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गजे मो

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ी शक
ु दे व जी ने कहा –

य न चय कर यव सत म त से मन थम दय से जोड लया ।
फर पव
ू ज म म अनु श त इस परम मं का जाप कया ॥१॥

गजे बोला –

मन से है ऊँ नमन भु को िजनसे यह जड चेतन बनता ।


जो परमपु ष जो आ द बीज, सव प र िजसक ई वरता ॥२॥

िजसम, िजससे, िजसके वारा जग क स ा, जो वयं यह ।


जो कारण-काय परे सबके , जो नजभू आज शर य वह ॥३॥
अपने म ह अपनी माया से ह रचे हुए संसार ।
को हो कभी कट, अ त हत, कभी दे खता उभय कार ॥
जो अ व ध क सा ी बन कर, जो परसे भी सदा परे ।
है जो वयं काशक अपना, मेर र ा आज करे ॥४॥

लोक, लोकपाल का, इन सबके कारण का भी संहार ।


कर दे ता संपण
ू प से महाकाल का क ठन कुठार ॥
अंधकार तब छा जाता है , एक गहन गंभीर अपार ।
उसके पार चमकते जो वभ,ु वे म मझु को आज संभार ॥५॥

दे वता तथा ऋ ष लोग नह िजनके व प को जान सके ।


फर कौन दस ू रा जीव भला, जो उनको कभी बखान सके ॥
जो करते नाना प धरे , ल ला अनेक नटतु य रचा ।
है दग
ु म िजनका च रत संधु , वे महापु ष ल मझ
ु े बचा ॥६॥

जो साधु वाभवी , सव सु द वे मु नगण भी सब सग छोड ।


बस केवल मा आ मा का सब भत ू से संबध
ं जोड ॥
िजनके मंगलमय पद दशन क इ छा से वन मे पालन ।
करते अलोक त का अखंड , वे ह ह मेरे अवल बन ॥७॥
िजसका होता है ज म नह , केवल होता म से तीत ।
जो कम और गण ु दोष तथा जो नाम प से है अतीत ॥
रचनी होती जब सिृ ट कंत,ु जब करना होता उसका लय ।
तब अंगीकृत कर लेता है इन धम को वह यथा समय ॥८॥

उस परमे वर, उस परम म, उस अ मत शि त को नम कार ।


जो अ भतु कमा जो अ प फर भी लेता बहु प धार ॥९॥

परमा मा जो सबका सा ी, उस आ मद प को नम कार ।


िजसतक जाने म पथ म ह जाते वाणी मन च हार ॥१०॥

बन सतोगण
ु ी सु नव ृ माग से पाते िजसको व व जन ।
जो सखु व प नवाण ज नत, जो मो धामप त, उसे नमन
॥११॥

जो शा त, घोर, जड प कट होते तीन गण


ु धम धार ।
उन सौ य ान घन न वशेष को नम कार है , नम कार ॥१२॥
सबके वामी, सबके सा ी, े ! तझ
ु े है नम कार ।
हे आ ममल
ू हे मल
ू कृ त, हे पु ष नम ते बार बार ॥१३॥

इि य वषय का जो टा, इि यानभ ु व का जो कारन ।


जो य त असत क छाया म, हे सदाभास ! है तझ
ु े नमन ॥१४॥

सबके कारण न कारण भी, हे वकृ तर हत सबके कारण ।


तेरे चरण म बारबार है नम कार मेरा अपण ॥
सब ु तय , शा का सारे , जो केवल एक अगाध नलय ।
उस मो प को नम कार, िजसम पाते स जन आ य ॥१५॥

जो ान प से छपा गण
ु के बीच, का ठ म यथा अनल ।
अ भ यि त चाहता मन िजसका, िजस समय गण ु म हो हलचल

म नम कार करता उनको, जो वयं का शत ह उनम ।
आ मालोचन करके न रहे जो व ध नषेध के बंधन म ॥१६॥

जो मेरे जैसे शरणागत जीव का हरता है बंधन ।


उस मु त अ मत क णा वाले, आल य र हत के लये नमन ॥
सब जीव के मन के भीतर, जो ह तीत य चेतन ।
बन अ तयामी, हे भगवन! हे अप र छ न ! है तझ
ु े नमन ॥१७॥

िजसका मलना है सहज नह , उन लोग को जो सदा रम ।


लोग म, धन म, म म, अपने म, पु म, घर म ॥
जो नगण,
ु िजसका दय बीच जन अनास त करते च तन ।
हे ान प ! हे परमे वर ! हे भगवन ! मेरा तझ
ु े नमन ॥१८॥

िजनको वमो -धमाथ काम क इ छा वाले जन भज कर ।


वां छत फल को पा लेते ह; जो दे ते तथा अया चत वर ॥
भी अपने भजने वाल को, कर दे ते उनक दे ह अमर ।
ल वे ह आज उबार मझ ु ,े इस संकट से क णासागर ॥१९॥

िजनके अन य जन धम, अथ या काम मो पु षाथ-सकल ।


क चाह नह रखते मन म, िजनक बस, इतनी च केवल ॥
अ य त वल ण ी ह र के जो च रत परम मंगल सु दर ।
आन द- संधु म म न रह , गा गा कर उनको न स-वासर ॥२०॥

जो अ वनाशी, जो सव या त. सबका वामी, सबके ऊपर ।


अ य त क तु अ या म माग के प थक को जो है गोचर ॥
इि यातीत अ त दरू स श जो सू म तथा जो ह अपार ।
कर कर बखान म आज रहा, उस आ द पु ष को ह पकु ार ॥२१॥

उ प न वेद, मा द दे व, ये लोक सकल , चर और अचर ।


होते िजसक बस, व प कला से नाना नाम प धरकर ॥२२॥

य व लत अि न से चंगार , य र व से करण नकल नकल



फर लौट उ ह म जाती ह, गण
ु कृत पंच उस भाँ त सकल ॥
मन बु द सभी इि य तथा सब व वध यो नय वाले तन ।
का िजससे कटन हो िजसम, हो जाता है पन
ु राव न ॥२३॥

वह नह दे व, वह असरु नह , वह नह म य वह ल ब नह ।
वह कारण अथवा काय नह , गण ु , कम, पु ष या जीव नह ॥
सबका कर दे ने पर नषेध, जो कुछ रह जाता शेष, वह ।
जो है अशेष हो कट आज, हर ले मेरा सब लेश वह ॥२४॥

कुछ चाह न जी वत रहने क जो तमसावत ृ बाहर-भीतर –


ऐसे इस हाथी के तन को या भला क ं गा म रखकर ?
इ छा इतनी-ब धन िजसका सु ढ न काल से भी टूटे ।
आ मा क िजससे यो त ढँ क , अ ान वह मेरा छूटे ॥२५॥

उस व व सजृ क , अज, व व प, जग से बाहर जग-सू धार ।


व वा मा, म, परमपद को, इस मो ाथ का नम कार ॥२६॥

नज कमजाल को, भि त योग से जला, योग प रशु ध दय ।


म िजसे दे खते योगीजन , योगे वर त म नत स वनय ॥२७॥

हो सकता सहन नह िजसक गण ु ा मक शि त का वेग बल ।


जो होता तथा तीत धरे इि य वषय का प सकल ॥
जो दग
ु म उ ह म लन वषय म जो क इि य के उलझे ।
शरणागत-पालक अ मत शि त हे ! बारं बार णाम तझ
ु े ॥२८॥

अन भ जीव िजसक माय, कृत अहं कार वारा उपहत ।


नज आ मा से म उस दरु त म हमामय भु के शरणागत ॥२९॥

ी शक
ु दे व जी ने कहा –
यह नराकार-वपु भेदर हत क तु त गजे व णत सन ु कर ।
आकृ त वशेषवाले प के अ भमानी मा द अमर ॥
आये जब उसके पास नह , तब ी ह र जो आ मा घट घट ।
के होने से सब दे व प, हो गये वहाँ उस काल कट ॥३०॥

वे दे ख उसे इस भाँ त दःु खी , उसका यह आ तव सन


ु कर ।
मन-सी ग त वाले प ी राज क चढे पीठ ऊपर स वर ॥
आ पहुँचे, था गजराज जहाँ, नज कर म च उठाये थे ।
तब जग नवास के साथ साथ, सरु भी तु त करते आये थे ॥३१॥

अ तशय बलशाल ाह िजसे था पकडे हुए सरोवर म ।


गजराज दे खकर ी ह र को, आसीन ग ड पर अंबर म ॥
खर च हाथ म लये हुए, वह द ु खया उठा कमल करम ।
‘हे व व-व य भु ! नम कार’ यह बोल उठा पी डत वर म
॥३२॥

पीडा म उसको पडा दे ख, भगवान अज मा पडे उतर ।


अ वल ब ग ड से फर कृपया झट खींच सरोवर से बाहर ॥
कर गज को मकर-स हत, उसका मख ु च धार से चीर दया ।
दे खते-दे खते सरु गण के ह र ने गजे को छुडा लया ॥३३॥

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