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भारतीय वनवासियों का मू ल

-अरुण कुमार उपाध्याय, भुवनेश्वर


arunupadhyay30@yahoo.in, (M) 9437034172
(िारांश)
यह मुख्यतः झारखण्ड, ओड़िशा, छत्तीसगढ़ के खड़नज क्षेत्रों में बसे वनवाससयों के बारे में है। कुछ भारतीय मूल
के हैं, कुछ आक्रमणकारी थे, पर अधिकांश खड़नज ड़नकालने के ललये दे व-असुर सहयोग के ललये ड़मत्र रूप में
आये थे। पसश्िम तट के ससड़ियों को छोि कर बाकी सभी का मूल १०,००० ई.पू. के जल-प्रलय के पहले का है।
पुराणों में भी जल-प्रलय के पूवव का स
ं सक्षप्त इधतहास ही है। प्रािीन सुमेररया के इधतहास सजसके अ
ं शों की
नकल इललयड से हेरोडोटस तक के ग्रीक लेखकों ने की है, इन वणवनों का समथवन करते हैं। इनमें कोई
ड़वरोिाभास नहीं है। केवल ड़िड़टश शासन में द्वे ष-पूणव भाव से इधतहास को नष्ट करने का काम शुरु हुआ सजससे
भारतीयों के मुख्य भाग को भी अ
ं ग्रेजों की तरह ड़वदे शी आक्रमणकारी ससद्ि ड़कया जा सके। ड़कन्तु इनका
कोई आिार नहीं है, केवल कुछ शब्दों तथा िुने हुये पुरातत्त्व अवशेषों के मनमाना ड़नष्कषव अपनी इच्छा अनुसार
ड़नकाले गये हैं। शबर जाधत के लोग वराह अवतार के समय पूवव भारत के जगन्नाथ क्षेत्र में थे, सजनकी सहायता
से ड़हरण्याक्ष पर आक्रमण हुआ था। उस समय खानों के ललये अधिक खुदाई हुयी। इस काल के शाबर मन्त्र हैं।
उसके कुछ समय बाद बलल के समय समुद्र-मन्थन हुआ सजसमें दे व और असुर दोनों ने ड़मल कर खड़नज
ड़नकाले। पसश्िम एसशया तथा उत्तर अफ्रीका के असुर मुख्यतः झारखण्ड में आये। अफ्रीका के सजम्बाब्वे तथा
मेड़िको में दे व गये थे। िण्डी पाठ के अनुसार क्षुष मन्वन्तर में जब राजा सुरथ का शासन था तो कोला
ड़वध्व
ं ससयों ने आक्रमण ड़कया। कोल का अथव पूरे ड़वश्व में भालू है। रामायण काल के भालू या ऋक्ष यही थे।
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१. अंग्रे जों द्वारा इततहाि का नाश-अ
ं ग्रेजों का मूल उिेश्य था ड़क भारत पर अपना स्थायी शासन कर लगातार
लूटते रहें। इसके ललये भारत को ड़वधभन्न षेत्रों तथा जाधतयों में खण्ड खण्ड ड़कया गया तथा अधिकांश भारतीयों
को अ
ं ग्रेजों की तरह ड़वदे शी आक्रमणकारी ससद्ि ड़कया गया। इसका प्रमाण बनाने के ललये भारत के पसश्िम
उत्तर भाग में ही अवशेषों की खुदाई हुयी जहां से ड़वदे सश आयों का आक्रमण ड़दखाना था। इसका कारण था
ड़क मेगास्थनीज आड़द ग्रीक लेखकों ने १६००० ई.पू. से भारतीयों को मूल ड़नवासी कहा था तथा ६७७७ ई.पू.
से एक ही राज्य व्यवस्था का उल्लेख ड़कया है। उसे झुठलाने के ललये खुदाई का मनमाना ड़नष्कषव ड़नकालना
जरूरी था। जनवरी १९०० में ही जनमेजय के ५ दान-पत्र मैसूर ऐलण्टकुअरी में प्रकासशत हुये थे सजनकी धतधथ
२७-११-३०१४ ई.पू. थी। इनकी धतधथ को कोलिुक ने १५२६ ई. करने के ललये ड़िड़टष ज्योधतषी जी बी ऐरी की
मदद लेकर ज्योधतषीय गणना में जालसाजी की। उस समय ग्रहणों की ड़दर्वकाललक गणना की ड़वधि ज्ञात
नहीं थी। १९२७ में ओपोल्जर की पुस्तक में ७०० ई.पू. से ग्रहणों की सूिी बनायी थी सजसमें ८ र्ण्टे तक की
भूल थी। १५२६ ई. में अकबर की कैद में रहते हुये केवल स्मरण द्वारा ड़मधथला के हेमांगद ठक्कुर ने १२०० वषों
के सभी ग्रहणों की सूिी बनायी थी सजसमें केवल २ ड़मनट का अन्तर है। जनमेजय ने अपने राज्य के २९वें वषव
में नाग आक्रमण का प्रधतशोि ललया था सजसमें उसके ड़पता परीसक्षत २९ वषव पूवव मारे गये थे। नागों को जहां
उसने पहली बार परासजत ड़कया वहां गुरु गोड़वन्द ससंह जी ने १७०० ई. में एक राममड़न्दर बनवाया था सजसमें

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उस र्टना का उल्लेख था। दो नगर पूरीतरह नष्ट हो कर श्मशान बन गये थे-सजनका नाम मोइन-जो-दरो = मुदों
का स्थान, तथा हिप्पा = हरियों का ढेर हो गया। १७०० ई. तक यह इधतहास स्पष्ट रूप से मालूम था तथा १९०० ई.
के प्रकासशत अधभलेखों से भी स्पष्ट था। उसके मात्र २० वषव बाद हिप्पा मोइन-जो-दरो की खुदाई कर मनमाने
ड़नष्कषव ड़नकाले गये। वहां कोई अधभलेख नहीं ड़मला है, ड़वधभन्न लखलौने या मूर्त्त्तवयों को अधभलेख मान कर
उनको मनमाने ढंग से पढ़ते हैं। जो तथाकधथत ललड़प अभी तक पढ़ी नहीं जा सकी है, उसे प्रामालणक मानते हैं।
पर जो पुराण ५००० वषों से प्रिललत थे उनको काल्पड़नक और झूठा मान ललया। इसमें आयवसमाज से बहुत
मदद ड़मली सजन्होंने पुराणों को म्लेच्छ या उनके द्वारा ड़नयुक्त िाह्मण पुजाररयों द्वारा लललखत कह ड़दया। सभी
वणव एक ही समाज के अ
ं ग हैं, पर ड़िड़टश, आयव समाज या वामपन्थी उनको अलग अलग दे शों या जाधतयों का
मानते हैं। केवल एक ही प्रकार का काम करने वालों से समाज नही िल सकता, पर ऐसे समाज की कल्पना
करते हैं। वस्तुतः पुराण भारत के नैड़मषारण्यके शौनक संस्था में ३१००-२७०० ई.पू. में ललखे गये थे तथा उनका
संशोिन उज्जैन के ड़वक्रमाड़दत्य काल (८२ ई.पू.-१९ ई.) में बेताल भट्ट द्वारा हुआ। शौनक संस्था को महाशाला
कहते थे। ड़वक्रमाड़दत्य के केन्द्रों को भी ड़वशाला कहते थे, सजनमें एक उज्जैन में ही था।
अन्य पद्िधत थी ड़क पुराणों की पूरी सूिी ले कर उनकी काल गणना को मनमाना कर ड़दया जाय। इसके ललये
भारत की सभी कालगणनाओं को अस्वीकार ड़कया। उज्जैन प्रािीन ड़वश्व के शून्य दे शान्तर पर था, अतः प्रायः
यहीं के राजा काल गणना (कैलेण्डर) आरम्भ करते थे। अतः उज्जैन के सभी राजाओं . शूद्रक (७५६ ई.पू),
ड़वक्रमाड़दत्य (५७ ई. पू.), उनके पौत्र शाललवाहन को काल्पड़नक करार ड़दया। ७५६ ई.पू. से ४५६ ई.पू. के श्रीहषव
शक तक ३०० वषव के मालव गण का उल्लेख ससकन्दर के समय के सभी ग्रीक लेखकों ने ड़कया है, उसका
उल्लेख भी ड़मटा ड़दया। ४५६ ई.पू. के श्रीहषव को ६०५-६४७ ई. का हषवविवन बना ड़दया। ७८ ई. के शाललवाहन
शक ड़क १२९२ ई.पू. के कश्मीर के ४३वें गोनन्द वंशीय राजा कड़नष्क के नाम कर ड़दया तथा उसे पाश्िात्य शक
आक्रमणकारी बना ड़दया। ड़वक्रमाड़दत्य के प्रधत द्वे ष रोमन काल से िला आ रहा है क्यों ड़क उन्होंने जुललयस
सीजर को सीररया के सेला में बन्दी बनाया था तथा उसे उज्जैन ला कर छोि द्या था। ड़वल डु रण्ट ने ललखा है ड़क
इसी कारण लौटने पर सीजर की हत्या िुटस ने की थी। पर इसे झुठलाने के ललये रोमन लोगों ने तरह तरह की
कहाड़नयां बनाईं ड़क सीजर ड़मस्र में ६ मास गायब था या पसश्िम एसशया के अज्ञात स्थानों में र्ूम रहा था। झूठा
इधतहास ललखने की अ
ं ग्रेज परम्परा रोमनों के समय से िली आ रही है।
२. आयय -द्रववड़-उत्तर भारत को आयव तथा दसक्षण भारत को द्रड़वि कहा जाता है। ऋ गधत प्रापणयोः (पालणड़न
िातुपाठ १/६७०) से ऋत हुआ है। सत् = असस्तत्त्व, उसका आभास। सत्य = केन्द्रीय सत्य, सीमा और केन्द्र
सड़हत वस्तु। ऋत = सत्य िारणाओं पर आिाररत आिरण, फैला पदाथव सजसका न केन्द्र है न सीमा। सत्य
ड़वन्दु है, ऋत क्षेत्र है। इससे अ
ं ग्रेजी में एररया हुआ है। उत्तर भारत में प्रायः समतल भूड़म (आयव क्षेत्र) है जो खेती
के ललये उपयुक्त है। दसक्षण भारत समुद्र (द्रव) के ड़नकट व्यापार प्रिान है। व्यापार में िन का लेन दे न होने से
वह भी पैसे की तरह बहता है, अतः उसे भी द्रव्य कहते हैं। िन या उसके क्षेत्र को द्रड़वि कहते हैं।
भाषाओं में अन्तर होने का कारण है ड़क ६ प्रकार दशवन होने के कारण ६ प्रकार के दशव वाक् या ललड़प हैं। अलग
अलग कामों के ललये अलग अलग ललड़प हैं। भागवत माहात्म्य के अनुसार ज्ञान (भड़क्त से ज्ञान-वैराग्य) की

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उत्पधत्त द्रड़वि में हुयी, वृद्धि कणाटक में हुयी तथा प्रसार महाराष्ट्र तक हुआ। उसका प्रभाव गुजरात आते आते
समाप्त हो गया। अप् = द्रव से आकाश में सृड़ष्ट हुयी थी. पृथ्वी पर भी पहले वेद का ज्ञान जहां हुआ उसे द्रड़वि
कहा गया। वेद या ड़वश्व का ज्ञान ५ इड़न्द्रयों द्वारा श्रुधत आड़द से होता है, अतः इसे श्रुधत कहते हैं। श्रुधत कणव से
होती है, अतः इसकी जहां वृद्धि हुयी वह कणाटक (आटक = भण्डार, वन) है। मूल शब्द पृथ्वी की वस्तुओं के
नाम थे। बाद में उनका ड़वज्ञान ड़वषयों, आकाश तथा अध्यात्म (शरीर के भीतर) अथव ड़वस्तार ड़कया गया, वह
वृद्धि हुयी। अलग-अलग ध्वड़न या शब्दों का मेल मलयालम है। ड़कसी पररवेश को महर् (महल्) कहते हैं, अतः
ज्ञान का ड़वस्तार क्षेत्र महाराष्ट्र हुआ। ड़वस्तार की माप गुजवर (गुजव = लाठी) है। बाद में भगवान् कृष्ण के अवतार
के समय इसका उत्तर भारत में प्रिार हुआ।
गलणती तथा याड़न्त्रक ड़वश्व का वणवन सांख्य के २५ तत्त्वों से है, उसके अनुरूप २५ अक्षरों की ललड़प है। इसमें
िेतना या ज्ञान तत्त्व ड़मलाने से ६ x ६ = ३६ तत्त्व शैव दशवन के हैं, सजसके अनुरूप ३६ अक्षरों की लैड़टन, अरबी,
गुरुमुखी ललड़प हैं। इन्द्र ने ध्वड़न ड़वशेषज्ञ मरुत् की सहायता से शब्दों का ४९ मूल ध्वड़नयो में ड़वभाजन (व्याकृत)
ड़कया। यह ४९ मरुतों केअनुरूप ४९ अक्षरों की दे वनागरी ललड़प है। इसमें क से ह तक के ३३ व्यञ्जन ३३ दे वताओं
के धिह्न हैं। यह धिह्न रूप में दे वों का नगर होने के कारण दे वनागरी है। आज भी यह इन्द्र की पूवव ड़दशा से पसश्िम-
उत्तर मरुत ड़दशा तक (भारत में) प्रिललत है। ८ x ८ कला के अनुरूप ६४ अक्षरों की िाह्मी ललड़प है। वेद में ड़वज्ञान
के ड़वशेष धिह्नों के कारण (८ +९)२ = २८९ धिह्न हैं। इनमें ३६ x ३ = १०८ स्वर, ३६ x ५ = १८० व्यञ्जन तथा १ अड़नणीत
ॐ है। व्योम (धतब्बत) से परे (िीन -जापान में) ललड़प सहस्राक्षरा है। शब्द के अथव ७ संस्थाओं के अनुसार बदलते
हैं। तो आधिदै ड़वक और आध्याधत्मक के अधतररक्त पृथ्वी पर ५ संस्था होंगी। व्यवसाय, भूगोल, इधतहास,
ड़वज्ञान तथा प्रिलन-ये स
ं स्थायें हैं।
दसक्षण के ज्ञान की उत्पधत्त होने के कारण प्रािीन स्वायम्भुव मनु (२९,१०० ई.पू.) काल का ड़पतामह ससद्िान्त
वहां प्रिललत है। वैवस्वत मनु (१३९०० ई.पू.) काल का सूयव ससद्िान्त उत्तर भारत में है। ड़पतामह ससद्िान्त का
पुनरुद्िार ३६० कलल (२७४२ ई.पू.) में आयवभट ने ड़कया। ड़पतामह ससद्िान्त को आयव ससद्िान्त कहते थे अतः
आज भी आयवभट के ड़नवास स्थान में आयव (अजा) का अथव ड़पतामह है। वेद शाखाओं में भी पुरानी परम्परा
िह्म ससद्िान्त है-स्वायम्भुव मनु ही ड़पतामह िह्मा थे। वैवस्वत मनु काल की आड़दत्य परम्परा है सजसका
याज्ञवल्क्य ने ड़कया। प्रािीन कृष्ण यजुवेद की ८६ शाखायें सभी द्वीपों में थीं। बाद के शुक्ल यजुवेद की १५
शाखा केवल भारत में थीं (शौनक का िरण व्यूह)।
वेद के कई शब्द केवल दसक्षण भारत में ही हैं। ऋग्वेद के प्रथम सूक्त में ही रात-ड़दन के ललये दोषा-वस्ता का
प्रयोग है सजनका प्रयोग केवल दसक्षण में है। नगर के ललये उरु या उर का प्रयोग भी केवल दसक्षण में है।
३. वनवासियों का मू ल-इनका मूल स्रोत ४ प्रकार का है--(१) भारत के खड़नज कमी, (२) कूमव अवतार के समय
आये अफ्रीकी असुर, (३) पूवव समुद्र के आक्रमणकारी, तथा (४) पुराने शासक।
खवनज कमय -खड़नज कमव करने वाले को शबर या सौर कहते हैं। मीमांसा दशवन की सबसे पुरानी व्याख्या शबर
मुड़न की है। सशव द्वारा शबर-मन्त्र ड़दये गये थे जो ड़बना ड़कसी अथव के भी फल दे ते हैं। राजा इन्द्रद्युम्न के समय
जगन्नाथ की लुप्त मूर्त्त्तव को भी ड़वद्यापधत शबर ने खोजा था सजनके वंशज आज भी उनके उपासक हैं तथा उनको

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स्वाईं महापात्र कहा जाता है। शूकर का अपभ्रंश सौर (ड़हन्दी में सुअर) जो अपने मुंह या दांतों से ड़मट्टी खोदता
है। अतः ड़मट्टी खोदनेवाले को शुकर या शबर बोलते हैं। यह नाम पूरे ड़वश्व में प्रिललत था क्योंड़क ड़हिू में भी
इसका यही अथव था सजसका कई स्थान पर बाईड़बल में प्रयोग हुआ है-ड़हिू की औनलाइन ड़डक्शनरी के अनुसार-
7665. shabar (shaw-bar') A primitive root; to burst (literally or figuratively) -- break (down, off, in
pieces, up), broken((-hearted)), bring to the birth, crush, destroy, hurt, quench, X quite, tear, view
(by mistake for sabar).
शबर के ललये वैखानस शब्द का भी प्रयोग है। ड़वष्णु-सहस्रनाम का ९८७ वां नाम वैखानस है सजसका अथव शंकर
भाष्य के अनुसार शुद्ि सत्त्व के ललये ग्रन्थों के भीतर प्रवेश है। यह पाञ्चरात्र दशवन का मुख्य आगम है तथा एक
वैखानस श्रौत सूत्र भी है।
४. िमु द्र मन्थन के िहयोगी-वामन ने बलल से इन्द्र के ललये तीनों लोक ले ललये तो कई असुर असन्तुष्ट थे ड़क
दे वता युद्ि कर के यह राज्य नहीं ले सकते थे तथा सछटपुट युद्ि जारी रहे। तब ड़वष्णु अवतार कूमव ने समझाया
ड़क यड़द उत्पादन हो तभी उस पर अधिकार के ललये युद्ि का लाभ है। अतः उसके ललये पृथ्वी का दोहन जरूरी
है। पृथ्वी की सतह का ड़वस्तार ही समुद्र है। महाद्वीपों की सीमा के रूप में ७ समुद्र हैं, पर गौ रूपी पृथ्वी से उत्पादन
के ललये ४ समुद्र (मण्डल) हैं-जुगोप गोरूप िराड़मवोवीम् (काललदास का रर्ुवंश, २/४)। इनको आजकल
सियर (sphere) कहते हैं-Lithosphere (पृथ्वी की ठोस सतह), Hydrosphere (समुद्र), Biosphere (पृथ्वी की
उपरी सतह सजस पर वृक्ष उगते हैं), Atmosphere (वायुमण्डल). पृथ्वी की ठोस सतह को खोदकर उनसे िातु
ड़नकालने को ही समुद्र-मन्थन कहा गया है। ड़बल्कुल ऊपरी सतह पर खेती करना दूसरे प्रकार के समुद्र का
मन्थन है। भारत में खड़नज का मुख्य स्थान ड़बलासपुर (छत्तीसगढ़) से सस
ं हभूड़म (झारखण्ड) तक है, जो नकशे में
कछुए के आकार का है। खड़नज कठोर ग्रेनाइट िट्टानों के नीिे ड़मलते हैं सजनको कूमव-पृष्ठ भूड़म कहते हैं, अथात्
कछुये की पीठ की तरह कठोर। इसके ऊपर या उत्तर मथानी के आकार पववत है जो गंगा तट तक िला गया है-
यह मन्दार पववत कहलाता है जो समुद्र मन्थन के ललये मथानी था। उत्तरी छोर पर वासुड़कनाथ तीथव है, नागराज
वासुड़क को मन्दरािल र्ुमाने की रस्सी कहा गया है। वह दे व-असुरों के सहयोग के मुख्य संिालक थे। असुर
वासुड़क नाग के मुख की तरफ थे जो अधिक गमव है। यह खान के भीतर का गमव भाग है। लगता है ड़क उस युग
में असुर खनन में अधिक दक्ष थे अतः उन्होंने यही काम ललया। दे व ड़वरल खड़नजों (सोना, िान्दी) से िातु
ड़नकालने में दक्ष थे, अतः उन्होंने सजम्बाबवे में सोना ड़नकालने का काम तथा मेड़िको में िान्दी का ललया।
पुराणों में सजम्बाबवे के सोने को जाम्बूनद-स्वणव कहा गया है। इसका स्थान केतुमाल (सूयव-ससद्िान्त, अध्याय
१२ के अनुसार इसका रोमक पत्तन उज्जैन से ९०० पसश्िम था) वषव के दसक्षण कहा गया है। यह्ं हरकुलस का
स्तम्भ था, अतः इसे केतुमाल (स्तम्भों की माला) कहते थे। बाइड़बल में राजा सोलोमन की खानें भी यहीं थीं।
मेड़िको से िान्दी आती थी अतः आज भी इसको संस्कृत में मासक्षकः कहा जाता है। िान्दी ड़नकालने की
ड़वधि में ऐसी कोई ड़क्रया नहीं है जो मड़ियों के काम जैसी हो, यह मेड़िको का ही पुराना नाम है। सोना िट्टान
में सूक्ष्म कणों के रूप में ड़मलता है, उसे ड़नकालना ऐसा ही है जैसे ड़मट्टी की ढेर से अन्न के दाने िींड़टयां िुनती
हैं। अतः इनको कण्डू लना (= िींटी, एक वनवासी उपाधि) कहते हैं। िींटी के कारण खुजली (कण्डू यन) होता है
या वह स्वयं खुजलाने जैसी ही ड़क्रया करती है, अतः सोने की खुदाई करने वाले को कण्डू लना कहते थे। सभी

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ग्रीक लेखकों ने भारत में सोने की खुदाई करने वाली िींड़टयों के बारे में ललखा है। मेगस्थनीज ने इस पर २
अध्याय ललखे हैं। समुद्र-मन्थन में सहयोग के ललये उत्तरी अफ्रीका से असुर आये थे, जहां प्रह्लाद का राज्य था,
उनको ग्रीक में ललड़बया (ड़मस्र के पसश्िम का दे श) कहा गया है। उसी राज्य के यवन, जो भारत की पसश्िमी सीमा
पर थे, सगर द्वारा खदे ि ड़दये जाने पर ग्रीस में बस गये सजसको इओड़नआ कहा गया (हेरोडोटस)।
ड़वष्णु पुराण(३/३)-सगर इधत नाम िकार॥३६॥ ड़पतृराज्यापहरणादमर्षवतो हैहयतालजङ्र्ाड़द विाय
प्रधतज्ञामकरोत्॥४०॥प्रायशश्ि हैहयास्तालजङ्र्ाञ्जर्ान॥४१॥ शकयवनकाम्बोजपारदपह्लवाः
हन्यमानास्तत्कुलगुरुं वससष्ठं शरण
ं जग्मुः॥४२॥यवनान्मुलण्डतसशरसोऽद्विमुलण्डताञ्छकान् प्रलम्बकेशान्
पारदान् पह्लवान् श्मश्रुिरान् ड़नस्स्वाध्यायवषट्कारानेतानन्यांश्ि क्षड़त्रयांश्िकार॥४७॥
अतः वहां के खड़नकों की उपाधि िातु नामों के थे, वही नाम ग्रीस में ग्रीक भाषा में गये तथा आज भी इस कूमव
क्षेत्र के ड़नवाससओं के हैं। इनके उदाहरण ड़दये जाते हैं-
(१) मुण्डा-लौह खड़नज को मुर (रोड के ऊपर ड़बछाने के ललये लाल रंग का मुरवम) कहते हैं। नरकासुर को भी मुर
कहा गया है क्योंड़क उसके नगर का र्ेरा लोहे का था (भागवत पुराण, स्कन्ध ३)-वह दे श आज मोरक्को है तथा
वहां के ड़नवासी मूर हैं। भारत में भी लौह क्षेत्र के केन्द्रीय भाग के नगर को मुरा कहते थे जो पाण्डु वंशी राजाओं
का शासन केन्द्र था (वहां के पट्टे बाद में ड़दये गये हैं)। बाद में यहां के शासकों ने पूरे भारत पर नन्द वंश के बाद
शासन ड़कया सजसे मौयव वंश कहा गया। मुरा नगर अभी हीराकुद जल भण्डार में डू ब गया है तथा १९५६ में वहां
का थाना बुरला में आ गया। मौयव के २ अथव हैं-लोहे की सतह का क्षरण (मोिा) या युद्ि क्षेत्र (यह भी मोिा) है।
फारसी में भी जंग के यही दोनों अथव हैं। लौह अयस्क के खनन में लगे लोगों की उपाधि मुण्डा है। यहां के अथवव
वेद की शाखा को भी मुण्डक है, सजसका मुण्डक उपड़नषद् उपलब्ध है। उसे पढ़ने वाले िाह्मणों की उपाधि भी
मुण्ड है (बलांड़गर, कलाहाण्डी)
(२) हंसदा-हंस-पद का अथव पारद का िूणव या ससन्दूर है। पारद के शोिन में लगे व्यड़क्त या खड़नज से ड़मट्टी आड़द
साफ करने वाले हंसदा हैं।
(३) खालको-ग्रीक में खालको का अथव ताम्बा है। आज भी ताम्बा का मुख्य अयस्क खालको (िालको)
पाइराइट कहलाता है।
(४) ओराम-ग्रीक में औरम का अथव सोना है।
(५) ककवटा-ज्याड़मधत में धित्र बनाने के कम्पास को ककवट कहते थे। इसका नक्शा (नक्षत्र दे ख कर बनता है)
बनाने में प्रयोग है, अतः नकशा बना कर कहां खड़नज ड़मल सकता है उसका ड़निारण करने वाले को करकटा
कहते थे। पूरे झारखण्ड प्रदे श को ही ककव-खण्ड कहते थे (महाभारत, ३/२५५/७)। ककव रेखा इसकी उत्तरी सीमा
पर है, पाड़कस्तान के करांिी का नाम भी इसी कारण है।
(६) ड़कस्कू-कौड़टल्य के अथवशास्त्र में यह वजन की एक माप है। भरद्वाज के वैमाड़नक रहस्य में यह ताप की इकाई
है। यह् उसी प्रकार है जैसे आिुड़नक ड़वज्ञान में ताप की इकाई मात्रा की इकाई से सम्बड़न्धत है (१ ग्राम जल ताप
१० सेलिअस बढ़ाने के ललये आवश्यक ताप कैलोरी है)। लोहा बनाने के ललये िमन भट्टी को भी ड़कस्कू कहते
थे, तथा इसमें काम करने वाले भी ड़कस्कू हुए।

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(७) टोप्पो-टोपाज रत्न ड़नकालनेवाले।
(८) सस
ं कू-ड़टन को ग्रीक में स्टैनम तथा उसके भस्म को स्टैड़नक कहते हैं।
(९) ममंज-मीन सदा जल में रहती है। अयस्क िोकर साफ करनेवाले को मीन (ममंज) कहते थे-दोनों का अथव
मछली है।
(१०) कण्डू लना-ऊपर ड़दखाया गया है ड़क पत्थर से सोना खोदकर ड़नकालने वाले कण्डू लना हैं। उस से िातु
ड़नकालने वाले ओराम हैं।
(११) हेम्ब्रम-संस्कृत में हेम का अथव है सोना, ड़वशेषकर उससे बने गहने। ड़हम के ड़वशेषण रूप में हेम या हैम का
अथव बर्व भी है। हेमसार तूधतया है। ड़कसी भी सुनहरे रंग की िीज को हेम या हैम कहते हैं। ससन्दूर भी हैम है,
इसकी मूल िातु को ग्रीक में हाईग्रेररअम कहते हैं जो सम्भवतः हेम्ब्रम का मूल है।
(१२) एक्का या कच्छप-दोनों का अथव कछुआ है। वैसे तो पूरे खड़नज क्षेत्र का ही आकार कछुए जैसा है, सजसके
कारण समुद्र मन्थन का आिार कूमव कहा गया। पर खान के भीतर गुफा को बिाने के ललये ऊपर आिार ड़दया
जाता है, नहीं तो ड़मट्टी ड़गरने से वह बन्द हो जायेगा। खान गुफा की दीवाल तथा छत बनाने वाले एक्का या
कच्छप हैं।
५. आक्रमणकारी-दुगा सप्तशती, अध्याय १ में ललखा है ड़क स्वारोधिष मनु ( ड़द्वतीय मनु) के समय भारत के
िैत्य वंशी राजा सुरथ के राज्य को कोला ड़वध्व
ं ससओं ने नष्ट कर ड़दया था, यह प्रायः १७,५०० ईसा पूवव की र्टना
है, उसके बाद १० युग (३६०० वषव) तक असुर प्रभुत्व था तथा वैवस्वत मनु का काल १३९०० ईसा पूवव में आरम्भ
हुआ। प्रायः १७००० ईसा पूवव में राजा पृथु के समय पूरी पृथ्वी का दोहन (खड़नज ड़नष्कासन) हुआ था, सजसके
कारण इसको पृथ्वी (पृथु का ड़वशेषण) कहा गया। पृथु का जन्म उनके ड़पता वेन के हाथ के मन्थन से हुआ था।
दाड़हने हाथ से ड़नषाद तथा बायें हाथ से कोल तथा भील उत्पन्न हुए (भागवत पुराण, ४/१४)। अतः यह भारत के
पूवी भाग के हो सकते हैं। भारत के नक्शे पर ड़हमालय की तरफ ससर रखकर सोने पर बायां हाथ पूवव तथा
दाड़हना हाथ पसश्िम होगा। दाड़हना हाथ (दक्ष) का यज्ञ हररद्वार में था जहां पसश्िमी भाग आरम्भ होता है। पूवी
भाग में कोल लोगों का क्षेत्र ऋष्यमूक या ऋक्ष पववत कहा जाता है सजसका अथव भालू है। कोला का अथव पूरे
ड़वश्व में भालू है। पूवी साइबेररआ कोला प्रायद्वीप है, जो भालू क्षेत्र कहा जाता है, आस्रेललआ मॆ यह भालू की
एक जाधत है, अमेररका में भी इसका अथव भालू होता था, इनका ड़प्रय फल आज भी कोका-कोला कहा जाता
है। भालू की ड़वशेषता है ड़क वह बहुत जोर से अगले दोनों पैरों से आदमी के हाथ की तरह ड़कसी को पकिता
है। अतः कोलप (कोला द्वारा रसक्षत) का अथव ओड़िया में ताला है। बहुमूल्य वस्तु ताले में रखी जाती है अतः
लक्ष्मी (सम्पधत्त) को कोलापुर ड़नवाससनी कहा गया है। महाराष्ट्र में महालक्ष्मी मड़न्दर कोल्हापुर में है। अतः
सम्पधत्त, िातु भण्डार आड़द की रक्षा करने वाले कोला हैं। इसी काम को करनेवाले अन्य दे शों के लोग भी कोला
थे, वे अलग-अलग जाधत के हो सकते हैं, पर काम समान था। इसी प्रकार समुद्र पत्तन की व्यवस्था करने वाले
वानर थे क्योंड़क तट पर जहाज को लगाने के ललये वहां बन्ध बनाना पिता है, सजसे बन्दर कहते हैं। आज भी
जहाज के पत्तन को बन्दर या बन्दरगाह कहते हैं। वानर को भी बन्दर कहते हैं। राम को भी समुद्र पारकर आक्रमण
करने के ललये वानर (पत्तन के माललक) तथा भालू (िातुओं के रक्षक) की जरूरत पिी थी। कोला जाधत के नाम

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पर ओड़िशा के कई स्थान हैं-कोलाड़बरा थाना (ओड़िशा के झारसूगुडा, झारखण्ड के ससमडेगा-दोनों सजलों में),
कोलाब (कोरापुट)। मुम्बई में भी एक समुद्र तट कोलाबा है।
६. पु राने शािक-पठार को कन्ध या पुट (प्रस्थ) कहते थे जैसे कन्ध-माल या कोरापुट। वहां के ड़नवासी को भी
कन्ध कहते थे। इनका राज्य ड़कड़ष्कन्धा था। उत्तरी भाग में बालल का प्रभुत्व था-जो ओड़िशा के बाललगुडा,
बाललमेला आड़द हैं। दसक्षणी भाग में सुग्रीव का प्रभुत्व था।
भारत का गण्ड भाग ड़वन्ध्यािल में गोण्डवाना है, वहां के ड़नवासी गोण्ड। इसकी पसश्िमी सीमा गुजरात का
गोण्डल (राजकोट सजला) है। उत्तर प्रदे श के पूवी भाग में भी एक सजला गोण्डा है पर वह गोनदव (गाय के खुर से
दबा कीिि या काली ड़मट्टी) का अपभ्रंश है जहां पतञ्जलल का जन्म हुआ था। गोण्ड लोग गोण्डवाना के शसक
थे। मुगल शासक अकबर को अड़न्तम िुनौती यहां की गोण्ड रानी दुगावती ने दी थी, उनके पधत ओड़िशा के
कलाहाण्डी में लाधञ्जगढ़ के वीरसस
ं ह थे (वृन्दावनलाल वमा का उपन्यास-रानी दुगावती)। गोण्ड जाधत में राज
पररवार के व्यड़क्त राज-गोण्ड कहलाते हैं। इन् लोगों ने सत्ता से समझौता नहीं ड़कया अतः ये दररद्र या दललत
हो गये। पर इनके जो नौकर अकबर से ड़मलकर उसके ललये जासूसी करते थे, वे पुरस्कार में राज्य पाकर बिे
होगये। रानी दुगावती के पुरोड़हत को काशी का तथा उनके रसोइआ महेश ठाकुर को ड़मधथला का राज्य ड़मला
जो नमक-हरामी-जागीर कहा गया (ड़वश्वासर्ात के ललये)। ७. कालगणना-इधतहास का मुख्य काल-िक्र
ड़हमयुग का िक्र है। पृथ्वी का मुख्य स्थल भाग उत्तर गोलािव में है, सजसमें जल-प्रलय तथा ड़हम युग का िक्र
आता है। दो कारणों से इस भाग में अधिक गमी होती है-जब उत्तरी ध्रुव सूयव की ताफ झुका हो, या जब कक्षा में
पृथ्वी सूयव के ड़नकटतम हो। जब दोनों एक साथ हों, तो जल प्रलय होगा। जब दोनों ड़वपरीत ड़दशा में हों, तो ड़हम
युग होगा। उत्तरी ध्रुव की ड़दशा २६,००० वषव में ड़वपरीत ड़दशा में िक्कर लगाती है। पृथ्वी कक्षा का ड़नकटतम
ड़वन्दु १ लाख वषव में १ िक्कर लगाता है। दोनों गधतयों का योग (ड़वपरीत ड़दशा में) २१,६०० वषव में होता है, जो
१९३२ में ड़मलांकोड़वि का ससद्िान्त था। भारत में ड़नकट कक्षा ड़वन्दु का दीर्वकाललक िक्र ललया गया है, जो
३१२,००० वषव में होता है। इसके अनुसार २४,००० वषव का िक्र होगा। इसके २ भाग हैं, पहले १२,००० वषव का
अवसर्पवणी युग होगा सजसके ४ खण्ड हैं-सत्य युग ४८०० वषव, त्रेता ३६००, द्वापर २४००, कलल १२०० वषव।
इनका १/१२ भाग पूवव तथा शेष सन्ध्या है। दूसरा भाग उत्सर्पवणी है सजनमें ये ४ खण्ड युग ड़वपरीत क्रम से आते
हैं-कलल, द्वापर, त्रेता, सत्य युग। पुराणों और वेदों के अनुसार २४,००० वषव के युगों का तीसरा िक्र िल रहा है।
तीसरे िक्र में अवसर्पवणी का कललयुग ३१०२ ई.पू. में आरम्भ हुआ। इसके अनुसार-
प्रथम िक्र-६१९०२-३७९०२ ई.पू.-दे व पूवव सभ्यता। िीन में याम दे वता। मलणजा सभ्यता। खड़नज दोहन का
आरम्भ। ४ मुख्य वगव-साध्य, महारासजक, आभास्वर, तुड़षत-आज के िाह्मण, क्षड़त्रय, वैश्य, शूद्र जैस।े
ड़द्वतीय िक्र-३७९०२-१३९०२ ई.पू.-दे व युग
अवसर्पवणी-३७९०२-२५९०२ ई.पू.-सत्य ३३१०२ ई.पू. तक। त्रेता-२९,५०२ ई.पू तक-इसमें जल प्रलय हुआ था।
इसके बाद २९१०२ ई.पू. में स्वायम्भुव मनु। द्वापर-२७,१०२ .पू. तक। कलल २५,९०२ ई.पू. तक।
उत्सर्पवणी-कलल-२४, ७०२ ई.पू. तक। द्वापर-२२,३०२ ई.पू. तक। त्रेता-१८,७०२ ई.पू. तक-इसमें ड़हम युग हुआ था।
सत्ययुग-१३९०२ ई.पू. तक-ड़हमयुग के बाद कश्यप काल (१७५०० ई.पू.) से असुर प्रभुत्व)

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तृतीय िक्र-मनुष्य युग-१३९०२ ई.पू. से १०,०९९ ई. तक।
अवसर्पवणी-सत्ययुग-१३९०२-९१०२ ई.पू. तक-वैवस्वत मनु से आरम्भ। त्रेता-५५०२ ई.पू. तक। द्वापर-३१०२ ई.पू.
तक। कलल १९०२ ई.पू. तक।
उत्सर्पवणी-कलल-७०२ ई.पू. तक। द्वापर-१६९९ ई. तक। त्रेता-५२९९ ई. तक। त्रेता ड़वज्ञान प्रगधत का युग कहा गया
है। इसकी सड़न्ध १६९९-१९९९ ई. तक औद्योड़गक क्राड़न्त तथा उसके बाद सूिना क्राड़न्त का युग िल रहा है। सत्य
युग १००९९ ई. तक।
इस काल िक्र की सभी अवसर्पवणी त्रेता में जल प्रलय तथा उत्सर्पवणी त्रेता में ड़हम युग हुआ है, अतः यह
आिुड़नक ड़मलांकोड़वि ससद्िान्त से अधिक शुद्ि है।
२ और ऐधतहाससक युग गणना हैं। िह्माण्ड पुराण के अनुसारमहाभारत के बाद ३१०२ ई.पू. में कलल आरम्भ के
समय स्वायम्भुव मनु से २६००० वषव का मन्वन्तर (ऐधतहाससक) बीत िुका था सजसमें ७१ युग थे। अतः स्वायम्भुव
मनु का काल २९१०२ ई.पू. हुआ। यहां १ युग = ३६० वषव प्रायः। मत्स्य पुराण, अध्याय २७३ के अनुसार, स्वायम्भुव
से वैवस्वत मनु तह ४३ युग = प्रायः १६००० वषव तथा उसके बाद ३१०२ ई.पू. तक प्रायः १०,००० वषव या २८ युग
बीते थे। खण्ड युगों की गणना के अनुसार वैवस्वत मनु से ३१०२ ई.पू. कलल आरम्भ तक १०८०० वषव थे। इनमें
३६० वषव के ३० युग होंगे। बीि में १०००० ई.पू. से प्रायः १००० वषव के जल प्रलय काल में प्रायः २ युग लेने पर
ठीक २८ युग बाकी हैं। इनमें वायु पुराण, अध्याय ४९९ के अनुसार दत्तात्रेय १०वें युग, मान्धाता १५वें, परशुराम
१९वें, राम २४वें, व्यास २८वें युग में हुये थे। वैवस्वत मनु से पूवव १० युग = ३६०० वषव तक असुर प्रभुत्व था, जो
कश्यप काल से अथात् १७५०० ई.पू. में आरम्भ हुआ। इसके कुछ काल बाद वराह अवतार के समय शबर जाधत
का प्रभुत्व था। राजा बलल के काल में वामन अवतार, कूमव अवतार तथा कार्त्त्तवकेय का युग था। अतः बलल को
दीर्वजीवी कहा है। कार्त्त्तवकेय के समय क्रौञ्च द्वीप पर आक्रमण हुआ था। इसका समय महाभारत, वन पवव
(२३०/८-१०) में ड़दया है ड़क उत्तरी ध्रुव अधभसजत् से दूर हट गया था तथा िड़नष्ठा नक्षत्र से वषा होती थी जब वषव
का आरम्भ हुआ। यह प्रायः १५,८०० ई.पू. का काल है। इसके १५,५०० वषव बाद ससकन्दर के आक्रमण के समय
मेगास्थनीज ने ललखा है ड़क भारत खाद्य तथा अन्य सभी िीजों में स्वावलम्बी है अतः इसने ड़पछले १५००० वषों
में ड़कसी दे श पर आक्रमण नहीं ड़कया है।
तीसरी गणना सप्तर्षव वषव की है। सप्तर्षव िक्र २७०० सौर वषव = ३०३० मानुष वषव (३२७ ड़दनों का १२ िान्द्र
पररक्रमा समय) का है। ३ सप्तर्षव िक्र का ध्रुव सम्वत्सर = ८१०० वषव का है। ३१७६-३०७६ ई.पू. तक सप्तर्षव मर्ा
नक्षत्र में थे। ड़वपरीत ड़दशा में िलते हुये जब सप्तर्षव मर्ा से ड़नकले तब युधिड़ष्ठर का कश्मीर में दे हान्त हुआ
(कलल वषव २५) और वहां सप्तर्षव या लौड़कक वषव आरम्भ हुआ। आन्ध्र वंश के अन्त के समय इनका १ िक्र पूणव
हुआ (३७६ ई.पू.-उसके प्रायः ५० वषव बाद आन्ध्र वंश का राज्य समाप्त हुआ। अगला िक्र २०२३ ई. में पूरा होगा
जब कुरान के अनुसार इस्लाम का अन्त होगा। ३०७६ ई.पू से १ ध्रुव = ८१०० वषव पूवव वैवस्वत यम का काल था
सजनके बाद िह्म पुराण तथा अवेस्ता के अनुसार जल प्रलय हुआ था। उसके ८१०० वषव पूवव १९२७६ ई.पू. में
क्रौञ्च प्रभुत्व (उत्तर अमेररका) था, अतः इसे क्रौञ्च सम्वत्सर भी कहा गया है। इससे ८१०० वषव पूवव २७,३७६ ई.पू.

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में राजा ध्रुव का दे हान्त हुआ था जब ध्रुव मर्ा नक्षत्र से ड़नकले। इसके प्राय ११८०० वषव बाद कार्त्त्तवकेय काल में
ध्रुव की ड़दशा िड़नष्ठा में थी।
िन्दभय
(1) ऐधतहाससक कालगणना-मेरी पुस्तक सांख्य ससद्िान्त अध्याय ३ में वर्णवत है। (नाग प्रकाशन, ड़दल्ली,
२००६)
(2) भीष्म संस्था के १८ खण्ड के भारतीय इधतहास के खण्ड २ पृष्ठ ३३४-३३५, खण्ड ४ पृष्ठ ९०-९१ में जनमेजय
काल आड़द का वणवन है। Sripad Kulkarni in his 18 volume book-‘The study of Indian History and
Culture’ 1988, published from BHISHMA, Thane, Mumbai.
(3) Kota Venkatachalam- ‘Age of the Mahabharata War’ written in 1957-59 and published by his
son in 1991.
(4) E. Vedavyasa- ‘Astronomical Dating of the Mahabharata War’, 1986, chapter 17.

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