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Dayanand Krat Vedbhashyo Ki Samiksha
Dayanand Krat Vedbhashyo Ki Samiksha
हे मनु ों! तु म मां गने से पुि करने वालों को थूल गु दि यों के साथ
वतमान, अंधे सप को गु दि यों के साथ वतमान िवशेष कुिटल सप को
आं तों से , जलों को नािभ के नीचे के भाग से , अंडकोष को आं डों से , घोडे
के िलंग और वीय से सं तान को, िप से भोजनों को, पेट के अंगो को
गु दि य और श यों से िशखावटों को िनरं तर लेओ।ं
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जब इस वे द ऋचा की ही भां ित इ अ सनातनी धम थों मे कोई ुित
या ोक िदख जाता ह तो अपनी बु अनुसार ही उसके अथ का अनथ
कर आ पु षों ारा रिचत ं थों का अपमान करते है और उ ा
सनातनधिमयों और उनके शा कारों को-- धू त, िनशाचर, पाखंडी, नीच
और न जाने िकतनी गािलयाँ दे ते ह,
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६• अथ मे आता ह िक - "अंडकोष को आं डों से िनरं तर लेओं" अब
दयानंदी पहले तो अंडकोष और आं डों के बीच का अंतर बताय, और िफर
ये बताय िक अंडकोष से आडों को िकस कार िलया जा सकता ह?
शंका समाधान-
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पूषणं विन ठु ना ाही थूलगुदया सपा गुदािभिवह्लुत आ ैरपो
व ना वृषणमा ा ां वािजन गं शेपेन जा ं रे तसा चाषान्
िप े न दरान् पायुना कू ा किप ै ः॥ ~यजुवद {२५/७}
(पूषणं विन ठु ना थूलगु दया)- थूल आं तों व गु दा, पाचन सं बंधी अंगों का
भाग पूषण दे वता के िलए, हे पूषण दे व हमारे पाचन तं सं बंधी अंगों को
थ कर शरीर की ािधयाँ उसी कार दू र कर, िजस कार,
(अ ाहीन सपान)- अंधहीन सप आपने बां बी से दू र िनकल जाते है ,
(गु दािभिवह्लुत आ ैरपो)- और हे िव त दे व गु दा से सं बंधी अ
ािधयों को दू र कर हम रोगमु थ जीवन दान कर, इस कार
(व ना)- व भाग जल के िलए, (वृ षणमा ा ां )- अंडकोशों की
श वृ षण दे व के िलए, (वािजनं)- उप थ की श वाजीदे व के िलए,
(रे तसा)- िवय जा की र ा के िलए, (चाषान् िप ेन)- िपत चाष दे व के
िलए, ( दरान् पायु ना)- आं तों का तृ तीया भाग सरदे वों के िलए,
(कू ा किप ै ः)- तथा शकिप ों को कू दे व की स ता के िलए
समिपत करते ए रोगमु , थ जीवन की कामना करते ह,
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ाहा पायािण प ा ् अवाया ऽ इ वो वायािण प ािण पाया ऽ
इ वः॥ ~यजुवद {अ ाय २५, मं १}
समी क-- िदन रात जहाँ तहाँ अ ीलता ढु ढने वाले दयानंदीयों तु
दयानंद ारा िकए ये अ ील भा नजर ों नही ं आत, तु ारे दयानंद
ने तो अपनी अ ील बु से ई रीय ान वे दों को भी अ ील बना िदया,
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६• दयानंदी बताय िक वह इस कृ को ितिदन दोहराते ह या िफर
समाज के िकसी वािषक उ व पर?
दां तों की श से शाद दे वता को, दं तमूल से अवका दे वता को, दां तों के
प भाग से मृद दे वता को, दाढ़ों से ते गदे वता को, िज ा के अ भाग से
सर ती को, एवं िज ा से उ ाद दे वता को स करते ह, तालु की
श से अव दे वता को, ठोढी हे अ दे वता को, मुख से जल दे वता
को स करते ह, वृ षणों से वृ षण दे वता को, दाढी से आिद ों को, भौं से
प दे वता को, पलक लोमों से पृ ी एवं द् यु लोक को, तथा आँ ख की
पुतिलयों से िवद् यु त् दे वता को स करते ह, शु एवं कृ दे व
श यों के िनिम यह आ ित समिपत है , ने ों के नीचे एवं ऊपर के
लोमों से 'पार' एवं 'अवार' दे वश यों को स करते ह।
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और अ ील अथ िकंिचत् मा भी स नही ं रखता, जबिक दयानंद
का िकया यह अथ अ ील के साथ साथ िनरथक भी है , दयानंद के इन
अ ील भा ों का कोई आशय ही नही ं िनकलता, ा दयानंदीयों को
दयानंद ारा िकये यह अ ीलभा नजर नही ं आते , या दयानंद के भा
पढने से पहले इस भा ानुसार मुहँ और आँ खों म टोपा ले लेते हो िजस
कारण तु यह अ ीलभा िदखाई नही ं पड़ते , यिद ऐसा है तो कुछ
और बात है दयानंद की बात आने पर शायद कान म भी ले लेते होगे
िजससे तु सु नाई भी न पडता होगा, बु मान यं िवचार ा यह
दयानंदीयों का दौगलापन नही है , जो है उन दयानंदभा ों पर तो
इनकी बोलती बं द हो जाती है और जहाँ नही ं िदखता वहाँ अपना वही
पुराना रं d! रौना रोते है िक फला ं थ म अ ीलता है तो इस ं थ म
अ ीलता है इसिलए यह हम मा नही,ं अबे तो तु पूछता ही कौन है ?
कौन कहता है िक तु म इ मानों जी करता है तो मानों नही ं करता है तो
मत मानों पर कम से कम यह अपना रं d! रौना तो बं द करों
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"जैसे पु ष का िलंग ी की योिन म वे श करता आ, वीय को छोडता
है , और इससे अलग मू को छोडता है , इससे जाना जाता है िक शरीर म
मू के थान से पृथक थान म िवय रहता है "
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पु कों म थम आता है , इस कामानंद ने उनका अ ील भा कर
लोगों से घृणा करवायी है , जबिक यही दयानंद वे दों के अ ील भा
करने का आरोप लगाते ए स ाथ काश के ादश समु ास, म
महीधरािद टीकाकारों को भां ड, धू त और िनशाचरवत् बोलते है , पर ु
उ ोंने ख़ुद वे द ऋचाओं का अथ अ ील के साथ िनरथक भी कर डाला,
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ी पु ष गभाधान के समय मे पर र िमलकर ेम से पू रत होकर मुख
के साथ मुख, आँ ख के साथ आँ ख, मन के साथ मन, शरीर के साथ शरीर
का अनुसंधान करके गभ का धारण कर िजससे कु प और िवकलां ग
स ान न होवे ,
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अ नीकुमारों और दे वी सर ती के ारा इन अंगों के सं चालन से पिव ता
ा ई, च पायु इ य ई, और बाल शारी रक दोषों को बाहर
िनकालने वाले िभषक् (उपचारकता प) ए, और व तथा िवय से
जननि य ई। इस ुित म तो शरीर के िविभ अंगों की सृ ि िकस-िकस
कार ई यह कथन िकया है और इससे पूव और बाद के मं ों म भी यही
कथन िकया है ”
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और िफर आगे इसी के िव यजुवद अ ाय २८, मं ३२ का भा
करते ए िलखा है िक--
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बु मान लोग यं िवचार ा धू त दयानंद की मूखता यही िस नही हो
जाती, भला ई रीय ान इतना तु और उट पटां ग हो सकता है ा?,
िब ु ल नही,ं दरअसल यह िम ा अथ ामी कामानंद जी के कपोल
भं डार से िनकल है , यही तो दयानंद के भं ग की तरं ग है भं ग के नशे म जो
भी अंड सं ड मुहँ म आया बक िदया, जो मन म आया सो िलख िदया,
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ीयों को करों, पर ु दयानंदी अभी उस तरीके से काम नही ं लेते,
दयानंदीयों को चािहए िक गु आ ा का पालन करते ए, आज से ही
मनु से पशु बनकर बै लों की भां ित अपनी-अपनी यों को गभवती कर
जा को बढावे और यिद तु म से न हो सके तो समाज से बाहर िकसी अ
पु ष की सहायता से अपनी ीयों को गौओं की भां ित गािभन करवा जा
को बढ़ावे , यह िनयोग नामक पशुधम ामी जी ने इसी के अथ चलाया है ,
इसिलए पशुओं की ही भां ित अपनी यों को जब कभी िकसी परपु ष
के पास िनयोग के िलए भजे तो उसे समझा दे िक जैसे बै ल गौओं को
गािभन करता है वै से ही वह तु ारी ी को गािभन कर जा को बढ़ावे ,
तब जाकर कही ं गु आ ा का फल कट होगा और दयानंद के लाडले
िश पुरे वै िदक कहला सकगे, अ था नही,ं और सु िनये ,
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और यिद िकसी दयानंदी की वाणी खराब हो गई हो जैसे तु तलापन हो,
गला बै ठ गया हो या िफर ज से गूं गा आिद हो तो ऐसे समाजी, वाणी के
िलए मढ़ा (मढक) से भोग िकया कर,
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(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -७)
ाण े पा पान े पािह ान े पािह च ु म ऽ उ ा िवभािह
ो े ोकय।
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(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -८)
वाचं ते शु ािम। ाणं ते शु ािम। च ु स् ते शु ािम। ो ं ते
शु ािम। नािभं ते शु ािम। मे ढं ते शु ािम। पायुं ते शु ािम।
च र ाम्ँ स् ते शु ािम॥ ~यजुवद {६/१४}
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ए, उसी भारत भू िम पर दयानंद जैसा धू त भी उ आ, िजन वे दों का
थान िव की थम पु कों म आता है िज सब सतिव ाओं का भं डार
कहा गया है उसी वे द के नाम पर दयानंद ने अनुिचत िश ा िदखलाकर
लोगों को घृणा करवाईं है लेिकन यह याद रहे िक इन मं ों के यह अथ
हिगज नही ं यह ामी जी की गढ़ है यह दयानंद वे दभा है जो उ ोंने
अपनी अ ील बु अनुसार कर है , इस कारण यह मानने यो नही ं
और िज ोंने यह अथ िकये ह, वह महिष ा? महामूख कहलाने यो भी
नही,ं और ऐसे मूख को महिष कहना, महिष श की इ त उतारना है ,
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(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -१)
अ ये पीवानं पृिथ ै पीठसिपणं वायवे चा ालम् अ र ाय वम्ँ
शनितनं िदवे खलितम्ँ सूयाय हय ं न े ः िकिमरं च मसे
िकलासम् अ े शु ं िप ा म्ँ रा ै कृ ं िप ा म् ॥ ~यजुवद {
३०/२१}
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(अ ये )= अि के समीप काय करने के िलए, (पीवानम्)= बलवान पु षों
को, (पृिथ ै)= पृ ी के िलए, (पीठसिपणम्)= आसन पर बै ठकर काय
करने वाले पु षों को, (वायवे )= ते ज वायु वाले थान के िलए,
(चा ालम् )= चंड श वाले पु ष को, (अ र ाय)= आकाश थत
अथात ऊंचाई वाले काय के िलए, (वं शनि नम् )= बाँ स पर कलािद िदखाने
वालों को, (िदवे )= द् यु लोक के िलए, (खलितम्)= आकाश थ गोिलय िपंड़ों
की गित को जानने वाले खगोलिवद पु षों को, (सू याय)= सू य के िलए,
(हय म्)= ह रत वण वाले, (न े ः)= न ों के िलए, (िकिमरम्)=
धवल वण के जानने वाले िवदजनों को, (च मसे )= च स ी भावों
के िनवारण हे तु, (िकलासम्)= िकलासिवद जनों को, (अ े )= िदन के
काय के िलए, (शु म् )= े त रं ग के, (िप ा म्)= पीले ने ों वाले, तथा
(रा ै)= राि के िलए, (कृ म् )= काले रं ग वाले, (िप ा म्)= पीले ने ों
से यु पु षों को िनयु करना चािहए।
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ई र इस कार की पर र िव बातों से भरा उपदे श मनु ों को कर
सकता है ? कदािप नही,ं इस मुखानंद ने तो अपने इस भा से ई र तक
को कं ूज कर िदया होगा, िफर साधारण मनु ों की तो बात ही ा
करनी, अब यह बात तो हमारे दयानंदी भाई ही बता सकगे , की दयानंद
के इस भा ानुसार ई र को ा करना चािहये, वह पीले ने ों वाले
मनु ों को उ कर या ना कर! और सु िनये ,
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जाितवाद आिद को बढ़ावा दे ने वाले दयानंद ही है और वही अनैितक
िश ा दयानंद ने अपने वे दभा ों से अपने लाडले िश ों के िलए िलखी ं ह,
और सु िनये
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छ ः। ऽ उ ा वयः ककुप् छ ः। ऽ ऋषभो वयः सतोबृ हती छ ः॥
~यजुवद {१४/९}
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यह इसका अथ है और दयानंद ने इस ुित के अथ का ा अनथ िकया
है वो आपके सामने है और सु िनये िसफ यही नही ं दयानंद ने राजा तक को
पशु तु बताते ए राजा को िकसी कु े की भां ित समझ िलया है ामी
मुखानंद जी िलखते ह िक ( ा :)- जो िविवध कार के पदाथ को अ े
कार सूँ घता है उस ज ु के तु राजा तू, (िसं ह:)- पशु आिद को
मारनेहारे िसं ह के समान परा मी राजा तू ,
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ोिक मेरे िहसाब से ामी दयानं द ने अपने अदभु द ान से िव भर म
फैली गं दगी को उसी कार दू र कर िकया िजस कार एक सू वर गूँ
खाकर समाज म फैली गं दगी को दू र करता है
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ामी दयानं द एकादश िनयोग की दे न
तृतीयो अि े पित ु रीय े मनु जाः॥ ~ऋ० {मं ० १०, सू० ८५,
मं ० ४०}
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“हे ी! जो (ते ) ते रा ( थमः) पहला िववािहत (पितः) पित तु झ को (िविवदे )
ा होता है उस का नाम (सोमः) सु कुमारतािद गु णयु होने से सोम जो
दू सरा िनयोग होने से (िविवदे ) ा होता वह, (ग व:) एक ी से सं भोग
करने से ग व, जो (तृ तीय उ रः) दो के प ात् तीसरा पित होता है वह
(अि ः)- अ ु तायु होने से अि सं क और जो (ते ) ते रे (तु रीयः) चौथे
से लेके ारहव तक िनयोग से पित होते ह वे (मनु जाः) मनु नाम से
कहाते ह | जैसा (इमां िम ) इस म ा म ारहव पु ष तक ी
िनयोग कर सकती है , वै से पु ष भी ारहवी ं ी तक िनयोग कर सकता
है ”
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की सं तान हो अथात िजसम मानवता हो िजसका भाव दयालुता वाला हो
ू रता वाला नही”ं
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ह ाभ िदिधषो वेदं प ु जिन मिभ सं बभूथ॥ ~ऋ० {मं ०
१०, सू ० १८, मं ० ८}
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की जब गये पु हो गया, क ा का कोई नाम ही नही ं बस पु ही पु होंगे,
यिद यह ई र की आ ा है तो ई र स सं क है सबके पु ही उ
होने चािहए क ा एक भी नही,ं बस सारा िनयोग यही समा हो जाता है ,
पर ु यह दे खने म नही ं आता तु म तो अपने िम ा भा ों से ई र को भी
झूठा बनाते हो, इसिलए इस ुित का अथ यह नही ं बनता जैसा तु मने
िकया है ब त से लोग िनसं तान भी होते ह यह िभचार चार मूख िनयोग
समाजीयों के साथ साथ सम भारतवािसयों को घोर अंधकार म डालने
वाला है , इसम वे द मं ों को ों सानते हो? यिद इतनी ही ादा खुजाई
मच रही थी तो कोई अपनी ही िम ा सं ृ त बना लेते, तु ारे चैले तो उसे
भी प र की लकीर मान लेते, दे खए वे दों म ऐसी बात कभी नही ं होती,
यह मं िववाह करण का है जो आशीवाद के अथ म है और इसका अथ
इस कार है िक--
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हमारा िकया ही मानते ह इसिलए जो चाहे सो अंड सं ड बकवास िकये
जाय, इस िहसाब से तो तु ारे मत म िकसी के दश से कम पु नही ं होने
चािहए और िजनके दश से कम है वह तु ारे वा ानुसार कुछ िचंता कर,
और दश सं तान म समय िकतना लगे गा यह न िलखा तु मने। और सु िनये ,
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ाथ साधने के िलए वे द मं ों के अथ का अनथ िकया है दे खए इसका
सही अथ इस कार है --
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अ े कार धम-िनयम म चलने (सु वचाः) प और सवशा ा िव ायु
( जावती) उ म पु पौ ािद से सिहत (वीरसू ः) शूरवीर पु ों को जनने
(दे वृकामा) दे वर की कामना करने वाली ( ोना) और सु ख दे नेहारी पित
वा दे वर को (एिध) ा होके (इमम्) इस (गाहप म् ) गृ ह थ स ं धी
(अि म्) अि हो ा का (सपय) से वन िकया कर”
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यह इसका अथ है ामी जी ने यह नही ं सोचा िक उनका यह भा और
भी कोई दे खेगा तो ा कहे गा? यह िववाह स ी मं िनयोग म लगाये
ह, ध है तु ारी बु , अब यिद तु ारी अ ील बु म केवल उ ी
बात ही आती है तो सु िनये इस ुित म कथन है िक--
अब यिद तु ारा िकया अथ ही सही माने तो यहाँ पित, ससु र दोनों के िलए
( ोना) पद आया है अथात सु ख दे ने वाली हो एवं सब ही कुटु यों को
सु ख दे ने वाली िलखा है , तो ा जो पित के सं ग वहार कर, वही सबके
साथ कर? यह कभी नही ं हो सकता पित को और कार का सु ख, और
ससु रािद को से वा आिद से सु ख दे ती है , यह नही ं िक सु ख दे ने से सबके
सं ग भोग के ही अथ हो जाये , इससे ामी जी के िकये सब अथ है
िम ा है ,
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िव ाथ षड् यशोsथ वा कामाथ ी ुव रान् ॥१॥
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िव ाथ ष शोऽथ वा कामाथ ी ं ुव रान् ॥७६॥
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यो धम एकप ीनां का ी तमनु मम् ॥ {५/१५८}
मृ ते भत र साढ् वी ी चय व थता।
अप लोभा ा तु ी भतारमितवतते ।
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यिद िकसी ी के पित की मृ ु िबना िकसी सं तान को उ िकए हो
जाए तब भी ी को अपनी स ित के िलए दू सरे पु ष का सं ग नही ं करना
चािहए,॥१५९॥
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पित दु सरा िववाह करने का अिधकारी है और यिद पि अि य बोलने
वाली है तो पित त ाल दु सरा िववाह कर सकता है ।
जे तािधग ा स ान प र ये ॥१॥
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अब तु म कहों ा इससे िनयोग िस नही ं होता?
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स महीम खलां भु न् राजिष वरः पुरा।
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िनयोग की तु लना पशुधम से करते ए इसकी ब त िन ा की है , जो
िव ान लोग ह वे इस बात को भलीभाँ ित समझते ह, मुझे तो तु ारे ामी
जी राजा वे न के ही अवतार मालू म पड़ते ह, या राजा वे न के भी बाप, दादा
या गु क ं तो गलत नही ं होगा, ोिक उसने तो केवल अपनी ही जाित
म िनयोग चलाया और एक ही सं तान उ करने को कहा, पर ु तु ारे
दयानंद तो सब ही जाित म िनयोग करना और ारह तक पित बनाने की
आ ा करते ह, यह पशुधम दयानंद ने चलाया जो राजा वे न से ार आ
है इससे पता चलता है िक दयानंद धम के नही ं अधम के फैलाने वाले ह।
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महिष या िफर महाचुितया
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“हे (होत:) दे नेहारे ! जैसे, (होता) लेनेवाला,,,, (छाग ) बकरा आिद पशुओं
के, (म त:)- बीच से , (हिवष:)- लेने यो पदाथ, (मेद:)- अथात घी, दू ध
आिद,,,,,, (आ ाम्) लेव वा,,,,, (नू नम् ) िन य करक, (घ ाम्) खाव वा,,,,,,
(हिव:) उ पदाथ से खाने यो पदाथ का,,,,,, (जुषेताम् ) से वन कर”
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चाहे तो खायगे कहाँ से , ा सं सार म बकरे का दू ध, दही, घी आिद होता
भी है ? जो ये खायगे , बकरों का दू ध, घी आिद न तो इस सं सार म कभी
आ है और न ही होगा, ऐसी असं भव िचज के खाने को िलखने से ही
दयानंद की बु का पता लगता है , कोई िकतना ही बड़ा मुख ों न हो,
उसकी बु िकतनी ही घुटनों म ों न हों वह भी ऐसी िबना िसर की
बात न िलखेगा, जैसे ामी ने िलखा है , दयानंद के इस भा को पढ़कर
ही पता लग जाता है िक ामी जी ने उस िदन लौटा भरकर िपया होगा,
अब बकरे का दू ध िपया या कुछ और ही पी िलया यह कह पाना मु ल
है , और सु िनये ,
“हे मनु ों! (अि ाम्)- ाण और अपान के िलए, (छागे न)- दु :ख िवनाश
करने वाले छे री आिद पशु से , (सर ै )- वाणी के िलए, (मेषेण)- मढ़ा से ,
(इ ाय)- परम ऐ य के िलए, (ॠषभे ण)- बै ल से , (अ न्)- भोग कर”
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और यिद िकसी दयानंदी की वाणी खराब हो गई हो जैसे तु तलापन हो,
गला बै ठ गया हो या िफर ज से गूं गा आिद हो तो ऐसे समाजी, वाणी के
िलए मढ़ा (मढक) से भोग िकया कर,
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इसी कार अ ाय १६ मं १७ म दयानंद राजा को आम के वृ काटना
िलखते ह
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हमारे यहाँ तो राजा को ऐसे अपश नही ं बोले जाते , हो सकता है आय
समाज म राजा को सू वर के तु समझा जाता हो, शायद समाजी अपने
राजा अथात दयानंद को इसी कार बोलते हो, की "हे भं ग के नशे म
िवशेषकर सू वर की भां ित सोने वाले राजन् " और िफर दयानंद ने यही बात
अपने वे दभा म िलख दी हो, और सु िनये ,
“हे मनु ! जैसे म, ( ा)- तु झको, (अ )- घोड़े की, (श ा)- लडी, लीद
से , (धू पयािम)- तपाता ँ ”
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दयानंद मत पशुिहंसा धम का अंग
॥िजहादी दयानंद॥
~यजुवद {१३/४९}
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इसके भावाथ म ामी जी िलखते ह िक-- और गौ जाित से स रखने
वाली, गौ के समान िदखने वाली नीलगाय आिद जो जंगल म रहती है ,
उससे खेती की हािन होती है इसिलए वह मारने यो है ,
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ामी जी अपने अ लेखों म भी पशुिहं सा का समथन कर चुके ह दे खये
जैसे स ाथ काश के थम सं रण के पृ १४६ म िलखा है िक “मां स
के िप दे ने म तो कुछ पाप नही”ं
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नो मृ डय ु ते यं ि ो यश् च नो े ि तम् एषां ज ेद ः॥
~यजुवद {१५/१५}
“जो (अयम् )- यह, (दङ् णवः)- मां स और घास आिद पदाथ को खानेवाले
पशु आिद उनके ऊपर, (हे ित:)- िबजुली िगरे ,,,,, (य:)- जो, (न:)- हमसे ,
( े ि )- िवरोध कर, (तम्)- उसको हम लोग, (एषाम् )- इन ा ािद पशुओं
के, (ज े )- मुख म, (द :)- थापन कर”
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उस को ीकार करता है िक जै से हे परमे र! आप मेरे श ु ओं का नाश,
मुझ को सब से बड़ा, मेरी ही ित ा और मेरे आधीन सब हो जाये इ ािद,
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