही है क एक भाव मू य को उसके सहज रचना के देश काल तथा सं कृ ित को पूरी तरह आ मसात कर ले ।
और मौिलक मू य से िबना अलग कए दूसरे भािषक व सां कृ ितक तभी मूल रचना के साथ उसका तादा य हो सकता है । मगर
मू य म कै से परोसा जाए िजससे अनुवाद, अनुवाद न लगकर मौिलक तादा य मा से समूची सम या का समाधान नह हो सकता ।
रचना का अ वादन दे । सम या के दो आयाम ह – एक भािषक भावी अनुवाद के िलये ल य भाषा म उसे ‘समानक ’ क खोज

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करनी पड़ेगी और यह बात हमेशा उसक ितभा और साम य के वश का व प है। अथात हम सभी अपने आप म GOD तथा अ लाह
क बात नह होती। अगर मूल रचना िवदेशी या िवजातीय प रवेश ह-
को लेकर चलने वाली ई तो वह या करे ? िवजातीय प रवेश क स यं जगि म या, जीवो ैव नापरः ।
जीवन-शैली, पव- यौहार, खान-पान, वेश-भूषा, आचार-िवचार, (वेदा तदशन, िमिथलेश पा डेय, पृ. 17)
अनु ान और वैवािहक व था हमारे िलये एकदम अजनबी व छा दो य उपिनषद् भी इस बात को प रपु बनाता है । जब त
े के तु
अप रिचत होग, तो हम उन तमाम चीज को ान क प रिध म कै से को उसके िपता कहते ह क वह िसरजनहार तुम ही हो - तत् वम्
अवत रत कराएं? यह संकट एक आयामी नह है, यह तब भी बना अिस । (छा दो य उप., 6/8/07)
रहता है जब हम अपनी सं कृ ित को कसी िवदेशी सं कृ ित से संब अब ऐसी प रि थित म अनुवाद कहाँ तक समथ अिभ ि को
लोग को अनुवाद के ज रये समझाने का य करते ह । यह ब धा काश म ला सकता है? भारतीय पर परा म अनु ान का िवशेष
ामीण कहावत क तरफ हमको अ सर कराता है क “भस के आगे मह व है । वै दक ऋिष कहता है क दश-पूणमास याग के ारा वग
बीन बजाना” अथात् क यह सम या कसी सीमा तक असमाधानेय को ा करो-दशपूणमासा यां वगकामो यजेत् । (यजुवद ) अब
है । भला जहाँ क सं कृ ित म ऐसी अवधारणाएं नह ह उ हे अनुवाद भला

II. देवी-देवता, धम, िव ास तथा अनु ाना द से संब कै से कु छ बयाँ करवाने मे समथ हो सकता है? ऐसे ब त संग ह िज ह

सां कृ ितक अवधारणाएँ पाद ट पणी दये िबना समझा पाना असंभव है ।

ई र, धम, िव ास, धा मक अनु ान, आचारा द सनातन समय III. वैवािहक-मांगिलक अनु ान एवं रीित- रवाज से संब
से ही मनु य जीवन के अिवभा य अंग रहे ह । भारतवष आ दकाल सां कृ ितक अवधारणाएँ
से ही धम धान देश रहा है । धम तथा इसके ारा िनदिशत, भारतीय सं कृ ित का मूलाधार प रवार है । अ या य समाज क
अनुमो दत आचार- िवचार, अनु ान आ द युग से भारतीय जन अपे ा भारतीय समाज इस बात म भी िविश है क यहाँ धम, दशन,
मानस के रग म िधर सदृश दौड़ रहे ह । िह दू सनातनी धम म 33 वसाय, िश ा, मू य, नैितकता आ द अनेकानेक चीज का वाहक
को ट देवी-देवता क मा यता है । यहाँ के िवचार ा गण म कभी साधन मु यतः प रवार है । प रवार का मूल आधार है- दांप य और
इस बात को लेकर िव ष
े नह होता क आप फलाने देव पूजक ह तो दा प य के मूल म है िववाह । हमारे यहाँ िववाह दो ि य या दो
आप को अ य देव क अराधना करने का अिधकार नह । यहाँ क प रवार का संबंध नह , सम त ब धु-बांधव तथा समूचे समाज का
वैचा रक पृ भूिम ह र अन त ह र कथा अन ता (रामच रतमानस, मामला है । पा ा य पर परा म ऐसी कोई मा यता नह है । ऐसी
बालका ड, 139/05) के भाव से अनु ािणत है । सािहर लुिधयानवी िवषम प रि थित म दूसरी भाषा अनुवाद का चोगा पहन हमारे
जी के श दो म - मू य को या अपने पूण व व म दखा पाने म समथ हो पाएगी?
ई र अ लाह तेरो नाम, सबको स मित दे भगवान ॥ जब क वदुिहता शकु तला अपने पितगृह गमन हेतु उ त होती है तब
[नया रा ता( चलिच 1970) का एक गीत] तापस क व का भी मन उि व िचि तत होकर दुःखसागर म गोता
ईसाई तथा मु लीम परं परा म मशः GOD तथा अ लाह क लगाने हेतु वभावतः बा य हो जाता है । क व कहते ह क जब हम
मा यता है । उ हे यह गंवारा नह क उनका GOD तथा अ लाह ही वनवािसय को पु ी िवदाई वेला म अपार दुःख एवं वेदना क
हमारे िशव िव णु अथवा कोई भी देवता हो सकता है । शंकराचाय अनुभूित हो रही है, वो भी अपनी नह औरस दुिहता के िलये तो
तो और िवषम प रि थित म डाल देते ह, यह कहते ए क जीव ही गृह थ के दुःख क प रक पना कर पाना कहां तक संभव है?
वै ल ं मम तावदीदृशिमदमं ेहादर यौकसः ।

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पी ते गृिहणः कथम् नु तनयािव ेषदुःखैनवैः ॥ भी मामा, ताउ, मौसा, फ़ू फा आ द के अथ को भी मा इस श द से


(अिभ ानशाकु तलम्, राके श शा ी, पृ. 166) ही ा याियत कया जाता है । भोलानाथ ितवारी के मंत म-
भला इस तीित को पा ा य पर परा म अनुवाद कहाँ तक अनुवादक को अंकल श द का अनुवाद करने के पूव उसके अथ से
अनु ािणत कर पाएगी । आज प रि थित जो भी हो, आज भले ही तादा य कर लेना चािहए क वह मामा, ताउ, मौसा, फू फा आ द
हम पु ष-मिहला के समानता क बात करते ह क तु पुरातन कसके अथ हेतु यु आ है । इसी कार किजन दर मौसेरा,
भारतीय पर परा म पित का पि य पर सब कार का भु व चचेरा, ममेरा, फू फे रा कोई भी भाई हो सकता है ।
वीकार कया गया है, जैसा कािलदास कहते ह- (अनुवादिव ान, भोलानाथ ितवारी, पृ. 59)
उपप ा िह दारेषु भुता सवतोमुखी ॥ वा तव म इस कार के ब तेरे संबंध पि म म है ह नह तो
(अिभ ानशाकु तलम्, राके श शा ी, पृ. 204) जािहर है क वहां के जनमानस को इनके अिभ ेत अथ को आ मसात
पित के प रवार म दासता तक को वीकार कया गया है । करने म ब त सारी सम या का सामना करना पड़ सकता है ।
शा गरव शकु तला से कहता है- भारत भले ही भौगोिलक दृि से एक रा है क तु सामािजक,
पितकु ले तव दा यमिप मम् । ऐितहािसक, और सां कृ ितक प र े य म ब त सारी िविवधता को
(अिभ ानशाकु तलम्, राके श शा ी, पृ. 204) अपने भीतर समेटे ए है ।इसके सं कृ ित के िविभ सोपान पे आ ढ़
ऐसी पंथीय पर परा और मजहबी मा यता का बोलबाला ए िबना, उसके मम को समझे िबना अनुवाद ब त मसा य और
पि म समाज म नह है । वहाँ का वैवािहक संबंध भारतीय प र े य क ठन रचना- या बन जाता है। उदाहरणाथ- िमिथलांचल म
से अलग होता है। नारी म वामीभाव तथा दासता आ द क कोई ा ण मांस-मछली खाते ह, जब क शाक ीपीय ा ण म
प रक पना नह ह । ऐसे म अनुवादक िसर फोड़ने के अित र कर मांसाहार व जत है ।िबहार म जीजा-साली के म य हास-प रहास का
भी या सकता है? पगे-पगे उसे पाद ट पणी का ही सहारा लेना र ता चलता है, जब क के रल म भाई-बहन क तरह िलहाज कया
होगा । मांगिलक काय म सदैव हम सव थम अपने अिभ क तुित जाता है । इन सां कृ ितक पहलू के नासमिझय ने जाने-अनजाने
करते ह, नमि या मक अथवा आशीवादा मक मंगलाचरण ायेशः समझ के तर पर ब त ही बेड़ा गक कया है । इसका वल त
सव समुपल ध होता है – उदाहरण हमारे समाज ारा अ क कृ त् जूता और टाई का फै सन है ।
व तु ड महाकाय सूयको ट सम भः । ि टेन क भौगोिलक प रि थित म शीत का अिधक भाव है िजससे
िन व ं कु मे देव सव कायषु सवदा ॥ वहां के लोग शीत से राहत पाने हेतु टाई तथा जूत-े मोजे का योग
(ईश मं । गणेश, अ तजाल से) करते ह क तु य द यही योग गम से तप रहे भारत के दि ण
अपरं च ा तीय लोग कर तो इसे नासमझी का तीक ही मानना उिचत
म गलं भगवान िव णु म गलं ग ण वजः । तीत होता है ।
म गलं पु डरीका ः म गलाय तनो ह रः ॥ भारतीय प र े य म तो खासकर श दाविलय क िवराट अथ-
(म गलाथक मं ) विनयाँ ह। सवनाम और यापद क िविश युि याँ ह। अं ेजी
ऐसी भी सां कृ ितक अवधारणा का अभाव है पि म समाज म का ‘एंगर‘, िह दु तानी म गु सा, ोध, कोप बनकर आता है। पर
अतएव अनुवाद िबना ट पणी कर पाना नाक चने चबाना है अथात् ि थित यह है क अं ेजी म परशुराम भले एं ी हो जाएँ, िह दी मे वे
दु कर काय है । एक उदाहरण को देखते ह- अं ेजी म अंकल श द गु सा नह ह गे, ोिधत ह ग; अं ेजी म भगवान िव णु भले एं ी हो
आता है िजसका ायेशः अथ चाचा िलया जाता है, क तु इससे इतर जाएँ, िह दी म गु सा नह होग, कु िपत ह गे। इस तरह के असं य
उदाहरण िविभ भारतीय भाषा से िलए जा सकते ह। इसी तरह

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हर भाषा- े क सं कृ ित और श द-सं कार का यान रखना भाषायी तर पर ल णा और ंजना का अिभ योग


आव यक है। (अंतरं ग पि का, िसत बर 2013, सपां.- दीप िबहारी, अनुवादकता हेतु सम या का संसार खड़ा कर देता है । ऐसे
पृ.29) प रि थित म एक अ छे अनुवादकम का दािय व बन जाता है क

IV. लोक सािह य, मुहावरे , िविभ िव ास आ द से संब वह के वल मूल रचना का अनुकरण मा न करे बि क अलग अलग
मापद ड को आधार बनाकर वह उस अथ को देश काल के अनु प
सां कृ ितक अवधारणाएँ
पुनज िवत करने का पुरजोर यास करे ।
मनु य के भीतर तक बुि के साथ साथ एक ऐसा मन भी है जो
मुहावरे तथा लोकोि य के अनुवाद म भी अनुवादक को ब त
अता कक और तकातीत बात पर भी िव ास करता है । पीढ़ी दर
सम या होती है । श द के जाल से कोस परे सं कृ ित से तादा य
पीढ़ी से चली आ रही मा यता को, िविभ िव ास को लोग आज
रखते ए उसको भावानुवाद से गु्ज़रना होता है । कितपय उदाहरण
भी उसी िश त से पनाह दये ये ह। इसम वै ािनक आवरण हो या
ह-
न हो इसक परवाह नह । इनक एक अिविछ पर परा है । लोक
1) को का बैल ।
सािह य व तुतः लोकमन क ही अिभ ि होता है । समूची कृ ित
2) मुँह काला करना ।
उसके सुख-दुःख म सि मिलत होती है। िववाह जैसा कृ य िजसम
3) नीम हक म खतर-ए-जान ।
समूची कृ ित आमंि त होती है, उसक समृि ही लोक के उ लास
4) कह बूढ़े तोते भी पढ़ते है । (Can you teach an old
का कारक होती है । ऐसे म कृ ित क िवप ता लोक क िच ता का
woman to dance?)
कारण है, य क ऐसे म बेटी का िववाह संभव नह होगा । लोक
5) आँख चार होना । इ या द
गीत क इन पंि य म यह िच ता मुख रत और अिभ हो रही
अभी अथ या अिभ ेत अथ को समझने के िलये अनेक िनयामक
है-
हेतु या आधार होते ह । अनुवादक को इन िनयामक हेतु या आधार
सूिख गईले ताल रे , सूिख गईले पोखर
से भली-भाँित प रिचत होना चािहए । हर सं कृ ित क कु छ अपनी
कमल गईले कु ि हलाय ।
िवशेषताएं होती ह, अतः उन िवशेषता के अनु प, उस सं कृ ित
गंगा जमुना बीचे रे त जे पिड़ गईले
क भाषा म कु छ िविश श द व अिभ ि याँ होती ह । ऐसे श द
कईसे होई गउरा के िबआह ॥
व अिभ ि याँ ायेशः अपने पैनेपन के साथ अनु दत नह हो पात
(सािह य और सं कृ ित मे पयावरणीय संवद
े ना, नरे नाथ संह, पृ.
। उदाहरणाथ,
73)
“अंगद का पैर, दधीिच क ह ी, ोपदी का चीर, भी म ित ा, सोने
यहाँ व णत ‘गउरा’ श द पावती का नह अिपतु सम त
क लंका आ द ऐसी ही अिभ ि याँ ह जो शैली मे िजतना आकषक
अिववािहत क या का ितिनिध व कर रहा है, ऐसे म अनुवाद एक
पैनापन ला देती ह, अनुवाद म उतनी ही दु ह और ायः अननुवादेय
क सा य या है । तुलसीदास जब कहते ह क सम त संसार को
ह “। (अनुवादिव ान, भोलानाथ ितवारी, पृ . 152)
वे सीताराममय देख रहे ह तो उनका अिभ ाय दशरथ पु राम व
रवी नाथ ठाकु र क िस कहानी “काबुिलवाला” म लड़क
जनक दुिहता सीता से नह है अिपतु उनका ईशारा उस परमिपता
िववाह के समय चेली व (बंगाल का पहनावा िजसम िववािहता
परमे र क तरफ है ।
पूरे शरीर पर एक रे शमी साड़ी पहने रहती है) धारण कये ए है।
सीय राम म सब जग जानी । कर ँ नाम जो र जुग पानी ।
भला इस पहनावे का अनुवाद संभव है? इसी कार चावल के दान
(रामच रतमानस, बालका ड. 17/02)
और अ त म सां कृ ितक दृि से बुिनयादी भेद है। एक समान
दृि ग य होनेवाले पदाथ का अनुवाद एक समान नह कया जा

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सकता । सम या क इित ी यह नह हो जाती । ब त ऐसे श द ह स दभ थसूची


िजनका एक भाषा म अलग अथ तो दूसरी भाषा म अलग । उदाहरण
के तौर पर, हंदी म ’चाचा नेह ’ कहते ह, क तु चाचा का मलयालम  रामच रतमानस, गो वामी तुलसीदास, गीता ेस

सं कृ ित मे उतना आदरपूण थान नह है । इसीिलये ’चाचा नेह ’ गोरखपुर, 2013.

को मलयालम म ’मामा नेह ’ कहते ह ।  सदान दयोगी , वेदा तसार, ा.- पा डेय, िमिथलेश.

संत गु रिवदास ने जीवन के कई प के साथ साथ अ या म को राधा पि लके श स, नई द ली, 2009.

अपनी किवता का िवषय बनाया है । वे िलखते ह -  ईशा द नौ उपिनषद्, गीता ेस गोरखपुर, 2011.

ऐसे त म येक प है माधो, आपण ही िनरव रयै ।  कािलदास, अिभ ानशाकु तलम्, ा.- शा ी, राके श एवं

(रिवदास क किवता, अनुवाद पि का, जनवरी 2014, पृ. 24) ितमा. सं कृ त थागार, द ली, 2015.

माधो एक ऐसा श द है िजसम धा मक, दाशिनक और सां कृ ितक  ितवारी, भोलानाथ. अनुवाद िव ान, कताब महल,

भंिगमाएँ ह । यह श द कृ ण के अथ के इतर सखा, परमा मा आ द द रयागंज नई द ली, 2005.

के भाव को भी अपने भीतर समािहत कये ये है । अं ेजी म इस  िबहारी, दीप. अंतरंग पि का, िसत बर 2013, चतुरंग

कार के कोई पयायवाची श द नह । (रिवदास क किवता, अनुवाद काशन, बेगूसराय.

पि का, जनवरी 2014, पृ. 24)  संह, नरे नाथ. सािह य और सं कृ ित मे पयावरणीय

उपसंहार संवेदना. अनंग काशन, द ली, 2010.

येक देश क सं कृ ित उसक स यता उसके रीित- रवाज ायः  सैनी, नरे . अनुवाद पि का, जनवरी 2014, भारतीय

एक दूसरे से पृथक् ह िज हे के वल उनक भाषा ही अिभ व अनुवाद प रषद, द ली.

दयंगम कराने मे सहायक होती है ।सां कृ ितक स दभ के िविवध  https://www.bhaktibharat.com/.../vakratunda-

आयाम का अनुवाद न िसफ़ अ य त संि है, बि क एक सीमा के mahakaya-ganesh-shl. अ तजाल से गृहीत।

बाद असंभव हो जाता है ।जनेउ, खड़ाउँ , य ोपवीत, छठी का दूध,


िस दूरदान, ह दहाथ, गाल सेकाई, क यादान, दान के बिछया के दाँत
नह िगने जाते, एक तो भीख,वो भी पछोर-पछोर जैसे हजार श द
ह जो दूसरे सं कृ ित मे िव मान नह अत एब अननुनद ह ।
सारांशतः आज के ज टल और िमि त पयवि थित से भरे-पूरे
सामािजक प रदृ य म अनुवाद अ ययन क िश ा-प ित िवकिसत
करने हेतु यह यान हर समय रखना होगा क मूल पाठ के वाचक एवं
िवषय, वाचक और िवषय के उ े य, भाषा े , प रवेश, सं कृ ित,
भाषा िव ान, लोक- युि , िवषय क स वेदनशीलता के म ेनजर
ही कोई अनुवादक या अनुवादक-िच तक अपने को ल य भाषा के
िलए तैयार करे और अनुवाद क को ट तय करे ।

रिव काश चौबे 17

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