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Biography of Meera

मीरा बाई (१५०४-१५५८) कृष्ण-भक्ति शाखा की प्रमुख कवयित्री हैं । उनकी कयवताओं में स्त्री पराधीनता के
प्रती एक गहरी टीस है , जो भक्ति के रं ग में रं ग कर और गहरी हो गिी है ।[1] मीरा बाई ने कृष्ण-भक्ति के
स्फुट पदों की रचना की है।

जीवन पररचि[संपायदत करें ]

मीराबाई का मंयदर, यचत्तौड़गढ़ (१९९०)

मीरां बाई का जन्म संवत् 1504 में जोधपुर में कुरकी नामक गााँ व में हुआ था।[2] कुड् की में मीरा बाई के
यपता रत्नयसंह का घर था । िे बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुयच ले ने लगी थीं।

इनका यववाह उदिपुर के महाराणा कुंवर भोजराज के साथ हुआ था जो उदिपुर के महाराणा सांगा के पुत्र
थे। यववाह के कुछ समि बाद ही उनके पयत का दे हान्त हो गिा। पयत की मृत्यु के बाद उन्हें पयत के
साथ सती करने का प्रिास यकिा गिा यकन्तु मीरा इसके यलए तै िार नही हुईं। वे संसार की ओर से यवरि
हो गिीं और साधु -संतों की संगयत में हररकीतत न करते हुए अपना समि व्यतीत करने लगीं। पयत के
परलोकवास के बाद इनकी भक्ति यदन-प्रयतयदन बढ़ती गई। िे मंयदरों में जाकर वहााँ मौजू द कृष्णभिों के
सामने कृष्णजी की मूयतत के आगे नाचती रहती थीं। मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज
पररवार को अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को यवष दे कर मारने की कोयशश की। घर वालों के
इस प्रकार के व्यवहार से परे शान होकर वह द्वारका और वृं दावन गईं। वह जहााँ जाती थीं, वहााँ लोगों का
सम्मान यमलता था। लोग उनको दे यविों के जै सा प्यार और सम्मान दे ते थे।

द्वाररका में संवत १५५८ ईस्वी में वो भगवान कृष्ण की मूयतत में समा गईं।

कृयतिााँ [संपायदत करें ]

मीराबाई ने चार ग्रं थों की रचना की--

 नरसी का मािरा
 गीत गोयवंद टीका
 राग गोयवं द
 राग सोरठ के पद
 इसके अलावा मीराबाई के गीतों का संकलन "मीरां बाई की पदावली' नामक ग्रन्थ में यकिा गिा है ।
सायहयतक दे न[संपायदत करें ]

मीरा जी ने यवयभन्न पदों व गीतों की रचना की| मीरा के पदों मे ऊाँचे आध्याक्तिक अनुभव हैं | उनमे समायहत
संदेश और अन्य संतो की यशक्षा मे समानता नजर आती हैं | उनके पद उनकी आध्याक्तिक उन्नयत के
अनुभवों का दपतण हैं | मीरा ने अन्य संतो की तरह कई भाषाओं का प्रिोग यकिा है जै से -

यहन्दी, गु जराती, ब्रज, अवधी, भोजपुरी, अरबी, फारसी, मारवाड़ी, संस्कृत, मैथली और पंजाबी|

भावावे ग, भावनाओं की मायमतक अयभव्यक्ति, प्रेम की ओजस्वी प्रवाहधारा, प्रीतम यविोग की पीड़ा की ममतभेदी
प्रखता से अपने पदों को अलं कृत करने वाली प्रेम की साक्षात् मूयतत मीरा के समान शािद ही कोई कयव
हो| [3]

biography of kabir
कबीर यहं दी सायहत्य के भक्ति कालीन िुग में ज्ञानाश्रिी- यनगुत ण शाखा की काव्यधारा के प्रवततक थे। इनकी
रचनाओं ने यहंदी प्रदे श के भक्ति आं दोलन को गहरे स्तर तक प्रभायवत यकिा।

जन्म
गगन मंडल से उतरे , सदगुरू सत्‍ि कबीर
जलज मां ही पोढन यकिो सब पीरन के पीर
चौदस सौ पचपन सालगीरा, चंन्‍द्रवार िह ठाठ किो
ज्‍िेष्‍ठ सुदी बरसाईत को, पुरनमासी प्रगट भिो
सत कबीर सत लोक से आिे, नहीं बाप नही माता जािे
यहते यवदे ह दे ह धरी आिे , दे ही का नाम कबीर धरािे

मृत्यु
कबीर की दृढ़ मान्यता थी यक कमों के अनुसार ही गयत यमलती है स्थान यवशे ष के कारण नहीं। अपनी
इस मान्यता को यसद्ध करने के यलए अंत समि में वह मगहर चले गए ;क्ोंयक लोगों मान्यता थी यक काशी
में मरने पर स्वगत और मगहर में मरने पर नरक यमलता है । सदगुरू कबीर साहे ब के जन्‍म को लेकर कई
भ्रामक क्तस्थयतिां उनके सरल, सहज, समाज को सीधे चोट करने वाले शब्‍दों से आहात पाखंडी ब्राहणों व
मोलवीिों ने फेलािी थी। पर वतत मान समि में यवज्ञान भी िह मानता है यक जो जन्‍म लेता है , वह सशरीर
म़त्‍िु को प्राप्‍त होता है पर सदगु रू कबीर साहेब के साथ ऐसा नहीं है वह अजन्‍मे है तभी तो उन्‍होने यहन्‍दु
मुक्तिम एकता के यलए अवतररत हुए और यहन्‍दु मुक्तिम एकता हे तु समाज को धमत की ऐसी यशक्षा दे ने की
सब में रमने वाला राम और रहीम एक ही है । उन्‍होने मगहर में अन्‍ततध्‍िान हो संदेश यदिा आज भी वहां
क्तस्थत मजार व समाधी क्तस्थत है । जहां सदगु रू कबीर के शरीर के स््‍थान पर क्तस्थत पुष्‍पों से उनका यनमाणत
यकिा गिा। अथात त उनका शरीर था ही नहीं वह अजन्‍मे थे अवतारी पुरूष
थे।। http://kabirdharmdasvanshavali.org/
जन्म स्थान
जन्म स्थान के बारे में यवद्वानों में मतभेद है परन्तु अयधकतर यवद्वान इनका जन्म काशी में ही मानते
हैं ,यजसकी पुयि स्विं कबीर का िह कथन भी करता है । "काशी में परगट भये ,रामानंद चेताये "

गु रु
कबीर के गुरु के सम्बन्ध में प्रचयलत कथन है यक कबीर को उपिु ि गुरु की तलाश थी। वह वै ष्णव संत
आचाित रामानंद को अपना अपना गु रु बनाना चाहते थे ले यकन उन्होंने कबीर को यशष्य बनाने से मना कर
यदिा ले यकन कबीर ने अपने मन में ठान यलिा यक स्वामी रामानंद को ही हर कीमत पर अपना गु रु
बनाऊंगा ,इसके यलए कबीर के मन में एक यवचार आिा यक स्वामी रामानंद जी सुबह चार बजे गं गा स्नान
करने जाते हैं उसके पहले ही उनके जाने के मागत में सीयढ़िों लेट जाऊाँगा और उन्होंने ऐसा ही यकिा ।
एक यदन, एक पहर रात रहते ही कबीर पञ्चगंगा घाट की सीयढ़िों पर यगर पड़े । रामानन्द जी गं गास्नान
करने के यलिे सीयढ़िााँ उतर रहे थे यक तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गिा। उनके मुख से
तत्काल 'राम-राम' शब्द यनकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान यलिा और रामानन्द जी को
अपना गु रु स्वीकार कर यलिा।कबीर के ही शब्दों में- काशी में परगट भये ,रामानंद चेताये

व्यवसाि
जीयवकोपाजत न के यलए कबीर जु लाहे का काम करते थे।

भाषा
कबीर की भाषा सधु क्कड़ी है । इनकी भाषा में यहं दी भाषा की सभी बोयलिों की भाषा सक्तम्मयलत हैं ।
राजस्थानी,हरिाणवी, पंजाबी, खड़ी बोली, अवधी, ब्रजभाषा के शब्दों की बहुलता है ।

कृयतिााँ
यशष्यों ने उनकी वायणिों का संग्रह " बीजक एवं अनुराग सागर" नाम के ग्रं थ मे यकिा यजसके तीन मुख्य
भाग हैं : साखी ,सबद (पद ),रमैनी

 साखी: संस्कृत ' साक्षी , शब्द का यवकृत रूप है और धमोपदे श के अथत में प्रिु ि हुआ है । अयधकांश
साक्तखिााँ दोहों में यलखी गिी हैं पर उसमें सोरठे का भी प्रिोग यमलता है । कबीर की यशक्षाओं और
यसद्धां तों का यनरूपण अयधकतर साखी में हुआ है।
 सबद गेि पद है यजसमें पूरी तरह संगीतािकता यवद्यमान है । इनमें उपदे शािकता के स्थान पर
भावावे श की प्रधानता है ; क्ोंयक इनमें कबीर के प्रेम और अंतरं ग साधना की अयभव्यक्ति हुई है ।
 रमैनी चौपाई छं द में यलखी गिी है इनमें कबीर के रहस्यवादी और दाशत यनक यवचारों को प्रकट यकिा
गिा है ।
धमत के प्रयत
साधु संतों का तो घर में जमावड़ा रहता ही था। कबीर पढ़े -यलखे नहीं थे- 'मयस कागद छूवो नहीं, कलम
गही नयहं हाथ।'उन्होंने स्विं ग्रं थ नहीं यलखे, मुाँह से भाखे और उनके यशष्यों ने उसे यलख यलिा। आप के
समस्त यवचारों में रामनाम की मयहमा प्रयतध्वयनत होती है । वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कमतकाण्ड के
घोर यवरोधी थे। अवतार, मूयत्तत , रोजा, ईद, मसयजद, मंयदर आयद को वे नहीं मानते थे।

वे कभी कहते हैं -

'हररमोर पपउ, मैं राम की बहुररया' तो कभी कहते हैं , 'हरर जननी मैं बालक तोरा'।

और कभी "बडा हुआ तो क्ा हुआ जै सै"

उस समि यहंदू जनता पर मुक्तिम आतं क का कहर छािा हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस ढं ग से
सुयनिोयजत यकिा यजससे मुक्तिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुिािी हो गिी। उन्होंने
अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी तायक वह आम आदमी तक पहुाँच सके। इससे दोनों सम्प्रदािों के
परस्पर यमलन में सुयवधा हुई। इनके पंथ मुसलमान-संस्कृयत और गोभक्षण के यवरोधी थे। कबीर को
शां यतमि जीवन यप्रि था और वे अयहं सा, सत्य, सदाचार आयद गु णों के प्रशं सक थे। अपनी सरलता, साधु
स्वभाव तथा संत प्रवृयत्त के कारण आज यवदे शों में भी उनका समादर हो रहा है ।

उसी हालत में उन्होंने बनारस छोड़ा और आियनरीक्षण तथा आिपरीक्षण करने के यलिे दे श के यवयभन्न
भागों की िात्राएाँ कीं इसी क्रम में वे कायलंजर यजले के यपथौराबाद शहर में पहुाँचे। वहााँ रामकृष्ण का छोटा
सा मक्तन्दर था। वहााँ के संत भगवान गोस्वामी के यजज्ञासु साधक थे यकंतु उनके तकों का अभी तक पूरी
तरह समाधान नहीं हुआ था। संत कबीर से उनका यवचार-यवयनमि हुआ। कबीर की एक साखी ने उन के
मन पर गहरा असर यकिा-

'बन ते भागा यबहरे पड़ा, करहा अपनी बान। करहा बे दन कासों कहे , को करहा को जान।।'

वन से भाग कर बहे यलिे के द्वारा खोिे हुए गड्ढे में यगरा हुआ हाथी अपनी व्यथा यकस से कहे ?

सारां श िह यक धमत की यजज्ञासा सें प्रेररत हो कर भगवान गोसाई अपना घर छोड़ कर बाहर तो यनकल
आिे और हररव्यासी सम्प्रदाि के गड्ढे में यगर कर अकेले यनवात यसत हो कर असंवाद्य क्तस्थयत में पड़ चुके हैं ।

मूयत्तत पूजा को लक्ष्य करते हुए उन्होंने एक साखी हायजर कर दी-

पाहन पूजे हरर यमलैं , तो मैं पूजौं पहार। वा ते तो चाकी भली, पीसी खाि संसार।।

कबीर के राम
कबीर के राम तो अगम हैं और संसार के कण-कण में यवराजते हैं । कबीर के राम इिाम के
एकेश्वरवादी, एकसत्तावादी खुदा भी नहीं हैं । इिाम में खुदा िा अल्लाह को समस्त जगत एवं जीवों से यभन्न
एवं परम समथत माना जाता है । पर कबीर के राम परम समथत भले हों, ले यकन समस्त जीवों और जगत से
यभन्न तो कदायप नहीं हैं । बक्ति इसके यवपरीत वे तो सबमें व्याप्त रहने वाले रमता राम हैं । वह कहते हैं
व्यापक ब्रह्म सबयनमैं एकै, को पंयडत को जोगी। रावण-राव कवनसूं कवन वे द को रोगी।
कबीर राम की यकसी खास रूपाकृयत की कल्पना नहीं करते , क्ोंयक रूपाकृयत की कल्पना करते ही राम
यकसी खास ढााँचे (फ्रेम) में बाँध जाते , जो कबीर को यकसी भी हालत में मंजूर नहीं। कबीर राम की
अवधारणा को एक यभन्न और व्यापक स्वरूप दे ना चाहते थे। इसके कुछ यवशे ष कारण थे, यजनकी चचात हम
इस ले ख में आगे करें गे । यकन्तु इसके बावजूद कबीर राम के साथ एक व्यक्तिगत पाररवाररक यकस्म का
संबंध जरूर स्थायपत करते हैं । राम के साथ उनका प्रेम उनकी अलौयकक और मयहमाशाली सत्ता को एक
क्षण भी भुलाए बगैर सहज प्रेमपरक मानवीि संबंधों के धरातल पर प्रयतयित है ।
कबीर नाम में यवश्वास रखते हैं , रूप में नहीं। हालााँयक भक्ति-संवेदना के यसद्धांतों में िह बात सामान्य रूप
से प्रयतयित है यक ‘नाम रूप से बढ़कर है’, ले यकन कबीर ने इस सामान्य यसद्धांत का क्रां यतधमी उपिोग
यकिा। कबीर ने राम-नाम के साथ लोकमानस में शताक्तब्दिों से रचे -बसे संक्तिि भावों को उदात्त एवं
व्यापक स्वरूप दे कर उसे पुराण-प्रयतपायदत ब्राह्मणवादी यवचारधारा के खााँ चे में बााँधे जाने से रोकने की
कोयशश की।
कबीर के राम यनगुतण-सगु ण के भेद से परे हैं । दरअसल उन्होंने अपने राम को शास्त्र-प्रयतपायदत अवतारी,
सगु ण, वचतस्वशील वणात श्रम व्यवस्था के संरक्षक राम से अलग करने के यलए ही ‘यनगुत ण राम’ शब्द का प्रिोग
यकिा–‘यनगुत ण राम जपहु रे भाई।’ इस ‘यनगुतण’ शब्द को ले कर भ्रम में पड़ने की जरूरत नहीं। कबीर का
आशि इस शब्द से यसफत इतना है यक ईश्वर को यकसी नाम, रूप, गु ण, काल आयद की सीमाओं में बााँ धा
नहीं जा सकता। जो सारी सीमाओं से परे हैं और यफर भी सवतत्र हैं , वही कबीर के यनगुत ण राम हैं । इसे
उन्होंने ‘रमता राम’ नाम यदिा है । अपने राम को यनगुतण यवशे षण दे ने के बावजूद कबीर उनके साथ मानवीि
प्रेम संबंधों की तरह के ररश्ते की बात करते हैं । कभी वह राम को माधुित भाव से अपना प्रेमी िा पयत
मान लेते हैं तो कभी दास्य भाव से स्वामी। कभी-कभी वह राम को वात्सल्य मूयतत के रूप में मााँ मान लेते
हैं और खुद को उनका पुत्र। यनगुत ण-यनराकार ब्रह्म के साथ भी इस तरह का सरस, सहज, मानवीि प्रेम
कबीर की भक्ति की यवलक्षणता है । िह दु यवधा और समस्या दू सरों को भले हो सकती है यक यजस राम के
साथ कबीर इतने अनन्य, मानवीि संबंधपरक प्रेम करते हों, वह भला यनगुतण कैसे हो सकते हैं , पर खुद
कबीर के यलए िह समस्या नहीं है ।
वह कहते भी हैं
“संतौ, धोखा कासूं कयहिे । गुनमैं यनरगु न, यनरगु नमैं गु न, बाट छां यड़ क्ूं बयहसे!” नहीं है।

प्रोफेसर महावीर सरन जै न ने कबीर के राम एवं कबीर की साधना के संबंध में अपने यवचार व्यि करते
हुए कहा है : " कबीर का सारा जीवन सत्‍ि की खोज तथा असत्‍ि के खंडन में व्‍ितीत हुआ। कबीर की
साधना ‘‘मानने से नहीं, ‘‘जानने से आरम्‍भ होती है । वे यकसी के यशष्‍ि नहीं, रामानन्‍द द्वारा चे तािे हुए चेला
हैं । उनके यलए राम रूप नहीं है , दशरथी राम नहीं है , उनके राम तो नाम साधना के प्रतीक हैं । उनके राम
यकसी सम्‍प्रदाि, जायत िा दे श की सीमाओं में कैद नहीं है । प्रकृयत के कण-कण में, अंग-अंग में रमण
करने पर भी यजसे अनंग स््‍पशत नहीं कर सकता, वे अलख, अयवनाशी, परम तत्‍व ही राम हैं । उनके राम
मनुष्‍ि और मनुष्‍ि के बीच यकसी भेद-भाव के कारक नहीं हैं । वे तो प्रेम तत्‍व के प्रतीक हैं । भाव से
ऊपर उठकर महाभाव िा प्रेम के आराध्‍ि हैं ः -

‘प्रेम जगावै यवरह को, यवरह जगावै पीउ, पीउ जगावै जीव को, जोइ पीउ सोई जीउ' - जो पीउ है , वही जीव
है । इसी कारण उनकी पूरी साधना ‘‘हं स उबारन आए की साधना है । इस हं स का उबारना पोयथिों के पढ़ने
से नहीं हो सकता, ढाई आखर प्रेम के आचरण से ही हो सकता है । धमत ओढ़ने की चीज नहीं है , जीवन में
आचरण करने की सतत सत्‍ि साधना है । उनकी साधना प्रेम से आरम्‍भ होती है । इतना गहरा प्रेम करो यक
वही तु म्‍हारे यलए परमात्‍मा हो जाए। उसको पाने की इतनी उत्‍कण्‍ठा हो जाए यक सबसे वै राग्‍ि हो जाए,
यवरह भाव हो जाए तभी उस ध्‍िान समायध में पीउ जाग्रत हो सकता है। वही पीउ तुम्‍हारे अन्‍ततमन में बै ठे
जीव को जगा सकता है । जोई पीउ है सोई जीउ है। तब तुम पूरे संसार से प्रेम करोगे , तब संसार का
प्रत्‍िेक जीव तुम्‍हारे प्रेम का पात्र बन जाएगा। सारा अहंकार, सारा द्वे ष दू र हो जाएगा। यफर महाभाव जगेगा।
इसी महाभाव से पूरा संसार यपउ का घर हो जाता है ।

सूरज चन्‍द्र का एक ही उयजिारा, सब ियह पसरा ब्रह्म पसारा।

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जल में कुम्‍भ, कुम्‍भ में जल है , बाहर भीतर पानी

फूटा कुम्‍भ जल जलहीं समाना, िह तथ कथौ यगिानी।"


जन्म: 1440, वाराणसी
मृ त्यु: 1518, मगहर, भारत
पिल्में: सीसत एं ड क्लाउन्स, िस वी कैन
बच्चे: कमाली, कमाल

Works

बब
Meera’s works
प्रमुख
ब संग्रह

बब
 बरसी का मायरा / मीराबाई
 गीत गोप ंद टीका / मीराबाई

 राग गोप ं द / मीराबाई

 राग सोरठ / मीराबाई

पदा
बब ली

 पदावली्‍/्‍भाग-1 / मीराबाई
बब
 पदावली्‍/्‍भाग-2 / मीराबाई
बब
 पदावली्‍/्‍भाग-3 / मीराबाई
बब
 पदावली्‍/्‍भाग-4 / मीराबाई

 पदावली्‍/्‍भाग-5 / मीराबाई
-
 पदावली्‍/्‍भाग-6 / मीराबाई
बब
प्रपतपनपि रचनाएँ


 नयहं ्‍भावै्‍थां रो्‍दे सड़लो्‍जी्‍रं गरूड़ो्‍/्‍मीराबाई

 हरर्‍तु म्‍हरो्‍जन्‍की्‍भीर्‍/्‍मीराबाई
बब

बब
 नै ना्‍यनपट्‍बंकट्‍छयब्‍अटके्‍/्‍मीराबाई
 मोती्‍मूाँगे्‍उतार्‍बनमाला्‍पोई्‍/्‍मीराबाई
 बादल्‍दे ख्‍डरी्‍/्‍मीराबाई
 पािो्‍जी्‍म्हें ्‍तो्‍राम्‍रतन्‍धन्‍पािो्‍/्‍मीराबाई
 पग्‍घूाँघरू्‍बााँ ध्‍मीरा्‍नाची्‍रे ्‍/्‍मीराबाई
 श्याम्‍मोसूाँ्‍ऐंडो्‍डोलै्‍हो्‍/्‍मीराबाई
 तोसों्‍लाग्यो्‍ने ह्‍रे ्‍प्यारे , नागर्‍नं द्‍कुमार्‍/्‍मीराबाई
 बरसै्‍बदररिा्‍सावन्‍की्‍/्‍मीराबाई
 हे री्‍म्हा्‍दरद्‍यदवाणौ्‍/्‍मीराबाई
 मन्‍रे ्‍पायस्‍हरर्‍के्‍चरन्‍/्‍मीराबाई
 प्रभु्‍कब्‍रे ्‍यमलोगे्‍/्‍मीराबाई
 तुम्‍यबन्‍नै ण्‍दु खारा्‍/्‍मीराबाई
 हरो्‍जन्‍की्‍भीर्‍/्‍मीराबाई
 म्हारो्‍अरजी्‍/्‍मीराबाई
 मेरो्‍दरद्‍न्‍जाणै्‍कोि्‍/्‍मीराबाई
 राखौ्‍कृपायनधान्‍/्‍मीराबाई
 कोई्‍कयहिौ्‍रे ्‍/्‍मीराबाई
 दू खण्‍लागे्‍नै न्‍/्‍मीराबाई
 कल्‍नायहं ्‍पड़त्‍यजस्‍/्‍मीराबाई
 आि्‍यमलौ्‍मोयह्‍/्‍मीराबाई
 लोक-लाज्‍तयज्‍नाची्‍/्‍मीराबाई
 मैं्‍बैरागण्‍हं गी्‍/्‍मीराबाई
 बसो्‍मोरे ्‍नै नन्‍में्‍/्‍मीराबाई
 मोरे ्‍ललन्‍/्‍मीराबाई
 यचतवौ्‍जी्‍मोरी्‍ओर्‍/्‍मीराबाई
 प्राण्‍अधार्‍/्‍मीराबाई
 दू सरो्‍न्‍कोई्‍/्‍मीराबाई
 म्हारे ्‍घर्‍/्‍मीराबाई
 मैं्‍अरज्‍करू ाँ ्‍/्‍मीराबाई
 प्रभु, कबरे ्‍यमलोगे्‍/्‍मीराबाई
 मीरा्‍दासी्‍जनम्‍जनम्‍की्‍/्‍मीराबाई
 आली्‍रे !्‍/्‍मीराबाई
 प्रभु्‍यगरधर्‍नागर्‍/्‍मीराबाई
 राख्‍अपनी्‍सरण्‍/्‍मीराबाई
 आज्यो्‍म्हारे ्‍दे स्‍/्‍मीराबाई
 कीजो्‍प्रीत्‍खरी्‍/्‍मीराबाई
 मीरा्‍के्‍प्रभु्‍यगरधर्‍नागर्‍/्‍मीराबाई
 शरण्‍गही्‍प्रभु्‍तेरी्‍/्‍मीराबाई
 प्रभु्‍यकरपा्‍कीजौ्‍/्‍मीराबाई
 सखी्‍री्‍/्‍मीराबाई
 पपैिा्‍रे !्‍/्‍मीराबाई
 होरी्‍खे लत्‍हैं ्‍यगरधारी्‍/्‍मीराबाई
 साजन्‍घर्‍आिा्‍हो्‍/्‍मीराबाई
 चाकर्‍राखो्‍जी्‍/्‍मीराबाई
 सां चो्‍प्रीतम्‍/्‍मीराबाई
 सुभ्‍है ्‍आज्‍घरी्‍/्‍मीराबाई
 म्हारो्‍कां ई्‍करसी्‍/्‍मीराबाई
 राम्‍रतन्‍धन्‍पािो्‍/्‍मीराबाई
 भजन्‍यबना्‍नरफीको्‍/्‍मीराबाई
 तुमरे ्‍दरस्‍यबन्‍बावरी्‍/्‍मीराबाई
 भजो्‍रे ्‍मन्‍गोयवन्दा्‍/्‍मीराबाई
 लाज्‍राखो्‍महाराज्‍/्‍मीराबाई
 म्हारो्‍प्रणाम्‍/्‍मीराबाई
 मीरा्‍की्‍यवनती्‍छै ्‍जी्‍/्‍मीराबाई
 माई्‍री!्‍/्‍मीराबाई
 राम-नाम-रस्‍पीजै ्‍/्‍मीराबाई
 मेरो्‍मन्‍राम-यह-राम्‍रटै ्‍/्‍मीराबाई
 हरर्‍यबन्‍कूण्‍गती्‍मेरी्‍/्‍मीराबाई
 मीरा्‍को्‍प्रभु्‍सााँ ची्‍दासी्‍बनाओ्‍/्‍मीराबाई
 सुण्‍लीजो्‍यबनती्‍मोरी, मैं्‍शरण्‍गही्‍प्रभु्‍तेरी्‍/्‍मीराबाई
 प्यारे ्‍दरसन्‍दीज्यो्‍आि, तुम्‍यबन्‍रह्यो्‍न्‍जाि्‍/्‍मीराबाई
 अब्‍तो्‍यनभािााँ ्‍सरे गी, बां ह्‍गहे की्‍लाज्‍/्‍मीराबाई
 स्वामी्‍सब्‍संसार्‍के्‍हो्‍सां चे्‍श्रीभगवान्‍/्‍मीराबाई
 राम्‍यमलण्‍रो्‍घणो्‍उमावो, यनत्‍उठ्‍जोऊं्‍बाटयड़िााँ ्‍/्‍मीराबाई
 गली्‍तो्‍चारों्‍बंद्‍हुई, मैं्‍हररसे्‍यमलूं्‍कैसे्‍जाि्‍/्‍मीराबाई
 नातो्‍नामको्‍जी्‍म्हां सूं्‍तनक्‍न्‍तोड्यो्‍जाि्‍/्‍मीराबाई
 माई्‍म्हारी्‍हररजी्‍न्‍बूझी्‍बात्‍/्‍मीराबाई
 दरस्‍यबनु ्‍दू खण्‍लागे्‍नैन्‍/्‍मीराबाई
 सां वरा्‍म्हारी्‍प्रीत्‍यनभाज्यो्‍जी्‍/्‍मीराबाई
 प्रभुजी्‍थे्‍कहां ्‍गिा्‍नेहड़ो्‍लगाि्‍/्‍मीराबाई
 है ्‍मेरो्‍मनमोहना, आिो्‍नहीं्‍सखी्‍री्‍/्‍मीराबाई
 मैं्‍यबरहयण्‍बैठी्‍जागूं्‍जगत्‍सब्‍सोवे्‍री्‍आली्‍/्‍मीराबाई
 यपि्‍यबन्‍सूनो्‍छै ्‍जी्‍म्हारो्‍दे स्‍/्‍मीराबाई
 साजन, सुध्‍ज्यूं्‍जाणो्‍लीजै ्‍हो्‍/्‍मीराबाई
 हरर्‍यबन्‍ना्‍सरै ्‍री्‍माई्‍/्‍मीराबाई
 आओ्‍मनमोहना्‍जी्‍जोऊं्‍थां री्‍बाट्‍/्‍मीराबाई
 राम्‍यमलण्‍के्‍काज्‍सखी, मेरे्‍आरयत्‍उर्‍में्‍जागी्‍री्‍/्‍मीराबाई
 गोयबन्द्‍कबहुं ्‍यमलै्‍यपिा्‍मेरा्‍/्‍मीराबाई
 मैं्‍हरर्‍यबन्‍क्ों्‍यजऊं्‍री्‍माइ्‍/्‍मीराबाई
 तुम्हरे ्‍कारण्‍सब्‍छोड्या, अब्‍मोयह्‍क्ूं ्‍तरसावौ्‍हौ्‍/्‍मीराबाई
 करुणा्‍सुणो्‍स्याम्‍मेरी, मैं्‍तो्‍होि्‍रही्‍चेरी्‍तेरी्‍/्‍मीराबाई
 पपइिा्‍रे , यपव्‍की्‍वायण्‍न्‍बोल्‍/्‍मीराबाई
 यपिा्‍मोयह्‍दरसण्‍दीजै्‍हो्‍/्‍मीराबाई
 सखी, मेरी्‍नींद्‍नसानी्‍हो्‍/्‍मीराबाई
 म्हारी्‍सुध्‍ज्यूं्‍जानो्‍त्यूं्‍लीजो्‍/्‍मीराबाई
 घर्‍आं गण्‍न्‍सुहावै, यपिा्‍यबन्‍मोयह्‍न्‍भावै्‍/्‍मीराबाई
 साजन्‍घर्‍आओनी्‍मीठा्‍बोला्‍/्‍मीराबाई
 म्हारे ्‍जनम-मरण्‍साथी्‍थां ने्‍नहीं्‍यबसरू ं ्‍यदनराती्‍/्‍मीराबाई
 थे्‍तो्‍पलक्‍उघाड़ो्‍दीनानाथ्‍/्‍मीराबाई
 तुम्‍सुणौ्‍दिाल्‍म्हारी्‍अरजी्‍/्‍मीराबाई
 स्याम्‍मोरी्‍बां हड़ली्‍जी्‍गहो्‍/्‍मीराबाई
 मेरे्‍नैना्‍यनपट्‍बंकट्‍छयब्‍अटके्‍/्‍मीराबाई
 िा्‍मोहन्‍के्‍रूप्‍लुभानी्‍/्‍मीराबाई
 बड़े ्‍घर्‍ताली्‍लागी्‍रे , म्हारां ्‍मन्‍री्‍उणारथ्‍भागी्‍रे ्‍/्‍मीराबाई
 मेरे्‍तो्‍यगरधर्‍गोपाल्‍दू सरो्‍न्‍कोई्‍/्‍मीराबाई
 जोसीड़ा्‍ने्‍लाख्‍बधाई्‍रे ्‍अब्‍घर्‍आिे्‍स्याम्‍/्‍मीराबाई
 सहे यलिां ्‍साजन्‍घर्‍आिा्‍हो्‍/्‍मीराबाई
 यपिाजी्‍म्हारे ्‍नैणां ्‍आगे्‍रहज्यो्‍जी्‍/्‍मीराबाई
 म्हारा्‍ओलयगिा्‍घर्‍आिा्‍जी्‍/्‍मीराबाई
 हमारो्‍प्रणाम्‍बां केयबहारी्‍को्‍/्‍मीराबाई
 म्हां रे्‍घर्‍होता्‍जाज्यो्‍राज्‍/्‍मीराबाई
 आओ्‍सहेल्ां ्‍रली्‍करां ्‍है ्‍पर्‍घर्‍गवण्‍यनवारर्‍/्‍मीराबाई
 जागो्‍म्हां रा्‍जगपयतरािक्‍हं स्‍बोलो्‍क्ूं ्‍नहीं्‍/्‍मीराबाई
 हरी्‍मेरे्‍जीवन्‍प्रान्‍अधार्‍/्‍मीराबाई
 आली्‍, सां वरे ्‍की्‍दृयि्‍मानो, प्रेम्‍की्‍कटारी्‍है ्‍/्‍मीराबाई
 छोड़्‍मत्‍जाज्यो्‍जी्‍महाराज्‍/्‍मीराबाई
 सीसोद्यो्‍रूठ्यो्‍तो्‍म्हां रो्‍कां ई्‍कर्‍लेसी्‍/्‍मीराबाई
 बरजी्‍मैं्‍काहकी्‍नायहं ्‍रहं ्‍/्‍मीराबाई
 राणाजी, म्हां री्‍प्रीयत्‍पुरबली्‍मैं्‍कां ई्‍करू ं ्‍/्‍मीराबाई
 राम्‍नाम्‍मेरे्‍मन्‍बयसिो, रयसिो्‍राम्‍ररझाऊं्‍ए्‍माि्‍/्‍मीराबाई
 राणाजी, थे्‍क्ां ने्‍राखो्‍म्हां सूं्‍बैर्‍/्‍मीराबाई

2. हरर्‍तुम्‍हरो्‍जन्‍की्‍भीर।
द्रोपदी्‍की्‍लाज्‍राखी, तु म्‍बढािो्‍चीर॥
भि्‍कारण्‍रूप्‍नरहरर, धरिो्‍आप्‍शरीर।
यहरणकश्यपु्‍मार्‍दीन्हों, धरिो्‍नायहं न्‍धीर॥
बूडते्‍गजराज्‍राखे , यकिो्‍बाहर्‍नीर।
दायस्‍'मीरा्‍लाल्‍यगररधर, दु :ख्‍जहााँ ्‍तहाँ ्‍पीर॥

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