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Bhagavad-gita Chapter 1 to 6

chapter 2 2.13 2.14 2.20 2.7

chapter 3 3.27

chapter 4 4.2 4.8 4.9 4.34

chapter 5 5.22 5.29

chapter 6 6.47

काप यदोषोपहत वभावः


पृ छािम वां धमस मूढचेताः |
य े यः याि नि चतं िू ह त मे
िश य तेऽहं शािध मां वां प नम् || ७ ||

अब म अपनी कृ पण-दबु लता के कारण अपना कत य भल ू गया हँ और सारा धैय खो चकू ा हँ | ऐसी
अव था म म आपसे पछू रहा हँ िक जो मेरे िलए ेय कर हो उसे िनि त प से बताएँ | अब म
आपका िश य हँ और शरणागत हँ | कृ या मझु े उपदेश द |

देिहनोऽि म यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |


तथा देहा तर ाि ध र त न मु ित || १३ ||

िजस कार शरीरधारी आ मा इस (वतमान) शरीर म बा याव था से त णाव था म और


िफर वृ ाव था म िनर तर अ सर होता रहता है, उसी कार मृ यु होने पर आ मा दसू रे
शरीर म चला जाता है | धीर यि ऐसे प रवतन से मोह को ा नह होता |
न जायते ि यते वा कदािचन्
नायं भू वा भिवता वा न भूयः |
अजो िन यः शा वतोऽयं पुराणो
न ह यते ह यमाने शरीरे || २० ||

आ मा के िलए िकसी भी काल म न तो ज म है न मृ यु | वह न तो कभी ज मा है, न ज म


लेता है और न ज म लेगा | वह अज मा, िन य, शा वत तथा परु ातन है | शरीर के मारे जाने
पर वह मारा नह जाता |
भोगै वय स ानां तयाप तचेतसाम् |
यवसायाि मका बुि ः समाधौ न िवधीयते || ४४ ||

जो लोग इि यभोग तथा भौितक ऐ वय के ित अ यिधक आस होने से ऐसी व तओ ु ं


से मोह त हो जाते ह, उनके मन म भगवान् के ित भि का ढ़ िन य नह होता |

कृते: ि यमाणािन गुणै: कमािण सवशः |


अहङकारिवमूढा मा कताहिमित म यते || २७ ||

जीवा मा अहक ं ार के भाव से मोह त होकर अपने आपको सम त कम का कता मान


बैठता है, जब िक वा तव म वे कृित के तीन गणु ारा स प न िकये जाते ह |
एवं पर परा ा िममं राजषयो िवदु: |
स कालेनेह महता योगो न ः पर तप || २ ||

इस कार यह परम िव ान गु -पर परा ारा ा िकया गया और राजिषय ने इसी िविध से इसे समझा |
िक तु काल म म यह पर परा िछ न हो गई, अतः यह िव ान यथा प म लु हो गया लगता है |

प र ाणाय साधूनां िवनाशाय च दु कृताम् |


धमसं थापनाथाय स भवािम युगे युगे || ८ ||

भ का उ ार करने, दु का िवनाश करने तथा धम क िफर से थापना करने के िलए म


हर यगु म कट होता हँ |
ज म कम च मे िद यमेवं यो वेि त वतः |
य वा देहं पनु ज म नैित मामेित सोऽजनु || ९ ||

हे अजन!
ु जो मेरे अिवभाव तथा कम क िद य कृ ित को जानता है, वह इस शरीर को छोड़ने पर इस
भौितक ससं ार म पनु ः ज म नह लेता, अिपतु मेरे सनातन धाम को ा होता है |
ति ि िणपातेन प र ेन सेवया |
उपदे यि त ते ानं ािनन त वदिशनः || ३४ ||

तमु गु के पास जाकर स य को जानने का यास करो | उनसे िवनीत होकर िज ासा करो और उनक
सेवा करो | व पिस यि तु ह ान दान कर सकते ह, य िक उ ह ने स य का दशन िकया है |

ये िह सं पशजा भोगा दु:खयोनय एव ते |


आ तव तः कौ तेय न तेषु रमते बुधः || २२ ||

बिु मान् मनु य दख


ु के कारण म भाग नह लेता जो िक भौितक इि य के ससं ग से उ प न होते ह | हे
कु तीपु ! ऐसे भोग का आिद तथा अ त होता है, अतः चतरु यि उनम आन द नह लेता |

भो ारं य तपसां सवलोकमहे वरम् |


सु दं सवभूतानां ा वा मां शाि तमृ छित || २९ ||

मझु े सम त य तथा तप याओ ं का परम भो ा, सम त लोक तथा देवताओ ं का परमे वर एवं सम त


जीव का उपकारी एवं िहतैषी जानकर मेरे भावनामृत से पणू पु ष भौितक दख
ु से शाि त लाभ-करता है |
योिगनामिप सवषां म तेना तरा मना |
ावा भजते यो मां स मे यु तमो मतः || ४७ ||

और सम त योिगय म से जो योगी अ य त ापवू क मेरे परायण है, अपने अ तःकरण म मेरे िवषय म
सोचता है और मेरी िद य ेमाभि करता है वह योग म मझु से परम अ तरंग प म यु रहता है और सब
म सव च है | यही मेरा मत है |

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