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सांस्कृतिक अवधारणाओं के अनुवाद की समस्याएँ
सांस्कृतिक अवधारणाओं के अनुवाद की समस्याएँ
सांस्कृतिक अवधारणाओं के अनुवाद की समस्याएँ
अनघ
(An International Journal of Hindi Language, Literature and Culture)
शोध-सार – कसी भी स यता के आंकलन म उस देश या थान क सं कृ ित, िवकास तथा कला का िव ेषण होता है । यह िव ेषण तभी संभव है जब िविवध
भाषायी दीवार को अनुवाद के मा यम से िगराया जाए । आज वै ीकरण के इस दौर म अनुवाद एक मह वपूण सां कृ ितक और भौगोिलक सेतु के पम
सािहि यक एवं सां कृ ितक संपदा को िव तार देने का सश मा यम बना आ है । येक समाज क सं कृ ित म कु छ ऐसी िवशेषताएँ होती ह जो
सामा यतया दूसरे कार के समाज म नह पायी जात । ऐसे म यहाँ समुपि थत होता है क या सं कृ ित व उसके िविभ अवधारणा को भाषा तरण
के मा यम से ा याियत कया जा सकता है? या वह सं कृ ित अनुवादोपरा त अपने िनजता को बनाये रख पाएगी? या वह भाषा िजसम सं कृ ित अपने
को अिभ देख पा रही है, उसके थान पर कोई अ य भाषा उसके सदृश ही सारे मापद ड व कसौटी पर खरी उतर पाएगी? इस आलेख म इन सम त
सवाल से जूझने का य कया गया है ।
करनी पड़ेगी और यह बात हमेशा उसक ितभा और साम य के वश का व प है। अथात हम सभी अपने आप म GOD तथा अ लाह
क बात नह होती। अगर मूल रचना िवदेशी या िवजातीय प रवेश ह-
को लेकर चलने वाली ई तो वह या करे ? िवजातीय प रवेश क स यं जगि म या, जीवो ैव नापरः ।
जीवन-शैली, पव- यौहार, खान-पान, वेश-भूषा, आचार-िवचार, (वेदा तदशन, िमिथलेश पा डेय, पृ. 17)
अनु ान और वैवािहक व था हमारे िलये एकदम अजनबी व छा दो य उपिनषद् भी इस बात को प रपु बनाता है । जब त
े के तु
अप रिचत होग, तो हम उन तमाम चीज को ान क प रिध म कै से को उसके िपता कहते ह क वह िसरजनहार तुम ही हो - तत् वम्
अवत रत कराएं? यह संकट एक आयामी नह है, यह तब भी बना अिस । (छा दो य उप., 6/8/07)
रहता है जब हम अपनी सं कृ ित को कसी िवदेशी सं कृ ित से संब अब ऐसी प रि थित म अनुवाद कहाँ तक समथ अिभ ि को
लोग को अनुवाद के ज रये समझाने का य करते ह । यह ब धा काश म ला सकता है? भारतीय पर परा म अनु ान का िवशेष
ामीण कहावत क तरफ हमको अ सर कराता है क “भस के आगे मह व है । वै दक ऋिष कहता है क दश-पूणमास याग के ारा वग
बीन बजाना” अथात् क यह सम या कसी सीमा तक असमाधानेय को ा करो-दशपूणमासा यां वगकामो यजेत् । (यजुवद ) अब
है । भला जहाँ क सं कृ ित म ऐसी अवधारणाएं नह ह उ हे अनुवाद भला
II. देवी-देवता, धम, िव ास तथा अनु ाना द से संब कै से कु छ बयाँ करवाने मे समथ हो सकता है? ऐसे ब त संग ह िज ह
सां कृ ितक अवधारणाएँ पाद ट पणी दये िबना समझा पाना असंभव है ।
ई र, धम, िव ास, धा मक अनु ान, आचारा द सनातन समय III. वैवािहक-मांगिलक अनु ान एवं रीित- रवाज से संब
से ही मनु य जीवन के अिवभा य अंग रहे ह । भारतवष आ दकाल सां कृ ितक अवधारणाएँ
से ही धम धान देश रहा है । धम तथा इसके ारा िनदिशत, भारतीय सं कृ ित का मूलाधार प रवार है । अ या य समाज क
अनुमो दत आचार- िवचार, अनु ान आ द युग से भारतीय जन अपे ा भारतीय समाज इस बात म भी िविश है क यहाँ धम, दशन,
मानस के रग म िधर सदृश दौड़ रहे ह । िह दू सनातनी धम म 33 वसाय, िश ा, मू य, नैितकता आ द अनेकानेक चीज का वाहक
को ट देवी-देवता क मा यता है । यहाँ के िवचार ा गण म कभी साधन मु यतः प रवार है । प रवार का मूल आधार है- दांप य और
इस बात को लेकर िव ष
े नह होता क आप फलाने देव पूजक ह तो दा प य के मूल म है िववाह । हमारे यहाँ िववाह दो ि य या दो
आप को अ य देव क अराधना करने का अिधकार नह । यहाँ क प रवार का संबंध नह , सम त ब धु-बांधव तथा समूचे समाज का
वैचा रक पृ भूिम ह र अन त ह र कथा अन ता (रामच रतमानस, मामला है । पा ा य पर परा म ऐसी कोई मा यता नह है । ऐसी
बालका ड, 139/05) के भाव से अनु ािणत है । सािहर लुिधयानवी िवषम प रि थित म दूसरी भाषा अनुवाद का चोगा पहन हमारे
जी के श दो म - मू य को या अपने पूण व व म दखा पाने म समथ हो पाएगी?
ई र अ लाह तेरो नाम, सबको स मित दे भगवान ॥ जब क वदुिहता शकु तला अपने पितगृह गमन हेतु उ त होती है तब
[नया रा ता( चलिच 1970) का एक गीत] तापस क व का भी मन उि व िचि तत होकर दुःखसागर म गोता
ईसाई तथा मु लीम परं परा म मशः GOD तथा अ लाह क लगाने हेतु वभावतः बा य हो जाता है । क व कहते ह क जब हम
मा यता है । उ हे यह गंवारा नह क उनका GOD तथा अ लाह ही वनवािसय को पु ी िवदाई वेला म अपार दुःख एवं वेदना क
हमारे िशव िव णु अथवा कोई भी देवता हो सकता है । शंकराचाय अनुभूित हो रही है, वो भी अपनी नह औरस दुिहता के िलये तो
तो और िवषम प रि थित म डाल देते ह, यह कहते ए क जीव ही गृह थ के दुःख क प रक पना कर पाना कहां तक संभव है?
वै ल ं मम तावदीदृशिमदमं ेहादर यौकसः ।
IV. लोक सािह य, मुहावरे , िविभ िव ास आ द से संब वह के वल मूल रचना का अनुकरण मा न करे बि क अलग अलग
मापद ड को आधार बनाकर वह उस अथ को देश काल के अनु प
सां कृ ितक अवधारणाएँ
पुनज िवत करने का पुरजोर यास करे ।
मनु य के भीतर तक बुि के साथ साथ एक ऐसा मन भी है जो
मुहावरे तथा लोकोि य के अनुवाद म भी अनुवादक को ब त
अता कक और तकातीत बात पर भी िव ास करता है । पीढ़ी दर
सम या होती है । श द के जाल से कोस परे सं कृ ित से तादा य
पीढ़ी से चली आ रही मा यता को, िविभ िव ास को लोग आज
रखते ए उसको भावानुवाद से गु्ज़रना होता है । कितपय उदाहरण
भी उसी िश त से पनाह दये ये ह। इसम वै ािनक आवरण हो या
ह-
न हो इसक परवाह नह । इनक एक अिविछ पर परा है । लोक
1) को का बैल ।
सािह य व तुतः लोकमन क ही अिभ ि होता है । समूची कृ ित
2) मुँह काला करना ।
उसके सुख-दुःख म सि मिलत होती है। िववाह जैसा कृ य िजसम
3) नीम हक म खतर-ए-जान ।
समूची कृ ित आमंि त होती है, उसक समृि ही लोक के उ लास
4) कह बूढ़े तोते भी पढ़ते है । (Can you teach an old
का कारक होती है । ऐसे म कृ ित क िवप ता लोक क िच ता का
woman to dance?)
कारण है, य क ऐसे म बेटी का िववाह संभव नह होगा । लोक
5) आँख चार होना । इ या द
गीत क इन पंि य म यह िच ता मुख रत और अिभ हो रही
अभी अथ या अिभ ेत अथ को समझने के िलये अनेक िनयामक
है-
हेतु या आधार होते ह । अनुवादक को इन िनयामक हेतु या आधार
सूिख गईले ताल रे , सूिख गईले पोखर
से भली-भाँित प रिचत होना चािहए । हर सं कृ ित क कु छ अपनी
कमल गईले कु ि हलाय ।
िवशेषताएं होती ह, अतः उन िवशेषता के अनु प, उस सं कृ ित
गंगा जमुना बीचे रे त जे पिड़ गईले
क भाषा म कु छ िविश श द व अिभ ि याँ होती ह । ऐसे श द
कईसे होई गउरा के िबआह ॥
व अिभ ि याँ ायेशः अपने पैनेपन के साथ अनु दत नह हो पात
(सािह य और सं कृ ित मे पयावरणीय संवद
े ना, नरे नाथ संह, पृ.
। उदाहरणाथ,
73)
“अंगद का पैर, दधीिच क ह ी, ोपदी का चीर, भी म ित ा, सोने
यहाँ व णत ‘गउरा’ श द पावती का नह अिपतु सम त
क लंका आ द ऐसी ही अिभ ि याँ ह जो शैली मे िजतना आकषक
अिववािहत क या का ितिनिध व कर रहा है, ऐसे म अनुवाद एक
पैनापन ला देती ह, अनुवाद म उतनी ही दु ह और ायः अननुवादेय
क सा य या है । तुलसीदास जब कहते ह क सम त संसार को
ह “। (अनुवादिव ान, भोलानाथ ितवारी, पृ . 152)
वे सीताराममय देख रहे ह तो उनका अिभ ाय दशरथ पु राम व
रवी नाथ ठाकु र क िस कहानी “काबुिलवाला” म लड़क
जनक दुिहता सीता से नह है अिपतु उनका ईशारा उस परमिपता
िववाह के समय चेली व (बंगाल का पहनावा िजसम िववािहता
परमे र क तरफ है ।
पूरे शरीर पर एक रे शमी साड़ी पहने रहती है) धारण कये ए है।
सीय राम म सब जग जानी । कर ँ नाम जो र जुग पानी ।
भला इस पहनावे का अनुवाद संभव है? इसी कार चावल के दान
(रामच रतमानस, बालका ड. 17/02)
और अ त म सां कृ ितक दृि से बुिनयादी भेद है। एक समान
दृि ग य होनेवाले पदाथ का अनुवाद एक समान नह कया जा
को मलयालम म ’मामा नेह ’ कहते ह । सदान दयोगी , वेदा तसार, ा.- पा डेय, िमिथलेश.
अपनी किवता का िवषय बनाया है । वे िलखते ह - ईशा द नौ उपिनषद्, गीता ेस गोरखपुर, 2011.
ऐसे त म येक प है माधो, आपण ही िनरव रयै । कािलदास, अिभ ानशाकु तलम्, ा.- शा ी, राके श एवं
(रिवदास क किवता, अनुवाद पि का, जनवरी 2014, पृ. 24) ितमा. सं कृ त थागार, द ली, 2015.
माधो एक ऐसा श द है िजसम धा मक, दाशिनक और सां कृ ितक ितवारी, भोलानाथ. अनुवाद िव ान, कताब महल,
के भाव को भी अपने भीतर समािहत कये ये है । अं ेजी म इस िबहारी, दीप. अंतरंग पि का, िसत बर 2013, चतुरंग
पि का, जनवरी 2014, पृ. 24) संह, नरे नाथ. सािह य और सं कृ ित मे पयावरणीय
येक देश क सं कृ ित उसक स यता उसके रीित- रवाज ायः सैनी, नरे . अनुवाद पि का, जनवरी 2014, भारतीय