You are on page 1of 11

मु ानकोश िविकपीिडया से
इ (या इं ) िह दू धम म सभी दे वताओं के राजा का सबसे उ पद था[1]
िजसकी एक अलग ही चुनाव-प ित थी। इस चुनाव प ित के िवषय म
वणन उपल नहीं है । वैिदक सािह मइ को सव मह ा ा
है लेिकन पौरािणक सािह म इनकी मह ा िनर र ीण होती गयी और
ि दे वों की े ता थािपत हो गयी।

अनु म
ऋ ेद म इ
आकार- कार
महाबलशाली
र क एवं सहायक
अनेक सृि -काय का स ादक
इ के वीरकम
सोमपानक ा
पूजनीय

वृ -वध पर कुछ म
दे व-यु :इ और व ण
आ - ान िवषयक कथा ऐरावत पर सवार इ हाथ म व धारण िकए ए
पौरािणक मत (सोमनाथपुर, लगभग १२६५ ई.)
दु वासा के शाप की कथा

रामायण म इ
इ -अह ा संग
कथा

महाभारत म इ
इ एक 'पद' का नाम
अवांतर कथा
जैन धम म इ
बौ धम म इ
अ स ताओं म इ
स भ

ऋ ेद म इ
ऋ ेद के लगभग एक-चौथाई सू इ से स त ह। 250 सू ों के अित र 50 से अिधक म ों म उसका वन ा होता है ।[2] वह
ऋ ेद का सवािधक लोकि य और मह पूण दे वता है । उसे आय का रा ीय दे वता भी कह सकते ह।[3] मु प से वह वषा का दे वता है जो
िक अनावृि अथवा अ कार पी दै से यु करता है तथा अव जल को अथवा काश को िविनमु बना दे ता है ।[4] वह गौण प से
आय का यु -दे वता भी है , जो आिदवािसयों के साथ यु म उन आय की सहायता करता है । इ का मानवाकृित पेण िच ण दशनीय है ।
उसके िवशाल शरीर, शीष भुजाओं और बड़े उदर का ब धा उ ेख ा होता है ।[5] उसके अधरों और जबड़ों का भी वणन िमलता है ।[6]
उसका वण ह रत् है । उसके केश और दाढ़ी भी ह र णा है ।[7] वह े ा से िविवध प धारण कर सकता है ।[8] ऋ ेद इ के ज पर भी
काश डालता है । पूरे दो सू इ के ज से ही स त ह।[9] ‘िनि ी’ अथवा ‘शवसी’ नामक गाय को उसकी माँ बतलाया गया है ।[10]
उसके िपता ‘ ौः’ या ‘ ा’ ह।[11] एक थल पर उसे ‘सोम’ से उ कहा गया है । उसके ज के समय ावा-पृ ी काँ प उठी थी। इ के ज
को िवद् युत् के मेघ-िव ुत होने का तीक माना जा सकता है ।[12]

इ के सगे-स यों का संि िववरण इस कार है । अि और पूषन् उसके भाई ह।[13] इसी कार इ ाणी उसकी प ी[14] है । संभवतः
'इ ाणी' नाम पर रत प से पु ष (पित) के नाम का ीवाची बनाने से ही है [15] मूल नाम कुछ और ('शची')[16] हो सकता है । म ण
उसके िम तथा सहायक ह। उसे व ण, वायु, सोम, बृह ित, पूषन् और िव ु के साथ यु प म भी क त िकया गया है तीन चार सू ों म
वह सूय का ित प है ।[17]

इ एक वृहदाकार दे वता है । उसका शरीर पृ ी के िव ार से कम से कम दस गुना है । वह सवािधक श मान् है । इसीिलए वह स ूण जगत्


का एक मा शासक और िनय ा है । उसके िविवध िव द शचीपित (=श का ामी), शत तु (=सौ श यों वाला) और श
(=श शाली), आिद उसकी िवपुला श के ही काशक ह।

सोमरस इ का परम ि य पेय है । वह िवकट प से सोमरस का पान करता है । उससे उसे ू ित िमलती है । वृ के साथ यु के अवसर पर पूरे
तीन सरोवरों को उसने पीकर सोम-रिहत कर िदया था। दशम म ल के 119व सू म सोम पीकर मदिव ल बने ए गत भाषण के पम
अपने वीर-कम और श का अह तापूवक वणन करते ए इ को दे खा जा सकता है । सोम के ित िवशेष आ ह के कारण ही उसे सोम
का अिभषव करने वाले अथवा उसे पकाने वाले यजमान का र क बतलाया गया है ।

इ का िस आयुध ‘व ’ है , िजसे िक िवद् युत्- हार से अिभ माना जा सकता है । इ के व का िनमाण ‘ ा’ नामक दे वता-िवशेष ारा
िकया गया था। इ को कभी-कभी धनुष-बाण और अंकुश से यु भी बतलाया गया है । उसका रथ णाभ है । दो ह रत् वण अ ों ारा वािहत
उस रथ का िनमाण दे व-िश ी ऋभुओं ारा िकया गया था।

इ कृत वृ -वध ऋ ेद म ब धा और ब शः विणत और उ खत है । सोम की मादकता से उ े रत हो, ायः म णों के साथ, वह ‘वृ ’
अथवा ‘अिह’ नामक दै ों (= ायः अनावृि और अकाल के तीक) पर आ मण करके अपने व से उनका वध कर डालता है और पवत को
भेद कर ब ीकृत गायों के समान अव जलों को िविनमु कर दे ता है । उ दै ों का आवास- थल ‘पवत’ मेघों के अित र कुछ नहीं है ,
िजनका भेदन वह जल-िवमोचन हे तु करता है । इसी कार गायों को अव कर रखने वाली र-िशलाएँ भी जल-िनरोधक मेघ ही ह।[18] मेघ
ही वे ासाद भी ह िजनम पूव दै िनवास करते ह। इन ासादों की सं ा कहीं 90, कहीं 99 तो कहीं 100 बतलाई गई है , िजनका िव ंस
करके इ ‘पुरिभद् ’ िव द धारण करता है । वृ या अिह के वधपूवक जल-िवमोचन के साथ-साथ काश के अनव बना िदये जाने की बात भी
ब धा विणत है । उस वृ या अिह को मार कर इ सूय को सबके िलये ि गोचर बना दे ता है । यहाँ पर उ वृ या अिह से अिभ ाय या तो सूय
काश के अवरोधक मेघ से है , या िफर िनशाकािलक अ कार से। सूय और उषस् के साथ िजन गायों का उ ेख िमलता है , वे ातः कािलक
सूय की िकरणों का ही ित प ह, जो िक अपने कृ ाभ आवास- थल से बाहर िनकलती ह। इस कार इ का गोपपित भी सु कट हो जाता
है । वृ और अिह के वध के अित र अ अनेक उपा ान भी इ के स म उपल होते ह। ‘सरमा’ की सहायता से उसने ‘पिण’ नामक
दै ों ारा ब ी बनाई गई गायों को छीन िलया था। ‘उषस्’ के रथ का िव ंस, सूय के रथ के एक च की चोरी, सोम-िवजय आिद उपा ान भी
ा ह।

इ ने क ायमान भूतल और चलायमान पवतों को थर बनाया है । चमड़े के समान उसने ावापृिथवी को फैला कर रख िदया है । िजस कार
एक धुरी से दोनों पिहये िनकाल िदये जायँ, उसी कार उसने द् युलोक और पृ ी को पृथक् कर िदया है । इ बड़े उ भाव का है । ग की
शा को भंग करने वाला वही एकमा दे वता है । अनेक दे वताओं से उसने यु िकया। उषस् के रथ को उसने भंग िकया, सूय के रथ का एक
च उसने चुराया, अपने अनुयायी म तों को उसने मार डालने की धमकी दी। अपने िपता ‘ ा’ को उसने मार ही डाला। अनेक दै ों को भी
उसने परािजत और िवन िकया, िजसम से वृ , अिह, श र, रौिहण के अित र उरण िव प, अबुद, बल, ंश और नमुिच मुख ह। आय
के श ुभूत दासों अथवा द ुओं को भी उसने यु ों म पराभूत िकया। कम से कम 50000 अनाय का िवनाश उसके ारा िकया गया।

इ अपने पूजकों का सदा र क, सहायक और िम रहा है । वह द ुओं को ब ी बना कर उनकी भूिम आिद अपने भ ों म िवभ कर दे ता
है । आ ित दाता को वह धन-स ि से मालामाल कर दे ता है । उसकी इस दानशीलता के कारण ही उसकी उपािध ‘मघवन्’ (=ऐ यवान्) की
साथकता है । इ का अनेक ऐितहािसक पु षों से भी साहचय उ खत है । उसकी ही सहायता से िदवोदास ने अपने दास-श ु तथा कुिलतर के
पु ‘श र’ को परािजत िकया। ‘तुवश’ और ‘यदु ’ दोनों को निदयों के पार उस इ ने ही प ँ चाया। दस नृपितयों के िव यु म राजा सुदास
की उसने सहायता की।
इस कार इ ऋ ेद का सव धान दे वता है , िजसे मै मूलर सूय का वाची, रॉथ मेघों और िवद् युत् का दे वता, बेनफ़े वषाकािलक आकाश का
तीक, ॉसमन उ ल आकाश का तीक, हापिक िवद् युत् का ित प और मैकडॉनल तथा कीथ आिद पा ा से लेकर आचाय बलदे व
उपा ाय जैसे भारतीय िव ान् वषा का दे वता मानते ह।[19]

आकार- कार
इ वृहदाकार है । दे वता और मनु उसके साम की सीमा को नहीं प ँ च पाते। वह सु र
मुख वाला है । उसका आयुध व अथवा श है । उसकी भुजाएँ भी व वत् पु एवं कठोर ह। वह
स सं क पज पी र यों वाला एवं परम कीितमान् है ।

महाबलशाली
‘नृमण म ा स जनास इ ः’ कह कर यं गृ मद ऋिष ने उसके बलिव म का उद् घोष कर
िदया है । पवत उससे थर-थर काँ पते ह। ावा-पृिथवी अथात् वहाँ के लोग भी इ के बल से
भय-भीत रहते ह। वह श ुओं की धन-स ि को जीत कर उसी कार अपने ल की पूित कर
लेता है , िजस कार एक आखेटक कु ु रों की सहायता से मृगािदक का वध कर ाध अपनी
ल -िस करता है अथवा िवजय- ा जुआरी िजस कार जीते ए दाँ व के धन को समेट
कर ाय कर लेता है । इतना ही नहीं वह श ुओं की पोषक समृ को न -िवन भी कर
डालता है । वह एक िवकट यो ा है और यु म वृक् (=भेिड़या) के समान िहं सा करता है । सबसे
बड़ी बात तो यह है िक वह ‘मन ान्’ (=मन ी) है ।

र क एवं सहायक
इ अपने भ ों का र क, सहायक एवं िम है । कहा भी है िक--‘यो णो नाधमान
कीरे ः.............अिवता’।[20] उसकी सहायता के िबना िवजयलाभ अस व है । इस िलये यो ा-
गण िवजय के िलए और अपनी र ा के िलये उसका आवाहन करते ह। यह बात िन िल खत
म से और भी हो जाती है :- ‘यं सी संयती िव येते परे ऽवर उभया अिम ाः। समानं िह दू म रों म ायः पूव िदशा के
र क दे वता के प म इ की ित ा
िच थमात थवां सा नाना हवेते स जनास इ ः।।’[21]
होती है ।
इ आय को अनाय के िव यु म सहायता दान कर उ िवजयी बनाता है । एतदथ वह
व ुओं का हनन एवं अपने अपूजकों व िवरोिधयों का वध करता है । वह िजस पर स आ,
उसे समृ और िजस पर अ स आ, उसे कृश (=िनधन) बना दे ता है । उसके त द् गुणों के भाव से अ , गो, ाम एवं रथािद उसके वश म
रहते ह। इस कार वह िन खल िव का ितिनिध है । दे वता तक उसकी कृपा के पा ह।

अनेक सृि -काय का स ादक


इ ने अ थर पृ ी को थैय दान िकया है । इधर-उधर उड़ते-िफरते पवतों के पंख-छे दन कर इ ने ही उ त त् थान पर थािपत िकया
है । उसने द् यु-लोक को भी िकया और इस कार अ र का िनमाण िकया। दो मेघों के म म वैद्युत् अि अथवा दो र-ख ों के
म म सामा अि का जनक इ ही है । इ को सूय और हवा उषा का उ ावक भी कहा गया है । वह अ र -गत अथवा भूतलवत जलों
का ेरक है । इसीिलए उसे वषा का दे वता मानते ह। पृ ी को ही नहीं ुत स ूण लोकों को थर करने वाला अथवा उ रचने वाला भी इ से
िभ कोई और नहीं है । इससे ‘उसने सभी पदाथ को गितमान बनाया’ यह अथ हण करने पर भी इ का माहा नहीं घटता।

इ के वीरकम
इ ने भयवशात् पवतों म िछपे ए ‘श र’ नाम के दै को 40 व वष (अथवा शरद् ऋतु की 40 वीं ितिथ को) ढू ँ ढ िनकाला और उसका वध कर
िदया।[22] बल- दशन करने वाले ‘अिह’ नामक दानव का भी उसने संहार िकया। उ ‘अिह’ को मार कर इ ने समपणशील जलों को अथवा
गंगा आिद सात निदयों को वािहत िकया। िहं साथ ग म चढ़ते ए रौिहण असुर को भी इ ने अपने व से मार डाला। बल नामक दै ने
असं गायों को अपने बाड़े म िन कर रखा था। उन गायों की लोकक ाणाथ बलपूवक बाहर िनकालने का ेय इ को ही है ।
कुछ िव ान् अिह-िवनाश, वृ -वध, श र-संहार एवं बल-िवमदनािद का ऐ ारोपण करके सूय पमइ ारा ुव दे शीय अ कार का नाश
अथवा जलों को जमा दे ने वाली घोर सद का िवनाश अथवा अिह पी मेघों का िवमदन करके जल-िवमोचन अथवा बल पी मेघों से आ सूय
की िकरण पी गायों के िवमु िकये जाने की क ना करते ह, जो स से अिधक दू र नहीं तीत होता।[23]

सोमपानक ा
‘यः सोमपा’ कह कर ऋिष ने इ की दु सन-परता की ओर भी इं िगत िकया है । ‘सोम’ इ का परमि य पेय पदाथ है । उसके बराबर कोई अ
दे वता सोम-पान नहीं कर सकता। ‘सोम’ उसे यु ों के िलए श और ू ित दान करता है । सोम-सेवी होने के कारण इ को वे लोग
परमि य ह, जो सोम का अिभषव करते ह अथवा पका कर उसे िस करते ह। ऐसे लोगों की वह र ा करता है । इतना ही नहीं, ऐसे ि य
यों को वह धन-वैभव से पुर ृ त भी करता है ।

पूजनीय
यह बात दू सरी है िक वह सोम पायी है , अपने अपूजकों का अपने आयुध व से वध करता है , शू ों को अधोगित दान करने वाला अथवा अपने
अपूजकों को नरक दान करने वाला है , िफर भी वह अपने अ सद् गुणों के कारण सवथा पूजनीय है । ावापृिथवी के ाणी उसे सदा नमन
करते ह। लोग उससे यह ाथना िकया करते ह िक ‘हे इ ! सु र पु -पौ ािद से यु होकर तथा तु ारे ि यपा बने ए हम सदा तु ारी
ाथना म त र रह।’[24]

जैसा िक िशव सह नामों म विणत है दे व भगवान िशव का नाम है ।

इस कार है िक इ वैिदक दे वी-दे वताओं म सव प र और सव म थान का अिधकारी है ।

वृ -वध पर कुछ म
इ की च रतावली म वृ वध का बड़ा मह है ।

इ और वृ के यु को आर से ही सां केितक माना गया है । या कृत िन म कहा गया है िक 'वृ ' िन कारों के अनुसार 'मेघ'
है । ऐितहािसकों के अनुसार ा का पु असुर है (इसी मत का िवकिसत प महाभारत[25] और भागवत महापुराण[26] म विणत वृ -
वध आ ान है ।) और ा ण ों के अनुसार वह 'अिह' (सप) समान है िजसने अपने शरीर-िव ार से जल- वाह को रोक िलया था
और इ के ारा िवदीण िकये जाने पर अव जल वािहत आ।[27]
िन कार के मतानुसार वृ अ कारपूण, आवरण करने वाला है । जल और काश (िवद् युत) का िम ण होने से वषा होती है ; ऐसा
होना पक के प म यु का वणन है ।[28]
लोकमा ितलक के अनुसार इ सूय का तीक है तथा वृ िहम का। यह उ री ुव म शीतकाल म िहम जमने और वसंतकालीन सूय
ारा िपघलाने पर निदयों के वािहत होने का तीक है ।[29]
िहले ा के मत से भी वृ िहमानी का तीक है । पर ु अिधकां श पि मी िव ान् भी िन के पूव मत से सहमत ह और ये लोग
मानते ह िक इ वृि लाने वाला तूफान का दे वता है ।[29]

दे व-यु :इ और व ण
ऋ ेद म इ का नाम सात दे व-यु ों म भी आता है । ऐसे यु ों म 11 सू इ -अि के िलए ह, 9 सू इ -व ण के िलए, 7 इ -वायु के
िलए, 2 इ -सोम, 2 इ -बृह ित, 1 इ -िव ु और 1 सू इ -पूषण के िलए ह।[30] इनम से सबके साथ इ की समानता होने के साथ
िभ ताएँ भी ह। उदाहरण के िलए इ और व ण के यु को िलया जा सकता है । य िप व ण का वणन काफी कम सू ों म है , पर ु वे इ
के बाद सवािधक महनीय माने गये ह। 9 सू ों म इ और व ण का संयु वणन है । दोनों म अनेक समानताएँ ह। कहा गया है िक जगत् के
अिधपित इ ाव ण ने स रताओं के पथ खोदे और सूय को द् युलोक म गितमान बनाया।[31] वे वृ को पछाड़ते ह।[32] यु म सहायक ह।[33]
उपासकों को िवजय दान करते ह।[34] ू रकमा पामरों पर अपना अमोघ व फकते ह।[35]

इन समानताओं के बावजूद दोनों म कई वैष भी ह :-

1. एक (इ ) यु म श ुओं को मारता है । दू सरा (व ण) सवदा तों का र ण करता है ।[36]


2. व ण मनु ों को िववेक दान कर पोषण करता है और इ श ुओं को इस कार मारता है िक वे पुनः उठ न सके।[37] इसिलए इ को
यु ि य माना गया है [38] और व ण को शा ि य, बु दाता।[39]
3. व ण का अपना अ पाश कहा गया है ।[40]
4. व ण त का उ ंघन करने वाले को द दे ते ह पर पाश को ढीला भी कर दे ते ह।[41]
5. व ण स ूण भुवनों के राजा ह।[42]
6. व ण की वेश-भूषा जल है ।[43]
7. स िस ु व ण के मुख म वािहत है ;[44] तथा वे समु म चलने वाली नाव (जहाज) को भी जानते ह।[45] व ण का गहरा स समु
से भी है ।[46]
8. व ण औषिधयों के भी ामी ह। उनके पास 100 या 1000 औषिधयाँ ह िजनसे वे मृ ु को जीत लेते ह तथा भ ों का पाप-भंजन करते
ह।[47]
9. व ण अ िधक माशील ह[48] और जीवन का अंत भी कर सकते ह तो आयु बढ़ा दे ने वाले के प म भी उनका रण िकया गया
है ।[49] अपवाद प म इ ने भी शुनःशेप की आयु बचायी थी पर व ण का सामा प से ऐसा उ ेख िकया गया है । दोनों म और भी
कितपय िविभ ताएँ ह। िजस कार इ भौितक र पर सबसे बड़े दे वता थे उसी कार व ण नैितक र पर महनीय दे वता थे।[50]

आ - ान िवषयक कथा
उपिनषदों म ाभािवक िवषयानुसार यदा-कदा इ को भी ान- ा हे तु उ ुक िदखाया गया है । छा ो ोपिनषद् से ऐसी एक कथा दी जा
रही है :- जापित की उ थी िक पापरिहत, जराशू , मृ ु-शोक आिद िवकारों से रिहत आ ा को जो कोई जान लेता है , वह संपूण लोक तथा
सभी कामनाओं को ा कर लेता है । जापित की उ सुनकर दे वता तथा असुर दोनों ही उस आ ा को जानने के िलए उ ुक हो उठे , अत:
दे वताओं के राजा इ तथा असुरों के राजा िवरोचन पर र ई ाभाव के साथ हाथों म सिमधाएं लेकर जापित के पास प ं चे। दोनों ने ब ीस वष
तक चय पालन िकया, तदु परां त जापित ने उनके आने का योजन पूछा। उनकी िज ासा जानकर जापित ने उ सु र व ालंकरण से
यु होकर जल से आपू रत सकोरे म यं को दे खने के िलए कहा और बताया िक वही आ ा है । दोनों सकोरों म अपना-अपना ितिबंब
दे खकर, संतु होकर चल पड़े । जापित ने सोचा िक दे व हों या असुर, आ ा का सा ा ार िकये िबना उसका पराभव होगा। िवरोचन संतु मन
से असुरों के पास प ं चे और उ बताया िक आ ा (दे ह) ही पूजनीय है । उसकी प रचया करके मनु दोनों लोक ा कर लेता है ।

दे वताओं के पास प ँ चने से पूव ही इ ने सोचा िक सकोरे म आभूषण पहनकर स त प िदखता है , खंिडत दे ह का खंिडत प, अंधे का
अंधा प, िफर यह अजर-अमर आ ा कैसे ई? वे पुन: जापित के पास प ं चे। जापित ने इ को पुन: ब ीस वष अपने पास रखा तदु परां त
बताया-'जो म पूिजत होता आ िवचरता है , वही आ ा, अमृत, अभय तथा ह।' इ पुन: पुनः शंका लेकर जापित की सेवा म ुत
ए। इस कार तीन बार ब ीस-ब ीस वष तक तथा एक बार पां च वष तक (कुल 101 वष तक) इ को चयवास म रखकर जापित ने उ
आ ा के प का पूण ान कुछ इस तरह करवाया :-

यह आ ा प थत होने पर अिव ाकृत दे ह (मरणशील) तथा इ यों एवं मन से यु है । सवा भाव की ा के उपरां त वह
आकाश के समान िवशु हो जाता है । आ ा के ान को ा कर मनु कत -कम करता आ अपनी आयु की समा कर
लोक को ा होता है और िफर नहीं लौटता।[51]

पौरािणक मत
पौरािणक दे वम लमइ का वह थान नहीं है जो वैिदक दे वम ल म है । पौरािणक दे वम ल म ि मूित- ा, िव ु और िशव का मह
बढ़ जाता है । इ िफर भी दे वािधराज माना जाता है । वह दे व-लोक की राजधानी अमरावती म रहता है । यहीं न न वन है , पा रजात तथा
क वृ है । सुधमा उसकी राजसभा तथा सह म यों का उसका म म ल है । शची अथवा इ ाणी प ी, ऐरावत हाथी (वाहन) तथा अ
व अथवा अशिन है । इनके घोड़े का नाम उ ैः वा है ।[52] जब भी कोई मानव अपनी तप ा से इ पद ा करना चाहता है तो इ का
िसंहासन संकट म पड़ जाता है । अपने िसंहासन की र ा के िलए इ ाय: तप यों को अ राओं से मोिहत कर पथ करता आ पाया जाता
है । पुराणों म इस स की अनेक कथाएँ िमलती ह। पौरािणक इ श मान, समृ और िवलासी राजा के प म िचि त है । अनेक श यों
से यु तथा मा राजा होने पर भी कभी-कभी इ असंयत एवं उ त भी िदखाया गया है , िजसके कारण इनका पतन भी होते रहा है । दु वासा
के शाप से पतन की एक कथा आगे दी जा रही है ।

दु वासा के शाप की कथा


एक बार दु वासा ऋिष ने िव ाधरी से ा स ानक पु ों की एक माला आशीवाद के साथ इ को िदया। इ को ऐ य का इतना मद था िक
उ ोंने वह पु अपने हाथी के म क पर रख िदया। पु के भाव से हाथी उसकी सुग से आकिषत होकर होकर उसे सूँघकर पृ ी पर फक
िदया। इ उसे संभालने म असमथ रहे । दु वासा ने उ ीहीन होने का ाप िदया। अमरावती भी अ ंत हो चली। इ पहले बृह ित की
और िफर ा की शरण म प ं चे। सम दे वता िव ु के पास गये। उ ोंने ल ी को सागर-पु ी होने की आ ा दी। अत: ल ी सागर म चली
गयी। िव ु ने ल ी के प र ाग की िविभ थितयों का वणन करके उ सागर-मंथन करने का आदे श िदया। मंथन से जो अनेक र िनकले,
उनम ल ी भी थी। ल ी ने नारायण को वरमाला दे कर स िकया। ल ी ने दे वों को ि लोक से अब िवरिहत नहीं होने का वरदान िदया।[53]
रामायण म इ
दे वताओं का राजा इ कहलाता था। वा ीकीय रामायण म विणत है िक मेघिग र नामक पवत् पर दे वताओं ने ह रत रं ग के अ वाले
पाकशासन इ को राजा के पद पर अिभिष िकया था।[54] रामायण म भी इ वषा का दे वता माना गया है ।[55] गौतम के शाप के
प रणाम प उ मेषवृषण भी कहा गया है ।[56] रामायण म इनका िच ण कठोर शासक, महान् यो ा, िव व लोकपाल तथा
सहानुभूितशील दे वता के साथ-साथ िवलासी, ई ाशील एवं ष ं ी के प म भी आ है । इ ोंने ि शंकु को ग म प ँ चा दे खकर उसे वहाँ से
उ ा िगरा िदया।[57] इ
ोंने अ रीष के य -पशु का अपहरण कर िलया था।[58] अ रीष ने जब ऋचीक के मँझले पु शुनःशेप को य -पशु
बनाया तो शुनःशेप की ुित से स होकर इ ोंने उसे बचाया तथा दीघायु बनाया।[59] इनके ित आदर भाव तथा संकट से बचाने की भावना
जन-सामा म बरकरार है । वन-या ा म राम की र ा के िलए कौस ा इ का भी आ ान करती है ।[60] रामायण म इनका ष ं ी प भी
िदखता है । एक स वादी और पिव तप ी की तप ा म िव डालने के िलए इ ोंने अपना उ म खड् ग धरोहर के प म उसे दे िदया था।[61]
वैिदक इ भयभीत नहीं होते थे। रामायण म इ भी रावण के भय से काँ प उठते थे।[62] म के य के समय रावण को उप थत दे खकर
इ मोर बन गये थे।[63] हालाँ िक इनकी वीरता असंिद रही है । शची से िववाह के िलए इ ोंने शची के िपता पुलोम तथा छलपूवक शची को
हरने वाले अनु ाद को भी मार डाला था।[64] रावण के ग पर आ मण के समय दे वसेना को िवन होते दे खकर इ ोंने िबना िकसी घबराहट
के रावण का सामना कर उसे यु से िवमुख कर िदया था।[65] मेघनाद माया के बल से ही इ ब ी बना पाया था।[66] राम-रावण यु दे खकर
दे व-ग व-िक रों ने कहा िक यह यु समान नहीं है ोंिक रावण के पास तो रथ है और राम पैदल ह। अत: इ ने अपना रथ राम के िलए
भेजा, िजसम इ का कवच, िवशाल धनुष, बाण तथा श भी थे। िवनीत भाव से हाथ जोड़कर मातिल ने रामचं से कहा िक वे रथािद व ु ओं
को हण कर और जैसे महान् इ दानवों का संहार करते ह, उसी तरह रावण का वध कर।[67] यु -समा के बाद राम ने मातिल को आ ा
दी िक वह इ का रथ आिद लौटाकर ले जाय।[68]

इ -अह ा संग
इ के संग म कुछ लोग अह ा की पौरािणक (िवशेषतः वा ीकीय रामायण और रामच रतमानस आिद की) कथा को मनगढ़ं त वैिदक
स भ दे कर उसकी मनमानी ा ा करके अपनी िव ता का अनथक दशन करते ह। वैसे लोग वैिदक स भ के नाम पर अह ा का अथ
'िबना हल चलायी ई भूिम' (बंजर भूिम) अथ करते ह। इस स भ म अिनवायतः ात पहली बात यह है िक ऋ ेद म 'अह ा' या 'अिह ा'
श का योग आ ही नहीं है ।[69] ऋ ेद ही नहीं, अ वैिदक संिहता ों म भी यह श नहीं है । ा ण ों म इसका उ ेख मा है ।
शतपथ ा ण (३.३.४.१८) म इ के िलए 'अह ायै जार' श का योग आ है ।[70] तः यह योग उसी कथा की ओर संकेत करता है
िजसका वणन वा ीकीय रामायण आिद ों म है । दू सरी बात यह िक ऋ ेद म 'हल' श का भी योग नहीं आ है । कृिषकाय म यु हल
के िलए ऋ ेद म 'लां गल' श का योग आ है ।[71] हल के िलए यु दू सरा श है 'सीरा' (डाॅ . सूयका ने 'वैिदक कोश' म स वतः
'वैिदक इ े '[72] के भाव म 'सीर' श ही िलखा है ,[73] पर ु सही श 'सीरा' है ।)[74] अ संिहता ों तथा ा णों म भी 'हल' का
योग नहीं है ।[75] व ुतः हल का योग वेदां गों के समय म स वतः आरं भ आ होगा और लौिकक सं ृ त म ही इसका अिधक योग आ है ।
ऐसी थित म अह ा की पूव ा ा कम-से-कम वैिदक स भ से िभ अथवा दू र अव है । रही तीका क ा ा की बात तो वह तो
अनेकानेक पौरािणक कथाओं के िलए स व है और ऐसे य होते भी रहे ह। पर ु इ तथा अह ा की कथा को मनगढ़ं त वैिदक सं श
दे कर उसके कथा प को राम का ई र िस करने के िलए रामकथा के किवयों की क ना मानना वा व म राम तथा ई र के ित अपनी
त हीन अ ा कट करना ही है जो व ुतः अपनी गत मा ता की बात है ; िकसी ानकोशीय साम ी के िलए सवथा अनुपयु है ।

कथा
वा ीकीय रामायण म इ -अह ा संग की कथा दी गयी है । इ ने गौतम की धमप ी अह ा का सती अपहरण िकया था। कहानी इस
कार है - शचीपित इ ने आ म से गौतम की अनुप थित जानकर और मुिन का वेष धारण कर अह ा से कहा।। 17।। हे अित सु री!
कामीजन भोगिवलास के िलए ऋतुकाल की ती ा नहीं करते, अथात यह बात नहीं मानते िक जब ी मािसक धम से िनवृत हों केवल तभी
उनके साथ समागम करना चािहए। अतः हे सु र कमर वाली! म तु ारे साथ समागम करना चाहता ं ।। 18।। िव ािम कहते ह िक हे
रघुन न! वह मूखा मुिनवेशधारी इ को पहचान कर भी इस िवचार से िक ' यं दे वराज इ मुझे चाहते ह', इस ाव से सहमत हो गयी।।
19।। तदनंतर (समागम के प ात्) वह संतु िच होकर दे वताओं म े इ से बोली िक हे सुरो म! म कृताथ हो गयी। अब आप यहां से शी
चले जाइये।। 20।। तब इ ने भी हँ सते ए कहा िक हे सु र िनत ों वाली! म पूण स ु ं । अब जहां से आया ं , वहां चला जाऊँगा। इस
कार अह ा के साथ संगम कर वह कुिटया से िनकला।[76]

वा ीकीय रामायण म इस संग का काफी हद तक मानवीय प म वणन है । यहाँ अह ा के प र या नदी होने का उ ेख भी नहीं है । शाप
म बस यही कहा गया है िक वह ल े समय तक सबसे िछपकर (अ ) रहे गी। वायु पीकर ही अथात् उपवास करती ई रहे गी और राम के
आने पर उनका आित -स ार करने पर पूव प म आ जाएगी।[77] शाप की समा के बारे म भी िलखा है िक राम के दशन से पहले
उसको दे ख पाना िकसी के िलए किठन था (दु िनरी ा), राम के दशन हो जाने पर वह सबको िदखायी दे ने लगी।[78] इससे पूरी तरह है िक
िशला(प र) या नदी होने की क ना वा ीकीय रामायण से ब त बाद की है । ि दे वों की े ता थािपत होने तथा इ की मह ा िनर र कम
होने के म म ही सारा दोष इ पर ही मढ़ िदया गया और अह ा का च र पावन माना गया।

कितपय िव ानों ने इस कथा को तीका क अथ दे ने का य िकया है ।[79] धािमक ों म रह वादी श ावली का योग ाचीनकाल से
चिलत है उसपर वैिदक श ावली सोने पे सुहागा का काम करती थी अत: उपरो कथन तीका क भी हो सकता है । िव ेषण करने पर
िभ -िभ अथ सामने आते ह:-

लौिकक सं ृ त म अह ा का एक अथ होता है " िबना हल चली " यािन बंजर भूिम। जैसा िक ात ही है इं दू सरे दे शों (असुरो के) पर आ मण
करता था तो प रणाम प हरी-भरी भूिम बंजर हो जाती थी (उस समय लोग कृिष पर िनभर रहते थे और खेती ही उनका मु भोजन का
ोत भी था।) इं , इस भोजन के ोत या जंगल के ोत िजससे फल, कंद-मूल आिद िमलते थे उ न कर के अपने दु नों को नुकसान
प ँ चाता था। कालां तर म िव ािम ने राम से जब कहा िक ये अह ा है , तो हो सकता है उनका ता य हो िक ये "िबना हल चली" यािन बंजर
भूिम है इसे उपजाऊ बनाओ और राम ने उस भूिम को िफर से उपजाऊ बनाया हो। दू सरा संग 'नदी' के स भ म ' पुराण (87-59)" और
"आनंद रामायण (1.3.21)" के अनुसार हो सकता है । अप ंश म 'िसरा '(िशला) श के दो अथ ह एक तो प र और दू सरा सूखी नदी। जैसा
कृिष के प म िव ेषण िकया गया है उसी तरह यह भी हो सकता है िक व ुत: कोई नदी होगी जो इं के दु न दे श म जाती होगी और
उसके मु पानी के ोत को इं ने सुखा िदया होगा तािक दु न दे श को पानी न िमल सके और बाद म राम ने इसे जलयु बनाया होगा।

इस कार दे ख तो अह ा- संग कृित का मानवीकरण मा है ।

महाभारत म इ
महाभारत म इ का पौरािणक प ही िमलता है । यहां उनका वैिदक-सािह म विणत गौरव नहीं रह गया है । इ िवशेषतः 'श ' नाम से
स ोिधत िकया गया है ।[80] अपना दे वराज पद खो जाने का भय इ बराबर सताया करता है और इससे बचने के िलए ये उिचत-अनुिचत य
करते रहते ह। िव ािम के तप से भयभीत होकर मेनका नामक अ रा को उनका तप भंग करने भेजा।[81] शर त के तप से भयभीत होकर
जानपदी नामक अ रा को उनका तप भंग करने भेजा।[82] यव ीत के तप से भयभीत होकर इ ने एक ा ण का प धारण कर उ तप
से िवरत िकया।[83]

वा ीकीय रामायण म विणत अह ा- संग का उ ेख महाभारत म भी िमलता है । यहाँ उसे बलात्-काय माना गया है ।[84]

ऋ ेद म उ खत इ के 'ह र ु' होने का कथा क समथन महाभारत म भी िमलता है । यहाँ कहा गया है िक गौतम के शाप के कारण ही
इ को ह र ु (हरी दाढ़ी-मूँछों से यु ) होना पड़ा।[85]

ये ही अजुन के िपता थे। वृ ासुर के भय से सभी दे वताओं ने अपनी श याँ इ समिपत कर दी थी। इसिलए अजुन को उनसे ही िद ा ा
करने के िलए कहा गया।[86] इनसे स त अनेक कहािनयाँ महाभारत म दी गयी ह।

इ एक 'पद' का नाम
इ व ुतः एक पद का नाम है । दे वताओं के राजा के पद को 'इ ' कहते ह। उस पद पर बैठने वाले का नाम भी इ हो जाता है । इसके
संकेत तो अनेक पौरािणक कथाओं एवं िववरणों म िमलता है , पर ु महाभारत के अनेक स भ से यह भलीभाँ ित हो जाता है िक यह एक
पद का नाम है । िजन-िजन कथाओं म ये पद िछन जाने से भयभीत होते ह उन कथाओं के साथ इ बनने की अ यों की कथाओं को
िमलाकर दे खने पर बात िब ु ल हो जाती है । अनेक जगह 'इ ' श का वाची योग न होकर पदवाची ('इ ') योग आ है ।
कुछ स भ ह :-

िशव ने इ को मूिछत कर पूवकाल के अ चार इ ों के साथ एक गुफा म डाल िदया।[87] इ पद('ऐ ं ाथयते थानं') की अिभलाषा रखने
वाले नरकासुर का िव ु ने वध िकया।[88] श के नेतृ म ऋिषयों, दे वताओं ने(तथा यं श ने भी) से दे वों का 'इ ' बनने के िलए
कहा।[89] ह ा से हो जाने पर श के इ -पद छोड़ दे ने पर न ष 'इ ' बने। बाद म न ष का पतन होने पर िव ु के आदे शानुसार
अ मेध य का अनु ान करके श ने पुनः इ -पद ा िकया।[90] इनके िसवा भी इ -पद (इ ) के अनेक उ ेख महाभारत म
उपल ह।[91]

ीिव ुपुराण म तृतीय अंश के थम एवं ि तीय अ ाय म तथा भागवत महापुराण के अ म के थम एवं योदश अ ाय म 14 म रों
के अलग-अलग इ ों के नाम िदये गये ह।[92]
अवांतर कथा
महाकिव य ू िवरिचत 'पउम च रउ' महाका की अ मो संिध (आठवीं संिध) म एक ऐसे की कथा दी गयी है िजसने दे वराज इ से
भािवत होकर अपने नाम के साथ सब कुछ इ वत् करना चाहा था।

रथनूपुर नगर के िव ाधर राजा सह ार की सुिनत नी पीनपयोधरा प ी का नाम था मानस सु री। सुर ी से(दे व-शोभा िनरी ण के प ात्)
उसे जो पु आ, उसका नाम इ रखा गया। इ जब राजा बना तो सहायक िव ाधरों म से मं ी का नाम रखा बृह ित, हाथी ऐरावत, इसी
कार पवन, कुबेर, व ण, यम और च तथा अपनी गाियकाओं के नाम उवशी, र ा, ितलो मा आिद रखकर घोिषत िकया िक इ के जो-जो
िच ह वे मेरे भी ह। म पृ ी मंडल का इ ँ । उसकी समृ की बात सुनकर लंका के शासक रा स मािल ने अपने भाई सुमािल तथा िवशाल
सेना के साथ आ मण िकया। घमासान यु के प ात् रा सराज मारा गया तथा सुमािल पाताल लंका म वेश कर गया। इ कुछ समय के िलए
इ वत् शासन करने लगा।[93]

यह कथा पउम च रउ की अ अनेक कथाओं की तरह ही सं ृ त-पर रा से िब ु ल िभ है । वा ीकीय रामायण म इस िव ाधर इ का


उ ेख तो नहीं ही है , मािल (माली) के वध के बारे म भी िलखा है िक रा सों ारा गलोक पर आ मण के समय यु म िव ु ने
सुदशन च से उसका वध कर डाला।[94]

जैन धम म इ

बौ धम म इ

अ स ताओं म इ
बोगाजकोई िशलालेख के अनुसार िमत ी जाित के दे वताओं म व ण, िम
एवं नास ों (अि न्) के साथ इ का भी उ ेख िमलता है (1400 ई.पू.)।
ईरानी धम म इ का थान है , पर ु दे वता प म नहीं, दानव प म।
वेरे वहाँ िवजय का दे वता है , जो व ुतः 'वृ ' (वृ को मारने वाला) का
ही पा र है । इसी कारण डाॅ .कीथ इ को भारत-पारसीक एकता के
युग से स मानते ह।[19]

स भ
1. 'पद' से संबंिधत स भ के िलए - 'इ एक पद का नाम'
शीषक इसी आलेख का अनुभाग।
2. वैिदक दे वशा (मैकडाॅ नल रिचत 'वैिदक माइथोलाॅ जी') अनुवादक-
डाॅ .सूयका ; मेहरच लछमनदास, नई िद ी, थम
सं रण-1961, पृ.127.
3. पूववत्-पृ.38 एवं 126.
4. ऋ ेद-1.32.2[इस आलेख के िलए यु सं रण--(क)ऋ ेद
संिहता (पदपाठ, सायण भा एवं पं.रामगोिव ि वेदी कृत िह ी
अनुवाद सिहत) - चौख ा िव ाभवन, वाराणसी; सं रण-2007 ई.;
(ख)ऋ ेदसंिहता (सायण भा एवं भा ानुवाद सिहत) - चौख ा
कृ दास अकादमी, वाराणसी; सं रण-2013 ई.; (ग)ऋ ेद का
सुबोध भा , भाग-1से4, ीपाद दामोदर सातवलेकर; ा ाय
म ल, िक ा पारडी, वलसाड (गुजरात); सं रण-भाग1एवं4-
अनु खत,भाग2-2007, भाग3-2011; (घ)ऋ ेद (दयान भा ) क ोज (क ोिडया) म इ
भाग-1से3 - महिष दयान सर ती; आय काशन, िद ी;
सं रण-2010-11 ई.
5. पूववत्-2.16.2.
6. पूववत्-2.11.17
7. पूववत्-10.23.4.
8. पूववत्-3.48.4;3.53.8;6.47.18.
9. पूववत्-3.48 एवं 4.18.
10. पूववत्-4.18.10; 10.101.12 की ा ा म आचाय सायण िनि ी को अिदित का पयाय मानते ह।
11. ऋ ेद म इ - सुधा र ोगी; चौख ा कृ दास अकादमी, वाराणसी; सं रण-1981 ई., पृ.55,56,एवं आगे।
12. वैिदक दे वशा (मैकडाॅ नल रिचत 'वैिदक माइथोलाॅ जी') अनुवादक- डाॅ .सूयका ; मेहरच लछमनदास, नई िद ी, थम
सं रण-1961, पृ.133.
13. ऋ ेद,पूववत्, 6.55.5;6.59.2
14. पूववत्-10.86.11.
15. - पूववत्-1.22.12.
16. इसका िविभ पों म अनेक बार योग आ है । एक पगत स भ के िलए --(क)ऋ ेदपदानां अकारािदवण मानु मिणका
- ामी िव े रान एवं ामी िन ान ; िनणयसागर ेस, मु ई; सं रण-1908 ई., पृ.404 (ख)वैिदक पदानु म कोषः (संिहता
िवभाग, ख -6) - सं. िव ब ु शा ी; िव े रान वैिदक शोध सं थान, होिशयारपुर; सं रण-1962 ई., पृ.3061,2
17. ऋ ेद, पूववत्-4.26.1;10.89.2;2.30.1.
18. वैिदक दे वशा (मैकडाॅ नल रिचत 'वैिदक माइथोलाॅ जी') अनुवादक- डाॅ .सूयका ; मेहरच लछमनदास, नई िद ी, थम
सं रण-1961, पृ.142-144.
19. िहं दी िव कोश, ख -1; नागरी चा रणी सभा,वाराणसी; सं रण(संशोिधत-प रविधत)-1973ई., पृ.500.
20. ऋ ेद, पूववत्-2.12.6.
21. पूववत्-2.12.8.
22. ऋ ेद, पूववत्-2.12.11.
23. डाॅ .यदु न न िम , 'वेद-संचयनम्', चौख ा िव ाभवन, वाराणसी, सं रण-1976, पृ.34.
24. ऋ ेद, पूववत्-2.12.15.
25. महाभारत, शा पव-281,282.
26. -6, अ ाय-10-12.
27. (क)िह ी िन (िनघ ु सिहत) - पं.सीताराम शा ी; मु शीराम मनोहरलाल िद ी, सं रण-अनु खत, पृ.-100(अ ाय-2, पाद-5,
ख -2).(ख)िन (भाषा भा ) - पं.राजाराम; बाॅ े मैशीन ेस, लाहौर; थम सं रण-1914, पृ.118 (2-16)
28. पूववत्; तथा िह ी िन - उमाशंकर शमा 'ऋिष'; चौख ा िव ाभवन, वाराणसी; सं रण-1961, पृ.55 (2-16).
29. वैिदक सािह और सं ृ ित - आचाय बलदे व उपा ाय, शारदा सं थान, वाराणसी; सं रण-2006, पृ.498.
30. वैिदक दे वशा (मैकडाॅ नल रिचत 'वैिदक माइथोलाॅ जी') अनुवादक- डाॅ .सूयका ; मेहरच लछमनदास, नई िद ी, थम
सं रण-1961, पृ.326.
31. ऋ ेद, पूववत्-1.71.1 तथा 7.82.3.
32. पूववत्-6.68.2.
33. पूववत्-4.41.11.
34. पूववत्-1.17.7.
35. पूववत्-4.41.4.
36. पूववत्-7.83.9.
37. पूववत्-7.85.3.
38. पूववत्-6.68.3.
39. पूववत्-7.82.5.
40. पूववत्-1.24.15; 1.25.21; 6.74.4; 10.85.24.
41. पूववत्-2.28.5; 5.85.7.
42. पूववत्-2.27.10; 8.42.1.
43. पूववत्-9.90.2.
44. पूववत्-8.69.12.
45. पूववत्-1.25.7.
46. पूववत्-1.161.14; 7.87.6.
47. पूववत्-1.24.9.
48. पूववत्-5.85.7,8.
49. पूववत्-1.24.11; 1.25.12.
50. (क)ऋ ेद म इ - सुधा र ोगी; चौख ा कृ दास अकादमी, वाराणसी; सं रण-1981 ई., पृ.182.(ख)वैिदक दे वशा (मैकडाॅ नल
रिचत 'वैिदक माइथोलाॅ जी') अनुवादक- डाॅ .सूयका ; मेहरच लछमनदास, नई िद ी, थम सं रण-1961, पृ.130-131.
51. छा ो ोपिनषद् -अ ाय-8, ख -7से15; उपिनषद् -अंक, गीता ेस गोरखपुर, सं रण-1998ई., पृ.455से458.तथा छा ो ोपिनषद्
(सानुवाद शां करभा सिहत), गीता ेस गोरखपुर, सं रण-2004ई., पृ.808से886.
52. पौरािणक कोश, राणा साद शमा; ानमंडल िलिमटे ड, वाराणसी, सं रण-1986, पृ.50.
53. ीिव ुपुराण-1.9.7से138.
54. वा ीकीय रामायण-4.42.35; ीम ा ीकीय रामायण(सटीक,दो ख ों म), गीता ेस गोरखपुर, सं रण-1996ई.
55. वा ीकीय रामायण-1.9.18; ीम ा ीकीय रामायण(सटीक,दो ख ों म), गीता ेस गोरखपुर, सं रण-1996ई.
56. पूववत्-1.49.10
57. पूववत्-1.60.16-18.
58. पूववत्-1.61.6.
59. पूववत्-1.62.26
60. पूववत्-2.25.9.
61. पूववत्-3.9.17,18.
62. पूववत्-3.48.7.
63. पूववत्-7.18.4,5.
64. 4.39.6,7.
65. पूववत्-7.29.20.
66. पूववत्-7.29.28,29.
67. पूववत्-6.102.5-16.
68. पूववत्-6.112.5
69. --ऋ ेदपदानां अकारािदवण मानु मिणका - ामी िव े रान एवं ामी िन ान ; िनणयसागर ेस, मु ई; सं रण-1908
ई.
70. 15.शतपथ ा ण ( थम भाग) - सं. ामी स काश सर ती, अनुवादक- पं. गंगा साद उपा ाय; िवजयकुमार गोिव राम हासान ,
िद ी; सं रण-2010 ई. पृ.390-391.
71. -ऋ ेद, पूववत्-4.57.4.
72. वैिदक इ े - ए.ए. मैकडौनेल एवं ए.बी. कीथ (िह ी अनुवाद - रामकुमार राय); चौख ा िव ाभवन, वाराणसी; सं रण-1962 ई।
ख -2,पृ.498.
73. वैिदक कोश - डाॅ . सूयका ; चौख ा कृ दास अकादमी, वाराणसी; सं रण-2012 ई. पृ.558.
74. पूववत् ऋ.10.101.3,4.
75. (क)वैिदक पदानु म कोषः (संिहता िवभाग, ख -6) - सं. िव ब ु शा ी; िव े रान वैिदक शोध सं थान, होिशयारपुर;
सं रण-1963 ई.(ख)वैिदक पदानु म कोषः ( ा ण-आर क िवभाग, ख -1 एवं 2) - सं. िव ब ु शा ी; िव े रान वैिदक शोध
सं थान, लवपुर; सं रण-1935 ई.,1933 ई.(ग) वैिदक पदानु म कोषः (उपिनषद् िवभाग, ख -1,2) - सं. िव ब ु शा ी;
िव े रान वैिदक शोध सं थान, लाहौर; सं रण-1945 ई.(घ)चतुवद वैयाकरण पद-सूची, ख -1,2) - सं. िव ब ु शा ी;
िव े रान वैिदक शोध सं थान, होिशयारपुर; सं रण-1960,1963 ई.
76. वा.रा.1.48.17-22। वा ीकीय रामायण(सटीक), थम ख , गीता ेस गोरखपुर, सं रण-1996ई., पृ.125,126.
77. पूववत्-1.48.29-32.
78. पूववत्-1.49.16.
79. िहं दी िव कोश,ख -1, नागरी चा रणी सभा,वाराणसी, सं रण-1973, पृ.318.
80. 'श ' नाम के अनेकानेक स भ के िलए -- महाभारत-कोश, ख -1, रामकुमार राय; चौख ा सं ृ त सीरीज आिफस,वाराणसी;
सं रण-1964ई.,पृ.124 से 127.
81. महाभारत-1.71.20से42.(गीता ेस गोरखपुर, ख -1से6., सटीक सं रण-1996ई.) ख -1, पृ.209 से 211.
82. महाभारत, पूववत्-1.129.5
83. पूववत्-3.135.17 एवं आगे।
84. पूववत्-5.12.6; 12.342.23.
85. पूववत्-12.342.23.
86. पूववत्-3.37.14,49.
87. पूववत्-1.196.16-20.
88. पूववत्-3.142.17,18.
89. पूववत्-3.229.7,12,13,15.
90. पूववत्-12.342.25-52.
91. महाभारत-कोश, रामकुमार राय; चौख ा सं ृ त सीरीज आिफस,वाराणसी; ख -1, सं रण-1964, पृ.116-117.
92. (क) ीिव ुपुराण (सटीक), गीता ेस गोरखपुर, सं रण-2001ई., पृ.163से169.(ख) ोम ागवत महापुराण (सटीक, दो ख ों म),
गीता ेस गोरखपुर, सं रण-2001ई., थम ख ,पृ.757-760 एवं 815-817.
93. पउम च रउ (सटीक), भाग-1, सं.डाॅ .एच.सी.भायाणी, अनुवादक- डाॅ .दे वे कुमार जैन; भारतीय ानपीठ काशन, तृतीय
सं रण-1975ई., पृ.130से142.
94. वा ीकीय रामायण, पूववत्-7.7.31-43.

"https://hi.wikipedia.org/w/index.php?title=इ &oldid=4003891" से िलया गया

अ म प रवतन 08:33, 14 नव र 2018।

यह साम ी ि येिटव कॉम ऍटी ूशन/शेयर-अलाइक लाइसस के तहत उपल है ; अ शत लागू हो सकती ह। िव ार से जानकारी हे तु
दे ख उपयोग की शत

You might also like