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योगी आनन्द जी
ऽद्रताय संस्करण
ISBN 978-93-5288-031-7
© लेखक
योगा आनन्द जा
anandkyogi@gmail.com
http://www.kundalinimeditation.in/
http://www.youtube.com/c/YogiAnandJiSahajDhyanYog
https://www.fb.com/sahajdhyanyog/
इस लेख के द्ऱऱ मैं सभा प़ठकों को ज़नक़रा देऩ च़हत़ हूँ ऽक व़स्तव में योग क्य़ हैं तथ़
इसक़ महत्त्व क्य़ हैं? वततम़न समय में ज्य़द़तर परुि षों को योग के ऽवषय में सहा ज़नक़रा नहीं हो प़
रहा है। इसक़ सिसे िड़़ क़रण है िहुत से म़गतदशतकों को योग क़ पणी त ज्ञ़न न होऩ, इसाऽलए कभा-
कभा योग के ऽवषय में भ्रऽमत करने व़ला ि़तें सनि ने को ऽमलता हैं।
आजकल जो व़स्तव में योगा हैं वह ज्य़द़तर अपने आपको प्रगट नहीं करते हैं। किछ परुि ष
छोटा-छोटा ऽसऽद्चय़ूँ प्ऱप्त करके चमत्क़र ऽदख़ते हैं और अपने आपको योगा कहते हैं। चमत्क़र योग
नहीं है। योग के द्ऱऱ स़धक अंतमतख ि ा होकर प्रकु ऽत के व़स्तऽवक स्वरूप की ज़नक़रा करत़ है तथ़
अपना प्रवुऽि अपने चैतन्य स्वरूप की ओर करत़ है। प्रकु ऽत की व़स्तऽवकत़ ज़नने पर दख ि स्वरूप
भौऽतक जगत के आव़गमन से मक्त ि हो ज़त़ है ऽिर अपने स्वरूप में अवऽस्थत होकर ऽचरश़ंऽत को प्ऱप्त
होत़ है।
हे अमुत के पत्रि ो! योग के ऽवषय को ज़नो और उससे ल़भ लेने क़ प्रय़स करो। ऽिर अपने
ऽनजस्वरूप में सदैव के ऽलए अवऽस्थत हो ज़ओ और परम श़ंऽत को प्ऱप्त कर अपने जावन को ऽदव्य
िऩओ- यहा मेऱ उद्ङेश्य है।
धन्यव़द!
- योगी आनन्द जी
ऽनवेदन 8
पहला अध्याय
योग और योग क़ महत्त्व 12
ध्य़न करने की ऽवऽध 21
शद्चि स़ऽत्वक भोजन 44
द़न 46
परोपक़र 48
इच्छ़एूँ 50
ऽनंद़ 53
ऩरा 57
सखि और दख ि 61
धैयत 65
मौन 68
गरुि 70
शऽक्तप़त 74
योगा और भक्त 87
संन्य़सा 92
वैऱग्य 96
मत्ु यि और मत्ु यि के ि़द 100
तीसरा अध्याय
शरार 278
अवस्थ़एूँ 290
कोष 293
ऩड़ा 295
ऽप्रय प़ठकों, यह लेख मैं आऽदगरुि शंकऱच़यत की प्रेरण़ से ऽलख रह़ ह।ूँ मैं एक छोट़-स़ स़धक
ह।ूँ मेरे अन्दर ऽजतना योग्यत़ और ज्ञ़न है, उसा के अनसि ़र योग पर लेख ऽलखूँगी ़। इस लेख में कहीं पर
यऽद कोई त्रऽि ट हो तो कु पय़ हमें क्षम़ कर दाऽजएग़। यऽद कोई स़धक य़ योगा हमें हम़रा त्रऽि टयों से
अवगत कऱएग़, तो मैं उसक़ आभ़रा रहगूँ ़। श़यद मैं लेख नहीं ऽलखत़, मगर जि मैं श़कमभरा के
एक आश्रम में थ़ उस समय आऽदगरुि शक ं ऱच़यत जा की हम पर कु प़ हुई। ऽिर, ध्य़ऩवस्थ़ में उन्होंने
हमसे कह़, “आप तत्वज्ञानी हैं, महान योगी हैं, इसवलए जन-कल्याण के वलए आपको कुछ
करना चावहये।” मैं उस समय उनके कहने क़ अथत नहीं समझ सक़। मैं िोल़, “कृपया आप स्पष्ट
कवहए, तावक मैं आपके कहने का अवभप्राय समझ सकूूँ?” वह िोले, “आप योग पर लेख
वलवखए।” मैं िोल़, “मेरे अन्दर इतनी योग्यता कहाूँ जो योग पर लेख वलख सकूूँ। योग पर लेख
वलखने के वलए योग में पररपूणण होना जरूरी है।” वह िोले, “तुम अपने आपको अयोग्य क्यों
समझते हो, तुम लेख शरू ु कर दो। तुम्हारे अन्दर क्षमता स्वयमेव आ जाएगी। भववष्य में तुम योग
के ववषय में पररपूणण होगे, हमारा आशीवाणद तुम्हारे साथ है।” ऽिर, मैंने जनवरा-1994 में इस लेख
को ऽलखऩ शरू ि कर ऽदय़। हमें भा योग के म़ध्यम से किछ ज़नक़ररय़ूँ ह़ऽसल करना था तथ़ अपने
आपको उच्चतम ऽस्थऽत में ले ज़ऩ थ़, त़ऽक मैं किछ ऽवषयों पर अऽधक़रपवी तक ऽलख सकूँी । मैं ध्य़न
करत़, और जि इच्छ़ होता उस समय थोड़़ लेख भा ऽलख ऽलय़ करत़ थ़। इस तरह, इस लेख को परी ़
करने में च़र वषत लग गये।
मैं अपना गरुि म़त़ जा की कु प़ से योग में इस अवस्थ़ को प्ऱप्त हुआ। उन्होंने हमें अपने म़गतदशतन
से, योग में पररपक्व िऩ ऽदय़। वैसे हमें योग क़ म़गतदशतन कई मह़परुि षों द्ऱऱ प्ऱप्त हुआ है। ये मह़परुि ष
व ऽदव्यशऽक्तय़ूँ सक्ष्ी म लोक की व़सा हैं। ये ध्य़ऩवस्थ़ में हम़रा शक
ं ़ओ ं क़ सम़ध़न ऽकय़ करता थीं।
हम़ऱ म़गत ‘सहज ध्यान योग’ है। योग हर मनष्ि य कर सकत़ है। इसक़ अभ्य़स करने के ऽलए
आवश्यक नहीं की आप को आश्रम य़ जंगल में ज़ऩ पड़ेग़। आप गुहस्थ जावन में रहकर भा न के वल
आऽदक़ल से लेकर आज तक भ़रतवषत योऽगयों क़ देश रह़ है। सभा योऽगयों ने शरार, मन और
प्ऱण को शद्च
ि िऩने पर जोर ऽदय़ है। ऽजससे ब्रह्म की सि़ क़ ज्ञ़न हो सके तथ़ आत्मस़क्ष़त्क़र ऽकय़
ज़ सके । तत्त्वज्ञ़न और आत्म़ के स़क्ष़त्क़र के ऽलए एक हा म़गत है, वह है योग। इसऽलए योगा
तत्वज्ञ़ना व द़शतऽनक होते हैं। योग ऽजतऩ सव़ांग होग़ उतने हा द़शतऽनक ऽवच़र होंगे। योग क़ अथत
ऽसित सत्य को ज़नऩ हा नहीं, िऽल्क उसको अपने जावन में उत़र लेऩ है। योऽगयों ने इस सत्य को
ज़नने के ऽलए अलग-अलग तराके अपऩए और वहा तराके आगे चलकर अलग-अलग योग म़गत हुए।
योग शब्द संस्कु त के यजि ् ध़ति से िऩ है। ऽजसक़ अथत है जोड़ऩ, ऽमलऩ अथव़ त़द़त्मय। इस
अवस्थ़ में योगा को जाव़त्म़ और परम़त्म़ के एकत़ की अनभि ऽी त हो ज़ता है। जाव़त्म़ और परम़त्म़
के ऽमलने को योग कहते हैं। वैसे भा योग क़ श़ऽब्दक अथत जोड़ हा है। योग वह आध्य़ऽत्मक ऽवद्य़ है
जो जाव़त्म़ क़ परम़त्म़ के स़थ संयोग कऱने की प्रऽक्रय़ ितल़ता है। जाव़त्म़ को इस म़य़रूपा
स्थल
ी जगत के व़स्तऽवक रूप से अवगत कऱकर, परम श़ंत व ऽवशद्च ि ज्ञ़न से यक्त
ि करके अपने
व़स्तऽवक स्वरूप से पररचय कऱ देता है।
योग में सिसे अऽधक महत्त्व मन को ऽनयत्रं ण करने के उप़य से है, क्योंऽक मन के ऽनयत्रं ण के
ऽिऩ परम़त्म़ से त़द़त्मय होऩ असंभव होत़ है। मन के ऽनयत्रं ण से स़धक के अदं र की सक ं ल्पशऽक्त
िहुत िढ़ ज़ता है तथ़ ऽवच़रों की सक ं ीणतत़ ज़ता रहता है और मन में ऽवश़लत़ आता है। इससे ऽनऽश्चत
हा स़धक के अदं र आनन्द़नभि ऽी त िढ़ेगा। मन को ऽनयत्रं ण करने के ऽलए स़धक को स्वयं अपने को
ऽनयम-संयम में रखऩ होग़ तथ़ योग के ऽनयमों क़ प़लन करऩ होग़। इन योग के ऽनयमों क़ प़लन
करने से स़धक के अदं र अस़ध़रण गणि ों की प्ऱऽप्त होने लगता है। योग के अभ्य़स से उसे ऽवशेष प्रक़र
की दृऽष् प्ऱप्त होता है, ऽजससे उसे इस स्थल
ी जगत से परे सक्ष्ी म जगत व सक्ष्ी म पद़थों की ज़नक़रा प्ऱप्त
आई.आई.टा. ऽदल्ला में एम.टेक. करते समय इस पस्ि तक के द्ऱऱ हा योगा आनन्द जा (गरू
ि जा) हमें गरुि
रूप में प्ऱप्त हुए। गरू
ि जा ने अपना कठोर स़धऩ और अभ्य़स से जो आध्य़ऽत्मक ज्ञ़न व अनभि व प्ऱप्त ऽकय़ है,
उन्होंने उसक़ इस पस्ि तक में सरल व सहज भ़ष़ में वणतन ऽकय़ है जो सभा स़धकों के ऽलए िहुत ल़भक़रा है।
स़थ हा गरू ि जा की स़धऩ पद्चऽत क़ अगर कोई स़धक ऽनष्ठ़पवी तक अभ्य़स करे तो वह स्वयं अपने शरार में
किण्डऽलना की अनभि ऽी त करे ग़ जैस़ मैंने ऽकय़। अत: मेऱ सभा प़ठकों से ऽनवेदन है ऽक वे एक ि़र इस पस्ि तक
को अवश्य पढ़े तथ़ अपऩ आध्य़ऽत्मक ऽवक़स करे ।
ऽवक़स
एम.टेक.
(आई.आई.टा. ऽदल्ला)