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** Written On Thunderstorm Of 28-4-2017… *

उफ्फ्फ... ये बारिश

सुनो न...
ज्यूँ ही होली के िं गों का,
असि फीका हुआ,
तेिी यादों की पुिवाई,
ने ददल को दफि छु आ !

कहने लगी मन से मे िे,


दक अब तो.. इक बाि,
मीत से मे िे तय दमलवा दे ,
घना कोहिा...
भीति मे िे...
औि तड़पन बेशुमाि
औि उस पे..
ये गमम – तपती
सुबह औि शामें ...
औि तेिी यादों का खु माि !
बैचेनी बढ़ाती..
चाूँ द झुलसाती...
ये गमम तेज हवाएं ..
तेिे दलए दनकलती िही..
लब से मे िे दु आएं !

दकतना अजीब है ना..


तय मु झसे दय ि है ,
आना जहाूँ से मु मदकन नहीं,
औ’ ये ददल... तेिे दबना..
जीना इसे गवािा नहीं !

ढय ं ढता है तुझे..
हि कण में , हि रूप में ,
हि िं ग में , हि श्वास में ,
हि मौसम में ,
औि ठहिी अंगड़ाई में ,
क्या पता..
कहीं तय ददख जाएूँ ...
उस कोमल पत्ते की तरुणाई में !

यादों का बोझ,
बढ़ा जब... हद से ज्ादा...
तोड़ दीवािें सािी,
तेज सैलाब है आया,
ये आं धी - तयफ़ान नहीं,
विन...
तेिे आने की आहट थी,
सुनाई दी तुम्हे ? वो...
उसके पायल की ...
रुनझुन झनकाि थी !

उठा... सहसा..
आया उन हवाओं के बीच,
औि... यकायक...
बिसने लगी बदरिया..
दभगोने लगी ठीक वैसे ही...
जै से.. मस्त – झयमते सावन में ,
भीगते थे हम ...!
बस... फकम इतना सा है ,
अब,
उस सावन ‘हम’ थे ,
औि.. आज मैं हूँ .. !
पि..
बारिश के छीटं ों में भीगकि...
तुम्हे महसयस कि िहा था,
औि ना जाने क्ययूँ,
सोंधी महक से,
ददल मोहपाश में बंध िहा था !

खोकि उसमे ...


झुमने लगा कुछ ययं,
जै से... उन बयंदों ने ..
लबों पे मे िे, कुछ दनशानी दे दी,
औि... तेिी यादों से.. रुकी हुई..
मे िी धडकनों को...
िवानी दे दी !
हाूँ ...
बस इसी तिह...
हाूँ .. इसी तिह...
तुम दमलती िहो,
औि...
मु झमें खखलती िहो !

बताओ न.. दमलोगी न..


बताओ न.. खखलोगी न !
© Puneet Jain ‘Chinu’

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