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ि ि यन जैरेट
बीबीसी यूचर
13 जनवरी 2019
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आं खों की गु ािख़यां माफ़ हों... एकटक तु दे खती ह... जो बात कहना चाहे ज़ुबां... तुमसे ये वो कहती
ह...
आप सब को यक़ीनन ऐसा तजुबा आ होगा िक भीड़ भरे कमरे म अचानक िकसी के आं ख टकरा गईं और पता
चला िक वो इं सान एकटक आप को दे ख रहा है .
ये मंज़र िकसी िफ़ का भले लगे, पर असल दु िनया म भी हम सब इस तजुब से गुज़रते ह. और नज़र चार होते
है , आस-पास की दु िनया धुंधली हो जाती ह.
साफ़ िदखती है , तो वो नज़र, जो आपकी आं खों से टकराई है . ऐसा लगता है िक िजन लोगों के नैना लड़े ह, वो
कुछ पलों के िलए ज़हनी तौर पर एक-दू सरे से जुड़ गए.
नैनों का टकराना हमेशा अ ा ही हो, ये ज़ री है . आिख़र किव ये भी तो कहता है िक... नैनों की मत मािनयो
रे ... नैना ठग लगे...
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िकसी की िनगाह...
पर, यक़ीन जािनए, आं खों-आं खों म बात होना हमेशा अहम तजुबा होता है . हम कई बार नज़र टकराने के बाद
िकसी के बारे म कोई राय क़ायम कर लेते ह.
ये सोचते ह िक जो श आं खों के सामने है , उसने ब त कुछ छु पा रखा है . मज़े की बात ये िक हम लगातार
िकसी का दे खे जाना भी चुभता है .
पर, भीड़ के बीच से गुज़रते ए अगर िकसी की िनगाह आप पर न पड़े , तो ब त ख़राब लगता है .
आं खों-आं खों म बातों के बारे म हम इतना कुछ हम अपने रोज़मरा के तजुब से जानते ह. वै ािनकों ने इसके
आगे की भी रसच की है .
ख़ास तौर से मनोवै ािनकों और तंि का िव ान के िवशेष ों यानी ूरोसाइं िट ने भी इस बारे म कई तजुब िकए
ह.
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गहरे राज़
ये सभी इस नतीजे पर प ं चे ह िक आं खों के टकराने के बाद होने वाला संवाद ब त ताक़तवर होता है . इसम कई
गहरे राज़ छु पे हो सकते ह.
लोग िकसी से नज़र टकराने के बाद अपने बारे म अनजाने म ब त कुछ बता जाते ह. दू सरों के बारे म सोच
डालते ह.
मसलन, घूरती ई आं ख अ र हमारा ान खींच लेती ह. उनकी तरफ़ दे खते ए हम आस-पास की बाक़ी बातों
की अनदे खी कर दे ते ह.
िकसी की घूरती िनगाहों से हमारी नज़र टकराती ह, तो हमारे ज़हन म एक साथ ब त से ख़याल आते ह. हम उस
इं सान के बारे म ादा सोचने लगते ह.
इस तरह से हम ख़ुद के बारे म भी ादा सजग हो जाते ह. आप अगर िकसी बंदर, गो र ा, या िचंपजी से नज़र
टकराने के बाद इस बात को और गहराई से महसूस करगे.
कई बार तो िकसी पिटं ग की आं खों से आं ख टकराने पर ऐसा लगता है िक वो पिटं ग हमारे िकरदार की समी ा
कर रही है . हमारे ज़हन म ख़यालों की सुनामी आ जाती है .
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याददा पर भी असर
हम अपने बारे म सजग हो जाते ह. हम िकसी और की िदलच ी के क म ह, ये जानते ही हमारा िदमाग़ चौक ा
हो जाता है . इससे हमारा ान भटक जाता है .
आपने मानी उप ासों से लेकर िफ़ ों तक म ये पढ़ा, सुना या दे खा होगा िक िकसी से नज़र टकराने के बाद
कोई घबरा गया. जो काम कर रहा था वो भूल गया.
ऐसा, असल म इसिलए होता है िक िकसी से िनगाह चार होने के बाद हम िजस काम म लगे होते ह, उससे हमारा
ान भंग हो जाता है .
कई बार इ हान म ऐसा होता है , तो वै ािनक इसके िलए ब ों को नज़र फेर लेने की सलाह दे ते ह.
िमिलए ऐसे शेफ़ से जो इं सान नही ं रोबोट है
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गंभीर िक़ का इं सान
ब त ादा नज़र टकराना दू सरों को असहज बना दे ता है . जो घूरते ह, वो िचपकू मालूम होते ह. आं ख िमलने
पर, हमारे िदमाग़ म एक साथ ढे र सारी ि याएं चलने लगती ह.
हम दू सरों के बारे म राय क़ायम करने लगते ह. जो लोग आं ख िमलाकर बात करते ह, हम उ ादा बु मान,
ईमानदार और गंभीर िक़ का इं सान मानते ह.
उनकी बातों पर भरोसा करने का िदल करता है . लेिकन, ब त ादा नज़र लड़ाना हम असहज भी बना दे ता है .
अगर िकसी की घूरने की आदत है , तो वो भी हम परे शान करता है . हम िकसी को दे ख रहे ह और अचानक
उससे नज़र टकरा जाए, तो वो हम पर गहरा असर डालती है .
भीड़ म ऐसा होने का मतलब हमारा िदमाग़ ये लगाता है िक हम दे खने वाला उस भीड़ भरे िठकाने म भी हम म
िदलच ी रखता है .
वो त ीर जो अंत र को जीवंत कर दे ती ह
एक-दू सरे को लगातार दे खने पर हमारी आं खों की पुतिलयां भी साथ ही चलने लगती ह. मानों आं ख एक दू सरे के
साथ टगो कर रही हों.
हालां िक कुछ मनोवै ािनक इस बात से इ ेफ़ाक़ नहीं रखते. अगर आप को दे खकर िकसी की आं ख फैल जाती
ह, तो बदले म आप की आं खों की पुतिलयां भी फैल जाती ह.
िकसी की आं खों म गहराई से झां कने पर केवल उसकी पुतिलयां ही नहीं संदेश दे तीं.
1960 के दशक म मनोवै ािनकों ने पाया था िक जब हम उ ेिजत होते ह, तो हमारी आं ख फैल जाती ह. ये
उ ेजना बौ क भी हो सकती है और शारी रक भी.
इितहास गवाह है िक मद का ान खींचने के िलए ाचीन काल म मिहलाएं अपनी आं खों को डाइलेट करती थीं,
यानी उ चौड़ा करने के जतन करती थीं.
इसके िलए एक पौधे का अक़ इ ेमाल होता था, िजसे हम आज बेलाडोना के नाम से जानते ह.
एक हािलया रसच बताती है िक हम आं खों की पेिशयों की हलचल से ब त से संवाद कर लेते ह. सामने वाले की
ब त सी बात जान लेते ह.
जैसे की आं खों ही आं खों म हम िदलच ी, ग़ु े, नफ़रत या मुह त का इज़हार कर लेते ह. नज़र हमारे ज बातों
का पैग़ाम बड़ी मु ैदी से प ं चा दे ती ह.
आं ख़ों की पुतिलयों के इद-िगद की मां सपेिशयां भी कई बार इज़हार-ए-ज बात करती ह. युवाव था म इनके
ज़ रए सामने वाले को संदेश दे ने का काम आसानी से हो जाता है .
तो, साहब हमारे जो शायर, किव और नग़मािनगार ये कहते आए ह िक आं ख भी होती ह िदल की ज़ुबां , तो इस म
कुछ भी ग़लत नहीं.
इसके ज़ रए आप िकसी इं सान का ज़हन छू रहे होते ह. ये आं ख दे खकर लोग यूं ही सारी दु िनया नहीं भूल जाते.
िकसी अजनबी से आं ख चार होते ही इ हो जाए... तो, उससे किहएगा... आं खों की गु ािख़यां माफ़ हों.
(बीबीसी यूचर पर इस लेख को पढ़ने के िलए यहां क कर. बीबीसी यूचर को आपफ़ेसबुक और
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