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अथ प्रथमोऽध्यायः- अर्जुनविषादयोग

( दोनों सेनाओ ं के प्रधान-प्रधान शूरिीरों की गणना और सामर्थयु का कथन )

धृतराष्ट्र उिाच
धमुक्षेत्रे कजरुक्षेत्रे समिेता ययज त्ज सिः ।
मामकाः पाण्डिाश्चैि वकमकजिुत संर्य ॥

भावार्थ : धृतराष्ट्र बोले- हे संर्य! धमुभवू म कजरुक्षेत्र में एकवत्रत, यद्ध


ज की इच्छािाले मेरे और पाण्डज के पत्रज ों ने क्या वकया?॥1॥

संर्य उिाच
दृष्टिा तज पाण्डिानीकं व्यढू ं दयज ोधनस्तदा ।
आचायुमपज संगम्य रार्ा िचनमब्रिीत्‌ ॥

भावार्थ : संर्य बोले- उस समय रार्ा दयज ोधन ने व्यहू रचनायक्त


ज पाण्डिों की सेना को देखा और द्रोणाचायु के पास र्ाकर यह िचन कहा॥2॥

पश्यैतां पाण्डजपत्रज ाणामाचायु महतीं चममू ्‌ ।


व्यढू ां द्रजपदपत्रज ेण ति वशष्ट्येण धीमता ॥

भावार्थ : हे आचायु! आपके बवज द्धमान्‌ वशष्ट्य द्रजपदपत्रज धृष्टद्यम्ज न द्वारा व्यहू ाकार खडी की हुई पाण्डजपत्रज ों की इस बडी भारी सेना को देवखए॥3॥

अत्र शरू ा महेष्ट्िासा भीमार्ुनज समा यवज ध ।


ययज धज ानो विराटश्च द्रजपदश्च महारथः ॥
धृष्टके तश्चज ेवकतानः कावशरार्श्च िीयुिान्‌।
परुज वर्त्कजवततभोर्श्च शैब्यश्च नरपङज िः ॥
यधज ामतयश्चज विक्रातत उत्तमौर्ाश्च िीयुिान्‌।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सिु एि महारथाः ॥
भावार्थ : इस सेना में बडे-बडे धनषज ों िाले तथा यद्ध
ज में भीम और अर्ुनज के समान शरू िीर सात्यवक और विराट तथा महारथी रार्ा द्रजपद,
धृष्टके तज और चेवकतान तथा बलिान कावशरार्, परुज वर्त, कजवततभोर् और मनष्ट्ज यों में श्रेष्ठ शैब्य, पराक्रमी यधज ामतयज तथा बलिान उत्तमौर्ा,
सभज द्रापत्रज अवभमतयज एिं द्रौपदी के पााँचों पत्रज - ये सभी महारथी हैं॥4-6॥

अस्माकं तज विवशष्टा ये तावतनबोध वद्वर्ोत्तम ।


नायका मम सैतयस्य सञ्ज्ञाथं तातब्रिीवम ते ॥

भावार्थ : हे ब्राह्मणश्रेष्ठ! अपने पक्ष में भी र्ो प्रधान हैं, उनको आप समझ लीवर्ए। आपकी र्ानकारी के वलए मेरी सेना के र्ो-र्ो सेनापवत
हैं, उनको बतलाता ह॥ाँ 7॥

भिातभीष्ट्मश्च कणुश्च कृ पश्च सवमवतञ्ज्र्यः ।


अश्वत्थामा विकणुश्च सौमदवत्तस्तथैि च ॥

भावार्थ : आप-द्रोणाचायु और वपतामह भीष्ट्म तथा कणु और संग्रामविर्यी कृ पाचायु तथा िैसे ही अश्वत्थामा, विकणु और सोमदत्त का पत्रज
भरू रश्रिा॥8॥

अतये च बहिः शूरा मदथे त्यक्तर्ीविताः ।


नानाशस्त्रप्रहरणाः सिे यद्ध
ज विशारदाः ॥

भावार्थ : और भी मेरे वलए र्ीिन की आशा त्याग देने िाले बहुत-से शरू िीर अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से ससज वजर्त और सब-के -सब यद्ध
ज में
चतरज हैं॥9॥

अपयाुप्तं तदस्माकं बलं भीष्ट्मावभरवक्षतम्‌।


पयाुप्तं वत्िदमेतेषां बलं भीमावभरवक्षतम्‌॥

भावार्थ : भीष्ट्म वपतामह द्वारा रवक्षत हमारी िह सेना सब प्रकार से अर्ेय है और भीम द्वारा रवक्षत इन लोगों की यह सेना र्ीतने में सगज म
है॥10॥

अयनेषज च सिेषज यथाभागमिवस्थताः ।


भीष्ट्ममेिावभरक्षततज भिततः सिु एि वह ॥

भावार्थ : इसवलए सब मोचों पर अपनी-अपनी र्गह वस्थत रहते हुए आप लोग सभी वनःसंदहे भीष्ट्म वपतामह की ही सब ओर से रक्षा
करें ॥11॥

दोनों सेनाओ ं की शंख-ध्िवन का कथन )


तस्य सञ्ज्र्नयतहषं कजरुिृद्धः वपतामहः ।
वसहं नादं विनद्योच्चैः शंख दध्मो प्रतापिान्‌॥
भावार्थ : कौरिों में िृद्ध बडे प्रतापी वपतामह भीष्ट्म ने उस दयज ोधन के हृदय में हषु उत्पतन करते हुए उच्च स्िर से वसंह की दहाड के समान
गरर्कर शंख बर्ाया॥12॥

ततः शंखाश्च भेयुश्च पणिानकगोमख


ज ाः ।
सहसैिाभ्यहतयतत स शब्दस्तमज ल
ज ोऽभित्‌॥

भावार्थ : इसके पश्चात शंख और नगाडे तथा ढोल, मृदंग और नरवसंघे आवद बार्े एक साथ ही बर् उठे । उनका िह शब्द बडा भयंकर
हुआ॥13॥

ततः श्वेतैहयु ैयुक्त


ज े महवत स्यतदने वस्थतौ ।
माधिः पाण्डिश्चैि वदव्यौ शख
ं ौ प्रदध्मतःज ॥

भावार्थ : इसके अनततर सफे द घोडों से यक्त


ज उत्तम रथ में बैठे हुए श्रीकृ ष्ट्ण महारार् और अर्ुनज ने भी अलौवकक शंख बर्ाए॥14॥

पाञ्ज्चर्तयं हृषीके शो देिदत्तं धनञ्ज्र्यः ।


पौण्रं दध्मौ महाशंख भीमकमाु िृकोदरः ॥

भावार्थ : श्रीकृ ष्ट्ण महारार् ने पाञ्ज्चर्तय नामक, अर्ुनज ने देिदत्त नामक और भयानक कमुिाले भीमसेन ने पौण्र नामक महाशंख
बर्ाया॥15॥

अनततविर्यं रार्ा कजततीपत्रज ो यवज धवष्ठरः ।


नकजलः सहदेिश्च सघज ोषमवणपष्ट्ज पकौ ॥

भावार्थ : कजततीपत्रज रार्ा यवज धवष्ठर ने अनततविर्य नामक और नकजल तथा सहदेि ने सघज ोष और मवणपष्ट्ज पक नामक शंख बर्ाए॥16॥

काश्यश्च परमेष्ट्िासः वशखण्डी च महारथः ।


धृष्टद्यम्ज नो विराटश्च सात्यवकश्चापरावर्तः ॥
द्रजपदो द्रौपदेयाश्च सिुशः पृवथिीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शंखातदध्मःज पृथक्पृथक्‌ ॥

भावार्थ : श्रेष्ठ धनषज िाले कावशरार् और महारथी वशखण्डी एिं धृष्टद्यम्ज न तथा रार्ा विराट और अर्ेय सात्यवक, रार्ा द्रजपद एिं द्रौपदी के
पााँचों पत्रज और बडी भर्ज ािाले सभज द्रा पत्रज अवभमतयज- इन सभी ने, हे रार्न्‌! सब ओर से अलग-अलग शंख बर्ाए॥17-18॥

स घोषो धातुराष्ट्राणां हृदयावन व्यदारयत्‌ ।


नभश्च पृवथिीं चैि तमज जलो व्यननज ादयन्‌॥

भावार्थ : और उस भयानक शब्द ने आकाश और पृर्थिी को भी गंर्ज ाते हुए धातुराष्ट्रों के अथाुत आपके पक्षिालों के हृदय विदीणु कर
वदए॥19॥
( अर्ुनज द्वारा सेना-वनरीक्षण का प्रसंग )

अर्ुनज उिाचः
अथ व्यिवस्थतातदृष्टिा धातुराष्ट्रान्‌ कवपध्िर्ः ।
प्रिृत्ते शस्त्रसम्पाते धनरुज द्यम्य पाण्डिः ॥
हृषीके शं तदा िाक्यवमदमाह महीपते ।

सेनयोरुभयोमुध्ये रथं स्थापय मेऽच्यतज ॥

भावार्थ : भािाथु : हे रार्न्‌! इसके बाद कवपध्िर् अर्ुनज ने मोचाु बााँधकर डटे हुए धृतराष्ट्र-संबंवधयों को देखकर, उस शस्त्र चलने की तैयारी
के समय धनषज उठाकर हृषीके श श्रीकृ ष्ट्ण महारार् से यह िचन कहा- हे अच्यजत! मेरे रथ को दोनों सेनाओ ं के बीच में खडा कीवर्ए॥20-21॥

यािदेतावतनरीक्षेऽहं योद्धक
ज ामानिवस्थतान्‌ ।
कै मुया सह योद्धव्यमवस्मन रणसमद्यज मे ॥

भावार्थ : और र्ब तक वक मैं यद्ध


ज क्षेत्र में डटे हुए यजद्ध के अवभलाषी इन विपक्षी योद्धाओ ं को भली प्रकार देख न लाँू वक इस यद्ध
ज रूप व्यापार
ज करना योग्य है, तब तक उसे खडा रवखए॥22॥
में मझज े वकन-वकन के साथ यद्ध

योत्स्यमानानिेक्षेऽहं य एतेऽत्र समागताः ।


धातुराष्ट्रस्य दबज ुद्ध
ज ेयुद्ध
ज े वप्रयवचकीषुिः ॥

भावार्थ : दबज ुवज द्ध दयज ोधन का यजद्ध में वहत चाहने िाले र्ो-र्ो ये रार्ा लोग इस सेना में आए हैं, इन यद्ध
ज करने िालों को मैं देखाँगू ा॥23॥

सर्ं य उिाच
एिमक्त
ज ो हृषीके शो गडज ाके शेन भारत ।
सेनयोरुभयोमुध्ये स्थापवयत्िा रथोत्तमम्‌॥
भीष्ट्मद्रोणप्रमख
ज तः सिेषां च महीवक्षताम्‌ ।
उिाच पाथु पश्यैतान्‌समिेतान्‌ कजरूवनवत ॥

भावार्थ : संर्य बोले- हे धृतराष्ट्र! अर्ुनज द्वारा कहे अनसज ार महारार् श्रीकृ ष्ट्णचंद्र ने दोनों सेनाओ ं के बीच में भीष्ट्म और द्रोणाचायु के सामने
तथा सम्पणू ु रार्ाओ ं के सामने उत्तम रथ को खडा कर इस प्रकार कहा वक हे पाथु! यद्ध
ज के वलए र्टज े हुए इन कौरिों को देख॥24-25॥
तत्रापश्यवत्स्थतान्‌ पाथुः वपतृनथ वपतामहान्‌ ।
आचायाुतमातल
ज ातरातृतपत्रज ातपौत्रातसखींस्तथा ॥
श्वशरज ान्‌ सहृज दश्चैि सेनयोरुभयोरवप ।

भावार्थ : इसके बाद पृथापत्रज अर्ुनज ने उन दोनों ही सेनाओ ं में वस्थत ताऊ-चाचों को, दादों-परदादों को, गरुज ओ ं को, मामाओ ं को, भाइयों को,
पत्रज ों को, पौत्रों को तथा वमत्रों को, ससरज ों को और सहृज दों को भी देखा॥26 और 27िें का पूिाुधु॥

तातसमीक्ष्य स कौततेयः सिाुन्‌ बतधनू िवस्थतान्‌॥


कृ पया परयाविष्टो विषीदवत्रदमब्रिीत्‌।

भावार्थ : उन उपवस्थत सम्पणू ु बधं ओ


ज ं को देखकर िे कंज तीपत्रज अर्ुनज अत्यतत करुणा से यक्त
ज होकर शोक करते हुए यह िचन बोले। ॥27िें का
उत्तराधु और 28िें का पिू ाुधु॥

(मोह से व्याप्त हुए अर्ुनज के कायरता, स्नेह और शोकयक्त


ज िचन )

अर्ुनज उिाच
दृष्टेिमं स्िर्नं कृ ष्ट्ण ययज त्ज संज समपज वस्थतम्‌॥
सीदवतत मम गात्रावण मख
ज ं च पररशष्ट्ज यवत ।
िेपथश्चज शरीरे में रोमहषुश्च र्ायते ॥

भावार्थ : अर्ुनज बोले- हे कृ ष्ट्ण! यद्ध


ज क्षेत्र में डटे हुए यद्ध
ज के अवभलाषी इस स्िर्नसमदज ाय को देखकर मेरे अंग वशवथल हुए र्ा रहे हैं और
मख ू ा र्ा रहा है तथा मेरे शरीर में कम्प एिं रोमांच हो रहा है॥28िें का उत्तराधु और 29॥
ज सख

गाण्डीिं स्रंसते हस्तात्िक्चैि पररदह्यते ।


न च शक्नोम्यिस्थातुु रमतीि च मे मनः ॥

भावार्थ : हाथ से गांडीि धनषज वगर रहा है और त्िचा भी बहुत र्ल रही है तथा मेरा मन रवमत-सा हो रहा है, इसवलए मैं खडा रहने को भी
समथु नहीं ह॥ाँ 30॥

वनवमत्तावन च पश्यावम विपरीतावन के शि ।


न च श्रेयोऽनपज श्यावम हत्िा स्िर्नमाहिे ॥

भावार्थ : हे के शि! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हाँ तथा यद्ध
ज में स्िर्न-समदज ाय को मारकर कल्याण भी नहीं देखता॥31॥

न काङ्‌क्षे विर्यं कृ ष्ट्ण न च राजयं सख


ज ावन च ।
वकं नो राजयेन गोविदं वकं भोगैर्ीवितेन िा ॥
भावार्थ : हे कृ ष्ट्ण! मैं न तो विर्य चाहता हाँ और न राजय तथा सख
ज ों को ही। हे गोविंद! हमें ऐसे राजय से क्या प्रयोर्न है अथिा ऐसे भोगों से
और र्ीिन से भी क्या लाभ है?॥32॥

येषामथे काङवक्षतं नो राजयं भोगाः सख


ज ावन च ।
त इमेऽिवस्थता यद्ध
ज े प्राणांस्त्यक्त्िा धनावन च ॥

भावार्थ : हमें वर्नके वलए राजय, भोग और सख


ज ावद अभीष्ट हैं, िे ही ये सब धन और र्ीिन की आशा को त्यागकर यद्ध
ज में खडे हैं॥33॥

आचायाुः वपतरः पत्रज ास्तथैि च वपतामहाः ।


मातल
ज ाः श्वशरज ाः पौत्राः श्यालाः सबं वं धनस्तथा ॥

भावार्थ : गरुज र्न, ताऊ-चाचे, लडके और उसी प्रकार दादे, मामे, ससरज , पौत्र, साले तथा और भी सबं धं ी लोग हैं ॥34॥

एतातन हततवज मच्छावम घ्नतोऽवप मधसज दू न ।


अवप त्रैलोक्यराजयस्य हेतोः वकं नज महीकृ ते ॥

भावार्थ : हे मधसज दू न! मझज े मारने पर भी अथिा तीनों लोकों के राजय के वलए भी मैं इन सबको मारना नहीं चाहता, वफर पृर्थिी के वलए तो
कहना ही क्या है?॥35॥

वनहत्य धातुराष्ट्रातन का प्रीवतः स्याजर्नादुन ।


पापमेिाश्रयेदस्मान्‌हत्िैतानाततावयनः ॥

भावार्थ : हे र्नादुन! धृतराष्ट्र के पत्रज ों को मारकर हमें क्या प्रसतनता होगी? इन आततावययों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा॥36॥

तस्मातनाहाु ियं हततंज धातुराष्ट्रातस्िबातधिान्‌ ।


स्िर्नं वह कथं हत्िा सवज खनः स्याम माधि ॥

भावार्थ : अतएि हे माधि! अपने ही बातधि धृतराष्ट्र के पत्रज ों को मारने के वलए हम योग्य नहीं हैं क्योंवक अपने ही कजटजम्ब को मारकर हम
ज ी होंगे?॥37॥
कै से सख

यद्यप्येते न पश्यवतत लोभोपहतचेतसः ।


कजलक्षयकृ तं दोषं वमत्रद्रोहे च पातकम्‌॥
कथं न ञेयमस्मावभः पापादस्मावतनिवतुतमज ्‌ ।
कजलक्षयकृ तं दोषं प्रपश्यविर्ुनादुन ॥

भावार्थ : यद्यवप लोभ से रष्टवचत्त हुए ये लोग कजल के नाश से उत्पतन दोष को और वमत्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते, तो भी हे
र्नादुन! कजल के नाश से उत्पतन दोष को र्ानने िाले हम लोगों को इस पाप से हटने के वलए क्यों नहीं विचार करना चावहए?॥38-39॥

कजलक्षये प्रणश्यवतत कजलधमाुः सनातनाः ।


धमे नष्टे कजलं कृ त्स्नमधमोऽवभभित्यतज ॥

भावार्थ : कजल के नाश से सनातन कजल-धमु नष्ट हो र्ाते हैं तथा धमु का नाश हो र्ाने पर सम्पणू ु कजल में पाप भी बहुत फै ल र्ाता है॥40॥
अधमाुवभभिात्कृ ष्ट्ण प्रदष्ट्ज यवतत कजलवस्त्रयः ।
स्त्रीषज दष्टज ासज िाष्ट्णेय र्ायते िणुसंकरः ॥

भावार्थ : हे कृ ष्ट्ण! पाप के अवधक बढ़ र्ाने से कजल की वस्त्रयााँ अत्यतत दवू षत हो र्ाती हैु और हे िाष्ट्णेय! वस्त्रयों के दवू षत हो र्ाने पर
िणुसंकर उत्पतन होता है॥41॥

संकरो नरकायैि कजलघ्नानां कजलस्य च ।


पतवतत वपतरो ह्येषां लप्तज वपण्डोदकवक्रयाः ॥

भावार्थ : िणुसंकर कजलघावतयों को और कजल को नरक में ले र्ाने के वलए ही होता है। लप्तज हुई वपण्ड और र्ल की वक्रया िाले अथाुत श्राद्ध
और तपुण से िवं चत इनके वपतर लोग भी अधोगवत को प्राप्त होते हैं॥42॥

दोषैरेतैः कजलघ्नानां िणुसक


ं रकारकै ः ।
उत्साद्यतते र्ावतधमाुः कजलधमाुश्च शाश्वताः ॥

भावार्थ : इन िणुसंकरकारक दोषों से कजलघावतयों के सनातन कजल-धमु और र्ावत-धमु नष्ट हो र्ाते हैं॥43॥

उत्सतनकजलधमाुणां मनष्ट्ज याणां र्नादुन ।


नरके ऽवनयतं िासो भितीत्यनजशश्रज मज ॥

भावार्थ : हे र्नादुन! वर्नका कजल-धमु नष्ट हो गया है, ऐसे मनष्ट्ज यों का अवनवश्चतकाल तक नरक में िास होता है, ऐसा हम सनज ते आए
हैं॥44॥

अहो बत महत्पापं कतंज व्यिवसता ियम्‌।


यद्राजयसख
ज लोभेन हततंज स्िर्नमद्यज ताः ॥

भावार्थ : हा! शोक! हम लोग बवज द्धमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, र्ो राजय और सख
ज के लोभ से स्िर्नों को मारने के
वलए उद्यत हो गए हैं॥45॥

यवद मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।


धातुराष्ट्रा रणे हतयस्ज ततमे क्षेमतरं भिेत्‌॥

भावार्थ : यवद मझज शस्त्ररवहत एिं सामना न करने िाले को शस्त्र हाथ में वलए हुए धृतराष्ट्र के पत्रज रण में मार डालें तो िह मारना भी मेरे वलए
अवधक कल्याणकारक होगा॥46॥

सर्ं य उिाच
एिमक्ज त्िार्ुनज ः सङ्‌्ये रथोपस्थ उपाविशत्‌ ।
विसृजय सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥
भावार्थ : संर्य बोले- रणभवू म में शोक से उवद्वग्न मन िाले अर्ुनज इस प्रकार कहकर, बाणसवहत धनषज को त्यागकर रथ के वपछले भाग में बैठ
गए॥47॥

ॐ तत्सदिदत श्रीमद्भगवद्गीतासूपदिषत्सु ब्रह्मदवद्यायाां योगशास्त्रे


श्रीकृ ष्णार्थुिसांवािेऽर्थिु दवषाियोगो िाम प्रर्मोऽध्यायः। ॥1॥

End of Chapter 1 of Bhagavad Gita!

अथ वद्वतीयोऽध्यायः- सां्ययोग

( अर्ुनज की कायरता के विषय में श्री कृ ष्ट्णार्ुनज -संिाद )

संर्य उिाच
तं तथा कृ पयाविष्टमश्रपज णू ाुकजलेक्षणम्‌ ।
विषीदततवमदं िाक्यमिज ाच मधसज दू नः ॥

भावार्थ : सर्ं य बोले- उस प्रकार करुणा से व्याप्त और आाँसओ


ज ं से पणू ु तथा व्याकजल नेत्रों िाले शोकयक्त
ज उस अर्ुनज के प्रवत भगिान मधसज दू न
ने यह िचन कहा॥1॥

श्रीभगिानजिाच
कजतस्त्िा कश्मलवमदं विषमे समपज वस्थतम्‌ ।
अनायुर्ष्टज मस्िग्युमकीवतुकरमर्ुनज ।

भावार्थ : श्रीभगिान बोले- हे अर्ुनज ! तझज े इस असमय में यह मोह वकस हेतज से प्राप्त हुआ? क्योंवक न तो यह श्रेष्ठ परुज षों द्वारा आचररत है, न
स्िगु को देने िाला है और न कीवतु को करने िाला ही है॥2॥

क्लैब्यं मा स्म गमः पाथु नैतत्त्िय्यपज पद्यते ।


क्षद्रज ं हृदयदौबुल्यं त्यक्त्िोवत्तष्ठ परततप ॥
भावार्थ : इसवलए हे अर्ुनज ! नपंसज कता को मत प्राप्त हो, तझज में यह उवचत नहीं र्ान पडती। हे परंतप! हृदय की तच्ज छ दबज ुलता को त्यागकर
यद्ध
ज के वलए खडा हो र्ा॥3॥

अर्जुन उिाच
कथं भीष्ट्ममहं सङ्‌्ये द्रोणं च मधसज दू न ।
इषवज भः प्रवतयोत्स्यावम पर्ू ाहाुिररसदू न ॥

भावार्थ : अर्ुनज बोले- हे मधसज दू न! मैं रणभवू म में वकस प्रकार बाणों से भीष्ट्म वपतामह और द्रोणाचायु के विरुद्ध लडाँगा? क्योंवक हे अररसदू न!
िे दोनों ही पर्ू नीय हैं॥4॥

गरू
ज नहत्िा वह महानभज ािा-
ञ्ज्रेयो भोक्तंज भैक्ष्यमपीह लोके ।
हत्िाथुकामांस्तज गरू
ज वनहैि
भंर्ज ीय भोगान्‌रुवधरप्रवदग्धान्‌॥

भावार्थ : इसवलए इन महानभज ाि गरुज र्नों को न मारकर मैं इस लोक में वभक्षा का अतन भी खाना कल्याणकारक समझता हाँ क्योंवक गरुज र्नों को
मारकर भी इस लोक में रुवधर से सने हुए अथु और कामरूप भोगों को ही तो भोगाँगू ा॥5॥

न चैतवद्वद्मः कतरतनो गरीयो-


यद्वा र्येम यवद िा नो र्येयःज ।
यानेि हत्िा न वर्र्ीविषाम-
स्तेऽिवस्थताः प्रमजखे धातुराष्ट्राः ॥

भावार्थ : हम यह भी नहीं र्ानते वक हमारे वलए यद्ध


ज करना और न करना- इन दोनों में से कौन-सा श्रेष्ठ है, अथिा यह भी नहीं र्ानते वक उतहें
हम र्ीतेंगे या हमको िे र्ीतेंगे। और वर्नको मारकर हम र्ीना भी नहीं चाहते, िे ही हमारे आत्मीय धृतराष्ट्र के पत्रज हमारे मक
ज ाबले में खडे
हैं॥6॥

कापुण्यदोषोपहतस्िभािः
पृच्छावम त्िां धमुसम्मढू चेताः ।
यच्रे यः स्यावतनवश्चतं ब्रूवह ततमे
वशष्ट्यस्तेऽहं शावध मां त्िां प्रपतनम्‌॥

भावार्थ : इसवलए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्िभाि िाला तथा धमु के विषय में मोवहत वचत्त हुआ मैं आपसे पछू ता हाँ वक र्ो साधन
वनवश्चत कल्याणकारक हो, िह मेरे वलए कवहए क्योंवक मैं आपका वशष्ट्य हाँ, इसवलए आपके शरण हुए मझज को वशक्षा दीवर्ए॥7॥

न वह प्रपश्यावम ममापनद्यज ा-
द्यच्छोकमच्ज छोषणवमवतद्रयाणाम्‌ ।
अिाप्य भमू ािसपत्रमृद्धं-
राजयं सरज ाणामवप चावधपत्यम्‌॥

भावार्थ : क्योंवक भवू म में वनष्ट्कण्टक, धन-धातय सम्पतन राजय को और देिताओ ं के स्िामीपने को प्राप्त होकर भी मैं उस उपाय को नहीं देखता
ह,ाँ र्ो मेरी इवतद्रयों के सख
ज ाने िाले शोक को दरू कर सके ॥8॥

सर्ं य उिाच
एिमक्ज त्िा हृषीके शं गडज ाके शः परततप ।
न योत्स्य इवतगोवितदमक्ज त्िा तष्ट्ू णीं बभिू ह ॥

भावार्थ : संर्य बोले- हे रार्न्‌! वनद्रा को र्ीतने िाले अर्ुनज अंतयाुमी श्रीकृ ष्ट्ण महारार् के प्रवत इस प्रकार कहकर वफर श्री गोविंद भगिान्‌से
'यद्ध
ज नहीं करूाँगा' यह स्पष्ट कहकर चपज हो गए॥9॥

तमिज ाच हृषीके शः प्रहसवतनि भारत ।


सेनयोरुभयोमुध्ये विषीदतं वमदं िचु ॥

भावार्थ : हे भरतिंशी धृतराष्ट्र! अंतयाुमी श्रीकृ ष्ट्ण महारार् दोनों सेनाओ ं के बीच में शोक करते हुए उस अर्ुनज को हाँसते हुए से यह िचन
बोले॥10॥

( सां्ययोग का विषय )

श्री भगिानजिाच
अशोच्यानतिशोचस्त्िं प्रञािादांश्च भाषसे ।
गतासनू गतासंश्च
ू नानश
ज ोचवतत पवण्डताः ॥

भावार्थ : श्री भगिान बोले, हे अर्ुनज ! तू न शोक करने योग्य मनष्ट्ज यों के वलए शोक करता है और पवण्डतों के से िचनों को कहता है, परततज
वर्नके प्राण चले गए हैं, उनके वलए और वर्नके प्राण नहीं गए हैं उनके वलए भी पवण्डतर्न शोक नहीं करते॥11॥

न त्िेिाहं र्ातज नासं न त्िं नेमे र्नावधपाः ।


न चैि न भविष्ट्यामः सिे ियमतः परम्‌ ॥

भावार्थ : न तो ऐसा ही है वक मैं वकसी काल में नहीं था, तू नहीं था अथिा ये रार्ा लोग नहीं थे और न ऐसा ही है वक इससे आगे हम सब
नहीं रहेंगे॥12॥
देवहनोऽवस्मतयथा देहे कौमारं यौिनं र्रा ।
तथा देहाततरप्रावप्तधीरस्तत्र न मह्य
ज वत ॥

भावार्थ : र्ैसे र्ीिात्मा की इस देह में बालकपन, र्िानी और िृद्धािस्था होती है, िैसे ही अतय शरीर की प्रावप्त होती है, उस विषय में धीर
परुज ष मोवहत नहीं होता।13॥

मात्रास्पशाुस्तज कौततेय शीतोष्ट्णसख


ज दःज खदाः ।
आगमापावयनोऽवनत्यास्तावं स्तवतक्षस्ि भारत ॥

भावार्थ : हे कंज तीपत्रज ! सदी-गमी और सख


ज -दःज ख को देने िाले इवतद्रय और विषयों के सयं ोग तो उत्पवत्त-विनाशशील और अवनत्य हैं, इसवलए
हे भारत! उनको तू सहन कर॥14॥

यं वह न व्यथयतत्येते परुज षं परुज षषुभ ।


समदःज खसख
ज ं धीरं सोऽमृतत्िाय कल्पते ॥

भावार्थ : क्योंवक हे परुज षश्रेष्ठ! दःज ख-सख


ज को समान समझने िाले वर्स धीर परुज ष को ये इवतद्रय और विषयों के संयोग व्याकजल नहीं करते, िह
मोक्ष के योग्य होता है॥15॥

नासतो विद्यते भािो नाभािो विद्यते सतः ।


उभयोरवप दृष्टोऽततस्त्िनयोस्तत्िदवशुवभः ॥

भावार्थ : असत्‌ िस्तज की तो सत्ता नहीं है और सत्‌का अभाि नहीं है। इस प्रकार इन दोनोु का ही तत्ि तत्िञानी परुज षों द्वारा देखा गया
है॥16॥

अविनावश तज तवद्ववद्ध येन सिुवमदं ततम्‌।


विनाशमव्ययस्यास्य न कवश्चत्कतुमज हुवत ॥

भावार्थ : नाशरवहत तो तू उसको र्ान, वर्ससे यह सम्पणू ु र्गत्‌- दृश्यिगु व्याप्त है। इस अविनाशी का विनाश करने में कोई भी समथु नहीं
है॥17॥

अततितत इमे देहा वनत्यस्योक्ताः शरीररणः ।


अनावशनोऽप्रमेयस्य तस्माद्यध्ज यस्ि भारत ॥

भावार्थ : इस नाशरवहत, अप्रमेय, वनत्यस्िरूप र्ीिात्मा के ये सब शरीर नाशिान कहे गए हैं, इसवलए हे भरतिंशी अर्ुनज ! तू यजद्ध कर॥18॥

य एनं िेवत्त हततारं यश्चैनं मतयते हतम्‌ ।


उभौ तौ न विर्ानीतो नायं हवतत न हतयते ॥

भावार्थ : र्ो इस आत्मा को मारने िाला समझता है तथा र्ो इसको मरा मानता है, िे दोनों ही नहीं र्ानते क्योंवक यह आत्मा िास्ति में न तो
वकसी को मारता है और न वकसी द्वारा मारा र्ाता है॥19॥
न र्ायते वियते िा कदाचिु-
तनायं भत्ू िा भविता िा न भयू ः ।
अर्ो वनत्यः शाश्वतोऽयं पजराणो-
न हतयते हतयमाने शरीरे ॥

भावार्थ : यह आत्मा वकसी काल में भी न तो र्तमता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पतन होकर वफर होने िाला ही है क्योंवक यह
अर्तमा, वनत्य, सनातन और परज ातन है, शरीर के मारु र्ाने पर भी यह नहीं मारा र्ाता॥20॥

िेदाविनावशनं वनत्यं य एनमर्मव्ययम्‌ ।


कथं स परुज षः पाथु कं घातयवत हवतत कम्‌॥

भावार्थ : हे पृथापत्रज अर्ुनज ! र्ो परुज ष इस आत्मा को नाशरवहत, वनत्य, अर्तमा और अव्यय र्ानता है, िह परुज ष कै से वकसको मरिाता है
और कै से वकसको मारता है?॥21॥

िासांवस र्ीणाुवन यथा विहाय


निावन गृह्णावत नरोऽपरावण ।
तथा शरीरावण विहाय र्ीणाु-
तयतयावन संयावत निावन देही ॥

भावार्थ : र्ैसे मनष्ट्ज य पजराने िस्त्रों को त्यागकर दसू रे नए िस्त्रों को ग्रहण करता है, िैसे ही र्ीिात्मा परज ाने शरीरों को त्यागकर दसू रे नए शरीरों
को प्राप्त होता है॥22॥

नैनं वछतदवतत शस्त्रावण नैनं दहवत पािकः ।


न चैनं क्लेदयतत्यापो न शोषयवत मारुतः ॥

भावार्थ : इस आत्मा को शस्त्र नहीं काट सकते, इसको आग नहीं र्ला सकती, इसको र्ल नहीं गला सकता और िायज नहीं सख
ज ा
सकता॥23॥

अच्छे द्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्ट्य एि च ।
वनत्यः सिुगतः स्थाणरज चलोऽयं सनातनः ॥

भावार्थ : क्योंवक यह आत्मा अच्छे द्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और वनःसंदहे अशोष्ट्य है तथा यह आत्मा वनत्य, सिुव्यापी, अचल,
वस्थर रहने िाला और सनातन है॥24॥

अव्यक्तोऽयमवचतत्योऽयमविकायोऽयमच्ज यते ।
तस्मादेिं विवदत्िैनं नानश
ज ोवचतमज हुवस॥॥
भावार्थ : यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अवचतत्य है और यह आत्मा विकाररवहत कहा र्ाता है। इससे हे अर्ुनज ! इस आत्मा को उपयुक्त

प्रकार से र्ानकर तू शोक करने के योग्य नहीं है अथाुत्‌ तझज े शोक करना उवचत नहीं है॥25॥

अथ चैनं वनत्यर्ातं वनत्यं िा मतयसे मृतम्‌।


तथावप त्िं महाबाहो नैिं शोवचतजमहुवस ॥

भावार्थ : वकततज यवद तू इस आत्मा को सदा र्तमने िाला तथा सदा मरने िाला मानता हो, तो भी हे महाबाहो! तू इस प्रकार शोक करने योग्य
नहीं है॥26॥

र्ातस्त वह ध्रिज ो मृत्यध्रज ुिज ं र्तम मृतस्य च ।


तस्मादपररहायेऽथे न त्िं शोवचतमज हुवस ॥

भावार्थ : क्योंवक इस मातयता के अनसज ार र्तमे हुए की मृत्यज वनवश्चत है और मरे हुए का र्तम वनवश्चत है। इससे भी इस वबना उपाय िाले विषय
में तू शोक करने योग्य नहीं है॥27॥

अव्यक्तादीवन भतू ावन व्यक्तमध्यानिु भारत ।


अव्यक्तवनधनातयेि तत्र का पररदेिना ॥

भावार्थ : हे अर्ुनज ! सम्पणू ु प्राणी र्तम से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो र्ाने िाले हैं, के िल बीच में ही प्रकट हैं, वफर
ऐसी वस्थवत में क्या शोक करना है?॥28॥

आश्चयुित्पश्यवत कवश्चदेन-
माश्चयुिद्वदवत तथैि चातयः ।
आश्चयुिच्चैनमतयः श्रृणोवत
श्रत्ज िाप्येनं िेद न चैि कवश्चत्‌॥

भावार्थ : कोई एक महापरुज ष ही इस आत्मा को आश्चयु की भााँवत देखता है और िैसे ही दसू रा कोई महापरुज ष ही इसके तत्ि का आश्चयु की
भााँवत िणुन करता है तथा दसू रा कोई अवधकारी परुज ष ही इसे आश्चयु की भााँवत सजनता है और कोई-कोई तो सनज कर भी इसको नहीं
र्ानता॥29॥

देही वनत्यमिध्योऽयं देहे सिुस्य भारत ।


तस्मात्सिाुवण भतू ावन न त्िं शोवचतमज हुवस ॥

भावार्थ : हे अर्ुनज ! यह आत्मा सबके शरीर में सदा ही अिध्य (वर्सका िध नहीं वकया र्ा सके ) है। इस कारण सम्पणू ु प्रावणयों के वलए तू
शोक करने योग्य नहीं है॥30॥

( क्षवत्रय धमु के अनसज ार यद्ध


ज करने की आिश्यकता का वनरूपण )
स्िधमुमवप चािेक्ष्य न विकवम्पतमज हुवस ।
धम्याुवद्ध यद्ध
ज ाच्रे योऽतयत्क्षवत्रयस्य न विद्यते ॥
भावार्थ : तथा अपने धमु को देखकर भी तू भय करने योग्य नहीं है अथाुत्‌तझज े भय नहीं करना चावहए क्योंवक क्षवत्रय के वलए धमुयक्त
ज यद्ध
ज से
बढ़कर दसू रा कोई कल्याणकारी कतुव्य नहीं है॥31॥

यदृच्छया चोपपतनां स्िगुद्वारमपािृतम्‌ ।


सवज खनः क्षवत्रयाः पाथु लभतते यद्ध
ज मीदृशम्‌॥

भावार्थ : हे पाथु! अपने-आप प्राप्त हुए और खल ज को भाग्यिान क्षवत्रय लोग ही पाते हैं॥32॥
ज े हुए स्िगु के द्वार रूप इस प्रकार के यद्ध

अथ चेत्त्िवममं धम्यं सङ्‌ग्रामं न कररष्ट्यवस ।


ततः स्िधमं कीवतं च वहत्िा पापमिाप्स्यवस ॥

भावार्थ : वकततज यवद तू इस धमुयक्त


ज यद्ध
ज को नहीं करे गा तो स्िधमु और कीवतु को खोकर पाप को प्राप्त होगा ॥33॥

अकीवतं चावप भतू ावन


कथवयष्ट्यवतत तेऽव्ययाम्‌ ।
सम्भावितस्य चाकीवतु-
मुरणादवतररच्यते ॥

भावार्थ : तथा सब लोग तेरी बहुत काल तक रहने िाली अपकीवतु का भी कथन करें गे और माननीय परुज ष के वलए अपकीतुिु मरण से भी
बढ़कर है॥34॥

भयाद्रणादपज रतं मंस्यतते त्िां महारथाः ।


येषां च त्िं बहुमतो भत्ू िा यास्यवस लाघिम्‌ ॥

भावार्थ : इऔर वर्नकी दृवष्ट में तू पहले बहुत सम्मावनत होकर अब लघतज ा को प्राप्त होगा, िे महारथी लोग तझज े भय के कारण यद्ध
ज से हटा
हुआ मानेंगे॥35॥

अिाच्यिादांश्च बहन्‌िवदष्ट्यवतत तिावहताः ।


वनतदततस्ति सामर्थयं ततो दःज खतरं नज वकम्‌॥

भावार्थ : तेरे िैरी लोग तेरे सामर्थयु की वनंदा करते हुए तझज े बहुत से न कहने योग्य िचन भी कहेंगे, उससे अवधक दःज ख और क्या होगा?॥36॥

हतो िा प्राप्स्यवस स्िगं वर्त्िा िा भोक्ष्यसे महीम्‌।


तस्मादवज त्तष्ठ कौततेय यजद्धाय कृ तवनश्चयः ॥

भावार्थ : या तो तू यद्ध
ज में मारा र्ाकर स्िगु को प्राप्त होगा अथिा संग्राम में र्ीतकर पृर्थिी का राजय भोगेगा। इस कारण हे अर्ुनज ! तू यद्ध
ज के
वलए वनश्चय करके खडा हो र्ा॥37॥

सख
ज दःज खे समे कृ त्िा लाभालाभौ र्यार्यौ ।
ततो यद्ध
ज ाय यजज यस्ि नैिं पापमिाप्स्यवस ॥
भावार्थ : र्य-परार्य, लाभ-हावन और सख
ज -दख
ज को समान समझकर, उसके बाद यद्ध
ज के वलए तैयार हो र्ा, इस प्रकार यद्ध
ज करने से तू पाप
को नहीं प्राप्त होगा॥38॥

( कमुयोग का विषय )
एषु तेऽवभवहता साङ्‌्ये बवज द्धयोगे वत्िमां श्रृणज ।
बद्ध
ज ्‌या यक्त
ज ो यया पाथु कमुबतधं प्रहास्यवस ॥

भावार्थ : हे पाथु! यह बवज द्ध तेरे वलए ञानयोग के विषय में कही गई और अब तू इसको कमुयोग के (अध्याय 3 श्लोक 3 की वटप्पणी में
इसका विस्तार देखें।) विषय मेु सनज - वर्स बवज द्ध से यक्त
ज हुआ तू कमों के बंधन को भली-भााँवत त्याग देगा अथाुत सिुथा नष्ट कर
डालेगा॥39॥

यनेहावभक्रमनाशोऽवस्त प्रत्यिातो न विद्यते ।


स्िल्पमप्यस्य धमुस्य त्रायते महतो भयात्‌॥

भावार्थ : इस कमुयोग में आरंभ का अथाुत बीर् का नाश नहीं है और उलटा फलरूप दोष भी नहीं है, बवल्क इस कमुयोग रूप धमु का थोडा-
सा भी साधन र्तम-मृत्यज रूप महान भय से रक्षा कर लेता है॥40॥

व्यिसायावत्मका बवज द्धरे केह कजरुनतदन ।


बहुशाका ह्यनतताश्च बद्ध
ज योऽव्यिसावयनाम्‌ ॥

भावार्थ : हे अर्ुनज ! इस कमुयोग में वनश्चयावत्मका बवज द्ध एक ही होती है, वकततज अवस्थर विचार िाले वििेकहीन सकाम मनष्ट्ज यों की बवज द्धयााँ
वनश्चय ही बहुत भेदों िाली और अनतत होती हैं॥41॥

यावममां पवज ष्ट्पतां िाचं प्रिदतत्यविपवश्चतः ।


िेदिादरताः पाथु नातयदस्तीवत िावदनः ॥
कामात्मानः स्िगुपरा र्तमकमुफलप्रदाम्‌ ।
वक्रयाविश्ले षबहुलां भोगैश्वयुगवतं प्रवत ॥
भोगैश्वयुप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्‌।
व्यिसायावत्मका बवज द्धः समाधौ न विधीयते ॥

भावार्थ : हे अर्ुनज ! र्ो भोगों में ततमय हो रहे हैं, र्ो कमुफल के प्रशंसक िेदिाक्यों में ही प्रीवत रखते हैं, वर्नकी बवज द्ध में स्िगु ही परम प्राप्य
िस्तज है और र्ो स्िगु से बढ़कर दसू री कोई िस्तज ही नहीं है- ऐसा कहने िाले हैं, िे अवििेकीर्न इस प्रकार की वर्स पवज ष्ट्पत अथाुत्‌वदखाऊ
ज िाणी को कहा करते हैं, र्ो वक र्तमरूप कमुफल देने िाली एिं भोग तथा ऐश्वयु की प्रावप्त के वलए नाना प्रकार की बहुत-सी
शोभायक्त
वक्रयाओ ं का िणुन करने िाली है, उस िाणी द्वारा वर्नका वचत्त हर वलया गया है, र्ो भोग और ऐश्वयु में अत्यतत आसक्त हैं, उन परुज षों की
परमात्मा में वनवश्चयावत्मका बवज द्ध नहीं होती॥42-44॥
त्रैगण्ज यविषया िेदा वनस्त्रैगण्ज यो भिार्ुनज ।
वनद्वुतद्वो वनत्यसत्िस्थो वनयोगक्षेम आत्मिान्‌॥

भावार्थ : हे अर्ुनज ! िेद उपयुक्त


ज प्रकार से तीनों गणज ों के कायु रूप समस्त भोगों एिं उनके साधनों का प्रवतपादन करने िाले हैं, इसवलए तू उन
भोगों एिं उनके साधनों में आसवक्तहीन, हषु-शोकावद द्वंद्वों से रवहत, वनत्यिस्तज परमात्मा में वस्थत योग (अप्राप्त की प्रावप्त का नाम 'योग' है।)
क्षेम (प्राप्त िस्तज की रक्षा का नाम 'क्षेम' है।) को न चाहने िाला और स्िाधीन अततःकरण िाला हो॥45॥

यािानथु उदपाने सिुतः सम्प्लजतोदके ।


तािातसिेषज िेदषे ज ब्राह्मणस्य विर्ानतः ॥

भावार्थ : सब ओर से पररपणू ु र्लाशय के प्राप्त हो र्ाने पर छोटे र्लाशय में मनष्ट्ज य का वर्तना प्रयोर्न रहता है, ब्रह्म को तत्ि से र्ानने िाले
ब्राह्मण का समस्त िेदों में उतना ही प्रयोर्न रह र्ाता है॥46॥

कमुण्येिावधकारस्ते मा फलेषज कदाचन ।


मा कमुफलहेतभज ुमज ाु ते संगोऽस्त्िकमुवण ॥

भावार्थ : तेरा कमु करने में ही अवधकार है, उसके फलों में कभी नहीं। इसवलए तू कमों के फल हेतज मत हो तथा तेरी कमु न करने में भी
आसवक्त न हो॥47॥

योगस्थः कजरु कमाुवण संग त्यक्त्िा धनंर्य ।


वसद्धयवसद्धयोः समो भत्ू िा समत्िं योग उच्यते ॥

भावार्थ : हे धनंर्य! तू आसवक्त को त्यागकर तथा वसवद्ध और अवसवद्ध में समान बवज द्धिाला होकर योग में वस्थत हुआ कतुव्य कमों को कर,
समत्ि (र्ो कजछ भी कमु वकया र्ाए, उसके पणू ु होने और न होने में तथा उसके फल में समभाि रहने का नाम 'समत्ि' है।) ही योग कहलाता
है॥48॥

दरू े ण ह्यिरं कमु बवज द्धयोगाद्धनर्ं य ।


बद्ध
ज ौ शरणमवतिच्छ कृ पणाः फलहेतिः ॥

भावार्थ : इस समत्िरूप बवज द्धयोग से सकाम कमु अत्यतत ही वनम्न श्रेणी का है। इसवलए हे धनंर्य! तू समबवज द्ध में ही रक्षा का उपाय ढूाँढ
अथाुत्‌बवज द्धयोग का ही आश्रय ग्रहण कर क्योंवक फल के हेतज बनने िाले अत्यतत दीन हैं॥49॥

बवज द्धयक्त
ज ो र्हातीह उभे सक
ज ृ तदष्ट्ज कृते ।
तस्माद्योगाय यजज यस्ि योगः कमुसज कौशलम्‌ ॥

भावार्थ : समबवज द्धयक्त


ज परुज ष पजण्य और पाप दोनों को इसी लोक में त्याग देता है अथाुत उनसे मक्त
ज हो र्ाता है। इससे तू समत्ि रूप योग में लग
र्ा, यह समत्ि रूप योग ही कमों में कजशलता है अथाुत कमुबंध से छूटने का उपाय है॥50॥

कमुर्ं बवज द्धयक्त


ज ा वह फलं त्यक्त्िा मनीवषणः ।
र्तमबतधविवनमुक्त
ज ाः पदं गच्छतत्यनामयम्‌॥
भावार्थ : क्योंवक समबवज द्ध से यक्त
ज ञानीर्न कमों से उत्पतन होने िाले फल को त्यागकर र्तमरूप बंधन से मक्त
ज हो वनविुकार परम पद को प्राप्त
हो र्ाते हैं॥51॥

यदा ते मोहकवललं बवज द्धव्युवततररष्ट्यवत ।


तदा गततावस वनिेदं श्रोतव्यस्य श्रतज स्य च ॥

भावार्थ : वर्स काल में तेरी बवज द्ध मोहरूपी दलदल को भलीभााँवत पार कर र्ाएगी, उस समय तू सनज े हुए और सनज नु में आने िाले इस लोक
और परलोक संबंधी सभी भोगों से िैराग्य को प्राप्त हो र्ाएगा॥52॥

श्रवज तविप्रवतपतना ते यदा स्थास्यवत वनश्चला ।


समाधािचला बवज द्धस्तदा योगमिाप्स्यवस ॥

भावार्थ : भााँवत-भााँवत के िचनों को सनज ने से विचवलत हुई तेरी बवज द्ध र्ब परमात्मा में अचल और वस्थर ठहर र्ाएगी, तब तू योग को प्राप्त हो
र्ाएगा अथाुत तेरा परमात्मा से वनत्य संयोग हो र्ाएगा॥53॥

( वस्थरबवज द्ध परुज ष के लक्षण और उसकी मवहमा )

अर्जुन उिाच
वस्थतप्रञस्य का भाषा समावधस्थस्य के शि ।
वस्थतधीः वकं प्रभाषेत वकमासीत व्रर्ेत वकम्‌॥

भावार्थ : अर्ुनज बोले- हे के शि! समावध में वस्थत परमात्मा को प्राप्त हुए वस्थरबजवद्ध परुज ष का क्या लक्षण है? िह वस्थरबवज द्ध परुज ष कै से बोलता
है, कै से बैठता है और कै से चलता है?॥54॥

श्रीभगिानजिाच
प्रर्हावत यदा कामान्‌सिाुतपाथु मनोगतान्‌ ।
आत्मयेिात्मना तष्टज ः वस्थतप्रञस्तदोच्यते ॥

भावार्थ : श्री भगिान्‌ बोले- हे अर्ुनज ! वर्स काल में यह परुज ष मन में वस्थत सम्पणू ु कामनाओ ं को भलीभााँवत त्याग देता है और आत्मा से
आत्मा में ही संतष्टज रहता है, उस काल में िह वस्थतप्रञ कहा र्ाता है॥55॥

दःज खेष्ट्िनवज द्वग्नमनाः सजखेषज विगतस्पृहः ।


िीतरागभयक्रोधः वस्थतधीमुवज नरुच्यते ॥
भावार्थ : दःज खों की प्रावप्त होने पर वर्सके मन में उद्वेग नहीं होता, सख
ज ों की प्रावप्त में सिुथा वनःस्पृह है तथा वर्सके राग, भय और क्रोध नष्ट
हो गए हैं, ऐसा मवज न वस्थरबवज द्ध कहा र्ाता है॥56॥

यः सिुत्रानवभस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शभज ाशभज म्‌।


नावभनंदवत न द्वेवष्ट तस्य प्रञा प्रवतवष्ठता ॥

भावार्थ : र्ो परुज ष सिुत्र स्नेहरवहत हुआ उस-उस शभज या अशभज िस्तज को प्राप्त होकर न प्रसतन होता है और न द्वेष करता है, उसकी बवज द्ध
वस्थर है॥57॥

यदा संहरते चायं कूमोऽङगनीि सिुशः ।


इवतद्रयाणीवतद्रयाथेभ्यस्तस्य प्रञा प्रवतवष्ठता ॥

भावार्थ : और कछजिा सब ओर से अपने अगं ों को र्ैसे समेट लेता है, िैसे ही र्ब यह परुज ष इवतद्रयों के विषयों से इवतद्रयों को सब प्रकार से
हटा लेता है, तब उसकी बवज द्ध वस्थर है (ऐसा समझना चावहए)॥58॥

विषया विवनितुतते वनराहारस्य देवहनः ।


रसिर्ं रसोऽप्यस्य परं दृष्टिा वनितुते ॥

भावार्थ : इवतद्रयों द्वारा विषयों को ग्रहण न करने िाले परुज ष के भी के िल विषय तो वनिृत्त हो र्ाते हैं, परततज उनमें रहने िाली आसवक्त वनिृत्त
नहीं होती। इस वस्थतप्रञ परुज ष की तो आसवक्त भी परमात्मा का साक्षात्कार करके वनिृत्त हो र्ाती है॥59॥

यततो ह्यवप कौततेय परुज षस्य विपवश्चतः ।


इवतद्रयावण प्रमाथीवन हरवतत प्रसभं मनः ॥

भावार्थ : हे अर्ुनज ! आसवक्त का नाश न होने के कारण ये प्रमथन स्िभाि िाली इवतद्रयााँ यत्न करते हुए बवज द्धमान परुज ष के मन को भी बलात्‌
हर लेती हैं॥60॥

तावन सिाुवण सयं म्य यक्त


ज आसीत मत्परः ।
िशे वह यस्येवतद्रयावण तस्य प्रञा प्रवतवष्ठता ॥

भावार्थ : इसवलए साधक को चावहए वक िह उन सम्पणू ु इवतद्रयों को िश में करके समावहत वचत्त हुआ मेरे परायण होकर ध्यान में बैठे क्योंवक
वर्स परुज ष की इवतद्रयााँ िश में होती हैं, उसी की बवज द्ध वस्थर हो र्ाती है॥61॥

ध्यायतो विषयातपंसज ः संगस्तेषपू र्ायते ।


संगात्संर्ायते कामः कामात्क्रोधोऽवभर्ायते ॥

भावार्थ : विषयों का वचततन करने िाले परुज ष की उन विषयों में आसवक्त हो र्ाती है, आसवक्त से उन विषयों की कामना उत्पतन होती है और
कामना में विघ्न पडने से क्रोध उत्पतन होता है॥62॥

क्रोधाद्‌भिवत सम्मोहः सम्मोहात्स्मृवतविरमः ।


स्मृवतरश
ं ाद बवज द्धनाशो बवज द्धनाशात्प्रणश्यवत ॥
भावार्थ : क्रोध से अत्यतत मढ़ू भाि उत्पतन हो र्ाता है, मढ़ू भाि से स्मृवत में रम हो र्ाता है, स्मृवत में रम हो र्ाने से बवज द्ध अथाुत ञानशवक्त
का नाश हो र्ाता है और बवज द्ध का नाश हो र्ाने से यह परुज ष अपनी वस्थवत से वगर र्ाता है॥63॥

रागद्वेषवियक्त
ज ै स्तज विषयावनवतद्रयैश्चरन्‌ ।
आत्मिश्यैविुधेयात्मा प्रसादमवधगच्छवत ॥

भावार्थ : परंततज अपने अधीन वकए हुए अततःकरण िाला साधक अपने िश में की हुई, राग-द्वेष रवहत इवतद्रयों द्वारा विषयों में विचरण करता
हुआ अततःकरण की प्रसतनता को प्राप्त होता है॥64॥

प्रसादे सिुदःज खानां हावनरस्योपर्ायते ।


प्रसतनचेतसो ह्याशज बवज द्धः पयुिवतष्ठते ॥

भावार्थ : अततःकरण की प्रसतनता होने पर इसके सम्पणू ु दःज खों का अभाि हो र्ाता है और उस प्रसतनवचत्त िाले कमुयोगी की बवज द्ध शीघ्र ही
सब ओर से हटकर एक परमात्मा में ही भलीभााँवत वस्थर हो र्ाती है॥65॥

नावस्त बवज द्धरयक्त


ज स्य न चायक्त
ज स्य भािना ।
न चाभाियतः शावततरशाततस्य कजतः सख
ज म्‌॥

भावार्थ : न र्ीते हुए मन और इवतद्रयों िाले परुज ष में वनश्चयावत्मका बवज द्ध नहीं होती और उस अयक्त
ज मनष्ट्ज य के अततःकरण में भािना भी नहीं
ज कै से वमल सकता है?॥66॥
होती तथा भािनाहीन मनष्ट्ज य को शावतत नहीं वमलती और शावततरवहत मनष्ट्ज य को सख

इवतद्रयाणां वह चरतां यतमनोऽनवज िधीयते ।


तदस्य हरवत प्रञां िायनज ाुिवमिाम्भवस ॥

भावार्थ : क्योंवक र्ैसे र्ल में चलने िाली नाि को िायज हर लेती है, िैसे ही विषयों में विचरती हुई इवतद्रयों में से मन वर्स इवतद्रय के साथ
रहता है, िह एक ही इवतद्रय इस अयक्त
ज परुज ष कु बवज द्ध को हर लेती है॥67॥

तस्माद्यस्य महाबाहो वनगृहीतावन सिुशः ।


इवतद्रयाणीवतद्रयाथेभ्यस्तस्य प्रञा प्रवतवष्ठता ॥

भावार्थ : इसवलए हे महाबाहो! वर्स परुज ष की इवतद्रयााँ इवतद्रयों के विषयों में सब प्रकार वनग्रह की हुई हैं, उसी की बवज द्ध वस्थर है॥68॥

या वनशा सिुभूतानां तस्यां र्ागवतु संयमी ।


यस्यां र्ाग्रवत भूतावन सा वनशा पश्यतो मनज ेः ॥

भावार्थ : सम्पणू ु प्रावणयों के वलए र्ो रावत्र के समान है, उस वनत्य ञानस्िरूप परमानतद की प्रावप्त में वस्थतप्रञ योगी र्ागता है और वर्स
ज की प्रावप्त में सब प्राणी र्ागते हैं, परमात्मा के तत्ि को र्ानने िाले मवज न के वलए िह रावत्र के समान है॥69॥
नाशिान सांसाररक सख

आपयू ुमाणमचलप्रवतष्ठं-
समद्रज मापः प्रविशवतत यद्वत्‌।
तद्वत्कामा यं प्रविशवतत सिे
स शावततमाप्नोवत न कामकामी ॥
भावार्थ : र्ैसे नाना नवदयों के र्ल सब ओर से पररपणू ु, अचल प्रवतष्ठा िाले समद्रज में उसको विचवलत न करते हुए ही समा र्ाते हैं, िैसे ही
सब भोग वर्स वस्थतप्रञ परुज ष में वकसी प्रकार का विकार उत्पतन वकए वबना ही समा र्ाते हैं, िही परुज ष परम शावतत को प्राप्त होता है, भोगों को
चाहने िाला नहीं॥70॥

विहाय कामातयः सिाुतपमज ांश्चरवत वनःस्पृहः ।


वनमुमो वनरहक
ं ारः स शावततमवधगच्छवत ॥

भावार्थ : र्ो परुज ष सम्पणू ु कामनाओ ं को त्याग कर ममतारवहत, अहंकाररवहत और स्पृहारवहत हुआ विचरता है, िही शांवत को प्राप्त होता है
अथाुत िह शावतत को प्राप्त है॥71॥

एषा ब्राह्मी वस्थवतः पाथु नैनां प्राप्य विमह्य


ज वत ।
वस्थत्िास्यामततकालेऽवप ब्रह्मवनिाुणमृच्छवत ॥

भावार्थ : हे अर्ुनज ! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए परुज ष की वस्थवत है, इसको प्राप्त होकर योगी कभी मोवहत नहीं होता और अंतकाल में भी इस ब्राह्मी
वस्थवत में वस्थत होकर ब्रह्मानतद कु प्राप्त हो र्ाता है॥72॥

ॐ तत्सदिदत श्रीमद्भगवद्गीतासूपदिषत्सु ब्रह्मदवद्यायाां योगशास्त्रे


श्रीकृ ष्णार्थिु सांवािे साांख्ययोगो िाम दितीयोऽध्यायः ॥2॥

End of Chapter 2 of Bhagavad Gita!

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