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िजन भड़वे समािजयों का उ े सनातन धम ं थों के उदाहरणों को


गलत सं दभ म ु त करते ए- धम के न जानने वालों के बीच म का
भाव उ कर उ धम के माग से िवमुख करना है सनातनधिमयों को
अपमािनत करना व उ नीचा िदखाना, धम िवरोधीयों की सहायता करना
आिद ह, उनके िलए स ेम --------------

(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -१)


पूषणं विन ठु ना ाही थूलगुदया सपा गुदािभिवह्लुत आ ैरपो
व ना वृषणमा ा ां वािजन गं शेपेन जा ं रे तसा चाषान्
िप े न दरान् पायुना कू ा किप ै ः॥ ~यजुवद {अ ाय २५,
मं ७}

दयानंद अपने यजुवदभा म इस मं का अथ यह िलखते ह िक---

हे मनु ों! तु म मां गने से पुि करने वालों को थूल गु दि यों के साथ
वतमान, अंधे सप को गु दि यों के साथ वतमान िवशेष कुिटल सप को
आं तों से , जलों को नािभ के नीचे के भाग से , अंडकोष को आं डों से , घोडे
के िलंग और वीय से सं तान को, िप से भोजनों को, पेट के अंगो को
गु दि य और श यों से िशखावटों को िनरं तर लेओ।ं

समी क-- अब कोई इन िनयोग समाजीयों से यह पूछे िक उ दयानंद


ारा िकये गये अिधकां श मं ो के ऐसे अथ अ ील ों नही ं लगते ? और

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जब इस वे द ऋचा की ही भां ित इ अ सनातनी धम थों मे कोई ुित
या ोक िदख जाता ह तो अपनी बु अनुसार ही उसके अथ का अनथ
कर आ पु षों ारा रिचत ं थों का अपमान करते है और उ ा
सनातनधिमयों और उनके शा कारों को-- धू त, िनशाचर, पाखंडी, नीच
और न जाने िकतनी गािलयाँ दे ते ह,

तो अब िनयोग समाजी हम बताए िक दयानंद के इन भा ों के बारे म


उनकी ा राय है ? दयानंद ारा िकया यह अथ उ अ ील लगता है
या नही।ं

१• दयानंदी हम बताए िक अंधे सप को गु दा म घुसाने और कुिटल


सप को आं तों से लेने की आ ा ा ई र ने दे ता ह?

यिद दे ता है तो समाजी िदन म ये िकतनी बार लेते ह?

२• दयानंदी हम बताये अंधे कुिटल सप और अ के िलंग को गु दा व


आं तों म िनरं तर लेते रहने के पीछे का िव ान समझाए .

३• दयानंदी गु दा व आं तों म अंधे कुिटल सप एवं अ के िलंग को


िनरं तर लेते रहने की िवशेष यु का खुलासा कर, ोिक दयानंदीयों के
सप के साथ इस कृ की क ना करके भी, हमारी समझ से तो बाहर ह
िक सप को ये िकस यु से वे श दे ते होंग ?

४• सप को गु दि य म लेने की आव कता ा ह? गु दि य आनंद


ही अगर अपेि त ह, तो सप के समान आकार वाली अ व ु ओं का
िवक भी तो है न आपके िलए? और यिद लेते समय साँ प घबराकर
आपको अंदर या बाहर से काट लेव, तो वै के पास जाकर ा कहोग
अभागों?

५• और अंधा सप ही ो? आँ ख वाले सप से ा गु दि यों को नजर


लगने का भय ह?

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६• अथ मे आता ह िक - "अंडकोष को आं डों से िनरं तर लेओं" अब
दयानंदी पहले तो अंडकोष और आं डों के बीच का अंतर बताय, और िफर
ये बताय िक अंडकोष से आडों को िकस कार िलया जा सकता ह?

उिचत होता यिद दयानंदी गु आ ा का पालन करते ए ामी जी की ही


गु दा म दो चार अंधहीन सप छोड़ दे ते, और ामी जी को िनरं तर अ का
िलंग हण कराते रहते , तब जाकर कही ं गु आ ा का फल कट होता,

अब कोई अनाय समाजी ये न कह िक इसका मतलब ये नही ं है , वो नही ं


ह, फलाना ह, तो िढमाका ह ... ोिक यही बात जब हम आप लोगों को
समझाते ह तो बु और िववे क को एक तरफ रखकर आप लोग केवल
श ों को ही पकड़ के बै ठे रहते हो,

दे खये दयानंद स ाथ काश के ादश समु ास म महीधरािद पर


अ ील भा करने का आरोप लगाते ए िलखते ह-- “हां! भांड धू
िनशाचरवत् महीधरािद टीकाकार ए ह, उन की धू ा है; वेदों की नही ं”

ा यह बात इस भडवे दयानंद पर लागू नही ं होती? िब ु ल होती है ,


अत: पाठकगणों से िनवे दन है िक वो इस बात को समझ की दयानंद ने
जो ये अ ील भा िकया है वो इस भां ड धू िनशाचरवत् दयानंद की
धू तता है , वे दों की नही,ं दे खये इस ुित का सही अथ इस कार है

शंका समाधान-

"इस मं म आ ित ारा, पाचन सं बंधी िविभ अंगों म उप थत िभ -


िभ श यों को उनसे सं बंिधत दे वों की स ता के िलए समिपत िकया
गया है सभी की श याँ दे व योजनों के िलए समिपत हो, ऐसा जानकर
रोगमु थ जीवन की ाथना की गई है , यह एक आदश सं गठना क
िव ा है , दे खए ा कहता है ये मं --

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पूषणं विन ठु ना ाही थूलगुदया सपा गुदािभिवह्लुत आ ैरपो
व ना वृषणमा ा ां वािजन गं शेपेन जा ं रे तसा चाषान्
िप े न दरान् पायुना कू ा किप ै ः॥ ~यजुवद {२५/७}

(पूषणं विन ठु ना थूलगु दया)- थूल आं तों व गु दा, पाचन सं बंधी अंगों का
भाग पूषण दे वता के िलए, हे पूषण दे व हमारे पाचन तं सं बंधी अंगों को
थ कर शरीर की ािधयाँ उसी कार दू र कर, िजस कार,
(अ ाहीन सपान)- अंधहीन सप आपने बां बी से दू र िनकल जाते है ,
(गु दािभिवह्लुत आ ैरपो)- और हे िव त दे व गु दा से सं बंधी अ
ािधयों को दू र कर हम रोगमु थ जीवन दान कर, इस कार
(व ना)- व भाग जल के िलए, (वृ षणमा ा ां )- अंडकोशों की
श वृ षण दे व के िलए, (वािजनं)- उप थ की श वाजीदे व के िलए,
(रे तसा)- िवय जा की र ा के िलए, (चाषान् िप ेन)- िपत चाष दे व के
िलए, ( दरान् पायु ना)- आं तों का तृ तीया भाग सरदे वों के िलए,
(कू ा किप ै ः)- तथा शकिप ों को कू दे व की स ता के िलए
समिपत करते ए रोगमु , थ जीवन की कामना करते ह,

और भां ड दयानंद ने इसके अथ का ा अनथ िकया है , वो आप लोगों


के सामने है ,

तो मेरे नवीन समाजी भाईयों आगे बढ़ और दयानंद की थुत पर चार जूते


मारकर भां ड दयानंद ारा िकए गए इन अ ील भा ों का िवरोध कर....

(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -२)


शादं द र् अवकां द मू लैर् मृ दं ब स् तेगा म्ं ा ाम्ं सर ा
ऽ अ िज ं िज ाया ऽ उ ादम् अव े न तालु वाजम्ँ हनु ाम् अप
ऽआ े न वृषणम् आ ा ाम् आिद ाम्ँ ुिभः प ानं ू ां
ावापृिथवी वत ां िवद् युतं कनीनका ाम्ं शु ाय ाहा कृ ाय

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ाहा पायािण प ा ् अवाया ऽ इ वो वायािण प ािण पाया ऽ
इ वः॥ ~यजुवद {अ ाय २५, मं १}

दयानंद अपने यजुवदभा म इस मं का अथ यह िलखते ह िक---

"हे अ े ान की चाहना करते ए ानी जन! ,,,,,,,,,//////


(आ ा ाम्)- वीय को अ े कार धारण करनेहारे आ ों से ,
(वृ षणम् )- वीय वषानेवाली अंग {िलंग} को, ( ुिभ:)- मुख के चारों ओर
जो केश, अथात डाढ़ी उससे ,,,,,,,,, /////वे पदाथ अ े कार हण करने
चािहए

समी क-- िदन रात जहाँ तहाँ अ ीलता ढु ढने वाले दयानंदीयों तु
दयानंद ारा िकए ये अ ील भा नजर ों नही ं आत, तु ारे दयानंद
ने तो अपनी अ ील बु से ई रीय ान वे दों को भी अ ील बना िदया,

१• दयानंदी बताय िक ा ई र मनु ों को यही उपदे श करता है


जैसे िक दयानंद ने इस ुित का अथ िकया है ?

२• दयानंदी बताय िक दयानंद अपने भा ारा आ ों, वीय वषाने


वाले अंग िलंग और डाढ़ी से ऐसा कौन सा ई रीय ान बाँ ट रहा है ?

३• दयानंदी बताय यिद यह ई रीय अ ा है तो दयानंद के


भा ानुसार वे िलं ग एवं आ ों को अपने मुख के चारों ओर िदन म
िकतनी बार हण करते है ?

४• दयानंदी आ ों, एं व िलंग को मुख के चारों ओर हण करने की


िवशेष यु के साथ साथ उसके िपछे का वै ािनक रह समझाए,

५• दयानंदी बताय िक वे मुख के चारों ओर केवल पु षों के आ ों


एवं िलंग को हण करते ह या िफर गधे घोड़े आिद पशुओं का भी हण
करते ह,

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६• दयानंदी बताय िक वह इस कृ को ितिदन दोहराते ह या िफर
समाज के िकसी वािषक उ व पर?

हम यह भलीभाँ ित जानते ह िक इन धू त समाजीयों के पास इन ों का


कोई उ र नही ं है , और ना ही वह इसका उ र दे ना चाहगे , यह
समाजीयों के दय म तीर की तरह चुभ रहे होंगे, ोिक आज से पहले
उ ोंने दयानंद के यह भा नही ं पढे होग, ोिक उ दू सरों की िनंदा
करने से फुसत ही कहाँ है जो दू सरों से पहले एकबार िन भाव से
दयानंद ारा िकये इन अथ को पढ लेते तो तु र समाज का ाग कर
दे त, दयानंद ने वे दभा के नाम पर िसफ अथ का अनथ ही िकया है , इन
ुितयों का अथ ऐसा िबलकुल नही ं है , दे खये-

अ मेध य के अ गत वन ित याग एवं कृत् आ ितयों के मम


िवशेष आ ितयाँ दान िक जाती है , इस आ ित म ािणयों के िविभ
अंगों म थत श यों को दे व योजनों के िलए समिपत िकया जाता है ,
अ मेध य रा सं गठन के अथ म यु है , यह आदश सं गठना क
िव ा है , सु िनये इस ुित का अथ यह है िक--

दां तों की श से शाद दे वता को, दं तमूल से अवका दे वता को, दां तों के
प भाग से मृद दे वता को, दाढ़ों से ते गदे वता को, िज ा के अ भाग से
सर ती को, एवं िज ा से उ ाद दे वता को स करते ह, तालु की
श से अव दे वता को, ठोढी हे अ दे वता को, मुख से जल दे वता
को स करते ह, वृ षणों से वृ षण दे वता को, दाढी से आिद ों को, भौं से
प दे वता को, पलक लोमों से पृ ी एवं द् यु लोक को, तथा आँ ख की
पुतिलयों से िवद् यु त् दे वता को स करते ह, शु एवं कृ दे व
श यों के िनिम यह आ ित समिपत है , ने ों के नीचे एवं ऊपर के
लोमों से 'पार' एवं 'अवार' दे वश यों को स करते ह।

अब दयानंदी बताय िक इस ुित का जो अथ दयानंद ने िकया है उसम


यह अ ील श कहाँ से आ गये , इस ुित से दयानंद का िकया क त

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और अ ील अथ िकंिचत् मा भी स नही ं रखता, जबिक दयानंद
का िकया यह अथ अ ील के साथ साथ िनरथक भी है , दयानंद के इन
अ ील भा ों का कोई आशय ही नही ं िनकलता, ा दयानंदीयों को
दयानंद ारा िकये यह अ ीलभा नजर नही ं आते , या दयानंद के भा
पढने से पहले इस भा ानुसार मुहँ और आँ खों म टोपा ले लेते हो िजस
कारण तु यह अ ीलभा िदखाई नही ं पड़ते , यिद ऐसा है तो कुछ
और बात है दयानंद की बात आने पर शायद कान म भी ले लेते होगे
िजससे तु सु नाई भी न पडता होगा, बु मान यं िवचार ा यह
दयानंदीयों का दौगलापन नही है , जो है उन दयानंदभा ों पर तो
इनकी बोलती बं द हो जाती है और जहाँ नही ं िदखता वहाँ अपना वही
पुराना रं d! रौना रोते है िक फला ं थ म अ ीलता है तो इस ं थ म
अ ीलता है इसिलए यह हम मा नही,ं अबे तो तु पूछता ही कौन है ?
कौन कहता है िक तु म इ मानों जी करता है तो मानों नही ं करता है तो
मत मानों पर कम से कम यह अपना रं d! रौना तो बं द करों

(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -३)


यजुवद अ ाय १९, मं ७६, भां ड दयानंद ने इस मं के अथ का जो
अनथ िकया है , वो तो िकसी को बताने यो भी नही,ं इस कार का
अ ील लेख या तो आपको से ी उप ासों म या िफर दयानंद ारा
िल खत कामशा म ही पढने को िमल सकता है , दे खए ा िलखता है
ये भां ड--

रे तो मू ं िव जहाित योिनं िवशद् इ यम् । गभ जरायुणावृत ऽ


उ ं जहाित ज ना। ऋते न स म् इ यं िवपानम्ँ शु म् अ स ऽ
इ े यम् इदं पयो ऽमृ तं मधु॥ ~यजुवद {१९/७६}

दयानंद अपने यजुवदभा म इसका अथ िलखते ह िक--

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"जैसे पु ष का िलंग ी की योिन म वे श करता आ, वीय को छोडता
है , और इससे अलग मू को छोडता है , इससे जाना जाता है िक शरीर म
मू के थान से पृथक थान म िवय रहता है "

समी क-- वाह रे ! वे दभा के नाम पर कामशा िलखने वाले


कामानंद, ा कहने ते रे! तु झ को ऐसी-ऐसी अ ील बात िलखने म
तिनक भी ल ा और शम न आई, िनपट अ ा ही बन गया, यह जो तु ने
िलखा है िक (जैसे पु ष का िलंग ी की योिन म वे श करता आ, वीय
को छोडता है और इससे अलग मू को छोडता है , इससे जाना जाता है
िक शरीर म मू के थान से पृथक थान म िवय रहता है ) भला यह अथ
तु मने कौन से पदों से िलया है , भला इसम कौन सा ई रीय ान छूपा है ?
ा तु ारे इस भा से पूव मनु ों को इसका ान न था िक शरीर म
मू और िवय पृथक पृथक थान म रहते है , शोक हे ! ते री बु पर, ा
तु मने ई रीय ान को इतना तु और अ ील जान रखा है ? दे खये इस
ुित का अथ ऐसा िब ु ल नही ं जैसा तु मने अपनी अ ील बु अनुसार
िकया है , सु िनये इसका सही अथ इस कार है िक--

"िजस कार गभ अपनी र ा के िलए यं को जरायु म आवृ त करता है ,


पर ु ज के प ात उसे िवदीण कर उसका प र ाग कर दे ता है , जैसे
एक ही माग से िभ िभ पदाथ (मु एवं वीय) िन:सृ त होते ह लौिकक
स इसी स का प है , यह अ प सोम, िविश साधन, बल,
अ , ते ज, इ य सामाथ, दु ािद पेय और मधू र पदाथ को हमारे िनिमत
दान करता है ,

यह इसका अथ है और दे खये इस कामानंद ने इस वे द ुित के अथ का


ा अनथ िकया है ा दयानंद को ऐसा अ ील अथ करते तिनक भी
ल ा न आई? उसने एक बार भी यह नही सोचा की िजन वे द ऋचाओं को
ई रीय वचन कहा जाता है , उन वे द ऋचाओं का ऐसा अ ील अथ करने
पर िव ान लोग उ ा कहगे ? िजन वे दों का थान सं सार की सभी

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पु कों म थम आता है , इस कामानंद ने उनका अ ील भा कर
लोगों से घृणा करवायी है , जबिक यही दयानंद वे दों के अ ील भा
करने का आरोप लगाते ए स ाथ काश के ादश समु ास, म
महीधरािद टीकाकारों को भां ड, धू त और िनशाचरवत् बोलते है , पर ु
उ ोंने ख़ुद वे द ऋचाओं का अथ अ ील के साथ िनरथक भी कर डाला,

पाठकगण! ंय िवचार करक बताए, वे दभा के नाम पर अंतवासना


िलखने वाले इस दयानंद को ा कहना उिचत रहे गा? और सु िनये आगे
इसी अ ाय म मं ८८ का अथ करते ए िलखते है , िक--

(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -४)


मु खम्ँ सद् िशर ऽ इत् सतेन िज ा पिव म् अि नास ् सर ती
। च ं न पायुर् िभषग् अ वालो व र् न शेपो हरसा तर ी॥
~यजुवद {१९/८८}

दयानंद इसका अथ अपने यजुवदभा म यह िलखते ह िक—“हे मनु ो!


जैसे िजससे रस हण िकया जाता है वह वाणी के समान ी, इस पित के
सु र अवयवों से िवभ िशर के साथ िशर कर तथा मुख के समीप
पिव मुख कर इसी कार गृ हा म के वहार म ा ी पु ष दोनों
ही वत तथा जो इस रोग से र क वै और बालक के समान वास करने
का हे तु पु ष उप थे य (िलंग) को बल से करनेहारा होता है वह शा
करने के समान वतमान मे स ानो ि का हे तु होवे उस सबको यथावत
करे ”

लेिकन बाद म ामी जी ने सोचा होगा िक उनके िनयोगी चैल उनके इस


अथ को समझ न सकगे इसिलए अपने िश ों के वा े अथ को थोड़ा और
आसान बनाने के िलए ामी जी भावाथ म यह िलखते ह िक--

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ी पु ष गभाधान के समय मे पर र िमलकर ेम से पू रत होकर मुख
के साथ मुख, आँ ख के साथ आँ ख, मन के साथ मन, शरीर के साथ शरीर
का अनुसंधान करके गभ का धारण कर िजससे कु प और िवकलां ग
स ान न होवे ,

लेिकन ामी जी की अ ील बु यही न िक, दयानंद अपने इसी


कामशा का िव ार से वणन करते ए स ाथ काश के चतु थ
समु ास म अपने लाडले िश ों के िलए फरमाते है िक--

“जब वीय का गभाशय म िगरने का समय हो उस समय ी और पु ष


दोनों थर और नािसका के सामने नािसका, ने के सामने ने अथात्
सू धा शरीर और अ स िच रह, िडग नही।ं पु ष अपने शरीर को
ढीला छोड़े और ी वी ा समय अपान वायु को ऊपर खीच
ं े , योिन
को ऊपर सं कोच कर वी का ऊपर आकषण करके गभाशय म थत
करे , प ात् दोनों शु जल से ान कर”

समी क-- वाह रे ! इस कामशा के बनाने वाले, ा कहना ते रा?


दयानंद के इस भा को पढ़कर यह कह पाना मु ल है िक दयानंद
वे दभा िलख रहा था या िफर कोई अंतवावसना, या िफर दयानंद ने
ई रीय ान को इतना तु और अ ील समझ रखा है जैसा इस भां ड
के भा ों से कट हो रहा है ,

जहाँ तक गभाधान िविध का है , यह तो एक ाभािवक ि या है , इसे


तो न केवल अनपढ़, गवार मनु जानता है , ब पशु -प ी भी जानते है ,
पशु-पि यों को कौन से ‘शा ों का ान होता ह? उ भला कौन यह सब
िसखाता ह? इस कारण दयानंद का िकया यह अथ अशु है वे दों म ऐसी
बात कही नही ं है , यह िश ा करने को तो मनु िनिमत साधारण पु क
ही काफी है इसिलए इस वे द ुित का यह अथ नही ं है , िक ु इसका अथ
यह है िक—“इ दे व के इस िवराट शरीर म मुख और म कस से
पिव है मुख म थत िज ा स वाणी और स ाद से पिव है , दोनों

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अ नीकुमारों और दे वी सर ती के ारा इन अंगों के सं चालन से पिव ता
ा ई, च पायु इ य ई, और बाल शारी रक दोषों को बाहर
िनकालने वाले िभषक् (उपचारकता प) ए, और व तथा िवय से
जननि य ई। इस ुित म तो शरीर के िविभ अंगों की सृ ि िकस-िकस
कार ई यह कथन िकया है और इससे पूव और बाद के मं ों म भी यही
कथन िकया है ”

यह इसका अथ है जबिक दयानंद का िकया अथ इससे कुछ भी स


नही ं रखता, ने जाने ामी कामानंद ने यह कपोल क तअ ील अथ
िकन पदों से िनकाला है , इस वे द ुित म ऐसा कोई पद नही ं िजससे ामी
कामानंद जी का िलखा क त अथ िस होता हो, दयानंद ने इस कार
का अ ील अथ िलखने से पूव एक बार भी यह न सोचा िक िव ान लोग
जब इसे दे खगे तो उनके बारे म ा सोचगे , भला ई रीय ान भी इतना
तु हो सकता है ा? ा यही वे द िव ा है ा यही वे दों का सार है ?
दयानंद ने इन वे द ऋचाओं के अथ का जो अनथ िकया है ऐसा तो कभी
िकसी ने भी नही ं िकया होगा,

मुझे यह समझ म नही ं आता इन समाजीयों को दयानंद ारा िकये यह


अ ील भा नजर ों नही ं आते , ों उनकी ि दयानंद के इन
भा ों पर नही ं पडती? यह धू त समाजी ों नही ं दयानंद के इन भा ों
का िवरोध करते ह? यह तु ारा दौगलापन नही तो और ा है ? जब दे खों
जहाँ तहाँ अ ीलता ढू ं ढते िफरते हो यहाँ तु है तो भी तु ारे ने ों
से िदखाई नही ं पडता, इन िनयोगी द ों का दौगालपन तो यही िस हो
जाता है , दे खये थम तो ामी कामानंद जी अपने लाडले िश ों को
गभाधान का उपदे श इस कार करते है िक-- ( ी पु ष गभाधान के
समय मे पर र िमलकर ेम से पू रत होकर मुख के साथ मुख, आँ ख के
साथ आँ ख, मन के साथ मन, शरीर के साथ शरीर का अनुसंधान करके
गभ का धारण कर, इस कार गभधारण करने से कु प और िवकलां ग
स ान उ नही ं होती,

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और िफर आगे इसी के िव यजुवद अ ाय २८, मं ३२ का भा
करते ए िलखा है िक--

(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -५)


होता य त् सुरेतसं ारं पुि वधनम्ँ पािण िब तं पृथक् पुि म्
इ ं वयोधसम् ।

ि पदं छ ऽइ यम् उ ाणं गां न वयो दधद् वे ् आ होतर्


यज॥ ~यजुवद {२८/३२}

इसका अथ ामी कामानंद जी ने अपने यजुवदभा म यह िलखा है िक-


-

"हे मनु ों! जैसे बै ल गौओं को गािभन करके पशुओं को बढ़ता है , वै से


गृ ह थ लोग ीयों को गभवती कर जा बढ़ाव"

{नोट-- स ाथ काश थम सं रण म दयानंद ने िलखा है िक एक बै ल


से हजारों गै यां गभवती हो जाती है यहाँ वही अिभ ाय है या और कुछ?}

अब दयानंद के इन भा ों पर ि डाल तो दयानंद ने यहाँ दो कार की


गभाधान िविध का खुलासा िकया,

(पहला)-- ी पु ष पर र िमलकर ेम से पू रत होकर मुख के साथ


मुख, आँ ख के साथ आँ ख, मन के साथ मन, शरीर के साथ शरीर का
अनुसंधान करके गभ का धारण कर,

(दू सरा)-- जैसे बै ल गौओं को गािभन करके पशुओं को बढ़ता है , वै से


समाजी लोग अपनी ीयों को गभवती कर जा बढ़ाव"

अब दयानंद के भा ानुसार ही दयानंदी बताय िक भला इन दोनों िविधयों


म से गभाधान की कौन सी िविध सही है ?

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बु मान लोग यं िवचार ा धू त दयानंद की मूखता यही िस नही हो
जाती, भला ई रीय ान इतना तु और उट पटां ग हो सकता है ा?,
िब ु ल नही,ं दरअसल यह िम ा अथ ामी कामानंद जी के कपोल
भं डार से िनकल है , यही तो दयानंद के भं ग की तरं ग है भं ग के नशे म जो
भी अंड सं ड मुहँ म आया बक िदया, जो मन म आया सो िलख िदया,

ामी कामानंद जी को तो अपने िलख िक ही खबर नही ं ा अंड सं ड


िलख जा रहे ह, भला ामी जी के यह कपोल क त अथ िकन पदों से
िस होते है , इस ुित म तो ऐसा कोई पद ही नही ं िजससे ामी जी का
कथन िस होता हो, भला यह कौन सा ई रीय ान है िक "जैसे बै ल
गौओं को गािभन करके पशुओं को बढ़ता है , वै से सब लोग अपनी ीयों
को गभवती कर"?, यह हमारी समझ से तो बाहर है , इससे ही पता चलता
है िक ामी जी को सं ृ त की िकतनी समझ रही होगी, दयानंद ने
वे दभा के नाम पर िसफ अनुिचत िश ा िदखा कर लोगों से घृणा
करवाईं है , इसिलए िव ानों को दयानंद का िकया यह अथ अशु
जानकर ागने यो है , इस वे द ुित का यह अथ िक ी ं पदों से िस
नही ं होता, िक ु इसका अथ यह है िक--

“ि होता ने ि पदा छं द, इ यश िसं चन करने वाली गौ ( ाणवधक


िकरणों) एं व आयु को धारण करते ए, उ ादन श से स ,
िविभ ािणयों को पोषण दे ने वाले , पुि को धारण करने वाले े ादे व
एवं आयु बढ़ाने वाले इ दे व का यजन िकया, ा एवं इ दे व हिव का
पान कर, हे होता! तु म भी इसी कार य करों”

यह इसका अथ है और दयानंद ने इस वे द ुित के अथ का कैसा अनथ


िकया है वह आपके सामने है

दरअसल यह अथ ामी जी ने खास अपने िश ों के िलए तै यार िकया है ,


दयानंद जी अपने भा ानुसार अपने लाडले िश ों को यह उपदे श करते
ह िक जैसे बै ल गाय को गािभन करता है उसी कार तु म अपनी-अपनी

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ीयों को करों, पर ु दयानंदी अभी उस तरीके से काम नही ं लेते,
दयानंदीयों को चािहए िक गु आ ा का पालन करते ए, आज से ही
मनु से पशु बनकर बै लों की भां ित अपनी-अपनी यों को गभवती कर
जा को बढावे और यिद तु म से न हो सके तो समाज से बाहर िकसी अ
पु ष की सहायता से अपनी ीयों को गौओं की भां ित गािभन करवा जा
को बढ़ावे , यह िनयोग नामक पशुधम ामी जी ने इसी के अथ चलाया है ,
इसिलए पशुओं की ही भां ित अपनी यों को जब कभी िकसी परपु ष
के पास िनयोग के िलए भजे तो उसे समझा दे िक जैसे बै ल गौओं को
गािभन करता है वै से ही वह तु ारी ी को गािभन कर जा को बढ़ावे ,
तब जाकर कही ं गु आ ा का फल कट होगा और दयानंद के लाडले
िश पुरे वै िदक कहला सकगे, अ था नही,ं और सु िनये ,

(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -६)


सूप था ऽ अ दे वो वन ितर् अभवद् अि ां छागे न सर ै
मे षेणे ाय ऽऋषभेणा ँ ान् मे द ः ित पचतागृभीषतावीवृध
पुरोडाशैर् अपुर् अि ना सर ती ः सु ामा सुरासोमान्॥ ~यजुवद
{२१/६०}

ामी जी अपने यजुवदभाष्य म इसका अथ यह िलखते ह िक--

“हे मनु ों! ाण और अपान के िलए दु :ख िवनाश करने वाले छे री आिद


पशु से , वाणी के िलए मढ़ा (मढक) से , और परम ऐ य के िलए बै ल से
भोग कर”

ामी कामानंद जी अपने इस भा ानुसार अपने लाडले िश ों के िलए


फरमाते है , िक यिद कोई दयानंदी हमेशा दु खी रहता हो, हमेशा
परे शानीयों से िघरा रहता हो, तो वो दु :ख के िवनाश के िलए छे री (बकरी)
आिद पशु के साथ भोग िकया कर,

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और यिद िकसी दयानंदी की वाणी खराब हो गई हो जैसे तु तलापन हो,
गला बै ठ गया हो या िफर ज से गूं गा आिद हो तो ऐसे समाजी, वाणी के
िलए मढ़ा (मढक) से भोग िकया कर,

और परम ऐ य की कामना रखने वाले सभी दयानंदी परम ऐ य के िलए


बै ल से भोग िकया कर,

वाह! दयालु हो तो ऐसा, दे खये ामी जी ने िकस यु से अपने लाडले


िश ों का धन बचाया है , भारतवष म अब तक लोग यह िशकायत िकया
करते थे िक यहाँ िववाहों म धन अिधक खच होता है , लेिकन आज तक
कोई इसका व ोव न कर सका, पर ु ामी जी ने यु के साथ वह
व ोव भी कर िदया, अब दयानंदीयों को न तो खच करने की ज रत
और न ही िववाह करने की ज रत, दोनों आव कताएँ िमट गई, ोिक
दयानंदी अब अपने वे दभा ों के िव ी के साथ भोग ही नही ं करगे ,
जब इ ा होगी िकसी बकरी, मढे या िफर बै ल के साथ भोग कर िलया
करगे ,

इसके अलावा एक और अ ाय हो गया वह यह िक हमारे दयानंदी भाई


तो बै ल से भोग कर परम ऐ य वाले हो जायगे , और उनसे िभ मत वाले
हमेशा गरीब ही रहगे, ोिक इनके हाथ तो िक त की चमचमाती छडी
लग गई जहाँ जरा सी भी स ि घटी िफर बै ल के साथ भोग कर लगे
और इनसे िभ मत वाले इस िन त घृणा मु कम कर न सकगे , और
हमेशा गरीब ही रहगे, इसके िवपरीत समाजी ऐ यवान होते जायगे िफर
चाहे कोई रोजगार कर या न कर,

मुझे इस बात का बड़ा सं देह हो गया िक हमारे दयानंदी भाई उिचत


अनुिचत जो कुछ भी दयानंद िलख गये यह सबको स ही मानते ह, अब
आप सोिचये िक इस कार की उट पटां ग बात िलखने वाले दयानंद की
बु कैसी रही होगी? और सु िनये ,

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(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -७)
ाण े पा पान े पािह ान े पािह च ु म ऽ उ ा िवभािह
ो े ोकय।

अपः िप ौषधीिज ि पादव चतु ात् पािह िदवो वृि मे रय॥


~यजुवद {१४/८}

ामी जी अपने यजुवदभा म इसका अथ यह िलखते ह िक--

ी पित से और पित अपनी ी से कह िक-- “हे ी! तू मेरे नािभ के


नीचे गु हे य माग से िनकलने वाली अपान वायु की र ा कर”

समी क-- ध हे ! ामी िनब धानंद जी तु ारी बु , इस वे दभा को


मानने वाले दयानंदीयों से मेरा यह है िक ा इतना कहते कुछ ल ा
न आवगी?

और वह ी गु हे य माग से िनकलने वाली वायु की र ा कैसे करे गी?

साथ म यह भी है िक यह र ा रोज रोज होती है या िफर आय समाज


के िकसी वािषक उ व पर?

यिद यह र ा रोज होती है तो दयानंदी लोग अपने गृ ह थािद काय िकस


कार करते ह ोंिक यिद गृ ह थ काय म होने के दौरान ही
गु हे य माग से वायु िनकल जाये तो हमारे दयानंदी उसकी र ा करने से
चूक जायगे , तो लो अब सब काम धाम छोड़ गु हे य माग से िनकलने
वाली वायु के िनकलने की ती ा करों, समाजी ी अपने पित की और
समाजी पु ष अपनी ी के गु हे य माग की तरफ टकटकी लगाकर
बै ठे रहे , जाने कब िनकल जाय

ध है ऐसे भा कार और ध है ऐसे भा ों को मानने वाल अ से


पैदल समाजी, और सु िनये

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(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -८)
वाचं ते शु ािम। ाणं ते शु ािम। च ु स् ते शु ािम। ो ं ते
शु ािम। नािभं ते शु ािम। मे ढं ते शु ािम। पायुं ते शु ािम।
च र ाम्ँ स् ते शु ािम॥ ~यजुवद {६/१४}

ामी जी अपने यजुवदभा म इसका अथ यह िलखते ह िक--

“हे िश ! मै ते री वाणी, ने , नािभ, िजससे “मू ो गािद” िकये जाते ह उस


“िलंग” को, ते रे “गुदे य” को शु करता ँ ”

ामी कामनंद जी इस वे दभा म अपने लाडले िश ों को उपदे श करते


ए िलखते है िक गु को चािहए िक अपने िश के िलंग और गु दा को
शुद्ध कर, ध हे ! ऐसा भा कार, भा हो तो ऐसे , इनके भा ों म तो
महापाप भी धम है ,

मै दयानंदीयों से पूछना चा ँ गा ा दु िनया की स जाितयाँ इस भा को


पढ़कर छी छी नही ं करे गी, दयानंद को ऐसा अ ील भा करते ए
ल ा न आई, ये सब िलखने से पूव दयानंद ने यह नही सोचा िक िव ान
लोगों की ि जब उनके इस अथ पर पडे गी तो वे उनके बार म ा
सोचगे ,

म दयानंदीयों से ही पूछना चाहता ँ िक यह सतिश क स ूण िव ाओं


का भं डार वे द ह या िफर िकसी िभचारी िश क ारा िलखा कामशा ,

हमारे दयानंदी भाई कहते ह िक हमारा मत वे द ह और हम केवल


दयानंद कृत वे दभा ही मा ह, दे खये ये है इनके वे दभा और ये है
इनकी स ता, दयानंद का वे दभा पढ़ने बै ठों समझ म नही ं आता िक
वे द पढ़ रहे ह या िफर िकसी िभचारी पु ष ारा िल खत कामशा ,

िजस भारतवष की पावन भू िम पर आयभ , वराहिमिहर, गु ,


बोधयन, चरक, सु ुत, नागाजुन, और कणाद आिद जैसे महािव ान उ

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ए, उसी भारत भू िम पर दयानंद जैसा धू त भी उ आ, िजन वे दों का
थान िव की थम पु कों म आता है िज सब सतिव ाओं का भं डार
कहा गया है उसी वे द के नाम पर दयानंद ने अनुिचत िश ा िदखलाकर
लोगों को घृणा करवाईं है लेिकन यह याद रहे िक इन मं ों के यह अथ
हिगज नही ं यह ामी जी की गढ़ है यह दयानंद वे दभा है जो उ ोंने
अपनी अ ील बु अनुसार कर है , इस कारण यह मानने यो नही ं
और िज ोंने यह अथ िकये ह, वह महिष ा? महामूख कहलाने यो भी
नही,ं और ऐसे मूख को महिष कहना, महिष श की इ त उतारना है ,

न भेदी जाितवादी “दयानंद”

॥पैदाइशी चुितया करण॥

हमारे दयानंदी गपोिड़ये अ र एक बात कहते नही ं थकते िक दयानंद ने


समाज म ा सामािजक कुरीितयों पर आ मण करते ए, जाितवाद
का िवरोध िकया, तथा कम के आधार पर वे दानुकूल वण-िनधारण की
बात कही, वे दिलतो ार के प धर थे, इसी कार के और न जाने ा
ा गपोड़े मारते है , सो आज इस लेख के मा म से म इन सब बातों का
खंडन कर, दयानंद की िजहादी िवचारधारा से आप लोगों को अवगत
कराना चाहता ँ , िजससे यह िस हो जाये गा िक दयानंद दिलतो ार के
प धर नही ं ब दिलतो ार के घोर िवरोधी थे, समाज म ा
सामािजक कुरीितयों न भे द जाितवाद आिद को बढ़ावा दे ने वाले ामी
दयानंद ही थे, जो यं दयानंद के ही ारा िलखे वे दभा और लेखों से
िस होता है दे खये --

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(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -१)
अ ये पीवानं पृिथ ै पीठसिपणं वायवे चा ालम् अ र ाय वम्ँ
शनितनं िदवे खलितम्ँ सूयाय हय ं न े ः िकिमरं च मसे
िकलासम् अ े शु ं िप ा म्ँ रा ै कृ ं िप ा म् ॥ ~यजुवद {
३०/२१}

दयानंद अपने यजुवदभा म इसका अथ यह िलखते ह िक---

“हे परमे र वा राजन् !आप, (हय म्)- ब र की सी छोटी आँ खों वाले


शीत ाय दे शी मनु ों को,,,,,,, (िप लम् )- पीली आँ खोवाले को उ
कीिजये,,,,,, (चा ालम् )- भं गी को, (खलितम्)- गं जे को,,,,,, (कृ म्)-
काले रं गवाले, (िप ा म्))- पीले ने ों से यु पु ष को दू र कीिजये ”

ामी जी अपने इस अथ की पुि के िलए भावाथ म श ों म िलखते


ह िक—“भं गी के शरीर से आया वायु दु गधयु होने से से वन यो नही ं
इस कारण उसे दू र भगाव”

समी क-- वाह रे ! इस कपोल क त वे दभा के िलखने वाले, वे दों के


नाम से अनैितक िश ा कर लोगों से घृणा कराने वाले भडवानंद ा
कहने ते रे! तु झको ऐसा िम ा अथ करते तिनक भी ल ा वा शम न
आयी, यह भी न सोचा िक जब िव ान जन तु ारा यह अथ पढ़गे तो
तु ारे बारे म ा सोचगे , ा यही ई रीय वचन है ? इस वे द ुित म यही
कथन िकया है ? जब सं ृ त तु ारी बु से परे है , तो भला ों वे द मं ों
के अथ का अनथ करते हो, तु ारे ारा िकया यह क त अथ िक ी ं
पदों से िस नही ं होता, दे खों इसका सही अथ यह है िक--

अ ये पीवानं पृिथ ै पीठसिपणं वायवे चा ालम् अ र ाय वम्ँ


शनितनं िदवे खलितम्ँ सूयाय हय ं न े ः िकिमरं च मसे
िकलासम् अ े शु ं िप ा म्ँ रा ै कृ ं िप ा म् ॥

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(अ ये )= अि के समीप काय करने के िलए, (पीवानम्)= बलवान पु षों
को, (पृिथ ै)= पृ ी के िलए, (पीठसिपणम्)= आसन पर बै ठकर काय
करने वाले पु षों को, (वायवे )= ते ज वायु वाले थान के िलए,
(चा ालम् )= चंड श वाले पु ष को, (अ र ाय)= आकाश थत
अथात ऊंचाई वाले काय के िलए, (वं शनि नम् )= बाँ स पर कलािद िदखाने
वालों को, (िदवे )= द् यु लोक के िलए, (खलितम्)= आकाश थ गोिलय िपंड़ों
की गित को जानने वाले खगोलिवद पु षों को, (सू याय)= सू य के िलए,
(हय म्)= ह रत वण वाले, (न े ः)= न ों के िलए, (िकिमरम्)=
धवल वण के जानने वाले िवदजनों को, (च मसे )= च स ी भावों
के िनवारण हे तु, (िकलासम्)= िकलासिवद जनों को, (अ े )= िदन के
काय के िलए, (शु म् )= े त रं ग के, (िप ा म्)= पीले ने ों वाले, तथा
(रा ै)= राि के िलए, (कृ म् )= काले रं ग वाले, (िप ा म्)= पीले ने ों
से यु पु षों को िनयु करना चािहए।

यह इसका अथ है , इस ुित म सब कार के ाणीयों, जो िजसके यो है


उससे वह काय ल ऐसा इस ुित म कथन िकया है , इससे इसम िकसी का
अनादर नही ं दे खा जाता और जबिक इसी ुित का ामी िनब धानंद जी
ने कैसे अथ का अनथ िकया है वह आप सबके सामने है , दयानंद का यह
भा पढ़कर इस बात म कोई सं देह नही ं रह जाता िक दयानंद पैदाइशी
ितया है , दयानंद का यह भा इस बात की पुि करता है , अब यहाँ
िव ान लोगों को यं दयानंद के इस अथ पर एक ि ड़ालकर यह
दे खना चािहए िक थम तो दयानंद ने अपने इस अथ म यह िलखते ह िक
"हे परमे र वा राजन्! आप (िप ालम्) पीली आँ खवाले को उ
कीिजये" और िफर यं ही उस पदाथ के अ म ऊपर िलखी बात के
िव यह िलखते ह िक "हे परमे र आप, (िप ा म्) पीले ने ों से यु
पु ष को दू र कीिजये"

अब यहाँ बु मान जन यं िवचार िक एक ही मं म दो पर र िव


बातों का िलखना, ा दयानंद की बु पर िच नही ं लगाता? ा

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ई र इस कार की पर र िव बातों से भरा उपदे श मनु ों को कर
सकता है ? कदािप नही,ं इस मुखानंद ने तो अपने इस भा से ई र तक
को कं ूज कर िदया होगा, िफर साधारण मनु ों की तो बात ही ा
करनी, अब यह बात तो हमारे दयानंदी भाई ही बता सकगे , की दयानंद
के इस भा ानुसार ई र को ा करना चािहये, वह पीले ने ों वाले
मनु ों को उ कर या ना कर! और सु िनये ,

अपने इसी भा म दयानंद जी आगे िलखते ह िक “हे परमे र! आप,


(हय म्)- ब र की सी छोटी आँ खों वाले शीत ाय दे शी मनु ों को,
(चा ालम् )- भं गी को, (खलितम् )- गं जे को, (कृ म्)- काले रं गवाले ,
(िप ा म्))- पीले ने ों से यु पु ष को दू र कीिजये”

अब यहाँ िव ान लोग िवचार िक भला ई र भं गी, गं जे, काले रं ग वाले , पीले


ने ों वाले और छोटी आँ खों वाले, मनु ों को दू र ों कर, इनसे सं सार की
कौन सी ऐसी हािन हो गई जो ई र इनको दू र कर, इन सबने ामी जी
का ऐसा ा िबगाड़ िदया जो ामी जी इनकी भडास अपने वे दभा ों म
िनकाल रहे ह, भला ई र इ दू र ों कर कोई कारण तो िलखा होता,
ा यह सब मनु मनु की सं तान नही?ं या िफर इनकी सृ ि ई र ारा
नही ं ई, भला ई र ऐसा ों करने लगे , िज यं ई र ने ही उ
िकया वह उ दू र ों करगे?

हाँ दयानंद ज र ऐसा सोचते होंगे, शायद उ ऐसे पु ष अ े न लगते


हो, िजसे उ ोंने अपने वे दभा के मा म से िलखकर उनके ित मन म
भरी घृणा को जगजािहर िकया है , और भावाथ म तो यह तक िलख
िदया िक “भं गी के शरीर से आया वायु दु गधयु होने से से वन के यो
नही ं इसिलए उ दू र भगाव” अब दयानंदी ही बताय िक यिद दयानंद के
भा ानुसार भं गी को िसफ इस कारण दू र कर द ोिक उसके शरीर से
दु गधयु वायु आती है , तो ा उनके बदले यह काय करने दयानंद का
बाप आये गा, इससे िस होता है िक समाज म ा कुरीितयों न भे द,

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जाितवाद आिद को बढ़ावा दे ने वाले दयानंद ही है और वही अनैितक
िश ा दयानंद ने अपने वे दभा ों से अपने लाडले िश ों के िलए िलखी ं ह,
और सु िनये

इस भा म ऊपर दयानंद ने यह िलखा है िक “हे परमे र! आप,


(हय म्) ब र की सी छोटी आँ खों वाले शीत ाय दे शी मनु ों को दू र
भगाव”

यह ामी जी ने ा िलख िदया, ऐसी शारी रक रचना तो िवशेषकर


ित त आिद दे श के मनु ों की होती है और ामी जी स ाथ काश के
अ म समु ास म यह िलखा है िक उनकी और उनके पूवजों की सृ ि
ित त म ई थी, और इस म बसने से पूव ामी जी और उनके िनयोगी
चैले ित ती थे , इससे यह िस आ िक यह ब र की सी छोटी आँ खों
वाले मनु दयानंद तथा आय समाजीयों के पूवज ए, और अपने ही
पूवजों के िलए दयानंद यह िलखते ह िक परमे र उ दू र भगाव, ध हे !
दयानंद की बु िजसे अपने मत की अपने िलख िक ही सु ध नही,ं िक
ाउ सू िलख िदया यं को खबर नही,ं दरअसल यह दयानंद के
भं ग की तरं ग है भं ग के नशे म मूहँ म जो अंड सं ड आया बक िदया जो
मन म आया सो िलख िदया, भला ऐसे भं गेडी के बातों का ा माण?
और सु िनये --

(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -२)


मू धा वयः जापितश् छ ः। ं वयो मयंदं छ ः। िव ो वयो
ऽिधपितश् छ ः। िव कमा वयः परमे ी छ ः। व ो वयो िववलं
छ ः। वृ र् वयो िवशालं छ ः। पु षो वयस् त ं छ ः। ा ो
वयो ऽनाधृ ं छ ः। िसँहो वयश् छिदश् छ ः। प वाड् वयो बृ हती

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छ ः। ऽ उ ा वयः ककुप् छ ः। ऽ ऋषभो वयः सतोबृ हती छ ः॥
~यजुवद {१४/९}

दयानंद अपने यजुवद म इसका अथ यह िलखते ह िक--

“हे ी वा पु ष! ( ा :) जो िविवध कार के पदाथ को अ े कार


सूँ घता है , उस ज ु के तु राजा तू ,,,,,, (ष वाट् )- पीठ से बोझ उठाने
वाले ऊँट आिद के स श वै तू ,,,,,, (उ ा)- सीच
ं नेहारे बै ल के तु शू
तू , (ऋषभ:)- शी ग ा पशु के तु भृ तू , (छ ः)- तं ता की ेरणा
कर”

समी क-- वाह रे ! इस वे दभा के िलखने वाले गवग दयानंद ा


कहने ते रे, ऊँट के स श वै , बै ल के तु शू और शी ग ा पपशु के
तु भृ (से वक), ध है ऐसा भा कार और ध है ऐसे भा ों को
मानने वाले मुझे समझ नही ं आता िक ये अथ दयानंद ने िकस िनघंटु से
िलए है जहाँ “(ष वाट् )- पीठ से बोझ उठाने वाले ऊँट आिद के स श
वै , (उ ा)- सीच
ं नेहारे बै ल के तु शू , और (ऋषभ:)- शी ग ा पशु
के तु भृ ” आिद पदों के यह अथ िलख ह, इस ुित का यह अथ तो
िक ी ं पदों से िस नही ं होता, िक ु इसका सही अथ यह है िक--

“गाय ी प से जापित ने इ ाश ारा मूध ा ण की उ ि


की, अिन छ से सं र ण-यु ि य का सृ जन िकया, जगत् को
पोषण दे ने वाले परमे र ने छ प हो वै ों की रचना की, परमे ी
िव कमा ने श ारा छ प शु की उ ि की, एकपाद नामक
छ के भाव से परमे र ने मेष आिद जीवों को उ िकया, पं छ
के भाव से मनु को उ िकया, िवराट छ के भाव से जापित ने
ा आिद को कट िकया, अितजगती छ के भाव से िसं ह को कट
िकया, बृ हती छ के भाव से भारवाहक पशुओं को उ िकया, ककुप्
छ के भाव से जापित ने उ ा जाित को उ िकया, सतोबृ हती छ
के भाव से भालू आिद पशुओं को उ िकया”

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यह इसका अथ है और दयानंद ने इस ुित के अथ का ा अनथ िकया
है वो आपके सामने है और सु िनये िसफ यही नही ं दयानंद ने राजा तक को
पशु तु बताते ए राजा को िकसी कु े की भां ित समझ िलया है ामी
मुखानंद जी िलखते ह िक ( ा :)- जो िविवध कार के पदाथ को अ े
कार सूँ घता है उस ज ु के तु राजा तू, (िसं ह:)- पशु आिद को
मारनेहारे िसं ह के समान परा मी राजा तू ,

अब किहये इससे बड़ी चुितयापंित और ा हो सकती है ? िजस राजा को


जा िपता तु , ई र के ितिनिध के प म दे खती है , उसे दयानंद
िकसी कु े की भां ित सु घने वाला पशु बताते ह,

और इसी कार दयानंद ने अ ाय १६ मं ५२ म भी िलखा ह िक—“हे


(िविक र )- िवशेषकर सू वर के समान सोने वाले, (भगव:)- ऐ ययु
राजन”

बु मान िवचार ा राजा को कु े सू वर आिद की उपमा दे ना ठीक है


यं सोचकर दे खए िजस ई र को दयानंद ने यं अपने वे दभा ों म
अनेकों थान पर “राजा” ऐसा कथन िकया है , उसी को यहाँ कु े की भां ित
सु घने वाला, सू वर के समान सोने वाला िलखा है इससे समझा जा सकता
है िक इस वे दभा के िलखने वाले दयानंद की बु कैसी रही होगी?

लोगों का तो पता नही ं पर दयानंद का ये भा पढ़कर दयानंद की शंसा


म मेरे मुख से दो वा ज र िनकलते ह िक-- भं ग के नशे म िवशेषकर
सू वर के समान सोने वाले भं गेडानंद, भा हो तो ऐसा और धू त हो तो ते रे
जैसा

शु , वै , भृ (से वक), राजा आिद को पशु तु बताने वाले दयानंद के


िलए ये उपमा िब ु ल सही है

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ोिक मेरे िहसाब से ामी दयानं द ने अपने अदभु द ान से िव भर म
फैली गं दगी को उसी कार दू र कर िकया िजस कार एक सू वर गूँ
खाकर समाज म फैली गं दगी को दू र करता है

और मुझे नही ं लगता िक दयानंदीयों को इससे कोई आपि होनी चािहए,

यहाँ तक िक दयानंद राजा को िनद ष पशुओं को मारने वाले िहं सक िसं ह


के समान बोलते है ,

भला िनद ष पशुओं की ह ा करने वाला राजा परा मी कैसे आ?

यहाँ तो दयानंद ने पशुिहं सा को भी धम का अंग बता िदया, वाह रे


भं गेडानंद ते री बु ! तु ारे श ों की कैसी िविच मिहमा है िजस ई र
को अपने वे दभा ों म यं राजा तु िलखा है और यहां उसी राजा को
कु े आिद जीवों की भां ित सु घने वाला और सू वर के समान सोने वाला
कथन िकया है , इससे िविदत होता है िक इस िदन तु मने थम तो लौटा
भर कर िपया होगा िफर भा करने बै ठे होंगे।

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ामी दयानं द एकादश िनयोग की दे न

सनातन धम से िभ दयानंद ारा चलाए गये वे द िव मतों म से एक


मत है पशुधम नाम से िव ात “िनयोग था” दयानंद ने अपने तथाकिथत
ं थ “स ाथ काश” म लगभग पूरा एक समु ास इस पशुधम िनयोग
पर ही िलखा है , और वे दािद शा ों के अथ का अनथ कर अपने
अनुयािययों के साथ साथ सम भारतवष को इस महाअधम िभचार
िनयोग नामक अंधकूप म धकेलने का असफल यास िकया है , वे द
मनु ृित आिद के अथ का अनथ कर िनयोग िस िकया है िजससे धम
के न जानने वाले लोगों म म की थित उ होती है , सो इस लेख के
माध् यम से म दयानंद के उन िम ा भा ों की ध यां उडाते ए, माण
के साथ यह िस करक िदखाऊंगा की दयानंद ारा चलाया यह पशुधम
िनयोग वे द िव होने से मनु ों के िलए िनिष है अथात मनु ों को
यह पशुधम ागने यो है , सो अब एक एक करक दयानंद के उन सभी
वे द िव भा ों का खंडन करते ह िजनके अथ का अनथ कर दयानंद
ने िनयोग िस िकया है सु िनये --

(दयानं द कृत ॠ ेदभा , भा -१)


सोम: थमो िविवदे ग वो िविवद उ रः।

तृतीयो अि े पित ु रीय े मनु जाः॥ ~ऋ० {मं ० १०, सू० ८५,
मं ० ४०}

दयानंद अपने ऋ े दभा म इसका अथ यह िलखते ह िक—

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“हे ी! जो (ते ) ते रा ( थमः) पहला िववािहत (पितः) पित तु झ को (िविवदे )
ा होता है उस का नाम (सोमः) सु कुमारतािद गु णयु होने से सोम जो
दू सरा िनयोग होने से (िविवदे ) ा होता वह, (ग व:) एक ी से सं भोग
करने से ग व, जो (तृ तीय उ रः) दो के प ात् तीसरा पित होता है वह
(अि ः)- अ ु तायु होने से अि सं क और जो (ते ) ते रे (तु रीयः) चौथे
से लेके ारहव तक िनयोग से पित होते ह वे (मनु जाः) मनु नाम से
कहाते ह | जैसा (इमां िम ) इस म ा म ारहव पु ष तक ी
िनयोग कर सकती है , वै से पु ष भी ारहवी ं ी तक िनयोग कर सकता
है ”

समी क-- ामी जी ने तो ऐसी हठ ठानी है िक अथ का अनथ कर


िदया है इस मं का यह अथ नही ं जैसा िक ामी िनयोगानंद जी ने िकया
है दे खए इसका सही अथ इस कार है िक--

सबसे ( थम:)= पहले , (सोम:)= सोम, (िववदे )= इस क ा को ा हो,


{अथात क ा के माता िपता सब से पहले तो ये दे ख िक उसका पित
'सोम' है या नही,ं पित का भाव सौ है या नही,ं त ात इस क ा को
(ग व:)= 'गां वे दवायं धारयित' ान की वािणयों को धारण करने वाला हो,
यह (उ र:)= अिधक उ ृ होता है , िक{ सौ ता यिद पित का पहला
गु ण है तो ान की वािणयों को धारण करना उसका दु सरा गु ण है ,
(तृ तीय:)= तीसरा, (अि :)= गितशील मनोवृ ि वाला हो {अथात ते रा पित
वह है जो आगे बढ़ने की वृ ि वाला हो }, (तु रीय:)=चौथा, (मनु जा:)= वह
मनु की सं तान हो, {अथात िजसम मानवता हो, िजसका भाव दयालुता
वाला हो ू रता वाला नही}ं , (ते )= ते रा, (पित:)= पित है

भाव यह है िक—“क ा व उसके माता िपता उसके पित म िन


िवशेषताएं अव दे ख िक पहला तो वह सौ हो सौ ता पित का पहला
गु ण है , दु सरा ग व ान की वािणयों को धारण करने वाला हो अथात
ानी हो, तीसरा गितशील मनोवृ ि वाला हो, चौथा वह मनु जा मनु

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की सं तान हो अथात िजसम मानवता हो िजसका भाव दयालुता वाला हो
ू रता वाला नही”ं

इस मं म कही ं भी िनयोग तो ा िनयोग िक गं ध तक नही ं है पर ु


ामी िनयोगानंद जी ने इसके अथ का ऐसा अनथ िकया िक पूछ मत,
अब बु मान लोग एक बार यं ामी जी ारा िकये भा पर ि
डालकर बताए िक दयानंदी लोग ा उसी ी से िववाह करते ह जो
थम एक से िववाह और दो से िनयोग कर चुकी है ?

ध हे ! यही तो धम और ामी जी की शम है और पूव के िव यहाँ ही


दू सरा िववाह िनकाल िदया,

अब िवचारने की बात है यिद ामी िनयोगानंद जी का िकया अथ माने तो,


न जाने वह पहला िववािहत सोम सं ावाला पित अपने जीते जी अपनी
प ी ग व सं ावाले िनयोगी पित को ों दे गा? और वह ग व िनयोगी
अपने जीते ए अि सं ावाले िनयोगी पित को ों दे गा? और चौथा ही
पित मनु ों कहाता है ? ा वे िपछले तीन िकसी जानवर की स ान
ह?

और तीसरे को ही अि िक सं ा ों? शायद वो हमेशा यह सोच कर


जलता रहता हो िक पहले के समान सु कुमारतािद गु ण और म ों नही ं
इ ािद इ ािद। इस कारण दयानंद के िकये सब अथ है

इसके अित र और भी मं जैसे--

इमां िम मीढ् वः सुपु ां सुभगां कृणु।

दशा ां पु ाना धेिह पितमे कादशं कृिध॥

~ऋ० {मं ० १०, सू ० ८५, मं० ४५}

उदी नायिभ जीवलोकं गतासुमेतमु प शेष एिह।

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ह ाभ िदिधषो वेदं प ु जिन मिभ सं बभूथ॥ ~ऋ० {मं ०
१०, सू ० १८, मं ० ८}

इ ािद मं ों के अथ का अनथ करक िनयोग बनाया है अथात िनयोग झूठ


से िस िकया है , जबिक इन सभी मं ों म कही ं भी िनयोग की ग तक
नही ं है ।

िसफ अपना ाथ िस करने के िलए दयानंद ने वे द मं ों के साथ कैसा


अनथ िकया वह आप सबके सामने ही है , और सु िनये

(दयानं द कृत ऋ ेदभा , भा -२)


इमां िम मीढ् वः सुपु ां सुभगां कृणु।

दशा ां पु ानाधेिह पितमे कादशं कृिध॥

~ऋ० {मं ० १०, सू ० ८५, मं ० ४५}

दयानंद अपने ऋ े दभा म इसका अथ यह िलखते ह िक—

“हे (मीढ् व इ ) वीय से चन म समथ ऐ ययु फ पु ष !तू इस िववािहत


ी वा िव ा ायों को े पु और सौभा यु कर, इस िववािहत
ी म दश पु उ कर और ारहवी ं ी को मान !हे ी !तू भी
िववािहत पु ष वा िनयु पु षों से दश स ान उ कर और ारहव
पित को समझ”

समी क-- ध है ! ामी जी कलयु ग तो िधरे -िधरे आता था अपने उसे


शी वत करने का ढं ग िनकाला, जैसा िक आपने अपने स ाथ काश
म इस ुित के अथ यह िलखा िक "एक ी चार िनयु पु षों के अथ
और दो अपने िलए पु उ कर ल" यह तो जैसे घर की खेती समझ ली

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की जब गये पु हो गया, क ा का कोई नाम ही नही ं बस पु ही पु होंगे,
यिद यह ई र की आ ा है तो ई र स सं क है सबके पु ही उ
होने चािहए क ा एक भी नही,ं बस सारा िनयोग यही समा हो जाता है ,
पर ु यह दे खने म नही ं आता तु म तो अपने िम ा भा ों से ई र को भी
झूठा बनाते हो, इसिलए इस ुित का अथ यह नही ं बनता जैसा तु मने
िकया है ब त से लोग िनसं तान भी होते ह यह िभचार चार मूख िनयोग
समाजीयों के साथ साथ सम भारतवािसयों को घोर अंधकार म डालने
वाला है , इसम वे द मं ों को ों सानते हो? यिद इतनी ही ादा खुजाई
मच रही थी तो कोई अपनी ही िम ा सं ृ त बना लेते, तु ारे चैले तो उसे
भी प र की लकीर मान लेते, दे खए वे दों म ऐसी बात कभी नही ं होती,
यह मं िववाह करण का है जो आशीवाद के अथ म है और इसका अथ
इस कार है िक--

हे (इ )= इ परमए य यु दे व (मीढ:) सवसु खकारी पदाथ की वृ ि


करने वाले, ( म्)= आप, (इमाम्)= इस ी को भी, (सु पु ाम् सु भगम्)=
पु वती धनवती (कृणु )= कर और, (दश)= दश इसम, (पु ान् )= पु ों को
धारण करो, भाव यह है िक दश पु पैदा करने के अ इस ीम
थािपत करों, और (एकादशं)= ारहवां , (पितम्)- पित को, (कृिध)=
करों अथात जीिवत पित और जीिवत पु इसको करों, यह मं आिशवाद
के अथ है , जो ामी िनयोगानंद जी ने कुछ का कुछ िलख िदया है , और
ामी जी ने यह न सोचा िक यिद एकादश पित पय िनयोग करने की
ई र की आ ा है , तो ई र तो स सं क है तब तो सब ीयों के दश-
दश पु से कम नही ं होने चािहए यिद दश से कम होंगे तो ई र का
सं क िन ल होगा, इससे ामी जी का िकया अथ अशु है ।

अब िवचारने की बात यह है िक इसम िनयोग चारक कौन सा श है ?


िजस मं मे िनयोग िक गं ध तक नही है ामी िनयोगानंद जी ने उसे भी
िनयोग से जोड िदया, दयानंद जी ने तो यह समझ िलया िक हमारे
अनुयायी हमारे वा ों को प र की लकीर मानते ह और वे दभा भी

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हमारा िकया ही मानते ह इसिलए जो चाहे सो अंड सं ड बकवास िकये
जाय, इस िहसाब से तो तु ारे मत म िकसी के दश से कम पु नही ं होने
चािहए और िजनके दश से कम है वह तु ारे वा ानुसार कुछ िचंता कर,
और दश सं तान म समय िकतना लगे गा यह न िलखा तु मने। और सु िनये ,

(दयानं द कृत ऋ ेदभा , भाष् य-३)


उदी नायिभ जीवलोकं गतासुमेतमु प शेष एिह।

ह ाभ िदिधषो वेदं प ु जिन मिभ सं बभूथ॥ ~ऋ० {मं ०


१०, सू ० १८, मं ० ८}

अपने ऋ े दभा म इसका अथ यह िलखते ह िक—

“हे (ना र) िव े तू (एतं गतासु म) इस मरे ए पित की आशा छोड़ के


(शेषे) बाकी पु षों म से (अिभ जीवलोकम) जीते ए दू सरे पित को
(उपैिह) ा हो और (उदी ्व) इस बात का िवचार और िन य रख िक
जो (ह ाभ िदिधषो:) तु म िव ा के पुनः पािण हण करने वाले िनयु
पित के स ् के िलये िनयोग होगा तो (इदम्) यह (जिन म् ) जना आ
बालक उसी िनयु (प ुः) पित का होगा और जो तू अपने िलये िनयोग
करे गी तो यह स ान (तव) ते रा होगा। ऐसे िन ययु (अिभ सम् बभू थ)
हो और िनयु पु ष भी इसी िनयम का पालन करे ”

समी क-- ामी जी का यह भा पढ़कर ऐसा तीत होता है िक


ामी जी के सर म बु कम गोबर ादा भरा है दे खए, इधर पित मरा
पड़ा है , ी िजसका वह पालक पोषक नाथ था, उसके शोक म िवलाप
करती है , और ामी जी उसी समय उसको कहने लगे िक इसे छोड़
औरों को पित बना ल, शोक हे ! ऐसी बु पर, ामी जी ने िसफ अपना

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ाथ साधने के िलए वे द मं ों के अथ का अनथ िकया है दे खए इसका
सही अथ इस कार है --

हे (ना र)= ी, ते रे पित मृ ु को ा हो चुके ह इसिलए, (उदी )= उठ


और इस, (जीवलोकम् अिभ)= जीिवत सं सार अपने पु ािद और घर-
प रवार का तू ान कर, इस कार (गतासु म)= गत ाण, (एतम् )= इस
पित के, (उपशेष)= समीप बै ठ शौक करने का ा लाभ? (एिह)= उठ
और अपने घर को गमन कर, (ह ाभ )= अपने गभ म स ान को
थािपत करने वाले, (तव प ु:)= अपने पित की,(इदं जिन म् )= इस
स ान को, (अिभ)= ान करती ई, (सं बभू थ)= अपने ा को ठीक
रखने के िलए य शील हो।

अब िवचारने की बात यह है इसम िनयोग चारक कौन सा श है ? इस


मं म तो िनयोग का कुछ भी आशय नही ं िनकलता, और जबिक उसके
पास बालक मौजूद ह िफर भला उसे इस महाअधम िभचार िनयोग की
ा आव कता है ? अब बु मान यं िवचार की ामी जी ने इसम
िकतने मं ाथ बदले ह और अथ का अनथ कर लोगों को िमत करने का
यास िकया है । और सु िनये ,

(दयानं द कृत ऋ ेदभा , भा -४)


अदे वृ पित ीहै िध िशवा पशु ः सुयमा सुवचाः।

जावती वीरसूदवृकामा ोने ममि ं गाहप ं सपय॥ ~अथव०


{का० १४, अनु ० २, मं ० १८}

दयानंद अपने ऋ े दभा म इसका अथ यह िलखते ह िक—

“हे (अपित दे वृि ) पित और दे वर को दु ःख न दे ने वली ी तू (इह) इस


गृ हा म म (पशु ः) पशुओं के िलये (िशवा) क ाण करनेहारी (सु यमा)

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अ े कार धम-िनयम म चलने (सु वचाः) प और सवशा ा िव ायु
( जावती) उ म पु पौ ािद से सिहत (वीरसू ः) शूरवीर पु ों को जनने
(दे वृकामा) दे वर की कामना करने वाली ( ोना) और सु ख दे नेहारी पित
वा दे वर को (एिध) ा होके (इमम्) इस (गाहप म् ) गृ ह थ स ं धी
(अि म्) अि हो ा का (सपय) से वन िकया कर”

समी क-- ामी जी यहाँ भी अथ का अनथ करने से न चूंके, दे खए इस


मं म “दे वृकामा” इस पद से यह अथ िस नही ं होता िक वह दे वर से
भोग करना चाहती है , और जबिक पित है तो भला वह दु सरे पु ष की
इ ा ों करे गी? और कामना िव मानता म नही ं होती, अिव मानता म
होती है , यिद वह दे वर को पित प म चाहती तो “दे व र पितकामा” ऐसा
योग हो सकता है , सो मं म िकया नही ं इससे िनयोग िस नही ं होता,
िक ु यह ऐसे थान का योग है , िजस ी के दे वर नही ं वह चाहती है
िक यिद मेरे ससु र के बालक हो तो म दे वर वाली होऊं, ऐसी ी को
दे वृकामा कहते ह, जैसे ातृ रिहत क ा म “ ातृ कामा” यह योग
बनता है िक मेरे भाई हो तो म बहन कहाऊं, ऐसे ही यह दे वृकामा श है
इससे िनयोग िस नही ं होता, अब इसका यथार् थ अथ सु िनए--

हे ी तू , (अपित दे वृि )= पित और दे वर को दु ख न दे ने वाली, (एिध)=


वृ को ा हो, अथात दे वर आिद कुटु यों से िव मत करना,
(इह)= इस गृ हा म म, (पशु :)= पशुओं के िलये , (िशवा)=
क ाणकारी, (सु यमा)= अ े कार धम िनयम म चलने वाली,
(सु वचा:)= प गु णयु , ( जावती)= उ म पु पौ ािद सिहत,
(वीरसू :)= वीर पु ों को ज दे ने वाली, (दे वृकामा)= दे वर के होने की
ाथना करने वाली, ( ोना)= सु खनी, (इमम्)= इस, (गाहप म् )= गृ ह थ
स ी, (अि म्)= अि होत् र को, (सपय)= से वन िकया कर।

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यह इसका अथ है ामी जी ने यह नही ं सोचा िक उनका यह भा और
भी कोई दे खेगा तो ा कहे गा? यह िववाह स ी मं िनयोग म लगाये
ह, ध है तु ारी बु , अब यिद तु ारी अ ील बु म केवल उ ी
बात ही आती है तो सु िनये इस ुित म कथन है िक--

तदा रोहतु सु जा या क ा िव ते पितम् ॥ ~अथव० {१४/२/२२}

ोना भव शु रे ः ोना प े गृहे ः।

ोना ै सव ै िवशे ोना पु ायैषां भव॥ ~अथव० {१४/२/२७}

हे ी तू ससु र, पित और घर के कुटु यों सभी के अथ सु ख दे ने वाली


हो।

अब यिद तु ारा िकया अथ ही सही माने तो यहाँ पित, ससु र दोनों के िलए
( ोना) पद आया है अथात सु ख दे ने वाली हो एवं सब ही कुटु यों को
सु ख दे ने वाली िलखा है , तो ा जो पित के सं ग वहार कर, वही सबके
साथ कर? यह कभी नही ं हो सकता पित को और कार का सु ख, और
ससु रािद को से वा आिद से सु ख दे ती है , यह नही ं िक सु ख दे ने से सबके
सं ग भोग के ही अथ हो जाये , इससे ामी जी के िकये सब अथ है
िम ा है ,

इससे यही िस होता है िक ामी का चलाया यह महाअधम िभचार


िनयोग झूठ से िसद् ध होता है , इसी कार दयानंद ने अ ं थों के अथ का
अनथ कर िनयोग िस करने का असफल यास िकया है ,

दयानंदी-- तु म िनयोग को वे द िव कहते हो तो ा जो ये मनु ृ ित


आिद ं थों म िनयोग कथन िकया है वह सब िम ा है ?

दे खये ामी दयानंद ने स ाथ काश म मनु ृित से िनयोग का माण


दे ते ए यह िलखा है िक—

“ ोिषतो धमकायाथ ती ोs ौ नरः समाः।

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िव ाथ षड् यशोsथ वा कामाथ ी ुव रान् ॥१॥

व ा मे sिधवे ा े दशमे तु मृ त जाः।

एकादशे ीजननी स ि यवािदनी॥२॥ ~मनु० {९/७६,८१}

िववािहत ी जो िववािहत पित धम के अथ परदे श गया हो तो आठ वष,


िव ा और कीित के िलये गया हो तो छः और धनािद कामना के िलये गया
हो तो तीन वष तक बाट दे ख के, प ात् िनयोग करके स ानो ि कर
ले , जब िववािहत पित आवे तब िनयु पित छूट जावे ॥१॥

वै से ही पु ष के िलये भी िनयम है िक व ा हो तो आठव (िववाह से आठ


वष तक ी को गभ न रहै ), स ान होकर मर जाय तो दशव, जब-जब
हो तब-तब क ा ही होवे पु न हों तो ारहव वष तक और जो अि य
बोलने वाली हो तो स ः उस ी को छोड़ के दू सरी ी से िनयोग करके
स ानो ि कर लेवे॥२॥“

ा इन माणों से िनयोग िस नही ं होता? किहये!

समी क-- यह अथ दयानंद के कपोल भं डार से िनकल है , इन दोनों ही


ोकों म कही ं भी िनयोग तो ा िनयोग की गं ध तक नही ं है , और यह
ा बात ई िक यहाँ पहला ोक तो ९ व अ ाय का ७६ वां और दू सरा
ोक ८१ वां िलखा है और इन दोनों का दयानंद ने एक ही सं ग लगा
िदया, जबिक इनम से एक म भी िनयोग तो ा िनयोग की गं ध तक नही ं
है , दे खों इससे पहले यह ोक ह िक--

िवधाय वृि ं भायायाः वसे ायवा रः।

अवृि किशता िह ी दु े थितम िप॥७४॥

िवधाय ोिषते वृि ं जीवेि यममा थता।

ोिषते िवधायैव जीवे ैरगिहतैः॥७५॥

ोिषतो धमकायाथ ती ोऽ ौ नरः समाः।

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िव ाथ ष शोऽथ वा कामाथ ी ं ुव रान् ॥७६॥

इसका अथ यह है िक-- जब कोई पु ष परदे श को जाये तो थम ी के


खान पान का बं ध करता जाये , ोिक िबना बं ध ु धा के कारण कुलीन
ी भी दू सरे पु ष की इ ा कर सकती ह॥७४॥

खान पान की व था करक परदे श जाने के अन र उस पु ष की ी


िनयम अथात पित त से रहकर अपना समय तीत कर, और जब भोजन
को न रहे या पु ष पुरा बं दोब करक न गया हो तो पित के परदे श होने
तक िश कम जो िन त न हो अथात सू त कातना ह से काढना आिद
कम से गु जरा कर॥७५॥

यिद वह परदे श धर् म काय को गया हो तो आठ वष, िव ा पढने गया हो


तो छ: वष, धन यश को गया हो तो तीन वष तक राह दे ख, प ात पित के
पास जहाँ हो वहाँ चली जाव॥७६॥

अब तु म ही बताओ िक इसम िनयोग की बात कहा से आ गई और यह


हम पहले ही कह चुके ह िक मनु जी इस महाअधम िनयोग का समथन
नही ं करते , ब मनु जी तो इसे पशुधम बताते ए, इस महाअधम
िभचार िनयोग की घोर िनंदा करते ह, सु िनये मनु जी िनयोग की िनंदा
करते ए मनु ृित म यह िलखते ह िक--

नो ािहकेषु म ेषु िनयोगः की ते िचत्।

न िववाहिवधावु ं िवधवावेदनं पुनः॥ {९.६५}

पािण ाह सा ी ी जीवतो वा मृ त वा।

पितलोकमभी ी नाचरे ं िचदि यम् ॥ {५/१५६}

कामं तु पये े हं पु मू लफलै ः शुभैः।

न तु नामािप गृ ीया ौ ेते पर तु॥ {५/१५७}

आसीता मरणा ा ा िनयता चा रणी।

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यो धम एकप ीनां का ी तमनु मम् ॥ {५/१५८}

अनेकािन सह ािण कुमार चा रणाम् ।

िदवं गतािन िव ाणामकृ ा कुलसंतितम् ॥ {५/१५९}

मृ ते भत र साढ् वी ी चय व थता।

गग पु ािप यथा ते चा रणः॥ {५/१६०}

अप लोभा ा तु ी भतारमितवतते ।

सेह िन ामवा ोित परलोका हीयते॥ {५/१६१}

पितं िह ापकृ ं मु ृ ं या िनषे वते।

िन ैव सा भवे ोके परपूवित चो ते॥ {५/१६३}

िभचारा ु भतुः ी लोके ा ोित िन ताम् ।

गालयोिनं ा ोित पापरोगै पी ते॥ {५/१६४} ~मनु ृ ित

जो वे द मं िववाह के सं बंध म कह गए ह उसम न तो िनयोग का वणन है


और न ही िवधवा िववाह का॥

अगले ज मअ ा पित पाने की इ ा रखने वाली ी को इस ज म


िववािहत पित की जीवन-अविध म अथवा उसकी मृ ु हो जाने पर उसे
बु रा लगने वाला कोई काय नही ं करना चािहए॥१५६॥

ी अपने पित की मृ ु हो जाने के प ात फल-फूल और क -मूल


खाकर अपना शरीर चाहे सु खा ले पर भू ल कर भी दू सरे पु ष के सं ग की
इ ा न कर॥१५७॥

पित ता ी को पित के मृ ु के बाद पुरा जीवन मा, सं यम, तथा


चय का पालन करते ए गु जारना चािहए, उसे सदाचारणी ीयों ारा
आचरण यो उ म धम का पालन करने पर गव करना चािहए॥१५८॥

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यिद िकसी ी के पित की मृ ु िबना िकसी सं तान को उ िकए हो
जाए तब भी ी को अपनी स ित के िलए दू सरे पु ष का सं ग नही ं करना
चािहए,॥१५९॥

स ान उ नही करने वाले चारीयों की तरह पित की मृ ु के बाद


चय पालन करने वाली ी पु वती नही होने पर भी ग ा करती
है ॥१६०॥

पु ा की इ ा से जो ी पित त धम को तोड़ कर दू सरे पु ष के


साथ सं भोग करती है उसकी इस सं सार म िनंदा होती है तथा परलोक म
बु री गित िमलती है ॥१६१॥

कम गु णों वाले अपने पित का ाग कर जो ी अिधक गु णों वाले अ


पु ष का सं ग करती ह वह इस सं सार म िनंदा का पा बनती है और दो
पु षों की अंकशाियनी बनने का कलंक लगवाती है ॥१६३॥

पित के िसवाय दू सरे पु ष से सं भोग करने वाली िववािहत ी इस सं सार


म िनंदा का पा तो बनती ही है और मरने के बाद गीदड़ की योिन म
ज लेती ह, वह कोढ़ जैसे अने क असा रोगों से पीड़ा पाित है ॥१६४॥

अब कहों ा तु मने और तु ारे इस िनबु दयानंद ने मनु ृित म यह


ोक नही ं दे ख? अव दे ख होंगे पर ु िलखते कैसे इ ा तो भारतवष
की सम ीयों को िभचारीणी बनाने की थी, भारतवष को इस
पशुधम की ओर धकेलने की थी, और दे खये तु ारे ामी जी ने जो यह
दू सरा ोक िलखा है , (व ा मेsिधवे ा े ०) इसके अथ भी गडबड
िलख ह, सु िनये इसका सही अथ इस कार है िक--
व ा मेsिधवे ा े दशमे तु मृत जाः।

एकादशे ीजननी स ि यवािदनी॥

पि यिद व ा हो तो आठ वष, बार-बार मृत ब ों को ज दे ती हो तो


दश वष, या केवल क ाओं को ही ज दे ती हों तो ारह वष उपरा

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पित दु सरा िववाह करने का अिधकारी है और यिद पि अि य बोलने
वाली है तो पित त ाल दु सरा िववाह कर सकता है ।

यह इसका अथ है , अब कहों इसम िनयोग की बात कहाँ से आ गई, भला


इसम िनयोग िवषयक ऐसा कौन सा पद है िजससे िक िनयोग िस होता
है , यह िनयोग की बात तु ारे ामी जी के कपोल भं डार से कट ई है ,
इस कारण दयानंद के िकये सभी अथ अशु होने से , मानने यो नही,ं

दयानंदी-- तो ा मनु ृित से िनयोग िस नही ं होता?

समी क-- नही,ं और इस बात का माण हम पूव िलख आये ह।

दयानंदी-- यिद ऐसा मानते हो तो सु िनये , ामी दयानंद जी ने स ाथ


काश के चतु थ समु ास म पुनः मनु ृित से माण िलखा है िक—

“दे वरा ा सिप ा ा ाया स घ् िनयु या।

जे तािधग ा स ान प र ये ॥१॥

े ो यवीयसो भा ा यवीया ा ज ायम् ।

पिततौ भवतो ग ा िनयु ाव नापिद॥२॥

औरसः े ाज ै ०॥३॥ ~मनु ०{अ० ८, ोक ५८-६०}

(सिप ) अथात् पित की छः पीि़ढयों म पित का छोटा वा बड़ा भाई


अथवा जातीय तथा अपने से उ म जाित थ पु ष से िव ा ी का
िनयोग होना चािहये , पर ु जो वह मृत ीपु ष वा िव ा ी स ानो ि
की इ ा करती हो तो िनयोग होना उिचत है , और जब स ान का सवथा
य हो तब िनयोग होवे , जो आप ाल अथात् स ानों के होने की इ ा
न होने म बड़े भाई की ी से छोटे का और छोटे की ी से बड़े भाई का
िनयोग होकर स ानो ि हो जाने पर भी पुनः वे िनयु आपस म
समागम कर तो पितत हो जाय, अथात् एक िनयोग म दू सरे पु के गभ
रहने तक िनयोग की अविध है ”

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अब तु म कहों ा इससे िनयोग िस नही ं होता?

समी क-- तु म चुितया हो, और तु मसे भी बड़ा चुितया है तु ारा यह


िनबु दयानंद, सु नो तु मने यह ोक तो पढ़े पर यह जाना िक यह
ोक यहाँ िकस स भ म िलखा है , मनु ृित म िलखी ं सब ही बातों को
मनु जी का मत जान लेना, इसी से दयानंद की बु का पता चलता है ,
सु िनये यह मत मनु जी का नही ं ब राजा वे न का है िजसे मनु जी अपने
ं थ म इस कारण कथन िकया है ोंिक उस समय राजा वे न के राज म
यह पशुधम िनयोग चलन म था, यह पशुधम राजा वे न ने आरं भ िकया और
उसने िनयोग के जो-जो िनयम चलाए उसे मनु जी ने अपने ं थ म िलखा है
िजससे सब मनु यह बात भलीभाँ ित समझ सक िक ा धम है और
ा अधम? और यह हम पूव ही िस कर आये ह िक मनु जी इस
पशुधम िनयोग के घोर िवरोधी थे, सु िनये मनु जी, राजा वे न ारा चलाये
इस महाअधम िनयोग की िनंदा करते ए िलखते ह िक--

ातु भाया या गु प नुज सा।

यवीयस ु या भाया ु षा े सा ृता॥ -{९/५७}

िभचारा ु भतुः ी लोके ा ोित िन ताम् ।

सृगालयोिनं चा ोित पापरोगै पी ते॥ -{९/३०}

ना न् िवधवा नारी िनयो ा ि जाितिभः।

अ न् िह िनयु ाना धम ह ु ः सनातनम् ॥ -{९/६४}

नो ािहकेषु म ेषु िनयोगः की ते िचत्।

न िववाहिवधावु ं िवधवावेदनं पुनः॥ -{९/६५}

अयं ि जैिह िव ः पशुधम िवगिहतः।

मनु ाणामिप ो ो वेने रा ं शासित॥ -{९/६६}

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स महीम खलां भु न् राजिष वरः पुरा।

वणानां संकरं च े कामोपहतचेतनः॥ -{९.६७}

ततः भृित यो मोहा मीतपितकां यम् ।

िनयोजय प ाथ तं िवगह साधवः॥ -{९/६८} ~मनु ०

छोटे भाई के िलए बड़े भाई की प ी गु प ी तु , और बड़े भाई के िलए


छोटे भाई की प ी पु वधू जैसी होती है ॥

यिद िववािहत ी परपु ष का सं ग करती है तो वह इस लोक म िन त


होती है , और अनेक यौन स ी रोगों से िसत हो जाती है तथा मृ ु के
बाद गीदड़ी के पमज लेती है ॥

ा णािद तीनों वण की िवधवा ी को परपु ष का सं ग नही ं करना


चािहए, दू सरे पु ष का सं ग करने से ी सनातन एक पित त धम को न
करती है और उससे उ सं तान धम का िवनाश करने वाली होती है ॥

जो वे द मं िववाह के स म कह गये ह, उनम न तो िनयोग का वणन


है और न ही िवधवा िववाह का॥

िनयोग का योग राजा वे न के शासनकाल म अव आ था लेिकन तब


भी िव नों ने इसे पशुधम बताते ए मनु ों के िलए िनिष बताया था॥

जो राजा वे न स ूण धरती को भोगने वाला च वत स ाट था,


कामवासना के वशीभू त हो उसी राजा ने वणसं कर सं तान उ करने के
दु च (िनयोग) का आर िकया॥

उस राजा वे न के समय से यह रीित चली और जो उसकी मित मानने वाले


लोग शा के न जानने वाले िवधवा ी को परपु ष के साथ योजना
करते ह, उस िविध को साधु पु ष िन ा करते ह॥

इससे िस होता है िक यह पशुधम िनयोग राजा वे न ने आरम्भ िकया,


और मनु जी िनयोग था के घोर िवरोधी थे, मनु जी ने इस महाअधम

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िनयोग की तु लना पशुधम से करते ए इसकी ब त िन ा की है , जो
िव ान लोग ह वे इस बात को भलीभाँ ित समझते ह, मुझे तो तु ारे ामी
जी राजा वे न के ही अवतार मालू म पड़ते ह, या राजा वे न के भी बाप, दादा
या गु क ं तो गलत नही ं होगा, ोिक उसने तो केवल अपनी ही जाित
म िनयोग चलाया और एक ही सं तान उ करने को कहा, पर ु तु ारे
दयानंद तो सब ही जाित म िनयोग करना और ारह तक पित बनाने की
आ ा करते ह, यह पशुधम दयानंद ने चलाया जो राजा वे न से ार आ
है इससे पता चलता है िक दयानंद धम के नही ं अधम के फैलाने वाले ह।

अब जबिक वे दािद माणों से यह िस हो चुका है िक िनयोग झूठ से


िस होता है , धमशा ों के अनु सार भी िव नों ने इसे पशुधम बताते
ए मनु ों के िलए िनिष बताया और इस महाअधम िभचार िनयोग
की खुब िनंदा की है , िफर भी न जाने ों ामी िनयोगानंद जी बार-बार
वे दािद ं थों के अथ का अनथ कर इस पशुधम िनयोग को िस करने का
असफल यास करते ह, इससे मन म शंका उ होती ह िक ामी जी
अपने िपता की ही पैदाइश है या िफर ारह िनयोग की!

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महिष या िफर महाचुितया

इस लेख के मा म से म आप लोगों के सामने दयानंद कृत यजुवदभा


के कुछ ऐसे भा रख रहा ँ िजसे पढ़कर एक बार को आप लोगों की
बु भी चकरा जाये गी आप लोगों को यही समझ म नही ं आये गा िक
दयानंद के इन भा ों पर हं स, ोिधत हो या िफर दयानंद की मानिसक
थित को लेकर दु ख कर, इस लेख को िलखने का मेरा उ े
िसफ इतना है िक जो लोग दयानंद को सं ृ त का िव ान समझते ह, उ
यह पता होना चािहए िक दयानंद को सं ृ त तो छोिडये सं ृ त का 'स'
भी नही ं आता था, या यह कहे िक उ ोंने सं ृ त की कभी श तक न
दे खी होगी तो कहना गलत न होगा, और जब ऐसा मंदबु वे दों
का भा करने बै ठ जाये तो अथ का िकस कार अनथ करता है , यह
बताने की आव कता नही ं है , वह आपके सामने ही है दे खये --

(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -१)


होता य द् अि नौ छाग हिवष ऽ आ ाम् अ म तो मे द ऽ
उद् भृतं पुरा े षो ः पुरा पौ षे ा गृभो घ ां नू नं घासे ऽ अ ाणां
यवस थमानाम्ँ सुम राणाम्ँ शत ि याणाम् अि ा ानां
पीवोपवसानां पा तः ोिणतः िशतामत ऽ उ ादतो ाद् -अ ाद्
अव ानां करत एवाि ना जुषेताम्ँ हिवर् होतर् यज॥ ~यजुवद
{२१/४३}

दयानंद अपने यजुवदभा म इसका अथ करते ए अपने लाडले िश ों


के िलए फरमाते है िक--

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“हे (होत:) दे नेहारे ! जैसे, (होता) लेनेवाला,,,, (छाग ) बकरा आिद पशुओं
के, (म त:)- बीच से , (हिवष:)- लेने यो पदाथ, (मेद:)- अथात घी, दू ध
आिद,,,,,, (आ ाम्) लेव वा,,,,, (नू नम् ) िन य करक, (घ ाम्) खाव वा,,,,,,
(हिव:) उ पदाथ से खाने यो पदाथ का,,,,,, (जुषेताम् ) से वन कर”

भावार् थ म ामी जी िलखते ह िक "जो छाग (अथात बकरा) आिद


पशुओं की र ा कर उनके दू ध घी आिद का अ ी कार से वन करते ह
उनके सब अंग रोग मु हो सु ख को ा करते ह

समी क-- वाह रे ! स ाथ काश के रचने वाले, वे द ऋचाओं के अथ का


अनथ करने वाले, ा कहने ते रे! (छाग ) अथात बकरा आिद पशुओं से
िलए दू ध घी आिद का अ ी कार से वन कर, ध हे ! िनब धानंद ते री
बु ,अ ी िश ा िलखी ं ह अपने लाडले िश ों को बस यही शेष रह
गया था, सो भी तु मने अपने िश ों को कथन कर िदया, अभी तु ारे चेले
कम नमूने थे जो उ नर बकरे का दू ध घी खाना िलख िदया, इस ुित का
अथ िलखने से पूव ज र ामी जी ने (छाग ) बकरे का दू ध िपया होगा,
िजससे उनकी मित हो गई, इसी कारण ामी जी इस ुित म
(छाग ) नर बकरे का दू ध घी खाना िलखते ह, बकरी का नही ं खास
बकरों का, ध हे ! ऐसा भा कार और ध है ऐसे भा ों को मानने वाले
अ से पैदल समाजी, अब आपको ामी जी की बु के बारे म ा
कह? ामी जी ने इस ुित के अथ का कैसा अनथ िकया है वह आप
लोगों के सामने ही है , ये दयानंदी कहते ह िक हम वै िदक है और हम
केवल दयानंद कृत वे दभा ही मा है , हम िजतने भी काय करते ह
उसी के अनुकूल करते ह,

तो म उनसे पूछना चा ँ गा, ा मेरे दयानंदी भाई रोज (छग ) नर बकरे


का दू ध, दही, घी आिद खाते ह, यिद नही ं खाते तो वे द िव करते ह
ोिक जब तक ये दयानंद ने भा ानुसार बकरे का दू ध, घी नही ं खाते ,
तब तक वै िदक न कहलायगे , और यिद एक बार को दयानदी खाना भी

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चाहे तो खायगे कहाँ से , ा सं सार म बकरे का दू ध, दही, घी आिद होता
भी है ? जो ये खायगे , बकरों का दू ध, घी आिद न तो इस सं सार म कभी
आ है और न ही होगा, ऐसी असं भव िचज के खाने को िलखने से ही
दयानंद की बु का पता लगता है , कोई िकतना ही बड़ा मुख ों न हो,
उसकी बु िकतनी ही घुटनों म ों न हों वह भी ऐसी िबना िसर की
बात न िलखेगा, जैसे ामी ने िलखा है , दयानंद के इस भा को पढ़कर
ही पता लग जाता है िक ामी जी ने उस िदन लौटा भरकर िपया होगा,
अब बकरे का दू ध िपया या कुछ और ही पी िलया यह कह पाना मु ल
है , और सु िनये ,

(दयानं द कृत यजुवदभा , भा -२)


सूप था ऽ अ दे वो वन ितर् अभवद् अि ां छागे न सर ै
मे षेणे ाय ऽऋषभेणा ँ ान् मे द ः ित पचतागृभीषतावीवृध
पुरोडाशैर् अपुर् अि ना सर ती ः सु ामा सुरासोमान्॥ ~यजुवद
{२१/६०}

ामी जी अपने यजुवदभा म इसका अथ यह िलखते ह िक--

“हे मनु ों! (अि ाम्)- ाण और अपान के िलए, (छागे न)- दु :ख िवनाश
करने वाले छे री आिद पशु से , (सर ै )- वाणी के िलए, (मेषेण)- मढ़ा से ,
(इ ाय)- परम ऐ य के िलए, (ॠषभे ण)- बै ल से , (अ न्)- भोग कर”

ामी जी अपने इस भा ानुसार अपने लाडले िश ों के िलए फरमाते है ,


िक यिद कोई दयानंदी हमेशा दु खी रहता हो, जीवन म िद त
परे शानीयाँ ादा रहती हो, तो वो दु :ख के िवनाश के िलए छे री (बकरी)
आिद पशु के साथ भोग िकया कर,

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और यिद िकसी दयानंदी की वाणी खराब हो गई हो जैसे तु तलापन हो,
गला बै ठ गया हो या िफर ज से गूं गा आिद हो तो ऐसे समाजी, वाणी के
िलए मढ़ा (मढक) से भोग िकया कर,

और परम ऐ य की कामना रखने वाले सभी दयानंदी परम ऐ य के िलए


बै ल से भोग िकया कर,

वाह! दयालु हो तो ऐसा, दे खये ामी जी ने िकस यु से अपने लाडले


िश ों का धन बचाया है , भारतवष म अब तक लोग यह िशकायत िकया
करते थे िक यहाँ िववाहों म धन अिधक खच होता है , लेिकन आज तक
कोई इसका व ोव न कर सका, पर ु ामी जी ने यु के साथ वह
व ोव भी कर िदया, अब दयानंदीयों को न तो खच करने की ज रत
और न ही िववाह करने की ज रत, दोनों आव कताएँ िमट गई, ोिक
दयानंदी अब अपने वे दभा ों के िव ी के साथ भोग ही नही ं करगे ,
जब इ ा होगी िकसी बकरी, मढे या िफर बै ल के साथ भोग कर िलया
करगे ,

इसके अलावा एक और अ ाय हो गया वह यह िक हमारे दयानंदी भाई


तो बै ल से भोग कर परम ऐ य वाले हो जायगे , और उनसे िभ मत वाले
हमेशा गरीब ही रहगे, ोिक इनके हाथ तो िक त की चमचमाती छडी
लग गई जहाँ जरा सी भी स ि घटी िफर बै ल के साथ भोग कर लगे
और इनसे िभ मत वाले इस िन त घृणा मु कम कर न सकगे , और
हमेशा गरीब ही रहगे, इसके िवपरीत समाजी ऐ यवान होते जायगे िफर
चाहे कोई रोजगार कर या न कर,

मुझे इस बात का बड़ा सं देह हो गया िक हमारे दयानंदी भाई उिचत


अनुिचत जो कुछ भी दयानंद िलख गये यह सबको स ही मानते ह, अब
आप सोिचये िक इस कार की उट पटां ग बात िलखने वाले दयानंद की
बु कैसी रही होगी? और सु िनये ,

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इसी कार अ ाय १६ मं १७ म दयानंद राजा को आम के वृ काटना
िलखते ह

नमो िहर बाहवे सेना े िदशां च पतये नमो नमो वृ े ो


ह रकेशे ः पशू नां पतये नमो नमः श राय षीमते पथीनां
पतये नमो नमो ह रकेशायोपवीितने पु ानां पतये नमः॥१६/१७

ामी जी अपने यजुवदभा म इसका अथ यह िलखते ह िक—“हे


श ु ताड़क से नापित! (वृ े :)- आ ािद वृ ों को काटने के िलए, (नम:)-
व ािद श ों को हण कर”

ामी जी राजा के िलए िलखते ह िक वो आम आिद के िजतने भी सं सार


को लाभ प ं चाने वाले वृ है उ कटवा द, वाह ामी जी वाह ा
उ म बात सोची है , जो वृ सं सार को लाभ प चाते है उ ी ं को कटवा द,
उसी का नाम तो उपकार है मालूम होता है इस िदन लौटा भरकर भां ग
िपया है , और सु िनये ,

िफर आगे यजुवद अ ाय १६ मं ५२ के भा म अपने िश ों को आ ा


दे ते ह िक तु म राजा से कहों की सू वर के समान सोने वाले राजा,

िविक र िवलोिहत नमस् ते ऽ अ ु भगवः।

यास् ते सह म्ँ हे तयो ऽ म् अ न् िन वप ु ताः॥ ~यजुवद


{१६/५२}

“हे (िविक र )- िवशेषकर सू वर के समान सोने वाले, (भगव:)- ऐ ययु


राजन्!”

वाह वाह राजा के िलए बड़ी ही अ ी उपमा दी है , िजस ई र को अपने


वे दभा ों म राजा बोलते आए, और िफर उसी राजा को सू वर की उपमा
ये आप जैसे धू त को ही शोभा दे ता है , दयानंद की बु का पता तो यही
लग जाता है , िजस राजा को जा िपता तु मानती है उसे ामी जी सू वर
की भां ित सोने वाला िलखते है ,

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हमारे यहाँ तो राजा को ऐसे अपश नही ं बोले जाते , हो सकता है आय
समाज म राजा को सू वर के तु समझा जाता हो, शायद समाजी अपने
राजा अथात दयानंद को इसी कार बोलते हो, की "हे भं ग के नशे म
िवशेषकर सू वर की भां ित सोने वाले राजन् " और िफर दयानंद ने यही बात
अपने वे दभा म िलख दी हो, और सु िनये ,

िफर आगे अ ाय ३७ मं ७ म दयानंद िलखते ह िक- “ई र हमारे


भाईयों को घोड़े की लडी अथात लीद से तपाता है ”

अ ा वृ ःश ा धूपयािम दे वयजने पृिथ ाः। मखाय ा


मख ा शी ।अ ा वृ ःश ा धूपयािम दे वयजने
पृिथ ाः। मखाय ा मख ा शी ।अ ा वृ ःश ा
धूपयािम दे वयजने पृिथ ाः। मखाय ा मख ा शी । मखाय
ा मख ा शी मखाय ा मख ा शी मखाय ा
मख ा शी ॥ ~यजुवद {३७/९}

“हे मनु ! जैसे म, ( ा)- तु झको, (अ )- घोड़े की, (श ा)- लडी, लीद
से , (धू पयािम)- तपाता ँ ”

ध है ऐसे भा को िजसके से हमारे दयानंदी भाई रोज घोड़े की


लीद से तपते है ,

ध है ऐसे भा कार और ध है ऐसे भा ों को मानने वाल,

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दयानंद मत पशुिहंसा धम का अंग

॥िजहादी दयानंद॥

दयानंद यजुवदभा ,अ ाय १३ मं ४८, ४९,

इमं मा िहँ सीर् एकशफं पशुं किन दं वािजनं वािजनेषु। गौरम्


आर म् अनु ते िदशािम ते न िच ानस् त ो िन षीद। गौरं ते शुग्
ऋ तु यं ि स् तं ते शुग् ऋ तु॥ ~यजुवद {१३/४८}

इम्ँ साह ्ँ शतधारम् उ ं मान्ँ स रर म े। घृ तं दु हानाम्


अिदितं जनाया े मा िह्ँ सीः परमे ोमन्। गवयम् आर म् अनु ते
िदशािम तेन िच ानस् त ो िन षीद। गवयं ते शुग् ऋ तु यं ि स्
तं ते शुग् ऋ तु॥

~यजुवद {१३/४९}

दयानंद अपने यजुवदभा म इसका यह अथ िलखते ह िक--

“मनु ों को उिचत है िक िजनके मारने से जगत् की हािन और न मारने से


सबका उपकार होता है , उनका सदै व पालन पोषण कर, और जो पशु
तु ारे िलए लाभकारी न हों उनको मार”॥४८॥

“हे (अ े ) दया को ा ए परोपकार राजन्, (ते ) ते रे रा म,


(आर म्)- वन म रहने वाली, (गवयम्)- गौ जाित की नीलगाय से खेती की
हािन होती है इस कारण, (तेन)- उसके मारने को, (अनुिदशािम)- उपदे श
करता ँ”

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इसके भावाथ म ामी जी िलखते ह िक-- और गौ जाित से स रखने
वाली, गौ के समान िदखने वाली नीलगाय आिद जो जंगल म रहती है ,
उससे खेती की हािन होती है इसिलए वह मारने यो है ,

समी क-- ध है ऐसा भा करने वाला मंद बु दयानंद और ध है


इन भा ों को मानने वाले अ से पैदल समाजी, यह ामी जी को ा
सु झी की धम कम छोड़ िहं सा का माग पकड़ िलया, यह िश ा वे द म
दे खने को तो नही ं िमलती, यह तो वे द के नाम पर आपने अपने िश ों को
खुली छूट दे दी, िक नीलगाय आिद जो पशु तु ारे िलए लाभकारी नही ं
उ मार, शोक हे ! ऐसी बु पर, दे खये इसका यह अथ नही ं है जै सा
तु मने िलखा है यह वे द ुित ाथना के अथ है इस ुित म यह ाथना है
िक--

“हे अ े ! यह गौ े थान म रहने वाली सह ों उपकार करने वाली,


दु ािद की सै कड़ों धारा वाली, लोकों म िविवध वहार को ा और
मनु ों का िहत करने को घृत, दु को दे ने वाली है , अिदित पा यह गौ
आपके इस प को दे ख पीिडत न हो इसके िवपरीत आर म रहने
वाले गवय आिद पशुओं (िजनसे खेती की हािन होती है ) को आपसे भय
ा हो”

इसी कारण लोग वनीय पशुओं से अपनी फसल आिद की र ा करने के


अथ मसाल आिद जलाकर रखते ह िजस कारण वन म रहने वाले पशु
उनसे दू र ही रहते ह ोंिक सब ही कार के वन म रहने वाले पशु अि
से भय खाते ह और उनसे दू र ही भागते है , यह इस ुित का आशय है
इसम कही ं भी िकसी भी जीव को मारना कथन नही ं िकया है , ोिक
िकसी भी कार की िहं सा अधम होने से वे द िव है , यह बात
दयानंदीयों को भी समझनी चािहए, जबिक दयानंद ने अपने वे दभा म
अपने लाडले िश ों को खुली छूट दे दी िक जो पशु तु ारे िलए लाभकारी
नही ं है उ मार दो, और यह अथ ामी जी से िकसी भू लवश नही ं आ,

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ामी जी अपने अ लेखों म भी पशुिहं सा का समथन कर चुके ह दे खये
जैसे स ाथ काश के थम सं रण के पृ १४६ म िलखा है िक “मां स
के िप दे ने म तो कुछ पाप नही”ं

पृ सं ा १७२ म िलखा है िक “य के वा े जो पशुओं की िहं सा है सो


िविधपूवक हनन है ”

पृ सं ा ३०२ म है िक “कोई भी मां स न खाएँ तो जानवर, पि , म


और जल इतने है , की उनसे शत सह गु ने हो जाएं , िफर मनु ों को
मारने लग और खेतों म धा ही न होने पावे िफर सब मनु ों की
आजीिवका न होने से सब मनु न हो जाएं ”

पृ ३०३ म िलखा है िक “जहाँ जहाँ गोमेधािदक िलखे ह वहाँ वहाँ पशुओं


म नरों का मारना िलखा है और एक बै ल से हजारों गै या गभवती होती है ,
इससे हािन भी नही ं होती और जो ब ा गाय होती है उसको भी योमेघ म
मारना ोिक ब ा गाय से दु और व ािदको की उ ि होती नही”ं

पृ ३६६ म िलखा है िक “पशुओं को मारने म थोड़ा सा दु :ख होता ह


पर ु यश म चराचर का अ उपकार होता है ”

यह सब बात स ाथ काश के थम सं रण म ामी जी ने ही िलखी है


िजसे बाद म स ाथ काश के ि तीय सं रण म सं शोधन कर यह
कहकर हटा िदया गया, िक यह बात िलखने व छापने वालों की गलती से
छप गई थी,

िन लेख को पढ़कर िव ान लोग स क् समझ सकते ह िक दयानंद जी


धम के फैलाने वाले थे या िफर अधम के, और सु िनये आगे अ ाय १५
मंत्र १५ म दयानंद िलखते ह िक--

अयं पुरो ह रकेशः सूयर स् त रथगृ श् च रथौजाश् च


सेनानी ाम ौ। पुि क थला च तु थला चा रसौ दङ् णवः
पशवो हे ितः पौ षे यो वधः हे ितस् ते ो नमो ऽ अ ु ते नो ऽव ु ते

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नो मृ डय ु ते यं ि ो यश् च नो े ि तम् एषां ज ेद ः॥
~यजुवद {१५/१५}

“जो (अयम् )- यह, (दङ् णवः)- मां स और घास आिद पदाथ को खानेवाले
पशु आिद उनके ऊपर, (हे ित:)- िबजुली िगरे ,,,,, (य:)- जो, (न:)- हमसे ,
( े ि )- िवरोध कर, (तम्)- उसको हम लोग, (एषाम् )- इन ा ािद पशुओं
के, (ज े )- मुख म, (द :)- थापन कर”

समी क-- दयानंद की िहं सक बु दे ख दयानंद िलखते ह िक


(दङ् णवः)- मां स और घास आिद पदाथ को खानेवाले पशु आिद उनके
ऊपर, (हे ित:)- िबजुली िगरे , दयानंद ने यहाँ पशुिहं सा को भी धम का अंग
बना िदया, ध है ामी जी तु ारी बु , अब दयानंदी हम ये बताए भला
इन जीवों पर िबजुली ों िगरनी चािहए, और भला ई र इन जीवों पर
िबजुली ों िगराने लगे ? िजनकी सृ ि उसी के ारा की गई है , यिद ये
जीव सं सार के लाभकारी न होते तो भला ई र उनकी सृ ि ों करता?
और दयानंद तो घास खाने वाले अिहं सक जीवों तक को मारना िलखते है ,
दयानंदी बताए, भला घास खाने वाले जीवों से सं सार की ा हािन है ?
उनके ऊपर िबजुली ों िगरनी चािहए? मुझे तो नही ं लगता िक इस
सं सार म कोई भी ऐसा जीव है जो सं सार के िलए हािनकारक है , यिद ऐसा
होता तो ईश्वर उसकी सृ ि ही नही ं करता, इस जगत् म ेक जीव एक
दू सरे पर िनभर है , और ऐसे म यिद एक जीव की न भी ख हो जाए
तो पुरा जीवन म ही िबगड जाए यही नही, इसी ुित म िफर आगे िलखा
है िक--

(य:)- जो, (न:)- हमसे , ( े ि )- िवरोध कर, (तम्)- उसको हम लोग,


(एषाम् )- इन ा ािद पशुओं के, (ज े )- मुख म, (द :)- थापन कर,

ध हे ! ामी जी बु , ामी जी को तो अपने िलख लेख भी रण नही ं


रहते दे खये स ाथ काश के स म समु ास म पृ १३७ पर ामी
जी यह िलखते ह िक "ऐसी ाथना कभी न करनी चािहये और न परमे र

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उस को ीकार करता है िक जै से हे परमे र! आप मेरे श ु ओं का नाश,
मुझ को सब से बड़ा, मेरी ही ित ा और मेरे आधीन सब हो जाये इ ािद,

ामी जी के इस भा से तो ामी जी जी का ही मत खंिडत होता है ,


अब यिद ई र ऐसी ाथना को ीकार नही ं करता तो इससे यही िस
होता है िक दयानंद का यह भा अशु है , अब दयानंदी यं इस बात
का िनणय कर िक इसम से कौन सी बात सही है , दयानंद का यह
वे दभा या िफर स ाथ काश म िलखा यह लेख!

~उपे कुमार 'बागी'

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