Professional Documents
Culture Documents
Bhagavad Gita Slogams
Bhagavad Gita Slogams
धृतराष्ट्र उिाच
धमुक्षेत्रे कजरुक्षेत्रे समिेता ययज त्ज सिः ।
मामकाः पाण्डिाश्चैि वकमकजिुत संर्य ॥
संर्य उिाच
दृष्टिा तज पाण्डिानीकं व्यढू ं दयज ोधनस्तदा ।
आचायुमपज संगम्य रार्ा िचनमब्रिीत् ॥
भावार्थ : हे आचायु! आपके बवज द्धमान् वशष्ट्य द्रजपदपत्रज धृष्टद्यम्ज न द्वारा व्यहू ाकार खडी की हुई पाण्डजपत्रज ों की इस बडी भारी सेना को देवखए॥3॥
भावार्थ : हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! अपने पक्ष में भी र्ो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीवर्ए। आपकी र्ानकारी के वलए मेरी सेना के र्ो-र्ो सेनापवत
हैं, उनको बतलाता ह॥ाँ 7॥
भावार्थ : आप-द्रोणाचायु और वपतामह भीष्ट्म तथा कणु और संग्रामविर्यी कृ पाचायु तथा िैसे ही अश्वत्थामा, विकणु और सोमदत्त का पत्रज
भरू रश्रिा॥8॥
भावार्थ : और भी मेरे वलए र्ीिन की आशा त्याग देने िाले बहुत-से शरू िीर अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से ससज वजर्त और सब-के -सब यद्ध
ज में
चतरज हैं॥9॥
भावार्थ : भीष्ट्म वपतामह द्वारा रवक्षत हमारी िह सेना सब प्रकार से अर्ेय है और भीम द्वारा रवक्षत इन लोगों की यह सेना र्ीतने में सगज म
है॥10॥
भावार्थ : इसवलए सब मोचों पर अपनी-अपनी र्गह वस्थत रहते हुए आप लोग सभी वनःसंदहे भीष्ट्म वपतामह की ही सब ओर से रक्षा
करें ॥11॥
भावार्थ : इसके पश्चात शंख और नगाडे तथा ढोल, मृदंग और नरवसंघे आवद बार्े एक साथ ही बर् उठे । उनका िह शब्द बडा भयंकर
हुआ॥13॥
भावार्थ : श्रीकृ ष्ट्ण महारार् ने पाञ्ज्चर्तय नामक, अर्ुनज ने देिदत्त नामक और भयानक कमुिाले भीमसेन ने पौण्र नामक महाशंख
बर्ाया॥15॥
भावार्थ : कजततीपत्रज रार्ा यवज धवष्ठर ने अनततविर्य नामक और नकजल तथा सहदेि ने सघज ोष और मवणपष्ट्ज पक नामक शंख बर्ाए॥16॥
भावार्थ : श्रेष्ठ धनषज िाले कावशरार् और महारथी वशखण्डी एिं धृष्टद्यम्ज न तथा रार्ा विराट और अर्ेय सात्यवक, रार्ा द्रजपद एिं द्रौपदी के
पााँचों पत्रज और बडी भर्ज ािाले सभज द्रा पत्रज अवभमतयज- इन सभी ने, हे रार्न्! सब ओर से अलग-अलग शंख बर्ाए॥17-18॥
भावार्थ : और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृर्थिी को भी गंर्ज ाते हुए धातुराष्ट्रों के अथाुत आपके पक्षिालों के हृदय विदीणु कर
वदए॥19॥
( अर्ुनज द्वारा सेना-वनरीक्षण का प्रसंग )
अर्ुनज उिाचः
अथ व्यिवस्थतातदृष्टिा धातुराष्ट्रान् कवपध्िर्ः ।
प्रिृत्ते शस्त्रसम्पाते धनरुज द्यम्य पाण्डिः ॥
हृषीके शं तदा िाक्यवमदमाह महीपते ।
भावार्थ : भािाथु : हे रार्न्! इसके बाद कवपध्िर् अर्ुनज ने मोचाु बााँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-संबंवधयों को देखकर, उस शस्त्र चलने की तैयारी
के समय धनषज उठाकर हृषीके श श्रीकृ ष्ट्ण महारार् से यह िचन कहा- हे अच्यजत! मेरे रथ को दोनों सेनाओ ं के बीच में खडा कीवर्ए॥20-21॥
यािदेतावतनरीक्षेऽहं योद्धक
ज ामानिवस्थतान् ।
कै मुया सह योद्धव्यमवस्मन रणसमद्यज मे ॥
भावार्थ : दबज ुवज द्ध दयज ोधन का यजद्ध में वहत चाहने िाले र्ो-र्ो ये रार्ा लोग इस सेना में आए हैं, इन यद्ध
ज करने िालों को मैं देखाँगू ा॥23॥
सर्ं य उिाच
एिमक्त
ज ो हृषीके शो गडज ाके शेन भारत ।
सेनयोरुभयोमुध्ये स्थापवयत्िा रथोत्तमम्॥
भीष्ट्मद्रोणप्रमख
ज तः सिेषां च महीवक्षताम् ।
उिाच पाथु पश्यैतान्समिेतान् कजरूवनवत ॥
भावार्थ : संर्य बोले- हे धृतराष्ट्र! अर्ुनज द्वारा कहे अनसज ार महारार् श्रीकृ ष्ट्णचंद्र ने दोनों सेनाओ ं के बीच में भीष्ट्म और द्रोणाचायु के सामने
तथा सम्पणू ु रार्ाओ ं के सामने उत्तम रथ को खडा कर इस प्रकार कहा वक हे पाथु! यद्ध
ज के वलए र्टज े हुए इन कौरिों को देख॥24-25॥
तत्रापश्यवत्स्थतान् पाथुः वपतृनथ वपतामहान् ।
आचायाुतमातल
ज ातरातृतपत्रज ातपौत्रातसखींस्तथा ॥
श्वशरज ान् सहृज दश्चैि सेनयोरुभयोरवप ।
भावार्थ : इसके बाद पृथापत्रज अर्ुनज ने उन दोनों ही सेनाओ ं में वस्थत ताऊ-चाचों को, दादों-परदादों को, गरुज ओ ं को, मामाओ ं को, भाइयों को,
पत्रज ों को, पौत्रों को तथा वमत्रों को, ससरज ों को और सहृज दों को भी देखा॥26 और 27िें का पूिाुधु॥
अर्ुनज उिाच
दृष्टेिमं स्िर्नं कृ ष्ट्ण ययज त्ज संज समपज वस्थतम्॥
सीदवतत मम गात्रावण मख
ज ं च पररशष्ट्ज यवत ।
िेपथश्चज शरीरे में रोमहषुश्च र्ायते ॥
भावार्थ : हाथ से गांडीि धनषज वगर रहा है और त्िचा भी बहुत र्ल रही है तथा मेरा मन रवमत-सा हो रहा है, इसवलए मैं खडा रहने को भी
समथु नहीं ह॥ाँ 30॥
भावार्थ : हे के शि! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हाँ तथा यद्ध
ज में स्िर्न-समदज ाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता॥31॥
भावार्थ : गरुज र्न, ताऊ-चाचे, लडके और उसी प्रकार दादे, मामे, ससरज , पौत्र, साले तथा और भी सबं धं ी लोग हैं ॥34॥
भावार्थ : हे मधसज दू न! मझज े मारने पर भी अथिा तीनों लोकों के राजय के वलए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, वफर पृर्थिी के वलए तो
कहना ही क्या है?॥35॥
भावार्थ : हे र्नादुन! धृतराष्ट्र के पत्रज ों को मारकर हमें क्या प्रसतनता होगी? इन आततावययों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा॥36॥
भावार्थ : अतएि हे माधि! अपने ही बातधि धृतराष्ट्र के पत्रज ों को मारने के वलए हम योग्य नहीं हैं क्योंवक अपने ही कजटजम्ब को मारकर हम
ज ी होंगे?॥37॥
कै से सख
भावार्थ : यद्यवप लोभ से रष्टवचत्त हुए ये लोग कजल के नाश से उत्पतन दोष को और वमत्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे
र्नादुन! कजल के नाश से उत्पतन दोष को र्ानने िाले हम लोगों को इस पाप से हटने के वलए क्यों नहीं विचार करना चावहए?॥38-39॥
भावार्थ : कजल के नाश से सनातन कजल-धमु नष्ट हो र्ाते हैं तथा धमु का नाश हो र्ाने पर सम्पणू ु कजल में पाप भी बहुत फै ल र्ाता है॥40॥
अधमाुवभभिात्कृ ष्ट्ण प्रदष्ट्ज यवतत कजलवस्त्रयः ।
स्त्रीषज दष्टज ासज िाष्ट्णेय र्ायते िणुसंकरः ॥
भावार्थ : हे कृ ष्ट्ण! पाप के अवधक बढ़ र्ाने से कजल की वस्त्रयााँ अत्यतत दवू षत हो र्ाती हैु और हे िाष्ट्णेय! वस्त्रयों के दवू षत हो र्ाने पर
िणुसंकर उत्पतन होता है॥41॥
भावार्थ : िणुसंकर कजलघावतयों को और कजल को नरक में ले र्ाने के वलए ही होता है। लप्तज हुई वपण्ड और र्ल की वक्रया िाले अथाुत श्राद्ध
और तपुण से िवं चत इनके वपतर लोग भी अधोगवत को प्राप्त होते हैं॥42॥
भावार्थ : इन िणुसंकरकारक दोषों से कजलघावतयों के सनातन कजल-धमु और र्ावत-धमु नष्ट हो र्ाते हैं॥43॥
भावार्थ : हे र्नादुन! वर्नका कजल-धमु नष्ट हो गया है, ऐसे मनष्ट्ज यों का अवनवश्चतकाल तक नरक में िास होता है, ऐसा हम सनज ते आए
हैं॥44॥
भावार्थ : हा! शोक! हम लोग बवज द्धमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, र्ो राजय और सख
ज के लोभ से स्िर्नों को मारने के
वलए उद्यत हो गए हैं॥45॥
भावार्थ : यवद मझज शस्त्ररवहत एिं सामना न करने िाले को शस्त्र हाथ में वलए हुए धृतराष्ट्र के पत्रज रण में मार डालें तो िह मारना भी मेरे वलए
अवधक कल्याणकारक होगा॥46॥
सर्ं य उिाच
एिमक्ज त्िार्ुनज ः सङ््ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृजय सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥
भावार्थ : संर्य बोले- रणभवू म में शोक से उवद्वग्न मन िाले अर्ुनज इस प्रकार कहकर, बाणसवहत धनषज को त्यागकर रथ के वपछले भाग में बैठ
गए॥47॥
अथ वद्वतीयोऽध्यायः- सां्ययोग
संर्य उिाच
तं तथा कृ पयाविष्टमश्रपज णू ाुकजलेक्षणम् ।
विषीदततवमदं िाक्यमिज ाच मधसज दू नः ॥
श्रीभगिानजिाच
कजतस्त्िा कश्मलवमदं विषमे समपज वस्थतम् ।
अनायुर्ष्टज मस्िग्युमकीवतुकरमर्ुनज ।
भावार्थ : श्रीभगिान बोले- हे अर्ुनज ! तझज े इस असमय में यह मोह वकस हेतज से प्राप्त हुआ? क्योंवक न तो यह श्रेष्ठ परुज षों द्वारा आचररत है, न
स्िगु को देने िाला है और न कीवतु को करने िाला ही है॥2॥
अर्जुन उिाच
कथं भीष्ट्ममहं सङ््ये द्रोणं च मधसज दू न ।
इषवज भः प्रवतयोत्स्यावम पर्ू ाहाुिररसदू न ॥
भावार्थ : अर्ुनज बोले- हे मधसज दू न! मैं रणभवू म में वकस प्रकार बाणों से भीष्ट्म वपतामह और द्रोणाचायु के विरुद्ध लडाँगा? क्योंवक हे अररसदू न!
िे दोनों ही पर्ू नीय हैं॥4॥
गरू
ज नहत्िा वह महानभज ािा-
ञ्ज्रेयो भोक्तंज भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्िाथुकामांस्तज गरू
ज वनहैि
भंर्ज ीय भोगान्रुवधरप्रवदग्धान्॥
भावार्थ : इसवलए इन महानभज ाि गरुज र्नों को न मारकर मैं इस लोक में वभक्षा का अतन भी खाना कल्याणकारक समझता हाँ क्योंवक गरुज र्नों को
मारकर भी इस लोक में रुवधर से सने हुए अथु और कामरूप भोगों को ही तो भोगाँगू ा॥5॥
कापुण्यदोषोपहतस्िभािः
पृच्छावम त्िां धमुसम्मढू चेताः ।
यच्रे यः स्यावतनवश्चतं ब्रूवह ततमे
वशष्ट्यस्तेऽहं शावध मां त्िां प्रपतनम्॥
भावार्थ : इसवलए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्िभाि िाला तथा धमु के विषय में मोवहत वचत्त हुआ मैं आपसे पछू ता हाँ वक र्ो साधन
वनवश्चत कल्याणकारक हो, िह मेरे वलए कवहए क्योंवक मैं आपका वशष्ट्य हाँ, इसवलए आपके शरण हुए मझज को वशक्षा दीवर्ए॥7॥
न वह प्रपश्यावम ममापनद्यज ा-
द्यच्छोकमच्ज छोषणवमवतद्रयाणाम् ।
अिाप्य भमू ािसपत्रमृद्धं-
राजयं सरज ाणामवप चावधपत्यम्॥
भावार्थ : क्योंवक भवू म में वनष्ट्कण्टक, धन-धातय सम्पतन राजय को और देिताओ ं के स्िामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता
ह,ाँ र्ो मेरी इवतद्रयों के सख
ज ाने िाले शोक को दरू कर सके ॥8॥
सर्ं य उिाच
एिमक्ज त्िा हृषीके शं गडज ाके शः परततप ।
न योत्स्य इवतगोवितदमक्ज त्िा तष्ट्ू णीं बभिू ह ॥
भावार्थ : संर्य बोले- हे रार्न्! वनद्रा को र्ीतने िाले अर्ुनज अंतयाुमी श्रीकृ ष्ट्ण महारार् के प्रवत इस प्रकार कहकर वफर श्री गोविंद भगिान्से
'यद्ध
ज नहीं करूाँगा' यह स्पष्ट कहकर चपज हो गए॥9॥
भावार्थ : हे भरतिंशी धृतराष्ट्र! अंतयाुमी श्रीकृ ष्ट्ण महारार् दोनों सेनाओ ं के बीच में शोक करते हुए उस अर्ुनज को हाँसते हुए से यह िचन
बोले॥10॥
( सां्ययोग का विषय )
श्री भगिानजिाच
अशोच्यानतिशोचस्त्िं प्रञािादांश्च भाषसे ।
गतासनू गतासंश्च
ू नानश
ज ोचवतत पवण्डताः ॥
भावार्थ : श्री भगिान बोले, हे अर्ुनज ! तू न शोक करने योग्य मनष्ट्ज यों के वलए शोक करता है और पवण्डतों के से िचनों को कहता है, परततज
वर्नके प्राण चले गए हैं, उनके वलए और वर्नके प्राण नहीं गए हैं उनके वलए भी पवण्डतर्न शोक नहीं करते॥11॥
भावार्थ : न तो ऐसा ही है वक मैं वकसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथिा ये रार्ा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है वक इससे आगे हम सब
नहीं रहेंगे॥12॥
देवहनोऽवस्मतयथा देहे कौमारं यौिनं र्रा ।
तथा देहाततरप्रावप्तधीरस्तत्र न मह्य
ज वत ॥
भावार्थ : र्ैसे र्ीिात्मा की इस देह में बालकपन, र्िानी और िृद्धािस्था होती है, िैसे ही अतय शरीर की प्रावप्त होती है, उस विषय में धीर
परुज ष मोवहत नहीं होता।13॥
भावार्थ : असत् िस्तज की तो सत्ता नहीं है और सत्का अभाि नहीं है। इस प्रकार इन दोनोु का ही तत्ि तत्िञानी परुज षों द्वारा देखा गया
है॥16॥
भावार्थ : नाशरवहत तो तू उसको र्ान, वर्ससे यह सम्पणू ु र्गत्- दृश्यिगु व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समथु नहीं
है॥17॥
भावार्थ : इस नाशरवहत, अप्रमेय, वनत्यस्िरूप र्ीिात्मा के ये सब शरीर नाशिान कहे गए हैं, इसवलए हे भरतिंशी अर्ुनज ! तू यजद्ध कर॥18॥
भावार्थ : र्ो इस आत्मा को मारने िाला समझता है तथा र्ो इसको मरा मानता है, िे दोनों ही नहीं र्ानते क्योंवक यह आत्मा िास्ति में न तो
वकसी को मारता है और न वकसी द्वारा मारा र्ाता है॥19॥
न र्ायते वियते िा कदाचिु-
तनायं भत्ू िा भविता िा न भयू ः ।
अर्ो वनत्यः शाश्वतोऽयं पजराणो-
न हतयते हतयमाने शरीरे ॥
भावार्थ : यह आत्मा वकसी काल में भी न तो र्तमता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पतन होकर वफर होने िाला ही है क्योंवक यह
अर्तमा, वनत्य, सनातन और परज ातन है, शरीर के मारु र्ाने पर भी यह नहीं मारा र्ाता॥20॥
भावार्थ : हे पृथापत्रज अर्ुनज ! र्ो परुज ष इस आत्मा को नाशरवहत, वनत्य, अर्तमा और अव्यय र्ानता है, िह परुज ष कै से वकसको मरिाता है
और कै से वकसको मारता है?॥21॥
भावार्थ : र्ैसे मनष्ट्ज य पजराने िस्त्रों को त्यागकर दसू रे नए िस्त्रों को ग्रहण करता है, िैसे ही र्ीिात्मा परज ाने शरीरों को त्यागकर दसू रे नए शरीरों
को प्राप्त होता है॥22॥
भावार्थ : इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं र्ला सकती, इसको र्ल नहीं गला सकता और िायज नहीं सख
ज ा
सकता॥23॥
अच्छे द्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्ट्य एि च ।
वनत्यः सिुगतः स्थाणरज चलोऽयं सनातनः ॥
भावार्थ : क्योंवक यह आत्मा अच्छे द्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और वनःसंदहे अशोष्ट्य है तथा यह आत्मा वनत्य, सिुव्यापी, अचल,
वस्थर रहने िाला और सनातन है॥24॥
अव्यक्तोऽयमवचतत्योऽयमविकायोऽयमच्ज यते ।
तस्मादेिं विवदत्िैनं नानश
ज ोवचतमज हुवस॥॥
भावार्थ : यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अवचतत्य है और यह आत्मा विकाररवहत कहा र्ाता है। इससे हे अर्ुनज ! इस आत्मा को उपयुक्त
ज
प्रकार से र्ानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है अथाुत् तझज े शोक करना उवचत नहीं है॥25॥
भावार्थ : वकततज यवद तू इस आत्मा को सदा र्तमने िाला तथा सदा मरने िाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने योग्य
नहीं है॥26॥
भावार्थ : क्योंवक इस मातयता के अनसज ार र्तमे हुए की मृत्यज वनवश्चत है और मरे हुए का र्तम वनवश्चत है। इससे भी इस वबना उपाय िाले विषय
में तू शोक करने योग्य नहीं है॥27॥
भावार्थ : हे अर्ुनज ! सम्पणू ु प्राणी र्तम से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो र्ाने िाले हैं, के िल बीच में ही प्रकट हैं, वफर
ऐसी वस्थवत में क्या शोक करना है?॥28॥
आश्चयुित्पश्यवत कवश्चदेन-
माश्चयुिद्वदवत तथैि चातयः ।
आश्चयुिच्चैनमतयः श्रृणोवत
श्रत्ज िाप्येनं िेद न चैि कवश्चत्॥
भावार्थ : कोई एक महापरुज ष ही इस आत्मा को आश्चयु की भााँवत देखता है और िैसे ही दसू रा कोई महापरुज ष ही इसके तत्ि का आश्चयु की
भााँवत िणुन करता है तथा दसू रा कोई अवधकारी परुज ष ही इसे आश्चयु की भााँवत सजनता है और कोई-कोई तो सनज कर भी इसको नहीं
र्ानता॥29॥
भावार्थ : हे अर्ुनज ! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अिध्य (वर्सका िध नहीं वकया र्ा सके ) है। इस कारण सम्पणू ु प्रावणयों के वलए तू
शोक करने योग्य नहीं है॥30॥
भावार्थ : हे पाथु! अपने-आप प्राप्त हुए और खल ज को भाग्यिान क्षवत्रय लोग ही पाते हैं॥32॥
ज े हुए स्िगु के द्वार रूप इस प्रकार के यद्ध
भावार्थ : तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने िाली अपकीवतु का भी कथन करें गे और माननीय परुज ष के वलए अपकीतुिु मरण से भी
बढ़कर है॥34॥
भावार्थ : इऔर वर्नकी दृवष्ट में तू पहले बहुत सम्मावनत होकर अब लघतज ा को प्राप्त होगा, िे महारथी लोग तझज े भय के कारण यद्ध
ज से हटा
हुआ मानेंगे॥35॥
भावार्थ : तेरे िैरी लोग तेरे सामर्थयु की वनंदा करते हुए तझज े बहुत से न कहने योग्य िचन भी कहेंगे, उससे अवधक दःज ख और क्या होगा?॥36॥
भावार्थ : या तो तू यद्ध
ज में मारा र्ाकर स्िगु को प्राप्त होगा अथिा संग्राम में र्ीतकर पृर्थिी का राजय भोगेगा। इस कारण हे अर्ुनज ! तू यद्ध
ज के
वलए वनश्चय करके खडा हो र्ा॥37॥
सख
ज दःज खे समे कृ त्िा लाभालाभौ र्यार्यौ ।
ततो यद्ध
ज ाय यजज यस्ि नैिं पापमिाप्स्यवस ॥
भावार्थ : र्य-परार्य, लाभ-हावन और सख
ज -दख
ज को समान समझकर, उसके बाद यद्ध
ज के वलए तैयार हो र्ा, इस प्रकार यद्ध
ज करने से तू पाप
को नहीं प्राप्त होगा॥38॥
( कमुयोग का विषय )
एषु तेऽवभवहता साङ््ये बवज द्धयोगे वत्िमां श्रृणज ।
बद्ध
ज ्या यक्त
ज ो यया पाथु कमुबतधं प्रहास्यवस ॥
भावार्थ : हे पाथु! यह बवज द्ध तेरे वलए ञानयोग के विषय में कही गई और अब तू इसको कमुयोग के (अध्याय 3 श्लोक 3 की वटप्पणी में
इसका विस्तार देखें।) विषय मेु सनज - वर्स बवज द्ध से यक्त
ज हुआ तू कमों के बंधन को भली-भााँवत त्याग देगा अथाुत सिुथा नष्ट कर
डालेगा॥39॥
भावार्थ : इस कमुयोग में आरंभ का अथाुत बीर् का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बवल्क इस कमुयोग रूप धमु का थोडा-
सा भी साधन र्तम-मृत्यज रूप महान भय से रक्षा कर लेता है॥40॥
भावार्थ : हे अर्ुनज ! इस कमुयोग में वनश्चयावत्मका बवज द्ध एक ही होती है, वकततज अवस्थर विचार िाले वििेकहीन सकाम मनष्ट्ज यों की बवज द्धयााँ
वनश्चय ही बहुत भेदों िाली और अनतत होती हैं॥41॥
भावार्थ : हे अर्ुनज ! र्ो भोगों में ततमय हो रहे हैं, र्ो कमुफल के प्रशंसक िेदिाक्यों में ही प्रीवत रखते हैं, वर्नकी बवज द्ध में स्िगु ही परम प्राप्य
िस्तज है और र्ो स्िगु से बढ़कर दसू री कोई िस्तज ही नहीं है- ऐसा कहने िाले हैं, िे अवििेकीर्न इस प्रकार की वर्स पवज ष्ट्पत अथाुत्वदखाऊ
ज िाणी को कहा करते हैं, र्ो वक र्तमरूप कमुफल देने िाली एिं भोग तथा ऐश्वयु की प्रावप्त के वलए नाना प्रकार की बहुत-सी
शोभायक्त
वक्रयाओ ं का िणुन करने िाली है, उस िाणी द्वारा वर्नका वचत्त हर वलया गया है, र्ो भोग और ऐश्वयु में अत्यतत आसक्त हैं, उन परुज षों की
परमात्मा में वनवश्चयावत्मका बवज द्ध नहीं होती॥42-44॥
त्रैगण्ज यविषया िेदा वनस्त्रैगण्ज यो भिार्ुनज ।
वनद्वुतद्वो वनत्यसत्िस्थो वनयोगक्षेम आत्मिान्॥
भावार्थ : सब ओर से पररपणू ु र्लाशय के प्राप्त हो र्ाने पर छोटे र्लाशय में मनष्ट्ज य का वर्तना प्रयोर्न रहता है, ब्रह्म को तत्ि से र्ानने िाले
ब्राह्मण का समस्त िेदों में उतना ही प्रयोर्न रह र्ाता है॥46॥
भावार्थ : तेरा कमु करने में ही अवधकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसवलए तू कमों के फल हेतज मत हो तथा तेरी कमु न करने में भी
आसवक्त न हो॥47॥
भावार्थ : हे धनंर्य! तू आसवक्त को त्यागकर तथा वसवद्ध और अवसवद्ध में समान बवज द्धिाला होकर योग में वस्थत हुआ कतुव्य कमों को कर,
समत्ि (र्ो कजछ भी कमु वकया र्ाए, उसके पणू ु होने और न होने में तथा उसके फल में समभाि रहने का नाम 'समत्ि' है।) ही योग कहलाता
है॥48॥
भावार्थ : इस समत्िरूप बवज द्धयोग से सकाम कमु अत्यतत ही वनम्न श्रेणी का है। इसवलए हे धनंर्य! तू समबवज द्ध में ही रक्षा का उपाय ढूाँढ
अथाुत्बवज द्धयोग का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंवक फल के हेतज बनने िाले अत्यतत दीन हैं॥49॥
बवज द्धयक्त
ज ो र्हातीह उभे सक
ज ृ तदष्ट्ज कृते ।
तस्माद्योगाय यजज यस्ि योगः कमुसज कौशलम् ॥
भावार्थ : वर्स काल में तेरी बवज द्ध मोहरूपी दलदल को भलीभााँवत पार कर र्ाएगी, उस समय तू सनज े हुए और सनज नु में आने िाले इस लोक
और परलोक संबंधी सभी भोगों से िैराग्य को प्राप्त हो र्ाएगा॥52॥
भावार्थ : भााँवत-भााँवत के िचनों को सनज ने से विचवलत हुई तेरी बवज द्ध र्ब परमात्मा में अचल और वस्थर ठहर र्ाएगी, तब तू योग को प्राप्त हो
र्ाएगा अथाुत तेरा परमात्मा से वनत्य संयोग हो र्ाएगा॥53॥
अर्जुन उिाच
वस्थतप्रञस्य का भाषा समावधस्थस्य के शि ।
वस्थतधीः वकं प्रभाषेत वकमासीत व्रर्ेत वकम्॥
भावार्थ : अर्ुनज बोले- हे के शि! समावध में वस्थत परमात्मा को प्राप्त हुए वस्थरबजवद्ध परुज ष का क्या लक्षण है? िह वस्थरबवज द्ध परुज ष कै से बोलता
है, कै से बैठता है और कै से चलता है?॥54॥
श्रीभगिानजिाच
प्रर्हावत यदा कामान्सिाुतपाथु मनोगतान् ।
आत्मयेिात्मना तष्टज ः वस्थतप्रञस्तदोच्यते ॥
भावार्थ : श्री भगिान् बोले- हे अर्ुनज ! वर्स काल में यह परुज ष मन में वस्थत सम्पणू ु कामनाओ ं को भलीभााँवत त्याग देता है और आत्मा से
आत्मा में ही संतष्टज रहता है, उस काल में िह वस्थतप्रञ कहा र्ाता है॥55॥
भावार्थ : र्ो परुज ष सिुत्र स्नेहरवहत हुआ उस-उस शभज या अशभज िस्तज को प्राप्त होकर न प्रसतन होता है और न द्वेष करता है, उसकी बवज द्ध
वस्थर है॥57॥
भावार्थ : और कछजिा सब ओर से अपने अगं ों को र्ैसे समेट लेता है, िैसे ही र्ब यह परुज ष इवतद्रयों के विषयों से इवतद्रयों को सब प्रकार से
हटा लेता है, तब उसकी बवज द्ध वस्थर है (ऐसा समझना चावहए)॥58॥
भावार्थ : इवतद्रयों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने िाले परुज ष के भी के िल विषय तो वनिृत्त हो र्ाते हैं, परततज उनमें रहने िाली आसवक्त वनिृत्त
नहीं होती। इस वस्थतप्रञ परुज ष की तो आसवक्त भी परमात्मा का साक्षात्कार करके वनिृत्त हो र्ाती है॥59॥
भावार्थ : हे अर्ुनज ! आसवक्त का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्िभाि िाली इवतद्रयााँ यत्न करते हुए बवज द्धमान परुज ष के मन को भी बलात्
हर लेती हैं॥60॥
भावार्थ : इसवलए साधक को चावहए वक िह उन सम्पणू ु इवतद्रयों को िश में करके समावहत वचत्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंवक
वर्स परुज ष की इवतद्रयााँ िश में होती हैं, उसी की बवज द्ध वस्थर हो र्ाती है॥61॥
भावार्थ : विषयों का वचततन करने िाले परुज ष की उन विषयों में आसवक्त हो र्ाती है, आसवक्त से उन विषयों की कामना उत्पतन होती है और
कामना में विघ्न पडने से क्रोध उत्पतन होता है॥62॥
रागद्वेषवियक्त
ज ै स्तज विषयावनवतद्रयैश्चरन् ।
आत्मिश्यैविुधेयात्मा प्रसादमवधगच्छवत ॥
भावार्थ : परंततज अपने अधीन वकए हुए अततःकरण िाला साधक अपने िश में की हुई, राग-द्वेष रवहत इवतद्रयों द्वारा विषयों में विचरण करता
हुआ अततःकरण की प्रसतनता को प्राप्त होता है॥64॥
भावार्थ : अततःकरण की प्रसतनता होने पर इसके सम्पणू ु दःज खों का अभाि हो र्ाता है और उस प्रसतनवचत्त िाले कमुयोगी की बवज द्ध शीघ्र ही
सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभााँवत वस्थर हो र्ाती है॥65॥
भावार्थ : न र्ीते हुए मन और इवतद्रयों िाले परुज ष में वनश्चयावत्मका बवज द्ध नहीं होती और उस अयक्त
ज मनष्ट्ज य के अततःकरण में भािना भी नहीं
ज कै से वमल सकता है?॥66॥
होती तथा भािनाहीन मनष्ट्ज य को शावतत नहीं वमलती और शावततरवहत मनष्ट्ज य को सख
भावार्थ : क्योंवक र्ैसे र्ल में चलने िाली नाि को िायज हर लेती है, िैसे ही विषयों में विचरती हुई इवतद्रयों में से मन वर्स इवतद्रय के साथ
रहता है, िह एक ही इवतद्रय इस अयक्त
ज परुज ष कु बवज द्ध को हर लेती है॥67॥
भावार्थ : इसवलए हे महाबाहो! वर्स परुज ष की इवतद्रयााँ इवतद्रयों के विषयों में सब प्रकार वनग्रह की हुई हैं, उसी की बवज द्ध वस्थर है॥68॥
भावार्थ : सम्पणू ु प्रावणयों के वलए र्ो रावत्र के समान है, उस वनत्य ञानस्िरूप परमानतद की प्रावप्त में वस्थतप्रञ योगी र्ागता है और वर्स
ज की प्रावप्त में सब प्राणी र्ागते हैं, परमात्मा के तत्ि को र्ानने िाले मवज न के वलए िह रावत्र के समान है॥69॥
नाशिान सांसाररक सख
आपयू ुमाणमचलप्रवतष्ठं-
समद्रज मापः प्रविशवतत यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशवतत सिे
स शावततमाप्नोवत न कामकामी ॥
भावार्थ : र्ैसे नाना नवदयों के र्ल सब ओर से पररपणू ु, अचल प्रवतष्ठा िाले समद्रज में उसको विचवलत न करते हुए ही समा र्ाते हैं, िैसे ही
सब भोग वर्स वस्थतप्रञ परुज ष में वकसी प्रकार का विकार उत्पतन वकए वबना ही समा र्ाते हैं, िही परुज ष परम शावतत को प्राप्त होता है, भोगों को
चाहने िाला नहीं॥70॥
भावार्थ : र्ो परुज ष सम्पणू ु कामनाओ ं को त्याग कर ममतारवहत, अहंकाररवहत और स्पृहारवहत हुआ विचरता है, िही शांवत को प्राप्त होता है
अथाुत िह शावतत को प्राप्त है॥71॥
भावार्थ : हे अर्ुनज ! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए परुज ष की वस्थवत है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोवहत नहीं होता और अंतकाल में भी इस ब्राह्मी
वस्थवत में वस्थत होकर ब्रह्मानतद कु प्राप्त हो र्ाता है॥72॥