You are on page 1of 6

भाषा और संप्रेषण

डॉ. चैनपाल ससंह


उप-निदे शक, केंद्रीय अिव
ु ाद ब्यरू ो

भाषा मिष्ु य के संप्रेषण का महत्वपण


ू ण माध्यम और भावबोध का अन्यतम साधि है । भाषा के
माध्यम से मिष्ु य ि केवल अपिे ववचारों को अभभव्यक्त कर सकता है , बल्कक उन्हें दस
ू रों तक संप्रेवषत
भी कर सकता है । संप्रेषणव्यवहार के संदभण में हम दे खते हैं कक इसके एक ओर यथाल्थथनत संबोधकरूप
में कोई वक्ता अथवा लेखक होता है , जो ककसी ‘संदेश’ को संप्रेवषत करता है और दस
ू री ओर संबोधधतरूप
में यथाल्थथनत कोई श्रोता अथवा पाठक होता है , जो उस संदेश को ग्रहण करता है । संबोधकरूप में वक्ता
अथवा लेखक और संबोधधतरूप में श्रोता अथवा पाठक के बीच संप्रेषणव्यवहार के माध्यम के रूप में भाषा
का प्रयोग ककया जाता है । भाषा के माध्यम से ही संबोधकरूप में वक्ता अथवा लेखक अव्यक्त संदेश की
अभभव्यल्क्त करता है और इसी भाषा में अभभव्यक्त संदेश को संबोधधतरूप में श्रोता अथवा पाठक अथण के
रूप में ग्रहण करता है । अभभव्यल्क्त का साधि ध्वनि होती है , ल्जसमें संबोधकरूप में वक्ता अपिे संदेश
को भाषाबद्धकर मख
ु से उसका उच्चारण करता है और संबोधधतरूप में श्रोता उसे सि
ु कर उसका
अथणग्रहण करता है , जबकक भाषा के भलखखत रूप में भावषक अभभव्यल्क्त का साधि लेखि होता है , ल्जसमें
संबोधकरूप में लेखक अपिे संदेश को भलखकर अभभव्यक्त करता है और संबोधधतरूप में पाठक पढ़कर
उसका अथणग्रहण करता है । यहााँ यह भी उकलेखिीय है कक एक भावषक व्यवथथा का प्रयोग करिेवाला
व्यल्क्त वक्ता एवं श्रोता––दोिों ही रूपों में भाषा का प्रयोग करता है , अथाणत ् वक्ता के रूप में जैसे वह अथण
अथवा संककपिा को ध्वनिरूप दे सकिे की क्षमता रखता है , वैसे ही श्रोता के रूप में वह ध्वनि से अथण
तक पहुाँचिे की क्षमता भी रखता है ।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कक हम अपिे ववचारों को दस
ू रों तक भलीभााँनत संप्रवे षत करिे और
दस
ू रों के ववचारों को थवयं भलीभााँनत ग्रहण करिे के भलए भाषा का आश्रय लेते हैं। हम ि केवल आमिे-
सामिे रहकर एक-दस
ू रे के साथ अपिे ववचारों का भलीभााँनत आदाि-प्रदाि करते हैं, बल्कक भाषा के
माध्यम से थथाि और समय की दरू ी को लााँघकर अपिे ववचारों को दस
ू रों तक भलीभााँनत संप्रेवषत करिे
में भी समथण होते हैं। हमारे जीवि के ववभभन्ि कायणकलापों का भाषा के साथ इतिा गहरा संबध
ं होता है
कक उसके बबिा हमारा सामाल्जक अल्थतत्व ही संभव िहीं है । भाषा के संप्रेषणव्यवहार के माध्यम से ही
हम अपिे भाषाई समद
ु ाय के अन्य सदथयों के साथ अपिा संबध
ं थथावपत करते हैं, उिके साथ
ववचारववनिमय करते हैं और एक-दस
ू रे का सहयोग प्राप्त करते हैं। अतः डॉ. भोलािाथ नतवारी का यह
कथि सवणथा ठीक ही है कक “भाषा मािव के उच्चारण-अवयवों से उच्चाररत यादृल्च्िक ध्वनिप्रतीकों की
वह संरचिात्मक व्यवथथा है , ल्जसके द्वारा समाजववशेष के लोग आपस में ववचारववनिमय करते हैं,
लेखक, कवव या वक्ता के रूप में अपिे अिभ
ु वों एवं भावों आदद को व्यक्त करते हैं तथा अपिे

1
वैयल्क्तक और सामाल्जक व्यल्क्तत्व, ववभशष्टता तथा अल्थमता के संबध
ं में जािे-अिजािे जािकारी दे ते
हैं।”

संसार में ववभभन्ि धमों एवं जानतयों के लोग रहते हैं, ककं तु कोई भी मािवसमद
ु ाय ऐसा िहीं
होगा, ल्जसके पास संप्रेषणमाध्यम के रूप में भाषा ि हो। भाषा समाज एवं सामाल्जक संथकृनत का एक
अभभन्ि अंग है । ककसी सामाल्जक व्यवथथा का एक अंग बिकर जब मिष्ु य समाज में रहता है , तो वह
अपिी िोटी-बडी सभी आवश्यकताओं की पनू तण के भलए समाज के अन्य सदथयों पर निभणर रहता है और
उि सदथयों के साथ ककसी-ि-ककसी प्रकार संपकण थथावपत करिा उसके भलए अनिवायण हो जाता है ।
हालांकक संपकण थथावपत करिे के भलए संप्रेषण के माध्यम तो और भी हो सकते हैं, जैसे सांकेनतक भाषा,
धचह्िों या तथवीरों द्वारा ववचारों का प्रकटीकरण आदद, ककं तु अन्य ककसी भी संप्रेषणव्यवथथा की अपेक्षा
अधधक सशक्त, प्रभावशाली एवं सक्षम व्यवथथा मािवभाषा ही है , ल्जसके द्वारा मिष्ु य़ अपिे ववचारों को
एक सव्ु यवल्थथत ध्वनिरूप प्रदाि करता है । मािव थवभाव से ही सोचिे-समझिेवाला एक ववचारशील
प्राणी है , जो हर समय िए-िए ववचारों एवं आववष्कारों को जन्म दे ता रहता है । यह मािवभाषा की
जीवंतता ही है कक वह मिष्ु य की प्रत्येक संप्रेषण-आवश्यकता के अिरू
ु प थवंय अपिा रूप पररवनतणत करिे
में सक्षम है ।

वथतत
ु ः भाषा के भसवाय कोई और ऐसा साधि है ही िहीं, ल्जसके द्वारा मिष्ु य अपिे ववचारों को
दस
ू रों पर भलीभााँनत प्रकट कर सके और दस
ू रों के ववचारों को थवयं थपष्ट रूप से समझ सके। मिष्ु य के
संपण
ू ण कायण उसके ववचारों से उत्पन्ि होते हैं और इि कायों में दस
ू रों की सहायता अथवा सम्मनत प्राप्त
करिे के भलए उसे उि ववचारों को दस
ू रों पर प्रकट करिे की आवश्यकता होती है । जगत ् का अधधकांश
व्यवहार बोलचाल अथवा भलखा-पढ़ी से चलता है , इसभलए भाषा जगत ् के व्यवहार का मल
ू है । भाषा के
द्वारा हम केवल एक-दस
ू रे के ववचारों को ही िहीं जाि लेत,े बल्कक उसकी सहायता से हमारे ववचार भी
उत्पन्ि होते हैं। ककसी ववषय पर सोचते समय हम एक प्रकार का मािभसक संभाषण करते हैं, ल्जससे
हमारे ववचार आगे चलकर भाषा के रूप में प्रकट होते हैं। इसके अनतररक्त, भाषा हमारी धारणाशल्क्त को
ल्थथरता भी प्रदाि करती है। यदद हम अपिे ववचारों को एकत्र करके भाषाबद्ध कर लें, तो आवश्यकता
पडिे पर हम उन्हें एक लेख के रूप में दे ख सकते हैं और बहुत समय बीत जािे पर भी हमें उिका
थमरण हो सकता है । इसभलए भाषा की उन्ित अथवा अवित अवथथा राष्रीय उन्िनत अथवा अविनत का
प्रनतबबंब होती है , प्रत्येक िया शब्द एक िए ववचार का धचत्र होता है और भाषा का इनतहास मािो उसके
बोलिेवालों का ही इनतहास होता है । इस संदभण में भाषाववषयक निम्िभलखखत कनतपय अन्य मल
ू भत

तथ्यों का उकलेख करिा भी अप्रासंधगक िहीं होगाः

बहरे और गाँग
ू े मिष्ु य अपिे ववचार संकेतों से प्रकट करते हैं। बच्चा केवल रोकर अपिी इच्िा
जताता है । कभी-कभी केवल मख
ु की चेष्टा से ही मिष्ु य के ववचार प्रकट हो जाते हैं। कोई-कोई लोग

2
बबिा बोले ही संकेतों के द्वारा बातचीत करते हैं। ककं तु इि सब संकेतों को लोग ठीक-ठीक िहीं समझ
सकते और ि ही इिसे सब ववचार ठीक-ठीक प्रकट हो सकते हैं। इसभलए, इस प्रकार की सांकेनतक
भाषाओं से भशष्ट समाज का काम िहीं चलता। इसी प्रकार, पश-ु पक्षी आदद भी जो बोली बोलते हैं, उससे
दख
ु , सख
ु , भय आदद मिोववकारों के भसवाय और कोई बात िहीं जािी जा सकती। केवल मिष्ु य की
भाषा से ही सब ववचार भलीभााँनत प्रकट होते हैं, इसभलए मािवभाषा व्यक्त भाषा कहलाती है और दस
ू री
भाषाएं या बोभलयां अव्यक्त कहलाती हैं। यही कारण है कक मािवभाषा को मिष्ु य की वागेल्न्द्रयों से
उत्पन्ि यादृल्च्िक एवं रूढ़ ध्वनिप्रतीकों की एक ऐसी व्यवथथा कहा गया है ल्जसके द्वारा ककसी
मािवसमद
ु ाय के सदथय अपिे ववचारों का आदाि-प्रदाि करिे में सक्षम होते हैं।

मिष्ु य़ की यह भाषा कभी ल्थथर िहीं रहती, इसमें सदै व पररवतणि हुआ करते हैं। ववद्वािों का
अिम
ु ाि है कक कोई भी प्रचभलत भाषा एक हजार वषण से अधधक समय तक एकजैसी िहीं रह सकती।
उदाहरण के भलए, जो दहंदी हम लोग आजकल बोलते हैं, वह हमारे प्रवपतामह आदद के समय में ठीक
इसी रूप में ि तो बोली जाती थी और ि ही उि लोगों की दहंदी वैसी थी, जैसी महाराज पथ्
ृ वीराज चौहाि
के समय में बोली जाती थी। यदद हम अपिे पव
ू ज
ण ों की भाषा की खोज करें , तो हमें अंत में एक ऐसी
दहंदीभाषा का पता चलेगा जो हमारे भलए एक अपररधचत भाषा के समाि कदठि होगी। ककं तु भाषा में यह
पररवतणि धीरे -धीरे होता है ––इतिा धीरे -धीरे कक हमें मालम
ू िहीं होता, पर अंत में इि पररवतणिों के कारण
िई-िई भाषाएं उत्पन्ि हो जाती हैं।

भाषा पर थथाि, जलवायु और सभ्यता का बडा प्रभाव पडता है । बहुत-से शब्द जो एक दे श के


लोग बोल सकते हैं, दस
ू रे दे श के लोग तदवत ् िहीं बोल सकते। जलवायु में हे र-फेर होिे के कारण लोगों
के उच्चारण में अंतर पड जाता है । इसी प्रकार, सभ्यता की उन्िनत के कारण िए-िए ववचारों के भलए
िए-िए शब्द बिािे पडते हैं, ल्जससे भाषा का शब्दकोश बढ़ता जाता है । इसके साथ ही बहुत-सी जानतयां
अवित होती जाती हैं और उच्चभावों के अभाव में उिके वाचक शब्द भी लप्ु त होते जाते हैं। इसके
अनतररक्त, ववद्वािों और ग्रामीण मिष्ु यों की भाषा में भी कुि अंतर रहता है । ककसी शब्द का जैसा
उच्चारण ववद्वाि लोग करते हैं, वैसा सवणसाधारण लोग िहीं कर सकते। इससे प्रधाि भाषा बबगडकर
उसकी शाखारूप िई-िई बोभलयां बि जाती हैं और भभन्ि-भभन्ि दो भाषाओं के पास-पास बोले जािे के
कारण उि दोिों के मेल से एक िई बोली उत्पन्ि हो जाती है ।

भाषागत ववचार प्रकट करिे में एक ववचार के प्रायः कई अंश प्रकट करिे पडते हैं। उि सभी
अंशों के प्रकट करिे पर ही उस समथत ववचार का आशय अच्िी तरह से समझ में आता है । प्रत्येक परू ी
बात को वाक्य कहते हैं। प्रत्येक वाक्य में प्रायः कई शब्द रहते हैं। प्रत्येक शब्द एक साथणक ध्वनि होता
है , जो कई मल
ू ध्वनियों के योग से बिता है । जब हम बोलते हैं, तब शब्दों का प्रयोग करते हैं और
भभन्ि-भभन्ि प्रकार के वाक्यों के भलए भभन्ि-भभन्ि प्रकार के शब्दों को काम में लाते हैं। यदद हम शब्द

3
का ठीक-ठीक प्रयोग ि करें , तो हमारी भाषा में बडी गडबडी उत्पन्ि हो जाए, और संभवतः कोई भी
हमारी बात को ि समझ सके। हााँ, भाषा में ल्जि शब्दों का प्रयोग ककया जाता है , वे ककसी-ि-ककसी
कारण से कल्कपत ककए गए हैं, तो भी जो शब्द ल्जस वथतु का सच
ू क है , उसका इससे प्रत्यक्ष में कोई
संबध
ं िहीं होता। हााँ, शब्दों िे अपिे वाच्यपदाथण आदद की भाविा को अपिे में बााँध-सा भलया है , ल्जससे
शब्दों का उच्चारण करते ही उि पदाथों का बोध तत्काल हो जाता है । कोई-कोई शब्द केवल
अिक
ु रणवाचक होते हैं, पर ल्जि साथणक शब्दों से भाषा बिती है , उिके आगे ये शब्द बहुत थोडे रहते हैं।

उपयक्
ुण त से तात्पयण यह है कक ववचारों की अववरल धारा की अभभव्यल्क्त के भलए मािवभाषा ल्जि
ध्वनियों का प्रयोग करती है, वे ऊपर से एक अववल्च्िन्ि प्रवाह के रूप में ददखाई पडती हैं। यदद हम इस
ध्वनिप्रवाह का ववश्लेषण करें , तो ववचार अथवा संककपिा से जुडी कई ववववक्त इकाइयां उभरकर सामिे
आती हैं, जैस-े ध्वनिप्रवाह की ‘वाक्य’-जैसी इकाई में कई शब्द भमलेंगे और प्रत्येक शब्द में ‘थवनिम’-जैसी
कई लघत
ु र इकाइयां भमलेंगीं। मािवभाषा का यह अभभलक्षण भाषाप्रवाह को ववववक्त इकाइयों के
संधचतकोष के रूप में दे खिे को बाध्य करता है ।

ककसी संदेश के भाषाई रूप का ववश्लेषण करिे पर एक थतर पर तो वे ववववक्त इकाइयां भमलती
हैं, जो आथी दृल्ष्ट से न्यि
ू तम इकाइयां होती हैं और दस
ू रे थतर पर वे इकाइयां भमलती हैं, जो अथणभेदक
प्रकायण तो करती हैं, ककं तु थवयं अथणहीि होती हैं, जैसे ध्वनिथतर पर ‘थवनिम’। पहले थतर की इकाइयां
ववचारों की न्यि
ू तम इकाई का रूप लेती हैं, ल्जन्हें रूवपम की संज्ञा दी जाती है , जैसे- ‘फल, फूल, दौड,
पढ़’ आदद और दस
ू रे थतर पर प्रकायाणत्मक इकाइयां होती हैं, जो दो शब्दों में अथणभेद करती हैं, ‘जैसे
काल-खाल’-इि दो शब्दों में ध्वनिक्रम –– ‘क् +आ+ल ्’ और ‘ख ्+आ+ल ्’ है । इि दोिों शब्दों के अथण अलग-
अलग होिे का कारण केवल ‘क’ या ‘ख’ है , जबकक ‘क’ और ‘ख’ थवयं अथणहीि हैं। इस प्रकार मािवभाषा
एक साथ दो अभभरचिाओं की भसल्ध्द का पररणाम है , ल्जिमें पहली अभभरचिा ववचारभसल्ध्द की न्यि
ू तम
इकाइयों का पररणाम है , तो दस
ू री अभभरचिा प्रभेदिभसल्ध्द की इकाइयों का पररणाम है ।

ककसी ध्वनिप्रतीक के पीिे क्या भाव है , क्या संककपिा है –– इिमें कोई भौनतक संबध
ं िहीं होता।
एक संककपिा के भलए एक भाषा में कोई एक ध्वनिक्रम होता है , तो दस
ू री भाषा में दस
ू रा ध्वनिक्रम और
यह चि
ु ाव पण
ू त
ण या यादृल्च्िक होता है । इसी प्रकार, एक भाषा की वाक्यरचिा में ‘कताण+कमण+कक्रया’ के
क्रम का प्रयोग क्यों होता है , या एक भाषा उपसगों का प्रयोग करती है तो दस
ू री भाषा परसगों का प्रयोग
क्यों करती है––यह ककसी कारण अथवा तकण के आधार पर िहीं, बल्कक परू ी तरह से यादृल्च्िक होता है ।
जब हम उपल्थथत लोगों पर अपिे ववचार प्रकट करते हैं, तब बहुधा कधथत अथवा मौखखक भाषा
काम में लाते हैं, पर जब हमें अपिे ववचार दरू वती मिष्ु य के पास पहुाँचािे का काम पडता है , अथवा
भावी संतनत के भलए उिके संग्रह की आवश्यकता होती है , तब हम भलखखत भाषा का प्रयोग करते हैं।
भलखखत भाषा में शब्द की एक-एक मल
ू ध्वनि को पहचाििे के भलए एक-एक धचह्ि नियत कर भलया

4
जाता है , ल्जसे वणण कहते हैं। ध्वनि कािों का ववषय है , पर वणण आाँखों का, और ध्वनि का प्रनतनिधध है ।
पहले-पहल केवल मौखखक भाषा का प्रचार था, पर बाद में ववचारों को थथायी रूप दे िे के भलए कई प्रकार
की भलवपयां निकाली गईं। वणणभलवप निकालिे के बहुत समय पहले तक लोगों में धचत्रभलवप का प्रचार था
जो आजकल भी पथ्
ृ वी के कई भागों के जंगली लोगों में प्रचभलत है । भमस्र के परु ािे खंडहरों और गफ
ु ाओं
आदद में परु ािी धचत्रभलवप के अिेक िमि
ू े पाए गए हैं और इन्हीं से वहााँ की वणणमाला निकली है । इस
दे श में भी कहीं-कहीं ऐसी परु ािी वथतए
ु ं भमली हैं, ल्जिपर धचत्रभलवप के धचह्ि मालम
ू पडते हैं। कोई-कोई
ववद्वाि यह अिम
ु ाि करते हैं कक प्राचीि समय से धचत्रलेख के ककसी-ककसी अवयव के कुि लक्षण
वतणमाि वणों के आकार में भमलते हैं, जैसे- ‘ह’ में हाथ और ‘ग’ में ‘गाय’ के आकार का कुि-ि-कुि
अिक
ु रण पाया जाता है । ल्जस प्रकार भभन्ि-भभन्ि भाषाओं में एक ही ववचार के भलए बहुधा भभन्ि-भभन्ि
शब्द होते हैं, उसी प्रकार एक ही मल
ू ध्वनि के भलए उिमें भभन्ि-भभन्ि अक्षर भी होते हैं।

जैसा कक पहले संकेत ककया गया है , भाषा हमारे संप्रेषण का माध्यम ही िहीं, अवपतु हमारे
भावबोध का साधि भी है । हम भाषा के माध्यम से ही सोचते हैं और भाषा के माध्यम से ही ककसी
ववचार को समझते और समझाते हैं। अतः हमारे थमनृ तकोष और धचंतिप्रकक्रया का आधार मल
ू तः भाषा ही
है । हमारा संपण
ू ण धचंति वथतत
ु ः भाषा का ही धचंति है। मािवमि की सज
ृ िात्मक शल्क्त की अिप
ु म दे ि
के रूप में यह भाषा ही बाह्य जगत ् और हमारे भावबोध के बीच एक सेतु का काम करती है । यही कारण
है कक भाषा की व्याकरखणक कोदटयों के रूप में ल्जस भलंग, वचि, काल आदद की बात की जाती है , वे
भौनतक जगत ् के थवीकृत तथ्यों से भभन्ि होते हैं। उकलेखिीय है कक भौनतक जगत ् का भलंग व्याकरखणक
भलंग िहीं होता, अन्यथा निजीव पदाथों को संकेनतत करिे वाले शब्दों को हम पल्ु कलंग या थत्रीभलंग रूप
में ग्रहण िहीं करते और ि ही एक ही भौनतक वथतु को संकेनतत करिे वाले दो पयाणयवाची शब्दों में हम
भलंगभेद की ककपिा करते। इसी प्रकार, बाह्य जगत ् के भौनतक धरातल पर वचि की दृल्ष्ट से जो
‘एकवचि’ है , वह भाषाप्रयोग के संदभण में ‘बहुवचि’ हो सकता है । उदाहरण के भलए निम्िभलखखत वाक्यों
को भलया जा सकता है ः-

भाषाप्रयोग भौनतक धरातल भावषक संदभण


1. तू कहााँ से आ रहा है ? एक व्यल्क्त एकवचि
2. (क) तम
ु कहााँ से आ रहे हो ? एक व्यल्क्त बहुवचि
(ख) आप कहााँ से आ रहे हैं ? एक व्यल्क्त बहुवचि
3. (क) तम
ु लोग कहााँ से आ रहे हो ? एक से अधधक व्यल्क्त बहुवचि
(ख) आप लोग कहााँ से आ रहे हैं ? एक से अधधक व्यल्क्त बहुवचि

उपयक्
ुण त भाषाप्रयोग के 2 (क) और (ख) वाक्यों से यह थपष्ट हो जाता है कक भौनतक धरातल पर
संख्या में जो ‘एक’ है , वह भाषाबोध के संदभण में ‘बहुवचि’ है । संप्रेषण के अंतगणत, भाषाबोध के संदभण में

5
‘वचि’ केवल संख्या को ही व्यक्त िहीं करता, वह वक्ता के सामाल्जक बोध का संवाहक भी होता है ।
ककसे हम अपिे से निम्ि या उच्च थतर का समझते हैं, ककसे हम आत्मीय और घनिष्ठ, ककसे हम आदर
की दृल्ष्ट से दे खते हैं और ककसे तच्
ु ि समझते हैं, कौि-सा व्यवसाय हमें उच्चवगण के निकट ले जाता है
और कौि-सा निम्िवगण की ओर––ये सारी चीजें हमें संसार को दे खिे की दृल्ष्ट दे ती हैं और इसी दृल्ष्ट पर
हमारा वचिबोध आधाररत रहता है । इसीभलए, हम एक ओर कहते हैं- ‘वन्दिा चली गई है ’ तो दस
ू री ओर
बोलते हैं- ‘वन्दिा जी चली गई हैं।‘ इसी प्रकार, कहा जाता है कक ‘मजदरू आज आया था’ पर उसके
साथ बोला जाता है–– ‘प्रोफेसर आज आए थे।’ बडों के संदभण में हम कहते हैं कक ‘बडे भाई साहब आज
आए थे’ पर िोटों के संदभण में बोलते हैं कक ‘िोटा भाई आज आया था।’

भाषा के माध्यम से ल्जस प्रकार हम भौनतक धरातल के भलंग और वचि को अपिे ववचारबोध में
रूपांतररत कर लेते हैं, उसी प्रकार ‘भौनतक काल’ को भी हम ‘व्याकरखणक काल’ में बदल लेते हैं। यही
कारण है कक एक ओर ववगत घटिा को हम भत
ू काल से जोड सकते हैं और उसे वतणमािकाल की सीमा
में भी खींच सकते हैं। निम्िभलखखत वाक्यों से इस तथ्य की पल्ु ष्ट हो जाती है ः

भाषाप्रयोग भौनतक धरातल भावषक संदभण


1.(क) गोथवामी तल
ु सीदास जी िे रामचररतमािस की रचिा की थी। ववगत भत
ू काल
(ख) गोथवामी तल
ु सीदास जी िे रामचररतमािस की रचिा की है । ववगत वतणमािकाल
2.(क) िरे न्द्र एक साल बाद अमेररका जाएगा। भावी भववष्यत ् काल
(ख) िरे न्द्र एक साल बाद अमेररका जा रहा है । भावी वतणमािकाल

उपररभलखखत तथ्यों के आधार पर, हम कह सकते हैं कक संप्रेषण की दृल्ष्ट से भलंग, वचि, काल
आदद ववभभन्ि व्याकरखणक कोदटयों का आधार हमारा भावबोध होता है और वे भौनतक धरातल की
इकाइयां ि होकर भावषक थतर की संककपिात्मक इकाइयां होती हैं।

You might also like