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डे ण डेट
डे ण डेट
मास नक्षत्र में चन्द्र नक्षत्र तक गिनती करने पर जो संख्या प्राप्त हो, उसे तिथि कहा जाता है । जब
चन्द्रमा सूर्य से 12 अंश आगे पहुंचता है । तब एक तिथि पूर्ण हो जाती है । इस प्रकार 12 - 12 अंश की
एक तिथि होने से जब चन्द्रमा सर्य
ू से 360 अंश आगे जा पहुंचता है , तब 30 तिथियां परू ी हो जाती है ।
सूर्य से 360 के आगे 180 अंश की दरू ी पर चन्द्रमा के पहुंचने पर एक पक्ष पूरा होता है । पूर्णिमा की
समाप्ति पर चन्द्रमा सर्य
ू से 180 अंश आगे होता है तथा अमावस्या की समाप्ति पर 360 अंश आगे
पहुंच जाता है इसके बाद उसके संचरण की पन
ु रावत्ति
ृ होने लगती है ।
तारीख अथवा वार 24 घण्टे अर्थात 60 घटी के होते हैं, परन्तु तिथि सदै व 24 घण्टे की नहीं होती ।
तिथि में वद्धि
ृ तथा क्षय की प्रक्रिया भी चलती रहती है , जिसके कारण कभी-कभी एक तिथि दो वारों
की होती है कभी एक तिथि का लीप भी हो जाता है । यह स्थिति नक्षत्र तथा विषकुम्भादि योगों की
(जिनका उल्लेख आगे किया जायेगा) भी होती है । इसका मुख्य कारण यह है कि तारीख वार आदि
सौर-मास से होते हैं, जिसमें कि 24 घण्टे का दिन होता है परन्तु तिथि वार आदि चान्द्रमास से होते
हैं। एक चन्द्र दिन 24 घण्टे का होता है । अतः सौर दिन एवं चान्द्र दिन में 54 मिनट अथवा लगभग
2-1/4 घडी का अन्तर रहता है ।
चान्द्र मास 29-1/2 दिन का तथा चान्द्र वर्ष 354 दिन का होता है , जब की सौर दिन 30 घण्टे का एवं
सौर वर्ष 365 1/4 दिन का होता है । सर्य
ू तथा चन्द्रमा के दिन-मानों में अन्तर रहने के कारण ही तिथि
नक्षत्र तथा योग आदि में घटा बढ़ी होती रहती है ।
नाम - तिथियों की कुल संख्या 30 मानी गयी है । इनमें 15 तिथियां शुक्ल पक्ष की तथा 15 तिथियां
कृष्ण पक्ष की होती है । दोनों पक्षों की प्रारम्भिक चौदह तिथियों के नाम समान है । केवल पन्द्रहवीं
तथा तीसवीं तिथि के नामों में अन्तर पाया जाता है । नामों के क्रम इस प्रकार है ।
1. प्रतिपदा 2. द्वितीया, 3. तत
ृ ीया, 4.0 चतुर्थी, 5. पन्चमी,
11. एकादशी, 12. द्वादशी, 13, त्रयोदशी 14 चर्तुदशी तथा 15. शुक्ल पक्ष की अन्तिम तिथि
पूर्णिमा या पौर्णमासी एवं कृष्ण पक्ष की अन्तिम तिथि अमावस्या कही जाती है । ज्योतिष शास्त्र में
तिथियों की गणना शक्
ु ल पक्ष की प्रतिपदा से आरम्भ होती है । कहीं उल्लेख करते समय इन तिथियों
को शब्दों में न लिखकर अंको के रूप में व्यक्त करने की प्रथा है । प्रतिपक्ष से चर्तुदशी तक की
तिथियों को 1 से 14 अंको के रूप में तथा पूर्णिमा को 15 एवं अमावस्या को 30 के अंक के रूप में
लिखा जाता है ।
द्वितीया
2. ब्रहमा
3 तत
ृ ीया गौरी
4 चतुर्थी गणेश
5 पंचमी शेषनाग
6 षष्ठी कार्तिकेय
7 सप्तमी सर्य
ू
8 अष्टमी शिव
9 नवमी दर्गा
ु
11 एकादशी विश्व दे वा
12 द्वादशी विष्णु
13 त्रयोदशी कामदे व
15 पूर्णिमा चन्द्रमा
16 अमावस्या पित्र
अमावस्या के भेद :
अमावस्या तिथि के तीन भेद माने गये हैं। उसके अनुसार प्रातःकाल से आरम्भ होकर, रात्रि तक रहने
वाली अमावस्या को सिनीवाली चतुर्द शी तिथि से बिद्व को दर्श एवं प्रतिपदा से बिद्ध को क्रुद्ध कहा
जाता है ।
तिथियों की संज्ञाये:
नन्दादि तिथियां -
सिद्ध तिथियां -
मंगलवार की तत
ृ ीया, अष्टमी और त्रयोदशी, बुधवार की द्वितीया सप्तमी और द्वाद्वशी, गुरूवार की
पंचमी दशमी और पूर्णिमा, शुक्रवार की प्रतिपदा, षष्टी और एकादशी तथा शनिवार की चतुर्थी, नवमी
और चतर्द
ु शी ये तिथियां सिद्ध संज्ञक होती है । इनमें किये गए कार्य सिद्धिदायक होते हैं सिद्धा तिथि
सब दोषों का नाश करती है ।
अधमा तिथियां -
रविवार तथा मंगलवार को नन्दा - सोमवार तथा शुक्रवार को भद्रा - बद्ध
ु वार को जया - गुरूवार को
रिक्ता - तथा शनिवार को पूर्णत - संज्ञक- तिथियां अधमा कही जाती है । इनमें किये गये कार्य नष्ट
(असफल) हो जाते हैं।
पक्षरन्ध्र तिथियां -
चतुर्थी, षष्ठी, अष्टमी, नवमी द्वादशी तथा चतुदर्शी ये तिथियां पक्षरन्ध्र संज्ञक है । इन तिथियों में
विवाह, उपनयन, सीमान्त, अग्नि प्राशन आदि शभ
ु -कृत्य करना वर्जित है ।
चैत्र मास में दोनों पक्षों की अष्टमी तथा नवमी, वैशाख में दोनों पक्षों की द्वादशी ज्येष्ठ में कृष्ण
पक्ष की चतुर्द शी तथा शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी आषाढ में कृष्ण पक्ष की षष्टकी तथा शुक्ल पक्ष की
प्रतिपदा और द्वितीया आश्विन में दोनों पक्षों की दशमी तथा एकादशी, कार्तिक में कृष्ण पक्ष की
पंचमी तथा शुक्ल पक्ष की चतुर्द शी मार्गशीर्ष में दोनों पक्षों की सप्तमी और अष्टमी, पौष में दोनों
पक्षों की चतुर्थी और पंचमी, माघ में कृष्ण पक्ष की पंचमी तथा शुक्ल पक्ष की षष्ठी एवं फाल्गुन में
कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तथा शुक्ल पक्ष की तत
ृ ीया ये सब मास शून्य संज्ञक होती है इनमें किये गए
कार्य असफल होते हैं। अतः इन्हें त्याज्य समझना चाहिए।
विषघटी योग -
मन्वादि तिथियां -
उक्त तिथियों में क्रमशः एक-एक मन्वतर का प्रारम्भ होता है । अतः ये मांगलिक कार्यों में वर्जित
मानी गयी है ।
युगदि तिथियां -
वैशाख
शुक्ला 3 (युगादि)
-
ज्येष्ठ
शुक्ला 15 (मन्वादि)
-
आषाढ
शुक्ला 10 15 (मन्वादि)
-
कार्तिक - शक्
ु ला 12, 15 (मन्वादि) शक्
ु ला 9
माघ - शक्
ु ला 7 (मन्वादि) कृष्णा 30
युगादिफाल्गन
ु - शुक्ला 15 (मन्वादि)
वार:-
जैसा कि पहले बताया जा चुका है - आकाश मण्डल में शनि, गुरू, मुगल, रवि, शुक्र, बुद्ध तथा चन्द्रमा इन
सातों ग्रहों की कक्षाऐं क्रमशः एक दस
ू री से नीचे है ।
एक दिन-रात्रि में 24 होराऐं होती है , अर्थात ् प्रत्येक होरा एक घण्टे के बराबर होती है प्रकाशत्तर से होरा
शब्द घण्टे का पर्याय है । प्रत्येक होरा का स्वामी नीचे की कक्षा के क्रम से एक-एक ग्रह माना गया
है ।
सष्टि
ृ के प्रारम्भ में सर्वप्रथम सूर्य दिखाई दे ता है , अतः पहली होरा का स्वामी सूर्य माना गया है । इसी
कारण सष्टि
ृ के पहले दिन का नाम सूर्यवार, रविवार अथवा आदिव्यवार हुआ।
पहली होरा के बाद अन्य होराओं के स्वामी क्रमशः शुक्र, बुध, चन्द्रमा, शनि, गुरू तथा मंगल हुए।
आठवीं होरा का स्वामी पन
ु ः सर्य
ू हुआ तथा पर्वा
ू क्त क्रम से नवीं का शक्र
ु दशमी का बध
ु , ग्यारहवी का
चन्द्र, बारहवीं का शनि, तेरहवीं का गुरू तथा चैदहवीं का मंगल हुआ। पन्द्रहवीं का होरा का स्वामी का
स्वामी पुनः सूर्य तथा सोलहवीं का शुक्र, सत्रहवीं का बुध, अठारहवीं का चन्द्र उन्नीसवीं का शनि, बीसवीं
का गरू
ु तथा इक्कीसवीं का मंगल हुआ। बाईसवीं होरा का स्वामी पन
ु ः सर्य
ू , तेईसवीं का शक्र
ु तथा
चैबीसवीं का बुध हुआ। इस प्रकार पहले दिन की पहली होरा सूर्य से आरम्भ हुई तथा चैबीसवीं होरा
बुध पर समाप्त हुई।
पूर्वोक्त क्रम से दस
ू रे दिन की पहली होरा का स्वामी चन्द्रमा हुआ, अतः सष्टि
ृ को दस
ू रे दिन का नाम
चन्द्रवार रखा गया। इसी क्रमानुसार तीसरे दिन की पहली होरा का स्वामी मंगल होने से उस दिन का
नाम मंगलवार हुआ। चैथे दिन की पहली होरा का स्वामी बध
ु होने से उस दिन का नाम बध
ु वार
हुआ। पांचवे दिन की पहली होरा का स्वामी गुरू होने से दिन का नाम गुरूवार हुआ। छठे दिन की
पहली होरा का स्वामी शुक्र होने से उस दिन का नाम शुक्रवार तथा सातवे दिन की पहली होरा का
स्वामी शनि होने से उस दिन का नाम शनिवार रखा गया।
उक्त क्रमानुसार आंठवे दिन फिर पहली होरा सूर्य की आ जाने से उसे पुनः रविवार कहा गया। इस
प्रकार क्रमशः सभी ग्रहों की होराओं की परु नावित्ति
ृ होते रहने के कारण वारों का क्रम इस प्रकार
निर्धारित हुआ है ।
अन्य ग्रहों के धनत्व रूप न होने के काराण ् उनके वार नहीं होते। सात वारों के इन समह
ू को सप्ताह
के नाम से अभिरित किया जाता है ।
वारों के स्वामी -
रविवार स्थिर सेामवार चर, मंगलवार उग्र, बुधवार सम, गुरूवार लघु तथा शुक्रवार मद
ृ ु तथा शनिवार
तीक्ष्ण संज्ञक है ।
वार प्रवत्ति
ृ -
गर्ग आदि आचार्यों का कथन है कि दिनमान तथा रात्रि के अर्द्धमान में 15 जोड़ दे ने से वार प्रवत्ति
ृ
होती है । प्रचलित पद्धति के अनुसार सर्यो
ू दय से दस
ू रे सर्यो
ू दय तक वार रहता है । अर्थात ् नये वार का
प्रवेश सूर्योदय से होता है । अंग्रेजी पद्धति में तारीख तक वार की प्रवत्ति
ृ रात्रि के 12 बजे बाद होती है ।
होरा -
होरा शब्द अहोरात्र का संक्षिप्त रूप है । अहरोत्र शब्द के प्रथम तथा अन्तिम अक्षर का लोप करके
मध्य के दो अक्षरों को ग्रहण कर होरा शब्द बना है । अहोरात्र का शाब्दिक अर्थ है , दिन-रात परन्तु
होरा शब्द घण्टे के पर्याय में प्रयुक्त होता है । जैसे एक दिन रात में 24 घण्टे होते है । इसी प्रकार दिन
रात में 24 होराऐं होती है । होरा शब्द को प्रभाव अथवा सामथ्र्य के अर्थ में भी लिया जाता है । काल
होरा - सर्यो
ू दय से गत नाडि़यों को दन
ू ा कर उनमें 5 का भाग दें , शेष को छोड़ दें । फिर 7 का भाग दें ।
जो लब्धि आये, उसे काल होरा, कहते है । सूर्य, शुक्र, बुद्ध चन्द्र, शनिः गरू
ु तथा मंगल इस क्रम में काल
होरा होती है । जिस दिन जो वार हो उस दिन पहली होरा उसी ग्रह की होती है तथा बाद की होराऐं
क्रमशः अन्य ग्रहों की होती है । प्रत्येक होरा ढाई-ढाई घटी अर्थात एक एक घण्टे की होती है ।
होरा फल -
सौम्यवार की होरा सौम्यफल दे ने वाली होती है । जिस वार की होरा में जो कर्म करने को कहा गया है
उस वार की होरा में वहीं कर्म करना चाहिए। सूर्य की होरा शन
ू य (उग्र) चन्द्र की होरा श्रेष्ठ मंगल की
होरा क्रोध, बध की होरा सम, गुरू की होरा तीव्र, शुक्र की होरा अति शीघ्र तथा शनि की होरा विलम्ब से
फल दे ने वाली होती है ।
होरा चक्र -
1 घं018 मि0 गु0 शु0 रा0 सू0 चं0 मं0 बु0
रविवार को चतुर्थ, सोमवार को सप्तम, मंगलवार को द्वितीय, बुधवार को पंचम, गुरूवार को अष्टम,
शुक्रवार को तत
ृ ीय तथा शनिवार को पष्ठम यामार्द्ध में वार-बेला होती है । वार-बेला में हर प्रकार के
शुभ कर्म वर्जित है । इस क्रम के प्रत्येक वार में वेला राहु की होती है ।
नक्षत्र-
जब चन्द्रमा सुर्या से 13-1/4 अंश की दरुू ी पर हो तो एक नक्षत्र होता है । प्रत्येक नक्षत्र लगभाग 60
घटी का होता है । नक्षत्र की कुल संख्या 27 होती है । परन्तु अभिजित नामक एक अटठाईसवाँ नक्षत्र
भी मान्य है । उत्तराषाडा नक्षत्र की अन्तिम 15 तथा श्रवण के प्रराम्भ की 4 घटी इस प्रकार कुल 19
घटीयाँ के मान वाला अभिजित नक्षत्र माना गया है । अभिजित नक्षत्र सभी शुभ कार्यो के लिए
प्रशस्त कहा गया है । अभिजित समेत कुल नक्षत्रों की संख्या 28 हो जाती है नक्षत्रों के नाम तथा
क्रम का उल्लेख पहले किया जा चुका है यहाँ नक्षत्र और उनके स्वामियों के नाम दिये जा राहे है ।
नक्षत्र स्वामी
२ भरिणी काल
३ कृत्रिका अग्नि
४ रोहणी ब्रहत्रा
५ मग
ृ षिरा चन्द्रमा
६ आद्रा रूद्र
७ पुनर्वसु अदिति
८ पुष्य बह
ृ स्पति
९ आष्लेषा सार्प
१० मघा पितर
११ पूर्वाफाल्गन
ु ी भम
१२ उत्तराफाल्गन
ु ी अर्यमा
१३ हस्त सुर्या
१६ विषाखा शक्रग्नि
१७ अनुराघा मित्र
१८ ज्येष्ठा इन्द
२० पूर्वाशाडा जल
२१ उत्तराषडा विष्वदे वा
२२ अभिजित ब्रहमा
२३ श्रवण विष्णु
२४ घनिष्ठा वसु
२५ शतभिषा वरूण
२६ पुर्वाभ्रदापद्र अर्जेकपाद
२७ उत्तराभ्रदापद्र आटिर्बुघ्य
२८ रे वती पूष
टिप्पणी
उत्तराफाल्गन
ु ी उत्तराषडा उत्तराबह्द्रपद और रोहणी-ये नक्षत्र तथा रविवार घव
ु तथा स्थिर संज्ञक है ।
इनमें बीज-वपन भवन निमार्ण वाटिका -रोपण तथा शन्ति-कर्म आदि स्थिर-कर्म सिद्ध होते है ।
स्वाति पन
ु र्वसु श्रवण धनिस्टा और शतभिषा-ये नक्षत्र तथा सोमवार चर तथा ‘चल‘ संजक है । इनमें
हाथी आदि की सवारी तथा उघान-गमन आदि कार्य सुभ होते है ।
पूर्वाफाल्गुनी पव
ू ाषडा पर्वा
ु भाद्रपद भरणी तथा मघा-ये नक्षत्र तथा मंगलवार उग्र तथा क्रुर संज्ञक है ।
इनमें मारण ,अग्निदाह विष दे ना आदि सिद्ध होते है ।
विशाखा और कृत्रिका ये नक्षत्र तथा बुधवार ‘मिश्र तथा सघारण संज्ञक है । इनमें वष
ृ ोत्सर्ग आदि कर्म
सिद्ध होते है ।
हस्त अशिविनी पुष्य और अभिजित -ये नक्षत्र तथा गुरूवार श्रिप्र तथा लघु ‘संज्ञक है । इनमें
दक
ु ानदारी,स्त्री-परू
ु ष की मैत्री -ज्ञान आभष
ू ण तथा शिल्प-कर्म आदि सिद्ध होते है ।
मूल ,ज्येष्ठा आद्रा और आष्लेशा-ये नक्षत्र तथा शनिवार तीक्ष्ण‘ तथा ‘दारूण‘संज्ञक है । इनमे अदिचार
घात उग्र-कार्य तथा पशुओं का दमन आदि कर्म सिद्ध होते है ।
मूल,आश्लेषा ,विशाखा ,कृतिका पूर्वाफाल्गुनी, पुर्वशाढा,पुर्वाभाद्रपद भरणी तथा मघा-ये नक्षत्र अधोमुखी
संज्ञक है । इनमें कुआँ अथवा नीव खोदना शुभ होता है ।
आद्रा, पष्ु य ,श्रवण, धनिस्टा और शतभिषा -ये नक्षत्र उघ्र्वमुख‘ नक्षत्र है । इनमें इमारत का उपरी भाग
बनाना आदि उघ्र्वमुख कार्य शुभ होता है ।
1) अन्घलोचन‘ नक्षत्र
रोहणी,पुष्य, उत्तराफाल्गन
ु ी, विशाखा , घानिष्ठा, और रे वती ।
2) मन्दोलन नक्षत्र
मग
ृ शिरा ,आशलेशा, हस्त, अनुराघा, उत्तराषाढा ,शतभिषा और अशिविनी
पुनर्वसु,पुर्वेफाल्गुनी,स्वाति,मूल,श्रवण,उत्तराभाद्रपद और कृतिका
टिप्पणी
नक्षत्रों की उक्त संज्ञाओं का विचार चोरी आदि के प्रश्न बनाते समय किया जाता है ।
यथा इस योग में कोई वस्तु खो गाई हो तो उसका परिणाम यह होगा कि तीन वस्तए
ु ं खोयंगे और
यदि कोई शुभ हो तो वह तीन बार शुभ होगा । इस प्रकार हानि लाभ तथा व्याधि आदि में इस का
ताीन गुना फल होता है ।
पंचक‘सज्ञक नक्षत्र
अभिजित मुहर्त का फल
जब मघ्याहन के शक्र
ु के मल
ू मे छाया आ जाती है तब एक घडी का (अभिजित मह
ु र्त होता है इस
योग मे शिशु का जन्म होना राज कारक होता है तथा इसमे व्यावसाय करने से पर्याप्त लाभ होता है
सूर्य के नक्षत्र से 4 तथा 3 इस प्रकार गिनने से अन्तंरग तथा बहिरं ग नक्षत्र होते है । जैसे नक्षत्र हो
वैसा ही कर्म करना चहिये । यथा-अन्तरग नक्षत्र मे वाहन लाना तथा बहिरं ग मे बाहर भेजना शभ
ु
होता है ।
प्रत्येक नक्षत्र के चार भागो मे बाँटा जाता है । नक्षत्र के प्रत्येक के चार भाग को चरण कहते है तथा
प्रथम-चरण दित
ू ीय चरण तत
ृ ीय चरण चतुर्थ चरण । इस प्रकार 27 नक्षत्रो के 108 भाग होते है ।
क्रमश 9 नक्षत्र चरणों की एक-एक राशी होती है । इस प्रकार 27 नक्षत्र से मिलकर 12 राशीयाँ बनती है
। ( राशीयाँ का उल्लेख आगे किया जयेगा)
नक्षत्र -दर्शन
पन
ु र्वसु मग
ृ शिरा आद्रा ज्येष्ठा अनरु ाघा हस्त पर्वा
ू षाढा उत्तराषढा और मल
ू इन 9 नक्षत्रो के तारे
आकाश मे दक्षिण की और दिखाई दे ती है ।
कृतिका रोहणी पुष्य चित्रा आष्लेश रे वती शतभिषा धनिष्टा और श्रवण इन 9 नक्षत्रो के तारे अकाश के
मध्य मे दिखायी दे ते है , अश्वनी भरणी स्वाति विषाखा पूर्वाफल्गन
ु ी उत्तराफल्गन
ु ी मघा पुर्वभाद्रपद- इन
9 नक्षत्र के तारे आकाश में उत्तर की और दिखाई दे ते है ।
गणतान्त-योग
मूल मघा तथा अशविनी-इन नक्षत्रो के प्रराम्भ की 2 घडी एंव आश्लेषा ज्येष्ठा और रे वती -इन नक्षत्रो
के अन्त की 2 घडी- इस प्रकार कुल 4 घडी का ( गणतान्त )योग आदि होता है इसमे शभ
ु कार्य वर्जित
है
नक्षत्र-चरण
प्रत्येक नक्षत्र चार-चार चरणो (हिस्से) मे विभाजित किया गया है तथा प्रत्येक चरण का एक-एक अक्षर
निष्चित किया जाता है -जो निम्ननुसार है
1 अशविनी चू चे चो ला
2 भरणी ली लू ले लो
3 कृतिका आ ई उ ए
4 रोहणी ओ , वा , वी , वू
5 मग
ृ शिरा वे , वो , का , की
6 आद्रा कू , घ , ड , छ
7 पुनर्वसु के , को , हा , हो
8 पुष्य हू , हे , हो , डा
9 आष्लेशा डी , डू , डे , डो
10 मघा मा , मी , मू , मे
11 पूर्वफाल्गुनी मो , टा , टी , टू
12 उत्तफाल्गुनी टे , टो , पा , पी
13 हस्त यू , ष , ण , ट
26 पर्वा
ू भाद्रपद से, सो , दा , दी
28 रे वती दे , दो , चा , ची
(1) किसी जातक का जन्म जिस नक्षत्र के जिस चरण मे होता है उसी चरण के अक्षर को उसके नाम
के अदि मे रखा जाता है जैसे- किसी जातक का विशाखा नक्षत्र के चतुर्थ चरण मे जन्म हुआ हो तो
उसका जन्म नाम तोताराम रखा जायेगा आदि ।