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JA Handbook Hindi
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अनक्रु माणिका
दिनचर्या ............................................................................................................. 3
दनर्यमावली ......................................................................................................... 4 प्रथम
सत्र - प्रस्तावना, प्रबंधन और दनर्यमावली .......................................................... 5 दितीर्य सत्र -
1
ृ ीर्य सत्र - पदवत्र नाम
हदर नाम और गुरु परंपरा के साथ हमारा सम्बन्ध ....................................... 7 तत
जपने के स्तर ....................................................................... 10 चतुथथ सत्र - अपने जप का
मूलर्याकंन ........................................................................ 12 पचं म सत्र - भदि में जप की
भूदमका/ पदरणामी भावनाए/ जप करते समर्य सोचना ............. 14 षष्ठं सत्र - ६४(+) माला जप करने की तर्यारी
और अपना मन ....................................... 16 सप्तं सत्र - क्षमा और नम्रता
..................................................................................... 19 अष्टं सत्र - प्रोत्साहन िेने वाले
शब्ि ........................................................................... 22 नवमं सत्र - ६४+ जप का व्र्यदिगत
मूलर्याकंन ........................................................... 24 िशं सत्र - कृ तज्ञता
............................................................................................... 25 एकािश सत्र - पत्र
दलखने की तैर्यारी ........................................................................ 27 िािश सत्र – धन्र्यवाि,
साक्षात्कार और प्रदतदिर्याएँ
परिशिष्ट
हरे कृ ष्ण महा मन्त्र के जप का स्पष्टीकरण .................................................................. 29
प्राथथना – हरे कृ ष्ण महा मन्त्र .................................................................................. 31 ‘ हरे’,
‘कृ ष्ण’ और ‘राम’ का अथथ ............................................................................ 32 असावधान र्या
र्यादं त्रकी जप .................................................................................... 34 ब्रह्म मुहूतथ पर जप
................................................................................................. 35
दिनचर्या
इस्क ान जहू ु
सोमवार, १०/९/२०१८
प्रथम सत्र - प्रस्तावना, प्रबंधन और दनर्यमावली
दितीर्य सत्र - हदर नाम और गुरु परंपरा के साथ हमारा सम्बन्ध
मंगलवार, ११/९/२०१८
ृ ीर्य सत्र - पदवत्र नाम जपने के स्तर
तत
चतुथथ सत्र - अपने जप का मूलर्याकं न
पंचम सत्र - भदि में जप की भूदमका/ पदरणामी भावनाए/ जप करते समर्य सोचना षष्ठं
सत्र - ६४(+) माला जप करने की तर्यारी और अपना मन सप्तं सत्र - क्षमा और नम्रता
अष्टं सत्र - प्रोत्साहन िेने वाले शब्ि
बुधवार, १२/९/२०१८
६४(+) माला जप करने का दिन
2
नवमं सत्र - ६४+ जप का व्र्यदिगत मूलर्याकं न
दिप्पदणर्याँ:………………………………………………………………………………………………….
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[सहभाग लेने वाले भिों के सुदवधानुसार दिनचर्या में बिल हो सकता है।]
दनर्यमावली
१. हम एक साथ दमलकर गम्म्भतापुवथक जप, कीतथन, प्रसाि सेवा ई. सभी कार्यो मे सहभाग लेंगे ।
५. हम कोसथ मे सुनी हुई गुह्य बात को कोसथ के िौरान और उसके बाि भी गुह्य रखगें े ।
3
७. हम दवषर्यों और व्र्यवहार पर चचा करेंगे, ना दक व्र्यदि दवशेष की ।
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प्रथम सत्र
प्रस्तावना, प्रबधंन औि ननयमावली
1. स्वागत
[श्रीमद् भगवद् गीता र्यथा रूप
१०.२५] यज्ञानाां जप यज्ञोऽस्मि समस्त र्यज्ञों में, मैं पदवत्र नाम का जप हू ।
ँ
र्यज्ञ का अथथ है ____________________________________________________________________
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मै अन्र्योंको असुदवधा दकर्ये बगरै एवं मेरी सेवाओ ं की दजम्मेवारी दनभाते हुए, जप करते समर्य______________
______________________________________________________ का त्र्याग (र्यज्ञ) करूगँ ा/करुँ गी।
[कृ ष्ण ग्रन्थ के ७०वे अध्र्यार्य में श्रील प्रभुपाि कहते है]
“राधा कृ ष्ण के शाश्वत रूप का ध्र्यान करना और हरे कृ ष्ण महा मन्त्र का जप करने में कोई भेि नहीं है।”
3. जप और कीतथन का अथथ
ृ दसन्धु, अध्र्यार्य ९, जप]
[भदि रसामत
दकसी भी मन्त्र का मंि स्वर में उच्चारण करने को जप कहते है , और उसी मन्त्र का उच्च स्वर में उच्चारण करने को
कीतथन कहते है। उिाहरण के दलए, जब महा-मन्त्र का उच्चारण, अपने आप को सुनाई िेने वाले बहुत मंि स्वर में दकर्या
जाता है तो वह जप कहलाता है। जब उसी मंतर् का उच्चारण उच्च स्वर में िसू रों को सुनाई िेने के दलए करते है तो उसे
कीतथन कहा जाता है। महामन्त्र का प्रर्योग जप तथा कीतथन में भी दकर्या जा सकता है। जप व्र्यदिगत लाभ हेत ु दकर्या
जाता है, दकन्तु जब कीतथन दकर्या जाता है तो र्यह िसू रों के लाभ के दलए होता है, जो कोई भी सुनता है ।
ृ ि
[श्रीमद् भागवद् २.१.२ पर प्रवचन – वन ् ावन, १७ माचथ, १९७४]
“दजस प्रकार हम खोल और करताल से कीतथन करते है , र्यह भी कृ ष्ण-कीतथन है...र्यदि आप कृ ष्ण के बारे में ग्रन्थ
दलखते है, र्यदि आप कृ ष्ण के बारे में ग्रन्थ पढ़ते है, र्यदि आप कृ ष्ण के बारे में बाते करते है , आप कृ ष्ण का चचतन करते है ,
आप कृ ष्ण की अचनथ ा करते है, आप कृ ष्ण के दलए पकाते है, आप कृ ष्ण के दलए खाते है – तो र्यह कृ ष्ण-कीतथन है”
4. प्रबंधन की आवश्र्यकतार्यें
*दिनचर्या *दिप्पदणर्या ँ और अनुबध
ं *माताओं के दलए कमरा/ प्रसाधन कक्ष
*दपने का पानी *जलिी सोना, जलिी उठाना
5. एक िसु रे की पहचान मेरा नाम .......................है अभी मैं........................र्यह अनुभव कर रहा हू ँ जप करना
मतलब...............
5
नहीं कहना चादहर्यें, “हे भगवान की शदि, हे कृ ष्ण, कृ पर्या मुझे धन िो, कृ पर्या मुझे एक सुनि ् र पत्नी िो, कृ पर्या मुझे
बड़ी मात्रा में अनुर्यार्यी िो, कृ पर्या मुझे प्रदतदष्ठत पि िो, कृ पर्या मुझे अध्र्यक्षता िो.” र्यह सब भौदतक लालसाएं है, हमें
इनसे िरू रहना चादहर्यें।”
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दितीर्य सत्र
हरि नाम औि गरुु पिंपिा के साथ हमािा सम्बन्ध
1. दकसी भी दरश्ते/ सम्बन्ध में सबसे पहला स्तर क्र्या होता हैं?
__________________________________________________________________________________ दरश्ता/
सम्बन्ध को बनाए ं रखने के दलए और उसे गहरा बनाने के दलए दकस बात की जरूरत हैं ?
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कृ ष्ण का पदवत्र नाम दिव्र्य रूप से आनंिमर्य हैं। क्र्योंदक वह स्वर्यं रसराज कृ ष्ण हैं , इसीदलए वह सभी प्रकार के
अध्र्याम्त्मक आशीवाि प्रिान करते हैं। कृ ष्ण का नाम पूणथ हैं, और र्यह सभी अध्र्याम्त्मक रसों का दवग्रह है। र्यह कोई भी
अवस्था में भौदतक नाम नही ं है, और र्यह स्वर्यं कृ ष्ण से दकसी भी क्षमता में कम शदिशाली नही ं हैं। क्र्योंदक कृ ष्ण का नाम
भौदतक गुणों से िदू षत नही ं होता, इसीदलए उसका मार्या के साथ दमलने का कोई सवाल ही नही ं उठता। कृ ष्ण का नाम
हमेशा मुि और अध्र्याम्त्मक है, इसीदलए प्रकृ दत के दनर्यमोंसे कभी बद्ध नही ं हो सकता। ऐसा इसीदलए हैं क्र्योंदक कृ ष्ण
और कृ ष्ण के नाम अदभन्न हैं।
“इस कदलर्युग में, भगवान के पदवत्र नाम, हरे कृ ष्ण महा-मन्त्र ही भगवान कृ ष्ण का अवतार हैं। पदवत्र नामों का जप
करने मात्र से, व्र्यदि सीधे भगवान के साथ संग करता हैं। जो कोई भी इसे करेगा दनदित ही पार हो जार्येगा।
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नव दवधा भदि में सबसे महत्वपूणथ अंग भगवान के नामों का सतत जप करना र्यह हैं। अगर कोई ऐसे करता , िस नाम
अपराधों से बचता है, वह बहुत ही आसानी से सबसे मुलर्यवान भगवत् प्रेम प्राप्त कर सकता हैं।
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इस्कक ान का सिस्र्य
ृ , अन्त्र्य लीला, ४.१०३, तात्पर्यथ]
[चतै न्र्य चदरतामत
कृ ष्ण भावनामत
ृ आंिोलन के सिस्र्य एक दिन में कम से कम सोलह माला का जप करते हैं जो की दबना दकसी कदठनाईर्यों
से दकर्या जा सकता हैं, और उसके साथ ही उन्हें चतै न्र्य महाप्रभु के आंिोलन का प्रचार भगवद्गीता के सन्िश
े के
अनुसार करना चादहए।
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और पिाताप करते हुए की, “मैंने र्यह अपराध अनावश्र्यक दकर्या है र्या अज्ञानता वश हुआ हैं ,” तो पिाताप करते रहो और जप
करते जाओ...”
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जार्येंगे। तो उसी प्रकार, जब हम हरे कृ ष्ण मन्त्र का जप करते हैं, हमें समझना चादहए की कृ ष्ण इधर हैं। इसीदलए हमें
बहुत ही सतकथ और सम्मान पूवथक रहना हैं, लापरवाही नही ं करनी...र्यदि आप असावधान बनें, तो वह अपराध हैं...”
11
1.
चतु थ थसत्र
अपन े जप का मल्ूाकं न
दप्
रर्य व्र्यदि के साथ हमारा सम्बन्ध
आपके जीवन में दजनसे आप असि हो और प्रेम करते हो ऐसे एक व्र्यदि का नाम दलदखए
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जब आप अपने दप्रर्यकर के साथ हो तो दनम्नदलदखत दवकलपों में से कौनसा आपके दलए सबसे उपर्युि
हैं ? अ) मैं मेरे प्रेमी के साथ रहने से नर्रत करता हू ँ
आ) मुझे मेरे प्रेमी के साथ रहना पड़ता हैं
इ ) मुझे प्रेमी के साथ रहने को दमलता हैं
ई ) मै मेरे प्रेमी के साथ रहना चाहता/चाहती हू ँ
उ ) मै मेरे प्रेमी के साथ रहना पसंि करता हू ँ
12
4. जप की मात्रा और गुणवत्ता
[मोदनिंग वाक, - नवम्बर २, १९७५, नैरोबी] ब्रह्मानंि – जप के गुणवत्ता के बारे में मै र्यह पूछ
रहा हू ।
ँ कै से हम गुणवत्ता को सवोत्तम बनार्ये?
प्रभूपाि – गुणवत्ता, आप तभी समझ सकते हो जब आप उस गुणवत्ता के स्तर पर आओगे। गुणवत्ता के दबना वह प्रत्र्यक्ष
गुणवत्ता कै से समझ सकता है? आप आपके गुरु के आिेशोंका पालन करों, शास्त्रों का करों। र्यह आपका कतथव्र्य हैं।
गुणवत्ता हो र्या ना हो, उसे समझना आपका स्तर नही ं हैं। जब गुणवत्ता आएगी तब जबरिस्ती नही ं रहेगी। आपको जप करने
में रूदच रहेगी। उस समर्य आप इच्छा करोगे,”के वल सोलह माला ही क्र्यों? सोलह हजार क्र्यों नहीं?” उसे गुणवत्ता कहते हैं।
उसे गुणवत्ता कहते हैं। अभी बलपूवथक हैं। नही ं तो आप नही करोगे, इसीदलए कम से कम सोलह माला बतार्या हैं। लेदकन
जब आप उस गुणवत्ता के स्तर पर आओगे, तो अपने आप महसूस करोगे, “सोलह क्र्यों?सोलह हजार क्र्यों नहीं?” र्यह गुणवत्ता
हैं, स्वतः.
6. १६ शब्ि, ३२ अक्षर
ृ अदि लीला ७.७६
[कदलसंतरण उपदनषद्, श्री चतै न्र्य-चदरतामत
हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ इदत
षोडषकं नाम्ना ं कदल कलमश नाशनम्
।
नातः परतोपार्यः सवथ वेिेष ु िश्ृ र्यते ॥
हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे , हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – र्यह बत्तीस अक्षरों से बनार्यें सोलह नाम ही कदल र्युग के
कलमश को नष्ट करने का एक मात्र साधन हैं। सभी वेिों में र्यह िेखा गर्या हैं की अज्ञान के सागर को पार करने के दलए
पदवत्र नाम के जप करने के आलावा और कोई अन्र्य उपार्य नहीं हैं।
13
1.
त्रकी पद्धदत से के वल दससकी की आवाज दनकलती हैं। जप बहुत आसान हैं, लेदकन हमें उसका गभं ीरता से अभ्र्यास
करना चादहए।
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पं चम सत्र
अ. भनि म ें जप की भमू मका
ब. परििामी भावनाए
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14
क. जप कित े समय सोचना
15
1.
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षष्ठं सत्र
६४(+) माला जप किन े की तयािी औि अपना मन
3. जप की गदत
[श्रील प्रभुपाि, राधा वल्लभ िास को पत्र, ६ जनवरी, १९७२]
“जप को पुरे ध्र्यान से सवेरे, दवशेषतः ब्रह्म मुहूतथ में करना चादहए। मन्त्र के शब्ि पर पूरा ध्र्यान के म्न्ित करों, हर
एक नाम स्पष्ट रूप से उच्चारण करों और िमशः आपके जप की गदत स्वभादवकतः बढ़े गी। तेज जप करने के बारे में
ज्र्यािा चचता मत करों, सुनना ज्र्यािा महत्वपुणथ है।
प.पु.िानवीर गोस्वामी – मुझे र्याि हैं एक बार मैंने श्रील प्रभुपाि को तेज जप करने के बारे में पूछा था और उन्होंने कहा, “हाँ,
पर आपको सारे ३२ शब्ि सुनने चादहए”
4. कृ ष्ण सिैव हमारे साथ हैं (भुत र्या भदवष्र्य में नही)ं
हम वतथमान में रहकर एक बार एक मन्त्र का जप करके उसे सुनने की कोदशश करेंग े
एक बार एक मन्त्र का जप करने का प्रर्यास कीदजए। दपछले मन्त्र के बारे में चचता मत कीदजए – आने वाले मन्त्र पर
ध्र्यान मत कीदजए, दसफथ वतथमान मन्त्र को ध्र्यानपूवथक जप करने का प्रर्यास कीदजए।
5. मन
[श्री. भा. १०.८७.३३]
मन एक ऐसे अदववेकी घोड़े के सामान है दक जो लोग अपने इम्न्िर्य तथा प्राण को दनर्यदमत कर सकते हो लेदकन मन
को दनर्यंदत्रत नही ं कर सकते | मन का उिाहरण लेते हुए एक समानता को रदचए | इस प्रकार दलदखए, “मेरा मन
.............. समान है, क्र्योंदक
..................”
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6. मन, एक असह्कारी बच्चे के सामान
[श्रील प्रभुपाि भ. गी. प्रवचन, ४.२७, बम्बई, ६ अप्रैल, १९७४]
एक बच्चे के सामान। मन एक बच्चे के सामान है , कभी कु छ स्वीकार करेगा, कभी ठु करा िेगा। संकलप-दवकलप. र्यही
उसका कार्यथ हैं।
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प्रभुपाि – तो, मन को दनर्यंत्रण करना मतलब क्र्या? आपको के वल जप करना है और सुनना है, बस। आपकी जीभ के िारा
जप करना है, और उसका ध्वनी सुनना है, बस। मन का प्रश्न दकधर आता है?
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आप मन नही ं हो!
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1. वैष्णव अपराध भौदतक पापों से अदधक पापमर्य होता है [श्री भा. ४.२६.२४ तात्पर्यथ]
इसका दनष्कषथ र्यह है दक र्यदि कृ ष्ण भावनामत ृ भौदतक पापों से आच्छादित है , तो के वल हरे कृ ष्ण मंतर् के जप से उन
पापों को समाप्त दकर्या जा सकता है, लेदकन र्यदि कोई अपनी कृ ष्ण भावनामत
ृ को एक ब्राह्मण र्या वैष्णव के प्रदत अपराध
करके िदू षत करता है, वह तब तक पुनरूथप में नही ं आ सकता, जब तक वह उस अपराध का प्रार्यदित उन ब्राह्मण र्या
वैष्णव को प्रसन्न करके नही ं करता । िवु ास मुदन को इसी मागथ का अनुगमन करना पड़ा, इसीदलए वह अंबरीश
महाराज को शरणागत हुए। वैष्णव अपराध को, अपराध दकर्ये हुए वैष्णव के प्रदत मार्ी मागं ने के आलावा कोई अन्र्य माग थ
से नहीं सुलझा जा सकता।
2. क्षमा र्याचना
[श्री हदरनाम चचतामदण, अध्र्यार्य ४, साधू-चनिा का उपार्य]
“र्यदि कोई भ्रम और उन्माि में साधू/साध्वी की चनिा करता है , तो उसे उस साधू/साध्वी के चरणों में दगरकर फु ि फु ि
कर पिाताप करना चादहए; रोकर पूरी तरह पिाताप करके उनसे क्षमा र्याचना करनी चादहए। अपने आप को वैष्णव की कृ पा
दक जरुरत महसूस करते हुए स्वर्यं को पदतत और नीच घोदषत करना चादहए।
3. र्यदि मै र्यह जान लूँ दक मैंने दकसी भि का अपराध दकर्या है तब मुझे क्र्या करना
चादहए?
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4. र्यदि मै र्यह जान लूँ दक मैंने दकसी भि का अपराध दकर्या है, लेदकन उस भि के पास जाकर क्षमा र्याचना करने का बल र्या
साहस र्या जरुरी शदि मेरे पास नही ं है तब मुझे क्र्या करना चादहए?
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5. र्यदि मै क्षमा र्याचना करता/करती हू ,ँ लेदकन अपरादधत भि मुझे के वल उपरी तौर पर मार् करता/करती है तब मुझे क्र्या
करना चादहए?
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6. र्यदि मै क्षमा र्याचना करता/करती हू ँ लेदकन अपरादधत भि मुझे मार् नहीं करते है तब मुझे क्र्या करना चादहए?
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7. क्षमा करना
[अध्र्यार्य ४, साधू चनिा के उपार्य]
एक साधू/साध्वी बड़े कृ पालु होते हैं; उनका ह्रिर्य कोमल हो जार्येगा और वह अपराधी को अपराधों से िोषमुि करके क्षमा कर
िेंगे,
८अ) र्यदि कोई भि मेरे पास क्षमा र्याचना के दलए आते है तब मुझे क्र्या करना चादहए?
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८ब) मुझे क्षमा क्र्यों करना
चादहए?
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ब) [श्री. भा. १.९.२७, तात्पर्यथ] “िोध से मुदि पाने के दलए, व्र्यदि को, क्षमा कै से करना, दसखना चादहए”
क) [श्री. भा. ९.१५.४०] “एक ब्राह्मण का कतथव्र्य है की उसे क्षमा करने के गुण का संस्कार होना चादहए , जो दक सूर्यथ के
सामान चमकता है। भगवान ऐसे लोगों से प्रसन्न होते है जो क्षमा करते है।”
ड) [भ.गी.१०.४-५, तात्पर्यथ] क्षमा का अभ्र्यास करना चादहए। मनुष्र्य को सदहष्णु होना चादहए और िसू रों के छोिे-छोिे
अपराधों को क्षमा कर िेना चादहए।
इ) [श्री. भा. ४.६.४८, तात्पर्यथ] “ऐसा माना जाता है की क्षमा करना एक तपस्वी र्या साधू व्र्यदि की सुनि
् रता है।”
21
ु से क्षमा र्याचना करने लग े तब उन्होंने उनको रोका। उनमे से एक ने कहा , “आप शाश्वत
जब प्रभुपाि अपने गुरु बंधओ
नेता हो” । “आप हम पर राज करते हो, मागथिशथन करते हो और हमें डािं ते हो।” “कृ पर्या मेरे सारे अपराध मार् कर
िीदजए”, प्रभुपाि ने िोहरार्या। “मै इस वैभव से गर्षवत हो गर्या।” “नहीं”, पूरी महाराज कहे, “आप कभी गर्षवत नहीं हुए।
जब आपने प्रचार प्रारंभ दकर्या तब वैभव और र्यश आपके पीछे आर्ये । वह तो श्री चतै न्र्य महाप्रभु और श्री कृ ष्ण का
आदशवाि है। आपके अपराधी होने का कोई प्रश्न ही नही ं होता है।
जब श्रील प्रभुपाि ने अपने आप को महापदतत प्रस्तुत दकर्या तब पूरी महाराज ने इसे स्वीकार नही ं दकर्या। “आपने पुरी
िदु नर्या में लाखों लोगों को बचार्या है,” उन्होंने कहाँ। “इसीदलए र्यहा ँअपराध का प्रश्न ही नही ं उठता। लेदकन आपको
तो महापदतत पावन कहा जाना चादहए।” प्रभुपाि के दशष्र्यों ने प्रभुपाि का अपने गुरु बंधओ ु ं से क्षमा र्याचना करना र्यह
नम्रता का प्राकट्य समझा। लेदकन वह भी असमंजस थे। दनदित रूप से प्रभुपाि के गुरु बंध ू प्रमादणक थे र्यह कहते हुए
की प्रभुपाि ने कोई अपराध नही दकर्या। जो भी उन्होंने दकर्या था वह कृ ष्ण के दलए था। लेदकन श्रील प्रभुपाि भी क्षमा
र्याचना करने में प्रमादणक थे। वह उनके नम्रता का सुि ं र रत्न था – सबसे क्षमा र्याचना करना। प्रत्र्येक नगर और
ग्राम में भगवान कृ ष्ण की कृ पाभरी दशक्षाओं को प्रचार करने के दलए र्यह रत्न का प्राकट्य लाभिार्यी नही होता। दकन्तु
अब उसे दिखलार्या जा सकता हैं...गहरी नम्रता का र्यह भाव, भदि के उच्चतम स्तर का लक्षण है ...प्रभुपाि के दशष्र्यों ने महा-
भागवत के लक्षणों को शास्त्रों में पढ़ा था और अब वे उसे प्रकि रूप में िेख रहे थे, जब प्रभुपाि अपने आपको महा पदतत
कहकर सबसे क्षमा र्याचना कर रहे थे।”
ब) वैकम्लपक – दकसी अनुभवी पदरपक्व वदरष्ठ भि के साथ, दफर मै उस/उन भि के पास जाउगँ ा/जाऊगँ ी दजन्होंने
मुझे बहुत ठे स पहुच
ं ाई है और कहू ग
ँ ा/कहू ग
ँ ी, “मुझे ऐसा लगता है की आपसे मुझे बहुत ठे स पहुच
ँ ी है। ऐसा सोचने के दलए मुझे
क्षमा कर िीदजए।”
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अष्टं सत्र
श्री चतै न्य महाप्रभ ु के प्रोत्साहन देन े वाल े िब्द
22
ये रुपे िइिे नाम प्रेम उपजाय
ताहार िक्ष शन स्वरूप राम रायु
श्री चतै न्र्य महाप्रभु ने कहा, “हे स्वरूप िामोिर गोस्वामी तथा रामानंि रार्य! मनुष्र्य को अपने सुप्त कृ ष्ण प्रेम को जाग्रत
करने के दलए दकस तरह हरे कृ ष्ण महामंतर् का कीतथन करना चादहए उन लक्षणों को तुम मुझसे सुनो ।”
23
जसै े की ठाकु र हदरिास, जो हरे कृ ष्ण महामंतर् के तीन लाख नाम रोज जप कर रहे थे। दनस्संिेह , उन्हें िसू रा कोई
कार्यथ नही ं था।
ड) [उपिेशामत
ृ , श्लोक ५, तात्पर्यथ]
कृ ष्ण भावनामतृ आंिोलन हर रोज सोलह माला का जप दनधादरत करता है , क्र्योंदक पािात्र्य िेश के लोग अपने माला पर
ू तम माला को दनधादरत दकर्या है। मगर, श्रील भदि दसद्धातं
जप करते समर्य ज्र्यािा ध्र्यान नही ं कर पाते। इसीदलए न्र्यन
सरस्वती ठाकु र कहते थे की जब तक कोई चौसठ माला का जप (एक लाख नाम) नहीं करता, वह पदतत माना जाता है।
उनके दहसाब से हम सब पदतत है, लेदकन क्र्योंदक हम गभं ीरता और दबना कपि के भगवान की सेवा करने की कोदशश
कर रहे है, हम भगवान श्री चतै न्र्य महाप्रभु की कृ पा की आशा रख सकते है, जो की पदतत पावन के नाम से दवख्र्यात है।
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नवमं सत्र
६४+ जप का व्यनिगत मल्ूाकं न
आजके ६४+ माला दिन का सबसे अच्छा अनुभव क्र्या था?
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__________________________________________________________________________________ इस
िौरान आर्ये हुए संघषथ क्र्या थे?
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__________________________________________________________________________________ मेरे जप
को सुधारने हेत ु मुझमें आज के दिन क्र्या जागरूकता हुई?
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१ब) भि की रोने की पुकार से कृ ष्ण ऋणी हो जाते है – महाभारत में कृ ष्ण कहते हैं , “ जब मै िौपिी से िरू था, तब उन्होंने
मुझे
‘हे गोदवन्ि!’ करके हृिर्यपूवथक पुकारा। इससे मै उसका ऋणी हो गर्या हू ँ और मेरे ह्रिर्य में वह ऋण िमशः बढ़ते जा रहा
है।
१क) कृ ष्ण बाध्र्य जो जाते है – महा मन्त्र (हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे , हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ) भी
भगवान और उनकी शदि को के वल एक पुकार है । तो जो कोई भगवान और उनकी शदि को पुकारने में सिैव रत है , हम
कलपना कर सकते है की भगवान दकतने बाध्र्य होते होंगे। भगवान के दलए असंभव है ऐसे भि को भूल पाना ।
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२अ) कृ तज्ञता का पाठ – उन चीजों को दलखे दजनके प्रदत अपने जीवन में आप भौदतक रूप से और अध्र्याम्त्मक रूप से कृ
तज्ञ हो। (अपने साथ वाले भि से कदहर्ये और दफर उनसे सुदनए)
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२ब) कृ तज्ञता का पाठ - उन चीजों को दलखे दजनके प्रदत अपने जीवन में आप भौदतक रूप से और अध्र्याम्त्मक रूप से
अकृ तज्ञ/कृ तघ्न हो। (दकसीसे कहना नही)ं
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3. कृ ष्ण का अनुगर् ह और अहैतक
ु ी कृ पा [श्री भा १.१७.२२, तात्पर्यथ]
“जो सब वस्तुओ में भगवान को िेखता है , ऐसे भि को कोई कष्ट ही नही ं होते है, क्र्योंदक उस भि के दलए तथा कदथत कष्ट
भी भगवान की कृ पा होते है ।
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एकािश सत्र
श्रील प्रभपु ाद को कृ तज्ञता पत्र शलखन े की तयै ािी
हदर नाम – हदर का पदवत्र नाम, हरे कृ ष्ण महा मंतर् (श्री चतै न्र्य चदरतामत ृ , अदि लीला,
१३.२२) कृ ष्ण नाम – कृ ष्ण के पदवत्र नाम (श्री चतै न्र्य चदरतामत
ृ , मध्र्य लीला १५.१०६ और
१११)
दिनाकं स्थान
मेरे दप्रर्य श्रील
प्रभुपाि,
कृ पर्या मेरा िंडवत प्रणाम स्वीकार कीदजए, श्री गुरु और गौरागं का जर्य,
[कृ तज्ञता का प्रकिीकरण करने हेत ु आप इन शब्िों का प्रर्योग कर सकते हो – धन्र्यवाि , कृ तज्ञ, महानुभाव, ऋणी, बाध्र्य,
ु ी कृ पा, इ. र्या आपके पसंि के अन्र्य कोई शब्ि]
अहैतक
[अंत में एक र्या िो वाक्र्यों में अपने आप को नम्रता से व्र्यि करे ] आपका
...... िास
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[आपके सुदवधानुसार आप श्रील प्रभुपाि के दवग्रह र्या फोिो को र्यह पत्र अपथण कर सकते हो और अपने एक र्या अनेक
शुभ दचन्तक को भी उस पत्र के प्रत भेज सकते हो]
ब.) वैर्यदिक पदवत्र जप स्थान आपके वैर्यदिक पदवत्र जप स्थान का वणथन कीदजए। र्यह ऐसी जगह है जहा
आप दबना बाधा के जप कर सकते हो।
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आपके सम्बन्ध, श्रद्धा और सेवा के तौर पर आपके एक र्या अनेक शुभ दचन्तक को प्रस्तादवत संकलप पत्र दलखे – GBC,
िीक्षा गुरु, दशक्षा गुरु, मंदिर के अध्र्यक्ष, सेवा अथोदरिी, आश्रम इंचाजथ, नाम हट्ट के प्रमुख, काउं सल
े र, अन्र्य कोई (जसै
े दक दपता, माता, इ) – आपके संकलप को आिर करने, उनकी कृ पा और आशीवाि प्राप्त करने, और अनुमदत प्राप्त
करने हेत। ु आपके शुभ दचन्तक शार्यि आपके संकलप में बिलावि करा सकते है।
दिनाकं स्थान
मेरे दप्रर्य
..........
कृ पर्या मेरा िंडवत प्रणाम स्वीकार कीदजए, श्री गुरु और गौरागं का जर्य,
[जप के बारे में आपके प्रस्तादवत अध्र्याम्त्मक शपथ र्या संकलप को दलदखए]
[अंत में एक र्या िो वाक्र्यों में अपने आप को नम्रता से व्र्यि करे ] आपका
...... िास
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हरे कृ ष्ण जदपए और सिा सुखी रदहए
परिदशष्ट
हिे कृ ष्ण महा मन्त्र के जप का स्पष्टीकिि
इस छोिे दनबंध में श्रील प्रभुपाि हरे कृ ष्ण मन्त्र के आतंदरक अथथ पर प्रकाश डालते है , जो १९६६ में दरकाडथ दकर्या
गर्या है
हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे इस मन्त्र के जप की दिव्र्य ध्वनी हमारी दिव्र्य चते ना
ृ करने का उिात्त तरीका है। आत्मा होने के नाते, हम सब वास्तदवक रूप में कृ ष्ण भावना भादवत जीव है,
को पुनजागत
लेदकन अनािी काल से भौदतक तत्त्वों के संसगथ के कारण हमारी चते ना दर्लहाल भौदतक वातावरण से िदू षत हो गई है।
दजस भौदतक वातावरण में हम अभी रह रहे है उसे मार्या र्या मोह कहते है। मार्या का अथथ है , “वह, जो नहीं है”। और र्यह
मार्या/मोह क्र्या है? मोह र्यह है दक हम सब इस भौदतक प्रकृ दत के स्वामी बनने का प्रर्यास कर रहे है , जबदक असल में हम
सब भौदतक प्रकृ दत के कठोर दनर्यमों दक पकड़ में है । जब कोई सेवक अपने सवथ शदिमान स्वामी की कृ दत्रम रूप से
नक़ल करता है तब वह मोदहत कहलाता है। हम सब भौदतक प्रकृ दत के साधनों का शोषण करने का प्रर्यास कर रहे है ,
लेदकन असल में हम उसकी जदिलताओ में ज्र्यािा से ज्र्यािा फसते जा रहे है। इसीदलए भले ही हम प्रकृ दत पर दवजर्य पाने
के कठोर संघषथ में लग े है, लेदकन हम उस पर और भी ज्र्यािा दनभथर होते जा रहे है। भौदतक प्रकृ दत के दवरुद्ध इस
मोहमर्य संघषथ को तुरन्त रोका जा सकता है हमरी सनातन कृ ष्ण भावनामत
ृ को जागत
ृ करके ।
हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे , र्यह दिव्र्य पद्धदत है इस स्वाभादवक, शुद्ध चते ना को
ृ करने की । इस दिव्र्य ध्वनी का जप करके हमारे हृिर्य के सारे कलमश धुल सकते है। मै स्वामी हू ँ जो मैं सवेक्षण करता
जागत
हू ,ँ इस गलत चते ना ही सभी कलमषो का मूल दसद्धातं है ।
कृ ष्ण भावनामत
ृ मन पर कोई कृ दत्रम आरोपण नही ं है। र्यह चते ना, जीव की स्वाभादवक, नैसर्षगक शदि है। जब हम इस
दिव्र्य स्पन्धन को सुनते है तब र्यह चते ना पुनजीदवत होती है। इस र्युग के दलए ध्र्यान करने का र्यह सबसे सरल तरीका
प्रस्तादवत है। कोई अपने स्वानुभव से समझ सकता है की इस महा मन्त्र के जप करने से एकाएक अध्र्याम्त्मक स्तर से
दिव्र्य परमानंि का अहसास होता है। भौदतक जीवन के दवदध में हम इम्न्िर्य तदृ प्त के दवषर्यों में व्र्यस्त रहते है , मानो की
हम दनम्न, पशु स्तर पर हो। इस भौदतक चगं ुल से दनकलने के दलए कोई मानदसक कलपना में रत रहता है जो
इम्न्िर्य तदृ प्त के स्तर से थोडा उठकर है। इस मनोकम्लपत स्तर से थोडा उपर वह है जो थोडा बहुत बुदद्धमान है , अंिर-
बाहर के परम कारण की खोज करने का प्रर्यास करता है। और जब कोई वास्तदवक रूप से इम्न्िर्य , मन, बुदद्ध के स्तर
को पारकर अध्र्याम्त्मक बोध के स्तर पर आता है , तब वह दिव्र्य स्तर पर कहलाता है। इस हरे कृ ष्ण मन्त्र को अध्र्याम्त्मक
स्तर से अदधदनर्यदमत दकर्या गर्या है, इसीदलए र्यह दिव्र्य ध्वनी ऐम्न्िक, मानदसक, बौदद्धक ऐसे दनचले स्तरों की चते ना
को पार करती है। इसीदलए इस मंतर् के जप करने में न तो उसकी भाषा समझने की जरूरत नही ं है, न दह दकसी प्रकार के
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मानदसक कलपना की आवश्र्यकता, न दह दकसी बौदद्धक सामंजस्र्य की जरूरत है।र्यह अध्र्याम्त्मक स्तर से होने के कारण
अपने आप कार्यथरत होता है, और इसमें दबना दकसी पूवथ र्योग्र्यताओं के कोई भी भाग ले सकता है। अदधक प्रगत
अवस्था में अध्र्याम्त्मक समझ के बल पर, बेशक अपराध करने की अपेक्षा नही ं है।
शुरुवात में अष्ट साम्त्वक दवकार की उपम्स्थदत नही ं होगी। (१) गूग
ं े की तरह रुक जाना, (२) पसीना छु िना, (३)
रोमाचं खड़े होना, (४) वाणी गिगि होना, (५) कम्पन, (६) शरीर दसकु ड़ना, (७) परमानंि में रोना, और (८) समाधी। हा,
लेदकन इसमें कोई शक नही ं दक थोडा जप करने मात्र से दह उसको तुरत
ं ही अध्र्याम्त्मक स्तर पर लाता है , और इस मन्त्र
ृ य करने की तीव्र इच्छा ही इसका पहला लक्षण है। हमने अपनी आँखों से िेखा है। एक साधारण बच्चा भी
के साथ नत्र्
ृ य में भाग ले सकता है। बेशक, जो भौदतक जीवन में बहुत ही फं सा है उसे इस सामान्र्य स्तर पर आने में
इसके जप और नत्र्
थोडा ज्र्यािा समर्य लगगे ा, लेदकन ऐसे भौदतक चीजों में तल्लीन व्र्यदि को भी बहुत शीघ्र अध्र्याम्त्मक स्तर पर उन्नत
दकजा जा सकता है। जब इस मन्त्र को भगवान के शुद्ध भिों िारा प्रेम से जपा जाता है, तब वह श्रोताओ पर महानतम
प्रभाव करता है, और स्वाभादवक तौर पर र्यह मन्त्र भगवान के शुद्ध भि के मुख से सुनना चादहए दजससे तुरत
ं पदरणाम
प्राप्त दकर्या जा सकता है। दजतना हो सके इस मन्त्र का जप अभिो के मुख से सुनना िालना चादहए। सप थ िारा
स्पर्षशत िधू का दवषैला पदरणाम होता है।
र्यह हरा शब्ि, भगवान दक शदिरूप को संबोदधत करता है , तथा कृ ष्ण और राम स्वर्यं भगवान के रूपों को संबोदधत करते
है। कृ ष्ण और राम का अथथ है “परम आनंि” और हरा भगवान की ह्लादिदन शदि है, दजसका संबोधाक रूप “हरे” मे
पदरवतथन होता है। भगवान की परम ह्लादिदन शदि हमें भगवान के पास जाने के दलर्य मिि करती है।
भौदतक शदि, र्याने मार्या भी भगवान की अनेक शदिओ में से एक है। और हम , जीवात्मा भी भगवान की तिस्था शदकत है।
जीवात्मा भौदतक प्रकृ दत से परा कहलाती है। जब परा प्रकृ दत अपरा प्रकृ दत के संपकथ में आती है तब दवसंगदत की
म्स्थदत उत्पन्न होती है; लेदकन जब परा तिस्था शदि परा प्रकृ दत, हरा के संपकथ में आती है तब वह आनंिमर्य साधारण
म्स्थदत में म्स्थत होती है।
हरे, कृ ष्ण और राम र्यह तीन शब्ि इस महा मन्त्र के दिव्र्य दबज है। जप एक बद्ध जीवात्मा को संरक्षण िेने हेत ु भगवान
और उनकी शदि को अध्र्याम्त्मक पुकार के सामान है। र्यह जप अपनी मा ँ के उपम्स्थदत हेत ु दकर्या हुआ एक बच्चे का
सच्चा िं िन है। मा ँ हरा, भि को अपने भगवान दपता की कृ पा प्रिान करने में मिि करती है , और भगवान ऐसे भि को
अपने आप प्रकि कराते है जो इस मन्त्र का प्रमादणकता से जप करता है।
इस कलह और कपि के र्युग में अध्र्याम्त्मक साक्षात्कार का इस महा मन्त्र, हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे हरे राम हरे
राम राम राम हरे हरे के जप के आलावा अन्र्य कोई प्रभावशाली उपार्य नहीं है।
प्राथथना – हिे कृ ष्ण महा मन्त्र
कृ ष्ण कृ पा श्री मूर्षत ए.सी.भदिवेिातं स्वामी प्रभुपाि िारा
महत्त्व
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र्यह हरा शब्ि, भगवान दक शदिरूप को संबोदधत करता है, तथा कृ ष्ण और राम स्वर्यं भगवान के रूपों को संबोदधत करते
है। कृ ष्ण और राम का अथथ है “परम आनंि” और हरा भगवान की ह्लादिदन शदि है, दजसका संबोधक रूप “हरे” मे
पदरवतथन होता है। भगवान की परम ह्लादिदन शदि हमें भगवान के पास जाने के दलर्य मिि करती है। भौदतक शदि, र्याने
मार्या भी भगवान की अनेक शदिओ में से एक है। और हम, जीवात्मा भी भगवान की तिस्था शदि है। जीवात्मा भौदतक प्रकृ
दत से परा कहलाती है। जब परा प्रकृ दत अपरा प्रकृ दत के संपकथ में आती है तब दवसंगदत की म्स्थदत उत्पन्न होती है;
लेदकन जब परा तिस्था शदि परा प्रकृदत, हरा के संपकथ में आती है तब वह आनंिमर्य साधारण म्स्थदत में म्स्थत होती
है। हरे, कृ ष्ण और राम र्यह तीन शब्ि इस महा मन्त्र के दिव्र्य दबज है।
सेवा के दलए प्राथथना र्यह हरे कृ ष्ण महामंतर् भी एक प्राथथना है, ऐसी प्राथथना जो भगवान को उनके नाम से सम्बोदधत
करती है, और भगवान को अजी करके अपने को भगवान की भदिमर्य सेवा में दनर्युि करने का सौभाग्र्य पाता है। हरे कृ ष्ण
महामंतर् र्यह भी कहता है, “मेरे दप्रर्य भगवान कृ ष्ण, मेरे दप्रर्य भगवान राम, हे भगवान की शदि, हरे, कृ पर्या आपकी सेवा में
दनर्युि कीदजए।” [श्री. भा. ४.२४.६९] जब हम हरे कृ ष्ण महा मन्त्र का जप करते है , तब हम कह रहे है, “हरे! हे भगवान
की शदि, हे मेरे दप्रर्य भगवान कृ ष्ण!”... भि हमेशा भगवान और उनकी अंतरंगा शदि (सहचारी/पत्नी) को प्राथथना करता है
की वह सिैव उनकी दिव्र्य प्रेममर्य सेवा में दनर्यिु रहे। जब बद्ध जीवात्मा अपनी सच्ची अध्र्याम्त्मक शदि को पाता है और
भगवान के चरण कमलों में पूरी तरह शरणागत होता है , तब वह भगवान के सेवा में दनर्युि होने का प्रर्यास करता है। जीवात्मा
ृ मध्र्य लीला २२.१६] अभी हम भौदतक शदि के चगं ुल में फसे है।
का र्यही वास्तदवक स्वरूप है। [श्री चतै न्र्य चदरतामत
इसीदलए हम कृ ष्ण से प्राथथना करते है, दक कृ पर्या वे हमें भौदतक शदि की सेवा से छु िकारा दिलवाकर उनकी
अध्र्याम्त्मक शदि की सेवा में स्वीकार करे। र्यही हमारा सारा िशथन है। हरे कृ ष्ण मतलब, “हे भगवान की शदि, हे
भगवान[कृ ष्ण], कृ पर्या मुझे आपकी सेवा में दनर्युि करे। [आत्म साक्षात्कार की दवज्ञान]
स्वीकृ दत की प्राथथना
हरे भगवान के शदि को संबोदधत करता है , और कृ ष्ण तथा राम साक्षात् भगवान को संबोदधत करता है। इसीदलए जब हम
हरे कृ ष्ण का जप करते है, हम प्राथथना कर रहे है , “हे भगवान, हे भगवान की शदि, कृ पर्या मुझे स्वीकार दकजीए।” “कृ
पर्या मुझे स्वीकार कीदजए” इसके आलावा हमें कोई प्राथथना नही ं है। [र्योग की पूणथता]
हरे कृ ष्ण महामंतर् के िारा हम सबसे पहले भगवान की शदि को पुकारते है, जो प्रबुद्ध कराती है।
भगवान की अध्र्याम्त्मक शदि के िारा ही अध्र्याम्त्मक प्रबोधन संभव है। हरे कृ ष्ण महामंतर् के जप में सबसे पहले हम
भगवान की अध्र्याम्त्मक शदि, हरे को संबोदधत करते है। र्यह अध्र्याम्त्मक शदि तभी कार्यथरत होती है जब जीवात्मा पूरी तरह
से शरणागत होकर अपनी दनत्य्सेवक की म्स्थदत को स्वीकारता है। जब कोई व्र्यदि अपने आपको भगवान के दनपिान र्या
आिेश पर चलता है,तब उसे सेवोन्मुख कहते है; ऐसे समर्य में अध्र्याम्त्मक शदि उसे िमशः भगवान को प्रकि कराती है।
[श्री. भा. ४.९.६]
एक वैष्णव महामंतर् का जप करके भगवान के साथ उनकी शदि की पूजा करता है।
तथादप, वैष्णव शुद्ध शाि र्या शुद्ध भि है, क्र्योंदक हरे कृ ष्ण महा मन्त्र भगवान की शदि हरा को इंदगत करता है। एक वैष्णव ,
भगवान और उनकी शदि की सेवा के अवसर को प्राप्त करने के दलए भगवान की शदि से प्राथथना करता है। इस प्रकार ,
वैष्णव राधा कृ ष्ण, सीता राम, लक्ष्मी नारार्यण ऐसे सारे दवग्रहों की आराधना करते है। [ श्री. भा. १०.२.११-१२]
ब. “कृ ष्ण” नाम का अथथ
“कृ ष्ण” नाम का अथथ
कृ ष्ण मतलब “सवथ आकषथक”। भगवान सबको आकर्षषत करते है; र्यही “भगवान” की पदरभाषा है। हमने भगवान कृ ष्ण
के बहुत सारे दचत्र िेखे है और हम िेख सकते है दक वे दकस प्रकार वन ृ ि
् ावन में गार्य , बछड़े, पशु, पक्षी,पेड़, पौधे, र्यहा
ँ तक की पानी को भी आकर्षषत करते है। वह ग्वालों को , गोदपर्यों को, नन्ि महाराज को, पाडं वों को और सारे मनुष्र्य
समाज को आकर्षषत है। इसीदलए अगर भगवान को कोई दवशेष नाम दिर्या जा सकता है, तो वह “कृ ष्ण” है।
अगर “कृ ष्ण” शब्ि को दनरुदि के दहसाब से दवश्लेषण दकर्या जार्य तब हमें पाता चलता है दक “ण” उस भगवान को
ृ यु के चक्कर को रुका िेता है, और “दिस्” र्याने सत्ताथथ, र्या अम्स्तत्व (कृ ष्ण ही सारा अम्स्तत्व
िशाता है जो जन्म मत्र्
है)। इसके साथ ही,
“दिस्” का अथथ “आकषथक” भी है और “ण” मतलब आनंि [श्री भा. १०.८.१५]
क. “राम” का अथथ
राम मतलब अध्र्याम्त्मक आनंि
रमन्ते योवगनोऽनन्ते सत्यानन्दे चििात्मवन।
इवत राम पिेनासौ परम् ब्रह्माचिधीयते॥
अनुवाि – परं सत्र्य को राम कहा जाता है क्र्योंदक र्योगी अध्र्याम्त्मक अम्स्तत्व के असीदमत सच्चे आनंि में रमण करते है।
तात्पर्यथ – र्यह भगवान श्री रामचिं के शत नाम स्तोत्र का आठवा श्लोक है जो पद्म पुराण में पार्या जाता है। [श्री चतै न्र्य
चदरतामत ृ , मध्र्य ९.२९]
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जो वास्तदवक र्योगी है वे सच्चे रूप से आनंि लेते है , लेदकन वे कै सा आनंि लेते है ? रमन्ते र्योदगनोऽनन्ते – उनका
आनंि असीदमत है, वो असीदमत आनंि ही सच्चा सुख है, और ऐसा सुख अध्र्याम्त्मक है, भौदतक नही। ं र्यह राम शब्ि
का असली अथथ है, जो हरे राम जपते समर्य आता है। राम मतलब अध्र्याम्त्मक जीवन का आनंि। अध्र्याम्त्मक जीवन
सुखमर्य है, और कृ ष्ण भी सुखमर्य है। [र्योग की पूणथता]
“हरे राम” र्यह श्री बलराम और श्री रामचिं िोनों को सूदचत करता है -
जब हम हैिराबाि में प्रचार कर रहे थे तब हमारे िो संन्र्यादसर्यों में हुए एक दकस्से को कहते है। एक ने कहा की “हरे राम”
का अथथ है श्री बलराम, और िसु रे ने दवरोध करते हुए कहा “हरे राम” का अथथ श्री राम है। अंततः र्यह दववाि हमारे
सामने प्रस्तुत दकर्या गर्या , और हमने दनणथर्य दिर्या की अगर कोई र्यह कहता है दक “हरे राम” में “राम” मतलब श्री
रामचन्ि है और कोई अन्र्य कहता है दक “हरे राम” में “राम” मतलब श्री बलराम है, तब िोनों ही सही है क्र्योंदक श्री
बलराम और श्री राम में कोई अंतर नही ं है...जो दवष्णु तत्त्व को सही से समझता है वह छोिी बातों बे झगड़ते नही।
ं
हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। इस महामंतर् में राम को बलराम स्वीकारने की
बहुत बार लोगों को आपदत्त है। लेदकन भले ही श्री राम के भिोंको एतराज होगा लेदकन उन्हें समझना चादहए की बलराम
और श्री राम में कोई भेि नहीं है। र्यहा ँ श्रीमद् भगवत में स्पष्ट रूप से कहा है की बलराम को राम भी कहा जाता है
(रामेदत)। इसीदलए हम जब भगवान बलराम को भगवान राम कहते है तो उसमे कोई कृदत्रमता नही ं है। जर्यिेव गोस्वामी भी
तीन राम की बात करते है, परशुराम, रघुपदत राम और बलराम. तीनों ही राम है। [श्री.भा. १०.२.१३]
“राम” र्यह शब्ि श्री बलराम और श्री दनत्र्यानंि िोनों को सूदचत करता है -
हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। इस महामंतर् में राम वलराम को सूदचत करता
है। क्र्योंदक दनत्र्यानंि बलराम के स्वाम्श है इदसलए राम दनत्र्यानंि को भी सूदचत करता है। इस प्रकार हरे कृ ष्ण,
हरे राम के वल कृ ष्ण और बलराम को दह संबोदधत नही ं करता बम्लक श्री चतै न्र्य और श्री दनत्र्यानंि को भी। [श्री चतै
न्र्य चदरतामतृ अदि लीला, पदरचर्य]
आपके प्रश्न के बारे में, “हरे राम में राम क्र्या है? क्र्या र्यह बलराम है र्या भगवान रामचिं है?” आप िोनों तरीके से ले सकते है
क्र्योंदक रामचिं और बलराम में कोई भेि नहीं है। आम तौर पर उसका अथथ कृ ष्ण है क्र्योंदक राम मतलब उपभोिा।” [श्रील
प्रभुपाि का अरुं धती को पत्र, ९ दसतम्बर, १९६९]
ब्रह्म महू ु त थ पि जप
1. सवेरे से पहले जप सवेरे से पहले, पुरे ध्र्यान से, हो सके तो ब्रह्म मुहूतथ में करना
चादहए (राधा वल्लभ िास को पत्र, ६ जनवरी १९७२)
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करते है और अगर र्यह सोचते है की कै से श्री रुम्क्मणी िेवी और कृ ष्ण एक आिशथ गहृ स्थ रहकर सुबह जलिी उठकर कृ
ृ कार्यो में रत होकर उिाहरण स्थादपत कर रहे थे । [कृष्ण बुक, अध्र्यार्य ७०, भगवान कृ ष्ण की दनत्र्य दिर्याए]
ष्ण भावनामत
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