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ेगीत माला
षत जु
(तृ )

मनहर वे
णु
रस माधु
री स कब ँयारी रझाऊँ

जन रस को कहत पय सो बनी मु
रली क वह ीत
सुनाऊँ

हय बसत सरस यामा सजी जन रीत अधरन पय ऐसौ


दरस गाउँ

दासी मां
ग कृ
पा अ लन क कब ँयु
गल नत यु
गल ही
रझाऊँ
--- तृ
षत

****
अबके
न द जो और लोभ पय

रसगान को लोभ दे
त काहे
नचावै
हो
त नक मोरे
नज मन क बस क र लो
जानत नज छु
ट व तु
अबके
बेग हय बसाई लो
सतावै
द न दासी जग नचावन को काहे
नव ल लत माधु
री

अबके
तोड़ दे
ह पजरा नज से
वा ही मा न य
--- तृ
षत

****

कौन जगत पय छो ड गये


असु
वन कहत सब इहाँ
सुदर सु
दर
लागत अबके
भय रोवन स ब ह न जाव यामसु
दर
काहे
सुदर मे
रो दरद तोहे
लागे
री
का मे
री पीर तोहे
पय प दरसावे
री
कौन कौन रीत नकलत हो हय स
रोवन न दे
त हो बहत चलत हो अँ
खयन स
मे
रे
उर य न लागत मन ते
रो पय ख डहर काहे
*वास*
बनायेहो
--- तृ
षत

*****
म तो क ँ
अ लन तोहे
न आना मनहर ग लयन माँ

दे
त सब व ध य लालच अ ल री ,
तू
न मष न नर खयो नन माँ

ीत रीत बड़ी वकट दाह सी ,
झु
लसन भी मठो लागे
काहे
री

और मलु

गो तोहे
नव पस
काहे
कहत पु
न पु
न लाज नाह वाने
आई री

साँ
ची य नज माने
, अपन जाने
,
कौन अपनी व तु
परदे
स छोड़े
धावेर
मानो जो नज रा श-धू
ल ही जा यो,
सँ
ग ले
चलो पय, डोली अबकेबखराई री
--- तृ
षत

*****
वे
णु
भरी ीत गा लू

तब ले
ही चलो अबके
...

काहे
छो ड़ये
हो इहाँ
बहलावेनत- नत
अब के
न सु
नँ

कछु
, मानो न मानो म तो चली ाण तज
के

ना जाऊँ
कोई नकु

ज अब तोरे
ना लोक परलोक के
फेरे
...

तब जाऊँ
कहां
पय मोरे
पय सब ओर तोरे
ही बसे
रे
भ ल न क र है
तु
म ने
ह लगाए के
डोली बै
ठाए कोई कब ँ ह कोऊ भटके
--- तृ
षत

*****

इहाँँ
तब काहे
को म
ेरी

बड़ी कु
टल चाल चली ने
हक
बसरत फरे
कहां
-कहाँ
पय
मोहे
और न अब कछु
भावे
री
जीवन ले
जावे
तो पीर न होती
मरन भी ले
भागे
हाय हम ीत अभागे और भी क ग
ँी
नज ाण बे री तोहे
फरे
इहाँ
-तहाँ
, वाँ
केअं
ग य न लपट
--- तृ
षत
****

वनती करत ँ
ह र-ह रदास सु

मोहे
द जो याजु
सु
ख से
वा को आशीष

नज मन क नाह , र सली भाव रस य चाह

सु
ख वलसत सखी जोई , ला डली उर बसत छा

से
वु
ंला डली उर नज क ब तयाँ , नरखुँ
केल ला डली
हत रही जोई उ रयाँ
-- तृ
षत
***
वामी जु
कृपा ते
भयो सु
रग
ँरस वे

गु

ँत सारँ
ग , नाचत सारँ
ग , घर- घर सारँ
ग , आवत
थरत- थरत सारँग।

रँ
ग रँ
गली रँ
ग रँ
गी रँ
गकु

ज , रँ
ग-कु

ज जब ह आवे
यामघन भये रँगली रँ
ग।

नरखत अ लन सब ह यो रँ
ग चलावत नै
नन सु

ब धत
सारँ
ग , य रँ
ग रँ
गे
रँ
गली सँग याम भयेनवरं
ग।

जग गावे
- नरखे
कारो कारो वाँ
को अँ
ग भारी ,
अ लन कृ
पा तेगट भयो साँवरो रँ
गली रँ
गत
नवरं
ग बहारी ।
--- तृ
षत ---
सारँ
ग - राग , हरण , बादल , यामसु
दर , बाण ।

****

जब से
दे
ख त ह र कु
अँखयाँ
 
अब कछुनरखेयासी अँ
खयाँ

ासन सं
ग नातो छु
टयो
काल को जोर भी अब ठयो
तू
तोड़े
धाग कब , दे
मोहे
तोडू

अब
हा य , नकलत ाण फर नकले
नाह
पय नाम को मनको पोवत र  ँ
अब माला छू
टेाणन ल भी टू
टे

रोम रोम ल घु
ल र ो 
दे
खत न बने
अपन ल  
रोम रोम पय रस बरस र ो 
पबत न बने
अधर मलेय 
अब पय घु
ली यो ल को ल हो यो 
ाणन को ाण मे
रो ल ँयो
ल रहत तब र ँ
, ल बहत तब म ँ
 
ऐसो ह र समाय रहे
, मो म बसत मोहे
खजाय रहे
 
भू
ली बसरी जनको र ँ
, व है
तब ह जीवत र ँ
पगली भव-वन फ ंन ध बन सू
खो वन र ँ
षत"
"तृ
जब से
दे
खत ह र को अँ
खयाँ
 
अब कछु
दे
खत बने
न इन अँ
खयाँ

ासन सं
ग स ब ध नाह  
कल छू
टे
भली हो अब छू
टे
 
नाम को मनको पोवत र  ँ
अब छू
टे
  ाणन ल ही टू
टे

रोम रोम ल घु
ल र ो 
दे
खत न बने
अपन ल  
रोम रोम पय रस बरस र ो 
पबत न बने
अधर मलेय 
अब पय घु
ली यो ल को ल हो यो 
ल रहत तब र ँ
, ल बहत तब म ँ
 
ऐसो ह र समाय रहे
, मो म बसत मोहे
खजाय रहे
 
भू
ली बसरी जनको र ँ
, व है
तब ह जीवत र ँ
****
हय से
ज आज हडोला बनी 
नव बना-बनी मन कु

जन चली

भाव प ण सखी हय तरं


ग डोर  हलावत 
दयराज वमनमो हनी नै
नन नरखत झु
लत

मन मे
रो कु

जन तन वृ

दावन 
हय से
ज नत्
राचत मोहन 
या बन न ार नै
न न खोलत 
या सं
ग आव तब रं
ग नव रस उमड़त

अब आओ मोहना 
हय झू
लन झु
लाऊँ
 
हय झु
लत यु
गल 
ऐसो दशन पाऊँ
 
वृ

दा पश होवै
वन बन जाऊँ
 
मन नव कु

जन नव रं
ग बनाऊँ
 
रस-नागरी तोहे य-रस म रीझाऊँयामा रस लावै
ऐसे
यतम को हय बसाऊँ  
माधव तु
झे
यु
गल दे
खत ही शीश नवाऊँ

हय अर व द बसो यु
गल रसराज 
हय नत नत रस उमड़े
यो ही मे
रो काज 
--- स यजीत तृ
षत ---

*****

मन-यु
मन-यु य ?
मन क पकड़ी अं
गल
ुी भी य ?
मन सेवरोध अस भव है
, तृ
षत
मन वह है
जो तू
ने
कल दे
खा
मन वग के
पुप को नह सू

घ सकता
मन ने
उसका वचार ना कया
वचार का थै
ला , जस पर लख दया , मन !!
मन , चलता सदा बाज़ार म
भरने
अपना थै
ला
और फर भी रहता खाली
मन का थै
ला दे
दो कसी ापक को
वह उसम श द भर दे
गा ,
मन वहाँवयं
को भरा ही पाये
गा
कसी नवनीत पश से
यहाँ
नवनीत ही मन के
थैले
को भु
ला सकता है
मन छु
टे
गा नह ,
वह नवनीत रस को पीने
हे
तु
वायु
बन जाये
गा
उसका आकार ना रहे
गा
नराकार हो जाये
गा
और फर जीवन ऊजा यथाथ पर होगी
मन से
यु वयं
को ही तोड़ वयं
सेयु है
मन का सं
ग वयं
को ही भू
ल वयं
क पोटली क रजामं

है
मन के
गुबारे
म हवा इतनी हो
द वार वलीन हो जाएं
हवा रह जाये
गु
बारे
क हवा नकलने
से
गु
बारा रहे
गा , पी ड़त सा
और फर चाह गे
उसे
फुलाना
गु
बारे
सेकोई श ु
ता नह
ना ही इतनी यता क उसे
ना ही फु
लाव
शा त वायु
से यता गुबारेको असीम कर दे
गी वह
वलीन हो जायेगा
मनयु नह ,
यह पराजय है
मन हारे
तब भी
मन जीते
तब भी
मन बे
चारा ापक का यासा
उसे
तु
मने
सं
सार क ापकता दखा द
सो वह समे
टने
लगा सं
सार ही भीतर
मन गु
बारा वायु
म डल नह पी सकता
घट... आकाश नह पी सकता
मन क अपनी सीमा है
, वह द वार
वह टू
ट तो घट आकाश म डू
ब सके
गा
शा त केपश से
इस घट क माट पघलती है
फर अ त व रहता शा त का और मन और तु
म उसम
डूबे
अ भ ...
मन यु से
मन प का होगा
तु
म उससे
लड़कर उसके
अ त व को स कर द गे
तु
मने
कभी बना च च का प ी दे
खा ...
नह दे
खा , ना सु
ना , सो नह मानोग ,
तु
मने
मन भी नह दे
खा , और मान भी लया उसे
,
तु
म सदा से
कोमल हो मानव !!
बस यह मन है
! ... ा त बोध !!! एक रे
खा !!!
वचार का सं
कलन !!!
अपने
एक एक वचार को हटा कर दे
खो ,
जब वचार न रहा , तो मन भी ना होगा ,
मन वचार से
पृ
थक्
नह ।
--- तृ
षत

*****
सच क ँ
तु
मसे

वै
से
मु
झेतरीका नही सच कहने
का

मु
झेतु
मसेमलने
म हज़ नह

दखती है
एक तलब बाहर बाहर

जै
से
मे
रे
आज ही होते
पं

... और म होती ते
रे
कदम क ईबादत म

लगता है
जै
से
जु
गनू

सी नाचने
को बे
ताब ँ

ते
रेम
ेम महकते
बागान म !
जै
से
भवरां
होती और तु
झम ही समट होती

या ज़दगी - या मौत , मु
झेते
री मासु
म ह क सी आहट
सेफ़सत ना होती

पतं
ग होती तु
झसेर भी होती तु
झसे ही उडी होती , काश
ज़ दगी क डोर ते
री चरखी सेसमटती होती

पर नह ,

या मलू

तु
मसे
!

मे
रा मलन स चा नह ,

ेतो म
ेहै
स चा-झू
ठा नह

पर मु
झेम
े आ ही नह

म मलती ँ
तु
झसे

नह ... नही तु
म!

हाँ
तु
म मलते
हो मु
झसे

पर वह मलन स चा नह !!

मे
रा तु
मसेमलना ,
तु
हारी और दे
खना ,
तु
ह छु
ना सब ... लौटने
को है
हाँ
लौटने
को है
मु
झेमलना भी होता है
लौट जाने
को ,
म तु
म म उतरती ँ
, नकल जाने
को
बे
ख़द
ुहोती ँ
फर ख़ु
द हो जाने
को

तु
म सेमलकर छु
ट नही पाती
ठहर नही पाती
समट कर बह जाने
क फतरत मोह बत तो नह

ब त सु
कू
ँमलता है
...
ब त तु
हारी सरगोशी से
ही नशा हो जाता है
फर महक आती है
,
अजीब सी हवा तु
ह छु
कर
य ही मु
झेछु
ती है
सच
जै
से
महकती लहर उठे
और
सरोवर बफ हो जाए
जै
सेदल म मु
ह बत भरा बादल लटकता सं
गम
ेरमर हो
जाएँ

हाय जम जाती ँ
हवा से
तुहारी
फर तु
हारी छु
अन को या क ँ

सु
लगते
प थर या कहे
बा रश को
जो उसे
त पश से
राहत ही ना द
उसे
झरना बना द

या इ क़ है
तुहारा !!
हाय !!
पर म आती ँ
लौट जाने
को
तु
मने
सोचा मे
रे
आँख के
झरने
बहते
है
सु
ख जाने
को

जब हम मलते
है
तब तु
म मलते
हो
मे
रे
जहन म तो तु
हारी मौ शक़ का नशा ले
कर
लौटने
का फ़राक़ पलता है

काश कभी मे
री हसरत म एक कतरा स ची मु
ह बत ते
री
उ फ़तो सेछलक जाये

म ना लौटू

ना कोई मं
सू
बा हो
तु
मसेमलकर फर लौटने
का

हम मल भी ल ई र से , तो वह मलन भी लौटने हेतु


का
मलन है । मलन हो तो ऐसा हो जसम कम से कम
लौटनेक फ़जू ल गु ताख़ी ना हो , लौटना भी पड़े , छु
टना
भी हो रब सेतो वहाँएक आग हो , एक चगारी जो ख़ु द
को उसक जु दाई म व फोट करने को फबक रही हो ।
ई र सेई कसी भी तरह क मु लाकात के बाद का सु कू

और वह यान बाज़ी कहती है , हम लौटना था सो मल ।
जसे ना लौटनेको मलना हो , डू बना हो , ना
नकलना हो , ना तै
रना । वह इंतज़ार करता है स ची
मु
लाक़ात का जब लौटने का फ़तू र उसम ना हो तब ही
डूबता है।
षत" ।।
"तृ
या हम डू
बने
को तै
यार है
?
शायद नह , हम लौटनेका भुत सवार है
, तै
रनेवाला
आ शक नही कलाबाज़ है , जसका करतब है सम दर
सं
ग । आ शक डूबते है
, बाहर आनेको बेताब होतेही
नह , डूबना ही अपने मे
हबूब (ई र) म , उनका जीवन है
और छु टना ही मौत । अभी तो आ शक क मौत को कम
से
कम मने तो ज़ दगी ही समझ लया है यानी उस रस से
छु
टने को ...
****

सखी मोरे
पया क छब अलबे
ली
सखी री पय क छब अलबे
ली
रस क पगी ह अ खयाँ
दोऊँ
बात करत ह रसीली सखी री
पया क छब अलबे
ली
भृ
कुट तरछ
तरछ चतवन
गले
वनमाल नवे
ली सखी री
पय क छब अलबे
ली
अधर ब ब से
वं
शी राखत
छे
ड़े
तान सु
रीली सखी री
पय क छब अलबे
ली
तरछे
चरन धरे
अवनी पर
नू
परुकरत रसके
ल सखी री
पय क छब अलबे
ली
ल लत भं
गी लाल छ ब पर
हारी हय ये
नवे
ली सखी री
पय क छब अलबे
ली
सखी मोरे
पय क छब अलबे
ली

सखी मोरे यतम गहन म


ेी ... मैदासी उनकेहय इतनी
बस गई हैक देख सखी कैसे होलेहौलेचल रहे

सखी जानेतूय य ऐसे चल रहे... यारे
जुमोरे
अपनी
छब भी मोहे
पावे
। सखी मोरेपया क छब अलबे ली ...
हाँ
री , साँ
ची कहे
तू, अपनी छब (छाया) से
ब तयाँ
रहे
सखी तोहे
मान । तो का सखी जे
अपने
म नत तोहेयावे

ना सखी , यावे ना .. जे
मोहे
पावेनत नत । यांके नन
पर पर यू ँमलन को आकु ल जैसेकही सरी अँ खया
मोरी तो ना ह । नत फुल रहे री यां
केनयन ।
तब सखी जे
बाँ
क चतवन सेथरक थरक चल वो री ...
सखी जे तो जवासी याम याँ को दशन कर री । पर तु
मोरे
अलबे लेपया क का का क ँ । जे
चलेतो भी ऐसे
चलेय अपनी यारी को ने ह , यारी क न ध , यारी को

े, यारी को सु
ख , यारी को वास नज व प म पाए ,
नज व प म यारी क माधु य कोमल चतवन मान धीरे
धीरेचले री ।
और का क ँ तोसे मोरे पय क ीत ... कोई माने ना
इतनो ने
ह बरसावे मो पर । मै तो ब ल ब ल जाऊँरी । ...
सखी यांक ीत सु धा को ब भी मोरे हय न कट होय
र ो साँची क ँ... ! ... जेकब ँ मोहेन दखावेरी नज
ीत । छपायेन छपा पावे तब ह मोरे हय ते
नत ...
नत ... मोरे
पय ... पय ... पय ।। तृ षत पय ... ना
सखी । ना क ँ
। यां
क हय क , ना क ँ ... मोरेाण ...
ाण ... ाण ।। -- - तृ
षत

*****

कभी तु
म मु
झेहर गली सेछप कर दे
खा करते
कभी कसी बाज़ार म हर प तु
म ही द खते
यह द वार-त वीर हर जगह से
तु
म ही दे
खा करते
और य तु
म दे
खतेय मैबहती
और बहते
बहते
फर तु
म ही रह जाते
वह गम हवा का सद पश लौटा दो
वह झु
क नगाह के
उठने
पर गरते
झरने
लौटा दो
वह घड़ी दो घड़ी तु
ह दे
ख कर मचल जाने
क फज़ाएँ
लौटा दो
हर ज़र से
होती हमारी अपनी वो म
ेवाता ही लौटा दो
तु
म भी न , तब छु
आ , भरा , और , और और और ....
फर चले
कैसे
गए ,
अरे
य ज़ म का नकाब हटा ही जाते
बस तु
म , बस तु
म , सफ तु
म , सफ तु
म कहते
वह सहर
बता करती थी
अब कहाँ
हो तु
म , वह तु
म , सफ तु
म।
ज़माने
क द वार कू
द ते
रेम
ेउपवन आई थी
तु
मने
ब शीश म फर वह ज़माना लौटा दया
ग़र तु
म शबते
शाह रस हो तो मु
झेतल बयत यास करो
ग़र तु
म हक कते
ज़ दगी हो तो मु
झेत बयत से
क़ल
करो
ग़र तु
म सु
कू
ँका बे
हसाब द रया हो तो मु
झेदद ग़म से
तासीर करो
जो भी करो मु
झेमे
री तलब , वह यास और गहराई से
लौटा भी दो
- तृ
षत
***
इतना तो बता द जये
तृषत तु
म या हम
लगते
नह सबको ाकु
ल , तृ
षत तु
म नह तो य है
हम 

मे
री य तृ
षा
मे
री य रवायत
मे
री य शकायत
मे
री य अतृत
कहते
जसे
सब
भ !!!
मे
री य अ तः व मृ

मे
री य अनु

मे
री य लला यत
या मे
री है
???
कह य नह दे
ते
कसके
यह न य
आभू
षण !!
और यह व व तु

व मृ
त।
यह न होती , तो आपक
व तुय मे
री तती !!
सव व तु
आपक
यह इ ह भू
लने
क आदत भी आपक ।
हे
न यह तृ
षा आपक मे
रे
तृषत हय- पय !!!

*****
मधु
रत रज के
आंत रक पटल को छू
कर

पु
प तक खलती वह व लरी
र सत सरस पु
प के
मधु
को छपाये

वह कली

न य मधु
कर क नत माधवी

रज से
स च कर मधु
तक
क यह या ा

पपासा एक

च ु
हीन नेकहते
जसे
जड़
वह मधु
या ा ँ

एक "तृ
षत"

वषा पू
ण जल अणु

षत
-तृ

****
कं
टक वन सा जीवन

मधु
शाला क मधु
ता

कहाँ
सेलाता ...
पं
कल वह व ा अणु

ग ध से
नीरज सु
रभता

कहाँ
सेलाता ...

त मर गहन अं
तःकरण का

शुल रा क तपदा भीतर

कहाँ
सेलाता ...

अघासु
र इस जीवन अजगर का माद

नमल पद परस दय पर
कहाँ
सेलाता ...

व जलाता म ने से

अहम जलाने
स मधा तृ
षत

कहाँ
सेलाता ...

ते
रे
उपवन म वनमाली ते
रा कं
टक

पु
प सु
मन अपण क सरसता

कहाँ
सेलाता ...
ते
रा ँ
सो न त पु
प ँ
... क टक नह

ते
रा ँ
सो न त मकर द पराग ँ
... पं
कल भी नह

ते
रा ँ
सो न त सु
र भत ँ
...
अहं
ता क भी ण क दरा नह ...

कुप ककश वषाणु


भी ँ
य क
ते
रा होकर ते
रा नह ...

जो ते
रा ँ
सो अमृ
त ँ
जो मे
रा ँ
सो हलाहल क दाह ँ
...

मै
ही पु
प ँ
तु
झसे
म ही कं
टक ँ
मु
झसे

मे
रा जीवन कहता है
या ते
रा ँ
या मे
रा ँ
--- तृ
षत

*****
रस से
टपकता रस सदा

चे
तना तू
नत रस क ब
काहे
गावे
अलाप नत

वष ँ
, वषै
ली ँ
, वषा ँ

है
तूवष ...

रस सधु
यह न समझ सके
गा

य क

रस से
टपकता रस सदा

सु
न ...
रस क नत टपकन ...
रस तृ
षत चे
तना
*****
मनहर वे
णु
रस माधु
री स कब ँयारी रझाऊँ

जन रस को कहत पय सो बनी मु
रली क वह ीत
सुनाऊँ

हय बसत सरस यामा सजी जन रीत अधरन पय ऐसौ


दरस गाउँ

दासी मां
ग कृ
पा अ लन क कब ँयु
गल नत यु
गल ही
रझाऊँ
***

अबके
न द जो और लोभ पय
रसगान को लोभ दे
त काहे
नचावै
हो 
त नक मोरे
नज मन क बस क र लो 
जानत नज छु
ट व तु
अबके
बेग हय बसाई लो 
सतावै
द न दासी जग नचावन को काहे
नव ल लत माधु
री
स 
अबके
तोड़ दे
ह पजरा नज से
वा ही मा न य  
--- तृ
षत
***

कौन जगत पय छो ड गये


असु
वन कहत सब इहाँ
सुदर सु
दर 
लागत अबके
भय रोवन स ब ह न जाव यामसु
दर 
काहे
सुदर मे
रो दरद तोहे
लागे
री 
का मे
री पीर तोहे
पय प दरसावे
री
कौन कौन रीत नकलत हो हय स  
रोवन न दे
त हो बहत चलत हो अँ
खयन स  
मे
रे
उर य न लागत मन ते
रो पय ख डहर तब काहे
बनायेहो 
--- तृ
षत
***

म तो क ँ
अ लन तोहे
 
न आना मनहर ग लयन माँ

दे
त सब व ध य लालच अ ल री , 
तू
न मष न नर खयो नन माँ

ीत रीत बड़ी वकट दाह सी ,


झु
लसन भी मठो लागे
काहे
री
और मलु

गो तोहे
नव पस 
काहे
कहत पु
न पु
न लाज नाह वाने
आई री

साँ
ची य नज माने
, अपन जाने

कौन अपनी व तु
परदे
स छोड़े
धावेर

मानो जो नज रा श-धू
ल ही जा यो, 
सँ
ग ले
चलो पय, डोली अबकेबखराई री
--- तृ
षत
****

वे
णु
भरी ीत गा लू

 
तब ले
ही चलो अबके
...

काहे
छो ड़ये
हो इहाँ
बहलावेनत- नत 
अब के
न सु
नँ

कछु
, मानो  न मानो म तो चली ाण तज
के

ना जाऊँ
कोई नकु

ज अब तोरे
 
ना लोक परलोक के
फेरे
...

तब जाऊँ
कहां
पय मोरे
 
पय सब ओर तोरे
ही बसे
रे

भ ल न क र है
तु
म ने
ह लगाए के
डोली बै
ठाए कोई कब ँ ह कोऊ भटके
 
--- तृ
षत
***

इहाँँ
तब काहे
को म
ेरी
बड़ी कु
टल चाल चली ने
हक 
बसरत फरे
कहां
-कहाँ
पय 
मोहे
और न अब कछु
भावे
री 
जीवन ले
जावे
तो पीर न होती 
मरन भी ले
भागे
हाय हम ीत अभागे
 
और भी क ग
ँी नज ाण बे
री तोहे
फरे
इहाँ
-तहाँ
, वाँ
केअं
ग य न लपट  
--- तृ
षत
****

भई गाढ़ कृ
पा नज म
ेी जन पे

जस-अपजस  सब  व ध  हत  न होत ,जो   वषय-भोग 


सब  व ा जा यो 
गे
ह - दे
ह  धरम  सब  छाड़त , दास ह रदास  दास  साँ
चो 
ने
त  मा यो

वमन  होत  लोक रं


जन  माह , ह र भजन जाँ
को ाण
बा यो

लोक-वै
भव  सब  चु
भत ह र े मन को , र सकन धू

सृ

गार  मा यो

ाण फां
टत  म या-जग  माँ
ह  , छन- छन  वास
व पनराज जन नैन तांयो 
--  तृ
षत  --

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