You are on page 1of 7

चटर्जी 1

अभिनव चटर्जी
एम भिल (अंग्रेर्जी)
भिल्ली भवश्वभवद्यालय

भक्तिकालीन साहित्येहििास और दर्शन

परं परा का पुनममूल्ां कन आचायू हर्जारी प्रसाि भिवेिी के साभहत्य साधना


का केन्द्रीय स्वर है। एक की केन्द्रीयता को भवखंभित कर अनेक के भवमढ़ िारा
परं परा को सतत पुननूवा बनाने की वैचाररक प्रभिया मे ही उन्ोंने अपने
आधुभनकता बोध को अभर्जू त भकया है ।

आचायू हर्जारी प्रसाि भिवेिी ने मध्यकालीन बोध के स्वरूप पर भवचार


कराते हुए मध्ययुगीनता और आधुभनकता की ऐसी नवीन अवधारणाओं का भवकास
भकया है , और इन िोनों की सापेभिक सम्बन्ों मे िे खने की वह वैज्ञाभनक दृभि
िी है भर्जसके चलते साभहत्येभतहास-ले खन और काव्य-ममल्ां कन संबंधी कई पेचीिी
समस्याओं को सुलझाने मे मिि भमलती है।

मध्यकाल के िक्तिमागू मे ऐकां भतक िक्ति का स्वर प्रबल रहा है । इस


काल मे आकर यह भवश्वास भकया र्जाने लगा की िगवान के अवतार का मुख्य
हे तु ििों पर अनुग्रह करने के भलए लीला का भवस्तार करना ही है । िक्तिकाल
के प्रारम्भ मे िारतीय समार्ज उन संघर्ूमय धाभमूक चेतना की पररक्तथिभतयों से
गुर्जर रहा िा र्जो नाना प्रकार के िेड़ों एवं भविोधों के मध्य समन्वय करने के
भलए प्रयत्नशील िीं। उस युग मे एक ओर वैभिक संप्रिाय िा तो िम सरी ओर
इनका भवरोधी नाि-भसद्ध संप्रिाय ब्राह्मण धमू का भवरोध कर रहा िा।
िक्तिकालीन संत कभवयों पर नाि-पंि के हठयोग का गहरा प्रिाव पड़ा।

िक्ति योग मे हमें सां स्कृभतक चेतना के िेत्र मे समन्वय का महान प्रयत्न
भिखाई पड़ता है । सां स्कृभतक चेतना की सवूश्रेष्ठ अभिव्यक्ति सावूिौम सत्या के
आधार पर प्रभतभष्ठत धाभमूक िावना और िाशू भनक भचंतन धारा के माध्यम से हुई
है । कला, भशल्प, साभहत्य और संगीत इन्ीं की आनुर्ंभगक उपलक्तियां हैं ।
आचायू भिवेिी र्जी ने समार्ज, संस्कृभत और साभहत्य के भवकास के आपसी संबंध
के बारे मे भर्जस धारणा का भवकास भकया है वह आधुभनक और वैज्ञाभनक है ।
चटर्जी 2

‘मध्ययुगीनता’ मे िी ‘आधुभनकता’ के लिण भिखाई पड़ सकते हैं


भकन्तु आचायू भिवेिी उसे ‘आधुभनकता’ के अिू मे आधुभनक नहीं मानते। भहन्दी
िक्ति-आं िोलन के संििू मे भवचार व्यि करते हुये वे भलखते हैं – “सचेि
पररविश नेच्छा आधु हनक युग की हवर्ेषिा बिाई जािी िै । इस दृहि से दे खा
जाये िो िमारे आलोच्य आल के भक्ति साहित्य मे इस प्रकार की व्याकुलिा
प्रचुर मात्र मे हमलिी िै । हिर भी वर आधु हनक इसहलए निी ीं किी जािी
की उसका अनुड्याि आदर्श परलोक मे मनुष्य को मुि करना िै । इसी
लोक मे, इसी मत्यश जगि को सुींदर और र्ोभन बनाने के उद्दे श्य से वि
निी ीं हलखा गया। भक्ति साहित्य सींसार के बाह्य रूप को यथाक्तथथि छोड़कर
व्यक्ति मानव के हचत्त मे पररविश न लाने पर अहधक ज़ोर दे िा िै ।“ (हर्जारी
प्रसाि भिवेिी ग्रंिावली : खण्ड 5, पृ 24)

यह बताने की आवश्यकता नहीं है की आचायू हर्जारी प्रसाि भिवेिी ऐसे


पहले आलोचक हैं भर्जन्ोंने िक्ति-आं िोलन को भवराट र्जन-आं िोलन और भहन्दी
िक्तिकाव्य को र्जन साभहत्य घोभर्त भकया िा और आर्ज उसे महान र्जन संस्कृभत
और लोकर्जागरण कहने वालों की कमी नहीं है ; आधुभनकता को ग्यारहवीं-
बारहवीं शताब्दी तक खींच ले र्जानेवाले लोगों का अिाव िी नहीं है , भकन्तु
इससे आचायू भिवेिी की ऑस मौभलक उि् घोर्णा पर कोई िकू नहीं पड़ता।
‘मध्ययुगीनता’ और ‘आधुभनकता’ की भनभित समझ तिा िोनों के पािूक्य को
स्पि करनेवाले अपने भनर्भ्ाां त भववेक के चलते आचायू हर्जारी प्रसाि भिवेिी उस
महान र्जन-आं िोलन और उसके लोक-साभहत्य की इतनी सुसंगत व्याख्या कर
पाने मे पमरी तरह सिल रहे हैं र्जबभक इस िोनों अवधारणाओं की भनभित समझ
के अिाव मे अनेक महान आलोचकों ने िी िमलें की हैं ।

आचायू हर्जारी प्रसाि भिवेिी का लोक, लोकधमू, और लोकमत आचायू


शु क्ल से भबल्कुल भिन्न है । उनके अनुसार ‘लोक’ शब्द का अिू र्जनपि या
ग्राम्य नहीं है बक्तल्क नगरों और ग्रामों मे िैली हुई वह सममची र्जनता है भर्जसके
व्यावहाररक ज्ञान का आधार पोभिया नहीं है । ये लोग नगर मे पररष्कृत, रूभच-
सम्पन्न तिा सुसंस्कृत समझे र्जानेवाले लोगों की अपेिा अभधक सरल और
अकृभत्रम र्जीवन के अभ्यस्त होते हैं और पररष्कृत रूभचवाले तमाम लोगों की
चटर्जी 3

भवलाभसता और सुकुमाररता को र्जीभवत रखने के भलए र्जो िी वस्तुएँ आवश्यक


होती हैं , उन्ें उत्पन्न कराते हैं । लोक की इसी र्जमीन से कबीर ने पोिी-
पक्तण्डतों को और समर की गोभपयों ने अपने व्यावहाररक ज्ञान से उद्धव के शास्त्र
को चुनौती िी िीं – ‘परमार िी पुरानभन लािे , ज्ों बनर्जारे टाड़े ।‘ इसी कड़ी
मे र्जीव गोस्वामी के सैद्धाक्तन्तक कठमुल्लेपन और उनके पुरुर्-िं ि को चुनौती
िे ने वाली मीराबाई को िी शाभमल भकया र्जा सकता है । भनगुूण िक्ति-आं िोलन
की शास्त्र-भनरपेि भवचारधारा और लोकर्जागरण की चेतना का भवकास समर और
मीरा तक तो स्पि भिखाई िे ता है , ले भकन आगे चलकर तु लसीिास के यहाँ
पुनरुत्थान की चेतना मे रूपां तररत हो र्जाता है । कबीर, मीरा और समर की
गोभपयों की कतार एक ओर र्जहां भनगुूण-सगुण के कृभत्रम भविार्जन को तोड़ती हैं
वहीं शास्त्रों मे पशुओं की कतार मे खड़े भकए गए शम द्र और नारी की प्रताड़णा
के भवरूद्ध िभलत और स्त्री का नया पाठ रचती है ।

आचायू भिवेिी संस्कृभत को भवशुद्ध और शाश्वत नहीं मानते। उनके अनुसार


सामाभर्जक पररवतू न के साि-साि संस्कृभत िी बिलती है। मानव समार्ज अपने
पररवेश, पुरान संस्कारों, रूभढ़यों और तरह-तरह के भवरोधी तत्ों से संघर्ू
करता हुआ र्जीवंत तत्ों को स्वीकार करके आगे बढ़ता है और नई संस्कृभत का
भनमाू ण िी करता है । भिवेिी र्जी ने भलखा है : ‘मनुष्य की जीवन र्क्ति बड़ी
हनमशम िै । वि सभ्यिा और सींस्कृहि के वृथा मोिो को र द ीं िी चली आ रिी
िै । सींघषों से मनुष्य ने नई र्क्ति पाई िै । िमारे सामने समाज का आज
जो रूप िै वि न जाने हकिने ग्रिण और त्याग का रूप िै । दे र् और
जाहि की हवर्ुद्ध सींस्कृहि केवल बाि की बाि िै ।“ (अशोक के िमल, 13)
भिवेिी र्जी मानव समार्ज की संघर्ू के माध्यम से भवकभसत होने वाली इसी
र्जीवनी शक्ति की भवकास किा को सामने लाना साभहत्य के इभतहास का उद्दे श्य
मानते हैं । साभहत्य के इभतहास को व्यापक सां स्कृभतक इभतहास के अंग के रूप
मे िे खने वाला यह व्यापक दृभिकोण भहन्दी साभहत्य के इभतहास िशू न संबंधी
भचंतन के िेत्र मे भिवेिी र्जी की नई िें है । भिवेिी र्जी की इस इभतहास दृभि का
व्यावहाररक रूप ‘भहन्दी साभहत्य की िमभमका’ और ‘कबीर’ मे भिखाई िे ता
है ।
चटर्जी 4

आचायू हर्जारी प्रसाि भिवेिी समार्ज और साभहत्य के इभतहास का मुख्य


भवर्य मनुष्य को ही मानते हैं । उन्ोने भलखा है की “वास्तव मे िमारे अध्ययन
की सामाग्री प्रत्यक्ष मनुष्य िै । अपने इहििास मे इसी मनुष्य की धारावाहिक
जय यात्रा की किानी पढ़ी िै , साहित्य मे इसी के आवेगोीं, उद्वे गोीं और
उल्लासोीं का स्पींदन दे खा िै , राजनीहि मे इसकी लु काहछपी के खेल का
दर्शन हकया िै , अथशर्ास्त्र मे इसकी रीढ़ की र्क्ति का आध्ययन हकया
िै ।‘ (अशोक के िमल, 180)

भिवेिी र्जी ने मध्यकाल के साभहत्य के अध्ययन के भलए भशि और लोक


साभहत्य मे प्रचभलत छं िों के अध्ययन को महत्पमणू माना है । उन्ोने भलखा है की
‘नया छीं द जाहि के नए मनोभाव की सूचना दे िा िै , इसहलए साहित्य के
इहििास मे हवहभन्न युगोीं मे छीं दोीं का पररविश न केवल हर्ल्प सींबींधी पररविश न
निी ीं िै , वि जािीय चेिना, भाषा और अहभव्यक्ति के पररविश न का भी
सूचक िै । छीं द का पररविश न साहित्य के हवकास को प्रे ररि करने वाला
पररविश न िै ।‘ भिवेिी र्जी ने आभिकाल के िो ऐभतहाभसक चररत काव्यों ‘पृथ्वी
रार्ज रासो’ और ‘कीभतू लता’ का साभहक्तत्यक ममल्ां कन भकया है । आचायू शु क्ल
ने ‘पृथ्वीरार्ज रासो’ को न तो िार्ा के इभतहास के और न साभहत्य के इभतहास
के भर्जज्ञासुओं के काम का माना और ‘कीभतू लता’ को केवल िार्ा की दृभि से
भवचारणीय समझा। आचायू भिवेिी के भहन्दी साभहत्य का आभिकाल के पहले और
कािी बाि तक िी रासो की प्रमाभणकता अप्रमाभणकता पर िी बहस होती रही।
उसके साभहक्तत्यक महत् की और लोगों का ध्यान पहली बार भिवेिी र्जी ने ही
खींचा।

आचायू भिवेिी के इभतहास और आलोचना मुख्य भवर्य िक्ति आं िोलन


और उसका साभहत्य ही है । ‘भहन्दी साभहत्य की िमभमका’ का अभधक िाग िक्ति
काल से ही सम्बद्ध है । ‘समर साभहत्य’ और ‘कबीर’ मे िक्तिकाल के िो
महान कभवयों की कभवता का नया ममल्ां कन है । इनके अभतररि भिवेिी र्जी ने
अपने भनबंधों मे िक्ति आं िोलन और िक्ति साभहत्य से संबक्तन्त उनके नए और
महत्पमणू भवचार भबखरे पड़े हैं , भर्जन पर कम ध्यान गया है ।
चटर्जी 5

आचायू शु क्ल ने कबीर का महत् इसभलए स्वीकार भकया िा की


‘मनुष्यत्व िी सामान्य भावना को आगे करके हनम्न श्रेणी की जनिा मे
उन्होने आत्मग रव का भाव जगाया।‘ ले भकन संतमत के कबीर और िम सरे
कभवयों के बारे मे शु क्ल र्जी की बुभनयािी धारणा यह िी की ‘सींस्कृि बुक्तद्ध,
सींस्कृि हृदय और सींस्कृि वाणी का वि हवकास इस र्ाखा मे निी ीं पाया
जािा जो हर्हक्षि समाज को अपनी ओर आकहषशि करिा िै ।‘’ शु क्ल र्जी
का यह िी भवचार िा की इन कभवयों ने अभशभित र्जनता को गरमाने और उस
पर धाक र्जमाने का ही काम अभधक भकया। आचायू शु क्ल ने र्जायसी ग्रंिावली
की िमभमका मे संतमत के कभवयों को लोक भवरोधी तक कह िाला है ।

िक्तिकाल के संत कभव आचायू शु क्ल की सहानुिमभत न पा सके। इन


कभवयों के रचनाओं के ममल्ां कन की र्जरूरत बनी हुई िी। भिवेिी र्जी ने संत
साभहत्य के उभचत ममल्ां कन का महत्पमणू काम भकया। उनहोनने कबीर का
ममल्ां कन कर सम्पमणू संतसाभहत्य को नए दृभिकोण से िे खने का मागू प्रशस्त
भकया। कबीर के इस नए ममल्ां कन से पहले या तो कबीर के रहस्यवाि की
चचाू होती िी या उनके सधुककड़ी िार्ा की। भिवेिी र्जी ने कबीर के
िां भतकारी व्यक्तित्, प्रगभतशील भवचारधारा, र्जनोन्मुख सामाभर्जक चेतना,
मानवतावािी प्रेम िावना, लोक धमी िक्ति िावना, ममू स्पशी कभवत् शक्ति
और व्यंग्यपमणू शक्तिशाली काव्यिार्ा का भववेचन करके भहन्दी पाठकों के सामने
कबीर का नया रूप उपक्तथित भकया भर्जसके ममल मे प्रगभतशील आं िोलन से
भवकभसत साभहत्य के ममल्ां कन की नई दृभि का प्रिाव िा।

आचायू भिवेिी ने कृष्ण िक्ति काव्य और समर की कभवता पर िी नए ढं ग


से भवचार भकया है । शु क्ल र्जी ने कृष्ण िक्ति काव्य मे उपलि माधुयू-िाव और
प्रेम तत् पर समभियों का प्रिाव माना, शंगार की अभधकता की आलोचना की
और समर की कभवता मे लोक संग्रह के िाव का अिाव िे खा। भिवेिी र्जी ने प्रेम
को सम्पमणू िक्तिकाव्य के ममल मे भनभहत माना है । उन्ोने मध्य युग के संतों
और ििों के भर्जन सामान्य भवश्वासों का उल्लेख भकया है , उनमे प्रेम िी एक
है । इससे यह भसद्ध होता है की प्रेम तत् समभियों के प्रिाव से कृष्ण िक्तिकाव्य
मे नहीं आया िा। वह सम्पमणू िक्तिकाव्य मे व्याप्त है क्योंभक िक्ति प्रेम का ही
चटर्जी 6

एक उिान्त रूप है । कृष्ण िक्ति काव्य के माधुयू िाव की परं परा को एक ओर


भिवेिी र्जी ने िागवत पुराण, िक्ति समत्रों और प्राचीन काव्य से र्जोड़कर िे खा है
और िम सरी ओर लोक साभहत्य से। उन्ोने कृष्ण िक्तिकाव्य के माधुयू िाव को
इन परम्पराओं मे प्राप्त माधुयू िाव का भवकभसत रूप कहा है । भिवेिी र्जी ने
र्जयिे व और भवद्यापभत की राधा और समर की राधा की तुलना करके राधा-कृर्ण
से सम्बद्ध माधुयू िाव और प्रेम की पुरानी परं परा से नहीं र्जोड़ा है , उन्ोने
चण्डीिास की राधा की समर की राधा से तुलना कराते हुए अक्तखल िारतीय
शक्ति साभहत्य मे माधुयू िाव की सत्ता का उिघाटन भकया है ।

आचायू हर्जारी प्रसाि भिवेिी साभहत्य के इभतहास को मानव की र्जययात्रा


की भवकास किा कहते हैं और इभतहास का लक्ष्य इस र्जययात्रा के भवकास की
शक्ति प्रिान करना मानते हैं। साभहत्य और साभहत्य के इभतहास मे मनुष्य की
र्जययात्रा को सवाू भधक महत् िे ने के कारण ही भिवेिी र्जी को मानवतावािी
भवचारक कहा र्जाता है ।

इस िे श के साभहत्य के इभतहास मे िो अक्तखल िारतीय आं िोलन हुए हैं।


पहला है िक्ति आं िोलन और िम सरा, प्रगभतशील आं िोलन। ये िोनों केवल
साभहक्तत्यक आं िोलन नहीं हैं । कुछ लोग स्वच्छं ितावािी और आधुभनकतावाि को
िी अक्तखल िारतीय साभहक्तत्यक आं िोलन कह सकते हैं। िक्ति आं िोलन और
प्रगभतशील आं िोलन को ठीक से समझे भबना न तो िारतीय साभहत्य की
अवधारणा का भवकास हो सकता है और न िारतीय साभहत्य के इभतहास का।
िारतीय साभहत्य के इभतहास ले खन का उभचत रूप यह नहीं है की भवभिन्न
िारतीय िार्ाओं के साभहत्य की सामान्य भवशर्ताओं को इकट्ठा कर भिया र्जाए
या धमू के आधार पर िारतीय संस्कृभत की धारणा बनाकर उसकी व्यापकता की
िारतीय साभहत्य मे खोर्ज की र्जाय। िारतीय संस्कृभत और साभहत्य के इभतहास-
ले खन के इस तरह के प्रयास अपने असिलता की गवाही खुि िे रहे हैं ।
िारतीय साभहत्य का इभतहास और उसके अंग के रूप मे भहन्दी साभहत्य या
भकसी िी िम सरी िार्ा के साभहत्य के इभतहास का ले खन भवभिन्न िेत्रों का
समार्ज, संस्कृभत, िार्ा और साभहत्य के भवकास की अवथिाओं तिा
वास्तभवकताओं के आधार पर ही हो सकता है ।
चटर्जी 7

भिवेिी र्जी के अध्ययन, इभतहास ले खन और आलोचना के केंद्र मे िक्ति


आं िोलन और उसका साभहत्य रहा है , और प्रगभतशील आं िोलन से उनकी गहरी
सहानुिमभत रही है । इसभलए वे िारतीय साभहत्य के इभतहास की संिावना पर
भवचार करने मे सिम हुए और भहन्दी साभहत्य के इभतहास को िारतीय साभहत्य
के इभतहास के अंग के रूप मे िे खने की नई दृभि भवकभसत कर सके। यह
आचायू भिवेिी की इभतहास दृभि की व्यापकता और भवकासशीलता का प्रमाण है।

You might also like