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श्रीकालिकाष्टकम्
श्रीकालिकाष्टकम्
Kali Ashtakam
by
Adi Shankaracharya
ध्यानम्
ध्यान
ये भगवती कावलका गलेमें रक्त टपकते हुए मुण्डसमूहोंकी माला पहने हुए हैं , ये अत्यन्त घोर
शब्द कर रही हैं , इनकी सुन्दर दाढें हैं तथा स्वरुप भयानक है , ये वस्त्ररवहत हैं ये श्मशानमें
वनवास करती हैं , इनके केश विखरे हुए हैं और ये महाकालके साथ कामलीलामें वनरत हैं ॥१॥
ये अपने दोनों दावहने हाथोंमें नरमुण्ड और खड् ग वलये हुई हैं तथा अपने दोनों दावहने हाथोंमें
वर और अभयमुद्रा धारण वकये हुई हैं । ये सु न्दर कवटप्रदे शवाली है , ये उन्नत स्तनोंके भारसे
झुकी हुईसी हैं इनके ओष्ठ द्वयका प्रान्त भाग रक्तसे सुशोवभत है और इनका मुख-मण्डल
मधुर मुस्कानसे युक्त है ॥२॥
इनके दोनों कानोंमें दो शवरूपी आभूषण हैं , ये सुन्दर केशवाली हैं , शवोंके िनी सुशोवभत
करधनी ये पहने हुई हैं , शवरूपी मंचपर ये आसीन हैं और चारों वदशाओंमें भयानक शब्द
करती हुई वसयाररनोंसे वघरी हुई सुशोवभत हैं ॥३॥
स्तुलि:
स्तुवत
ब्रह्मा आवद तीनों दे वता आपके तीनों गुणोंका आश्रय लेकर तथा आप भगवती कालीकी ही
आराधना कर प्रधान हुए हैं ।आपका स्वरूप आवदसवहत है , दे वताओंमें अग्रगण्य है प्रधान
यज्ञस्वरूप है और ववश्वका मूलभूत है ; आपके इस स्वरूपको दे वता भी नवहं जानते ॥४॥
ये स्वगाको दे नेवाली हैं और कल्पलताके समान हैं । ये भक्तोंके मनमें उत्पन्न होनेवाली
कामनाऔंको यथाथारूपमें पूणा करती हैं । और वे सदाके वलये कृताथा हो जाते हैं ; आपके इस
स्वरूपको दे वता भी नहीं जानते ॥६॥
आप सुरापनसे मत्त रहती हैं और अपने भक्तोंपर सदा स्नेह रखती हैं । भक्तोंके मनोहर तथा
पववत्र हृदयमें ही सदा आपका आववभाा व होता है । जप, ध्यान तथा पूजारूपी अमृतसे आप
भक्तोंके अज्ञानरूपी पंकको धो डालनेवाली हैं , आपके इस स्वरूपको दे वता भी नहीं जानते
॥७॥
आपके ध्यानसे पववत्र होकर चंचलतावश इस अत्यन्त गुप्तभावको जो मैंने संसारमें प्रकट कर
वदया है , मेरे इस अपराधको आप क्षमा करें , आपके इस स्वरूपको दे वता भी नहीं जानते ॥१०॥
फिश्रुलि:
फलश्रुवत
यवद ध्यानयुक्तं पठे द् यो मनुष्य-स्तदा सवालोके ववशालो भवेच्च ।
गृह चाष्ट्वसस्मद्धमृाते चावप मुस्मक्त: स्वरूपं त्वदीयं न ववन्दस्मन्त दे वा: ॥११॥
यवद कोई मनुष्य ध्यानयुक्त होकर इसका पाठ करता है , तो वह सारे लोकोंमे महान् हो जाता
है उसे अपने घरमें ओठों वसस्मद्धयााँ प्राप्त रहती हैं और मरनेपर मूस्मक्त भी प्राप्त हो जाती है ;
आपके इस स्वरूपको दे वता भी नहीं जानते ॥११॥