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स्नेह-शपथ

भवानीप्रसाद मिश्र

हो दोस्त या मि वह दु श्मन हो,


हो परिमित या परििय मवहीन;
तुि मिसे सिझते िहे बडा
या मिसे िानते िहे दीन;
यमद िभी मिसी िािण से
उसिे यश पि उडती मदखे धू ल,
तो सख्त बात िह उठने िी
िे , तेिे हाथोों हो न भूल।
ित िहो मि वह ऐसा ही था,
ित िहो मि इसिे सौ गवाह;
यमद सििु ि ही वह मिसल गया
या पिडी उसने गलत िाह -
तो सख्त बात से नहीों, स्ने ह से
िाि ििा ले िि दे खो;
अपने अोंति िा नेह अिे ,
दे िि दे खो।

मितने भी गहिे िहें गतत ,


हि िगह प्याि िा सिता है ;
मितना भी भ्रष्ट ििाना हो,
हि सिय प्याि भा सिता है ;
िो मगिे हुए िो उठा सिे
इससे प्यािा िुछ ितन नहीों,
दे प्याि उठा पाए न मिसे
इतना गहिा िुछ पतन नहीों।
दे खे से प्याि भिी आँ खें
दु स्साहस पीले होते हैं
हि एि धृ ष्टता िे िपोल
आँ सू से गीले होते हैं ।
तो सख्त बात से नहीों
स्नेह से िाि ििा ले िि दे खो,
अपने अोंति िा नेह
अिे , दे िि दे खो।

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