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Class 10 Hindi Kshitij CH 3
Class 10 Hindi Kshitij CH 3
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पृष्ठ संख्या: 23
प्रश्न अभ्यास
1. कवि ने 'श्रीबज्रदल
ू ह' वकसके वलए प्रयक्त
ु वकया है और उन्हें ससांर रूपी मंवदर दीपक क्यों कहा है?
उत्तर
देि जी ने 'श्रीबज्रदल
ू ह' श्री कृ ष्ण भगिान के वलए प्रयक्त
ु वकया है। कवि उन्हें संसार रूपी मंवदर का दीपक इसवलए कहा है क्योंवक
वजस प्रकार एक दीपक मंवदर में प्रकाश एिं पवित्रता का सचू क है, उसी प्रकार श्रीकृ ष्ण भी इस संसार-रूपी मंवदर में ईश्वरीय आभा
का प्रकाश एिं पवित्रता का संचार करते हैं। उन्हीं से यह संसार प्रकावशत है।
2. पहले सिैये में से उन पवं क्तयों को छााँटकर वलविए वजनमें अनप्रु ास और रूपक अलंकार का प्रयोग हुआ है?
उत्तर
1. अनप्रु ास अलंकार
कवट वकंवकवन कै धवु न की मधरु ाई।
सााँिरे अगं लसै पट पीत, वहये हुलसै बनमाल सहु ाई।
2. रुपक अलंकार
मदं हाँसी मिु चदं जहंु ाई, जय जग-मवं दर-दीपक सन्ु दर।
3. वनम्नवलवित पंवक्तयों का काव्य-सौंदयय स्पष्ट कीवजए -पााँयवन नपू रु मंजु बजैं, कवट वकंवकवन कै धवु न की मधरु ाई।
सााँिरे अगं लसै पट पीत, वहये हुलसै बनमाल सहु ाई।
उत्तर
भाि सौंदयय - इन पंवक्तयों में कृ ष्ण के अंगों एिं आभषू णों की सन्ु दरता का भािपणू य वचत्रण हुआ है। कृ ष्ण के पैरों की पैजनी एिं
कमर में बाँधी करधनी की ध्िवन की मधरु ता का सन्ु दर िणयन हुआ है। कृ ष्ण के श्यामल अंगों से वलपटे पीले िस्त्र को अत्यंत
आकषयक बताया गया है। कृ ष्ण का स्पशय पाकर ह्रदय में विराजमान संदु र बनमाला भी उल्लवसत हो रही है। यह वचत्रण अत्यंत
भािपणू य है।
4. दसू रे कवित्त के आधार पर स्पष्ट करें वक ऋतरु ाज िसंत के बाल-रूप का िणयन परंपरागत िसंत िणयन से वकस प्रकार वभन्न है।
उत्तर
1. दसू रे कवियों द्वारा ऋतुराज िसंत को कामदेि मानने की परंपरा रही है परन्तु देिदत्त जी ने ऋतरु ाज िसंत को कामदेि का पत्रु
मानकर एक बालक राजकुमार के रुप में वचवत्रत वकया है।
2. दसू रे कवियों ने जहााँ िसन्त के मादक रुप को सराहा है और समस्त प्रकृ वत को कामदेि की मादकता से प्रभावित वदिाया है।
इसके विपरीत देिदत्त जी ने इसे एक बालक के रुप में वचवत्रत कर परंपरागत रीवत से वभन्न जाकर कुछ अलग वकया है।
3. िसतं के परंपरागत िणयन में फूलों का विलना, ठंडी हिाओ ं का चलना, नायक-नावयका का वमलना, झल ू े झल
ु ना आवद होता
था। परन्तु इसके विपरीत देिदत्त जी ने यहााँ प्रकृ वत का वचत्रण, ममतामयी मााँ के रुप में वकया है। कवि देि ने समस्त प्राकृ वतक
उपादानों को बालक िसंत के लालन-पालन में सहायक बताया है।
इस आधार पर कहा जा सकता है वक ऋतरु ाज िसंत के बाल-रूप का िणयन परंपरागत बसंत िणयन से सियथा वभन्न है।
5. 'प्रातवह जगाित गल
ु ाब चटकारी दै' - इस पवं क्त का भाि स्पष्ट कीवजए।
उत्तर
उपययक्त
ु पवं क्त के द्वारा कवि ने िसंत ऋतु की सबु ह के प्राकृ वतक सौंदयय का िणयन वकया है। िसतं ऋतु को राजा कामदेि का पत्रु
बताया गया है। बालक िसतं को प्रातःकाल गल ु ाब चटु की बजाकर जगाते हैं। िसतं ऋतु में सिेरे जब गलु ाब के फूल विलते हैं तो
िसतं के वदिस का प्रारंभ होता है। कहने का आशय यह है वक िसतं में प्रातः ही चारों ओर गल ु ाब विल जाते हैं।
6. चााँदनी रात की संदु रता को कवि ने वकन-वकन रूपों में देिा है?
उत्तर
कवि देि ने आकाश में फै ली चााँदनी को स्फवटक (विस्टल) नामक वशला से वनकलने िाली दवु धया रोशनी के समतुल्य बताकर
उसे संसार रुपी
मंवदर पर वछतराते हुए देिा है। कवि देि की नज़रें जहााँ तक जाती हैं उन्हें िहााँ तक बस चााँदनी ही चााँदनी नज़र आती है। याँू प्रतीत
होता है मानों धरती पर दही का समद्रु वहलोरे ले रहा हो।उन्होंने चााँदनी की रंगत को फ़शय पर फ़ै ले दधू के झाग़ के समान तथा
उसकी स्िच्छ्ता को दधू के बल ु बलु े के समान झीना और पारदशी बताया है।
7. 'प्यारी रावधका को प्रवतवबंब सो लगत चंद' - इस पंवक्त का भाि स्पष्ट करते हुए बताएाँ वक इसमें कौन-सा अलंकार है?
उत्तर
भाि: कवि अपने कल्पना में आकाश को एक दपयण के रूप में प्रस्तुत वकया है और आकाश में चमकता हुआ चन्द्रमा उन्हें प्यारी
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रावधका के प्रवतवबम्ब के समान प्रतीत हो रहा है। कवि के कहने का आशय यह है वक चााँदनी रात में चन्द्रमा भी वदव्य स्िरुप िाला
वदिाई दे रहा है।
अलंकार: यहााँ चााँद के सौन्दयय की उपमा राधा के सौन्दयय से नहीं की गई है बवल्क चााँद को राधा से हीन बताया गया है, इसवलए
यहााँ व्यवतरे क अलंकार है, उपमा अलंकार नहीं है।
8. तीसरे कवित्त के आधार पर बताइए वक कवि ने चााँदनी रात की उज्जज्जिलता का िणयन करने के वलए वकन-वकन उपमानों का
प्रयोग वकया है?
उत्तर
कवि देि ने चााँदनी रात की उज्जज्जिलता का िणयन करने के वलए स्फवटक शीला से वनवमयत मंवदर का, दही के समद्रु का, दधू के झाग
का , मोवतयों की चमक का और दपयण की स्िच्छ्ता आवद जैसे उपमानों का प्रयोग वकया है।
उत्तर
रीवतकालीन कवियों में देि को अत्यंत प्रवतभाशाली कवि माना जाता है। देि की काव्यगत विशेषताएाँ वनम्नवलवित हैं -
1. देिदत्त ब्रज भाषा के वसद्धहस्त कवि हैं।
2. कवित्त एिं सिैया छंद का प्रयोग है।
3. भाषा बेहद मंजी, कोमलता ि माधयु य गणु को लेकर ओत-प्रोत है।
4. देिदत्त ने प्रकृ वत वचत्रण को विशेष महत्ि वदया है।
5. देि अनप्रु ास, उपमा, रूपक आवद अलंकारों का सहज स्िाभाविक प्रयोग करते हैं।
6. देि के प्रकृ वत िणयन में अपारम्पररकता है। उदाहरण के वलए उन्होंने अपने दसू रे कवित्त में सारी परंपराओ को तोड़कर िसंत को
नायक के रुप में न दशाय कर वशशु के रुप में वचवत्रत वकया है।