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24 May at 07:55 ·
भक्ति-पद तक ऊपर उठने के लिए हमें प ांच ब तोां क ध्य न रखन च लहए : 1. भिोां की सांगलत करन , 2. भगव न कृष्ण की
सेव में िगन , 3. श्रीमद्
भ गवत क प ठ करन , 4. भगव न के पलवत्र न म क कीततन करन तथ 5.
वृन्द वन य मथु र में लनव स करन | यलद कोई इन प ां च ब तोां में से लकसी एक में थोड भी अग्रसर
होत है तो उस बुक्तिम न व्यक्ति क कृष्ण के प्रलत सुप्त प्रेम क्रमशः ज गृत हो ज त है (CC.मध्य
िीि 24.193-194) |
कृष्णभ वन मृ त में प्रगलत करते समय हमें एक ब त क और लवशेर्ष ध्य न रखन है : भगव न, भगव न के न म तथ भगव न के
भि के प्रलत कभी भी अपर ि नहीां करन है | इससे बचने क सरि उप य है अपने आप को दीन तथ भगव न क दस
समझन | भगव न ही केवि कत त है , हम तो अयोग्य व अिम है | सब में भगव न की उपक्तथथलत महसूस करते हुए सबको
सम्म न दें | तथ स थ ही जो व्यक्ति दू सरोां के गुणोां तथ आचरण की प्रशांस करत है य आिोचन करत है , वह म य मय
द्वै तोां में फसने के क रण कृष्णभ वन मृ त से लवपथ हो ज त है (SB.11.28.2) |
भक्तिहीन व्यक्ति के लिए उच्च कुि, श स्त्र-ज्ञ न, व्रत, तपस्य तथ वैलदक मां त्रोच्च र वैसे ही हैं , जैसे मृ त शरीर को गहने पहन न
(CC.मध्य िीि 19.75) | प्र म लणक श स्त्रोां क लनणतय है लक मनुष्य को कमत , ज्ञ न तथ योग क पररत्य ग करके भक्ति को
ग्रहण करन च लहए, लजससे कृष्ण पूणततय तुष्ट हो सकें (CC.मध्य िीि 20.136) | भक्ति के फिस्वरूप मनु ष्य क सुप्त कृष्ण
प्रेम ज गृत हो ज त है | सुप्त कृष्ण-प्रेम को ज गृत लकये लबन कृष्ण को प्र प्त करने क अन्य कोई स िन नहीां है
(CC.अन्त्य िीि 4.58) | गीत (BG.18.58) में भगव न कृष्ण कहते हैं : यलद तुम मेरी चेतन में क्तथथत रहोगे तो मे री कृप से
बि-जीवन के समस्त अवरोिोां को प र कर ज ओगे | िे लकन यलद लमथ्य अहां क रवश ऐसी चेतन में कमत नही करोगे, तो तुम
लवलनष्ट हो ज ओगे | तथ “जब भक्ति से जीव पूणत कृष्णभ वन मृ त में होत है तो वह वैकुण्ठ में प्रवेश क अलिक री हो ज त
है ” (BG.18.55) |
शुकदे व गोस्व मी कहते हैं : “हे र जन!, जो व्यक्ति भगवन्न म तथ भगव न के क यो क लनरन्तर श्रवण तथ कीततन करत है ,
वह बहुत ही आस नी से शुि भक्ति पद को प्र प्त कर सकत है | केवि व्रत रखने तथ वैलदक कमत क ांड करने से ऐसी
शुक्ति प्र प्त नहीां की ज सकती” (SB.6.3.32) | भक्ति के लबन कोर ज्ञ न मु क्ति लदि ने में समथत नहीां है , िे लकन यलद कोई
भगव न कृष्ण की प्रेममयी सेव में आसि है तो वह ज्ञ न के लबन भी मु क्ति प्र प्त कर सकत है (CC.मध्य िीि 22.21) |
मु क्ति तो भि के समक्ष उसकी सेव करने के लिए ह थ जोड़े खड़ी रहती है |
लनयलमत भक्ति करते रहने से हृदय कोमि हो ज त है , िीरे िीरे स री भौलतक इच्छ ओां से लवरक्ति हो ज ती है , तब वह कृष्ण
के प्रीलत अनु रुि हो ज त है | जब यह अनु रुक्ति प्रग ढ़ हो ज ती है तब यही भगवत्प्रेम कहि ती है (CC.मध्य िीि
19.177) | यलद कोई भगवत्प्रेम उत्पन्न कर िे त है और कृष्ण के चरण-कमिोां में अनु रुि हो ज त है , तो िीरे -िीरे अन्य स री
वस्तुओां से उसकी आसक्ति िु प्त हो ज ती है (CC.आलद िीि 7.143) |भगवत्प्रेम क िक्ष्य न तो भौलतक दृलष्ट से िनी बनन
है , न ही भवबांिन से मु ि होन है | व स्तलवक िक्ष्य तो भगव न की भक्तिमय सेव में क्तथथत होकर लदव्य आनन्द भोगन है |
जब मनु ष्य भगव न कृष्ण की सांगलत क आस्व दन कर सकने योग्य हो ज त है , तब यह भौलतक सांस र, जन्म-मृ त्यु क चक्र
सम प्त हो ज त है (CC.मध्य िीि 20.141-142)|
2 ) Arvind Rambhai Rabari
9 mins ·
30 May at 09:40 ·
प्रम लणक गुरु की खोज के लिए सबसे पहिे हमें प्रम लणक गुरु–लशष्य परम्पर को खोजन होग लजसकी चच त भगव न् श्रीकृष्ण
भगवद्गीत में करते
हैं – *एवां परम्पर प्र प्तम् (४.२)* अथ त त् इस परम ज्ञ न की प्र क्तप्त गुरु–लशष्यपरम्पर
के द्व र की ज ती है ।
इस प्रम लणक गुरु–लशष्य परम्पर की लवशेर्षत यह होती है लक इसमें मू ि ज्ञ न क स्रोत भगव न् स्वयां होते हैं , अथ तत् सबसे
पहिे भगव न् स्वयां ही ज्ञ न दे ते हैं – जैस लक ब्रह्म–म िव–गौलड़य परम्पर में सबसे पहिे भगव न्कृष्ण यह ज्ञ न ब्रह्म जी को
दे ते हैं , तत्पश्च त् ब्रह्म जी न रदजी को अा ाै र न रदजी व्य सजी को।
परम्पर में अा गे अा ने व िे गुरु उसी ज्ञ न को केवि दोहर ते हैं । अाौर जब भगव न् स्वयां ही अपने अाौर इस जगत् के
लवर्षय में ज्ञ न दे ते हैं तो वह ज्ञ न पूणत ही होत है । परम्पर में अा रहे गुरु से सम्बन्ध थथ लपत करने पर लशष्य क सम्बन्ध
केवि अपने गुरु से ही नहीां अलपतु गुरु के गुरु अा ाै र उनके पहिे के सभी गुरुअाोाां से हो ज त है ।
क्योांलक गुरु द्व र लदए ज न व ि ज्ञ न बहुत ही महत्वपूणत होत है अाौर हम रे जीवन में अत्यलिक लवशेर्ष महत्व रखत है ,
इसलिए गुरु के िक्षणोां को समझन बहुत अा वश्यक है । अन्यथ हम री क्तथथलत भी उसी व्यक्ति के सम नहो सकती है जो
सोन खरीदने के लिए लनकित है लकन्तु सोने की प्रम लणकत क ज्ञ न न होने के क रण िोख ख ज त है अाौर पीति
खरीद कर िे अा त है ।
अा जकि अने क िोग गुरु के प स भौलतक ि भ जैसे लक िन, परीक्ष में सफित , स्व स्थ्य इत्य लद हे तु ज ते हैं लकन्तु सत्य तो
यह है लक व स्तलवक गुरु अपने लशष्य को भौलतक ि भ दे ने के लिए नहीां होते, स िु क अथत है जोक टत है अथ तत् जो
अपने लशष्य के भौलतक के बांिनोां की ग ेँठोां को क टते हैं ।
गुरु को अपने अा चरण द्व र लसख न च लहए अाौर उनक अपने मन अाौर इक्तियोां पर लनयन्त्रण होन च लहए, इसी क रण
गुरु को अा च यत भी कह ज त है ।
वह िीर व्यक्ति जो अपने मन, व णी, क्रोि, लजह्व , पेट अाौर जने क्तियोां के वेग को लनयक्तन्त्रत कर सकत है वही पूरे लवश्व में
लशष्य बन ने योग्य है ।
इस प्रसांग में एक घटन एाे सी अा ती है , एक ब र एक स िु लकसी घर में भोजन के लिए गए अाौर वह ेँ पर उस गृलहणी ने
जो उन्हें भोजन परोस रही थी, अा ग्रह लकय – लक वे उसके छोटे बच्चे को समझ यें लक वह अलिक मीठ नख ये, यह उसके
स्व स्थ्य के लिए अच्छ नहीां है , इस पर स िु ने कुछ नहीां कह अा ाै र बोिे लक मैं एक हफ्ते ब द इस लवर्षय पर चच त
करू ेँ ग अाौर चिे गये।
एक हफ्ते ब द वे पुन: अा ये अाौर बच्चे को समझ ने िगे, ब द में उन्होांने गृलहणी को बत य लक एक हफ्ते पहिे तक मैं
भी बहुत मीठ ख त थ लकन्तु लपछिे एक हफ्ते में मैं ने मीठ ख न कम कर लदय है इसलिए अब मैं बच्चे कोइसके लवर्षय
में उपदे श दे सकत हेँ ।
गुरु में स िु गुणोां क होन अत्यन्त वश्यक है , जैस लक *श्रीमद्भ गवतम् (३.२५.२१)* में बत य गय है –
स िु के िक्षण हैं लक वह सहनशीि, कृप िु , सभी जीवोां के प्रलत लमत्रत क भ व रखने व ि होत है । वह लकसी के प्रलत
शत्रुत क भ व नहीां रखत , श न्त होत है श स्त्रोां के अनु स र अपन जीवन व्यतीत करत है ।
यलद कोई लवद्व न ब्र ह्मण वै लदक ज्ञ न के सभी लवर्षयोां में दक्ष है लकन्तु कृष्ण भ वन के लवज्ञ न में दक्ष नहीां है अथ तत् भगव न्
क भि नहीां है , एाे स व्यक्ति गुरु नहीां बन सकत । लकन्तु यलद कोई असांस्कृत पररव र में भी जन्मलिय है , परन्तु वैष्णव है
अथ तत् उसे भगवद् –भक्ति क ज्ञ न है तो वह गुरु बन सकत है ।
गुरु क चुन व उनकी ज लत, रां ग, दे श इत्य लद दे खकर नहीां लकय ज न च लहए। अलपतु उनकी योग्यत के अनु स र लकय ज न
च लहए। जब लकसी डॉक्टर क चुन व करते हैं तो हम यह नहीां दे खते है लक वह लकस ज लत य दे श क है , उसकी दक्षत
दे खी ज ती है । उसी प्रक र येइ कृष्ण तत्त्व वेत्त सेइ गुरु होय – जो व्यक्ति भगव न् श्रीकृष्ण के लवज्ञ न को ज नत है उसे गुरु
के रूप में स्वीक र लकय ज न च लहए। यह अा वश्यक नहीां है लक वे सांस्कृत केलवद्व न हैं य नहीां परन्तु उनको श स्त्रोां के
ममत क भलिभ ेँलत ज्ञ न होन च लहए। अाौर वे जो बोि रहे हैं वह श स्त्रोां मे अनु स र होने के स थ–स थ पहिे के गुरुअाोाां
एवां स िु अाोाां के मत नु स र ही होन च लहए, अथ तत् उनकी व णी अा ाै रपरम्पर में अा रहे अन्य गुरुअाोाां की व णी में
कोई अन्तर नहीां होन च लहए।
अन्तत: सबसे महत्वपूणत ब त यह है लक वे अपने मन, व णी अाौर शरीर द्व र सदै व भगव न् की सेव में व्यस्त रहने च लहए,
जैस लक भगवद्गीत ९.१४ में भि के लवर्षय में भगव न् श्रीकृष्ण बत ते हैं – सततां कीततरयन्तो म ां –मे रे शुि भि सदै व मे रे
न म, गुण एवां िीि क कीततन करते रहते हैं ।
3) Iskcon Desire Tree - ह िं दीLike Page
31 May at 10:15 ·
यलद दे खने की ही ब त है तो एाे सी अने क चीजें हैं लजन्हें हमने नहीां दे ख अा ाै र लफर भी हम उन पर लवश्व स क्योां करते
हैं ?
एक ब र एक प्र थलमक लवद्य िय में छोटे बच्चोां से भी एक लशक्षक एाे स ही कुछ तकत दे रहे थे तो एक छोटे बच्चे ने खड़े
होकर ब की सभी लवद्य लथतयोां से पूछ क्य अा प में से लकसी ने हम रे लशक्षक की बुक्ति को दे ख है ? सभी ने एक स थ ऊां ची
अा व ज में उत्तर लदय – नहीां। लकन्तु इसक अथत यह नहीां हुअा लक लशक्षक के प स बुक्ति नहीां है ।
एाे सी बहुत सी सूक्ष्म चीजें हैं लजन्हें हम दे ख नहीां सकते लकन्तु उनके प्रभ व द्व र उनके लअस्तत्व को समझ सकते हैं । जैसे
लक हव क अनु भव भी हम उसके स्पशत से ही कर प ते हैं दे खने से नहीां।
जब भी हम लबजिी के बल्ब को दे खते हैं तो हमें थ ामस लएडसन क स्मरण होत है लजसने उसक अा लावष्क र लकय
थ । उसी प्रक र दू रबीन को दे खने पर गैिीलियो क स्मरण होत है । यलद हम गहर ई से सोचें तो प येंगे प्रत्येक वस्तु को
बन ने के पीछे लकसी न लकसी क ह थ है यद्यलप हम उस व्यक्ति को दे ख नहीां प रहे हैं । यहॉां तक लकएक रोटी भी अपने
अा प नहीां अा ती उसको बन ने के पीछे कोई होत है ।
लकन्तु जब हम इस जलटि सृलष्ट की रचन को दे खते हैं तो हमें इसके अा लवष्क रक क स्मरण क्योां नहीां होत ?
जब हम लकसी शहर की व्यस्त सड़कोां से गुजरते हैं तो हमें य त य त के अने क लनयमोां क प िन करन होत है , क्य उन
लनयमोां के पीछे लकसी क ह थ नहीां है ? उसी प्रक र इस सृ लष्ट में भौलतक लवज्ञ न, रस यन लवज्ञ न अाौर गलणत इत्य लद में अने क
लनयम हैं , प्रकृलत के अने क लनयम हैं अाौर जीवन के भी अने क लनयम हैं । जो कभी बदितेनहीां। जैसे लक प्रत्येक व्यक्ति को
जन्म, मृ त्यु, बीम री अाौर वृि वथथ से गुजरन ही होत है ।
हमें न क्तस्तकोां से पूछन होग लक क्य उन्हें इस सृलष्ट में अने क लनयम नहीां लदखते अाौर यलद लदखते हैं तो उसके पीछे लकसी
लनयम बन ने व िे अाौर उन लनयमोां क लनयन्त्रण करने व िे को स्वीक र करने में क्य कलठन ई है ?
यलद हम सृलष्ट को ध्य नपूवतक दे खेंगे तो प येंगे लक इस सृ लष्ट को बन ने के पीछे लकतनी बुक्तिमत्त अाौर सटीक व्यवथथ है ।
एक स ि रण से लबजिी के बल्ब को जि ने के लिए अनेक उद्योगोां एवां लबजिी लवभ ग को लकतनी व्यवथथ करनी होती है
तब कहीां हम रे घर में लबजिी क बल्ब जि प त है । इस सृ लष्ट में सूयत द्व र हम असीलमतम त्र में प्रक श एवां ऊष्म प्र प्त
कर रहे हैं , क्य वह लबन लकसी व्यवथथ एवां बुक्तिमत्त द्व र ही सम्भव है ?
स गर में असीलमत म त्र में जि को सांलचत लकय गय है अाौर उसमें नमक भी ड ि लदय गय है लजससे की वह खर ब न
हो क्योांलक नमक ड िने से वह सड़े ग नहीां। सूयत द्व र इस ख रे जि क व ष्पीकरण होत है अाौर यही ख र जि मीठे
जि में पररवलततत होकर हमें वर्ष त द्व र लमित है , इतन ही नहीां जो जि ऊां चें पह ड़ो पर लगरत है वह बफत में पररवलततत हो
ज त है जो िीरे –िीरे लपघिकर अने क नलदयोां द्व र हमें पूरे वर्षत लमित रहत है ।
यलद हम कहें लक यह सब स्वसांच लित व्यवथथ यें हैं तो हमें यह म नन होग लकसी भी स्वसांच लित व्यवथथ , जैसे लिफ्ट क
द्व र स्वयां ही बांद होन , के पीछे लकसी इां जीलनयर क ह थ होत है ।
जब कठपुलतियोां को न चत हुअा दे खते हैं तो हम ज नते हैं लक इनके पीछे इन्हें कोई नच ने व ि है । इस ब्रह्म ण्ड में
अने क ग्रह हैं जो अपनी अपनी कक्ष अाोाां में एक लनयलमत गलत एवां व्यवथथ के स थ घूम रहें हैं अाौर कभी भी अा पस में
नहीां टकर ते क्य इन ग्रहोां की य त य त व्यवथथ के पीछे कोई नहीां है ? क्य अने क फूिोां में लवलभन्नप्रक र की सुगन्ध अाौर
फिोां में लभन्न–लभन्न प्रक र क स्व द अपने अा प ही अा गय ?
यलद हम इस सृलष्ट क ध्य न पूवतक एवां ईम नद री से लनरीक्षण करें गे तो हमें अवश्य ही स्वीक र करन होग लक इसके पीछे
कोई बहुत ही बुक्तिम न व्यक्ति है ।
लफर उन्होांने अपनी आेँ खें फैि कर अपने मु खमण्डि के स मने अपने लदव्य ह थोां को लहि ते हुए कह ,
"यलद तुम प्रलतलदन कम से कम अपने १६ म ि पुरे नहीां कर रहे हो, तो तुम्ह र कोई अत -पत नहीां
है और तुम अवश्य लगर ज ओगे ।"
*(१९७० के दशक में श्रीि प्रभु प द के सेवक रहे नां दकुम र प्रभु द्व र बत य गय )*
5)
*क्य आपको आत्म और शरीर के बीच अांतर पत है ?*
इस िे ख में आपको आत्म तथ शरीर के बीच क अांतर ज्ञ त होग । यह ज्ञ न हम रे आध्य क्तत्मक ज्ञ न क
मूि है । कभी कभी िोग यह बोि दे ते हैं लक हम भी अध्य त्म से जुड़े हैं य लकसी न लकसी आध्य क्तत्मक
म गत क अनुसरण कर रहे हैं । परन्तु अलिकतर िोगोां में अभी भी यह मूिभूत ज्ञ न नद रद है लक
अध्य त्म क आि र ही यह है लक, “हम यह शरीर नहीां आत्म हैं ।”
इस लवर्षय के अलतररि आपको यह ज्ञ त होग की प पकमत के फि लकस प्रक र क य त क्तित होते हैं ।
और कैसे इन दु गतम फिोां से मु क्ति प यी ज सकती है ।
भगवद्गीत क नौव ां अध्य य लवद्य ओां क र ज (र जलवद्य ) कहि त है , क्योांलक यह पूवतवती व्य ख्य लयत
समस्त लसि न्तोां एवां दशत नोां क स र है | भ रत के प्रमु ख द शत लनक गौतम, कण द, कलपि, य ज्ञवल्क्य,
श क्तण्डल्य तथ वैश्र्व नर हैं | सबसे अन्त में व्य सदे व आते हैं , जो वेद न्तसूत्र के िे खक हैं | अतः दशत न
य लदव्यज्ञ न के क्षे त्र में लकसी प्रक र क अभ व नहीां है | भगव न कहते हैं लक यह नवम अध्य य ऐसे
समस्त ज्ञ न क र ज है , यह वेद ध्ययन से प्र प् ज्ञ न एवां लवलभन्न दशत नोां क स र है | यह गुह्यतम है ,
क्योांलक गुह्य य लदव्यज्ञ न में आत्म तथ शरीर के अन्तर को ज न ज त है | समस्त गुह्यज्ञ न के इस
र ज (र जलवद्य ) की पर क ष्ट है , भक्तियोग |
स म न्यतय िोगोां को इस गुह्यज्ञ न की लशक्ष नहीां लमिती | उन्हें ब ह्य लशक्ष दी ज ती है | जह ेँ तक
स म न्य लशक्ष क सम्बन्ध है उसमें र जनीलत, सम जश स्त्र, भौलतकी, रस यनश स्त्र, गलणत, ज्योलतलवतज्ञ न,
इां जीलनयरी आलद में मनुष्य व्यस्त रहते हैं | लवश्र्वभर में ज्ञ न के अने क लवभ ग हैं और अने क बड़े -बड़े
लवश्र्वलवद्य िय हैं , लकन्तु दु भ त ग्यवश कोई ऐस लवश्र्वलवद्य िय य शै लक्षक सांथथ न नहीां है , जह ेँ आत्म-लवद्य
की लशक्ष दी ज ती हो | लफर भी आत्म शरीर क सबसे महत्त्वपूणत अांग है , आत्म के लबन शरीर
महत्त्वहीन है | तो भी िोग आत्म की लचन्त न करके जीवन की श रीररक आवश्यकत ओां को अलिक
महत्त्व प्रद न करते हैं |
भगवद्गीत में लद्वतीय अध्य य से ही आत्म की महत्त पर बि लदय गय है | प्र रम्भ में ही भगव न्
कहते हैं लक यह शरीर नश्र्वर है और आत्म अलवनश्र्वर | (अन्तवन्त इमे दे ह लनत्यस्योि ः शरीररणः) |
यही ज्ञ न क गुह्य अांश है-केवि यह ज न िे न लक यह आत्म शरीर से लभन्न है , यह लनलवतक र,
अलवन शी और लनत्य है | इससे आत्म के लवर्षय में कोई सक र त्मक सूचन प्र प्त नहीां हो प ती | कभी-
कभी िोगोां को यह रम रहत है लक आत्म शरीर से लभन्न है और जब शरीर नहीां रहत य मनु ष्य
को शरीर से मु क्ति लमि ज ती है तो आत्म शून्य में रहत है और लनर क र बन ज त है | लकन्तु यह
व स्तलवकत नहीां है | जो आत्म शरीर के भीतर इतन सक्रीय रहत है वह शरीर से मु ि होने के
ब द इतन लनक्तिय कैसे हो सकत है? यह सदै व सक्रीय रहत है | यलद यह श श्र्वत है , तो यह श श्र्वत
सलक्रय रहत है और वैकुण्ठिोक में इसके क यतकि प अध्य त्मज्ञ न के गुह्यतम अांश हैं | अतः आत्म के
क यों को यह ेँ पर समस्त ज्ञ न क र ज , समस्त ज्ञ न क गुह्यतम अांश कह गय है |
जो िोग भगवद्भक्ति में रत हैं और उनके स रे प पकमत च हे फिीभू त हो चुके हो, स म न्य होां य बीज
रूप में होां, क्रमशः नष्ट हो ज ते हैं | अतः भक्ति की शु क्तिक ररणी शक्ति अत्यन्त प्रबि है और पलवत्रम्
उत्तमम् अथ त त् लवशु ितम कहि ती है | उत्तम क त त्पयत लदव्य है | तमस् क अथत यह भौलतक जगत्
य अांिक र है और उत्तम क अथत भौलतक क यों से परे हुआ | भक्तिमय क यों को कभी भी भौलतक
नहीां म नन च लहए यद्यलप कभी-कभी ऐस प्रतीत होत है लक भि भी स म न्य जनोां की भ ेँ लत रत
रहते हैं | जो व्यक्ति भक्ति से अवगत होत है , वही ज न सकत है लक भक्तिमय क यत भौलतक नहीां
होते | वे अध्य क्तत्मक होते हैं और प्रकृलत के गुणोां से सवतथ अदू लर्षत रहते हैं |
कह ज त है लक भक्ति की सम्पन्नत इतनी पूणत होती है लक उसके फिोां क प्रत्यक्ष अनु भव लकय
ज सकत है | हमने अनु भव लकय है लक जो व्यक्ति कृष्ण के पलवत्र न म (हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण
कृष्ण हरे हरे , हरे र म हरे र म र म र म हरे हरे ) क कीततन करत है उसे जप करते समय कुछ
लदव्य आनन्द क अनुभव होत है और वह तुरन्त ही समस्त भौलतक कल्मर्ष से शु ि हो ज त है | ऐस
सचमु च लदख ई पड़त है | यही नहीां, यलद कोई श्रवण करने में ही नहीां अलपतु भक्तिक यों के सन्दे श को
प्रच ररत करने में भी िग रहत है य कृष्णभ वन मृ त के प्रच र क यों में सह यत करत है , तो उसे
क्रमशः आध्य क्तत्मक उन्नलत क अनु भव होत रहत है | आध्य क्तत्मक जीवन की यह प्रगलत लकसी पूवत
लशक्ष य योग्यत पर लनभतर नहीां करती | यह लवलि स्वयां इतनी शु ि है लक इसमें िगे रहने से मनु ष्य
शु ि बन ज त है |
वेद न्तसूत्र में (३.३.३६) भी इसक वणतन प्रक शश्र्च कमत ण्यभ्य स त् के रूप में हुआ है , लजसक अथत
है लक भक्ति इतनी समथत है लक भक्तिक यों में रत होने म त्र से लबन लकसी सांदेह के प्रक श प्र प्त हो
ज त है | इसक उद हरण न रद जी के पूवतजन्म में दे ख ज सकत है , जो पहिे द सी के पुत्र थे | वे
न तो लशलक्षत थे , न ही र जकुि में उत्पन्न हुए थे , लकन्तु जब उनकी म त भिोां की सेव करती रहती
थीां, न रद भी सेव करते थे और कभी-कभी म त की अनु पक्तथथलत में भिोां की सेव करते रहते थे |
न रद स्वयां कहते हैं -
उक्तच्छष्टिे प ननुमोलदतो लद्वजैः
सकृत्स्म भु ञ्जे तदप स्तलकक्तल्बर्षः |
एवां प्रवृत्तस्य लवशु िचेतस-
स्तिमत एव त्मरुलचः प्रज यते ||
श्रीमद्भ गवत के इस श्लोक में (१.५.२५) न रद जी अपने लशष्य व्य सदे व से अपने पूवतजन्म क वणतन
करते हैं | वे कहते हैं लक पूणतजन्म में ब ल्यक ि में वे च तुम त स में शुिभिोां (भ गवतोां) की सेव
लकय करते थे लजससे उन्हें सांगलत प्र प्त हुई | कभी-कभी वे ऋलर्ष अपनी थ लियोां में उक्तच्छष्ट भोजन
छोड़ दे ते और यह ब िक थ लिय ेँ िोते समय उक्तच्छष्ट भोजन को चखन च हत थ | अतः उसने उन
ऋलर्षयोां से अनुमलत म ेँ गी और जब उन्होांने अनु मलत दे दी तो ब िक न रद उक्तच्छष्ट भोजन को ख त
थ | फिस्वरूप वह अपने समस्त प पकमों से मु ि हो गय | ज्योां-ज्योां वह उक्तच्छष्ट ख त रह त्योां-त्योां
वह ऋलर्षयोां के सम न शुि-हृदय बनत गय | चूेँलक वे मह भ गवत भगव न् की भक्ति क आस्व द
श्रवण तथ कीततन द्व र करते थे अतः न रद ने भी क्रमशः वैसी रूलच लवकलसत कर िी | न रद आगे
कहते हैं –
ऋलर्षयोां की सांगलत करने से न रद में भी भगव न् की मलहम के श्रवण तथ कीततन की रूलच उत्पन्न
हुई और उन्होांने भक्ति की तीव्र इच्छ लवकलसत की | अतः जै स लक वेद न्तसूत्र में कह गय है –
प्रक शश्र्च कमत ण्यभ्य स त् – जो भगवद्भक्ति के क यों में केवि िग रहत है उसे स्वतः स री अनु भूलत
हो ज ती है और वह सब समझने िगत है | इसी क न म प्रत्यक्ष अनु भूलत है |
िर्म्त म् शब् क अथत है “िमत क पथ” | न रद व स्तव में द सी के पुत्र थे | उन्हें लकसी प ठश ि में
ज ने क अवसर प्र प्त नहीां हुआ थ | वे केवि म त के क यों में सह यत करते थे और सौभ ग्यवश
उनकी म त को भिोां की सेव क सुयोग प्र प्त हुआ थ | ब िक न रद को भी यह सुअवसर
उपिब्ध हो सक लक वे भिोां की सांगलत करने से ही समस्त िमत के परमिक्ष्य को प्र प्त हो सके |
यह िक्ष्य है – भक्ति, जै स लक श्रीमद्भ गवत में कह गय है (स वै पुांस ां परो िमोां यतो भक्तिरिोक्षजे )
| स म न्यतः ि लमत क व्यक्ति यह नहीां ज नते लक िमत क परमिक्ष्य भक्ति की प्र क्तप्त है जै स लक हम
पहिे ही आठवें अध्य य के अक्तन्तम श्लोक की व्य ख्य करते हुए कः चुके हैं (वेदेर्षु यज्ञे र्षु तपःसु चैव)
स म न्यतय आत्म-स क्ष त्क र के लिए वैलदक ज्ञ न आवश्यक है | लकन्तु यह ेँ पर न रद न तो लकसी गुरु
के प स प ठश ि में गये थे , न ही उन्हें वैलदक लनयमोां की लशक्ष लमिी थी, तो भी उन्हें वैलदक अध्ययन
के सवोच्च फि प्र प्त हो सके | यह लवलि इतनी सशि है लक ि लमत क कृत्य लकये लबन भी मनुष्य
लसक्ति-पद को प्र प्त होत है | यह कैसे सम्भव होत है? इसकी भी पुलष्ट वैलदक स लहत्य में लमिती है -
आच यतव न् पुरुर्षो वेद | मह न आच यों के सांसगत में रहकर मनु ष्य आत्म-स क्ष त्क र के लिए आवश्यक
समस्त ज्ञ न से अवगत हो ज त है , भिे ही वह अलशलक्षत हो य उसने वेदोां क अध्ययन न लकय हो |
भक्तियोग अत्यन्त सुखकर (सुसुखम् ) होत है | ऐस क्योां? क्योांलक भक्ति में श्रवणां कीततनां लवष्णोः रहत
है , लजससे मनु ष्य भगव न् की मलहम के कीततन को सुन सकत है , य प्र म लणक आच यों द्व र लदये गये
लदव्यज्ञ न के द शत लनक भ र्षण सुन सकत है | मनु ष्य केवि बैठे रहकर सीख सकत है , ईश्र्वर को
अलपतत अच्छे स्व लदष्ट भोजन क उक्तच्छष्ट ख सकत है | प्रत्येक दश में भक्ति सुखमय है | मनु ष्य गरीबी
की ह ित में भी भक्ति कर सकत है | भगव न् कहते हैं – पत्रां पुष्पां फिां तोयां – वे भि से हर प्रक र
की भें ट िे ने को तैय र रहते हैं | च हे प त्र हो, पुष्प हो, फि हो य थोड स जि, जो कुछ भी सांस र
के लकसी भी कोने में उपिब्ध हो, य लकसी व्यक्ति द्व र , उसकी स म लजक क्तथथलत पर लवच र लकये
लबन , अलपतत लकये ज ने पर भगव न् को वह स्वीक र है , यलद उसे प्रेमपूवतक चढ़ य ज य | इलतह स में
ऐसे अने क उद हरण प्र प्त हैं | भगव न् के चरणकमिोां पर चढ़े तुिसीदि क आस्व दन करके
सनत्कुम र जै से मुलन मह न भि बन गये | अतः भक्तियोग अलत उत्तम है और इसे प्रसन्न मु द्र में
सम्पन्न लकय ज सकत है | भगव न् को तो वह प्रेम लप्रय है , लजससे उन्हें वस्तुएेँ अलपतत की ज ती हैं |
भगव न श्री कृष्ण अपनी िीि ओां द्व र भिोां को आनांद प्रद न करते हैं तथ असुरोां क न श भी करते हैं
। हम रे आच यत बहुत ही सुन्दर ढां ग से भक्ति में अवरोि उत्पन्न करने व िे अनथों की तु िन इन असुरोां से
करते हुए बत ते हैं लक लकस प्रक र यलद हम भगव न को आत्मसमपतण कर दें गे तो वे इन असुर रूपी
अनथों से हमें मुक्ति दें गे ।
श्रीि भक्तिलवनोद ठ कुर द्व र रलचत श्री चै तन्य लशक्षमृ त में वे वणतन करते हैं लक भगव न के वृन्द वन
िीि के समय म रे गए असुर, लवलभन्न प्रक र के अनथों क प्रलतलनलित्व करते हैं ।
२. *शकट सुर* – छकड़ -ग ड़ी भरकर हम री पुर नी एवां नयी बुरी आदतें, आिस्य तथ ईष्य त ।
३. *तृण वतत* – भौलतक-लवद्य में प ां लडत्य से उपज अहां क र जो मनोकक्तित ज्ञ न क क रण बनत है
।
१३. *य ज्ञीक ब्र ह्मण* – वण त श्रम के अांतगतत अपने पद जलनत दम्भ के क रण भगव न कृष्ण की उपेक्ष
करन ।
१४. *इां द्र क अलभम न-भांग* – दे वी-दे वत ओां की पूज तथ यह सोचन लक, “मैं सवतश्रेष्ठ हेँ ।”
१७. *शां खचूड़* – भक्ति के वेश में न म एवां प्रलसक्ति तथ इक्तिय-भोग की इच्छ ।
१८. *अररष्ठ सुर* – कपलटयोां द्व र मनगढां त लविमत में लिप्त होने से उपजे अहां क र के क रण भक्ति
की उपेक्ष करन ।
२०. *व्योम सुर* – चोरोां,िूतों तथ ऐसे िोगोां क सांग करन जो स्वयां को अवत र के रूप में प्रस्तु त
करते हैं ।
श्रीि भक्तिलवनोद ठ कुर बत ते हैं : “जो भि पलवत्र हररन म की आर िन करते हैं उन्हें भगव न से
पहिे यह य चन करनी च लहए लक वे इन सभी प्रलतकूि प्रवृलत्तयोां से छु टक र लदि एां – और उन्हें
भगव न हरर के समक्ष यह प्र थत न प्रलतलदन करनी च लहए । अांततः लनरां तर यह प्र थत न करने से भिोां
क हृदय शु ि हो ज त है । भगव न श्री कृष्ण ने हृदय-क्षे त्र में उलदत कई असुरोां क वि लकय है –
अतएव इन सभी समस्य ओां को नष्ट करने हे तु एक भि को दीनत से भगव न के समक्ष क्रांदन करन
(रोन ) च लहए – तब भगव न सभी मलिनत ओां को प्रभ वहीन कर दें गे ।
*प्रश्न : क्य “लनत्यो लनत्यन म् …” श्लोक से यह लसि होत है लक ‘परम सत्य’ एक पुरुर्ष हैं ?*
*हरे कृष्ण,*
उत्तर : जी यह यथ तथ्य है लक ‘परम सत्य’ एक पुरुर्ष हैं , परन्तु कठोपलनर्षद के इस श्लोक “लनत्यो
लनत्यन म्” क यह अथत है लक भगव न् श्री कृष्ण एवां जीव त्म (हम सब) लनत्य हैं और ब्रह्मव दी य
म य व दी मत के लवपरीत हम कभी भी उनमे लविीन होकर अपन व्यक्तिगत स्वरुप नहीां खोते ।
*(कठोपलनर्षद २.२.१३)*
*लनत्यो लनत्यन म चेतनस चेतन न म*
*एको बहुन म् यो लवदि लत क म न*
“परम भगव न् लनत्य हैं तथ जीव भी लनत्य है । परम भगव न् सवतज्ञ हैं तथ जीव भी सवतज्ञ है । अांतर
यह है लक परम भगव न् कई जीवोां के दै लनक आवश्यकत ओां की आपूलतत करते हैं ।”
अतः एक श श्वत परम (भगव न् कृष्ण) हैं जो अन्य अिीनथथ श श्वत (जीवोां) के आवश्यकत ओां की
आपूलतत करते हैं ।
2--बढ़ते हुए क्रम में जप करन च लहए और अपनी तय की हुई जपसांख्य को लनत्य करन च लहए
जै से - 16,25,32,64....
4-- लनत्य हरर कथ सुननी य पढनी च लहए (श्री कृष्ण पुस्तक से पढ़ सकते हैं जै से भगव न की
व्रजिीि और कुरुक्षे त्र में गोलपयोां से लमिन प्रसांग)
10--लनत्य गांग जी , यमु न जी जै से पलवत्र नलदयोां में स्न न करन च लहए यह सुलवि नहीां है तो घर में
गांग / यमु न जी के जि की कुछ बुांदे ड ि कर और उन्हें प्रण म करके स्न न इस भ व से करन
च लहए लक यमु न जी में ही स्न न कर रहे है ।
पुरुर्षोत्तम - म स में अलिक से अलिक हररन म, कृष्णकथ , भजन एवां भगव न क गुणग न प्रच र प्रस र
के क यो में अपने आपको सिि करन च इये।
कुछ िोगोां क कहन है लक इस दु लनय के दु :ख ही हैं जो हम रे सुखोां में रां ग भरते हैं नहीां तो यलद
हमेश सुख ही होते तो सभी समय क सुख भी बहुत ही बोररां ग हो ज त ।
क्य यह व स्तव में सत्य है? क्य व स्तव में हममें से कोई भी जीवन में थोड़े समय के लिए भी दु :खी होन
च हत है ?
क्य कोई लवद्य थी ज नबूझ कर लकसी एक लवर्षय में फेि होन च हे ग लजससे लक वह अन्य लवर्षयोां में
सफि होने क सुख अाौर अलिक अनु भव कर सके?
क्य अा प में से कोई भी अच्छे स्व स्थ्य की कीमत समझने के लिए बीम र होकर दु :खी होन पसांद
करें गे?
परन्तु बुक्तिमत्त तो इसी में है लक हम यह समझे लक इस भौलतक जगत् में उस प्रक र क लनरन्तर
सुख लजसमें लकसी भी प्रक र की रुक वट य दु :ख क लमश्रण न हो, उपिब्ध ही नहीां है अाौर यलद
हम उस प्रक र के सुख की अलभि र्ष करते हैं तो हमें एाेसे सुख को प्र प्त करने व ि सही थथ न
खोजन होग ।
*हरे कृष्ण ।*
जब कृष्ण क सबोां के लिए समभ व है और उनक कोई लवलशष्ट लमत्र नहीां है तो लफर वे उन भिोां में
लवशे र्ष रूलच क्योां िेते हैं, जो उनकी लदव्यसेव में सदै व िगे रहते हैं?
लकन्तु यह भेदभ व नहीां है , यह तो सहज है | इस जगत् में हो सकत है लक कोई व्यक्ति अत्यन्त उपक री
हो, लकन्तु तो भी वह अपनी सन्त नोां में लवशे र्ष रूलच िेत है | भगव न् क कहन है लक प्रत्ये क जीव, च हे
वह लजस योनी क हाो, उनक पुत्र है , अतः वे हर एक को जीवन की आवश्यक वस्तु एेँ प्रद न करते हैं
|
वे उस ब दि के सदृश हैं जो सबोां के ऊपर जिवृलष्ट करत है , च हे यह वृलष्ट चट्ट न पर हो य थथि
पर, य जि में हो | लकन्तु भगव न् अपने भिोां क लवशे र्ष ध्य न रखते हैं | ऐसे हो भिोां क यह ेँ
उल्ले ख हुआ है – वे सदै व कृष्णभ वन मृ त में रहते हैं, फितः वे लनरन्तर कृष्ण में िीन रहते हैं |
कृष्णभ वन मृ त शब् ही बत त है है लक जो िोग ऐसे भ वन मृ त में रहते हैं वे सजीव अध्य त्मव दी हैं
और उन्हीां में क्तथथत हैं | भगव न् यह ेँ स्पष्ट रूप से कहते हैं – मलय ते अथ त त् वे मु झमें हैं | फितः
भगव न् भी उनमें हैं | इससे ये यथ म ां प्रपद्यन्ते त ां स्तथै व भज र्म्हम् की भी व्य ख्य हो ज ती है – जो
मे री शरण में आ ज त है , उसकी मैं उसी रूप में रखव िी करत हेँ |
एक व्यक्ति तीन प्रक र से भ ग्यश िी म न ज त है | यलद उसे एक अच्छी पत्नी प्र प्त हुयी है तो वह
भ ग्यश िी है | यलद उसे अच्छ पुत्र प्र प्त हुआ है तो वह भ ग्यश िी है | यलद उसे प्रचुर म त्र में िन
प्र प्त हुआ है तो वह भ ग्यश िी है | तो यह भ ग्यश िी होने के तीन म नक हैं , लजनमे से, वह लजसे
अच्छी पत्नी प्र प्त हुयी है , वह सबसे अलिक भ ग्यश िी होत है | इसलिए हम री सांथथ अच्छी पलत्नय ां
बन ने क प्रय स करे गी त लक हम रे युवक, स रे युवक स्वयां को सदै व भ ग्यश िी समझें |
यलद लकसी को अच्छी पत्नी प्र प्त हुयी है ,कोई भी थथ न हो, म यने नहीां रखत | जै से भगव न लशव, वे
एक वृक्ष के नीचे रह रहे थे | कोई आश्रय-थथ न नहीां थ , परन्तु उनके प स अच्छी पत्नी, प वतती थीां,
इसलिए वे आनां द में थे |
इसी प्रक र आपको जब भी आवश्यकत िगे, हम लकसी भी ब्रह्मच री क चयन कर िें गे | परन्तु अवैि-
सांग मत करो | लवव ह की अनु मलत है | मैं व्यक्तिगत रूप से लवव ह पर ध्य न दे त हेँ | मु झे इस सांथथ
में पलवत्रत च लहए | शु ित के लबन कोई भी आध्य क्तत्मक-भ वन में प्रगलत नहीां कर सकत |
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*श्रीि प्रभु प द प्रवचन, रुक्तिणी द सी के दीक्ष के समय - मोांलटि यि १५ अगस्त १९६८*
आप ब ि-ब ि बचे हैं और इस से आपको अच्छी सीख िे नी च लहए लक यलद हम कठोरत से लनय मक
लसि ां तोां क प िन नहीां करते तो म य अपने प्रभ व से शां क उत्पन्न करके भगव न कृष्ण में हम री श्रि
को दु बति कर दे ने के लिए सदै व तत्पर है ।
अतएव मैं बहुत प्रसन्न हेँ की आप बच गए हैं और मैं आपकी रक्ष के लिए भगव न कृष्ण से प्र थतन कर
रह थ ।
– *श्रीि प्रभुप द*
*मिु सूदन को पत्र, िॉस एां जेिेस, ३० जनवरी १९७०*
13) श्रीि प्रभुप द की पुस्तकें कैसे लिखी गयीां और हमें क्योां उन्हें पढ़न च लहए ?*
श्रीि प्रभुप द ने कह , उन्होांने (भगव न कृष्ण ने) मुझे यह ेँ आने को कह परन्तु मैंने कह लक मैं वह ां नहीां
ज न च हत क्योांलक वह एक गन्द थथ न है । उन्होांने (भगव न कृष्ण ने) कह की यलद मैं ज ऊां तो वे
मेरे लिए सुन्दर भवनोां क प्रबां ि करव दें गे । मैंने कह , परन्तु मैं वह ां नहीां ज न च हत । उन्होांने (भगव न
कृष्ण ने) कह , आप केवि ज इये और पुस्तकें लिक्तखए और मैं आपके लिए सब कुछ सुलवि जनक बन
दू ां ग ।
श्रीि प्रभु प द यह बत ते हैं , क्योांलक उन्होांने मु झे इन पुस्तकोां को लिखने क आग्रह लकय इसलिए मैं
यह ेँ आय ।
एक ब र मु म्बई में श्रीि प्रभु प द ने मु झे उनके कमरे में आकर कुछ आजीवन-सदस्योां को प्रच र करते
हुए सुनने क आदे श लदय । मैं ने वह ां िगभग एक घांटे बैठकर उन्हें सुन । सभी के ज ने के उपर ां त
उन्होांने मु झे ड ां टते हुए कह तुम प्रीलतलदन मु झे प्रच र करते हुए सुनने यह ेँ क्योां नहीां आते ? तुम मे रे
अग्रणी लशष्योां में से एक हो, यलद तुम ही मु झसे यह नहीां सीखोगे की प्रच र कैसे करते हैं , क्य होग ?
तत्पश्च त उन्होांने सांस्कृत में भगवद-गीत से एक श्लोक उिररत लकय और मुझसे पूछ की क्य मैं
उसको अांग्रेजी में बत सकत हेँ , गीत में वह कह ेँ है , और उसक अथत क्य है । दु भ त ग्यवश मे रे प स
कोई उत्तर नहीां थ । उन्होांने पूछ , क्य तुम मे री पुस्तके पढ़ रहे हो ? मैंने अपनी उपेक्ष को स्वीक र
।
यलद तुम प्रलतलदन मे री पुस्तकें नहीां पढोगे तो कैसे सीखोगे ? तुम ब हर ज कर आजीवन-सदस्य बन
रहे हो, द न एकत्र कर रहे हो परन्तु मे री पुस्तकें नहीां पढ़ रहे । तुम्हें प्रलतलदन मे री पुस्तकें पढ़नी
च लहए ।
लफर उन्होांने कह , मैं भी प्रलतलदन अपनी पुस्तकें पढत हेँ । क्य तुम्हे पत है , क्योां ? मैं ने स्वयां उत्तर
दे ने की अपेक्ष उनके उत्तर की प्रतीक्ष की । क्योांलक हर ब र मैं इन पुस्तकोां को पढत हेँ तो इनसे
कुछ सीखने को लमित है । मैं लनस्तब्ध मौन बैठ रह । लफर उन्होांने पूछ क्य तुम्हें पत है मैं हर
ब र इन पुस्तकोां को पढत हेँ तो क्योां कुछ नय सीखत हेँ ? अब मैं पूणततय लवक्तस्मत थ । क्योांलक
मैं ने इन पुस्तकोां को नहीां लिख है । आगे जो लवलदत हुआ वह पूरी तरह से आश्चयतजनक थ । उन्होांने
पूणत तल्लीनत पूवतक मे री आेँ खोां से तीव्र और सीि सांपकत बन ते हुए मे री ओर दे ख । भ वोन्मत्त पूणत
लवश्वस्तत परन्तु रहस्यमयी भ व से वे वणतन करने िगे लक उनकी पुस्तकें कैसे लिखी ज ती हैं ।
उन्होांने कह , प्रलतलदन जब मैं यह ेँ इन पुस्तकोां को लिखने बैठत हेँ , अब उनकी दृलष्ट ऊपर की ओर
और ह थ हव में लहि रहे थे , उनक कांठ भ व वेश में अवरुि हो रह थ , भगव न कृष्ण व्यक्तिगत
रूप से आते हैं और हर शब् वे स्वयां लिखव ते हैं । मु झे इसकी अनु भूलत हुयी की भगव न कृष्ण
उस समय कमरे में उपक्तथथत थे परन्तु मैं उन्हें दे खने में अक्षम थ । अब श्रीि प्रभु प द ने अपनी दृलष्ट
मे री ओर की और कह , इसलिए जब भी मैं इन पुस्तकोां को पढत हेँ , मैं भी कुछ सीखत हेँ और
इसलिए यलद तुम भी प्रलतलदन मे री पुस्तकोां को पढोगे तो हर ब र तुम भी कुछ सीखोगे ।
*– भ गवत द स द्व र *
*जय श्रीि प्रभु प द*
इस िे ख में आपको आत्म तथ शरीर के बीच क अांतर ज्ञ त होग । यह ज्ञ न हम रे आध्य क्तत्मक ज्ञ न क
मूि है । कभी कभी िोग यह बोि दे ते हैं लक हम भी अध्य त्म से जुड़े हैं य लकसी न लकसी आध्य क्तत्मक
म गत क अनुसरण कर रहे हैं । परन्तु अलिकतर िोगोां में अभी भी यह मूिभूत ज्ञ न नद रद है लक
अध्य त्म क आि र ही यह है लक, “हम यह शरीर नहीां आत्म हैं ।”
इस लवर्षय के अलतररि आपको यह ज्ञ त होग की प पकमत के फि लकस प्रक र क य त क्तित होते हैं ।
और कैसे इन दु गतम फिोां से मु क्ति प यी ज सकती है ।
भगवद्गीत क नौव ां अध्य य लवद्य ओां क र ज (र जलवद्य ) कहि त है , क्योांलक यह पूवतवती व्य ख्य लयत
समस्त लसि न्तोां एवां दशत नोां क स र है | भ रत के प्रमु ख द शत लनक गौतम, कण द, कलपि, य ज्ञवल्क्य,
श क्तण्डल्य तथ वैश्र्व नर हैं | सबसे अन्त में व्य सदे व आते हैं , जो वेद न्तसूत्र के िे खक हैं | अतः दशत न
य लदव्यज्ञ न के क्षे त्र में लकसी प्रक र क अभ व नहीां है | भगव न कहते हैं लक यह नवम अध्य य ऐसे
समस्त ज्ञ न क र ज है , यह वेद ध्ययन से प्र प् ज्ञ न एवां लवलभन्न दशत नोां क स र है | यह गुह्यतम है ,
क्योांलक गुह्य य लदव्यज्ञ न में आत्म तथ शरीर के अन्तर को ज न ज त है | समस्त गुह्यज्ञ न के इस
र ज (र जलवद्य ) की पर क ष्ट है , भक्तियोग |
स म न्यतय िोगोां को इस गुह्यज्ञ न की लशक्ष नहीां लमिती | उन्हें ब ह्य लशक्ष दी ज ती है | जह ेँ तक
स म न्य लशक्ष क सम्बन्ध है उसमें र जनीलत, सम जश स्त्र, भौलतकी, रस यनश स्त्र, गलणत, ज्योलतलवतज्ञ न,
इां जीलनयरी आलद में मनुष्य व्यस्त रहते हैं | लवश्र्वभर में ज्ञ न के अने क लवभ ग हैं और अने क बड़े -बड़े
लवश्र्वलवद्य िय हैं , लकन्तु दु भ त ग्यवश कोई ऐस लवश्र्वलवद्य िय य शै लक्षक सांथथ न नहीां है , जह ेँ आत्म-लवद्य
की लशक्ष दी ज ती हो | लफर भी आत्म शरीर क सबसे महत्त्वपूणत अांग है , आत्म के लबन शरीर
महत्त्वहीन है | तो भी िोग आत्म की लचन्त न करके जीवन की श रीररक आवश्यकत ओां को अलिक
महत्त्व प्रद न करते हैं |
भगवद्गीत में लद्वतीय अध्य य से ही आत्म की महत्त पर बि लदय गय है | प्र रम्भ में ही भगव न्
कहते हैं लक यह शरीर नश्र्वर है और आत्म अलवनश्र्वर | (अन्तवन्त इमे दे ह लनत्यस्योि ः शरीररणः) |
यही ज्ञ न क गुह्य अांश है-केवि यह ज न िे न लक यह आत्म शरीर से लभन्न है , यह लनलवतक र,
अलवन शी और लनत्य है | इससे आत्म के लवर्षय में कोई सक र त्मक सूचन प्र प्त नहीां हो प ती | कभी-
कभी िोगोां को यह रम रहत है लक आत्म शरीर से लभन्न है और जब शरीर नहीां रहत य मनु ष्य
को शरीर से मु क्ति लमि ज ती है तो आत्म शून्य में रहत है और लनर क र बन ज त है | लकन्तु यह
व स्तलवकत नहीां है | जो आत्म शरीर के भीतर इतन सक्रीय रहत है वह शरीर से मु ि होने के
ब द इतन लनक्तिय कैसे हो सकत है? यह सदै व सक्रीय रहत है | यलद यह श श्र्वत है , तो यह श श्र्वत
सलक्रय रहत है और वैकुण्ठिोक में इसके क यतकि प अध्य त्मज्ञ न के गुह्यतम अांश हैं | अतः आत्म के
क यों को यह ेँ पर समस्त ज्ञ न क र ज , समस्त ज्ञ न क गुह्यतम अांश कह गय है |
जो िोग भगवद्भक्ति में रत हैं और उनके स रे प पकमत च हे फिीभू त हो चुके हो, स म न्य होां य बीज
रूप में होां, क्रमशः नष्ट हो ज ते हैं | अतः भक्ति की शु क्तिक ररणी शक्ति अत्यन्त प्रबि है और पलवत्रम्
उत्तमम् अथ त त् लवशु ितम कहि ती है | उत्तम क त त्पयत लदव्य है | तमस् क अथत यह भौलतक जगत्
य अांिक र है और उत्तम क अथत भौलतक क यों से परे हुआ | भक्तिमय क यों को कभी भी भौलतक
नहीां म नन च लहए यद्यलप कभी-कभी ऐस प्रतीत होत है लक भि भी स म न्य जनोां की भ ेँ लत रत
रहते हैं | जो व्यक्ति भक्ति से अवगत होत है , वही ज न सकत है लक भक्तिमय क यत भौलतक नहीां
होते | वे अध्य क्तत्मक होते हैं और प्रकृलत के गुणोां से सवतथ अदू लर्षत रहते हैं |
कह ज त है लक भक्ति की सम्पन्नत इतनी पूणत होती है लक उसके फिोां क प्रत्यक्ष अनु भव लकय
ज सकत है | हमने अनु भव लकय है लक जो व्यक्ति कृष्ण के पलवत्र न म (हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण
कृष्ण हरे हरे , हरे र म हरे र म र म र म हरे हरे ) क कीततन करत है उसे जप करते समय कुछ
लदव्य आनन्द क अनुभव होत है और वह तुरन्त ही समस्त भौलतक कल्मर्ष से शु ि हो ज त है | ऐस
सचमु च लदख ई पड़त है | यही नहीां, यलद कोई श्रवण करने में ही नहीां अलपतु भक्तिक यों के सन्दे श को
प्रच ररत करने में भी िग रहत है य कृष्णभ वन मृ त के प्रच र क यों में सह यत करत है , तो उसे
क्रमशः आध्य क्तत्मक उन्नलत क अनु भव होत रहत है | आध्य क्तत्मक जीवन की यह प्रगलत लकसी पूवत
लशक्ष य योग्यत पर लनभतर नहीां करती | यह लवलि स्वयां इतनी शु ि है लक इसमें िगे रहने से मनु ष्य
शु ि बन ज त है |
वेद न्तसूत्र में (३.३.३६) भी इसक वणतन प्रक शश्र्च कमत ण्यभ्य स त् के रूप में हुआ है , लजसक अथत
है लक भक्ति इतनी समथत है लक भक्तिक यों में रत होने म त्र से लबन लकसी सांदेह के प्रक श प्र प्त हो
ज त है | इसक उद हरण न रद जी के पूवतजन्म में दे ख ज सकत है , जो पहिे द सी के पुत्र थे | वे
न तो लशलक्षत थे , न ही र जकुि में उत्पन्न हुए थे , लकन्तु जब उनकी म त भिोां की सेव करती रहती
थीां, न रद भी सेव करते थे और कभी-कभी म त की अनु पक्तथथलत में भिोां की सेव करते रहते थे |
न रद स्वयां कहते हैं -
उक्तच्छष्टिे प ननुमोलदतो लद्वजैः
सकृत्स्म भु ञ्जे तदप स्तलकक्तल्बर्षः |
एवां प्रवृत्तस्य लवशु िचेतस-
स्तिमत एव त्मरुलचः प्रज यते ||
श्रीमद्भ गवत के इस श्लोक में (१.५.२५) न रद जी अपने लशष्य व्य सदे व से अपने पूवतजन्म क वणतन
करते हैं | वे कहते हैं लक पूणतजन्म में ब ल्यक ि में वे च तुम त स में शुिभिोां (भ गवतोां) की सेव
लकय करते थे लजससे उन्हें सांगलत प्र प्त हुई | कभी-कभी वे ऋलर्ष अपनी थ लियोां में उक्तच्छष्ट भोजन
छोड़ दे ते और यह ब िक थ लिय ेँ िोते समय उक्तच्छष्ट भोजन को चखन च हत थ | अतः उसने उन
ऋलर्षयोां से अनुमलत म ेँ गी और जब उन्होांने अनु मलत दे दी तो ब िक न रद उक्तच्छष्ट भोजन को ख त
थ | फिस्वरूप वह अपने समस्त प पकमों से मु ि हो गय | ज्योां-ज्योां वह उक्तच्छष्ट ख त रह त्योां-त्योां
वह ऋलर्षयोां के सम न शुि-हृदय बनत गय | चूेँलक वे मह भ गवत भगव न् की भक्ति क आस्व द
श्रवण तथ कीततन द्व र करते थे अतः न रद ने भी क्रमशः वैसी रूलच लवकलसत कर िी | न रद आगे
कहते हैं –
तत्र िहां कृष्णकथ ः प्रग यत म्
अनु ग्रहे ण शृणवां मनोहर ः |
त ः श्रिय मे Sनु पदां लवशृण्वतः
लप्रयश्रवस्यां ग मम भवद् रूलच: ||
ऋलर्षयोां की सांगलत करने से न रद में भी भगव न् की मलहम के श्रवण तथ कीततन की रूलच उत्पन्न
हुई और उन्होांने भक्ति की तीव्र इच्छ लवकलसत की | अतः जै स लक वेद न्तसूत्र में कह गय है –
प्रक शश्र्च कमत ण्यभ्य स त् – जो भगवद्भक्ति के क यों में केवि िग रहत है उसे स्वतः स री अनु भूलत
हो ज ती है और वह सब समझने िगत है | इसी क न म प्रत्यक्ष अनु भूलत है |
िर्म्त म् शब् क अथत है “िमत क पथ” | न रद व स्तव में द सी के पुत्र थे | उन्हें लकसी प ठश ि में
ज ने क अवसर प्र प्त नहीां हुआ थ | वे केवि म त के क यों में सह यत करते थे और सौभ ग्यवश
उनकी म त को भिोां की सेव क सुयोग प्र प्त हुआ थ | ब िक न रद को भी यह सुअवसर
उपिब्ध हो सक लक वे भिोां की सांगलत करने से ही समस्त िमत के परमिक्ष्य को प्र प्त हो सके |
यह िक्ष्य है – भक्ति, जै स लक श्रीमद्भ गवत में कह गय है (स वै पुांस ां परो िमोां यतो भक्तिरिोक्षजे )
| स म न्यतः ि लमत क व्यक्ति यह नहीां ज नते लक िमत क परमिक्ष्य भक्ति की प्र क्तप्त है जै स लक हम
पहिे ही आठवें अध्य य के अक्तन्तम श्लोक की व्य ख्य करते हुए कः चुके हैं (वेदेर्षु यज्ञे र्षु तपःसु चैव)
स म न्यतय आत्म-स क्ष त्क र के लिए वैलदक ज्ञ न आवश्यक है | लकन्तु यह ेँ पर न रद न तो लकसी गुरु
के प स प ठश ि में गये थे , न ही उन्हें वैलदक लनयमोां की लशक्ष लमिी थी, तो भी उन्हें वैलदक अध्ययन
के सवोच्च फि प्र प्त हो सके | यह लवलि इतनी सशि है लक ि लमत क कृत्य लकये लबन भी मनुष्य
लसक्ति-पद को प्र प्त होत है | यह कैसे सम्भव होत है? इसकी भी पुलष्ट वैलदक स लहत्य में लमिती है -
आच यतव न् पुरुर्षो वेद | मह न आच यों के सांसगत में रहकर मनु ष्य आत्म-स क्ष त्क र के लिए आवश्यक
समस्त ज्ञ न से अवगत हो ज त है , भिे ही वह अलशलक्षत हो य उसने वेदोां क अध्ययन न लकय हो |
भक्तियोग अत्यन्त सुखकर (सुसुखम् ) होत है | ऐस क्योां? क्योांलक भक्ति में श्रवणां कीततनां लवष्णोः रहत
है , लजससे मनु ष्य भगव न् की मलहम के कीततन को सुन सकत है , य प्र म लणक आच यों द्व र लदये गये
लदव्यज्ञ न के द शत लनक भ र्षण सुन सकत है | मनु ष्य केवि बैठे रहकर सीख सकत है , ईश्र्वर को
अलपतत अच्छे स्व लदष्ट भोजन क उक्तच्छष्ट ख सकत है | प्रत्येक दश में भक्ति सुखमय है | मनु ष्य गरीबी
की ह ित में भी भक्ति कर सकत है | भगव न् कहते हैं – पत्रां पुष्पां फिां तोयां – वे भि से हर प्रक र
की भें ट िे ने को तैय र रहते हैं | च हे प त्र हो, पुष्प हो, फि हो य थोड स जि, जो कुछ भी सांस र
के लकसी भी कोने में उपिब्ध हो, य लकसी व्यक्ति द्व र , उसकी स म लजक क्तथथलत पर लवच र लकये
लबन , अलपतत लकये ज ने पर भगव न् को वह स्वीक र है , यलद उसे प्रेमपूवतक चढ़ य ज य | इलतह स में
ऐसे अने क उद हरण प्र प्त हैं | भगव न् के चरणकमिोां पर चढ़े तुिसीदि क आस्व दन करके
सनत्कुम र जै से मुलन मह न भि बन गये | अतः भक्तियोग अलत उत्तम है और इसे प्रसन्न मु द्र में
सम्पन्न लकय ज सकत है | भगव न् को तो वह प्रेम लप्रय है , लजससे उन्हें वस्तुएेँ अलपतत की ज ती हैं |
16) *श स्त्रोां में भगव न श्री चै तन्य मह प्रभु के अवतरण की भलवष्यव लणय ां *
कलियु ग में बु क्तिम न िोग, कृष्ण-न म के भजन में लनरां तर रत रहने व िे अवत र की पूज सांकीतत न द्व र
करते हैं । यद्यलप वे श्य मवणत के नहीां हैं , परन्तु वे स्वयां कृष्ण हैं । *– भ गवत ११.५.३२*
प्र रां लभक िीि ओां में वे स्वलणतम वणत के एक गृहथथ के रूप में प्रकट होते हैं । उनके प्रत्यांग सुन्दर हैं और
चन्दन क िे प िग ये हुए वे तप्तक ांचन के सम न लदखते हैं । अपनी अांत की िीि ओां में उन्होांने
सांन्य स स्वीक र लकय , एवां वे सौर्म् एवां श ां त हैं । वे श ां लत एवां भक्ति के उच्चतम आश्रय हैं क्योांलक वे
म य व दी अभिोां को भी श ां त कर दे ते हैं । *– मह भ रत (द न-िमत पवत, अध्य य १८९)*
मैं नवद्वीप की प वन भू लम पर म त शलचदे वी के पुत्र के रूप में प्रकट होऊांग । *– कृष्ण यमि तांत्र*
कलियुग में जब सांकीततन आां दोिन क उदघ टन होग तब मैं सलचदे वी के पुत्र के रूप में अवतररत
होऊांग । *– व यु पुर ण*
कभी कभी मैं स्वयां एक भि के वेश में उस िर ति पर प्रकट होत हेँ । लवशे र्ष रूप से कलियुग में
मैं सची दे वी के पुत्र के रूप में सांकीततन आां दोिन आरम्भ करने के लिए प्रकट होत हेँ । *– ब्रह्म
यमि तांत्र*
हे महे श्वरी ! स्वयां परम पुरुर्ष श्री कृष्ण, जो र ि र नी के प्र ण एवां जगत के सृलष्टकत त , प िक एवां
लवध्वां सक हैं , गौर के रूप में प्रकट होते हैं । *– अनां त सांलहत *
परम पुरुर्षोत्तम भगव न, परम भोि , गोलवन्द लजनक रूप लदव्य है , जो लत्रगुण तीत हैं , जो सभी जीवोां के
हृदय में लवद्यम न सव्य त पक परम त्म हैं , वे कलियुग में दोब र प्रकट होांगे । परम-भि के रूप में,
परम पुरुर्षोत्तम भगव न गोिोक वृन्द वन के सम न, गांग के तट पर नवद्वीप में लद्वभु ज सुवणतमय रूप
ग्रहण करें गे । वे लवश्वभर में शु ि-भक्ति क प्रच र करें गे। *– चैतन्य उपलनर्षद ५*
कलियुग की प्रथम सांध्य में परम पुरुर्षोत्तम भगव न सुवणतमय रूप ग्रहण करें गे । सप्रतथम वे िक्ष्मी के
पलत होांगे तत्पश्च त वे सांन्य सी होांगे जो जगन्न थ पुरी में लनव स करें गे । *– गरुड़ पुर ण*
कमि रूपी नगर के मध्य में क्तथथत म य पुर न मक एक थथ न है और म य पुर के मध्य में एक थथ न
है , अांतलद्वत प। यह परम पुरुर्षोत्तम भगव न, श्री चैतन्य क लनव स थथ न है । *– छ न्दोग्य उपलनर्षद*
कलियुग के प्र रम्भ में , मैं अपने सम्पू णत एवां व स्तलवक आध्य क्तत्मक स्वरूप में , नवद्वीप-म य पुर में
सलचदे वी क पुत्र बनूेँ ग । *– गरुड़ पुर ण*
परम पुरुर्षोत्तम भगव न इस सांस र में दोब र प्रकट होांगे । उनक न म श्री कृष्ण चैतन्य होग और वे
भगव न के पलवत्र न मोां के कीततन क प्रच र करें गे । *– दे वी पुर ण*
परम पुरुर्षोत्तम भगव न कलियुग में दोब र प्रकट होांगे । उनक रूप स्वलणतम होग , वे भगव न के पलवत्र
न म कीततन में आनां द िें गे और उनक न म चैतन्य होग । *– नृ लसांह पुर ण*
कलियुग के प्रथम सांध्य में मैं गांग के एक मनोरम तट पर प्रकट होऊांग । मैं सलचदे वी क पुत्र
कहि ऊांग और मे र वणत सुनहर होग । *-पद्म पुर ण*
कलियुग में मैं भगव न् के भि के वेश में प्रकट होऊांग और सभी जीवोां क उि र करू
ेँ ग । *–
न रद पुर ण*
पृथ्ी पर कलियुग की प्रथम सांध्य में , गांग के तट पर मैं अपन लनत्य सुवणतमय रूप प्रक लशत करू
ेँ ग
। *– ब्रम्ह पुर ण*
इस समय मे र न म कृष्ण चैतन्य, गौर ां ग, गौरचांद्र, सलचसुत, मह प्रभु , गौर एवां गौरहरर होग । इन न मोां क
कीततन करके मे रे प्रलत भक्ति लवकलसत करें गे । *– अनन्त सांलहत *
16)
भगव न श्री गौरसुन्दर चैतन्य मह प्रभु ने अपने लशष्योां को श्रीकृष्ण-तत्त्व पर ग्रन्ोां की रचन करने की आज्ञ
दी, लजसक प िन उनके अनुय यी आज तक कर रहे हैं । व स्तव में श्री चैतन्य मह प्रभु द्व र लजस दशत न
लक लशक्ष दी गयी उस पर हुयी व्य ख्य एां परम लवस्तृत एवां सुदृढ़ हैं ।
यद्यलप भगव न चै तन्य मह प्रभु अपने युव वथथ में ही परम लवद्व न के रूप में लवख्य त थे, लकन्तु उन्होांने हमें
काेवि आठ श्लोक ही प्रद न लकये लजन्हे “लशक्ष ष्टक” कहते हैं । इन आठ श्लोकोां में श्रीमन्मह प्रभु ने
अपने प्रयोजन को स्पष्ट कर लदय है । इन परम मूल्यव न प्र थत न ओां क यह ेँ मू िरूप एवां अनु व द
प्रस्तु त लकय ज रह है ।
*अनु व द*: हे भगवन ! आपक म त्र न म ही जीवोां क सब प्रक र से मां गि करने व ि है -कृष्ण,
गोलवन्द जै से आपके ि खोां न म हैं । आपने इन न मोां में अपनी समस्त अप्र कृत शक्तिय ां अलपतत कर दी
हैं । इन न मोां क स्मरण एवां कीततन करने में दे श-क ि आलद क कोई भी लनयम नहीां है । प्रभु !
आपने अपनी कृप के क रण हमें भगवन्न म के द्व र अत्यांत ही सरित से भगवत-प्र क्तप्त कर िे ने में
समथत बन लदय है , लकन्तु मैं इतन दु भ त ग्यश िी हेँ लक आपके न म में अब भी मे र अनु र ग उत्पन्न
नहीां हो प य है ॥२॥
*अनु व द*: स्वयां को म गत में पड़े हुए तृण से भी अलिक नीच म नकर, वृक्ष के सम न सहनशीि
होकर, लमथ्य म न की क मन न करके दु सरो को सदै व म न दे कर हमें सद ही श्री हररन म कीततन
लवनम्र भ व से करन च लहए ॥३॥
*अनु व द*: हे सवत समथत जगदीश ! मु झे िन एकत्र करने की कोई क मन नहीां है , न मैं अनु य लययोां,
सुन्दर स्त्री अथव प्रशां नीय क व्योां क इक्छु क नहीां हेँ । मे री तो एकम त्र यही क मन है लक जन्म-
जन्म न्तर मैं आपकी अहै तुकी भक्ति कर सकूेँ ॥४॥
*अनु व द*: हे नन्दतनु ज ! मैं आपक लनत्य द स हेँ लकन्तु लकसी क रणवश मैं जन्म-मृ त्यु रूपी इस
स गर में लगर पड़ हेँ । कृपय मु झे अपने चरणकमिोां की िूलि बन कर मु झे इस लवर्षम मृ त्युस गर से
मु ि कररये ॥५॥
*अनु व द*: हे प्रभु ! आपक न म कीततन करते हुए कब मे रे ने त्रोां से अश्रु ओां की ि र बहे गी, कब
आपक न मोच्च रण म त्र से ही मे र कांठ गद्गद होकर अवरुि हो ज येग और मे र शरीर रोम ां लचत हो
उठे ग ॥६॥
*युग लयतां लनमे र्षेण चक्षु र्ष प्र वृर्ष लयतम् ।*
*शू न्य लयतां जगत् सवं गोलवन्द लवरहे ण मे ॥७॥*
*अनु व द*: एकम त्र श्रीकृष्ण के अलतररि मे रे कोई प्र णन थ हैं ही नहीां और वे ही सदै व बने रहें गे,
च हे वे मे र आलिां गन करें अथव दशत न न दे कर मुझे आहत करें । वे नटखट कुछ भी क्योां न करें -वे
सभी कुछ करने के लिए स्वतांत्र हैं क्योांलक वे मे रे लनत्य आर ध्य प्र णन थ हैं ॥८॥
कुछ िोग कहते हैं लक यलद अा पने सक र त्मक रहने की कि सीख िी तो अा प लकसी भी पररक्तथथलत में
सुखी रह सकते हैं । च हे अा प लकतनी भी बड़ी परे श नी य समस्य में क्योां न फांसे हो यलद अा प उस
समस्य को सही दृलष्टकोण से दे खते हैं तो अा प सुखी रहें गे ।
इन पररक्तथथलतयोां में भी व्यक्ति मन में सही दृलष्टकोण रखकर अा गे बढ़ सकत है , लकन्तु प्रश्न यह है लक वह
सही दृलष्टकोण क्य है ?
सक र त्मक दृलष्टकोण क अथत यह नहीां है लक हम उन दु :ख भरी पररक्तथथलतयोां को सुख म नते रहें , यलद
लमची के ख ने पर मुेँह जि रह है अाौर हम अपने मन के सक र त्मक दृलष्टकोण से यह समझे लक मैं
मीठ ख रह हेँ तो क्य वह लउचत होग । इस पररक्तथथलत में सक र त्मक दृलष्टकोण होग लक तु रन्त ही
कुछ मीठ ख य ज ये लजससे मुेँह जिन कुछ कम हो अाौर अा गे से लमची न ख यी ज ये ।
कुछ िोग इस दु लनय में इक्तियोां अाौर मन के स्तर के सुख को ही सबकुछ म न बै ठे हैं अाौर जब भी
उनके सुख में कुछ ब ि अा ती है तो स्वयां झूठी तसल्ली दे ने क प्रय स करते हैं, नहीां नहीां मैं तो सुखी हेँ
।
एाे सी झूठी तसल्ली दे ने से अा प इस भौलतक जगत् के कड़वे सच को झुठि नहीां सकते लक इस भौलतक
जगत् में कदम-कदम पर दु :ख हैं अाौर हमें इस जगत् के म य वी बां िनोां से ब हर लनकि कर अा त्म
के स्तर क सुख प्र प्त करने क प्रय स करन च लहए ।
ह ेँ यह सत्य है लक अा त्म के स्तर पर हम र मूि स्वभ व अा नांद से पररपूणत है लकन्तु उस अा नांद के
स गर में गोते िग ने के लिए हमें पुन: अपने उस मूि स्वभ व अा त्म को परम अा नांद के स गर
भगव न् से जोड़न होग । हमें प्रेम एवां करुण क म ध्यम बन इस परम अा नांद को अन्योां के स थ
ब ेँ टन होग । यही स्तर भक्ति रस क है अाौर इस स्तर पर हम इतने अलिक सुख क अनुभव करते हैं
लक इस भौलतक जगत् के दु :ख च हे वे श रीररक स्तर पर होां य म नलसक स्तर पर हमें प्रभ लवत नहीां कर
प ते ।
हरे कृष्ण ।
तब उस व्यक्ति ने कह , मुझे समुद्र में स्न न करन है अाौर मैं िहरोां के रुकने की प्रतीक्ष कर रह हेँ ।
यही क्तथथलत इस भौलतक जगत् की है। इस जगत् की समस्य एेँ समुद्र की िहरोां के सम न हैं जो कभी
रुकने व िी नहीां हैं ।
इस भौलतक जगत् को दु :ख ियम कह गय है , जै से लहम िय लहम से भर रहत है, पुस्तक िय पुस्तकोां से,
भोजन िय भोजन से – उसी प्रक र इस भौलतक जगत् में दु :खोां क अा न –ज न तो चित ही रहेग ।
इसलिए हमें यह समझन होग लक समस्य एेँ होां य न होां हमें अपन कीमती समय भगव न् के लचन्तन क
अभ्य स करने में अवश्य िग न है तब ही हमेश के लिए हम इस भौलतक जगत् से मुि होकर वै कुण्ठ
पहुेँ च प येंगे जह ेँ कोई कुण्ठ य लचन्त नहीां होती। होत है तो केवि भगव न् के स लनध्य में असीम
अा नांद। हरे कृष्ण।
20) Iskcon Desire Tree - ह िं दी
स र वै लदक स लहत्य स्वीक र करत है लक कृष्ण ही ब्रह्म , लशव तथ अन्य समस्त दे वत ओां के स्त्रोत हैं |
अथवतवेद में (गोप ित पनी उपलनर्षद् १.२४) कह गय है – यो ब्रह्म णां लवदि लत पूवं यो वै वे द ां श्च ग पयलत
स्म कृष्णः – प्र रम्भ में कृष्ण ने ब्रह्म को वे दोां क ज्ञ न प्रद न लकय और उन्होांने भूतक ि में वै लदक ज्ञ न
क प्रच र लकय | पुनः न र यण उपलनर्षद् में (१) कह गे हाै – अथ पुरुर्षो ह वै न र यणोSक मयत प्रज ः
सृजेयते – तब भगव न् ने जीवोां की सृलष्ट करनी च ही | उपलनर्षद् में आगे भी कह गय है – न र यण द्
ब्रह्म ज यते न र यण द् प्रज पलतः प्रज यते न र यण द् इिो ज यते | न र यण दष्टौ वसवो ज यन्ते
न र यण दे क दश रुद्र ज यन्ते न र यण द्द्व दश लदत्य ः – “न र यण से ब्रह्म उत्पन्न होते हैं , न र यण से
प्रज पलत उत्पन्न होते हैं , न र यण से इि और आठ व सु उत्पन्न होते हैं और न र यण से ही ग्य रह रूद्र
तथ ब रह आलदत्य उत्पन्न होते हैं |” यह न र यण कृष्ण के ही अांश हैं |
.
वेदोां क ही कथन है – ब्रह्मण्यो दे वकीपुत्रः – दे वकी पुत्र, कृष्ण, ही भगव न् हैं *(न र यण उपलनर्षद् ४)*
| तब यह कह गय – एको वै आसीन्न ब्रह्म न ईश नो न पो न लिसमौ ने मे द्य व पृलथवी न न क्षत्र लण न
सूयतः – सृलष्ट के प्र रम्भ में केवि भगव न् न र यण थे | न ब्रह्म थे , न लशव | न अलि थी, न चिम , न
नक्षत्र और न सूयत (*मह उपलनर्षद् १)* | मह उपलनर्षद् में यह भी कह गय है लक लशवजी परमे श्र्वर
के मस्तक से उत्पन्न हुए | अतः वेदोां क कहन है लक ब्रह्म तथ लशव के स्त्रष्ट भगव न् की ही पूज
की ज नी च लहए |
.
*मोक्षिमत में कृष्ण कहते हैं * –
.
*प्रज पलतां च रूद्र च प्यहमे व सृज लम वै |*
*तौ लह म ां न लवज नीतो मम म य लवमोलहतौ ||*
.
“मैं ने ही प्रज पलतयोां को, लशव तथ अन्योां को उत्पन्न लकय , लकन्तु वे मे री म य से मोलहत होने के क रण
यह नहीां ज नते लक मैं ने ही उन्हें उत्पन्न लकय |” वर ह पुर ण में भी कह गय है –
.
*न र यणः परो दे वस्तस्म ज्ज तश्र्चतुमुतखः |*
*तस्म द्र रुद्रोSभवद्दे वः स च सवतज्ञत ां गतः ||*
.
“न र यण भगव न् हैं , लजनसे ब्रह्म उत्पन्न हुए और लफर ब्रह्म से लशव उत्पन्न हुए |” भगव न् कृष्ण समस्त
उत्पलत्तयोां से स्त्रोत हैं और वे सवतक रण कहि ते हैं | वे स्वयां कहते हैं , “चूेँलक स री वस्तु एेँ मु झसे उत्पन्न
हैं , अतः मैं सबोां क मू ि क रण हेँ | स री वस्तु एेँ मे रे अिीन हैं , मे रे ऊपर कोई भी नहीां हैं |” कृष्ण से
बढ़कर कोई परम लनयन्त नहीां है | जो व्यक्ति प्र म लणक गुरु से य वैलदक स लहत्य से इस प्रक र
कृष्ण को ज न िे त है , वह अपनी स री शक्ति कृष्णभ वन मृ त में िग त है और सचमु च लवद्व न पुरुर्ष
बन ज त है | उसकी तुिन में अन्य िोग, जो कृष्ण को ठीक से नहीां ज नते, म त्र मु खत लसि होते हैं |
केवि मु खत ही कृष्ण को स म न्य व्यक्ति समझेग | कृष्णभ वन भ लवत व्यक्ति को च लहए लक कभी मू खों
द्व र मोलहत न हो, उसे भगवद्गीत की समस्त अप्र म लणक टीक ओां एवां व्य ख्य ओां से दू र रहन च लहए
और दृढ़त पूवतक कृष्णभ वन मृ त में अग्रसर होन च लहए |
21)