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राग गौड़ मलार

आदि सनातन, हरर अदिनासी । सिा दनरं तर घठ घट िासी ॥


पूरन ब्रह्म, पुरान िखानैं । चतुरानन, दसव अंत न जानैं ॥
गुन-गन अगम, दनगम नदहं पावै । तादह जसोिा गोि खखलावै ॥
एक दनरं तर ध्यावै ज्ञानी । पुरुष पुरातन सो दनिाा नी ॥
जप-तप-संजम ध्यान न आवै । सोई नंि कैं आँ गन धावै ॥
लोचन-स्रवन न रसना-नासा । दिनु पि-पादन करै परगासा ॥
दिस्वंभर दनज नाम कहावै । घर-घर गोरस सोइ चुरावै ॥
सुक-सारि- से करत दिचारा । नारि-से पावदहं नदहं पारा ॥
अिरन-िरन सुरदन नदहं धारै । गोदपन के सो ििन दनहारै ॥
जरा-मरन तैं रदहत, अमाया । मातु -दपता, सुत, िंधु न जाया ॥
ज्ञान-रूप दहरिै मैं िोलै । सो िछरदन के पाछैं डोलै ॥
जल, धर, अदनल, अनल, नभ, छाया । पंचतत्त्व तैं जग उपजाया ॥
माया प्रगदट सकल जग मोहै । कारन-करन करै सो सोहै ॥
दसव-समादध दजदह अंत न पावै । सोइ गोप की गाइ चरावै ॥
अच्युत रहै सिा जल-साई । परमानंि परम सुखिाई ॥
लोक रचे राखैं अरु मारे । सो ग्वालदन सँग लीला धारै ॥
काल डरै जाकैं डर भारी । सो ऊखल िाँ ध्यौ महतारी ॥
गुन अतीत, अदिगत, न जनावै । जस अपार, स्रुदत पार न पावै ॥
जाकी मदहमा कहत न आवै । सो गोदपन सँग रास रचावै ॥
जाकी माया लखै न कोई । दनगुान-सगुन धरै िपु सोई ॥
चौिह भुवन पलक मैं टारै । सो िन-िीदिन कुटी सँवारै ॥
चरन-कमल दनत रमा पलौवै । चाहदत नैंकु नैन भरर जोवै ॥
अगम, अगोचर, लीला-धारी । सो राधा-िस कुंज-दिहारी ॥
िड़भागी वै सि ब्रजिासी । दजन कै सँग खेलैं अदिनासी ॥
जो रस ब्रह्मादिक नदहं पावैं । सो रस गोकुल-गदलदन िहावैं ॥
सूर सुजस ब्रह्मादिक नदहं पावैं । सो रस गोकुल-गदलदन िहावैं ॥
सूर सुजस कदह कहा िखानै । गोदिंि की गदत गोदिंि जानै ॥

राग गां धार

उठीं सखी सि मंगल गाइ ।


जागु जसोिा, तेरैं िालक उपज्यो, कुँअर कन्हाइ ॥

जो तू रच्या-सच्यो या दिन कौं, सो सि िे दह मँगाइ ।

िे दह िान िंिीजन गुदन-गन, ब्रज-िासदन पदहराइ ॥

ति हँ दस कहत जसोिा ऐसैं , महरदहं लेहु िुलाइ ।

प्रगट भयौ पूरि तप कौ फल, सुत-मुख िे खौ आइ ॥

आए नंि हँ सत दतदहं औसर, आनँि उर न समाइ ।

सूरिास ब्रज िासी हरषे , गनत न राजा-राइ ॥

राग धनाश्री

आजु िधायौ नंिराइ कैं, गावहु मंगलचार ।


आईं मंगल-कलस सादज कै, िदध फल नूतन-डार ॥
उर मेले नंिराइ कैं, गोप-सखदन दमदल हार ।
मागध-िंिी-सूत अदत करत कुतूहल िार ॥
आए पूरन आस कै, सि दमदल िे त असीस ।
नंिराइ कौ लादड़लौ, जीवै कोदट िरीस ॥
ति ब्रज-लोगदन नंि जू , िीने िसन िनाइ ।
ऐसी सोभा िे ख कै, सूरिास िदल जाइ ॥

"नै नन अंतर आव तू, नयन झाँ प तोदह लेऊँ


ना में िे खूँ और कूँ, ना तोहे िे खन िे ऊँ।।"
सिसे ऊँची प्रेम सगाई ।
िु योधन को मेवा त्याग्यो, साग दविु र घर पाई ॥
सिसे ऊँची प्रेम सगाई ।
जू ठे फल सिरी के खाये, िहु दिदध प्रेम लगाई ॥
सिसे ऊँची प्रेम सगाई ।

प्रेम के िस नृप सेवा कीन्ही, आप िने हरर नाई ॥


सिसे ऊँची प्रेम सगाई।
राजसुय यज्ञ युदधदिर कीनो, तामै जूठा उठाई ॥
सिसे ऊँची प्रेम सगाई ।
प्रेम के िस अजुान रि हाँ ख्यो, भूल गये ठकुराई ॥
सिसे ऊँची प्रेम सगाई।
ऐसी प्रीदत िढी वृन्दावन, गोदपन नाच नचाई ॥
सिसे ऊँची प्रेम सगाई।
सूर क्रूर इस लायक नाही, कह लग करउ िढाई ॥
सिसे ऊँची प्रेम सगाई।

.१.
िे खे मैं छिी आज अदत दिदचत्र हररकी ॥ध्रु०॥
आरुण चरण कुदलशकंज । चंिनसो करत रं ग सूरिास जंघ जु गुली खं ि किली ।
कटी जोकी हररकी ॥१॥
उिर मध्य रोमावली । भवर उठत सररता चली । वत्ां दकत हृिय भान ।
चोदक दहरनकी ॥२॥
िसनकुंि नासासुक । नयनमीन भवकामुाक । केसरको दतलक भाल ।
शोभा मृगमिकी ॥३॥
सीस सोभे मयुरदपच्छ । लटकत है सुमन गुच्छ । सूरिास हृिय िसे ।
मूरत मोहनकी ॥४॥

२.
श्रीराधा मोहनजीको रूप दनहारो ॥ध्रु०॥
छोटे भैया कृष्ण िडे िलिाऊं चंद्रवंश उदजआरो ॥श्री०॥१॥
मोर मुगुट मकराकृत कुंडल दपतां िर पट िारो ॥श्री०॥२॥
हलधर गीरधर मिन मनोहर जशोमदत नं ि िु लारी ॥श्री०॥३॥
शंख चक्र गिा पद्म दवराजे असुरन भंजन हारो ॥श्री०॥४॥
जमुनाके नीर तीर धेनु चरावे वोढे कामर कारो ॥श्री०॥५॥
दनरमल जल जमुनाजीको दकनो नागनाि लीयो कारो ॥श्री०॥६॥
इं द्र कोप चढे व्रज उपर नखपर गीरवर धारो ॥श्री०॥७॥
कनक दसंहासन जिु वर िैठे कोदट भानु उदजआरो ॥श्री०॥८॥
माता जशोिा करत आरती िार िार िदलहारो ॥श्री०॥९॥
सूरिास हररको रूप दनहारे जीवन प्रान हमारे ॥श्री०॥१०॥

३.
राधे कृष्ण कहो मेरे प्यारे भजो मेरे प्यारे जपो मेरे प्यारे ॥ध्रु०॥
भजो गोदवंि गोपाळ राधे कृष्ण कहो मेरे ॥ प्यारे ०॥१॥
कृष्णजीकी लाल लाल अखखयां हो लाल अखखयां ।
जै सी खखलीरे गुलाि ॥राधे ०॥२॥
दसरपर मुगुट दवराजे हो दवराजे । िन्सी शोभे रसाल ॥राधे ०॥३॥
दपतां िर पटकुलवाली हो पटकुलवाली कंठे मोदतयनकी माल ॥राधे ०॥४॥
शुभ काने कुंडल झलके हो कुंडल झलके । दतलक शोभेरे ललाट ॥राधे०॥५॥
सूरिास चरण िदलहारी हो चरण िदलहारी । मै तो जनम जनम दतहारो िास
॥राधे०॥६॥

४.
नं ि िु वारे एक जोगी आयो दशंगी नाि िजायो ।
सीश जटा शदश विन सोहाये अरुण नयन छदि छायो ॥ नं ि ॥ध्रु ०॥
रोवत खखजत कृष्ण सावरो रहत नही हुलरायो ।
लीयो उठाय गोि नं िरानी द्वारे जाय दिखायो ॥नं ि०॥१॥
अलख अलख करी लीयो गोिमें चरण चुदम उर लायो ।
श्रवण लाग कछु मंत्र सुनायो हसी िालक कीलकायो ॥ नं ि ॥२॥
दचरं जीवोसुत महरी दतहारो हो जोगी सुख पायो ।
सूरिास रदम चल्यो रावरो संकर नाम ितायो ॥ नं ि॥३॥

५.
िे ख िे ख एक िाला जोगी द्वारे मेरे आया हो ॥ध्रु०॥
पीतपीतां िर गंगा दिराजे अंग दिभूती लगाया हो । तीन ने त्र अरु दतलक चंद्रमा
जोगी जटा िनाया हो ॥१॥
दभछा ले दनकसी नं िरानी मोतीयन िाल भराया हो । ल्यो जोगी जाओ आसनपर
मेरा लाल िराया हो ॥२॥
ना चईये तेरी माया हो अपनो गोपाल िताव नं िरानी । हम िरशनकु आया हो
॥३॥
िालकले दनकसी नं िरानी जोगीयन िरसन पाया हो । िरसन पाया प्रेम िस नाचे
मन मंगल िरसाया हो ॥४॥
िे त आसीस चले आसनपर दचरं जीव तेरा जाया हो । सूरिास प्रभु सखा दिराजे
आनं ि मंगल गाया हो ॥५॥

६.

िासरी िजाय आज रं गसो मुरारी । दशव समादध भूदल गयी मुदन मनकी तारी ॥
िा०॥ध्रु ०॥
िेि भनत ब्रह्मा भुले भूले ब्रह्मचरी । सुनतही आनं ि भयो लगी है करारी ॥
िास०॥१॥
रं भा सि ताल चूकी भूमी नृ त्य कारी । यमुना जल उलटी िहे सुदध ना सम्हारी
॥ िा०॥२॥
श्रीवृंिावन िन्सी िजी तीन लोक प्यारी । ग्वाल िाल मगन भयी व्रजकी सि नारी
॥ िा०॥३॥
सुंिर श्याम मोहन मुरती नटिर वपुधारी । सूरदकशोर मिन मोहन चरण कमल
िदलहारी ॥ िास०॥४॥

७.
जागो पीतम प्यारा लाल तुम जागो िखन्सवाला । तुमसे मेरो मन लाग रह्यो तुम
जागो मुरलीवाला ॥ जा०॥ध्रु ०॥
िनकी दचडीयां चौं चौं िोले पंछी करे पुकारा । रजदन दित और भोर भयो है
गरगर खुल्या कमरा ॥१॥
गरगर गोपी िदह दिलोवे कंकणका दठमकारा । िदहं िू धका भर्‍या कटोरा सावर
गुडाया डारा ॥ जा०॥२॥
धे नु उठी िनमें चली संग नहीं गोवारा । ग्वाल िाल सि द्वारे ठाडे स्तुदत करत
अपारा ॥ जा०॥३॥
दशव सनकादिक और ब्रह्मादिक गुन गावे प्रभू तोरा । सूरिास िदलहार चरनपर
चरन कमल दचत मोरा ॥ जा०॥४॥

८.

ऐसे भखि मोहे भावे उद्धवजी ऐसी भखि । सरवस त्याग मगन होय नाचे जनम
करम गुन गावे ॥ उ०॥ध्रु०॥
किनी किे दनरं तर मेरी चरन कमल दचत लावे ॥ मुख मुरली नयन जलधारा
करसे ताल िजावे ॥उ०॥१॥
जहां जहां चरन िे त जन मेरो सकल दतरि चली आवे । उनके पिरज अंग
लगावे कोटी जनम सुख पावे ॥उ०॥२॥
उन मुरदत मेरे हृिय िसत है मोरी सूरत लगावे । िदल िदल जाऊं श्रीमुख िानी
सूरिास िदल जावे ॥उ०॥३॥

९.
ग्वाली ते मेरी गेंि चोराई ग्वादलदन तें मेरी गेंि चोराई । खे लत गेंि परी तोरे
अंगना अंदगया िीच दछपाई ॥ध्रु०॥
काहेकी गेंि काहेकी धागा कौन हात िनाई फुलनकी गेंि । रे शमका धागा
जशोमदत हाि िनाई ॥११॥
झुटे लाल झुट मदत िोलो अंदगया तकत पराई । जो मेरी अंदगयामें गेंि जो
दनकसे भूल जावो ठकुराई ॥ ग्या०॥२॥
हस हस िात करत राधे संग उतसें जशोिा आई । सूरिास प्रभु चतुर कनै या
एक गये िो पाई ॥ ग्वा०॥३॥

१०.
नेक चलो नं िरानी उहां लगी नेक चलो नं िारानी ॥ध्रु०॥
िे खो आपने सुतकी करनी िू ध दमलावत पानी ॥उ०॥१॥
हमरे दशरकी नयी चुनररया ले गोरसमें सानी ॥उ०॥२॥
हमरे उनके करन िाि है हम िे खावत जिानी ॥उ०॥३॥
तुमरे कुलकी ऐशी ितीया सो हमारे सि जानी ॥उ०॥४॥
दपता तुमारे कंस घर िां धे आप कहावत िानी ॥उ०॥५॥
यह व्रजको िसवो हम त्यागो आप रहो राजधानी ॥उ०॥६॥
सूरिास उखर उखरकी िरखा िोर जल उतरानी ॥उ०॥७॥

११.
िे खो माई हलधर दगरधर जोरी ॥ध्रु०॥
हलधर हल मुसल कलधारे दगरधर छत्र धरोरी ॥िे खो०॥१॥
हलधर ओढे दपत दपतां िर दगरधर पीत दपछोरी ॥िे खो०॥२॥
हलधर केहे मेरी कारी कामरी गीरधरने ली चोरी ॥िे खो०॥३॥
सूरिास प्रभुकी छदि दनरखे भाग िडे जीन कोरी ॥िे खो०॥४॥

१२.
ने ननमें लादग रहै गोपाळ नेननमें ॥ध्रु ०॥
मैं जमुना जल भरन जात रही भर लाई जंजाल ॥ने०॥१॥
रुनक झुनक पग ने पुर िाजे चाल चलत गजराज ॥ने०॥२॥
जमुनाके नीर तीर धेनु चरावे संग लखो दलये ग्वाल ॥ने०॥३॥
दिन िे खे मोही कल न परत है दनसदिन रहत दिहाल ॥ने०॥४॥
लोक लाज कुलकी मरजािा दनपट भ्रमका जाल ॥ने०॥५॥
वृंिािनमें रास रचो है सहस्त्र गोदप एक लाल ॥ने०॥६॥
मोर मुगुट दपतां िर सोभे गले वैजयंती माल ॥ने ०॥७॥
शंख चक्र गिा पद्म दवराजे वां के नयन दिसाल ॥ने०॥८॥
सुरिास हररको रूप दनहारे दचरं जीव रहो नंि लाल ॥ने०॥९॥

१३.
िरसन दिना तरसत मोरी अखखयां ॥ध्रु०॥
तुमी दपया मोही छां ड सीधारे फरकन लागी छदतया ॥ि०॥१॥
िखस्त छाड उज्जड दकनी व्याकुल भ्‍ई सि सखखयां ॥ि०॥२॥
सूरिास कहे प्रभु तुमारे दमलनकूं ज्युजलंती मुख िदतया ॥ि०॥३॥

१४.
सावरे मोकु रं गमें िोरी िोरी सां वरे मोकुं रं गमें िोरी िोरी ॥ध्रु०॥
िहीयां पकर कर शीरकी गागररया । दछन गागर ढोरी ।
रं गमें रस िस मोकूं दकनी । डारी गुलालनकी झोरी । गावत लागे मुखसे होरी
॥सा०॥१॥
आयो अचानक दमले मंदिरमें । िे खत नवल दकशोरी ।
धरी भूजा मोकुं पकरी जीवनने िलजोरे । माला मोदतयनकी तोरी ॥सा०॥२॥
ति मोरे जोर कछु न चालो । िात कठीन सुनाई ।
तिसे उनकु नेन दिखायो मत जानो मोकूं मोरी । जानु तोरे दचतकी चोरी
॥सा०॥३॥
मरजािा हमेरी कछु न राखी कंचुिोकी कसतोरी ।
सूरिास प्रभु तुमारे दमलनकू मोकूं रं गमें िोरी । गईती मैं नं िजीकी पोरी
॥सा०॥४॥

१५.
हमसे छल कीनो काना नेनवा लगायके ॥ध्रु ०॥
जमुनाजलमें जीपें गेंि डारी कादल नागनाि लाये । इं द्रको गुमान हयो गोवरधन
धारके ॥ह०॥१॥
मोर मुगुट िां धे काली कामरी खां िे । जमुनाजीमें ठाडो काना िासरी िजायके
॥ह०॥२॥
िे वकीको जायो काना आदधरे न गोकुल आयो । जशोिा रमायो काना माखन
खखलायके ॥ह०॥३॥
गोदप सि त्याग दिनी कुिजा संग प्रीत कीदन । सूर कहे प्रभु िरुशन िीजे मोरी
व्रजमें आयके ॥ह०॥४॥
१६.
जमुनाके तीर िन्सरी िजावे कानो ॥ज०॥ध्रु०॥
िन्सीके नाि िंभ्यो जमुनाको नीर खग मृग धेनु मोदह कोदकला अनें दकर
॥िं०॥१॥
सुरनर मुदन मोह्या रागसो गंभीर । धुन सुन मोदह गोदप भूली आं ग चीर ॥िं०॥२॥
मारुत तो अचल भयो धरी रह्यो धीर । गौवनका िच्यां मोह्यां पीवत न खीर
॥िं०॥३॥
सूर कहे श्याम जािु कीन्ही हलधरके िीर । सिहीको मन मोह्या प्रभु सुख सरीर
॥ि०॥४॥

१७.
मधु रीसी िेन िजायके । मेरो मन मोह्यो सां वरा ॥ध्रु०॥
मेरे आं गनमें िां सको िेडलो दसंचो मन दचत्त लायके । अि तो िेरण भई िासरी
मोहन मुखपर आयके ॥सां०॥१॥
मैं जल जमुना भरन जातरी मारग रोक्यो आयके । िनसीमें कछु आचरण गावे
राधे को नाम सुनायके ॥सा०॥२॥
घुंघटका पट ओडे आवें सि सखखयां सरमायके । कहां कहे ली सहे ली सासु नणंिी
घर जायके ॥सां ०॥३॥
सूरिास गोकुलकी मदहमा किलग कहं िनायके । एक िेर मोहे िरशन िीजो
कुंज गदलनमें आयके ॥सां ०॥४॥

१८.
काह जोगीकी नजर लागी है मेरो कुंवर । कखन्हया रोवे ॥ध्रु०॥
घर घर हात दिखावे जशोिा िू ध पीवे नदह सोवे । चारो डां डी सरल सुंिर ।
पलने में जु झुलावे ॥मे०॥१॥
मेरी गली तुम दछन मदत आवो । अलख अलख मुख िोले ।
राई लवण उतारे यशोिा सुरप्रभूको सुवावे ॥मे०॥२॥

१९.
शाम नृ पती मुरली भई रानी ॥ध्रु ०॥
िन ते ल्याय सुहादगनी दकनी । और नारी उनको न सोहानी ॥१॥
किहु अधर आदलंगन किहु । िचन सुनन तनु िसा भुलानी ॥२॥
सुरिास प्रभू तुमारे सरनकु । प्रेम ने मसे दमलजानी ॥३॥
२०.
मुरली कुंजनीनी कुंजनी िाजती ॥ध्रु ०॥
सुनीरी सखी श्रवण िे अि तुजेही दिदध हररमुख राजती ॥१॥
करपल्लव जि धरत सिैलै सप्त सूर दनकल साजती ॥२॥
सूरिास यह सौती साल भई सिहीनके शीर गाजती ॥३॥

२१.
तुमको कमलनयन किी गलत ॥ध्रु ०॥
ििन कमल उपमा यह साची ता गुनको प्रगटावत ॥१॥
सुंिर कर कमलनकी शोभा चरन कमल कहवावत ॥२॥
और अंग कही कहा िखाने इतने हीको गुन गवावत ॥३॥
शाम मन अडत यह िानी िढ श्रवण सुनत सुख पवावत ।
सूरिास प्रभु ग्वाल संघाती जानी जाती जन वावत ॥४॥

२२.
रदसक सीर भो हे री लगावत गावत राधा राधा नाम ॥ध्रु०॥
कुंजभवन िैठे मनमोहन अली गोहन सोहन सुख तेरोई गुण ग्राम ॥१॥
श्रवण सुनत प्यारी पुलदकत भई प्रफुखल्लत तनु मनु रोम राम सुखराशी िाम ॥२॥
सूरिास प्रभु दगरीवर धरको चली दमलन गजराज गादमनी झनक रुनक िन धाम
॥३॥

२३.
फुलनको महल फुलनकी सज्या फुले कुंजदिहारी । फुली राधा प्यारी ॥ध्रु०॥
फुलेवे िं पती नवल मनन फुले फले करे केली न्यारी ॥१॥
फुलीलता वेली दवदवधा सुमन गन फुले आवन िोऊं है सुखकारी ॥२॥
सूरिास प्रभु प्यारपर िारत फुले फलचंपक िेली ने वारी ॥३॥

२४.
कायकूं िहार परी । मुरलीया ॥ कायकू ि०॥ध्रु०॥
जे लो तेरी ज्यानी पग पछानी । आई िनकी लकरी मुरदलया ॥ कायकु ि०॥१॥
घडी एक करपर घडी एक मुखपर । एक अधर धरी मुरदलया ॥ कायकु ि०॥२॥
कनक िासकी मंगावूं लकररयां । दछलके गोल करी मुरदलया ॥ कायकु ि०॥३॥
सूरिासकी िाकी मुरदलये । संतन से सुधरी । मुरदलया काय०॥४॥
२५.
सुिामजीको िे खत श्याम हसे सुिामजीको िे खत० ॥ध्रु ०॥
हम तुम दमत्र है िालपनके । अि तुम िू र िसे ॥ सुिामजी ॥१॥
फाटीरे धोती टु टी पगडीयां । चालत पाव घसे ॥ सुिा०॥२॥
भादभजीने कुछ भेट पठाई । पोवे तीन पैसे ॥ सुिा०॥३॥
सूरिास प्रभु तुम्हारे दमलनसे । कंचन मेल िसे ॥ सुिामजी०॥४॥

२६.
महाराज भवानी ब्रह्म भुवनकी रानी ॥ध्रु०॥
आगे शंकर तांडव करत है । भाव करत शुलपानी ॥ महा०॥१॥
सुरनर गंधवाकी दभड भई है । आगे खडा िं डपानी ॥ महा०॥२॥
सुरिास प्रभु पल पल दनरखत । भिवत्ल जगिानी ॥ महा०॥३॥

२७.
हरर जनकू हररनाम िडो धन हरर जनकू हररनाम ॥ ध्रु०॥
दिन रखवाले चोर नदह चोरत सुवत है सुख धाम ॥ ि०॥१॥
दिन िीन होते सवाई िोढी धरत नहीं कछु िाम ॥ ि०॥२॥
सुरिास िोढी धरत नहीं कछु िाम ॥ ि०॥३॥
प्रभु सेवा जाकी पारससुं कहां काम ॥ ि०॥४॥

२८.
ऐसे संतनकी सेवा । कर मन ऐसे संतनकी सेवा ॥ध्रु०॥
शील संतोख सिा उर दजनके । नाम रामको लेवा ॥ क०॥१॥
आन भरोसो हृिय नदह दजनके । भजन दनरं जन िे वा ॥ क०॥२॥
जीन मुि दफरे जगमाही । ज्यु नारि मुनी िे वा ॥ क०॥३॥
दजनके चरन कमलकूं इच्छत । प्रयाग जमुना रे वा ॥ क०॥४॥
सूरिास कर उनकी संग । दमले दनरं जन िे वा ॥ क०॥५॥

२९.
जयजय नारायण ब्रह्मपरायण श्रीपती कमलाकां त ॥ध्रु ०॥
नाम अनं त कहां लगी िरनुं शेष न पावे अंत ।
दशव सनकादिक आदि ब्रह्मादिक सूर मुदनध्यान धरत ॥ जयजय० ॥१॥
मच्छ कच्छ वराह नारदसंह प्रभु वामन रूप धरत ।
परशुराम श्रीरामचंद्र भये लीला कोटी करत ॥ जयजय० ॥२॥
जन्म दलयो वसुिेव िे वकी घर जशूमती गोि खेलत ।
पेस पाताल काली नागनाथ्यो फणपे नृ त्य करत ॥ जयजय० ॥३॥
िलिे व होयके असुर संहारे कंसके केश ग्रहत ।
जगन्नाि जगमग दचंतामणी िैठ रहे दनश्चत ॥ जयजय० ॥४॥
कदलयुगमें अवतार कलंकी चहुं दिशी चक्र दफरत ।
द्वािशस्कंध भागवत गीता गावे सूर अनं त ॥ जयजय० ॥५॥

३०.

जनम सि िातनमें दित गयोरे ॥ध्रु०॥


िार िरस गये लडकाई । िसे जोवन भयो ।
दत्रश िरस मायाके कारन िे श दििे श गयो ॥१॥
चालीस अंिर राजकुं पायो िढे लोभ दनत नयो ।
सुख संपत मायाके कारण ऐसे चलत गयो ॥ जन० ॥२॥
सुकी त्वचा कमर भई दढली, ए सि ठाठ भयो ।
िेटा िहुवर कह्यो न माने िुड ना शठजीह भयो ॥ जन० ॥३॥
ना हरी भजना ना गुरु सेवा ना कछु िान दियो ।
सूरिास दमथ्या तन खोवत जि ये जमही आन दमल्यो ॥ जन०॥४॥

३१.

िे खो ऐसो हरी सुभाव िे खो ऐसो हरी सुभाव दिनु गंभीर उिार उिदध प्रभु जानी
दशरोमणी राव ॥ध्रु०॥
ििन प्रसन्न कमलपि सुनमुख िे खत है जै से | दिमुख भयेकी कृपावा मुखकी दफरी
दचतवो तो तैसे ॥िे ०॥१॥
सरसो इतनी सेवाको फल मानत मेरु समान । मानत सिकुच दसंधु अपराधदह
िुंि आपने जान ॥िे ०॥२॥
भिदिरह कातर करुणामय डोलत पाछे लाग । सूरिास ऐसे प्रभुको िये पाछे
दपटी अभाग ॥िे ०॥३॥

३२.

सि दिन गये दवषयके हे त सि दिन गये ॥


गंगा जल छां ड कूप जल दपवत हरर तजी पूजत प्रेत ॥ध्रु ०॥
जादन िुजी अपनो तन खोयो केस भये सि स्वेत ।
श्रवण न सुनत नैनत िे खत िके चरनके चेत ॥ सि०॥१॥
रुधे द्वार शब्द छष्ण नदह आवत । चंद्र ग्रहे जे से केत ।
सूरिास कछु ग्रंि नदह लागत । अिे कृष्ण नामको लेत ॥ सि०॥२॥

३३.

मन तोये भुले भखि दिसारी मन तो ये भुले भखि दिसारी ।


दशरपर काल सिासर सां धत िे खत िाजीहारी ॥ध्रु०॥
कौन जमनातें सकृत कीनो मनुख िे हधरी ।
तामे नीच करम रं ग रच्यो िु ष्ट िासना धरी ॥ मन० ॥१॥
िालपनें खे लनमें खोयो जीवन गयो संग नारी ।
वृद्ध भयो जि आलस आयो सवास्व हायो जु वारी ॥ मन०॥२॥
अजहुं जरा रोग नहीं व्यापी तहां लो भजलो मुरारी ।
कहे सूर तूं चेत सिेरो अंतकाल भय भारी ॥ मन०॥३॥

३४.

िेर िेर नही आवे अवसर िेर िेर नही आवे ।


जो जान तो करले भलाई जन्मोजन्म सुख पावे ॥ िरे ०॥१॥
धन जोित अंजलीको पाणी िखणतां िेर नहीं लागे ।
तन छु टे धन कोन कामको काहेकूं करनी कहावे ॥ िेर िेर०॥२॥
ज्याको मन िडो कृष्ण स्नेहकुं झूठ किहं नही आवे ।
सूरिासकी येही दिनती हरखी दनरखी गुन गावे ॥ िेर िेर०॥३॥

३५.
केत्ते गये जखमार भजनदिना केत्ते गये० ॥ध्रु०॥
प्रभाते उठी नावत धोवत पालत है आचार ॥ भज०॥१॥
िया धमाको नाम न जाण्यो ऐसो प्रेत चंडाल ॥ भज०॥२॥
आप डु िे औरनकूं डु िाये चले लोभकी लार ॥ भज०॥३॥
माला छापा दतलक िनायो ठग खायो संसार ॥ भज०॥४॥
सूरिास भगवंत भजन दिना पडे नकाके द्वार ॥ भज०॥५॥
३६.
क्यौरे दनं िभर सोया मुसाफर क्यौरे दनं िभर सोया ॥ध्रु०॥
मनुजा िे दह िे वनकु िु लाभ जन्म अकारन खोया ॥ मुसा०॥१॥
घर िारा जोिन सुत तेरा वामें मन तेरा मोह्या ॥ मुसा०॥२॥
सूरिास प्रभु चलेही पंिकु दपछे नैनूं भरभर रोया ॥ मुसा०॥३॥

३७.
जय जय श्री िालमुकुंिा । मैं हं चरण चरण रजिंिा ॥ध्रु०॥
िे वकीके घर जन्म दलयो जि । छु ट परे सि िंिा ॥ च०॥१॥
मिुरा त्यजे हरर गोकुल आये । नाम धरे जिु नंिा ॥ च०॥२॥
जमुनातीरपर कूि परोहै । फनपर नृ त्यकरं िा जमुनातीरपर कूि परोहै ।
फरपर नृ त्यकरं िा ॥ च०॥३॥
सूरिास प्रभु तुमारे िरशनकु । तुमही आनं िकंिा ॥ च०॥४॥

३८.
दनरधनको धदन राम । हमारो०॥ध्रु ०॥
खान न खचात चोर न लूटत । सािे आवत काम ॥ह०॥१॥
दिन दिन होत सवाई िीढी । खरचत को नहीं िाम ॥ह०॥२॥
सूरिास प्रभु मुखमों आवत । और रसको नही काम हमारो०॥३॥

३९.
अि् भुत एक अनु पम िाग ॥ध्रु०॥
जु गल कमलपर गजवर क्रीडत तापर दसंह करत अनु राग ॥१॥
हररपर सरवर दगरीवर दगरपर फुले कुंज पराग ॥२॥
रुदचत कपोर िसत ताउपर अमृत फल ढाल ॥३॥
फलवर पुहप पुहुपपर पलव तापर सुक दपक मृगमि काग ॥४॥
खंजन धनुक चंद्रमा राजत ताउपर एक मनीधर नाग ॥५॥
अंग अंग प्रती वोरे वोरे छदि उपमा ताको करत न त्याग ॥६॥
सूरिास प्रभु दपवहं सुधारस मानो अधरदनके िड भाग ॥७॥

४०.
तिमें जानकीनाि कहो ॥ध्रु०॥
सागर िां धु सेना उतारो । सोने की लंका जलाहो ॥१॥
तेतीस कोटकी िंि छु डावूं दिदभसन छत्तर धरावूं ॥२॥
सूरिास प्रभु लंका दजती । सो सीता घर ले आवो ।
तिमें जानकीनाि०॥३॥

४१.
कमलापती भगवान । मारो साईं कम०॥ध्रु०॥
राम लछमन भरत शत्रुघन । चवरी डु लावे हनु मान ॥१॥
मोर मुगुट दपतां िर सोभे । कुंडल झलकत कान ॥२॥
सूरिास प्रभु तुमारे दमलनकुं । िासाकुं वांको ध्यान ।
मारू सां ई कमलापती० ॥३॥

४२.
उधो मनकी मनमें रही ॥ध्रु ०॥
गोकुलते जि मिुरा पधारे । कुंजन आग िे ही ॥१॥
पदतत अक्रूर कहासे आये । िु खमें िाग िे ही ॥२॥
तन तालाभरना रही उधो । जल िल भस्म भई ॥३॥
हमरी आख्या भर भर आवे । उलटी गंगा िही ॥४॥
सूरिास प्रभु तुमारे दमलन । जो कछु भई सो भई ॥५॥

४३.
नारी िू रत ियाना रतनारे ॥ध्रु०॥
जानु िंधु िसुमन दिसाल पर सुंिर शाम सीली मुख तारे ।
रहीजु अलक कुटील कुंडलपर मोतन दचतवन दचते दिसारे ।
दसिील मोंह धनु गये मिन गुण रहे कोकनि िान दिखारे ।
मुिेही आवत है ये लोचन पलक आतुर उधर तन उधारे ।
सूरिास प्रभु सोई धो कहो आतुर ऐसोको िदनता जासो रदत रहनारे ॥१॥

४४.
अदत सूख सुरत दकये ललना संग जात समि मन्मि सर जोरे ।
राती उनीिे अलसात मरालगती गोकुल चपल रहतकछु िोरे ।
मनह कमलके को सते प्रीतम ढुं डन रहत छपी रीपु िल िोरे ।
सजल कोप प्रीतमै सुशोदभयत संगम छदि तोरपर ढोरे ।
मनु भारते भवरमीन दशशु जात तरल दचतवन दचत चोरे ।
वरनीत जाय कहालो वरनी प्रेम जलि िेलावल ओरे ।
सूरिास सो कोन दप्रया दजनी हरीके सकल अंग िल तोरे ॥१॥
४५.
रै न जागी दपया संग रं ग मीनी ॥ध्रु ०॥
प्रफुखल्लत मुख कंज नेन खजरीटमान मेन दमिुरी । रहे चुरन कच ििन ओप
दकनी ॥१॥
आतुर आलस जंभात पूलकीत अदतपान खाि मि । माते तन मुधीन रही सीिल
भई िेनी ॥२॥
मां गते टरी मुिता हल अलक संग अरुची रही ऊरग । नसत फनी मानो
कुंचकी तजी दिनी ॥३॥
दिकसत ज्यौं चंपकली भोर भये भवन चली लटपटात । प्रेम घटी गजगती गती
दलन्हा ॥४॥
आरतीको करत नाश दगररधर सुठी सुखकी रासी सूरिास । स्वामीनी गुन गने न
जात दचन्ही ॥५॥

४६.
खे दलया आं गनमें छगन मगन दकदजये कलेवा । छीके ते सारी िधी उपर तें कढी
धरी पहीर ।
लेवूं झगुली फेंटा िाँ धी लेऊं मेवा ॥१॥
गवालनके संग खेलन जाऊं खेलनके मीस भूषण ल्याऊं । कौन परी प्यारे ललन
नीसिीनकी ठे वा ॥२॥
सूरिास मिनमोहन घरही खेलो प्यारे । ललन भंवरा चक डोर िे हो हं स चकोर
परे वा ॥३॥

४७.
काना कुिजा संग ररझोरे । काना मोरे करर कामाररया ॥ध्रु ०॥
मैं जमुना जल भरन जात रामा । मेरे दसरपर घागररयां ॥ का०॥१॥
मैं जी पेहरी चटक चुनररया । नाक निदनयां िसररया ॥ का०॥२॥
दब्रंिािनमें जो कुंज गदलनमो । घे रदलयो सि ग्वालदनया ॥ का०॥३॥
जमुनाके दनरातीर धेनु चरावे । नाव निनीके िेसररयां ॥ का०॥४॥
सूरिास प्रभु तुमरे िरसनकु । चरन कमल दचत्त धररया ॥ का०॥५॥

४८.
कोण गती दब्रजनाि । अि मोरी कोण गती दब्रजनाि ॥ध्रु ०॥
भजनदिमुख अरु स्मरत नही । दफरत दवषया साि ॥१॥
हं पतीत अपराधी पूरन । आचरु कमा दवकार ॥२॥
काम क्रोध अरु लाभ । दचत्रवत नाि तुमही ॥३॥
दवकार अि चरण सरण लपटाणो । राखीलो महाराज ॥४॥
सूरिास प्रभु पतीतपावन । सरनको ब्रीि संभार ॥५॥

४९.
चोरी मोरी गेंिया मैं कैशी जाऊं पाणीया ॥ध्रु ०॥
ठाडे केसनजी जमुनाके िाडे । गवाल िाल सि संग दलयो ।
न्यारे न्यारे खेल खेलके । िनसी िजाये पटमोहे ॥ चो०॥१॥
सि गवालनके मनको लुभावे । मुरली खू ि ताल सुनावे ।
गोदप घरका धं िा छोडके । श्यामसे दलपट जावे ॥ चो०॥२॥
सूरिास प्रभू तुमरे चरणपर । प्रेम ने मसे भजत है ।
िया करके िे ना िशान । अनाि नाि तुमारा है ॥ चो०॥३॥

५०.
खे लने न जाऊं मैया ग्वादलनी खखजावे मोहे ।
पीत िसन गुंज माला लेती है छु डायके ॥ध्रु ०॥
कोई तेरा नाम लेके लागी गारी मोकु िे ण ।
मैं भी वाकूं गारी िे के आयहुं पलायके ॥ खे०॥१॥
कोई मेरा मुख चुंिे भवन िुलाय केरी ।
कां चली उतार लेती िे ती है नचायके ॥ खे०॥२॥
सूरिास तो तलात नमयासु कहत िात हां से ।
उठ मैया लेती कंठ लगायके । खेलने न जाऊं ॥ खे०॥३॥

मुख दधि लेप धिए

सोदभत कर नवनीत दलए।

घुटुरुदन चलत रे नु तन मंदडत मुख िदध लेप दकए॥

चारु कपोल लोल लोचन गोरोचन दतलक दिए।

लट लटकदन मनु मत्त मधुप गन मािक मधुदहं दपए॥

कठु ला कंठ वज्र केहरर नख राजत रुदचर दहए।

धन्य सूर एकौ पल इदहं सुख का सत कल्प दजए॥


दनदसदिन िरसत नै न हमारे ।
सिा रहत पावस ऋतु हम पर, जिते स्याम दसधारे ।।
अंजन दिर न रहत अँखखयन में, कर कपोल भये कारे ।
कंचुदक-पट सूखत नदहं किहुँ , उर दिच िहत पनारे ॥
आँ सू सदलल भये पग िाके, िहे जात दसत तारे ।
'सूरिास' अि डूित है ब्रज, काहे न लेत उिारे ॥

चरन-कमल िंिौं हरर-राइ ।


जाकी कृपा पंगु दगरर लंघै, अँधे कों सि कछु िरसाइ ।
िदहरौ सुनै, गूँग पुदन िोलै ,रं क चलै दसर छत्र धराइ ।
सूरिास स्वामी करुनामय, िार-िार िंिौं दतदहं पाइ ॥1॥

िासुिेव की िड़ी िड़ाई ।


जगत दपता, जगिीस, जगत-गुरु, दनज भिदन-की सहत दढठाई ।
भृगु कौ चरन राखख उर ऊपर, िोले िचन सकल-सुखिाई ।
दसव-दिरं दच मारन कौं धाए, यह गदत काह िे व न पाई ।
दिनु -ििलैं उपकार करत हैं , स्वारि दिना करत दमत्राई ।
रावन अरर कौ अनुज दवभीषन, ताकौं दमले भरत की नाई ।
िकी कपट करर मारन आई, सौ हरर जू िैकुंठ पठाई ।
दिनु िीन्हैं ही िे त सूर-प्रभु , ऐसे हैं जिु नाि गुसाईं ॥1॥

प्रभु कौ िे खौ एक सुभाइ ।
अदत-गंभीर-उिार-उिदध हरर, जान-दसरोमदन राइ ।
दतनका सौं अपने जनकौ गुन मानत मेरु-समान ।
सकुदच गनत अपराध-समुद्रदहं िूँि-तुल्य भगवान ।
ििन-प्रसन्न कमल सनमुख ह्वै िे खत हौं हरर जैसें ।
दिमुख भए अकृपा न दनदमषहँ , दफरर दचतयौं तौ तैसें ।
भि-दिरह-कातर करुनामय, डोलत पाछैं लागे ।
सूरिास ऐसे स्वामौ कौं िे दहं पीदठ सो अभागे ॥2॥

रामभिवत्ल दनज िानौं ।


जादत, गोत कुल नाम, गनत नदहं , रं क होइ कै रानौं ।
दसव-ब्रह्मादिक कौन जादत प्रभु , हौं अजान नदहं जानौं ।
हमता जहाँ तहाँ प्रभु नाहीं, सो हमता क्यौं मानौं ?
प्रगट खंभ तैं िए दिखाई, जद्यदप कुल कौ िानौ ।
रघुकुल राघव कृष्न सिा ही, गोकुल कीन्हौं िानौ ।
िरदन न जाइ भि की मदहमा, िारं िार िखानौं ।
ध्रुव रजपूत, दििु र िासी-सुत कौन कौन अरगानौ ।
जुग जुग दिरि यहै चदल आयौ, भिदन हाि दिकानौ ।
राजसूय मैं चरन पखारे स्याम दलए कर पानौ ।
रसना एक, अनेक स्याम-गुन, कहँ लदग करौं िखानौ !
सूरिास-प्रभु की मदहमा अदत, साखी िेि पुरानी ॥3॥

काह के कुल तन न दवचारत ।


अदिगत की गदत कदह न परदत है , व्याध अजादमल तारत ।
कौन जादत अरु पाँ दत दििु र की, ताही कैं पग धारत ।
भोजन करत माँ दग घर उनकैं, राज मान-मि टारत ।
ऐसे जनम-करम के ओछदन हँ ब्यौहारत ।
यहै सुभाव सूर के प्रभु कौ, भि-िछल-पन पारत ॥4॥

सरन गए को को न उिार् यौ ।
जि जि भीर परी संतदन कौं, चक्र सुिरसन तहाँ सँभार् यौ ।
भयौ प्रसाि जु अंिरीष कौं, िु रिासा को क्रोध दनवार् यौ ।
ग्वादलन हे त धर् यौ गोिधान, प्रगट इं द्र कौ गिा प्रहार् यौ ।
कृपा करी प्रहलाि भि पर, खंभ फारर दहरनाकुस मार् यौ ।
नरहरर रूप धर् यौ करुनाकर, दछनक मादहं उर नखदन दििार् यौ ।
ग्राह ग्रसत गज कौं जल िूड़त, नाम लेत वाकौ िु ख टार् यौ ।
सूर स्याम दिनु और करै को, रं ग भूदम मैं कंस पछार् यौ ॥5॥

स्याम गरीिदन हँ के गाहक ।


िीनानाि हमारे ठाकुर , साँ चे प्रीदत-दनवाहक ।
कहा दििु र की जादत-पाँ दत, कुल, प्रेमी-प्रीदत के लाहक ।
कह पां डव कैं घर ठकुराई ? अरजुन के रि-िाहक ।
कहा सुिामा कैं धन हौ ? तौ सत्य-प्रीदत के चाहक ।
सूरिास सठ, तातैं हरर भदज आरत के िु ख-िाहक ॥6॥

जैसें तुम गज कौ पाउँ छु ड़ायौ ।


अपने जन कौं िु खखत जादन कै पाउँ दपयािे धायौ ।
जहँ जहँ गाढ़ परी भिदन कौं, तहँ तहँ आपु जनायौ ।
भखि हे तु प्रहलाि उिार् यौ, द्रौपदि-चीर िढ़ायौ ।
प्रीदत जादन हरर गए दििु र कैं, नामिे व-घर छायौ ।
सूरिास दद्वज िीन सुिामा, दतदहं िाररद्र नसायौ ॥7॥

जापर िीनानाि ढरै ।


सोइ कुलीन, िड़ौ सुंिर सोइ, दजदहं पर कृपा करै ।
कौन दवभीषन रं क-दनसाचर हरर हँ दस छत्र धरै ।
राजा कौन िड़ौ रावन तैं, गिादहं -गिा गरै ।
रं कव कौन सुिामाहँ तैं आप समान करे ।
अधम कौन है अजामील तें जम तहँ जात डरै ।
कौन दवरि अदधक नारि तैं , दनदस-दिन भ्रमत दफरै ।
जोगी कौन िड़ौ संकर तैं , ताकौं काम छरै ।
अदधक कुरूप कौन कुदिजा तैं , हरर पदत पाइ तरै ।
अदधक सुरूप कौन सीता तैं , जनम दियोग भरै ।
यह गदत-मदत जानै नदहं कोऊ, दकदहं रस रदसक ढरै ।
सूरिास भगवंत-भजन दिनु दफरर दफरर जठर जरै ॥8॥

गुरु दिनु ऐसी कौन करै ?

माला-दतलक मनोहर िाना, लै दसर छत्र धरै ।

भवसागर तैं िूड़त राखै , िीपक हाि धरै ।

सूर स्याम गुरु ऐसौ समरि, दछन मैं ले उधरै ॥1॥

हमारे दनधान के धन राम

चोर न लेत, घटत नदहं किहँ , आवत गाढ़ैं काम ।

जल नदहं िूड़त अदगदन न िाहत, है ऐसौ हरर नाम ।

िैकुँठनाि सकल सुख-िाता, सूरिास-सुख-धाम ॥1॥

िड़ी है राम नाम की ओट ।

सरन गऐं प्रभु कादढ़ िे त नदहं , करत कृपा कैं कोट ।

िैठत सिै सभा हरर जू की, कौन िड़ौ को छोट ?

सूरिास पारस के परसैं दमटदत लोह की खोट ॥2॥

जो सुख होत गुपालदहं गाऐँ ।


सो सुख होत न जप-तप कीन्हैं , कोदटक तीरि न्हाऐँ ।

दिएँ लेत नदहं चारर पिारि, चरन-कमल दचत लाऐँ ।

तीदन लोक तृन-सम करर लेखत, नंि-नँिन उर आऐं ।

िंसीिट, िृंिावन, जमुना, तदज िैकुँठ न जावै ।

सूरिास हरर कौ सुदमरन करर, िहुरर न भव-जल-आवै ॥3॥

िंिों चरन-सरोज दतहारे ।

सुंिर स्याम कमल-िल-लोचन, लदलत दत्रभंगी प्रान दपयारे ।

जे पि-पिु म सिा दसव के धन, दसंधु-सुता उर तैं नदहं टारे ।

जे पि-पिु म तात-ररस-त्रासत, मनिच-क्रम प्रहलाि सँभारे ।

जे पि-पिु म-परस-जल-पावन सुरसरर-िरस कटत अि भारे ।

जे पि-पिम-परस ररदष-पदतनी िदल, नृग, व्याध, पदतत िहु तारे ।

जे पि-पिु म रमत िृंिावन अदह-दसर धरर, अगदनत ररपु मारे ।

जे पि-पिु म परदस ब्रज-भादमदन सरिस िै , सुत-सिन दिसारे ।

जे पि-पिु म रमत पां डव-िल िू त भए, सि काज सँवारे ।

सूरिास तेई पि-पंकज दत्रदिध-ताप-िु ख-हरन हमारे ॥4॥

अि कैं राखख लेहु भगवान ।

हौं अनाि िैठ्यौ द्रुम-डररया, पारदध साधे िान ।

ताकैं डर मैं भाज्यौ चाहत, ऊपर ढु क्यौ सचान ।

िु हँ भाँ दत िु ख भयौ आदन यह, कौन उिारे प्रान ?

सुदमरत ही अदह डस्यौ पारधी, कर छूट्यौ संधान ।

सूरिास सर लग्यौ सचानदहं , जय जय कृपादनधान ॥5॥

आछौ गात अकारि गार् यौ ।

करीन प्रीदत कमल-लोचन सौं, जनम जुवा ज्यौं हायौ ।

दनदस दिन दवषय-दिलादसन दिलसत, फूट गईं ति चार् यौ ।

अि लाग्यौ पदछतान पाइ िु ख, िीन िई कौ मार् यौ ।

कामी, कृपन;कुचील, कुडरसन, को न कृपा करर तार् यौ ।


तातैं कहत ियाल िे व-मदन, काहैं सूर दिसार् यौ ॥6॥

तुम दिनु भूलोइ भूलौ डोलत ।

लालच लादगकोदट िे वन के, दफरत कपाटदन खोलत ।

जि लदग सरिस िीजै उनकौं, तिदहं लदग यह प्रीदत ।

फलमाँ गत दफरर जात मुकर ह्वै यह िे वन की रीदत ।

एकदन कौं दजय-िदल िै पूजै, पूजत नैंकु न तूठे ।

ति पदहचादन सिदन कौं छाँ ड़े नख-दसख लौं सि झूठे ।

कंचन मदन तदज काँ चदहं सैंतत, या माया के लीन्हे !

तुम कृतज्ञ, करुनामय, केसव, अखखल लोक के नायक ।

सूरिास हम दृढ़ करर पकरे , अि ये चरन सहायक ॥7॥

आजु हौं एक-एक करर टररहौं ।

कै तुमहीं, कै हमहीं माधौ, अपने भरोसैं लररहौं ।

हौं पदतत सात पीढ़दन कौ, पदततै ह्वै दनस्तररहौं ।

अि हौं उघरर नच्यौ चाहत हौं, तुम्हैं दिरि दिन कररहौं ।

कत अपनी परतीदत नसावत , मैं पायौ हरर हीरा ।

सूर पदतत तिहीं उठहै , प्रभु जि हँ दस िै हौ िीरा ॥8॥

प्रभु हौं सि पदततन कौ टीकौ ।

और पदतत सि दिवस चारर के, हौं तौ जनमत ही कौ ।

िदधक अजादमल गदनका तारी और पूतना ही कौ ।

मोदहं छाँ दड़ तुम और उधारे , दमटै सूल क्यौं जी कौ ।

कोऊ न समरि अघ कररिे कौं, खैंदच कहत हौं लीको ।

मररयत लाज सूर पदततन में, मोहुँ तैं को नीकौ ! ॥9॥

अि मैं नाच्यौ िहुत गुपाल ।

काम-क्रोध कौ पदहरर चोलना, कंठ दवषय की माल ॥

महामोह के नुपूर िाजत, दनंिा-सब्द-रसाल ।


भ्रम-भोयौ मन भयौ पखावज, चलत असंगत चाल ।

तृष्ना नाि करदत घट भीतर, नाना दिदध िै ताल ।

माया को कदट फेटा िाँ ध्यौ, लोभ-दतलक दियौ भाल ।

कोदटक कला कादछ दिखराई जल-िल सुदध नदहं काल ।

सूरिास की सिै अदवद्या िू रर करौ नँिलाल ॥10॥

हमारे प्रभु , औगुन दचत न धरौ ।

समिरसी है नाम तुम्हारौ, सोई पार करौ ।

इक लोहा पूजा मैं राखत, इक घर िदधक परौ ।

सो िु दिधा पारस नदहं जानत, कंचन करत खरौ ।

इक नदिया इक नार कहावत, मैलौ नीर भरौ ।

जि दमदल गए ति एक िरन ह्वै . गंगा नाम परौ ।

तन माया, ज्यौं ब्रह्म कहावत, सूर सु दमदल दिगरौ ॥

कै इनकौ दनरधार कीदजयै , कै प्रन जात टरौ ॥11॥

अचंभो इन लोगदन कौ आवै ।

छाँ ड़े स्याम-नाम-अदित फल, माया-दवष-फल भावै ।

दनंित मूढ़ मलय चंिन कौं राख अंग लपटावै ।

मानसरोवर छाँ दड़ हं स तट काग-सरोवर न्हावै ।

पगतर जरत न जानै मूरख, घर तदज घूर िुझावै ।

चौरासी लख स्वाँ ग धरर, भ्रदम-भ्रदम जमदह हँ सावै ।

मृगतृष्ना आचार-जगत जल, ता सँग मन ललचावै ।

कहत जु सूरिास संतदन दमदल हरर जस काहे न गावै ॥1॥

भजन दिनु कूकर-सूकर जैसौ ।

जैसै घर दिलाव के मूसा, रहत दवषय-िस वैसौ ।

िग-िगुली अरु गीध-गीदधनी, आइ जनम दलयौ तैसी ।

उनहँ कैं गृह, सुत, िारा हैं , उन्हैं भेि कहु कैसौ ।

जीव मारर कै उिर भरत हैं ; दतनकौ लेखी ऐसी ।


सूरिास भगवंत-भजन दिनु , मनो ऊँट-वृष-भैसौं ॥2॥

जा दिन संत पाहुने आवत ।

तीरि कोदट सनान करैं फल जैसी िरसन पावत ।

नयौ नेह दिन-दिन प्रदत उनकै चरन-कमल दचत-लावत ।

मन िच कमा और नदहं जानत, सुदमरत और सुदमरावत ।

दमथ्या िाि उपादध-रदहत ह्वैं , दिमल-दिमल जस गावत ।

िंधन कमा जे पदहले, सोऊ कादट िहावत ।

सँगदत रहैं साधु की अनुदिन, भव-िु ख िू रर नसावत ।

सूरिास संगदत करर दतनकी, जे हरर-सुरदत कहावत ॥1॥

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