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*शिवमानसपूजा*

सौवर्णे नवरत्नखण्ड रचिते पात्रे घत


ृ ं पायसा। भक्ष्यं पंिववधं पयोदचधयत
ु ं रम्भाफलं पानकम ्॥
िाकानामयत
ु ं जलं रुचिकरं कपरू खण्डोज्जज्जवलं। ताम्बल
ू ं मनसा मया ववरचितं भक्तत्या प्रभो स्वीकुरु॥

"मैंने नवीन रत्नजड़ित सोने के बततनों में घीयुक्त खीर, दध


ू , दही के साथ पााँच प्रकार के व्यंजन,
केले के फल, शबतत, अनेक तरह के शाक, कपरूत की सुगन्धवाला स्वच्छ और मीठा जल और
ताम्बूल ये सब मन से ही बनाकर आपको अर्पतत ककया है । भगवन ् आप इसे स्वीकार कीजजए।"

** क्तया भगवान शिव को अवपूत ककया गया नैवेद्य (प्रसाद) ग्रहर्ण करना िाहहए?
सजृ टि के आरम्भ से ही समस्त दे वता, ऋर्ि-मनु न, असरु , मनटु य र्वभभन्न ज्योनतभलिंगों,
स्वयम्भभू लंगों, मणिमय, रत्नमय, धातम
ु य और पार्थतव आदद भलंगों की उपासना करते आए हैं।
अन्य दे वताओं की तरह भशवपज
ू ा में भी नैवेद्य ननवेददत ककया जाता है । पर भशवभलंग पर चढे
हुए प्रसाद पर *िण्ड* का अर्धकार होता है ।

** भगवान शिव के मख
ु से ननकले हैं िण्ड
गिों के स्वामी *चण्ड* भगवान भशवजी के मख ु से प्रकि हुए हैं। ये सदै व भशवजी की आराधना
में लीन रहते हैं और *भत
ू -प्रेत, र्पशाच* आदद के स्वामी हैं। *चण्ड* का भाग ग्रहि करना यानी
*भत
ू -प्रेतों का अंश खाना* माना जाता है ।

** शिव-नैवेद्य ग्राह्य और अग्राह्य


भशवपुराि की *र्वद्येश्वरसंदहता* के २२वें अध्याय में इसके सम्बन्ध में स्पटि कहा गया है —

िण्डाचधकारो यत्रास्स्त तद्भोक्ततव्यं न मानवै:। िण्डाचधकारो नो यत्र भोक्ततव्यं तच्ि भस्क्ततत:॥

"जहााँ चण्ड का अर्धकार हो, वहााँ भशवभलंग के भलए अर्पतत नैवेद्य मनटु यों को ग्रहि नहीं करना
चादहए। जहााँ चण्ड का अर्धकार नहीं है , वहााँ का भशव-नैवेद्य मनुटयों को ग्रहि करना चादहए।"

** ककन शिवशलंगों के नैवेद्य में िण्ड का अचधकार नह ं है ? अत: ग्रहि करने योग्य है —

ज्जयोनतशलिंग — बारह ज्योनतभलिंगों (सौराटर में सोमनाथ, श्रीशैल में मस्ललकाजुन


ू , उज्जैन में
महाकाल, ओंकार में परमेश्वर, दहमालय में केदारनाथ, डाककनी में भीमिंकर, वारािसी में ववश्वनाथ,
गोमतीति में त्र्यम्बकेश्वर, र्चताभूभम में वैद्यनाथ, दारुकावन में नागेश्वर, सेतुबन्ध में रामेश्वर
और भशवालय में द्युश्मेश्वर) का नैवेद्य ग्रहि करने से सभी पाप भस्म हो जाते हैं।
भशवपुराि की *र्वद्येश्वरसंदहता* में कहा गया है कक *काशी र्वश्वनाथ* के स्नानजल का तीन
बार आचमन करने से शारीररक, वार्चक व मानभसक तीनों पाप शीघ्र ही नटि हो जाते हैं।

स्वयम्भूशलंग — जो भलंग भक्तों के कल्याि के भलए स्वयं ही प्रकि हुए हैं, उनका नैवेद्य ग्रहि
करने में कोई दोि नहीं है ।

शसद्धशलंग — जजन भलंगों की उपासना से ककसी ने भसद्र्ध प्राप्त की है या जो भसद्धों द्वारा


प्रनतजटठत हैं, जैसे — *काशी* में शुक्रेश्वर, वद्
ृ धकालेश्वर, सोमेश्वर आदद भलंग दे वता-भसद्ध-
महात्माओं द्वारा प्रनतजटठत और पूजजत हैं, उन पर चण्ड का अर्धकार नहीं है , अत: उनका नैवेद्य
सभी के भलए ग्रहि करने योग्य है ।

बार्णशलंग (नमूदेश्वर) — बािभलंग पर चढाया गया सभी कुछ जल, बेलपत्र, फूल, नैवेद्य, प्रसाद
समझकर ग्रहि करना चादहए।

*जजस स्थान पर (गण्डकी नदी) शालग्राम की उत्पर्ि होती है , वहााँ के उत्पन्न भशवभलंग,
पारदभलंग, पािािभलंग, रजतभलंग, स्वितभलंग, केसर के बने भलंग, स्फदिकभलंग और रत्नभलंग* — इन
सब भशवभलंगों के भलए समर्पतत नैवेद्य को ग्रहि करने से चान्रायि व्रत के समान फल प्राप्त
होता है ।

*भशवपुराि* के अनुसार *भगवान भशव की मूनततयों में चण्ड का अर्धकार नहीं है , अत: इनका
प्रसाद भलया जा सकता है ।

** प्रनतमासु च सवातसु न, चण्डोऽर्धकृतो भवेत ्॥


जजस मनुटय ने भशव-मन्त्र की दीक्षा ली है , वे सब भशवभलंगों का नैवेद्य ग्रहि कर सकता है । उस
भशवभक्त के भलए यह नैवेद्य *‘महाप्रसाद’* है । जजन्होंने अन्य दे वता की दीक्षा ली है और
भगवान भशव में भी प्रीनत है , वे ऊपर बताए गए सब भशवभलंगों का प्रसाद ग्रहि कर सकते हैं।

** शिव-नैवेद्य कब नह ं ग्रहर्ण करना िाहहए ?


भशवभलंग के ऊपर जो भी वस्तु चढाई जाती है , वह ग्रहि नहीं की जाती है । जो वस्तु भशवभलंग
से स्पशत नहीं हुई है , अलग रखकर भशवजी को ननवेददत की है , वह अत्यन्त पर्वत्र और ग्रहि
करने योग्य है ।

*जजन भशवभलंगों का नैवेद्य ग्रहि करने की मनाही है वे भी शालग्राम भशला के स्पशत से ग्रहि
करने योग्य हो जाते हैं।*
** शिव-नैवेद्य की महहमा
जजस घर में भगवान भशव को नैवेद्य लगाया जाता है या कहीं और से भशव-नैवेद्य प्रसाद रूप में
आ जाता है वह घर पर्वत्र हो जाता है । आए हुए भशव-नैवेद्य को प्रसन्नता के साथ भगवान
भशव का स्मरि करते हुए मस्तक झुका कर ग्रहि करना चादहए।

— आए हुए नैवेद्य को ‘दस ू रे समय में ग्रहि करूाँगा’, ऐसा सोचकर व्यजक्त उसे ग्रहि नहीं करता
है , वह पाप का भागी होता है ।

— जजसे भशव-नैवेद्य को दे खकर खाने की इच्छा नहीं होती, वह भी पाप का भागी होता है ।

— भशवभक्तों को भशव-नैवेद्य अवश्य ग्रहि करना चादहए क्योंकक भशव-नैवेद्य को दे खने मात्र से
ही सभी पाप दरू हो जाते है , ग्रहि करने से करो़िों पुण्य मनुटय को अपने-आप प्राप्त हो जाते हैं।

— भशव-नैवेद्य ग्रहि करने से मनुटय को हजारों यज्ञों का फल और भशव सायुज्य की प्राजप्त


होती है ।

— भशव-नैवेद्य को श्रद्धापूवक
त ग्रहि करने व स्नानजल को तीन बार पीने से मनुटय ब्रह्महत्या
के पाप से मुक्त हो जाता है ।

*मनटु य को इस भावना का कक भगवान भशव का नैवेद्य अग्राह्य है , मन से ननकाल दे ना


चादहए* क्योंकक 'कपरूत गौरं करुिावतारम ्' भशव तो सदै व ही कल्याि करने वाले हैं। जो *‘भशव’*
का केवल नाम ही लेते है , उनके घर में भी सब मंगल होते हैं

सुमंगलं तस्य गह
ृ े र्वराजते। भशवेनत विैभर्ुत व यो दह भािते॥

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