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1 )Iskcon Desire Tree - ह िं दीLike Page

24 May at 07:55 ·

कृष्ण भक्ति में अग्रसर होने के प ांच उप य

भक्ति-पद तक ऊपर उठने के लिए हमें प ांच ब तोां क ध्य न रखन च लहए : 1. भिोां की सांगलत करन , 2. भगव न कृष्ण की
सेव में िगन , 3. श्रीमद्
भ गवत क प ठ करन , 4. भगव न के पलवत्र न म क कीततन करन तथ 5.
वृन्द वन य मथु र में लनव स करन | यलद कोई इन प ां च ब तोां में से लकसी एक में थोड भी अग्रसर
होत है तो उस बुक्तिम न व्यक्ति क कृष्ण के प्रलत सुप्त प्रेम क्रमशः ज गृत हो ज त है (CC.मध्य
िीि 24.193-194) |

कृष्णभ वन मृ त हम री चेतन को लनमत ि तथ शुि बन ने की लवलि है | जब मनु ष्य हर वस्तु को अपनी म नत है तब वह


भौलतक चेतन में रहत है और जब वह समझ ज त है लक हर वस्तु श्री कृष्ण की है तो वह कृष्णभ वन मृ त को प्र प्त कर
िे त है | कृष्णभ वन मृ त में की गयी प्रगलत कभी नष्ट नहीां होती | लजसने कृष्ण के प्रलत प्रेम उत्पन्न कर लिय वही भि है |
गीत (6.41-43) में भगव न कृष्ण कहते हैं : “यलद भक्ति पूरी नहीां भी होती तो भी कोई नु कस न नहीां हे क्योलक असफि
योगी पलवत्र आत्म ओ के िोक में अने क वर्षो तक भोग करने के ब द य तो सद च री पुरुर्षोां के पररव र में य िनव नो के
कुि में जन्म िे त हें | ऐस जन्म प कर वह अपने पूवत जन्म की दे वी चेतन को पुनः प्र प्त करत हे और आगे उन्नलत करने
क प्रय स करत है ” |

कृष्णभ वन मृ त में प्रगलत करते समय हमें एक ब त क और लवशेर्ष ध्य न रखन है : भगव न, भगव न के न म तथ भगव न के
भि के प्रलत कभी भी अपर ि नहीां करन है | इससे बचने क सरि उप य है अपने आप को दीन तथ भगव न क दस
समझन | भगव न ही केवि कत त है , हम तो अयोग्य व अिम है | सब में भगव न की उपक्तथथलत महसूस करते हुए सबको
सम्म न दें | तथ स थ ही जो व्यक्ति दू सरोां के गुणोां तथ आचरण की प्रशांस करत है य आिोचन करत है , वह म य मय
द्वै तोां में फसने के क रण कृष्णभ वन मृ त से लवपथ हो ज त है (SB.11.28.2) |

भक्तिहीन व्यक्ति के लिए उच्च कुि, श स्त्र-ज्ञ न, व्रत, तपस्य तथ वैलदक मां त्रोच्च र वैसे ही हैं , जैसे मृ त शरीर को गहने पहन न
(CC.मध्य िीि 19.75) | प्र म लणक श स्त्रोां क लनणतय है लक मनुष्य को कमत , ज्ञ न तथ योग क पररत्य ग करके भक्ति को
ग्रहण करन च लहए, लजससे कृष्ण पूणततय तुष्ट हो सकें (CC.मध्य िीि 20.136) | भक्ति के फिस्वरूप मनु ष्य क सुप्त कृष्ण
प्रेम ज गृत हो ज त है | सुप्त कृष्ण-प्रेम को ज गृत लकये लबन कृष्ण को प्र प्त करने क अन्य कोई स िन नहीां है
(CC.अन्त्य िीि 4.58) | गीत (BG.18.58) में भगव न कृष्ण कहते हैं : यलद तुम मेरी चेतन में क्तथथत रहोगे तो मे री कृप से
बि-जीवन के समस्त अवरोिोां को प र कर ज ओगे | िे लकन यलद लमथ्य अहां क रवश ऐसी चेतन में कमत नही करोगे, तो तुम
लवलनष्ट हो ज ओगे | तथ “जब भक्ति से जीव पूणत कृष्णभ वन मृ त में होत है तो वह वैकुण्ठ में प्रवेश क अलिक री हो ज त
है ” (BG.18.55) |

शुकदे व गोस्व मी कहते हैं : “हे र जन!, जो व्यक्ति भगवन्न म तथ भगव न के क यो क लनरन्तर श्रवण तथ कीततन करत है ,
वह बहुत ही आस नी से शुि भक्ति पद को प्र प्त कर सकत है | केवि व्रत रखने तथ वैलदक कमत क ांड करने से ऐसी
शुक्ति प्र प्त नहीां की ज सकती” (SB.6.3.32) | भक्ति के लबन कोर ज्ञ न मु क्ति लदि ने में समथत नहीां है , िे लकन यलद कोई
भगव न कृष्ण की प्रेममयी सेव में आसि है तो वह ज्ञ न के लबन भी मु क्ति प्र प्त कर सकत है (CC.मध्य िीि 22.21) |
मु क्ति तो भि के समक्ष उसकी सेव करने के लिए ह थ जोड़े खड़ी रहती है |

लनयलमत भक्ति करते रहने से हृदय कोमि हो ज त है , िीरे िीरे स री भौलतक इच्छ ओां से लवरक्ति हो ज ती है , तब वह कृष्ण
के प्रीलत अनु रुि हो ज त है | जब यह अनु रुक्ति प्रग ढ़ हो ज ती है तब यही भगवत्प्रेम कहि ती है (CC.मध्य िीि
19.177) | यलद कोई भगवत्प्रेम उत्पन्न कर िे त है और कृष्ण के चरण-कमिोां में अनु रुि हो ज त है , तो िीरे -िीरे अन्य स री
वस्तुओां से उसकी आसक्ति िु प्त हो ज ती है (CC.आलद िीि 7.143) |भगवत्प्रेम क िक्ष्य न तो भौलतक दृलष्ट से िनी बनन
है , न ही भवबांिन से मु ि होन है | व स्तलवक िक्ष्य तो भगव न की भक्तिमय सेव में क्तथथत होकर लदव्य आनन्द भोगन है |
जब मनु ष्य भगव न कृष्ण की सांगलत क आस्व दन कर सकने योग्य हो ज त है , तब यह भौलतक सांस र, जन्म-मृ त्यु क चक्र
सम प्त हो ज त है (CC.मध्य िीि 20.141-142)|
2 ) Arvind Rambhai Rabari
9 mins ·

*आध्य क्तत्मक तथ भौलतक लशक्ष *


ईशोपलनर्षद कहती है , “जो अलवद्य की सांस्कृलत मे ेँ िगे हुए हैं , वे अज्ञ न के गहनतम क्षेत्र मे ेँ प्रवेश करें गे ।
लशक्ष दो प्रक र की होती है, भौलतक तथ आध्य क्तत्मक। भौलतक लशक्ष जड़-लवद्य कहि ती है । जड़ क अथत
है “जो चि-लफर न सके” अथ त त पद थत। आत्म तो चि-लफर सकती है । हम र शरीर पद थत तथ आत्म
क सम्मेि है । जब तक आत्म वह ेँ रहती है , शरीर लहित -डु ित है । उद हरण थत मनुष्य के कोट तथ पैंट
तब तक लहिते-डु िते हैं , जब तक मनुष्य उन्हें पहने रहत है । एस िगत है की कोट तथ पैंट ही लहि
डु ि रहे हैं , लकांतु व स्तव मे ेँ यह तो शरीर है , जो लहि त -डु ि त है । इसी तरह ये शरीर चित लफरत है
क्यूांलक आत्म इसे चि लफर रही है । दू सर उद हरण मोटरक र क है । मोटरक र चिती है , क्यूांलक च िक
उसे चि आ रह है। जो मुखत होग वह यहीेँ सोचेग की मोटर क र अपने आप चि रही है | अद् भुत
य ां लत्रक व्यवथथ के ब वजू द भी मोटरक र स्वतः नहीेँ चि सकती।
चूां लक िोगो ेँ को केवि जड़-लवद्य अथत भौलतकत व दी लशक्ष दी ज ती है , इसलिए वे सोचते हैं लक यह भौलतक
प्रकृलत अपने आप क यत करती है , चिती लफरती है , और अनेक अद् भुत वस्तु एेँ प्रदलशत त करती है । जब हम
समुद्र तट पर होते हैं तो हम िहरो ेँ को चिते दे खते हैं, िे लकन वे स्वतः नहीेँ चिती। हव उन्हें चि ती है ,
और हव को कोई और ही चि त है । इस तरह यलद आप चरम क रण तक पहुां चे, तो आप को समस्त
क रणो ेँ के क रण कृष्ण लमिें गे। परम क रण की खोज करन ही असिी लशक्ष है।
इस प्रक र ईशोपलनर्षद कहती है लक जो िोग भौलतक शक्ति की ब ह्य गलतलवलियो ेँ द्व र मोलहत हो ज ते हैं ,
वे अलवद्य की पूज करते हैं। आिु लनक सभ्यत मे ेँ प्रौद्योलगकी को समझने के लिए की लकस तरह मोटरक र
य हव ई जह ज चित है बडे बडे सांथथ न हैं । वे इसक अध्ययन कर रहे हैं लक इतनी स री मशीनरी कैसे
बन ई ज ए लकांतु ऐस कोई शै लक्षक सांथथ न नहीेँ है , जो इस की खोज करे लक आत्म लकस तरह गलतशीि
है । व स्तलवक गलत दे ने व िे क अध्यन नहीेँ लकय ज रह ; उल्टे पद थत की ब ह्य गलत क अध्ययन लकय
ज रह है ।
मेस चु सेट्स इां क्तिट्यू ट ऑफ टे क्नोिॉजी मे ेँ भ र्षण दे ते हुए श्रीि प्रभुप द ने छ त्रो ेँ से पूछ , “शरीर को चि ने
व िे आत्म क अध्ययन करने के लिए टे क्नोिॉजी कह ेँ है?” उनके प स एसी कोई टे क्नोिॉजी नहीेँ थी। वे
ठीक से उत्तर न दे प ए, क्योांलक उनकी लशक्ष केवि जड़-लवद्य थी। ईशोपलनर्षद् कहती है लक जो िोग
एसी भौलतकत व दी लशक्ष की उन्नलत मे ेँ िगे हुए हैं वे सांस र के गहनतम भ गो ेँ मे ेँ ज एां गे । वततम न सभ्यत
बहुत ही खतरे मे ेँ है , क्यूांलक प्र म लणक आध्य क्तत्मक लशक्ष के लिए सांस र मे ेँ कहीेँ कोई व्यवथथ नहीेँ है । इस
तरह म नव सम ज को जगत के गहन अांिक र क्षेत्र मे ेँ िकेि ज रह है ।
श्रीि भक्ति लवनोद ठ कुर ने एक गीत मे ेँ घोलर्षत लकय है लक भौलतकत व दी लशक्ष केवि म य क लवस्त र
है । इस भौलतकत व दी लशक्ष मे ेँ लजतन आगे बढ़ें गे, उतनी ही अलिक ईश्वर को समझने की हम री क्षमत
अवरुि होगी और अांत मे घोलर्षत करन पड़ ज एग लक, “ईश्वर मृत है ।” यह सब अज्ञ न तथ अांिक र है ।
अतः भौलतकत व दी िोग लनश्चय ही अांिक र मे ेँ िकेिे ज रहे है ।ेँ लकांतु एक अन्य वगत भी है – तथ कलथत
द शतलनको,ेँ मनोिलमतयोां, िमतलवदोां तथ योलगयोां क – जो उससे भी अलिक गहन अांिक र मे ेँ ज रहे हैं , क्यूांलक वे
कृष्ण की अनदे खी कर रहे हैं । वे अध्य क्तत्मक ज्ञ न क अनुशीिन करने क लदख व करते हैं, लकांतु उन्हें
कृष्ण य ईश्वर क कोई ज्ञ न नहीेँ रहत । अतः उनकी लशक्ष एेँ पक्के भौलतकत व दीयोां की लशक्ष ओां की
अपेक्ष कहीेँ और घ तक हैं । क्योां? क्यूांलक वे िोगो ेँ को यह सोचने के लिए लदग्भ्रलमत करते हैं लक वे असिी
ज्ञ न प्रद न कर रहे हैं । वे लजस तथ कलथत योग प्रण िी की लशक्ष दे ते हैं-“केवि ध्य न करो और तु म
समझ ज ओगे लक तु म ईश्वर हो” – वह िोगो ेँ को लदगरलमत करती है । कृष्ण ने ईश्वर बनने के लिए कभी
ध्य न नहीेँ लकय । वे जन्म से ही इश्वर थे। जब वे तीन म ह के लशशु थे, तो पूतन न मक र क्षसी ने उन
पर आक्रमण लकय लकांतु कृष्ण ने उसक स्तन-प न करके उसके प्र ण लनक ि लिए। अतः कृष्ण प्र रां भ से
ही ईश्वर ही थे। यही ईश्वर है ।
तथ कलथत व्यथत के योगी लशक्ष दे ते हैं , “तु म क्तथथर तथ मौन बन ज ओ, और तु म ईश्वर हो ज ओगे । हम मौन
कैसे हो सकत हैं? क्य मौन बनने की कोई सांभ वन है? नहीेँ एसी कोई सांभ वन नहीेँ है। “इच्छ रलहत हो
ज ओ और तु म ईश्वर बन ज ओगे ।” भि हम इच्छ रलहत कैसे हो सकते हैं ? ये सब बहक वे हैं। हम
इच्छ रलहत हो नहीेँ सकते , हम मौन नहीेँ हो सकते । िेलकन हम री इच्छ एां तथ हम रे क यतकि प शु ि बन ए
ज सकते हैं । यही असिी ज्ञ न है । हम री एकम त्र इच्छ कृष्ण की सेव करने की होनी च लहए। इच्छ की
शु क्ति है । क्तथथर तथ मौन होने के बज ए हमे ेँ अपने क योेँ को कृष्ण की सेव से जोड़ दे न च लहए। जीलवत
व्यक्ति के रुप मे ेँ हम मे ेँ गलतलवलिय ेँ , इच्छ एेँ प्रेमप्रवृलत्त होती हैं , लकांतु इन्हे गित लदश दी ज रही है । यलद
हम उन्हें कृष्ण की सेव मे ेँ िग ते हैं तो वह लशक्ष की पूणतत है।
हम यह नहीेँ कहते की आप भौलतक लशक्ष मे ेँ आगे न बढ़े ेँ। आप आगे बढ़े ेँ, लकांतु स थ ही
कृष्णभ वन भ लवत बनें। यही हम र सांदेश है । हम यह नहीेँ कहते की आपको मोटरक रें नहीेँ बन नी
च लहए। नहीेँ, हम कहते हैं , “ठीक आपने ये मोटर क रें तै य र कर िीां। अब इन्हें कृष्ण की सेव मे ेँ
िग इए।” यही हम र प्रस्त व है ।
अतः लशक्ष आवश्यक है , लकांतु यलद यह लनरी भौलतकत व दी है – यलद यह कृष्णभ वन से लवहीन है – तो यह
अत्यां त घ तक है । यही ईशोपलनर्षद क कथन है ।

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2) Iskcon Desire Tree - ह िं दीLike Page

30 May at 09:40 ·

*प्रम लणक गुरु की खोज कैसे करें *

प्रम लणक गुरु की खोज के लिए सबसे पहिे हमें प्रम लणक गुरु–लशष्य परम्पर को खोजन होग लजसकी चच त भगव न् श्रीकृष्ण
भगवद्गीत में करते
हैं – *एवां परम्पर प्र प्तम् (४.२)* अथ त त् इस परम ज्ञ न की प्र क्तप्त गुरु–लशष्यपरम्पर
के द्व र की ज ती है ।

इस प्रम लणक गुरु–लशष्य परम्पर की लवशेर्षत यह होती है लक इसमें मू ि ज्ञ न क स्रोत भगव न् स्वयां होते हैं , अथ तत् सबसे
पहिे भगव न् स्वयां ही ज्ञ न दे ते हैं – जैस लक ब्रह्म–म िव–गौलड़य परम्पर में सबसे पहिे भगव न्कृष्ण यह ज्ञ न ब्रह्म जी को
दे ते हैं , तत्पश्च त् ब्रह्म जी न रदजी को अा ाै र न रदजी व्य सजी को।

परम्पर में अा गे अा ने व िे गुरु उसी ज्ञ न को केवि दोहर ते हैं । अाौर जब भगव न् स्वयां ही अपने अाौर इस जगत् के
लवर्षय में ज्ञ न दे ते हैं तो वह ज्ञ न पूणत ही होत है । परम्पर में अा रहे गुरु से सम्बन्ध थथ लपत करने पर लशष्य क सम्बन्ध
केवि अपने गुरु से ही नहीां अलपतु गुरु के गुरु अा ाै र उनके पहिे के सभी गुरुअाोाां से हो ज त है ।

क्योांलक गुरु द्व र लदए ज न व ि ज्ञ न बहुत ही महत्वपूणत होत है अाौर हम रे जीवन में अत्यलिक लवशेर्ष महत्व रखत है ,
इसलिए गुरु के िक्षणोां को समझन बहुत अा वश्यक है । अन्यथ हम री क्तथथलत भी उसी व्यक्ति के सम नहो सकती है जो
सोन खरीदने के लिए लनकित है लकन्तु सोने की प्रम लणकत क ज्ञ न न होने के क रण िोख ख ज त है अाौर पीति
खरीद कर िे अा त है ।

अा जकि अने क िोग गुरु के प स भौलतक ि भ जैसे लक िन, परीक्ष में सफित , स्व स्थ्य इत्य लद हे तु ज ते हैं लकन्तु सत्य तो
यह है लक व स्तलवक गुरु अपने लशष्य को भौलतक ि भ दे ने के लिए नहीां होते, स िु क अथत है जोक टत है अथ तत् जो
अपने लशष्य के भौलतक के बांिनोां की ग ेँठोां को क टते हैं ।
गुरु को अपने अा चरण द्व र लसख न च लहए अाौर उनक अपने मन अाौर इक्तियोां पर लनयन्त्रण होन च लहए, इसी क रण
गुरु को अा च यत भी कह ज त है ।

व चो वेगां मनस: क्रोि वेगां लजह्व वेगां उदरोपथथ वेगम् ।

एत न् वेग न् यो लवर्षहे त िीर: सव तमलपम ां पृथ्ीां स लशष्य त्।।

वह िीर व्यक्ति जो अपने मन, व णी, क्रोि, लजह्व , पेट अाौर जने क्तियोां के वेग को लनयक्तन्त्रत कर सकत है वही पूरे लवश्व में
लशष्य बन ने योग्य है ।

इस प्रसांग में एक घटन एाे सी अा ती है , एक ब र एक स िु लकसी घर में भोजन के लिए गए अाौर वह ेँ पर उस गृलहणी ने
जो उन्हें भोजन परोस रही थी, अा ग्रह लकय – लक वे उसके छोटे बच्चे को समझ यें लक वह अलिक मीठ नख ये, यह उसके
स्व स्थ्य के लिए अच्छ नहीां है , इस पर स िु ने कुछ नहीां कह अा ाै र बोिे लक मैं एक हफ्ते ब द इस लवर्षय पर चच त
करू ेँ ग अाौर चिे गये।

एक हफ्ते ब द वे पुन: अा ये अाौर बच्चे को समझ ने िगे, ब द में उन्होांने गृलहणी को बत य लक एक हफ्ते पहिे तक मैं
भी बहुत मीठ ख त थ लकन्तु लपछिे एक हफ्ते में मैं ने मीठ ख न कम कर लदय है इसलिए अब मैं बच्चे कोइसके लवर्षय
में उपदे श दे सकत हेँ ।

गुरु में स िु गुणोां क होन अत्यन्त वश्यक है , जैस लक *श्रीमद्भ गवतम् (३.२५.२१)* में बत य गय है –

*लतलतक्ष्व: क रुलणक : सुहृद: सवतदलहन म् ।*

*अज तशत्रव: श न्त : स िव: स िु भूर्षण : ।।*

स िु के िक्षण हैं लक वह सहनशीि, कृप िु , सभी जीवोां के प्रलत लमत्रत क भ व रखने व ि होत है । वह लकसी के प्रलत
शत्रुत क भ व नहीां रखत , श न्त होत है श स्त्रोां के अनु स र अपन जीवन व्यतीत करत है ।

गुरु को अवश्य ही भगव न् क भि होन च लहए जैस लक *पदम पुर ण* में बत य गय है –

*र्षट् कमत लनपुणो लवप्रो मां त्र–तांत्र लवर्ष रद:।*

*अवैष्णवो गुरुनत स्य द वैष्णव: श्वपचो गुरु:।।*

यलद कोई लवद्व न ब्र ह्मण वै लदक ज्ञ न के सभी लवर्षयोां में दक्ष है लकन्तु कृष्ण भ वन के लवज्ञ न में दक्ष नहीां है अथ तत् भगव न्
क भि नहीां है , एाे स व्यक्ति गुरु नहीां बन सकत । लकन्तु यलद कोई असांस्कृत पररव र में भी जन्मलिय है , परन्तु वैष्णव है
अथ तत् उसे भगवद् –भक्ति क ज्ञ न है तो वह गुरु बन सकत है ।

गुरु क चुन व उनकी ज लत, रां ग, दे श इत्य लद दे खकर नहीां लकय ज न च लहए। अलपतु उनकी योग्यत के अनु स र लकय ज न
च लहए। जब लकसी डॉक्टर क चुन व करते हैं तो हम यह नहीां दे खते है लक वह लकस ज लत य दे श क है , उसकी दक्षत
दे खी ज ती है । उसी प्रक र येइ कृष्ण तत्त्व वेत्त सेइ गुरु होय – जो व्यक्ति भगव न् श्रीकृष्ण के लवज्ञ न को ज नत है उसे गुरु
के रूप में स्वीक र लकय ज न च लहए। यह अा वश्यक नहीां है लक वे सांस्कृत केलवद्व न हैं य नहीां परन्तु उनको श स्त्रोां के
ममत क भलिभ ेँलत ज्ञ न होन च लहए। अाौर वे जो बोि रहे हैं वह श स्त्रोां मे अनु स र होने के स थ–स थ पहिे के गुरुअाोाां
एवां स िु अाोाां के मत नु स र ही होन च लहए, अथ तत् उनकी व णी अा ाै रपरम्पर में अा रहे अन्य गुरुअाोाां की व णी में
कोई अन्तर नहीां होन च लहए।

अन्तत: सबसे महत्वपूणत ब त यह है लक वे अपने मन, व णी अाौर शरीर द्व र सदै व भगव न् की सेव में व्यस्त रहने च लहए,
जैस लक भगवद्गीत ९.१४ में भि के लवर्षय में भगव न् श्रीकृष्ण बत ते हैं – सततां कीततरयन्तो म ां –मे रे शुि भि सदै व मे रे
न म, गुण एवां िीि क कीततन करते रहते हैं ।
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31 May at 10:15 ·

*भगव न् को दे खे लबन उन पर लवश्व स कैसे करूााां *

यलद दे खने की ही ब त है तो एाे सी अने क चीजें हैं लजन्हें हमने नहीां दे ख अा ाै र लफर भी हम उन पर लवश्व स क्योां करते
हैं ?

एक ब र एक प्र थलमक लवद्य िय में छोटे बच्चोां से भी एक लशक्षक एाे स ही कुछ तकत दे रहे थे तो एक छोटे बच्चे ने खड़े
होकर ब की सभी लवद्य लथतयोां से पूछ क्य अा प में से लकसी ने हम रे लशक्षक की बुक्ति को दे ख है ? सभी ने एक स थ ऊां ची
अा व ज में उत्तर लदय – नहीां। लकन्तु इसक अथत यह नहीां हुअा लक लशक्षक के प स बुक्ति नहीां है ।

एाे सी बहुत सी सूक्ष्म चीजें हैं लजन्हें हम दे ख नहीां सकते लकन्तु उनके प्रभ व द्व र उनके लअस्तत्व को समझ सकते हैं । जैसे
लक हव क अनु भव भी हम उसके स्पशत से ही कर प ते हैं दे खने से नहीां।

जब भी हम लबजिी के बल्ब को दे खते हैं तो हमें थ ामस लएडसन क स्मरण होत है लजसने उसक अा लावष्क र लकय
थ । उसी प्रक र दू रबीन को दे खने पर गैिीलियो क स्मरण होत है । यलद हम गहर ई से सोचें तो प येंगे प्रत्येक वस्तु को
बन ने के पीछे लकसी न लकसी क ह थ है यद्यलप हम उस व्यक्ति को दे ख नहीां प रहे हैं । यहॉां तक लकएक रोटी भी अपने
अा प नहीां अा ती उसको बन ने के पीछे कोई होत है ।

लकन्तु जब हम इस जलटि सृलष्ट की रचन को दे खते हैं तो हमें इसके अा लवष्क रक क स्मरण क्योां नहीां होत ?

जब हम लकसी शहर की व्यस्त सड़कोां से गुजरते हैं तो हमें य त य त के अने क लनयमोां क प िन करन होत है , क्य उन
लनयमोां के पीछे लकसी क ह थ नहीां है ? उसी प्रक र इस सृ लष्ट में भौलतक लवज्ञ न, रस यन लवज्ञ न अाौर गलणत इत्य लद में अने क
लनयम हैं , प्रकृलत के अने क लनयम हैं अाौर जीवन के भी अने क लनयम हैं । जो कभी बदितेनहीां। जैसे लक प्रत्येक व्यक्ति को
जन्म, मृ त्यु, बीम री अाौर वृि वथथ से गुजरन ही होत है ।

हमें न क्तस्तकोां से पूछन होग लक क्य उन्हें इस सृलष्ट में अने क लनयम नहीां लदखते अाौर यलद लदखते हैं तो उसके पीछे लकसी
लनयम बन ने व िे अाौर उन लनयमोां क लनयन्त्रण करने व िे को स्वीक र करने में क्य कलठन ई है ?

यलद हम सृलष्ट को ध्य नपूवतक दे खेंगे तो प येंगे लक इस सृ लष्ट को बन ने के पीछे लकतनी बुक्तिमत्त अाौर सटीक व्यवथथ है ।
एक स ि रण से लबजिी के बल्ब को जि ने के लिए अनेक उद्योगोां एवां लबजिी लवभ ग को लकतनी व्यवथथ करनी होती है
तब कहीां हम रे घर में लबजिी क बल्ब जि प त है । इस सृ लष्ट में सूयत द्व र हम असीलमतम त्र में प्रक श एवां ऊष्म प्र प्त
कर रहे हैं , क्य वह लबन लकसी व्यवथथ एवां बुक्तिमत्त द्व र ही सम्भव है ?

स गर में असीलमत म त्र में जि को सांलचत लकय गय है अाौर उसमें नमक भी ड ि लदय गय है लजससे की वह खर ब न
हो क्योांलक नमक ड िने से वह सड़े ग नहीां। सूयत द्व र इस ख रे जि क व ष्पीकरण होत है अाौर यही ख र जि मीठे
जि में पररवलततत होकर हमें वर्ष त द्व र लमित है , इतन ही नहीां जो जि ऊां चें पह ड़ो पर लगरत है वह बफत में पररवलततत हो
ज त है जो िीरे –िीरे लपघिकर अने क नलदयोां द्व र हमें पूरे वर्षत लमित रहत है ।

यलद हम कहें लक यह सब स्वसांच लित व्यवथथ यें हैं तो हमें यह म नन होग लकसी भी स्वसांच लित व्यवथथ , जैसे लिफ्ट क
द्व र स्वयां ही बांद होन , के पीछे लकसी इां जीलनयर क ह थ होत है ।

जब कठपुलतियोां को न चत हुअा दे खते हैं तो हम ज नते हैं लक इनके पीछे इन्हें कोई नच ने व ि है । इस ब्रह्म ण्ड में
अने क ग्रह हैं जो अपनी अपनी कक्ष अाोाां में एक लनयलमत गलत एवां व्यवथथ के स थ घूम रहें हैं अाौर कभी भी अा पस में
नहीां टकर ते क्य इन ग्रहोां की य त य त व्यवथथ के पीछे कोई नहीां है ? क्य अने क फूिोां में लवलभन्नप्रक र की सुगन्ध अाौर
फिोां में लभन्न–लभन्न प्रक र क स्व द अपने अा प ही अा गय ?
यलद हम इस सृलष्ट क ध्य न पूवतक एवां ईम नद री से लनरीक्षण करें गे तो हमें अवश्य ही स्वीक र करन होग लक इसके पीछे
कोई बहुत ही बुक्तिम न व्यक्ति है ।

4) Iskcon Desire Tree - ह िं दी


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*तो तु म अपनी म ि एां पूरी कर रहे हो न ?*

ऐस पहिी ब र हुआ थ लक मैंने अपनी १६ म ि एां पूरी नहीां की थी । मैंने १४ म ि ही की थी और


इतनी थक न अनुभव कर रह थ लक मैंने मन में तकत लकय लक इस तरह से म ि करने से अच्छ है लक
मैं अभी लवश्र म करू ेँ और म ि कि पूरी करू ेँ , जै स लक हमें बत य गय थ ...
अगिे लदन सुबह जब मैं श्रीि प्रभुप द के कमरे में गय तो उन्होांने मुझसे पहिी चीज़ पूछी ... "तो तु म
अपनी म ि एां पूरी कर रहे हो न ?" ... हमेश लक तरह उन्हें लबन लकसी से पूछे सब पत थ ।
मैं ने उन्हें बत य लक कि मैं ने दो म ि नहीां की थी और वो मैं आज पूरी कर िूां ग ।

श्रीि प्रभु प द ने कह ...


"जब तुम लनयलमत रूप से अपनी १६ म ि करते हो तो यह एक छोटे ब िक क अपनी म ेँ की
सह यत से चिन सीखने के सम न है ... क्योांलक म ेँ ने ब िक क ह थ पकड़ हुआ है इसलिए
जब वह लगरने िगत है तो म ेँ के पकड़े रहने के क रण वह लगरत नहीां है ... हम रे जप के स थ
भी ऐस ही है ...
यलद तुम अपनी १६ म ि पूरी कर चुके हो तो कभी तुम लगरने भी िगो तो कृष्ण तुम्हें पकड़ िें गे
और लगरने नहीां दें गे ।"

लफर उन्होांने अपनी आेँ खें फैि कर अपने मु खमण्डि के स मने अपने लदव्य ह थोां को लहि ते हुए कह ,
"यलद तुम प्रलतलदन कम से कम अपने १६ म ि पुरे नहीां कर रहे हो, तो तुम्ह र कोई अत -पत नहीां
है और तुम अवश्य लगर ज ओगे ।"

*(१९७० के दशक में श्रीि प्रभु प द के सेवक रहे नां दकुम र प्रभु द्व र बत य गय )*

5)
*क्य आपको आत्म और शरीर के बीच अांतर पत है ?*

इस िे ख में आपको आत्म तथ शरीर के बीच क अांतर ज्ञ त होग । यह ज्ञ न हम रे आध्य क्तत्मक ज्ञ न क
मूि है । कभी कभी िोग यह बोि दे ते हैं लक हम भी अध्य त्म से जुड़े हैं य लकसी न लकसी आध्य क्तत्मक
म गत क अनुसरण कर रहे हैं । परन्तु अलिकतर िोगोां में अभी भी यह मूिभूत ज्ञ न नद रद है लक
अध्य त्म क आि र ही यह है लक, “हम यह शरीर नहीां आत्म हैं ।”

इस लवर्षय के अलतररि आपको यह ज्ञ त होग की प पकमत के फि लकस प्रक र क य त क्तित होते हैं ।
और कैसे इन दु गतम फिोां से मु क्ति प यी ज सकती है ।
भगवद्गीत क नौव ां अध्य य लवद्य ओां क र ज (र जलवद्य ) कहि त है , क्योांलक यह पूवतवती व्य ख्य लयत
समस्त लसि न्तोां एवां दशत नोां क स र है | भ रत के प्रमु ख द शत लनक गौतम, कण द, कलपि, य ज्ञवल्क्य,
श क्तण्डल्य तथ वैश्र्व नर हैं | सबसे अन्त में व्य सदे व आते हैं , जो वेद न्तसूत्र के िे खक हैं | अतः दशत न
य लदव्यज्ञ न के क्षे त्र में लकसी प्रक र क अभ व नहीां है | भगव न कहते हैं लक यह नवम अध्य य ऐसे
समस्त ज्ञ न क र ज है , यह वेद ध्ययन से प्र प् ज्ञ न एवां लवलभन्न दशत नोां क स र है | यह गुह्यतम है ,
क्योांलक गुह्य य लदव्यज्ञ न में आत्म तथ शरीर के अन्तर को ज न ज त है | समस्त गुह्यज्ञ न के इस
र ज (र जलवद्य ) की पर क ष्ट है , भक्तियोग |
स म न्यतय िोगोां को इस गुह्यज्ञ न की लशक्ष नहीां लमिती | उन्हें ब ह्य लशक्ष दी ज ती है | जह ेँ तक
स म न्य लशक्ष क सम्बन्ध है उसमें र जनीलत, सम जश स्त्र, भौलतकी, रस यनश स्त्र, गलणत, ज्योलतलवतज्ञ न,
इां जीलनयरी आलद में मनुष्य व्यस्त रहते हैं | लवश्र्वभर में ज्ञ न के अने क लवभ ग हैं और अने क बड़े -बड़े
लवश्र्वलवद्य िय हैं , लकन्तु दु भ त ग्यवश कोई ऐस लवश्र्वलवद्य िय य शै लक्षक सांथथ न नहीां है , जह ेँ आत्म-लवद्य
की लशक्ष दी ज ती हो | लफर भी आत्म शरीर क सबसे महत्त्वपूणत अांग है , आत्म के लबन शरीर
महत्त्वहीन है | तो भी िोग आत्म की लचन्त न करके जीवन की श रीररक आवश्यकत ओां को अलिक
महत्त्व प्रद न करते हैं |

भगवद्गीत में लद्वतीय अध्य य से ही आत्म की महत्त पर बि लदय गय है | प्र रम्भ में ही भगव न्
कहते हैं लक यह शरीर नश्र्वर है और आत्म अलवनश्र्वर | (अन्तवन्त इमे दे ह लनत्यस्योि ः शरीररणः) |
यही ज्ञ न क गुह्य अांश है-केवि यह ज न िे न लक यह आत्म शरीर से लभन्न है , यह लनलवतक र,
अलवन शी और लनत्य है | इससे आत्म के लवर्षय में कोई सक र त्मक सूचन प्र प्त नहीां हो प ती | कभी-
कभी िोगोां को यह रम रहत है लक आत्म शरीर से लभन्न है और जब शरीर नहीां रहत य मनु ष्य
को शरीर से मु क्ति लमि ज ती है तो आत्म शून्य में रहत है और लनर क र बन ज त है | लकन्तु यह
व स्तलवकत नहीां है | जो आत्म शरीर के भीतर इतन सक्रीय रहत है वह शरीर से मु ि होने के
ब द इतन लनक्तिय कैसे हो सकत है? यह सदै व सक्रीय रहत है | यलद यह श श्र्वत है , तो यह श श्र्वत
सलक्रय रहत है और वैकुण्ठिोक में इसके क यतकि प अध्य त्मज्ञ न के गुह्यतम अांश हैं | अतः आत्म के
क यों को यह ेँ पर समस्त ज्ञ न क र ज , समस्त ज्ञ न क गुह्यतम अांश कह गय है |

यह ज्ञ न समस्त क यों क शु ितुम रूप है , जै स लक वैलदक स लहत्य में बत य गय है |


पद्मपुर ण में मनु ष्य के प पकमों क लवश्लेर्षण लकय गय है और लदख य गय है लक ये प पोां के फि
हैं | जो िोग सक मकमों में िगे हुए हैं वे प पपूणत कमों के लवलभन्न रूपोां एवां अवथथ ओां में फेँसे रहते
हैं | उद हरण थत , जब बीज बोय ज त है तो तुरन्त वृक्ष नहीां तैय र हो ज त , इसमें कुछ समय िगत है
| पहिे एक छोट स अांकुर रहत है , लफर यह वृक्ष क रूप ि रण करत है , तब इसमें फूि आते हैं ,
फि िगते हैं और तब बीज बोने व िे व्यक्ति फूि तथ फि क उपभोग कर सकते हैं | इसी प्रक र
जब कोई मनु ष्य प पकमत करत है , तो बीज की ही भ ेँ लत इसके भी फि लमिने में समय िगत है |
इसमें भी कई अवथथ एेँ होती हैं | भिे ही व्यक्ति में प पकमों क उदय होन बन्द हो चुक को, लकन्तु
लकये गये प पकमत क फि तब भी लमित रहत है | कुछ प प तब भी बीज रूप में बचे रहते हैं ,
कुछ फिीभू त हो चुके होते हैं , लजन्हें हम दु ख तथ वेदन के रूप में अनु भव करते हैं |जै स की स तवें
अध्य य के अट्ठ इसवें श्लोक में बत य गय है जो व्यक्ति समस्त प पकमों के फिोां (बन्धनोां) क अन्त
करके भौलतक जगत् के द्वन्दद्वोां से मु ि हो ज त है , वह भगव न् कृष्ण की भक्ति में िग ज त है |
दु सरे शब्ोां में , जो िोग भगवद्भक्ति में िगे हुए हैं , वे समस्त कमत फिोां (बन्धनोां) से पहिे से मु ि हुए
रहते हैं | इस कथन की पुलष्ट पद्मपुर ण में हुई है –

अप्र रब्धफिां प पां कूटां बीजां फिोन्मु खम् |


क्रमे णैव प्रलियेत लवष्णु भक्तिरत त्मन म् ||

जो िोग भगवद्भक्ति में रत हैं और उनके स रे प पकमत च हे फिीभू त हो चुके हो, स म न्य होां य बीज
रूप में होां, क्रमशः नष्ट हो ज ते हैं | अतः भक्ति की शु क्तिक ररणी शक्ति अत्यन्त प्रबि है और पलवत्रम्
उत्तमम् अथ त त् लवशु ितम कहि ती है | उत्तम क त त्पयत लदव्य है | तमस् क अथत यह भौलतक जगत्
य अांिक र है और उत्तम क अथत भौलतक क यों से परे हुआ | भक्तिमय क यों को कभी भी भौलतक
नहीां म नन च लहए यद्यलप कभी-कभी ऐस प्रतीत होत है लक भि भी स म न्य जनोां की भ ेँ लत रत
रहते हैं | जो व्यक्ति भक्ति से अवगत होत है , वही ज न सकत है लक भक्तिमय क यत भौलतक नहीां
होते | वे अध्य क्तत्मक होते हैं और प्रकृलत के गुणोां से सवतथ अदू लर्षत रहते हैं |

कह ज त है लक भक्ति की सम्पन्नत इतनी पूणत होती है लक उसके फिोां क प्रत्यक्ष अनु भव लकय
ज सकत है | हमने अनु भव लकय है लक जो व्यक्ति कृष्ण के पलवत्र न म (हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण
कृष्ण हरे हरे , हरे र म हरे र म र म र म हरे हरे ) क कीततन करत है उसे जप करते समय कुछ
लदव्य आनन्द क अनुभव होत है और वह तुरन्त ही समस्त भौलतक कल्मर्ष से शु ि हो ज त है | ऐस
सचमु च लदख ई पड़त है | यही नहीां, यलद कोई श्रवण करने में ही नहीां अलपतु भक्तिक यों के सन्दे श को
प्रच ररत करने में भी िग रहत है य कृष्णभ वन मृ त के प्रच र क यों में सह यत करत है , तो उसे
क्रमशः आध्य क्तत्मक उन्नलत क अनु भव होत रहत है | आध्य क्तत्मक जीवन की यह प्रगलत लकसी पूवत
लशक्ष य योग्यत पर लनभतर नहीां करती | यह लवलि स्वयां इतनी शु ि है लक इसमें िगे रहने से मनु ष्य
शु ि बन ज त है |

वेद न्तसूत्र में (३.३.३६) भी इसक वणतन प्रक शश्र्च कमत ण्यभ्य स त् के रूप में हुआ है , लजसक अथत
है लक भक्ति इतनी समथत है लक भक्तिक यों में रत होने म त्र से लबन लकसी सांदेह के प्रक श प्र प्त हो
ज त है | इसक उद हरण न रद जी के पूवतजन्म में दे ख ज सकत है , जो पहिे द सी के पुत्र थे | वे
न तो लशलक्षत थे , न ही र जकुि में उत्पन्न हुए थे , लकन्तु जब उनकी म त भिोां की सेव करती रहती
थीां, न रद भी सेव करते थे और कभी-कभी म त की अनु पक्तथथलत में भिोां की सेव करते रहते थे |
न रद स्वयां कहते हैं -
उक्तच्छष्टिे प ननुमोलदतो लद्वजैः
सकृत्स्म भु ञ्जे तदप स्तलकक्तल्बर्षः |
एवां प्रवृत्तस्य लवशु िचेतस-
स्तिमत एव त्मरुलचः प्रज यते ||

श्रीमद्भ गवत के इस श्लोक में (१.५.२५) न रद जी अपने लशष्य व्य सदे व से अपने पूवतजन्म क वणतन
करते हैं | वे कहते हैं लक पूणतजन्म में ब ल्यक ि में वे च तुम त स में शुिभिोां (भ गवतोां) की सेव
लकय करते थे लजससे उन्हें सांगलत प्र प्त हुई | कभी-कभी वे ऋलर्ष अपनी थ लियोां में उक्तच्छष्ट भोजन
छोड़ दे ते और यह ब िक थ लिय ेँ िोते समय उक्तच्छष्ट भोजन को चखन च हत थ | अतः उसने उन
ऋलर्षयोां से अनुमलत म ेँ गी और जब उन्होांने अनु मलत दे दी तो ब िक न रद उक्तच्छष्ट भोजन को ख त
थ | फिस्वरूप वह अपने समस्त प पकमों से मु ि हो गय | ज्योां-ज्योां वह उक्तच्छष्ट ख त रह त्योां-त्योां
वह ऋलर्षयोां के सम न शुि-हृदय बनत गय | चूेँलक वे मह भ गवत भगव न् की भक्ति क आस्व द
श्रवण तथ कीततन द्व र करते थे अतः न रद ने भी क्रमशः वैसी रूलच लवकलसत कर िी | न रद आगे
कहते हैं –

तत्र िहां कृष्णकथ ः प्रग यत म्


अनु ग्रहे ण शृणवां मनोहर ः |
त ः श्रिय मे Sनु पदां लवशृण्वतः
लप्रयश्रवस्यां ग मम भवद् रूलच: ||

ऋलर्षयोां की सांगलत करने से न रद में भी भगव न् की मलहम के श्रवण तथ कीततन की रूलच उत्पन्न
हुई और उन्होांने भक्ति की तीव्र इच्छ लवकलसत की | अतः जै स लक वेद न्तसूत्र में कह गय है –
प्रक शश्र्च कमत ण्यभ्य स त् – जो भगवद्भक्ति के क यों में केवि िग रहत है उसे स्वतः स री अनु भूलत
हो ज ती है और वह सब समझने िगत है | इसी क न म प्रत्यक्ष अनु भूलत है |

िर्म्त म् शब् क अथत है “िमत क पथ” | न रद व स्तव में द सी के पुत्र थे | उन्हें लकसी प ठश ि में
ज ने क अवसर प्र प्त नहीां हुआ थ | वे केवि म त के क यों में सह यत करते थे और सौभ ग्यवश
उनकी म त को भिोां की सेव क सुयोग प्र प्त हुआ थ | ब िक न रद को भी यह सुअवसर
उपिब्ध हो सक लक वे भिोां की सांगलत करने से ही समस्त िमत के परमिक्ष्य को प्र प्त हो सके |
यह िक्ष्य है – भक्ति, जै स लक श्रीमद्भ गवत में कह गय है (स वै पुांस ां परो िमोां यतो भक्तिरिोक्षजे )
| स म न्यतः ि लमत क व्यक्ति यह नहीां ज नते लक िमत क परमिक्ष्य भक्ति की प्र क्तप्त है जै स लक हम
पहिे ही आठवें अध्य य के अक्तन्तम श्लोक की व्य ख्य करते हुए कः चुके हैं (वेदेर्षु यज्ञे र्षु तपःसु चैव)
स म न्यतय आत्म-स क्ष त्क र के लिए वैलदक ज्ञ न आवश्यक है | लकन्तु यह ेँ पर न रद न तो लकसी गुरु
के प स प ठश ि में गये थे , न ही उन्हें वैलदक लनयमोां की लशक्ष लमिी थी, तो भी उन्हें वैलदक अध्ययन
के सवोच्च फि प्र प्त हो सके | यह लवलि इतनी सशि है लक ि लमत क कृत्य लकये लबन भी मनुष्य
लसक्ति-पद को प्र प्त होत है | यह कैसे सम्भव होत है? इसकी भी पुलष्ट वैलदक स लहत्य में लमिती है -
आच यतव न् पुरुर्षो वेद | मह न आच यों के सांसगत में रहकर मनु ष्य आत्म-स क्ष त्क र के लिए आवश्यक
समस्त ज्ञ न से अवगत हो ज त है , भिे ही वह अलशलक्षत हो य उसने वेदोां क अध्ययन न लकय हो |
भक्तियोग अत्यन्त सुखकर (सुसुखम् ) होत है | ऐस क्योां? क्योांलक भक्ति में श्रवणां कीततनां लवष्णोः रहत
है , लजससे मनु ष्य भगव न् की मलहम के कीततन को सुन सकत है , य प्र म लणक आच यों द्व र लदये गये
लदव्यज्ञ न के द शत लनक भ र्षण सुन सकत है | मनु ष्य केवि बैठे रहकर सीख सकत है , ईश्र्वर को
अलपतत अच्छे स्व लदष्ट भोजन क उक्तच्छष्ट ख सकत है | प्रत्येक दश में भक्ति सुखमय है | मनु ष्य गरीबी
की ह ित में भी भक्ति कर सकत है | भगव न् कहते हैं – पत्रां पुष्पां फिां तोयां – वे भि से हर प्रक र
की भें ट िे ने को तैय र रहते हैं | च हे प त्र हो, पुष्प हो, फि हो य थोड स जि, जो कुछ भी सांस र
के लकसी भी कोने में उपिब्ध हो, य लकसी व्यक्ति द्व र , उसकी स म लजक क्तथथलत पर लवच र लकये
लबन , अलपतत लकये ज ने पर भगव न् को वह स्वीक र है , यलद उसे प्रेमपूवतक चढ़ य ज य | इलतह स में
ऐसे अने क उद हरण प्र प्त हैं | भगव न् के चरणकमिोां पर चढ़े तुिसीदि क आस्व दन करके
सनत्कुम र जै से मुलन मह न भि बन गये | अतः भक्तियोग अलत उत्तम है और इसे प्रसन्न मु द्र में
सम्पन्न लकय ज सकत है | भगव न् को तो वह प्रेम लप्रय है , लजससे उन्हें वस्तुएेँ अलपतत की ज ती हैं |

यह ेँ कह गय है लक भक्ति श श्र्वत है | यह वैसी नहीां है , जै स लक म य व दी लचन्तक स लिक र कहते


हैं | यद्यलप वे कभी-कभी भक्ति करते हैं , लकन्तु उनकी यह भ वन रहती है लक जब तक मु क्ति न लमि
ज ये, तब तक उन्हें भक्ति करते रहन च लहए, लकन्तु अन्त में जब वे मु ि हो ज एेँ गे तो ईश्र्वर से
उनक त द त्म्य हो ज एग | इस प्रक र की अथथ यी सीलमत स्व थत मय भक्ति शुि भक्ति नहीां म नी ज
सकती | व स्तलवक भक्ति तो मु क्ति के ब द भी बनी रहती है | जब भि भगवि म को ज त है तो
वह ेँ भी वह भगव न् की सेव में रत हो ज त है | वह भगव न् से तद क र नहीां होन च हत |

जै स लक भगवद्गीत में दे ख ज एग , व स्तलवक भक्ति मु क्ति के ब द प्र रम्भ होती है | मु ि होने पर जब


मनु ष्य ब्रह्मपद पर क्तथथर होत है (ब्रह्मभू त) तो उसकी भक्ति प्र रम्भ होती है (समः सवेर्षु भू तेर्षु
मद्भक्तिां िभते पर म् ) | कोई भी मनु ष्य कमत योग, ज्ञ नयोग, अष्ट ां गयोग य अन्य योग करके भगव न् को
नहीां समझ सकत | इन योग-लवलियोां से भक्तियोग की लदश लकांलचत प्रगलत हो सकती है , लकन्तु भक्ति
अवथथ को प्र प्त हुए लबन कोई भगव न् को समझ नहीां प त | श्रीमद्भ गवत में इसकी भी पुलष्ट हुई है
लक जब मनु ष्य भक्तियोग सम्पन्न करके लवशे र्ष रूप से लकसी मह त्म से श्रीमद्भ गवत य भगवद्गीत
सुनकर शु ि हो ज त है , तो वह समझ सकत है लक ईश्र्वर क्य है | इस प्रक र भक्तियोग य
कृष्णभ वन मृ त समस्त लवद्य ओां क र ज और समस्त गुह्यज्ञ न क र ज है | यह िमत क शु ितम रूप
है और इसे लबन कलठन ई के सुखपूवतक सम्पन्न लकय ज सकत है | अतः मनु ष्य को च लहए लक इसे
ग्रहण करे |

6) Iskcon Desire Tree - ह िं दी


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*हम रे अनथत और कृष्ण-िीि के असुर*

भगव न श्री कृष्ण अपनी िीि ओां द्व र भिोां को आनांद प्रद न करते हैं तथ असुरोां क न श भी करते हैं
। हम रे आच यत बहुत ही सुन्दर ढां ग से भक्ति में अवरोि उत्पन्न करने व िे अनथों की तु िन इन असुरोां से
करते हुए बत ते हैं लक लकस प्रक र यलद हम भगव न को आत्मसमपतण कर दें गे तो वे इन असुर रूपी
अनथों से हमें मुक्ति दें गे ।

श्रीि भक्तिलवनोद ठ कुर द्व र रलचत श्री चै तन्य लशक्षमृ त में वे वणतन करते हैं लक भगव न के वृन्द वन
िीि के समय म रे गए असुर, लवलभन्न प्रक र के अनथों क प्रलतलनलित्व करते हैं ।

१. *पूतन * – प खां डी गुरु।

२. *शकट सुर* – छकड़ -ग ड़ी भरकर हम री पुर नी एवां नयी बुरी आदतें, आिस्य तथ ईष्य त ।

३. *तृण वतत* – भौलतक-लवद्य में प ां लडत्य से उपज अहां क र जो मनोकक्तित ज्ञ न क क रण बनत है

४. *निकुवर तथ मलणग्रीव* – प्रलतष्ठ से जलनत अहांक र जो िन के क रण प गिपन पर आि ररत


है ।

५. *वत्स सुर* – ब िकोां जै सी ि िची म नलसकत जो दु ष्ट-बुक्ति क क रण बनती है ।

६. *बक सुर* – कपट-िूततत और झूठ से पररपूणत व्यवह र ।

७. *अघ सुर* – लनदत यी एवां लहां सक व्यवह र ।

८. *ब्रह्म-लवमोहन िीि * – स ां स ररक लक्रय कि प तथ मनोकक्तित लवद्वत्त ।

९. *िेनुक सुर* – स ां स ां ररक बुक्ति एवां आध्य क्तत्मक ज्ञ न से अनलभज्ञत ।


१०. *क लिय दमन* – लनदत यत एवां छि-कपट ।

११. *द व लि प न* – वैष्णवोां में अांतर-स ां प्रद लयक मतभे द ।

१२. *प्रिम्ब सुर* – क म, व्यक्तिगत ि भ तथ प्रलतष्ठ की इच्छ ।

१३. *य ज्ञीक ब्र ह्मण* – वण त श्रम के अांतगतत अपने पद जलनत दम्भ के क रण भगव न कृष्ण की उपेक्ष
करन ।

१४. *इां द्र क अलभम न-भांग* – दे वी-दे वत ओां की पूज तथ यह सोचन लक, “मैं सवतश्रेष्ठ हेँ ।”

१५. *नन्द-मह र ज क वरुण-दे व द्व र बांदी बन य ज न * – यह सोचन लक उन्मत्तत द्व र


आध्य क्तत्मक जीवन में प्रगलत होगी ।

१६. *नन्द मह र ज क लवद्य िर नमक सपत द्व र लनगि ज न * – कृष्ण-भ वन मृ त के सत्य को


म य व द द्व र आच्छ लदत होने से बच न ।

१७. *शां खचूड़* – भक्ति के वेश में न म एवां प्रलसक्ति तथ इक्तिय-भोग की इच्छ ।

१८. *अररष्ठ सुर* – कपलटयोां द्व र मनगढां त लविमत में लिप्त होने से उपजे अहां क र के क रण भक्ति
की उपेक्ष करन ।

१९. *केशी द नव* – यह ि रण लक, “मैं एक मह न भि और गुरु हेँ ।”

२०. *व्योम सुर* – चोरोां,िूतों तथ ऐसे िोगोां क सांग करन जो स्वयां को अवत र के रूप में प्रस्तु त
करते हैं ।

श्रीि भक्तिलवनोद ठ कुर बत ते हैं : “जो भि पलवत्र हररन म की आर िन करते हैं उन्हें भगव न से
पहिे यह य चन करनी च लहए लक वे इन सभी प्रलतकूि प्रवृलत्तयोां से छु टक र लदि एां – और उन्हें
भगव न हरर के समक्ष यह प्र थत न प्रलतलदन करनी च लहए । अांततः लनरां तर यह प्र थत न करने से भिोां
क हृदय शु ि हो ज त है । भगव न श्री कृष्ण ने हृदय-क्षे त्र में उलदत कई असुरोां क वि लकय है –
अतएव इन सभी समस्य ओां को नष्ट करने हे तु एक भि को दीनत से भगव न के समक्ष क्रांदन करन
(रोन ) च लहए – तब भगव न सभी मलिनत ओां को प्रभ वहीन कर दें गे ।

7) Iskcon Desire Tree - ह िं दी


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*प्रश्न : क्य “लनत्यो लनत्यन म् …” श्लोक से यह लसि होत है लक ‘परम सत्य’ एक पुरुर्ष हैं ?*

*हरे कृष्ण,*
उत्तर : जी यह यथ तथ्य है लक ‘परम सत्य’ एक पुरुर्ष हैं , परन्तु कठोपलनर्षद के इस श्लोक “लनत्यो
लनत्यन म्” क यह अथत है लक भगव न् श्री कृष्ण एवां जीव त्म (हम सब) लनत्य हैं और ब्रह्मव दी य
म य व दी मत के लवपरीत हम कभी भी उनमे लविीन होकर अपन व्यक्तिगत स्वरुप नहीां खोते ।

यह इस श्लोक में वलणतत है :

*(कठोपलनर्षद २.२.१३)*
*लनत्यो लनत्यन म चेतनस चेतन न म*
*एको बहुन म् यो लवदि लत क म न*

“परम भगव न् लनत्य हैं तथ जीव भी लनत्य है । परम भगव न् सवतज्ञ हैं तथ जीव भी सवतज्ञ है । अांतर
यह है लक परम भगव न् कई जीवोां के दै लनक आवश्यकत ओां की आपूलतत करते हैं ।”

अतः एक श श्वत परम (भगव न् कृष्ण) हैं जो अन्य अिीनथथ श श्वत (जीवोां) के आवश्यकत ओां की
आपूलतत करते हैं ।

इस श्लोक से हम यह भिीभ ेँ लत यह ज न सकते हैं लक हम री और परम पुरुर्ष भगव न् की लनत्यत


अनन्त क ि से चिी आ रही है और सन तन है ।
िन्यव द ! हरे कृष्ण !

8) Iskcon Desire Tree - ह िं दी


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पुरुर्षोत्तम - म स में प िन करने व िे लनयम लनम्नवत् हैं

1- ब्रह्म मुहतत में उठन च लहए ।

2--बढ़ते हुए क्रम में जप करन च लहए और अपनी तय की हुई जपसांख्य को लनत्य करन च लहए
जै से - 16,25,32,64....

3--भगवत गीत क प ठ करन च लहए लवशे र्ष रूप से प ठ 15 जो की पुरुर्षोत्तम योग न म से ज न


ज त है ,श्रीमद् भ गवत तथ चैतन्य चररत मृ त क प ठ करन च लहए ।

4-- लनत्य हरर कथ सुननी य पढनी च लहए (श्री कृष्ण पुस्तक से पढ़ सकते हैं जै से भगव न की
व्रजिीि और कुरुक्षे त्र में गोलपयोां से लमिन प्रसांग)

5--र ि कृष्ण के लवग्रह य फोटो जो भी आपके प स है उने कमि ,गुि ब तथ तुिसी म ि चढ


कर पूज करनी च लहए ।

6--लनत्य शु ि ग य के घी क दीप र ि कृष्ण के लवग्रह /लचत्र के समक्ष प्रज्वलित करन च लहए ।

7-- लनत्य जगन्न थ अष्टकम ग न च लहए ।


भजन तथ कीततन भी करन च लहए लवशे र्ष रूप से युगि लकशोर क गुणग न करने व िे जै से --
जय र ि म िव , र िे जय जय म िव दलयते, र ि कृष्ण प्र न मोर , र ि कृप कट क्ष आलद।
8-- वैष्णव, ब्र म्हण ,गरीब और जरूरतमां द को द न अपनी क्षमत के अनु रूप दे न च लहए ।

9---सदै व प्रस दम् ख न च लहए अथ त त कृष्ण को जो अलपतत लकय हो।

10--लनत्य गांग जी , यमु न जी जै से पलवत्र नलदयोां में स्न न करन च लहए यह सुलवि नहीां है तो घर में
गांग / यमु न जी के जि की कुछ बुांदे ड ि कर और उन्हें प्रण म करके स्न न इस भ व से करन
च लहए लक यमु न जी में ही स्न न कर रहे है ।

11-- ब्रम्हचतय क प िन करन च लहए ।

12--भू लम पर शयन करन च लहए।

13-- पूरे महीने सत्य बोिन च लहए।

14--भि ,श स्त्र ,ब्र म्हण ,ग य, सांत य जो पुरुर्षोत्तम म स के लनयमोां क प िन कर रह है उसकी


लनां द य उसके प्रलत कोई अपर ि नहीां करन च लहए।

15--केवि फि ह र कर के पूरे म स व्रत कर सकते हैं


एक समय फि ह र और एक समय अन्न ह र कर सकते हैं
लसफत एक समय अन्न ह र कर सकते हैं ।
अपने स्व स्थ्य को ध्य न में रखते हुए यह कर सकते हैं ।

पुरुर्षोत्तम - म स में अलिक से अलिक हररन म, कृष्णकथ , भजन एवां भगव न क गुणग न प्रच र प्रस र
के क यो में अपने आपको सिि करन च इये।

| | हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे | |


| | हरे र म हरे र म र म र म हरे हरे | |

प्रेर्षक : ISKCON Desire Tree – लहां दी


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9) Iskcon Desire Tree - ह िं दी


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*क्य दु :ख हम रे सुखोां को अाौर रां गीन नहीां बन दे ते?*

कुछ िोगोां क कहन है लक इस दु लनय के दु :ख ही हैं जो हम रे सुखोां में रां ग भरते हैं नहीां तो यलद
हमेश सुख ही होते तो सभी समय क सुख भी बहुत ही बोररां ग हो ज त ।
क्य यह व स्तव में सत्य है? क्य व स्तव में हममें से कोई भी जीवन में थोड़े समय के लिए भी दु :खी होन
च हत है ?

यलद लकसी के क रख ने में अा ग िग ज ये तो क्य वह उसे बच ने क प्रय स करे ग य उसे जिते


रहने के लिए छोड़ दे ग ? वह उसे बच ने क प्रय स करे ग अाौर बीमे क िन िे ने क भी पूर प्रय स
करे ग एवां स थ ही स थ भगव न् को िन्यव द दे ग लक उसके ब की के क रख ने सही सि मत हैं ।

क्य कोई लवद्य थी ज नबूझ कर लकसी एक लवर्षय में फेि होन च हे ग लजससे लक वह अन्य लवर्षयोां में
सफि होने क सुख अाौर अलिक अनु भव कर सके?

क्य अा प में से कोई भी अच्छे स्व स्थ्य की कीमत समझने के लिए बीम र होकर दु :खी होन पसांद
करें गे?

सच तो यह है लक दु :ख दु :ख ही हैं अाौर सुख सुख हैं । बड़ी-बड़ी ब तें करन एक ब त है लकन्तु


व स्तलवकत तो यही है लक कोई भी अपने जीवन में लकसी भी प्रक र क दु :ख नहीां च हत ।
हम सभी एाेसे सुखोां की खोज में हैं लजनक कभी भी अन्त न हो, लकन्तु जब उस प्रक र क सुख
हमें इस दु लनय में नहीां लमित तो हम अपने मन को लकसी न लकसी प्रक र से समझ ने के लिए यही
सब ब ते करते हैं लक सुखोां के अा नां द के लिए दु :खोां क होन अा वश्यक है ।

परन्तु बुक्तिमत्त तो इसी में है लक हम यह समझे लक इस भौलतक जगत् में उस प्रक र क लनरन्तर
सुख लजसमें लकसी भी प्रक र की रुक वट य दु :ख क लमश्रण न हो, उपिब्ध ही नहीां है अाौर यलद
हम उस प्रक र के सुख की अलभि र्ष करते हैं तो हमें एाेसे सुख को प्र प्त करने व ि सही थथ न
खोजन होग ।

अाौर अच्छी खबर यह है लक एाेस एक थथ न है लजसे वैकुण्ठ कह ज त है , जह ेँ सभी लनरन्तर रूप


से सुख क अनु भव करते हैं अाौर वह ेँ हमें अपने मन को समझ ने के लिए एाेसी मनगढ़ां त थ्योरी
बन ने की कोई अा वश्यकत नहीां है लक दु :ख हम रे सुखोां को अाौर रां गीन बन दे ते हैं ।

*हरे कृष्ण ।*

10) क्य भगव न पक्षप त करते हैं ?

जब कृष्ण क सबोां के लिए समभ व है और उनक कोई लवलशष्ट लमत्र नहीां है तो लफर वे उन भिोां में
लवशे र्ष रूलच क्योां िेते हैं, जो उनकी लदव्यसेव में सदै व िगे रहते हैं?

लकन्तु यह भेदभ व नहीां है , यह तो सहज है | इस जगत् में हो सकत है लक कोई व्यक्ति अत्यन्त उपक री
हो, लकन्तु तो भी वह अपनी सन्त नोां में लवशे र्ष रूलच िेत है | भगव न् क कहन है लक प्रत्ये क जीव, च हे
वह लजस योनी क हाो, उनक पुत्र है , अतः वे हर एक को जीवन की आवश्यक वस्तु एेँ प्रद न करते हैं
|
वे उस ब दि के सदृश हैं जो सबोां के ऊपर जिवृलष्ट करत है , च हे यह वृलष्ट चट्ट न पर हो य थथि
पर, य जि में हो | लकन्तु भगव न् अपने भिोां क लवशे र्ष ध्य न रखते हैं | ऐसे हो भिोां क यह ेँ
उल्ले ख हुआ है – वे सदै व कृष्णभ वन मृ त में रहते हैं, फितः वे लनरन्तर कृष्ण में िीन रहते हैं |
कृष्णभ वन मृ त शब् ही बत त है है लक जो िोग ऐसे भ वन मृ त में रहते हैं वे सजीव अध्य त्मव दी हैं
और उन्हीां में क्तथथत हैं | भगव न् यह ेँ स्पष्ट रूप से कहते हैं – मलय ते अथ त त् वे मु झमें हैं | फितः
भगव न् भी उनमें हैं | इससे ये यथ म ां प्रपद्यन्ते त ां स्तथै व भज र्म्हम् की भी व्य ख्य हो ज ती है – जो
मे री शरण में आ ज त है , उसकी मैं उसी रूप में रखव िी करत हेँ |

11) यलद आपको अच्छी पत्नी लमिी है तो आप भ ग्यश िी हो

सुन्दर युवलतयोां को भ ग्य की दे वी (िक्ष्मी) कह ज त है | वस्तु तः स्त्री को भ ग्य की दे वी य भ ग्य की


दे वी की प्रलतलनलि कह ज त है | हम इन्हें अपनी इक्तियतृ क्तप्त के लिए दु रूपयोग कर रहे हैं |
नहीां, इन्हें भ ग्य की दे वी के सम न आदर दे न च लहए | यलद लकसी व्यक्ति को अच्छी पत्नी प्र प्त होती है तो
व स्तव में उसे भ ग्य की दे वी लमिी है | यह ईश्वरीय आकिन है |

एक व्यक्ति तीन प्रक र से भ ग्यश िी म न ज त है | यलद उसे एक अच्छी पत्नी प्र प्त हुयी है तो वह
भ ग्यश िी है | यलद उसे अच्छ पुत्र प्र प्त हुआ है तो वह भ ग्यश िी है | यलद उसे प्रचुर म त्र में िन
प्र प्त हुआ है तो वह भ ग्यश िी है | तो यह भ ग्यश िी होने के तीन म नक हैं , लजनमे से, वह लजसे
अच्छी पत्नी प्र प्त हुयी है , वह सबसे अलिक भ ग्यश िी होत है | इसलिए हम री सांथथ अच्छी पलत्नय ां
बन ने क प्रय स करे गी त लक हम रे युवक, स रे युवक स्वयां को सदै व भ ग्यश िी समझें |

यलद लकसी को अच्छी पत्नी प्र प्त हुयी है ,कोई भी थथ न हो, म यने नहीां रखत | जै से भगव न लशव, वे
एक वृक्ष के नीचे रह रहे थे | कोई आश्रय-थथ न नहीां थ , परन्तु उनके प स अच्छी पत्नी, प वतती थीां,
इसलिए वे आनां द में थे |
इसी प्रक र आपको जब भी आवश्यकत िगे, हम लकसी भी ब्रह्मच री क चयन कर िें गे | परन्तु अवैि-
सांग मत करो | लवव ह की अनु मलत है | मैं व्यक्तिगत रूप से लवव ह पर ध्य न दे त हेँ | मु झे इस सांथथ
में पलवत्रत च लहए | शु ित के लबन कोई भी आध्य क्तत्मक-भ वन में प्रगलत नहीां कर सकत |
----------------------------------------------
*श्रीि प्रभु प द प्रवचन, रुक्तिणी द सी के दीक्ष के समय - मोांलटि यि १५ अगस्त १९६८*

12) स वि नी हटी, दु घतटन घ

मुझे यह ज नकर हर्षत हुआ लक आपने अपने मन पर पुनः लनयांत्रण प लिय है तथ म य के स रे द ां व अब


सम प्त हो गए हैं । भगव न कृष्ण लक कृप द्व र आप म य के आक्रमण से बच लिए गए हैं ।

आप ब ि-ब ि बचे हैं और इस से आपको अच्छी सीख िे नी च लहए लक यलद हम कठोरत से लनय मक
लसि ां तोां क प िन नहीां करते तो म य अपने प्रभ व से शां क उत्पन्न करके भगव न कृष्ण में हम री श्रि
को दु बति कर दे ने के लिए सदै व तत्पर है ।

अतएव मैं बहुत प्रसन्न हेँ की आप बच गए हैं और मैं आपकी रक्ष के लिए भगव न कृष्ण से प्र थतन कर
रह थ ।

– *श्रीि प्रभुप द*
*मिु सूदन को पत्र, िॉस एां जेिेस, ३० जनवरी १९७०*
13) श्रीि प्रभुप द की पुस्तकें कैसे लिखी गयीां और हमें क्योां उन्हें पढ़न च लहए ?*

श्रीि प्रभुप द ने कह , उन्होांने (भगव न कृष्ण ने) मुझे यह ेँ आने को कह परन्तु मैंने कह लक मैं वह ां नहीां
ज न च हत क्योांलक वह एक गन्द थथ न है । उन्होांने (भगव न कृष्ण ने) कह की यलद मैं ज ऊां तो वे
मेरे लिए सुन्दर भवनोां क प्रबां ि करव दें गे । मैंने कह , परन्तु मैं वह ां नहीां ज न च हत । उन्होांने (भगव न
कृष्ण ने) कह , आप केवि ज इये और पुस्तकें लिक्तखए और मैं आपके लिए सब कुछ सुलवि जनक बन
दू ां ग ।
श्रीि प्रभु प द यह बत ते हैं , क्योांलक उन्होांने मु झे इन पुस्तकोां को लिखने क आग्रह लकय इसलिए मैं
यह ेँ आय ।

एक ब र मु म्बई में श्रीि प्रभु प द ने मु झे उनके कमरे में आकर कुछ आजीवन-सदस्योां को प्रच र करते
हुए सुनने क आदे श लदय । मैं ने वह ां िगभग एक घांटे बैठकर उन्हें सुन । सभी के ज ने के उपर ां त
उन्होांने मु झे ड ां टते हुए कह तुम प्रीलतलदन मु झे प्रच र करते हुए सुनने यह ेँ क्योां नहीां आते ? तुम मे रे
अग्रणी लशष्योां में से एक हो, यलद तुम ही मु झसे यह नहीां सीखोगे की प्रच र कैसे करते हैं , क्य होग ?
तत्पश्च त उन्होांने सांस्कृत में भगवद-गीत से एक श्लोक उिररत लकय और मुझसे पूछ की क्य मैं
उसको अांग्रेजी में बत सकत हेँ , गीत में वह कह ेँ है , और उसक अथत क्य है । दु भ त ग्यवश मे रे प स
कोई उत्तर नहीां थ । उन्होांने पूछ , क्य तुम मे री पुस्तके पढ़ रहे हो ? मैंने अपनी उपेक्ष को स्वीक र

यलद तुम प्रलतलदन मे री पुस्तकें नहीां पढोगे तो कैसे सीखोगे ? तुम ब हर ज कर आजीवन-सदस्य बन
रहे हो, द न एकत्र कर रहे हो परन्तु मे री पुस्तकें नहीां पढ़ रहे । तुम्हें प्रलतलदन मे री पुस्तकें पढ़नी
च लहए ।

लफर उन्होांने कह , मैं भी प्रलतलदन अपनी पुस्तकें पढत हेँ । क्य तुम्हे पत है , क्योां ? मैं ने स्वयां उत्तर
दे ने की अपेक्ष उनके उत्तर की प्रतीक्ष की । क्योांलक हर ब र मैं इन पुस्तकोां को पढत हेँ तो इनसे
कुछ सीखने को लमित है । मैं लनस्तब्ध मौन बैठ रह । लफर उन्होांने पूछ क्य तुम्हें पत है मैं हर
ब र इन पुस्तकोां को पढत हेँ तो क्योां कुछ नय सीखत हेँ ? अब मैं पूणततय लवक्तस्मत थ । क्योांलक
मैं ने इन पुस्तकोां को नहीां लिख है । आगे जो लवलदत हुआ वह पूरी तरह से आश्चयतजनक थ । उन्होांने
पूणत तल्लीनत पूवतक मे री आेँ खोां से तीव्र और सीि सांपकत बन ते हुए मे री ओर दे ख । भ वोन्मत्त पूणत
लवश्वस्तत परन्तु रहस्यमयी भ व से वे वणतन करने िगे लक उनकी पुस्तकें कैसे लिखी ज ती हैं ।

उन्होांने कह , प्रलतलदन जब मैं यह ेँ इन पुस्तकोां को लिखने बैठत हेँ , अब उनकी दृलष्ट ऊपर की ओर
और ह थ हव में लहि रहे थे , उनक कांठ भ व वेश में अवरुि हो रह थ , भगव न कृष्ण व्यक्तिगत
रूप से आते हैं और हर शब् वे स्वयां लिखव ते हैं । मु झे इसकी अनु भूलत हुयी की भगव न कृष्ण
उस समय कमरे में उपक्तथथत थे परन्तु मैं उन्हें दे खने में अक्षम थ । अब श्रीि प्रभु प द ने अपनी दृलष्ट
मे री ओर की और कह , इसलिए जब भी मैं इन पुस्तकोां को पढत हेँ , मैं भी कुछ सीखत हेँ और
इसलिए यलद तुम भी प्रलतलदन मे री पुस्तकोां को पढोगे तो हर ब र तुम भी कुछ सीखोगे ।

*– भ गवत द स द्व र *
*जय श्रीि प्रभु प द*

14) *क्य आपको आत्म और शरीर के बीच अांतर पत है ?*

इस िे ख में आपको आत्म तथ शरीर के बीच क अांतर ज्ञ त होग । यह ज्ञ न हम रे आध्य क्तत्मक ज्ञ न क
मूि है । कभी कभी िोग यह बोि दे ते हैं लक हम भी अध्य त्म से जुड़े हैं य लकसी न लकसी आध्य क्तत्मक
म गत क अनुसरण कर रहे हैं । परन्तु अलिकतर िोगोां में अभी भी यह मूिभूत ज्ञ न नद रद है लक
अध्य त्म क आि र ही यह है लक, “हम यह शरीर नहीां आत्म हैं ।”

इस लवर्षय के अलतररि आपको यह ज्ञ त होग की प पकमत के फि लकस प्रक र क य त क्तित होते हैं ।
और कैसे इन दु गतम फिोां से मु क्ति प यी ज सकती है ।
भगवद्गीत क नौव ां अध्य य लवद्य ओां क र ज (र जलवद्य ) कहि त है , क्योांलक यह पूवतवती व्य ख्य लयत
समस्त लसि न्तोां एवां दशत नोां क स र है | भ रत के प्रमु ख द शत लनक गौतम, कण द, कलपि, य ज्ञवल्क्य,
श क्तण्डल्य तथ वैश्र्व नर हैं | सबसे अन्त में व्य सदे व आते हैं , जो वेद न्तसूत्र के िे खक हैं | अतः दशत न
य लदव्यज्ञ न के क्षे त्र में लकसी प्रक र क अभ व नहीां है | भगव न कहते हैं लक यह नवम अध्य य ऐसे
समस्त ज्ञ न क र ज है , यह वेद ध्ययन से प्र प् ज्ञ न एवां लवलभन्न दशत नोां क स र है | यह गुह्यतम है ,
क्योांलक गुह्य य लदव्यज्ञ न में आत्म तथ शरीर के अन्तर को ज न ज त है | समस्त गुह्यज्ञ न के इस
र ज (र जलवद्य ) की पर क ष्ट है , भक्तियोग |
स म न्यतय िोगोां को इस गुह्यज्ञ न की लशक्ष नहीां लमिती | उन्हें ब ह्य लशक्ष दी ज ती है | जह ेँ तक
स म न्य लशक्ष क सम्बन्ध है उसमें र जनीलत, सम जश स्त्र, भौलतकी, रस यनश स्त्र, गलणत, ज्योलतलवतज्ञ न,
इां जीलनयरी आलद में मनुष्य व्यस्त रहते हैं | लवश्र्वभर में ज्ञ न के अने क लवभ ग हैं और अने क बड़े -बड़े
लवश्र्वलवद्य िय हैं , लकन्तु दु भ त ग्यवश कोई ऐस लवश्र्वलवद्य िय य शै लक्षक सांथथ न नहीां है , जह ेँ आत्म-लवद्य
की लशक्ष दी ज ती हो | लफर भी आत्म शरीर क सबसे महत्त्वपूणत अांग है , आत्म के लबन शरीर
महत्त्वहीन है | तो भी िोग आत्म की लचन्त न करके जीवन की श रीररक आवश्यकत ओां को अलिक
महत्त्व प्रद न करते हैं |

भगवद्गीत में लद्वतीय अध्य य से ही आत्म की महत्त पर बि लदय गय है | प्र रम्भ में ही भगव न्
कहते हैं लक यह शरीर नश्र्वर है और आत्म अलवनश्र्वर | (अन्तवन्त इमे दे ह लनत्यस्योि ः शरीररणः) |
यही ज्ञ न क गुह्य अांश है-केवि यह ज न िे न लक यह आत्म शरीर से लभन्न है , यह लनलवतक र,
अलवन शी और लनत्य है | इससे आत्म के लवर्षय में कोई सक र त्मक सूचन प्र प्त नहीां हो प ती | कभी-
कभी िोगोां को यह रम रहत है लक आत्म शरीर से लभन्न है और जब शरीर नहीां रहत य मनु ष्य
को शरीर से मु क्ति लमि ज ती है तो आत्म शून्य में रहत है और लनर क र बन ज त है | लकन्तु यह
व स्तलवकत नहीां है | जो आत्म शरीर के भीतर इतन सक्रीय रहत है वह शरीर से मु ि होने के
ब द इतन लनक्तिय कैसे हो सकत है? यह सदै व सक्रीय रहत है | यलद यह श श्र्वत है , तो यह श श्र्वत
सलक्रय रहत है और वैकुण्ठिोक में इसके क यतकि प अध्य त्मज्ञ न के गुह्यतम अांश हैं | अतः आत्म के
क यों को यह ेँ पर समस्त ज्ञ न क र ज , समस्त ज्ञ न क गुह्यतम अांश कह गय है |

यह ज्ञ न समस्त क यों क शु ितुम रूप है , जै स लक वैलदक स लहत्य में बत य गय है |


पद्मपुर ण में मनु ष्य के प पकमों क लवश्लेर्षण लकय गय है और लदख य गय है लक ये प पोां के फि
हैं | जो िोग सक मकमों में िगे हुए हैं वे प पपूणत कमों के लवलभन्न रूपोां एवां अवथथ ओां में फेँसे रहते
हैं | उद हरण थत , जब बीज बोय ज त है तो तुरन्त वृक्ष नहीां तैय र हो ज त , इसमें कुछ समय िगत है
| पहिे एक छोट स अांकुर रहत है , लफर यह वृक्ष क रूप ि रण करत है , तब इसमें फूि आते हैं ,
फि िगते हैं और तब बीज बोने व िे व्यक्ति फूि तथ फि क उपभोग कर सकते हैं | इसी प्रक र
जब कोई मनु ष्य प पकमत करत है , तो बीज की ही भ ेँ लत इसके भी फि लमिने में समय िगत है |
इसमें भी कई अवथथ एेँ होती हैं | भिे ही व्यक्ति में प पकमों क उदय होन बन्द हो चुक को, लकन्तु
लकये गये प पकमत क फि तब भी लमित रहत है | कुछ प प तब भी बीज रूप में बचे रहते हैं ,
कुछ फिीभू त हो चुके होते हैं , लजन्हें हम दु ख तथ वेदन के रूप में अनु भव करते हैं |जै स की स तवें
अध्य य के अट्ठ इसवें श्लोक में बत य गय है जो व्यक्ति समस्त प पकमों के फिोां (बन्धनोां) क अन्त
करके भौलतक जगत् के द्वन्दद्वोां से मु ि हो ज त है , वह भगव न् कृष्ण की भक्ति में िग ज त है |
दु सरे शब्ोां में , जो िोग भगवद्भक्ति में िगे हुए हैं , वे समस्त कमत फिोां (बन्धनोां) से पहिे से मु ि हुए
रहते हैं | इस कथन की पुलष्ट पद्मपुर ण में हुई है –

अप्र रब्धफिां प पां कूटां बीजां फिोन्मु खम् |


क्रमे णैव प्रलियेत लवष्णु भक्तिरत त्मन म् ||

जो िोग भगवद्भक्ति में रत हैं और उनके स रे प पकमत च हे फिीभू त हो चुके हो, स म न्य होां य बीज
रूप में होां, क्रमशः नष्ट हो ज ते हैं | अतः भक्ति की शु क्तिक ररणी शक्ति अत्यन्त प्रबि है और पलवत्रम्
उत्तमम् अथ त त् लवशु ितम कहि ती है | उत्तम क त त्पयत लदव्य है | तमस् क अथत यह भौलतक जगत्
य अांिक र है और उत्तम क अथत भौलतक क यों से परे हुआ | भक्तिमय क यों को कभी भी भौलतक
नहीां म नन च लहए यद्यलप कभी-कभी ऐस प्रतीत होत है लक भि भी स म न्य जनोां की भ ेँ लत रत
रहते हैं | जो व्यक्ति भक्ति से अवगत होत है , वही ज न सकत है लक भक्तिमय क यत भौलतक नहीां
होते | वे अध्य क्तत्मक होते हैं और प्रकृलत के गुणोां से सवतथ अदू लर्षत रहते हैं |

कह ज त है लक भक्ति की सम्पन्नत इतनी पूणत होती है लक उसके फिोां क प्रत्यक्ष अनु भव लकय
ज सकत है | हमने अनु भव लकय है लक जो व्यक्ति कृष्ण के पलवत्र न म (हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण
कृष्ण हरे हरे , हरे र म हरे र म र म र म हरे हरे ) क कीततन करत है उसे जप करते समय कुछ
लदव्य आनन्द क अनुभव होत है और वह तुरन्त ही समस्त भौलतक कल्मर्ष से शु ि हो ज त है | ऐस
सचमु च लदख ई पड़त है | यही नहीां, यलद कोई श्रवण करने में ही नहीां अलपतु भक्तिक यों के सन्दे श को
प्रच ररत करने में भी िग रहत है य कृष्णभ वन मृ त के प्रच र क यों में सह यत करत है , तो उसे
क्रमशः आध्य क्तत्मक उन्नलत क अनु भव होत रहत है | आध्य क्तत्मक जीवन की यह प्रगलत लकसी पूवत
लशक्ष य योग्यत पर लनभतर नहीां करती | यह लवलि स्वयां इतनी शु ि है लक इसमें िगे रहने से मनु ष्य
शु ि बन ज त है |

वेद न्तसूत्र में (३.३.३६) भी इसक वणतन प्रक शश्र्च कमत ण्यभ्य स त् के रूप में हुआ है , लजसक अथत
है लक भक्ति इतनी समथत है लक भक्तिक यों में रत होने म त्र से लबन लकसी सांदेह के प्रक श प्र प्त हो
ज त है | इसक उद हरण न रद जी के पूवतजन्म में दे ख ज सकत है , जो पहिे द सी के पुत्र थे | वे
न तो लशलक्षत थे , न ही र जकुि में उत्पन्न हुए थे , लकन्तु जब उनकी म त भिोां की सेव करती रहती
थीां, न रद भी सेव करते थे और कभी-कभी म त की अनु पक्तथथलत में भिोां की सेव करते रहते थे |
न रद स्वयां कहते हैं -
उक्तच्छष्टिे प ननुमोलदतो लद्वजैः
सकृत्स्म भु ञ्जे तदप स्तलकक्तल्बर्षः |
एवां प्रवृत्तस्य लवशु िचेतस-
स्तिमत एव त्मरुलचः प्रज यते ||

श्रीमद्भ गवत के इस श्लोक में (१.५.२५) न रद जी अपने लशष्य व्य सदे व से अपने पूवतजन्म क वणतन
करते हैं | वे कहते हैं लक पूणतजन्म में ब ल्यक ि में वे च तुम त स में शुिभिोां (भ गवतोां) की सेव
लकय करते थे लजससे उन्हें सांगलत प्र प्त हुई | कभी-कभी वे ऋलर्ष अपनी थ लियोां में उक्तच्छष्ट भोजन
छोड़ दे ते और यह ब िक थ लिय ेँ िोते समय उक्तच्छष्ट भोजन को चखन च हत थ | अतः उसने उन
ऋलर्षयोां से अनुमलत म ेँ गी और जब उन्होांने अनु मलत दे दी तो ब िक न रद उक्तच्छष्ट भोजन को ख त
थ | फिस्वरूप वह अपने समस्त प पकमों से मु ि हो गय | ज्योां-ज्योां वह उक्तच्छष्ट ख त रह त्योां-त्योां
वह ऋलर्षयोां के सम न शुि-हृदय बनत गय | चूेँलक वे मह भ गवत भगव न् की भक्ति क आस्व द
श्रवण तथ कीततन द्व र करते थे अतः न रद ने भी क्रमशः वैसी रूलच लवकलसत कर िी | न रद आगे
कहते हैं –
तत्र िहां कृष्णकथ ः प्रग यत म्
अनु ग्रहे ण शृणवां मनोहर ः |
त ः श्रिय मे Sनु पदां लवशृण्वतः
लप्रयश्रवस्यां ग मम भवद् रूलच: ||

ऋलर्षयोां की सांगलत करने से न रद में भी भगव न् की मलहम के श्रवण तथ कीततन की रूलच उत्पन्न
हुई और उन्होांने भक्ति की तीव्र इच्छ लवकलसत की | अतः जै स लक वेद न्तसूत्र में कह गय है –
प्रक शश्र्च कमत ण्यभ्य स त् – जो भगवद्भक्ति के क यों में केवि िग रहत है उसे स्वतः स री अनु भूलत
हो ज ती है और वह सब समझने िगत है | इसी क न म प्रत्यक्ष अनु भूलत है |

िर्म्त म् शब् क अथत है “िमत क पथ” | न रद व स्तव में द सी के पुत्र थे | उन्हें लकसी प ठश ि में
ज ने क अवसर प्र प्त नहीां हुआ थ | वे केवि म त के क यों में सह यत करते थे और सौभ ग्यवश
उनकी म त को भिोां की सेव क सुयोग प्र प्त हुआ थ | ब िक न रद को भी यह सुअवसर
उपिब्ध हो सक लक वे भिोां की सांगलत करने से ही समस्त िमत के परमिक्ष्य को प्र प्त हो सके |
यह िक्ष्य है – भक्ति, जै स लक श्रीमद्भ गवत में कह गय है (स वै पुांस ां परो िमोां यतो भक्तिरिोक्षजे )
| स म न्यतः ि लमत क व्यक्ति यह नहीां ज नते लक िमत क परमिक्ष्य भक्ति की प्र क्तप्त है जै स लक हम
पहिे ही आठवें अध्य य के अक्तन्तम श्लोक की व्य ख्य करते हुए कः चुके हैं (वेदेर्षु यज्ञे र्षु तपःसु चैव)
स म न्यतय आत्म-स क्ष त्क र के लिए वैलदक ज्ञ न आवश्यक है | लकन्तु यह ेँ पर न रद न तो लकसी गुरु
के प स प ठश ि में गये थे , न ही उन्हें वैलदक लनयमोां की लशक्ष लमिी थी, तो भी उन्हें वैलदक अध्ययन
के सवोच्च फि प्र प्त हो सके | यह लवलि इतनी सशि है लक ि लमत क कृत्य लकये लबन भी मनुष्य
लसक्ति-पद को प्र प्त होत है | यह कैसे सम्भव होत है? इसकी भी पुलष्ट वैलदक स लहत्य में लमिती है -
आच यतव न् पुरुर्षो वेद | मह न आच यों के सांसगत में रहकर मनु ष्य आत्म-स क्ष त्क र के लिए आवश्यक
समस्त ज्ञ न से अवगत हो ज त है , भिे ही वह अलशलक्षत हो य उसने वेदोां क अध्ययन न लकय हो |
भक्तियोग अत्यन्त सुखकर (सुसुखम् ) होत है | ऐस क्योां? क्योांलक भक्ति में श्रवणां कीततनां लवष्णोः रहत
है , लजससे मनु ष्य भगव न् की मलहम के कीततन को सुन सकत है , य प्र म लणक आच यों द्व र लदये गये
लदव्यज्ञ न के द शत लनक भ र्षण सुन सकत है | मनु ष्य केवि बैठे रहकर सीख सकत है , ईश्र्वर को
अलपतत अच्छे स्व लदष्ट भोजन क उक्तच्छष्ट ख सकत है | प्रत्येक दश में भक्ति सुखमय है | मनु ष्य गरीबी
की ह ित में भी भक्ति कर सकत है | भगव न् कहते हैं – पत्रां पुष्पां फिां तोयां – वे भि से हर प्रक र
की भें ट िे ने को तैय र रहते हैं | च हे प त्र हो, पुष्प हो, फि हो य थोड स जि, जो कुछ भी सांस र
के लकसी भी कोने में उपिब्ध हो, य लकसी व्यक्ति द्व र , उसकी स म लजक क्तथथलत पर लवच र लकये
लबन , अलपतत लकये ज ने पर भगव न् को वह स्वीक र है , यलद उसे प्रेमपूवतक चढ़ य ज य | इलतह स में
ऐसे अने क उद हरण प्र प्त हैं | भगव न् के चरणकमिोां पर चढ़े तुिसीदि क आस्व दन करके
सनत्कुम र जै से मुलन मह न भि बन गये | अतः भक्तियोग अलत उत्तम है और इसे प्रसन्न मु द्र में
सम्पन्न लकय ज सकत है | भगव न् को तो वह प्रेम लप्रय है , लजससे उन्हें वस्तुएेँ अलपतत की ज ती हैं |

यह ेँ कह गय है लक भक्ति श श्र्वत है | यह वैसी नहीां है , जै स लक म य व दी लचन्तक स लिक र कहते


हैं | यद्यलप वे कभी-कभी भक्ति करते हैं , लकन्तु उनकी यह भ वन रहती है लक जब तक मु क्ति न लमि
ज ये, तब तक उन्हें भक्ति करते रहन च लहए, लकन्तु अन्त में जब वे मु ि हो ज एेँ गे तो ईश्र्वर से
उनक त द त्म्य हो ज एग | इस प्रक र की अथथ यी सीलमत स्व थत मय भक्ति शुि भक्ति नहीां म नी ज
सकती | व स्तलवक भक्ति तो मु क्ति के ब द भी बनी रहती है | जब भि भगवि म को ज त है तो
वह ेँ भी वह भगव न् की सेव में रत हो ज त है | वह भगव न् से तद क र नहीां होन च हत |

जै स लक भगवद्गीत में दे ख ज एग , व स्तलवक भक्ति मु क्ति के ब द प्र रम्भ होती है | मु ि होने पर जब


मनु ष्य ब्रह्मपद पर क्तथथर होत है (ब्रह्मभू त) तो उसकी भक्ति प्र रम्भ होती है (समः सवेर्षु भू तेर्षु
मद्भक्तिां िभते पर म् ) | कोई भी मनु ष्य कमत योग, ज्ञ नयोग, अष्ट ां गयोग य अन्य योग करके भगव न् को
नहीां समझ सकत | इन योग-लवलियोां से भक्तियोग की लदश लकांलचत प्रगलत हो सकती है , लकन्तु भक्ति
अवथथ को प्र प्त हुए लबन कोई भगव न् को समझ नहीां प त | श्रीमद्भ गवत में इसकी भी पुलष्ट हुई है
लक जब मनु ष्य भक्तियोग सम्पन्न करके लवशे र्ष रूप से लकसी मह त्म से श्रीमद्भ गवत य भगवद्गीत
सुनकर शु ि हो ज त है , तो वह समझ सकत है लक ईश्र्वर क्य है | इस प्रक र भक्तियोग य
कृष्णभ वन मृ त समस्त लवद्य ओां क र ज और समस्त गुह्यज्ञ न क र ज है | यह िमत क शु ितम रूप
है और इसे लबन कलठन ई के सुखपूवतक सम्पन्न लकय ज सकत है | अतः मनु ष्य को च लहए लक इसे
ग्रहण करे |

16) *श स्त्रोां में भगव न श्री चै तन्य मह प्रभु के अवतरण की भलवष्यव लणय ां *

कलियु ग में बु क्तिम न िोग, कृष्ण-न म के भजन में लनरां तर रत रहने व िे अवत र की पूज सांकीतत न द्व र
करते हैं । यद्यलप वे श्य मवणत के नहीां हैं , परन्तु वे स्वयां कृष्ण हैं । *– भ गवत ११.५.३२*

प्र रां लभक िीि ओां में वे स्वलणतम वणत के एक गृहथथ के रूप में प्रकट होते हैं । उनके प्रत्यांग सुन्दर हैं और
चन्दन क िे प िग ये हुए वे तप्तक ांचन के सम न लदखते हैं । अपनी अांत की िीि ओां में उन्होांने
सांन्य स स्वीक र लकय , एवां वे सौर्म् एवां श ां त हैं । वे श ां लत एवां भक्ति के उच्चतम आश्रय हैं क्योांलक वे
म य व दी अभिोां को भी श ां त कर दे ते हैं । *– मह भ रत (द न-िमत पवत, अध्य य १८९)*

मैं नवद्वीप की प वन भू लम पर म त शलचदे वी के पुत्र के रूप में प्रकट होऊांग । *– कृष्ण यमि तांत्र*

कलियुग में जब सांकीततन आां दोिन क उदघ टन होग तब मैं सलचदे वी के पुत्र के रूप में अवतररत
होऊांग । *– व यु पुर ण*

कभी कभी मैं स्वयां एक भि के वेश में उस िर ति पर प्रकट होत हेँ । लवशे र्ष रूप से कलियुग में
मैं सची दे वी के पुत्र के रूप में सांकीततन आां दोिन आरम्भ करने के लिए प्रकट होत हेँ । *– ब्रह्म
यमि तांत्र*

हे महे श्वरी ! स्वयां परम पुरुर्ष श्री कृष्ण, जो र ि र नी के प्र ण एवां जगत के सृलष्टकत त , प िक एवां
लवध्वां सक हैं , गौर के रूप में प्रकट होते हैं । *– अनां त सांलहत *

परम पुरुर्षोत्तम भगव न, परम भोि , गोलवन्द लजनक रूप लदव्य है , जो लत्रगुण तीत हैं , जो सभी जीवोां के
हृदय में लवद्यम न सव्य त पक परम त्म हैं , वे कलियुग में दोब र प्रकट होांगे । परम-भि के रूप में,
परम पुरुर्षोत्तम भगव न गोिोक वृन्द वन के सम न, गांग के तट पर नवद्वीप में लद्वभु ज सुवणतमय रूप
ग्रहण करें गे । वे लवश्वभर में शु ि-भक्ति क प्रच र करें गे। *– चैतन्य उपलनर्षद ५*

कलियुग की प्रथम सांध्य में परम पुरुर्षोत्तम भगव न सुवणतमय रूप ग्रहण करें गे । सप्रतथम वे िक्ष्मी के
पलत होांगे तत्पश्च त वे सांन्य सी होांगे जो जगन्न थ पुरी में लनव स करें गे । *– गरुड़ पुर ण*

कमि रूपी नगर के मध्य में क्तथथत म य पुर न मक एक थथ न है और म य पुर के मध्य में एक थथ न
है , अांतलद्वत प। यह परम पुरुर्षोत्तम भगव न, श्री चैतन्य क लनव स थथ न है । *– छ न्दोग्य उपलनर्षद*

कलियुग के प्र रम्भ में , मैं अपने सम्पू णत एवां व स्तलवक आध्य क्तत्मक स्वरूप में , नवद्वीप-म य पुर में
सलचदे वी क पुत्र बनूेँ ग । *– गरुड़ पुर ण*
परम पुरुर्षोत्तम भगव न इस सांस र में दोब र प्रकट होांगे । उनक न म श्री कृष्ण चैतन्य होग और वे
भगव न के पलवत्र न मोां के कीततन क प्रच र करें गे । *– दे वी पुर ण*

परम पुरुर्षोत्तम भगव न कलियुग में दोब र प्रकट होांगे । उनक रूप स्वलणतम होग , वे भगव न के पलवत्र
न म कीततन में आनां द िें गे और उनक न म चैतन्य होग । *– नृ लसांह पुर ण*

कलियुग के प्रथम सांध्य में मैं गांग के एक मनोरम तट पर प्रकट होऊांग । मैं सलचदे वी क पुत्र
कहि ऊांग और मे र वणत सुनहर होग । *-पद्म पुर ण*

कलियुग में मैं भगव न् के भि के वेश में प्रकट होऊांग और सभी जीवोां क उि र करू
ेँ ग । *–
न रद पुर ण*

पृथ्ी पर कलियुग की प्रथम सांध्य में , गांग के तट पर मैं अपन लनत्य सुवणतमय रूप प्रक लशत करू
ेँ ग
। *– ब्रम्ह पुर ण*

इस समय मे र न म कृष्ण चैतन्य, गौर ां ग, गौरचांद्र, सलचसुत, मह प्रभु , गौर एवां गौरहरर होग । इन न मोां क
कीततन करके मे रे प्रलत भक्ति लवकलसत करें गे । *– अनन्त सांलहत *

16)

Iskcon Desire Tree - ह िं दी


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*श्री लशक्ष ष्टकम्*

भगव न श्री गौरसुन्दर चैतन्य मह प्रभु ने अपने लशष्योां को श्रीकृष्ण-तत्त्व पर ग्रन्ोां की रचन करने की आज्ञ
दी, लजसक प िन उनके अनुय यी आज तक कर रहे हैं । व स्तव में श्री चैतन्य मह प्रभु द्व र लजस दशत न
लक लशक्ष दी गयी उस पर हुयी व्य ख्य एां परम लवस्तृत एवां सुदृढ़ हैं ।

यद्यलप भगव न चै तन्य मह प्रभु अपने युव वथथ में ही परम लवद्व न के रूप में लवख्य त थे, लकन्तु उन्होांने हमें
काेवि आठ श्लोक ही प्रद न लकये लजन्हे “लशक्ष ष्टक” कहते हैं । इन आठ श्लोकोां में श्रीमन्मह प्रभु ने
अपने प्रयोजन को स्पष्ट कर लदय है । इन परम मूल्यव न प्र थत न ओां क यह ेँ मू िरूप एवां अनु व द
प्रस्तु त लकय ज रह है ।

*चेतोदपतणम जत नां भव-मह द व लि-लनव त पणम् *


*श्रे यःकैरवचक्तिक लवतरणां लवद्य विू-जीवनम् ।*
*आनां द म्बु लिवितनां प्रलतपदां पूण त मृत स्व दनम् *
*सव त त्मस्नपनां परां लवजयते श्रीकृष्ण-सांकीततनम् ॥१॥*
*अनु व द*: श्रीकृष्ण-सांकीततन की परम लवजय हो जो हृदय में वर्षों से सांलचत मि क म जत न करने
व ि तथ ब रम्ब र जन्म-मृ त्यु रूपी द व नि को श ां त करने व ि है । यह सांकीततन यज्ञ म नवत के
लिए परम कल्य णक री है क्योांलक चि-लकरणोां की तरह शीतित प्रद न करत है । समस्त अप्र कृत
लवद्य रूपी विु क यही जीवन है । यह आनां द के स गर की वृक्ति करने व ि है और लनत्य अमृ त
क आस्व दन कर ने व ि है ॥१॥

*न म्न मक रर बहुि लनज सवत शक्तिस्तत्र लपतत लनयलमतः स्मरणे न क िः।*


*एत दृशी तव कृप भगवन्मम लप दु दैवमीदृशलमह जलन न नु र गः॥२॥*

*अनु व द*: हे भगवन ! आपक म त्र न म ही जीवोां क सब प्रक र से मां गि करने व ि है -कृष्ण,
गोलवन्द जै से आपके ि खोां न म हैं । आपने इन न मोां में अपनी समस्त अप्र कृत शक्तिय ां अलपतत कर दी
हैं । इन न मोां क स्मरण एवां कीततन करने में दे श-क ि आलद क कोई भी लनयम नहीां है । प्रभु !
आपने अपनी कृप के क रण हमें भगवन्न म के द्व र अत्यांत ही सरित से भगवत-प्र क्तप्त कर िे ने में
समथत बन लदय है , लकन्तु मैं इतन दु भ त ग्यश िी हेँ लक आपके न म में अब भी मे र अनु र ग उत्पन्न
नहीां हो प य है ॥२॥

*तृण दलप सुनीचेन तरोरलप सलहष्णु न ।*


*अम लनन म नदे न कीततनीयः सद हररः ॥३॥*

*अनु व द*: स्वयां को म गत में पड़े हुए तृण से भी अलिक नीच म नकर, वृक्ष के सम न सहनशीि
होकर, लमथ्य म न की क मन न करके दु सरो को सदै व म न दे कर हमें सद ही श्री हररन म कीततन
लवनम्र भ व से करन च लहए ॥३॥

*न िनां न जनां न सुन्दरीां कलवत ां व जगदीश क मये।*


*मम जन्मलन जन्मनीश्वरे भवत द् भक्तिरहै तुकी त्वलय॥४॥*

*अनु व द*: हे सवत समथत जगदीश ! मु झे िन एकत्र करने की कोई क मन नहीां है , न मैं अनु य लययोां,
सुन्दर स्त्री अथव प्रशां नीय क व्योां क इक्छु क नहीां हेँ । मे री तो एकम त्र यही क मन है लक जन्म-
जन्म न्तर मैं आपकी अहै तुकी भक्ति कर सकूेँ ॥४॥

*अलय नन्दतनु ज लकांकरां पलततां म ां लवर्षमे भव म्बु िौ।*


*कृपय तव प दपांकज-क्तथथतिूलिसदृशां लवलचन्तय॥५॥*

*अनु व द*: हे नन्दतनु ज ! मैं आपक लनत्य द स हेँ लकन्तु लकसी क रणवश मैं जन्म-मृ त्यु रूपी इस
स गर में लगर पड़ हेँ । कृपय मु झे अपने चरणकमिोां की िूलि बन कर मु झे इस लवर्षम मृ त्युस गर से
मु ि कररये ॥५॥

*नयनां गिदश्रु ि रय वदनां गदगदरुिय लगर ।*


*पुिकैलनत लचतां वपुः कद तव न म-ग्रहणे भलवष्यलत॥६॥*

*अनु व द*: हे प्रभु ! आपक न म कीततन करते हुए कब मे रे ने त्रोां से अश्रु ओां की ि र बहे गी, कब
आपक न मोच्च रण म त्र से ही मे र कांठ गद्गद होकर अवरुि हो ज येग और मे र शरीर रोम ां लचत हो
उठे ग ॥६॥
*युग लयतां लनमे र्षेण चक्षु र्ष प्र वृर्ष लयतम् ।*
*शू न्य लयतां जगत् सवं गोलवन्द लवरहे ण मे ॥७॥*

*अनु व द*: हे गोलवन्द ! आपके लवरह में मु झे एक क्षण भी एक युग के बर बर प्रतीत हो रह है ।


ने त्रोां से मू सि ि र वर्ष त के सम न लनरां तर अश्रु -प्रव ह हो रह है तथ समस्त जगत एक शू न्य के सम न
लदख रह है ॥७॥

*आक्तश्लष्य व प दरत ां लपनष्टु म मदशत न न् -ममत हत ां करोतु व ।*


*यथ तथ व लवदि तु िम्पटो मत्प्र णन थस्-तु स एव न परः॥८॥*

*अनु व द*: एकम त्र श्रीकृष्ण के अलतररि मे रे कोई प्र णन थ हैं ही नहीां और वे ही सदै व बने रहें गे,
च हे वे मे र आलिां गन करें अथव दशत न न दे कर मुझे आहत करें । वे नटखट कुछ भी क्योां न करें -वे
सभी कुछ करने के लिए स्वतांत्र हैं क्योांलक वे मे रे लनत्य आर ध्य प्र णन थ हैं ॥८॥

18) क्य सुखी रहन मन क दृलष्टकोण म त्र है ?*

कुछ िोग कहते हैं लक यलद अा पने सक र त्मक रहने की कि सीख िी तो अा प लकसी भी पररक्तथथलत में
सुखी रह सकते हैं । च हे अा प लकतनी भी बड़ी परे श नी य समस्य में क्योां न फांसे हो यलद अा प उस
समस्य को सही दृलष्टकोण से दे खते हैं तो अा प सुखी रहें गे ।

हो सकत है यह ब त कुछ हद तक ठीक है लकन्तु व स्तलवकत तो यह है लक इस भौलतक जगत् में हमें


अनेक दु :ख एवां ददत भरी पररक्तथथलतयोां से गुजरन पड़त है जै से लक बीम ररय ेँ अाौर बु ढ़ प । जब व्यक्ति
के पेट में ददत होत है तो वह च हे लकतन भी सक र त्मक दृलष्टकोण क्योां न रखे, उसे पेट के ददत के
दु :ख से गुजरन ही पड़े ग । वै से ही बु ढ़ पे में पचन न होन , अा ाेँ खोां से लदख ई न दे न , शरीर में
कमजोरी के क रण लकसी के सह रे क अा वश्यकत पड़न इत्य लद जीवन की एाे सी समस्य एेँ हैं लजनसे
कोई भी बच नहीां सकत ।

इन पररक्तथथलतयोां में भी व्यक्ति मन में सही दृलष्टकोण रखकर अा गे बढ़ सकत है , लकन्तु प्रश्न यह है लक वह
सही दृलष्टकोण क्य है ?

सक र त्मक दृलष्टकोण क अथत यह नहीां है लक हम उन दु :ख भरी पररक्तथथलतयोां को सुख म नते रहें , यलद
लमची के ख ने पर मुेँह जि रह है अाौर हम अपने मन के सक र त्मक दृलष्टकोण से यह समझे लक मैं
मीठ ख रह हेँ तो क्य वह लउचत होग । इस पररक्तथथलत में सक र त्मक दृलष्टकोण होग लक तु रन्त ही
कुछ मीठ ख य ज ये लजससे मुेँह जिन कुछ कम हो अाौर अा गे से लमची न ख यी ज ये ।

कुछ िोग इस दु लनय में इक्तियोां अाौर मन के स्तर के सुख को ही सबकुछ म न बै ठे हैं अाौर जब भी
उनके सुख में कुछ ब ि अा ती है तो स्वयां झूठी तसल्ली दे ने क प्रय स करते हैं, नहीां नहीां मैं तो सुखी हेँ

एाे सी झूठी तसल्ली दे ने से अा प इस भौलतक जगत् के कड़वे सच को झुठि नहीां सकते लक इस भौलतक
जगत् में कदम-कदम पर दु :ख हैं अाौर हमें इस जगत् के म य वी बां िनोां से ब हर लनकि कर अा त्म
के स्तर क सुख प्र प्त करने क प्रय स करन च लहए ।
ह ेँ यह सत्य है लक अा त्म के स्तर पर हम र मूि स्वभ व अा नांद से पररपूणत है लकन्तु उस अा नांद के
स गर में गोते िग ने के लिए हमें पुन: अपने उस मूि स्वभ व अा त्म को परम अा नांद के स गर
भगव न् से जोड़न होग । हमें प्रेम एवां करुण क म ध्यम बन इस परम अा नांद को अन्योां के स थ
ब ेँ टन होग । यही स्तर भक्ति रस क है अाौर इस स्तर पर हम इतने अलिक सुख क अनुभव करते हैं
लक इस भौलतक जगत् के दु :ख च हे वे श रीररक स्तर पर होां य म नलसक स्तर पर हमें प्रभ लवत नहीां कर
प ते ।
हरे कृष्ण ।

19) *समुद्र की िहरोां के रुकने तक*

एक व्यक्ति तौलिय िपेटे समुद्र के लकन रे चहि–कदमी कर रह थ । कभी वह िहरोां के लनकट ज त


अाौर लफर पीछे हट ज त , एाे स करते करते उसे सुबह से श म हो गयी तब एक सज्जन जो उसे पीछे
अपने घर की छत से दे ख रहे थे अा ए अाौर पूछे – क्य समस्य है ? क्य मैं अा पकी कुछ सह यत कर
सकत हेँ ?

तब उस व्यक्ति ने कह , मुझे समुद्र में स्न न करन है अाौर मैं िहरोां के रुकने की प्रतीक्ष कर रह हेँ ।

क्य एाे स होने व ि है ?

क्य समुद्र की िहरे कभी रुकेंगी?

यही क्तथथलत इस भौलतक जगत् की है। इस जगत् की समस्य एेँ समुद्र की िहरोां के सम न हैं जो कभी
रुकने व िी नहीां हैं ।

इस भौलतक जगत् को दु :ख ियम कह गय है , जै से लहम िय लहम से भर रहत है, पुस्तक िय पुस्तकोां से,
भोजन िय भोजन से – उसी प्रक र इस भौलतक जगत् में दु :खोां क अा न –ज न तो चित ही रहेग ।

यलद कोई व्यक्ति यह कहे लक मैं इस समस्य के सम ि न के ब द भगव न् में मन िग ऊेँग य अब उस


समस्य के सम प्त होने पर तो वह अपने अा प को ही िोख दे रह है क्योांलक जब तक हम इस भौलतक
जगत् में हैं , समस्य यें तो रहेंगी ही। यलद हम अपन पूर ध्य न समस्य अाोाां पर ही िग कर रखेंगे तो
अपन मुख्य क यत भूि ज येंगे अाौरवह है कृष्णभ वन भ लवत बनन । भगव न् के लवर्षय में चच त करने की
जगह हम समस्य अाोाां के ब रे में ही सोचेंगे अाौर ब ते करें गे । अाौर रहस्य तो यह है लक जब हम अपने
मन को भगव न् में िग ते हैं तो इस जगत् की समस्य अाोाां से प्रभ लवत नहीां होती, समस्य एेँ तो अा यें गी
परन्तु वह हम रे मन को व्यलथत नहीां कर प यें गी।

इसलिए हमें यह समझन होग लक समस्य एेँ होां य न होां हमें अपन कीमती समय भगव न् के लचन्तन क
अभ्य स करने में अवश्य िग न है तब ही हमेश के लिए हम इस भौलतक जगत् से मुि होकर वै कुण्ठ
पहुेँ च प येंगे जह ेँ कोई कुण्ठ य लचन्त नहीां होती। होत है तो केवि भगव न् के स लनध्य में असीम
अा नांद। हरे कृष्ण।
20) Iskcon Desire Tree - ह िं दी

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*मैं कृष्ण की ही पूज क्योां करू


ेँ ?*

स र वै लदक स लहत्य स्वीक र करत है लक कृष्ण ही ब्रह्म , लशव तथ अन्य समस्त दे वत ओां के स्त्रोत हैं |
अथवतवेद में (गोप ित पनी उपलनर्षद् १.२४) कह गय है – यो ब्रह्म णां लवदि लत पूवं यो वै वे द ां श्च ग पयलत
स्म कृष्णः – प्र रम्भ में कृष्ण ने ब्रह्म को वे दोां क ज्ञ न प्रद न लकय और उन्होांने भूतक ि में वै लदक ज्ञ न
क प्रच र लकय | पुनः न र यण उपलनर्षद् में (१) कह गे हाै – अथ पुरुर्षो ह वै न र यणोSक मयत प्रज ः
सृजेयते – तब भगव न् ने जीवोां की सृलष्ट करनी च ही | उपलनर्षद् में आगे भी कह गय है – न र यण द्
ब्रह्म ज यते न र यण द् प्रज पलतः प्रज यते न र यण द् इिो ज यते | न र यण दष्टौ वसवो ज यन्ते
न र यण दे क दश रुद्र ज यन्ते न र यण द्द्व दश लदत्य ः – “न र यण से ब्रह्म उत्पन्न होते हैं , न र यण से
प्रज पलत उत्पन्न होते हैं , न र यण से इि और आठ व सु उत्पन्न होते हैं और न र यण से ही ग्य रह रूद्र
तथ ब रह आलदत्य उत्पन्न होते हैं |” यह न र यण कृष्ण के ही अांश हैं |
.
वेदोां क ही कथन है – ब्रह्मण्यो दे वकीपुत्रः – दे वकी पुत्र, कृष्ण, ही भगव न् हैं *(न र यण उपलनर्षद् ४)*
| तब यह कह गय – एको वै आसीन्न ब्रह्म न ईश नो न पो न लिसमौ ने मे द्य व पृलथवी न न क्षत्र लण न
सूयतः – सृलष्ट के प्र रम्भ में केवि भगव न् न र यण थे | न ब्रह्म थे , न लशव | न अलि थी, न चिम , न
नक्षत्र और न सूयत (*मह उपलनर्षद् १)* | मह उपलनर्षद् में यह भी कह गय है लक लशवजी परमे श्र्वर
के मस्तक से उत्पन्न हुए | अतः वेदोां क कहन है लक ब्रह्म तथ लशव के स्त्रष्ट भगव न् की ही पूज
की ज नी च लहए |
.
*मोक्षिमत में कृष्ण कहते हैं * –
.
*प्रज पलतां च रूद्र च प्यहमे व सृज लम वै |*
*तौ लह म ां न लवज नीतो मम म य लवमोलहतौ ||*
.
“मैं ने ही प्रज पलतयोां को, लशव तथ अन्योां को उत्पन्न लकय , लकन्तु वे मे री म य से मोलहत होने के क रण
यह नहीां ज नते लक मैं ने ही उन्हें उत्पन्न लकय |” वर ह पुर ण में भी कह गय है –
.
*न र यणः परो दे वस्तस्म ज्ज तश्र्चतुमुतखः |*
*तस्म द्र रुद्रोSभवद्दे वः स च सवतज्ञत ां गतः ||*
.
“न र यण भगव न् हैं , लजनसे ब्रह्म उत्पन्न हुए और लफर ब्रह्म से लशव उत्पन्न हुए |” भगव न् कृष्ण समस्त
उत्पलत्तयोां से स्त्रोत हैं और वे सवतक रण कहि ते हैं | वे स्वयां कहते हैं , “चूेँलक स री वस्तु एेँ मु झसे उत्पन्न
हैं , अतः मैं सबोां क मू ि क रण हेँ | स री वस्तु एेँ मे रे अिीन हैं , मे रे ऊपर कोई भी नहीां हैं |” कृष्ण से
बढ़कर कोई परम लनयन्त नहीां है | जो व्यक्ति प्र म लणक गुरु से य वैलदक स लहत्य से इस प्रक र
कृष्ण को ज न िे त है , वह अपनी स री शक्ति कृष्णभ वन मृ त में िग त है और सचमु च लवद्व न पुरुर्ष
बन ज त है | उसकी तुिन में अन्य िोग, जो कृष्ण को ठीक से नहीां ज नते, म त्र मु खत लसि होते हैं |
केवि मु खत ही कृष्ण को स म न्य व्यक्ति समझेग | कृष्णभ वन भ लवत व्यक्ति को च लहए लक कभी मू खों
द्व र मोलहत न हो, उसे भगवद्गीत की समस्त अप्र म लणक टीक ओां एवां व्य ख्य ओां से दू र रहन च लहए
और दृढ़त पूवतक कृष्णभ वन मृ त में अग्रसर होन च लहए |
21)

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