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नमः ॐ विष्ण ुपदाय कृष्ण प्रेष्ठाय भतूल े।

श्रीमते भक्तििेदान्त स्िावमन इवत नावमने ।।्

नमस्ते सारस्िते देिे गौर िाणी प्रचाररण े । ननवििशेष शन्ूयिानद


पाश्चात्य देश ताररण े ।।

श्री कृष्ण चैतन्य प्रभ ुननत्यानन्द ।


श्री अद्वैत गदाधर श्रीिासानद गौर भि िन्द ।।ृ

अनक्रु माणिका
दिनचर्या ............................................................................................................. 3
दनर्यमावली ......................................................................................................... 4 प्रथम
सत्र - प्रस्तावना, प्रबंधन और दनर्यमावली .......................................................... 5 दितीर्य सत्र -
1
ृ ीर्य सत्र - पदवत्र नाम
हदर नाम और गुरु परंपरा के साथ हमारा सम्बन्ध ....................................... 7 तत
जपने के स्तर ....................................................................... 10 चतुथथ सत्र - अपने जप का
मूलर्याकंन ........................................................................ 12 पचं म सत्र - भदि में जप की
भूदमका/ पदरणामी भावनाए/ जप करते समर्य सोचना ............. 14 षष्ठं सत्र - ६४(+) माला जप करने की तर्यारी
और अपना मन ....................................... 16 सप्तं सत्र - क्षमा और नम्रता
..................................................................................... 19 अष्टं सत्र - प्रोत्साहन िेने वाले
शब्ि ........................................................................... 22 नवमं सत्र - ६४+ जप का व्र्यदिगत
मूलर्याकंन ........................................................... 24 िशं सत्र - कृ तज्ञता
............................................................................................... 25 एकािश सत्र - पत्र
दलखने की तैर्यारी ........................................................................ 27 िािश सत्र – धन्र्यवाि,
साक्षात्कार और प्रदतदिर्याएँ
परिशिष्ट
हरे कृ ष्ण महा मन्त्र के जप का स्पष्टीकरण .................................................................. 29
प्राथथना – हरे कृ ष्ण महा मन्त्र .................................................................................. 31 ‘ हरे’,
‘कृ ष्ण’ और ‘राम’ का अथथ ............................................................................ 32 असावधान र्या
र्यादं त्रकी जप .................................................................................... 34 ब्रह्म मुहूतथ पर जप
................................................................................................. 35

दिनचर्या
इस्क ान जहू ु

दशक्षक: भदि बहृ त् भागवत स्वामी

सोमवार, १०/९/२०१८
प्रथम सत्र - प्रस्तावना, प्रबंधन और दनर्यमावली
दितीर्य सत्र - हदर नाम और गुरु परंपरा के साथ हमारा सम्बन्ध

मंगलवार, ११/९/२०१८
ृ ीर्य सत्र - पदवत्र नाम जपने के स्तर
तत
चतुथथ सत्र - अपने जप का मूलर्याकं न
पंचम सत्र - भदि में जप की भूदमका/ पदरणामी भावनाए/ जप करते समर्य सोचना षष्ठं
सत्र - ६४(+) माला जप करने की तर्यारी और अपना मन सप्तं सत्र - क्षमा और नम्रता
अष्टं सत्र - प्रोत्साहन िेने वाले शब्ि

बुधवार, १२/९/२०१८
६४(+) माला जप करने का दिन
2
नवमं सत्र - ६४+ जप का व्र्यदिगत मूलर्याकं न

बहृ स्पदतवार, १३/९/२०१८


िशं सत्र - कृ तज्ञता
एकािश सत्र - पत्र दलखने की तैर्यारी
िािश सत्र – धन्र्यवाि, साक्षात्कार और प्रदतदिर्याएँ

दिप्पदणर्याँ:………………………………………………………………………………………………….
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[सहभाग लेने वाले भिों के सुदवधानुसार दिनचर्या में बिल हो सकता है।]
दनर्यमावली

१. हम एक साथ दमलकर गम्म्भतापुवथक जप, कीतथन, प्रसाि सेवा ई. सभी कार्यो मे सहभाग लेंगे ।

२. हम सभी सत्रों के दलए समर्य पर उपम्स्थत रहेंगे ।

३. हम सत्रों के िौरान फोन तथा इमेल का इस्तेमाल िालने की कोदशश करेंगे ।

४. हम सामान्र्य वातालाप को न करके पदवत्र वातावरण बनार्ये रखगें े ।

५. हम कोसथ मे सुनी हुई गुह्य बात को कोसथ के िौरान और उसके बाि भी गुह्य रखगें े ।

६. हम सभी के मतों का आिर करेंगे भले ही हम उनसे सहमत न हो ।

3
७. हम दवषर्यों और व्र्यवहार पर चचा करेंगे, ना दक व्र्यदि दवशेष की ।

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प्रथम सत्र
प्रस्तावना, प्रबधंन औि ननयमावली
1. स्वागत
[श्रीमद् भगवद् गीता र्यथा रूप
१०.२५] यज्ञानाां जप यज्ञोऽस्मि समस्त र्यज्ञों में, मैं पदवत्र नाम का जप हू ।

र्यज्ञ का अथथ है ____________________________________________________________________

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मै अन्र्योंको असुदवधा दकर्ये बगरै एवं मेरी सेवाओ ं की दजम्मेवारी दनभाते हुए, जप करते समर्य______________
______________________________________________________ का त्र्याग (र्यज्ञ) करूगँ ा/करुँ गी।

[कृ ष्ण ग्रन्थ के ७०वे अध्र्यार्य में श्रील प्रभुपाि कहते है]
“राधा कृ ष्ण के शाश्वत रूप का ध्र्यान करना और हरे कृ ष्ण महा मन्त्र का जप करने में कोई भेि नहीं है।”

2. अध्र्याम्त्मक उन्नदत का पाठ्यिम


4
[१४ अगस्त १९७१ में श्रील प्रभुपाि लंिन में]
“हरे कृ ष्ण जप करने की सरल कला दसखाने हेत”ु

[श्रीमद् भागवद् ४.१२.३७, तात्पर्यथ]


“भिों के संग के दबना कोई भी कृ ष्ण भावनामत
ृ में प्रगदत नही ं कर सकता। इसीदलए हमने अंतर राम्ष्िर्य कृ ष्ण
ृ संस्था की स्थापना की है। वास्तव में , जो कोई भी इस संस्था में रहता है , स्वतः ही कृ ष्ण भावनामत
भावनामत ृ का दवकास
करता है। भगवान को भि दप्रर्य होते है, और भिोंको को के वल भगवान ही दप्रर्य होते है।”

3. जप और कीतथन का अथथ
ृ दसन्धु, अध्र्यार्य ९, जप]
[भदि रसामत
दकसी भी मन्त्र का मंि स्वर में उच्चारण करने को जप कहते है , और उसी मन्त्र का उच्च स्वर में उच्चारण करने को
कीतथन कहते है। उिाहरण के दलए, जब महा-मन्त्र का उच्चारण, अपने आप को सुनाई िेने वाले बहुत मंि स्वर में दकर्या
जाता है तो वह जप कहलाता है। जब उसी मंतर् का उच्चारण उच्च स्वर में िसू रों को सुनाई िेने के दलए करते है तो उसे
कीतथन कहा जाता है। महामन्त्र का प्रर्योग जप तथा कीतथन में भी दकर्या जा सकता है। जप व्र्यदिगत लाभ हेत ु दकर्या
जाता है, दकन्तु जब कीतथन दकर्या जाता है तो र्यह िसू रों के लाभ के दलए होता है, जो कोई भी सुनता है ।

ृ ि
[श्रीमद् भागवद् २.१.२ पर प्रवचन – वन ् ावन, १७ माचथ, १९७४]
“दजस प्रकार हम खोल और करताल से कीतथन करते है , र्यह भी कृ ष्ण-कीतथन है...र्यदि आप कृ ष्ण के बारे में ग्रन्थ
दलखते है, र्यदि आप कृ ष्ण के बारे में ग्रन्थ पढ़ते है, र्यदि आप कृ ष्ण के बारे में बाते करते है , आप कृ ष्ण का चचतन करते है ,
आप कृ ष्ण की अचनथ ा करते है, आप कृ ष्ण के दलए पकाते है, आप कृ ष्ण के दलए खाते है – तो र्यह कृ ष्ण-कीतथन है”

4. प्रबंधन की आवश्र्यकतार्यें
*दिनचर्या *दिप्पदणर्या ँ और अनुबध
ं *माताओं के दलए कमरा/ प्रसाधन कक्ष
*दपने का पानी *जलिी सोना, जलिी उठाना

5. एक िसु रे की पहचान मेरा नाम .......................है अभी मैं........................र्यह अनुभव कर रहा हू ँ जप करना
मतलब...............

6. दनर्यमावली (पष्ृ ठ ि ४ िेखें)

7. महा-मंतर् का वास्तदवक अथथ

[भगवान कदपल िेव की दशक्षाएं, अध्र्यार्य १४, श्लोक ३२]


“चतै न्र्य महाप्रभु हमें र्यह दसखाते है दक हमें भगवान से के वल , जन्म जन्मान्तर उनकी सेवा करने की ही र्याचना करनी
चादहए। र्यही हरे कृ ष्ण महा-मन्त्र का वास्तदवक अथथ है। जब हम हरे कृ ष्ण, हरे कृ ष्ण, कृ ष्ण कृ ष्ण, हरे हरे। हरे राम
हरे राम राम राम हरे हरे , इस मन्त्र का जप करते हैं, तो हम वास्तव में भगवान और उनकी शदि, हरा को संबोदधत करते है।
हरा, र्यह कृ ष्ण की अंतरंगा शदि है, श्रीमती राधारानी र्या लक्ष्मी. जर्य राधे! र्यह िैवी प्रकृ दत है, और भि इस िैवी प्रकृ
दत, श्रीमती राधारानी की शरण लेते हैं। इसीदलए वैष्णव, राधा-कृ ष्ण, लक्ष्मी-नारार्यण और सीता-राम की पूजा करते हैं। हरे
कृ ष्ण महामंतर् के प्रारंभ में, हम पहले कृ ष्ण की अंतरंगा शदि, हरा को संबोदधत करते हैं। “हे राधारानी, हे हरे, हे भगवान
की शदि!” इस प्रकार से कहते हैं। जब हम इस प्रकार से दकसी को संबोदधत करते हैं तो वह पूछते है , “हा, क्र्या चादहए
आपको?” इसका उत्तर है, “ कृ पर्या मुझे आपकी सेवा में दनर्योदजत कीदजए.” र्यह हमारी प्राथथना होनी चादहर्यें। हमें र्यह

5
नहीं कहना चादहर्यें, “हे भगवान की शदि, हे कृ ष्ण, कृ पर्या मुझे धन िो, कृ पर्या मुझे एक सुनि ् र पत्नी िो, कृ पर्या मुझे
बड़ी मात्रा में अनुर्यार्यी िो, कृ पर्या मुझे प्रदतदष्ठत पि िो, कृ पर्या मुझे अध्र्यक्षता िो.” र्यह सब भौदतक लालसाएं है, हमें
इनसे िरू रहना चादहर्यें।”

8. हमें साथ में इस बात पर एकाग्र होना हैं


[कुं ती महारानी की दशक्षाए, अध्र्यार्य २०]
“नाम गाने सिा रुदचः – हमें हरे कृ ष्ण महा मन्त्र का जप और कीतथन में अपनी रूदच बढ़ानी चादहए।”

[श्रीमद् भागवद् ४.११.१३, तात्पर्यथ]


जीव िोर्या – “एक प्रचारक भि को भोले-भाले लोगोंपर कृ पा करनी चादहए दजन्हें वह भदिमर्य सेवा तक उठा सके।
प्रत्र्येक व्र्यदि, मूल स्वरूप में भगवान का शाश्वत िास हैं। इसीदलए, एक भि को चादहए की वह प्रय्तेक जीव की कृ ष्ण
भावनामत ृ को जागत ृ करें। वह उसकी कृ पा हैं।

[श्रीमद् भागवद् ६.१७.१५, तात्पर्यथ]


वैष्णव सेवा – “ कृ ष्ण को शरणागत जाना मतलब उनकें भिोंकी शरण में भी जाना , क्र्योंदक कोई भी कृ ष्ण का सही सेवक नही ं
बन सकता जब तक वह एक भि का सही सेवक नहीं हैं। कृ ष्ण के सेवक की सेवा दकर्ये दबना कोई भी स्वर्यं कृ ष्ण के सेवक
के पि पर प्रगत नही ं कर सकता।
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दितीर्य सत्र
हरि नाम औि गरुु पिंपिा के साथ हमािा सम्बन्ध

1. दकसी भी दरश्ते/ सम्बन्ध में सबसे पहला स्तर क्र्या होता हैं?
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सम्बन्ध को बनाए ं रखने के दलए और उसे गहरा बनाने के दलए दकस बात की जरूरत हैं ?
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2. हदर नाम चचतामदण हैं।


ृ , मध्र्य लीला १७.१३३]
[चतै न्र्य चदरतामत
नाम चिन्तामच िः कृष्णस्िैतन्य रस विग्रहिः। पू
णिः शद्धो वनत्य मुक्तोऽचिन्नत्वां नाम नावमनोिः ु
।।

6
कृ ष्ण का पदवत्र नाम दिव्र्य रूप से आनंिमर्य हैं। क्र्योंदक वह स्वर्यं रसराज कृ ष्ण हैं , इसीदलए वह सभी प्रकार के
अध्र्याम्त्मक आशीवाि प्रिान करते हैं। कृ ष्ण का नाम पूणथ हैं, और र्यह सभी अध्र्याम्त्मक रसों का दवग्रह है। र्यह कोई भी
अवस्था में भौदतक नाम नही ं है, और र्यह स्वर्यं कृ ष्ण से दकसी भी क्षमता में कम शदिशाली नही ं हैं। क्र्योंदक कृ ष्ण का नाम
भौदतक गुणों से िदू षत नही ं होता, इसीदलए उसका मार्या के साथ दमलने का कोई सवाल ही नही ं उठता। कृ ष्ण का नाम
हमेशा मुि और अध्र्याम्त्मक है, इसीदलए प्रकृ दत के दनर्यमोंसे कभी बद्ध नही ं हो सकता। ऐसा इसीदलए हैं क्र्योंदक कृ ष्ण
और कृ ष्ण के नाम अदभन्न हैं।

3. कदलर्युग में भगवान कृ ष्ण के साथ दमलना [चतै न्र्य चदरतामत


ृ , आदि लीला १७.२२]
कचि कािे नाम रूपे कृष्ण अितार।
नाम हईते हय सिण जगत् वनस्तार॥

“इस कदलर्युग में, भगवान के पदवत्र नाम, हरे कृ ष्ण महा-मन्त्र ही भगवान कृ ष्ण का अवतार हैं। पदवत्र नामों का जप
करने मात्र से, व्र्यदि सीधे भगवान के साथ संग करता हैं। जो कोई भी इसे करेगा दनदित ही पार हो जार्येगा।

[प्रवचन, १/२/१९७३, बम्बई]


“हरे कृ ष्ण महामंतर् का जप करने और कृ ष्ण को सीधी आँखों से िेखना इसमें कोई अंतर नही ं हैं। बस इसका साक्षात्कार
होना चादहए।
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4. क्र्या भगवान के महा मन्त्र का रूप और


उनका स्वर्यं का रूप र्या राधा कृ ष्ण के
दवग्रह के रूप में कोई अंतर हैं?
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5. भदिमर्य सेवा का सवोत्कृ ष्ट रूप [चतै न्र्य


चदरतामत ृ , अन्त्र्य लीला, ४.७१]
तार मध्ये सिण श्रेष्ठ नाम सांकीतणन।
वनरपराधे नाम िईिे पाय प्रेम धन॥

7
नव दवधा भदि में सबसे महत्वपूणथ अंग भगवान के नामों का सतत जप करना र्यह हैं। अगर कोई ऐसे करता , िस नाम
अपराधों से बचता है, वह बहुत ही आसानी से सबसे मुलर्यवान भगवत् प्रेम प्राप्त कर सकता हैं।

6. भगवान का भूल पाना असंभव है। [भिी


ृ चसधू, अध्र्यार्य २१]
रसामत
र्यह महामंतर् (हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण, कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे/ हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे) भगवान और उनकी शदि को के वल
एक संबोधन है। तो जो कोई भी दनरंतर भगवान और उनकी शदि को पुकारता रहेगा, हम सोच सकते हैं की भगवान दकतने
कृ तज्ञ हो जार्येंगे। भगवान के दलए ऐसे भि को कभी भी भूल पाना असंभव हैं। इस श्लोक में स्पष्ट रूप से कहा हैं की जो
कोई भगवान को पुकारेगा वह शीघ्र ही भगवान का ध्र्यान आकर्षषत करेगा और भगवान ऐसे भि के प्रदत हमेशा कृ तज्ञ
रहेंगे।

दनजी आशाए व्र्यि करें


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7. अध्र्याम्त्मक गुरु की अत्र्यंत आवश्र्यक आज्ञा [चतै


ृ , मध्र्य लीला २२.११३, तात्पर्यथ]
न्र्य चदरतामत
हमारें कृ ष्ण भावनामत
ृ आंिोलन में हम नव दसदखर्या साधक को कम से कम सोला माला जप करने का अनुमोिन करते हैं।
र्यह सोलह माला का जप दनतातं आवश्र्यक है, र्यदि कोई कृ ष्ण को र्याि रखना चाहता है और उन्हें भूलना नही ं चाहता है।सभी
प्रकार के दनर्यमों में , अध्र्याम्त्मक गुरु का आिेश कम से कम सोलह माला का जप करना अत्र्यंत आवश्र्यक हैं।

इस्कक ान का सिस्र्य
ृ , अन्त्र्य लीला, ४.१०३, तात्पर्यथ]
[चतै न्र्य चदरतामत
कृ ष्ण भावनामत
ृ आंिोलन के सिस्र्य एक दिन में कम से कम सोलह माला का जप करते हैं जो की दबना दकसी कदठनाईर्यों
से दकर्या जा सकता हैं, और उसके साथ ही उन्हें चतै न्र्य महाप्रभु के आंिोलन का प्रचार भगवद्गीता के सन्िश
े के
अनुसार करना चादहए।
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8. ज्र्यािा से ज्र्यािा जप कीदजए


[दशकागो, जुलाई ४, १९७४ के प्रश्न उत्तर में श्रील प्रभुपाि] भि-श्रील
प्रभुपाि, अगर र्यदि कोई महामंतर् के सोलह माला समाप्त होने के बाि... प्रभुपाि
– हं? भि – क्र्या र्यह सही हैं...
प्रभुपाि – वह समाप्त नही ं होते...अगर आपके पास समर्य हैं, र्यदि, र्यदि आपके पास कु छ और करने के दलए नही ं हैं तो आप
और कर सकते हो, (हास्र्य) सोलह सौ. र्यह र्यादं त्रकी नही ं हैं, “अब मै सोलह माला समाप्त कर चूका हू ँ, बस..” सोलह माला
क्र्यों? आप सोलह सौ माला जप करे । र्यह तो न्र्यन ू तम है, क्र्योंदक आप जप में अपना मन के म्न्ित नहीं कर सकते, आपको
जप करने के प्रदत कोई आसदि नहीं है , इसदलए र्यह एक दनर्यम हैं। आपको करना ही हैं। र्यह तो आपको समाप्त करना ही
हैं। नही ं तो जो, वास्तदवक रूप से हरे कृ ष्ण महामंतर् से असि है, जैसे दक हदरिास ठाकु र, वह दिन रात जप करते हैं। आप
इसकी नकल नही ं कर सकते। आपका मन म्स्थर नही ं हैं। इसीदलए र्यह न्र्यन ू तम सोलह माला हैं। ऐसा नही ,ं “क्र्योंदक
ू तम सोलह माला हैं, तो मैं ज्र्यािा जप नही ं कर सकता।” क्र्यों ज्र्यािा नही?ं आप ज्र्यािा से ज्र्यािा जप कर सकते हो।”
न्र्यन

9. भगवद्धाम वापस लौिने का श्रील प्रभुपाि का वचन


[श्रीमद् भागवतम प्रवचन ६.१.४९, १/०८/१९७५]
“तो वही चीज़ - - दवग्रह अचनथ ा, तुलसी के पौधे को जल िेना, कम से कम सोलह माला का जप करना , और बादक
सभी प्रकार के दनर्यमों का पालन करना...तब आपका जीवन सफल होगा। इसकी उपक्षे ा मत करो। बहुत ही गभं
ीरतापूवथक चलते रहो। और दफर इसी जीवन में आप भगवद्धाम वापस लौि जाओगे। र्यह दनदित हैं। मैं के वल आपकी
ँ कृ ष्ण कहते हैं, मन्मना भव मद्भिो मद्यादज मा ं नमस्कु रु, मामेवैष्र्य असंशर्यः[भ.गी. १८.६५]
चापलूसी नहीं कर रहा हू ।
असंशर्यः, “दबना दकसी संशर्य से, दसर्थ
आप इन दनर्यमों को पालन करो”, माम् एवैश्र्यसी, “आप मेरे पास वापस आओगे”
ततृ ीर्य सत्र
पनवत्र नाम जपने के स्ति

1. पदवत्र नाम जप करने के तीन स्तर


[श्री. भा. ५.२४.२०, तात्पर्यथ]
“भगवान के पदवत्र नामों के जप करने में तीन स्तर हैं। पहले स्तर में, साधक जप करते समर्य िस प्रकार के अपराध
करता हैं(नाम-अपराध)। अगले स्तर में, जो नामाभास कहलाता हैं, अपराध प्रार्यः बंि हो जाते है, और साधक शुद्ध नाम के
स्तर के पास आता हैं। तीसरे स्तर में, जब साधक हरे कृ ष्ण मन्त्र का अपराध दवरदहत जप करता हैं , तो शीघ्र ही उसका
कृ ष्ण के प्रदत सुप्त प्रेम जागत
ृ हो जाता हैं(शुद्ध नाम)। र्यहीं दसदद्ध हैं।
2. पहला स्तर – अपराध र्युि जप (नाम – अपराध)
[श्री. भा. ६.२.९-१०, प्रवचन – इलाहबाि, १५/०१/१९७१]
‘तो पहला स्तर है हरे कृ ष्ण मन्त्र का जप अपराधों से भरा होना। लेदकन र्यदि कोई इस दसद्धातं को पकड़े ... इसीदलए हमें
दनर्यदमत रूप से कम से कम सोलह माला का जप करना चादहए। तो भले ही अपराध होते रहें , के वल जप करते रहने से,

9
और पिाताप करते हुए की, “मैंने र्यह अपराध अनावश्र्यक दकर्या है र्या अज्ञानता वश हुआ हैं ,” तो पिाताप करते रहो और जप
करते जाओ...”

अनावश्र्यक दिर्याओं के उिाहरण िीदजए _______________________________________________________

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3. पंच-तत्त्व मन्त्र के जप करने में अपरध नही ं माना जाता।


ृ , आदि लीला ७.४, तात्पर्यथ]
[चतै न्र्य चदरतामत
“कृ ष्ण भावनामत
ृ आंिोलन के प्रचारक होने के नाते, हम सबसे पहले भगवान श्री चतै न्र्य महाप्रभु को इस पचं तत्त्व मंतर्
से प्रणाम अपणथ करते हैं ; तब हम, हरे कृ ष्ण, हरे कृष्ण, कृ ष्ण कृ ष्ण, हरे हरे/ हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे, का जप
करते हैं। हरे कृ ष्ण महामंतर् के जप करने में िस अपराध हैं , लेदकन इस पचं तत्त्व मन्त्र के जप करने में र्यह नहीं माने
जाते ज्र्योंदक, ‘श्री कृ ष्ण चतै न्र्य प्रभु दनत्र्यानंि, श्री अिैत गिाधर श्रीवास आदि गौर भि वन ृ ि
् ’ है। श्री चतै न्र्य
महाप्रभु को महा विान्र्यार्य अवतार कहा ँ जाता हैं, क्र्योंदक वे पदतत जीवोंका अपराध नही ं मानते। इसीदलए, महा मन्त्र
(हरे कृ ष्ण, हरे कृ ष्ण, कृ ष्ण कृ ष्ण, हरे हरे/ हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे) के जप का पूरा लाभ लेने हेत,ु हमें प्रथम श्री
चतै न्र्य महाप्रभु का शरण लेनी चादहए, पचं तत्त्व महा मन्त्र को दसखना चादहर्ये, और उसके बाि ही हरे कृ ष्ण महा मन्त्र का
जप करना चादहए। र्यह अत्र्यंत प्रभावशाली होगा।

4. िसू रा स्तर – नामभास


[श्री. भा. ६.२.९-१०, प्रवचन, इलाहबाि, १५/०१/१९७१]
“तो के वल पिाताप करते हुए जप करते रदहर्ये। तब वह स्तर आएगा। उसे नामाभास कहते हैं। र्यह अपराध रदहत हैं , जब
कोई और अपराध नही ं बचते। तो उसे नामाभास कहते हैं। नामाभास स्तर पर साधक शीघ्र ही मुि हो जाता हैं...”

5. तीसरा स्तर – शुद्ध नाम


[श्री. भा. ६.२.९-१०, प्रवचन, इलाहबाि, १५/०१/१९७१] “....और जब कोई मुि हो जाता हैं , अगर वह जप करता रहता है –
स्वाभादवक ही वह जप करते रहेगा – तब उसका कृ ष्ण के प्रदत प्रेम प्रकि हो जार्येगा।”
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6. सतकथ और सम्मान पूणथ रहें, लापरवाह नहीं।


ृ , प्रवचन, वन
[भदि रसामत ृ ि
् ावन, ३०/१०/१९७२]
“तो वस्तुतः, जब हम हरे कृ ष्ण मन्त्र का जप करते हैं , तो हम दसधे कृ ष्ण का संग कर रहें हैं , क्र्योंदक नाम कृ ष्ण का ही
अवतार हैं। नाम-रुप े कृ ष्ण अवतार। इसीदलए, अगर हम समझिार हैं, तो हमें नाम के प्रदत बहुत ही आिरता पूवथक भाव
रखना होगा, क्र्योंदक नाम और कृ ष्ण एक ही हैं। सोदचर्ये कृ ष्ण र्यहा ँ आते हैं। हम शीघ्र ही दकतने आिरपूवथक हो

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जार्येंगे। तो उसी प्रकार, जब हम हरे कृ ष्ण मन्त्र का जप करते हैं, हमें समझना चादहए की कृ ष्ण इधर हैं। इसीदलए हमें
बहुत ही सतकथ और सम्मान पूवथक रहना हैं, लापरवाही नही ं करनी...र्यदि आप असावधान बनें, तो वह अपराध हैं...”

7. जीव्हा और कानों के िारा भगवद् साक्षात्कार


[प्रवचन, लोस एंजदलस, २०/०७/१९७१]
“और र्यह जानके आपको आिर्यथ होगा की, कृ ष्ण दजव्हा के िारा जाने जा सकते है, आँखों से नहीं, न तो कानों से।
दजव्हा। दजव्हा के पिात बादक इम्न्िर्या ँ जरुर अनुगमन करती हैं। दजव्हा मुख्र्य हैं। तो हमें दजव्हा पर संर्यम करना
हैं। कै से संर्यम करे? हरे कृ ष्ण का जप करो और कृ ष्ण प्रसाि का अस्वािन करों। बस।”

[श्री. भा. ७.५.१, प्रवचन, बम्बई, १२/०१/१९७३]


इस हरे कृ ष्ण मन्त्र के जप से आप दजतने अदधक शुद्ध होते जाओगे, आप कृ ष्ण को आमने सामने िेख सकोगे। लोग
पूछते हैं, “क्र्या आप मुझे भगवान दिखा सकते हैं? आप भगवान को िेख सकते हों। के वल अपनी आखों को तैर्यार कीदजए।
दसफथ अपने कानों को तैर्यार कीदजए। आप िेख सकोग.े ..श्रवण से.”

8. उत्तम प्रर्यास करो


[पूणथ प्रश्न, पूणथ उत्तर, अध्र्यार्य ७]
दगदरराज- दफर ऐसी कु छ िसू री बातें है जो हमें दनिेदशत की जाती हैं, भले ही हम दकतना प्रर्यास करे, तो भी हम उसे
उत्तमता से नही ं कर सकते. श्रील प्रभुपाि – ऐसा कै से होगा?आप प्रर्यास कर रहे हैं और नही ं कर सकते?ऐसा कै से?
दगदरराज – जसै े की ध्र्यानपूवथक जप करना. बहुत बार हम प्रर्यास करते हैं, लेदकन--
श्रील प्रभुपाि – ठीक हैं, र्यह कोई िोष नहीं हैं। समदझर्ये, अगर आप कु छ करने का प्रर्यास करते हैं। अगर अनुभव न
होने के कारण आप असफल होते हो, तो उसमे कोई िोष नही ं हैं। आप प्रर्यास कर रहे हों।भागवतम में एक श्लोक हैं , की
र्यदि कोई भि स्वर्यं का उत्तम प्रर्यास कर रहा हो, लेदकन उसकी असमथथता के कारण कभी असफल भी हो जाता हैं, तो कृ
ष्ण उसे मार् कर िेते हैं...कभी कभी इच्छा न होते हुए भी लेदकन दपछली बुरी आितों के कारण, आित हमारा िसू रा स्वभाव
हैं, कोई कु छ गलती कर िेता हैं। लेदकन इसका मतलब र्ये नहीं की वह िोषी हैं। लेदकन उसे उस बात का पिाताप करना
चादहए की, “मैंने ऐसे दकर्या हैं।” और उसे दजतना हो सके िालने का प्रर्यास करना चादहए। कभी कभी , आप दकतना
भी प्रर्यास करने के बावजूि, मार्या इतनी प्रबल हैं की दफर से आपको उन खतरों में धके ल िेती हैं। उसे मार् दकर्या जा
सकता हैं।कृ ष्ण मार् कर िेते हैं।लेदकन अगर कोई कु छ जानबूझकर करता हो तो उसे मार् नहीं दकर्या जा सकता।”

11
1.
चतु थ थसत्र
अपन े जप का मल्ूाकं न
दप्
रर्य व्र्यदि के साथ हमारा सम्बन्ध
आपके जीवन में दजनसे आप असि हो और प्रेम करते हो ऐसे एक व्र्यदि का नाम दलदखए
__________________________________________________________________________________

जब आप अपने दप्रर्यकर के साथ हो तो दनम्नदलदखत दवकलपों में से कौनसा आपके दलए सबसे उपर्युि
हैं ? अ) मैं मेरे प्रेमी के साथ रहने से नर्रत करता हू ँ
आ) मुझे मेरे प्रेमी के साथ रहना पड़ता हैं
इ ) मुझे प्रेमी के साथ रहने को दमलता हैं
ई ) मै मेरे प्रेमी के साथ रहना चाहता/चाहती हू ँ
उ ) मै मेरे प्रेमी के साथ रहना पसंि करता हू ँ

2. हमारा कृ ष्ण के साथ सम्बन्ध


सामान्र्य दिन पर ____________करने के दलए जब आप अपनी ______________लेते हो तो दनम्नदलदखत में से कौन
सा उपर्युि हैं?

अ) मैं जप करने से नर्रत करता हू ँ


आ) मुझे जप करना पड़ता हैं
इ ) मुझे जप करने दमलता हैं
ई ) मै जप करना चाहता/चाहती हू ँ
उ ) मै जप करना पसंि करता हू ँ

3. जप दनधार करने के पहलुए ँ


[श्री.भा. १.१५.५०, तात्पर्यथ] – “जब हम दवमान उड़ा रहे है तब हम अन्र्य दवमानों को नही ं सम्हाल सकते। हर एक को
अपने दवमान का ख्र्याल खुि रखना है और र्यदि कोई खतरा होता है , तब उस म्स्थदत में अन्र्य कोई दवमान आपकी सहर्यता में
नहीं आर्येगा। उसी प्रकार, जीवन के अंत में जब हमें भगवद्धाम लौिना होता है , तब हर एक को अपना ख्र्याल खुि रखना होता
है अन्र्य दकसी की मिि के दबना। हालादं क, उडान भरने से पहले जमीन पर मिि दमल सकती है।”
[संख्र्या ‘१०’ र्यानी ‘उत्कृ ष्ट’ र्या ‘बहुत बदढ़र्या’]
ं न प्राथदमकता – दिन में करने हेत ु कार्यों की सूदच
िैनदि
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10

म्स्थरता – रोजाना कम से कम १६ माला का जप करना


1 2 3 4 5 6 7 8 9 10

जप करते समर्य महा-मन्त्र सुनने की क्षमता


1 2 3 4 5 6 7 8 9 10

12
4. जप की मात्रा और गुणवत्ता
[मोदनिंग वाक, - नवम्बर २, १९७५, नैरोबी] ब्रह्मानंि – जप के गुणवत्ता के बारे में मै र्यह पूछ
रहा हू ।
ँ कै से हम गुणवत्ता को सवोत्तम बनार्ये?
प्रभूपाि – गुणवत्ता, आप तभी समझ सकते हो जब आप उस गुणवत्ता के स्तर पर आओगे। गुणवत्ता के दबना वह प्रत्र्यक्ष
गुणवत्ता कै से समझ सकता है? आप आपके गुरु के आिेशोंका पालन करों, शास्त्रों का करों। र्यह आपका कतथव्र्य हैं।
गुणवत्ता हो र्या ना हो, उसे समझना आपका स्तर नही ं हैं। जब गुणवत्ता आएगी तब जबरिस्ती नही ं रहेगी। आपको जप करने
में रूदच रहेगी। उस समर्य आप इच्छा करोगे,”के वल सोलह माला ही क्र्यों? सोलह हजार क्र्यों नहीं?” उसे गुणवत्ता कहते हैं।
उसे गुणवत्ता कहते हैं। अभी बलपूवथक हैं। नही ं तो आप नही करोगे, इसीदलए कम से कम सोलह माला बतार्या हैं। लेदकन
जब आप उस गुणवत्ता के स्तर पर आओगे, तो अपने आप महसूस करोगे, “सोलह क्र्यों?सोलह हजार क्र्यों नहीं?” र्यह गुणवत्ता
हैं, स्वतः.

[श्रील प्रभूपाि का रार्यराम को पत्र, १० मई १९६८]


“हरे कृ ष्ण जप करने के गुणवत्ता के बारे में कहा जार्ये, तब हम िस प्रकार के अपराधों से बचने का प्रर्यास करेंगे, र्यही
गुणवत्ता हैं।

5. ...र्यदि सुन नहीं सकते तो जोर से जप कीदजए


[िीक्षा प्रवचन, लोस एंजदलस, १३ जुलाई, १९७१]
“जब आप जप करोंग ेतब आप सुनोग े भी। तभी आपका ध्र्यान वहा ँरहेगा। और र्यदि आप जप कर रहे हो और िसू
रा कु छ सोच रहे हो,ओह, तो वह भी एक अन्र्य अपराध हैं। आपको सावधान रहना चादहए ...र्यदि आप नही सुन पा रहे तो आप
जोर से जप कीदजए, हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे , हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। तो आप जरुर सुदनए. र्यह
आवश्र्यक हैं। अन्र्यथा आप असावधान रहोगे। र्यह अपराध हैं।”

6. १६ शब्ि, ३२ अक्षर
ृ अदि लीला ७.७६
[कदलसंतरण उपदनषद्, श्री चतै न्र्य-चदरतामत
हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे ।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ इदत
षोडषकं नाम्ना ं कदल कलमश नाशनम्

नातः परतोपार्यः सवथ वेिेष ु िश्ृ र्यते ॥
हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे , हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – र्यह बत्तीस अक्षरों से बनार्यें सोलह नाम ही कदल र्युग के
कलमश को नष्ट करने का एक मात्र साधन हैं। सभी वेिों में र्यह िेखा गर्या हैं की अज्ञान के सागर को पार करने के दलए
पदवत्र नाम के जप करने के आलावा और कोई अन्र्य उपार्य नहीं हैं।

7. जप करने में ओंठ और जीभ


ृ , अदि लीला, १७.३२ तात्पर्यथ]
[चतै न्र्य चदरतामत
“इस दवषर्य में इस बात पर ध्र्यान दिर्या जार्ये दक जप करते समर्य उपरी और दनचले ओंठ और जीभ के कार्यथ होते हैं। हरे
कृ ष्ण महा मन्त्र के जप में इन तीनों का उपर्योग दकर्या जाना चादहए। “हरे कृ ष्ण” इन शब्िों को बहुत स्पष्ट रूप से
उच्चारण करना और सुनना चादहए। कभी कभी कोई ओंठ और जीभ के सहार्यता से स्पष्ट उच्चारण करने के बजार्य र्यादं

13
1.
त्रकी पद्धदत से के वल दससकी की आवाज दनकलती हैं। जप बहुत आसान हैं, लेदकन हमें उसका गभं ीरता से अभ्र्यास
करना चादहए।

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पं चम सत्र
अ. भनि म ें जप की भमू मका

साधना भदि की पदरभाषा


ृ मध्र्य लीला २२.१०५]
[चतै न्र्य चदरतामत

कृवत साध्या ििेत ् साध्य िािा सा सधनाचिधा ।


वनत्य चसद्धस्य िािस्य प्राकट् ाां हृवि साध्यता ॥
दजस दिव्र्य भदि से कृ ष्ण-प्रेम प्राप्त दकर्या जाता है, र्यदि उसे इम्न्िर्यों से संपन्न दकर्या जाता है तो वह साधन भदि
कहलाती है। ऐसी भदि हर जीव के हृिर्य के भीतर म्स्थत रहती है। इस दनत्र्य भदि का उिर्य ही भदि की साध्र्यता है।

2. शुद्ध कृ ष्ण प्रेम की जागदृ त


ृ मध्र्य लीला २२.१०७]
[चतै न्र्य चदरतामत

वनत्यचसद्ध कृष्णप्रेम ‘साध्य’ किु नय।


श्रि ावि-शद्धचित्ते करये उिय ु ।।
कृ ष्ण के प्रदत शुद्ध प्रेम जीवों के ह्रिर्य में दनत्र्य स्थादपत रहता है। र्यह ऐसी बस्तु नहीं दजसे दकसी अन्र्य स्त्रोत से
प्राप्त दकर्या जार्य। जब श्रवण तथा कीतथन से ह्रिर्य शुद्ध हो जाता है तो जीव स्वभावतः जाग्रत हो उठता है।

ब. परििामी भावनाए

1. दजस दिन जप अच्छा नही ं होता उस दिन की अपनी भावनाए

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2. दजस दिन अच्छा जप होता है उस दिन की अपनी भावनाए

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क. जप कित े समय सोचना

1. जप करते समर्य की सोच?


ृ मध्र्य लीला ६.२५४ के प्रवचन में – लोस एंजदलस, ८ जनवरी, १९६८]
[श्रील प्रभूपाि, चतै न्र्य चदरतामत
“भि – जब आप जप करते है , तब आपको दकसके बारे में सोचना चादहए? जब आप जप करते है, तब आप क्र्या सोचते है?
प्रभुपाि – जप. आप के वल सुदनए। जब आप “हरे कृ ष्ण” कहते हो, तो वही “हरे कृ ष्ण” सुनने का प्रर्यास कीदजए।
बस। और कु छ भी नही। ं र्यही ध्र्यान हैं। आपकी जीभ और आपके कान “हरे कृ ष्ण” इस दिव्र्य ध्वनी को प्रिर्षशत करने में
र्युि होने चादहए। उत्तम ध्र्यान। इसकी पुदष्ट भगवद्गीता में भी की गर्यी हैं – उत्तम ध्र्यान। आपका मन कही ं और न रखे।
आप आपका मन जप पर रखे. “हरे कृ ष्ण” और सुदनए”

[श्रील प्रभुपाि का सत्स्वरूप को पत्र, १० अप्रैल १९६९]


“जिरु ानी के प्रश्न के बारे में, हरे कृ ष्ण के ध्वनी को सुनने से कृ ष्ण के लीलाओं का स्मरण अपने आप हो जाता हैं। जब
कोई प्रमादणकता से जप करता हैं तब र्यह िोनों चीज े एक साथ मन में प्रकि होती हैं। तब आप ध्वनी सुनने में और
लीला स्मरण करने में कोई अंतर नही ं कर सकते। परन्तु पद्धदत है सुनने की, और दफर कृ ष्ण की लीलाए, रूप, गुण इत्र्यादि
अपने आप मन में आएंगे। र्यह बहुत अच्छा हैं”
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2. जप करते समर्य कृ ष्ण र्या लीलाओं के बारे में सोचना


[िीक्षा प्रवचन और िस अपराध प्रवचन, लॉस एंजदलस, १ दडसेम्बर, १९६८]
“जब आप जप करते हो, आप सुनते भी हो। आप आपका ध्र्यान कही और नही ं ले जाते , र्यादं त्रकी जप और कु छ िसू रा
सोचना। कृ ष्ण का चचतन ठीक हैं , लेदकन अगर में कु छ ऐसा सोचु जो कृ ष्ण भावनामत
ृ नही ं हैं ...सबसे उत्तम है दक मै हरे
कृ ष्ण जप करू ँ और हर एक शब्ि को सुन,ु तब र्यह बहुत प्रभावशाली होगा, हा”

[श्रील प्रभुपाि का दशवानन्ि को पत्र, ४ दिसम्बर, १९६८]


“आपके पहले प्रश्न के बारे में, “जप करते समर्य कृ ष्ण की लीलाओं का स्मरण करना क्र्या र्यह अपराध हैं ?” मुझे ऐसा लगता
हैं की आपको र्यह जानना चादहए की र्यह अपराध नही ं है बम्लक ऐसा होना चादहए। हमें ऐसे स्तर पर आने का प्रर्यास करना
चादहए की के वल कृ ष्ण सुनते ही, तुरत ं कृ ष्ण, उनकी लीलाएं, उनका रूप, उनके गुण हमारे मन में हो। तो सिैव कृ ष्ण के
दवचारों में डू बना ही हमारी पद्धदत हैं। जब हम कृ ष्ण से भरे रहेंग े तब मार्या को हमारे अन्िर प्रवेश करने को मौका कहा
ँ रहेगा? तो कृ ष्ण के लीलाओं का स्मरण करना र्यह हमारा कतथव्र्य हैं। र्यदि कोई कृ ष्ण का स्मरण नही ं कर सकता , तो
उसे दनरंतर हरे कृ ष्ण सुनने िो और जब वह उस कला में दसद्ध हो जार्येगा तब वह सिैव कृ ष्ण का स्मरण कर पार्येगा,
उनकी लीलाएं, उनके गुण, इत्र्यादि.”
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15
1.
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षष्ठं सत्र
६४(+) माला जप किन े की तयािी औि अपना मन

तुलसी महारानी के सामने जप करना


ृ अन्त्र्य लीला ३.१०० तात्पर्यथ]
[चतै न्र्य चदरतामत
तुलसी पौधा के समक्ष व्रत लेकर नाम जप करने में ऐसी अध्र्याम्त्मक शदि होती है दक ऐसा करने से ही मनुष्र्य अध्र्याम्त्मक
रूप से सशि बन जाता है | इसदलए हम हरे कृ ष्ण आंिोलन के सिस्र्यों से अनुरोध करेंग े दक वे हदरिास ठाकु र के िष्टृ
ातं का िढ़ृ ता से पालन करें | सोलह माला जप करने में अदधक समर्य नहीं लगता, न ही तुलसी को नमस्कार करना
कदठन है | इस दवदध में अत्र्यदधक अध्र्याम्त्मक शदि है | इस अवसर को हाथ से नही ं जाने िेना चादहए |

2. थके हो, तब चलके जप कीदजए


[शुतकीर्षत प्रभु के श्रील प्रभुपाि की र्यािें]
“न्र्य ू िारका में श्रील प्रभुपाि ने मुझसे कहा, “ शाम के समर्य में र्यदि मैं थक जाता हू ,ँ तब मैं चलके जब करता हू ।
ँ ” मेरी ओर
िेखते हुए उन्होंने कहा, “र्यदि आप थके हो, तब मेरी तरह आप भी चलके जब कीदजए। कभी कभी जब मैं थक जाता हू ँ तब
कमरे में आग े पीछे चलता हू । ँ के वल एक ही कमरे में आप सब कु छ कर सकते हो। र्यदि आप थके हो तो मेरी तरह खड़े
होकर जप कर सकते हो।” श्रील प्रभुपाि को अपने कमरे में चलकर जप करते र्या अपने िोलन कु सी पर बैठकर जप
करते िेखना बहुत आम था।

3. जप की गदत
[श्रील प्रभुपाि, राधा वल्लभ िास को पत्र, ६ जनवरी, १९७२]
“जप को पुरे ध्र्यान से सवेरे, दवशेषतः ब्रह्म मुहूतथ में करना चादहए। मन्त्र के शब्ि पर पूरा ध्र्यान के म्न्ित करों, हर
एक नाम स्पष्ट रूप से उच्चारण करों और िमशः आपके जप की गदत स्वभादवकतः बढ़े गी। तेज जप करने के बारे में
ज्र्यािा चचता मत करों, सुनना ज्र्यािा महत्वपुणथ है।

प.पु.िानवीर गोस्वामी – मुझे र्याि हैं एक बार मैंने श्रील प्रभुपाि को तेज जप करने के बारे में पूछा था और उन्होंने कहा, “हाँ,
पर आपको सारे ३२ शब्ि सुनने चादहए”

4. कृ ष्ण सिैव हमारे साथ हैं (भुत र्या भदवष्र्य में नही)ं
हम वतथमान में रहकर एक बार एक मन्त्र का जप करके उसे सुनने की कोदशश करेंग े
एक बार एक मन्त्र का जप करने का प्रर्यास कीदजए। दपछले मन्त्र के बारे में चचता मत कीदजए – आने वाले मन्त्र पर
ध्र्यान मत कीदजए, दसफथ वतथमान मन्त्र को ध्र्यानपूवथक जप करने का प्रर्यास कीदजए।

[श्रील प्रभुपाि का श्रीमि भागवतम १.८.३९ पर प्रवचन, मार्यापुर, १९ अक्िूबर १९७४]


16
“कृ ष्ण के पदवत्र नाम का जप करके उन्हें हमेशा कृ ष्ण को उपम्स्थत रदखर्ये”
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5. मन
[श्री. भा. १०.८७.३३]
मन एक ऐसे अदववेकी घोड़े के सामान है दक जो लोग अपने इम्न्िर्य तथा प्राण को दनर्यदमत कर सकते हो लेदकन मन
को दनर्यंदत्रत नही ं कर सकते | मन का उिाहरण लेते हुए एक समानता को रदचए | इस प्रकार दलदखए, “मेरा मन
.............. समान है, क्र्योंदक
..................”
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6. मन, एक असह्कारी बच्चे के सामान
[श्रील प्रभुपाि भ. गी. प्रवचन, ४.२७, बम्बई, ६ अप्रैल, १९७४]
एक बच्चे के सामान। मन एक बच्चे के सामान है , कभी कु छ स्वीकार करेगा, कभी ठु करा िेगा। संकलप-दवकलप. र्यही
उसका कार्यथ हैं।
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7. “कृ ष्ण के ध्वनी में दवश्राम” [भगवद्गीता पदरचर्य]


मन स्वभावतः चचं ल हैं, इधर-उधर जाता रहता है, लेदकन र्यह कृ ष्ण की ध्वनी पर म्स्थर हो सकता है।

[र्योग की पूणथता, अध्र्यार्य ४]


परन्तु मन बहुत आसानी से प्रदशदक्षत दकर्या जा सकता है, र्यदि वह कृ ष्ण पर के म्न्ित हो जार्य | दजस तरह सेनापदत
के रक्षण से एक दकला सुरदक्षत रहता है, उसी प्रकार र्यदि कृ ष्ण को मन के दकले में म्स्थत दकर्या जार्य तब शतु के प्रवेश
करने का सवाल ही नही ं उठता |

8. मन की इच्छाओं की उपक्षे ा [श्री. भा. ५.११.१७]


मन पर दवजर्य प्राप्त करने का एक बहुत ही आसान अस्त्र है – उपक्षे ा | मन हमेशा हमें बताते रहता है की र्यह कीदजए;
इसीदलए हमें मन के आिेशों को िालने में िक्ष होना चादहए | धीरे धीरे करके, मन को आत्मा के आिेशों का पालन करने हेत ु
प्रदशदक्षत करना चादहए |

9. मन के साथ िोस्ती न करे


ृ ि
[श्रील प्रभुपाि श्री भा ५.६.३ पर प्रवचन, वन ् ावन, २५ नवम्बर, १९७६]
17
1.
“तो दवश्वास न करे, अपने चचं ल मन के साथ कभी िोस्ती मत कीदजए। र्यह उपिेश हैं। िोस्ती मत कीदजए। मन को
के वल जूतों से और झाड़ से फिकारे ू ; वरना उस पर दनर्यंत्रण पा नही ं सकते। और के वलर्या भक्त्र्या र्यह िसू रा उपार्य
हैं। तो र्यदि आप मन को कृ ष्ण के चरण कमल पर र्युि कर सकते हो तब हो सकता है।

10. ध्वनी को सुदनए मन को नही ं [मोदनिंग वाक, हवाई, ३ फरवरी, १९७५]


भि – श्रील प्रभुपाि, जप करते समर्य मेरे मन को दनर्यंदत्रत करना बहुत कदठन होता है। वह बहुत घूमता है।

18
प्रभुपाि – तो, मन को दनर्यंत्रण करना मतलब क्र्या? आपको के वल जप करना है और सुनना है, बस। आपकी जीभ के िारा
जप करना है, और उसका ध्वनी सुनना है, बस। मन का प्रश्न दकधर आता है?

11. मन आपको बताएगा


- थोडा पानी पी लों (भले दह आप प्र्यासे नही ं होंग)े
- बाथरूम जाकर आओ – अभी कोई िेख नही ं रहा, जाओ थोडा सो लों
- नाश्ता के समर्य थोडा ज्र्यािा खा लों
- जप करना बहुत कदठन हो रहा है! – स्वामी र्या दकसी प्रभु के साथ जाकर बात करों - प्रभु, आपने दकतने
माला जप कर दलर्या हैं?
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आप मन नही ं हो!

* मन के दलए मौन व्रत धारण कर लीदजर्ये – मन की बात मत सुनो!


* भले ही आप का ध्र्यान भिक रहा हो दफर भी जप करते रदहर्ये, दसफथ जप करते जाइर्ये – जप करना कभी मत छोदडर्ये
* ध्र्यानपूवथक जप करने के दलए दलदखत स्वरूप में महा मन्त्र की कु छ वि की मिि

12. बादक तैर्यादरर्यां


* स्वीकार करने का भाव (हादसल करने का भाव नहीं), हृिर्य को खुला रखकर राधा कृ ष्ण को श्री हदर नाम र्या श्री कृ ष्ण
नाम के रूप में आमंतर् ण – हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे , हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे * ह्रिर्य में प्रवेश –
अनथथ रहेंगे
* शारीदरक/मानदसक थकावि में कै से दकसी की मिि करे
* आप दकसीसे भी के वल मुस्कु राकर बात कर सकते हो
* सोने से पहले, आपके कपडे (हलके रंग के ), शुदच दकि, दतलक, दबड बैग (अदधमनतः सिा), गाड़ी की चाबी, ई. इकठ्ठा
करके रखना
* जलिी सोकर जलिी उदठए
* साथ में आकर जप कीदजए (अके ले नही)ं
* हरे कृ ष्ण जप करना र्यह एक परम और दवशेष अदधकार है
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सप्तं सत्र क्षमा औि नम्रता

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1. वैष्णव अपराध भौदतक पापों से अदधक पापमर्य होता है [श्री भा. ४.२६.२४ तात्पर्यथ]
इसका दनष्कषथ र्यह है दक र्यदि कृ ष्ण भावनामत ृ भौदतक पापों से आच्छादित है , तो के वल हरे कृ ष्ण मंतर् के जप से उन
पापों को समाप्त दकर्या जा सकता है, लेदकन र्यदि कोई अपनी कृ ष्ण भावनामत
ृ को एक ब्राह्मण र्या वैष्णव के प्रदत अपराध
करके िदू षत करता है, वह तब तक पुनरूथप में नही ं आ सकता, जब तक वह उस अपराध का प्रार्यदित उन ब्राह्मण र्या
वैष्णव को प्रसन्न करके नही ं करता । िवु ास मुदन को इसी मागथ का अनुगमन करना पड़ा, इसीदलए वह अंबरीश
महाराज को शरणागत हुए। वैष्णव अपराध को, अपराध दकर्ये हुए वैष्णव के प्रदत मार्ी मागं ने के आलावा कोई अन्र्य माग थ
से नहीं सुलझा जा सकता।

2. क्षमा र्याचना
[श्री हदरनाम चचतामदण, अध्र्यार्य ४, साधू-चनिा का उपार्य]
“र्यदि कोई भ्रम और उन्माि में साधू/साध्वी की चनिा करता है , तो उसे उस साधू/साध्वी के चरणों में दगरकर फु ि फु ि
कर पिाताप करना चादहए; रोकर पूरी तरह पिाताप करके उनसे क्षमा र्याचना करनी चादहए। अपने आप को वैष्णव की कृ पा
दक जरुरत महसूस करते हुए स्वर्यं को पदतत और नीच घोदषत करना चादहए।
3. र्यदि मै र्यह जान लूँ दक मैंने दकसी भि का अपराध दकर्या है तब मुझे क्र्या करना
चादहए?
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4. र्यदि मै र्यह जान लूँ दक मैंने दकसी भि का अपराध दकर्या है, लेदकन उस भि के पास जाकर क्षमा र्याचना करने का बल र्या
साहस र्या जरुरी शदि मेरे पास नही ं है तब मुझे क्र्या करना चादहए?
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5. र्यदि मै क्षमा र्याचना करता/करती हू ,ँ लेदकन अपरादधत भि मुझे के वल उपरी तौर पर मार् करता/करती है तब मुझे क्र्या
करना चादहए?
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20
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6. र्यदि मै क्षमा र्याचना करता/करती हू ँ लेदकन अपरादधत भि मुझे मार् नहीं करते है तब मुझे क्र्या करना चादहए?

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7. क्षमा करना
[अध्र्यार्य ४, साधू चनिा के उपार्य]
एक साधू/साध्वी बड़े कृ पालु होते हैं; उनका ह्रिर्य कोमल हो जार्येगा और वह अपराधी को अपराधों से िोषमुि करके क्षमा कर
िेंगे,

८अ) र्यदि कोई भि मेरे पास क्षमा र्याचना के दलए आते है तब मुझे क्र्या करना चादहए?

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८ब) मुझे क्षमा क्र्यों करना
चादहए?
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ं ी है की मै अपराधी को क्षमा नही ं कर पा


९. कोई भि मेरे पास क्षमा र्याचना के दलए आते है। लेदकन मुझे इतनी गहरी ठे स पहुच
रहा हू ।
ँ मुझे क्र्या करना चादहए?
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१०. क्षमा करने और क्षमा र्यादचत के फार्यिे


अ) [श्री भा. ४.२०.३, तात्पर्यथ] “ऐसा माना जाता है की क्षमा करना उनका गुण है, जो अध्र्याम्त्मक ज्ञान में प्रगती कर रहे है”

ब) [श्री. भा. १.९.२७, तात्पर्यथ] “िोध से मुदि पाने के दलए, व्र्यदि को, क्षमा कै से करना, दसखना चादहए”
क) [श्री. भा. ९.१५.४०] “एक ब्राह्मण का कतथव्र्य है की उसे क्षमा करने के गुण का संस्कार होना चादहए , जो दक सूर्यथ के
सामान चमकता है। भगवान ऐसे लोगों से प्रसन्न होते है जो क्षमा करते है।”

ड) [भ.गी.१०.४-५, तात्पर्यथ] क्षमा का अभ्र्यास करना चादहए। मनुष्र्य को सदहष्णु होना चादहए और िसू रों के छोिे-छोिे
अपराधों को क्षमा कर िेना चादहए।
इ) [श्री. भा. ४.६.४८, तात्पर्यथ] “ऐसा माना जाता है की क्षमा करना एक तपस्वी र्या साधू व्र्यदि की सुनि
् रता है।”

11. हमारे संस्थापक आचार्यथ अपने उिाहरण से दसखाते है


ृ , ६वा खंड, अध्र्यार्य ५५, अंदतम दशक्षा]
[श्रील प्रभुपाि लीलामत

21
ु से क्षमा र्याचना करने लग े तब उन्होंने उनको रोका। उनमे से एक ने कहा , “आप शाश्वत
जब प्रभुपाि अपने गुरु बंधओ
नेता हो” । “आप हम पर राज करते हो, मागथिशथन करते हो और हमें डािं ते हो।” “कृ पर्या मेरे सारे अपराध मार् कर
िीदजए”, प्रभुपाि ने िोहरार्या। “मै इस वैभव से गर्षवत हो गर्या।” “नहीं”, पूरी महाराज कहे, “आप कभी गर्षवत नहीं हुए।
जब आपने प्रचार प्रारंभ दकर्या तब वैभव और र्यश आपके पीछे आर्ये । वह तो श्री चतै न्र्य महाप्रभु और श्री कृ ष्ण का
आदशवाि है। आपके अपराधी होने का कोई प्रश्न ही नही ं होता है।

जब श्रील प्रभुपाि ने अपने आप को महापदतत प्रस्तुत दकर्या तब पूरी महाराज ने इसे स्वीकार नही ं दकर्या। “आपने पुरी
िदु नर्या में लाखों लोगों को बचार्या है,” उन्होंने कहाँ। “इसीदलए र्यहा ँअपराध का प्रश्न ही नही ं उठता। लेदकन आपको
तो महापदतत पावन कहा जाना चादहए।” प्रभुपाि के दशष्र्यों ने प्रभुपाि का अपने गुरु बंधओ ु ं से क्षमा र्याचना करना र्यह
नम्रता का प्राकट्य समझा। लेदकन वह भी असमंजस थे। दनदित रूप से प्रभुपाि के गुरु बंध ू प्रमादणक थे र्यह कहते हुए
की प्रभुपाि ने कोई अपराध नही दकर्या। जो भी उन्होंने दकर्या था वह कृ ष्ण के दलए था। लेदकन श्रील प्रभुपाि भी क्षमा
र्याचना करने में प्रमादणक थे। वह उनके नम्रता का सुि ं र रत्न था – सबसे क्षमा र्याचना करना। प्रत्र्येक नगर और
ग्राम में भगवान कृ ष्ण की कृ पाभरी दशक्षाओं को प्रचार करने के दलए र्यह रत्न का प्राकट्य लाभिार्यी नही होता। दकन्तु
अब उसे दिखलार्या जा सकता हैं...गहरी नम्रता का र्यह भाव, भदि के उच्चतम स्तर का लक्षण है ...प्रभुपाि के दशष्र्यों ने महा-
भागवत के लक्षणों को शास्त्रों में पढ़ा था और अब वे उसे प्रकि रूप में िेख रहे थे, जब प्रभुपाि अपने आपको महा पदतत
कहकर सबसे क्षमा र्याचना कर रहे थे।”

12. क्षमा पर पाठ


अ) दजतना जलिी हो सके मै कम से कम ३ भिों के पास जाऊंगा /जाउगं ी दजनका मैंने अपराध दकर्या है और उनसे क्षमा
र्याचना करूगँ ा/करुँ गी।
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ब) वैकम्लपक – दकसी अनुभवी पदरपक्व वदरष्ठ भि के साथ, दफर मै उस/उन भि के पास जाउगँ ा/जाऊगँ ी दजन्होंने
मुझे बहुत ठे स पहुच
ं ाई है और कहू ग
ँ ा/कहू ग
ँ ी, “मुझे ऐसा लगता है की आपसे मुझे बहुत ठे स पहुच
ँ ी है। ऐसा सोचने के दलए मुझे
क्षमा कर िीदजए।”
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ृ अन्त्र्य लीला २०.२१]


13. मै उपर दिए हुए पाठ को क्र्यों करूँ? [चतै न्र्य चदरतामत
त ृ ािवप सुवनिने तरोररि सवहष्णुना। अमावनन
मानिेन वकतवण नयिः सिा हररिः॥
अनुवाि “जो अपने आप को घास से अदधक तुच्छ सोचता है, जो वक्ष ृ से भी अदधक सदहष्णु है, और जो दनजी सम्मान न
चाहकर अन्र्योंको आिर िेने के दलए सिैव तैर्यार रहता है, वह सिैव भगवान के पदवत्र नाम का कीतथन कर सकता है।”

अष्टं सत्र
श्री चतै न्य महाप्रभ ु के प्रोत्साहन देन े वाल े िब्द

ृ अन्त्र्य लीला, अध्र्यार्य २०, श्लोक २०,२१,२६,२७,२८


श्री चतै न्र्य चदरतामत

22
ये रुपे िइिे नाम प्रेम उपजाय
ताहार िक्ष शन स्वरूप राम रायु
श्री चतै न्र्य महाप्रभु ने कहा, “हे स्वरूप िामोिर गोस्वामी तथा रामानंि रार्य! मनुष्र्य को अपने सुप्त कृ ष्ण प्रेम को जाग्रत
करने के दलए दकस तरह हरे कृ ष्ण महामंतर् का कीतथन करना चादहए उन लक्षणों को तुम मुझसे सुनो ।”

त ृ ािवप सुवनिने तरोररि सवहष्णुना अमावनन


मानिेन वकतवण नयिः सिा हररिः
जो अपने आप को घास से अदधक तुच्छ सोचता है, जो वक्ष ृ से भी अदधक सदहष्णु है, और जो दनजी सम्मान न चाहकर
अन्र्योंको आिर िेने के दलए सिैव तैर्यार रहता है, वह सिैव भगवान के पदवत्र नाम का कीतथन कर सकता है।

एइ मत हया यइे कृष्ण नाम िय श्री


कृष्ण िर े तार प्रमे उपजाय
र्यदि कोई इस तरह से भगवान क ष्ण के नाम का कीतथन करता है , तो वह दनिर्य ही कृष्णा के चरण कमलों के प्रदत अपना

ृ कर लेगा।
सुप्त प्रेम जागत

कवहते कवहते प्रिुर िैन्य बाड़ीिा


शद्ध िवक्त कृष्ण ठानी मावगते
िावगिाु
जब भगवान चतै न्र्य इस तरह बोले, तो उनका िैन्र्य बढ़ गर्या और वे कृ ष्णा से शुद्ध भि संपन्न कर पाने के दलए प्राथथना
करने लगे।

प्रेमेर स्विाि – यहााँ प्रमे ेर सांबांध सेइ


माने – ‘कृष्ण मोर नाही प्रेम गांध’
जहाँ भी भगवि प्रेम का सम्बन्ध होता है , इसका स्वाभादवक लक्षण र्यही है भि अपने को भि नहीं सोचता। बम्लक वह सिैव र्यही
सोचता है की उसमे कृ ष्ण के प्रदत रंच भी प्रेम नही ं है।

ब. श्रील प्रभपु ाद के द्वािा ६४ माला जप के बािे में


अ) [श्रील प्रभुपाि का भदिजन को पत्र, लॉस एंजदलस, १२ फरवरी १९६८]
मै दफरसे आपको माला बढ़ाते हुए सिैव जप करने की सलाह िेता हू ँ, १६ माला आम तौर पर दनधादरत है , लेदकन कु छ
समर्य के दलए आप बादक सारे कार्यथ रूकाकर आप ६४ माला तक जप बढाइए।

ब) [हंसितु को पत्र, हवाई, २३ माच थ१९६९]


हाँ, र्यह बहुत अच्छा है अगर आप ६४ माला जप कर सकते है, र्यदि आप ऐसा कर सके तो बहुत बदढ़र्या है।

क) [श्री.भा. ४.२४.७० तात्पर्यथ]


र्यह दनिेश भगवान श्री चतै न्र्य महाप्रभु ने अपने दशक्षाष्टक के ३रे श्लोक में दिर्या है। कीतथदनर्य सिा हदरः। “भगवान के
पदवत्र नाम का जप दनत्र्य रूप से चौबीस घंिा करना चादहए” इसीदलए इस कृ ष्ण भावनामत ृ आंिोलन में हम भिों से
दवनंती करते है की वे कम से कम अपनी माला पर सोलह माला का जप करे। वास्तदवक रूप से हर एक को हररोज चौबीस
घंिा जप करना चादहए,

23
जसै े की ठाकु र हदरिास, जो हरे कृ ष्ण महामंतर् के तीन लाख नाम रोज जप कर रहे थे। दनस्संिेह , उन्हें िसू रा कोई
कार्यथ नही ं था।

ड) [उपिेशामत
ृ , श्लोक ५, तात्पर्यथ]
कृ ष्ण भावनामतृ आंिोलन हर रोज सोलह माला का जप दनधादरत करता है , क्र्योंदक पािात्र्य िेश के लोग अपने माला पर
ू तम माला को दनधादरत दकर्या है। मगर, श्रील भदि दसद्धातं
जप करते समर्य ज्र्यािा ध्र्यान नही ं कर पाते। इसीदलए न्र्यन
सरस्वती ठाकु र कहते थे की जब तक कोई चौसठ माला का जप (एक लाख नाम) नहीं करता, वह पदतत माना जाता है।
उनके दहसाब से हम सब पदतत है, लेदकन क्र्योंदक हम गभं ीरता और दबना कपि के भगवान की सेवा करने की कोदशश
कर रहे है, हम भगवान श्री चतै न्र्य महाप्रभु की कृ पा की आशा रख सकते है, जो की पदतत पावन के नाम से दवख्र्यात है।

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नवमं सत्र
६४+ जप का व्यनिगत मल्ूाकं न
आजके ६४+ माला दिन का सबसे अच्छा अनुभव क्र्या था?
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__________________________________________________________________________________ इस
िौरान आर्ये हुए संघषथ क्र्या थे?
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__________________________________________________________________________________ मेरे जप
को सुधारने हेत ु मुझमें आज के दिन क्र्या जागरूकता हुई?
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िशं सत्र कृ तज्ञता

१अ) “दमत्र से सेवा”


[भदि रसामत
ृ दसन्धु, अध्र्यार्य २१]
कोई व्र्यदि जो अपने दमत्र की परोपकारी कार्यों को ज्ञात रखता है और उसकी सेवा कभी नही ं भूलता उसे कृ तग्र्य कहा
ँजाता है।

१ब) भि की रोने की पुकार से कृ ष्ण ऋणी हो जाते है – महाभारत में कृ ष्ण कहते हैं , “ जब मै िौपिी से िरू था, तब उन्होंने
मुझे
‘हे गोदवन्ि!’ करके हृिर्यपूवथक पुकारा। इससे मै उसका ऋणी हो गर्या हू ँ और मेरे ह्रिर्य में वह ऋण िमशः बढ़ते जा रहा
है।

१क) कृ ष्ण बाध्र्य जो जाते है – महा मन्त्र (हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे , हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ) भी
भगवान और उनकी शदि को के वल एक पुकार है । तो जो कोई भगवान और उनकी शदि को पुकारने में सिैव रत है , हम
कलपना कर सकते है की भगवान दकतने बाध्र्य होते होंगे। भगवान के दलए असंभव है ऐसे भि को भूल पाना ।

25
२अ) कृ तज्ञता का पाठ – उन चीजों को दलखे दजनके प्रदत अपने जीवन में आप भौदतक रूप से और अध्र्याम्त्मक रूप से कृ
तज्ञ हो। (अपने साथ वाले भि से कदहर्ये और दफर उनसे सुदनए)

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२ब) कृ तज्ञता का पाठ - उन चीजों को दलखे दजनके प्रदत अपने जीवन में आप भौदतक रूप से और अध्र्याम्त्मक रूप से
अकृ तज्ञ/कृ तघ्न हो। (दकसीसे कहना नही)ं
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3. कृ ष्ण का अनुगर् ह और अहैतक
ु ी कृ पा [श्री भा १.१७.२२, तात्पर्यथ]
“जो सब वस्तुओ में भगवान को िेखता है , ऐसे भि को कोई कष्ट ही नही ं होते है, क्र्योंदक उस भि के दलए तथा कदथत कष्ट
भी भगवान की कृ पा होते है ।

ृ दसन्धु, अध्र्यार्य १०, भगवान की कृ पा की आशा]


[भदिरासमत
ु ी कृ
िसवे स्कं ध के चौिहवे अध्र्यार्य के आठवे श्लोक में कहा गर्या है, “ मेरे दप्रर्य भगवान, कोई भी व्र्यदि जो आपके अहैतक
पा प्रिान होने की सिैव प्रतीक्षा करता है, और जो सिैव ह्रिर्य की गहराई से आपको प्रणाम अपणथ करते हुए अपने पूवथ
कमो के फल को भोगता रहता है , दनिर्य ही मुि होने के दलए पात्र है , क्र्योंदक वह उसका अदधकारी बन चूका है। श्रीमि
भगवत का र्यह कथन सभी भिों को मागथिशी होना चादहए।

4. कृ तज्ञता पाठ – सकारात्मक पदरवतथन


आप दजन बातों के दलए कृ तघ्न/अकृ तज्ञ हो उसमे से कोई एक बात लेकर र्यह सोदचर्ये (दलखकर), “कृ ष्ण मुझे क्र्या
दसखाना चाहते है, इसमें क्र्या दसख है?”
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एकािश सत्र
श्रील प्रभपु ाद को कृ तज्ञता पत्र शलखन े की तयै ािी
हदर नाम – हदर का पदवत्र नाम, हरे कृ ष्ण महा मंतर् (श्री चतै न्र्य चदरतामत ृ , अदि लीला,
१३.२२) कृ ष्ण नाम – कृ ष्ण के पदवत्र नाम (श्री चतै न्र्य चदरतामत
ृ , मध्र्य लीला १५.१०६ और
१११)

अ.) कृ तज्ञता पत्र दलखने की तैर्यारी

दिनाकं स्थान
मेरे दप्रर्य श्रील
प्रभुपाि,

कृ पर्या मेरा िंडवत प्रणाम स्वीकार कीदजए, श्री गुरु और गौरागं का जर्य,

[अपनी कृ तज्ञता को व्र्यि करे]

1. श्रील प्रभुपाि के प्रदत


2. श्री हदरनाम र्या कृ ष्णनाम के प्रदत
3. उस व्र्यदि के प्रदत दजन्होंने आपको पहली बार कृ ष्ण भावनामतृ का पदरचर्य दिर्या
4. आपके सम्बन्ध, श्रद्धा और सेवा के तौर पर आपके शुभ दचन्तक के प्रदत – जसै े दक GBC, िीक्षा गुरु, दशक्षा गुरु,
मंदिर के अध्र्यक्ष, सेवा अथोदरिी, आश्रम इंचाजथ, नाम हट्ट के प्रमुख, काउं सल
े र, अन्र्य कोई (जसै े दक दपता, माता,
इ)

[कृ तज्ञता का प्रकिीकरण करने हेत ु आप इन शब्िों का प्रर्योग कर सकते हो – धन्र्यवाि , कृ तज्ञ, महानुभाव, ऋणी, बाध्र्य,
ु ी कृ पा, इ. र्या आपके पसंि के अन्र्य कोई शब्ि]
अहैतक
[अंत में एक र्या िो वाक्र्यों में अपने आप को नम्रता से व्र्यि करे ] आपका
...... िास

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[आपके सुदवधानुसार आप श्रील प्रभुपाि के दवग्रह र्या फोिो को र्यह पत्र अपथण कर सकते हो और अपने एक र्या अनेक
शुभ दचन्तक को भी उस पत्र के प्रत भेज सकते हो]

ब.) वैर्यदिक पदवत्र जप स्थान आपके वैर्यदिक पदवत्र जप स्थान का वणथन कीदजए। र्यह ऐसी जगह है जहा
आप दबना बाधा के जप कर सकते हो।
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क.) वैकम्लपक – प्रस्तादवत संकलप पत्र की तैर्यारी

आपके सम्बन्ध, श्रद्धा और सेवा के तौर पर आपके एक र्या अनेक शुभ दचन्तक को प्रस्तादवत संकलप पत्र दलखे – GBC,
िीक्षा गुरु, दशक्षा गुरु, मंदिर के अध्र्यक्ष, सेवा अथोदरिी, आश्रम इंचाजथ, नाम हट्ट के प्रमुख, काउं सल
े र, अन्र्य कोई (जसै
े दक दपता, माता, इ) – आपके संकलप को आिर करने, उनकी कृ पा और आशीवाि प्राप्त करने, और अनुमदत प्राप्त
करने हेत। ु आपके शुभ दचन्तक शार्यि आपके संकलप में बिलावि करा सकते है।

दिनाकं स्थान
मेरे दप्रर्य
..........
कृ पर्या मेरा िंडवत प्रणाम स्वीकार कीदजए, श्री गुरु और गौरागं का जर्य,

[जप आश्रर्य कोसथ में भाग और अपने साक्षात्कार का वणथन कीदजए]

[जप के बारे में आपके प्रस्तादवत अध्र्याम्त्मक शपथ र्या संकलप को दलदखए]

• मै हर दिन कम से कम ?? माला का जप करूँगा/करुँ गी


• र्यदि िीदक्षत हो तो आप आपकी शपथ को पूवथ अवस्था में लेने का संकलप कर सकते हो
• वही …… माला करूँगा/करुँ गी लेदकन सवेरे में सबसे पहले करूँगा/करुँ गी
• एकािशी को …… (२५+) माला जप करूँगा/ करुँ गी
• ६४+ माला का जप साल में एक, िो, तीन र्या चार बार, र्या महीने में एक बार, र्या हर एकािशी को

[अंत में एक र्या िो वाक्र्यों में अपने आप को नम्रता से व्र्यि करे ] आपका
...... िास

28
हरे कृ ष्ण जदपए और सिा सुखी रदहए
परिदशष्ट
हिे कृ ष्ण महा मन्त्र के जप का स्पष्टीकिि

इस छोिे दनबंध में श्रील प्रभुपाि हरे कृ ष्ण मन्त्र के आतंदरक अथथ पर प्रकाश डालते है , जो १९६६ में दरकाडथ दकर्या
गर्या है

हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे इस मन्त्र के जप की दिव्र्य ध्वनी हमारी दिव्र्य चते ना
ृ करने का उिात्त तरीका है। आत्मा होने के नाते, हम सब वास्तदवक रूप में कृ ष्ण भावना भादवत जीव है,
को पुनजागत
लेदकन अनािी काल से भौदतक तत्त्वों के संसगथ के कारण हमारी चते ना दर्लहाल भौदतक वातावरण से िदू षत हो गई है।
दजस भौदतक वातावरण में हम अभी रह रहे है उसे मार्या र्या मोह कहते है। मार्या का अथथ है , “वह, जो नहीं है”। और र्यह
मार्या/मोह क्र्या है? मोह र्यह है दक हम सब इस भौदतक प्रकृ दत के स्वामी बनने का प्रर्यास कर रहे है , जबदक असल में हम
सब भौदतक प्रकृ दत के कठोर दनर्यमों दक पकड़ में है । जब कोई सेवक अपने सवथ शदिमान स्वामी की कृ दत्रम रूप से
नक़ल करता है तब वह मोदहत कहलाता है। हम सब भौदतक प्रकृ दत के साधनों का शोषण करने का प्रर्यास कर रहे है ,
लेदकन असल में हम उसकी जदिलताओ में ज्र्यािा से ज्र्यािा फसते जा रहे है। इसीदलए भले ही हम प्रकृ दत पर दवजर्य पाने
के कठोर संघषथ में लग े है, लेदकन हम उस पर और भी ज्र्यािा दनभथर होते जा रहे है। भौदतक प्रकृ दत के दवरुद्ध इस
मोहमर्य संघषथ को तुरन्त रोका जा सकता है हमरी सनातन कृ ष्ण भावनामत
ृ को जागत
ृ करके ।

हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे , र्यह दिव्र्य पद्धदत है इस स्वाभादवक, शुद्ध चते ना को
ृ करने की । इस दिव्र्य ध्वनी का जप करके हमारे हृिर्य के सारे कलमश धुल सकते है। मै स्वामी हू ँ जो मैं सवेक्षण करता
जागत
हू ,ँ इस गलत चते ना ही सभी कलमषो का मूल दसद्धातं है ।

कृ ष्ण भावनामत
ृ मन पर कोई कृ दत्रम आरोपण नही ं है। र्यह चते ना, जीव की स्वाभादवक, नैसर्षगक शदि है। जब हम इस
दिव्र्य स्पन्धन को सुनते है तब र्यह चते ना पुनजीदवत होती है। इस र्युग के दलए ध्र्यान करने का र्यह सबसे सरल तरीका
प्रस्तादवत है। कोई अपने स्वानुभव से समझ सकता है की इस महा मन्त्र के जप करने से एकाएक अध्र्याम्त्मक स्तर से
दिव्र्य परमानंि का अहसास होता है। भौदतक जीवन के दवदध में हम इम्न्िर्य तदृ प्त के दवषर्यों में व्र्यस्त रहते है , मानो की
हम दनम्न, पशु स्तर पर हो। इस भौदतक चगं ुल से दनकलने के दलए कोई मानदसक कलपना में रत रहता है जो
इम्न्िर्य तदृ प्त के स्तर से थोडा उठकर है। इस मनोकम्लपत स्तर से थोडा उपर वह है जो थोडा बहुत बुदद्धमान है , अंिर-
बाहर के परम कारण की खोज करने का प्रर्यास करता है। और जब कोई वास्तदवक रूप से इम्न्िर्य , मन, बुदद्ध के स्तर
को पारकर अध्र्याम्त्मक बोध के स्तर पर आता है , तब वह दिव्र्य स्तर पर कहलाता है। इस हरे कृ ष्ण मन्त्र को अध्र्याम्त्मक
स्तर से अदधदनर्यदमत दकर्या गर्या है, इसीदलए र्यह दिव्र्य ध्वनी ऐम्न्िक, मानदसक, बौदद्धक ऐसे दनचले स्तरों की चते ना
को पार करती है। इसीदलए इस मंतर् के जप करने में न तो उसकी भाषा समझने की जरूरत नही ं है, न दह दकसी प्रकार के

29
मानदसक कलपना की आवश्र्यकता, न दह दकसी बौदद्धक सामंजस्र्य की जरूरत है।र्यह अध्र्याम्त्मक स्तर से होने के कारण
अपने आप कार्यथरत होता है, और इसमें दबना दकसी पूवथ र्योग्र्यताओं के कोई भी भाग ले सकता है। अदधक प्रगत
अवस्था में अध्र्याम्त्मक समझ के बल पर, बेशक अपराध करने की अपेक्षा नही ं है।

शुरुवात में अष्ट साम्त्वक दवकार की उपम्स्थदत नही ं होगी। (१) गूग
ं े की तरह रुक जाना, (२) पसीना छु िना, (३)
रोमाचं खड़े होना, (४) वाणी गिगि होना, (५) कम्पन, (६) शरीर दसकु ड़ना, (७) परमानंि में रोना, और (८) समाधी। हा,
लेदकन इसमें कोई शक नही ं दक थोडा जप करने मात्र से दह उसको तुरत
ं ही अध्र्याम्त्मक स्तर पर लाता है , और इस मन्त्र
ृ य करने की तीव्र इच्छा ही इसका पहला लक्षण है। हमने अपनी आँखों से िेखा है। एक साधारण बच्चा भी
के साथ नत्र्
ृ य में भाग ले सकता है। बेशक, जो भौदतक जीवन में बहुत ही फं सा है उसे इस सामान्र्य स्तर पर आने में
इसके जप और नत्र्
थोडा ज्र्यािा समर्य लगगे ा, लेदकन ऐसे भौदतक चीजों में तल्लीन व्र्यदि को भी बहुत शीघ्र अध्र्याम्त्मक स्तर पर उन्नत
दकजा जा सकता है। जब इस मन्त्र को भगवान के शुद्ध भिों िारा प्रेम से जपा जाता है, तब वह श्रोताओ पर महानतम
प्रभाव करता है, और स्वाभादवक तौर पर र्यह मन्त्र भगवान के शुद्ध भि के मुख से सुनना चादहए दजससे तुरत
ं पदरणाम
प्राप्त दकर्या जा सकता है। दजतना हो सके इस मन्त्र का जप अभिो के मुख से सुनना िालना चादहए। सप थ िारा
स्पर्षशत िधू का दवषैला पदरणाम होता है।

र्यह हरा शब्ि, भगवान दक शदिरूप को संबोदधत करता है , तथा कृ ष्ण और राम स्वर्यं भगवान के रूपों को संबोदधत करते
है। कृ ष्ण और राम का अथथ है “परम आनंि” और हरा भगवान की ह्लादिदन शदि है, दजसका संबोधाक रूप “हरे” मे
पदरवतथन होता है। भगवान की परम ह्लादिदन शदि हमें भगवान के पास जाने के दलर्य मिि करती है।

भौदतक शदि, र्याने मार्या भी भगवान की अनेक शदिओ में से एक है। और हम , जीवात्मा भी भगवान की तिस्था शदकत है।
जीवात्मा भौदतक प्रकृ दत से परा कहलाती है। जब परा प्रकृ दत अपरा प्रकृ दत के संपकथ में आती है तब दवसंगदत की
म्स्थदत उत्पन्न होती है; लेदकन जब परा तिस्था शदि परा प्रकृ दत, हरा के संपकथ में आती है तब वह आनंिमर्य साधारण
म्स्थदत में म्स्थत होती है।

हरे, कृ ष्ण और राम र्यह तीन शब्ि इस महा मन्त्र के दिव्र्य दबज है। जप एक बद्ध जीवात्मा को संरक्षण िेने हेत ु भगवान
और उनकी शदि को अध्र्याम्त्मक पुकार के सामान है। र्यह जप अपनी मा ँ के उपम्स्थदत हेत ु दकर्या हुआ एक बच्चे का
सच्चा िं िन है। मा ँ हरा, भि को अपने भगवान दपता की कृ पा प्रिान करने में मिि करती है , और भगवान ऐसे भि को
अपने आप प्रकि कराते है जो इस मन्त्र का प्रमादणकता से जप करता है।
इस कलह और कपि के र्युग में अध्र्याम्त्मक साक्षात्कार का इस महा मन्त्र, हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे हरे राम हरे
राम राम राम हरे हरे के जप के आलावा अन्र्य कोई प्रभावशाली उपार्य नहीं है।
प्राथथना – हिे कृ ष्ण महा मन्त्र
कृ ष्ण कृ पा श्री मूर्षत ए.सी.भदिवेिातं स्वामी प्रभुपाि िारा
महत्त्व

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र्यह हरा शब्ि, भगवान दक शदिरूप को संबोदधत करता है, तथा कृ ष्ण और राम स्वर्यं भगवान के रूपों को संबोदधत करते
है। कृ ष्ण और राम का अथथ है “परम आनंि” और हरा भगवान की ह्लादिदन शदि है, दजसका संबोधक रूप “हरे” मे
पदरवतथन होता है। भगवान की परम ह्लादिदन शदि हमें भगवान के पास जाने के दलर्य मिि करती है। भौदतक शदि, र्याने
मार्या भी भगवान की अनेक शदिओ में से एक है। और हम, जीवात्मा भी भगवान की तिस्था शदि है। जीवात्मा भौदतक प्रकृ
दत से परा कहलाती है। जब परा प्रकृ दत अपरा प्रकृ दत के संपकथ में आती है तब दवसंगदत की म्स्थदत उत्पन्न होती है;
लेदकन जब परा तिस्था शदि परा प्रकृदत, हरा के संपकथ में आती है तब वह आनंिमर्य साधारण म्स्थदत में म्स्थत होती
है। हरे, कृ ष्ण और राम र्यह तीन शब्ि इस महा मन्त्र के दिव्र्य दबज है।

संरक्षण के दलए प्राथथना


जप एक बद्ध जीवात्मा को संरक्षण िेने हेत ु भगवान और उनकी शदि को अध्र्याम्त्मक पुकार के सामान है। र्यह जप अपनी मा
ँ के उपम्स्थदत हेत ु दकर्या हुआ एक बच्चे का सच्चा िं िन है। मा ँ हरा , भि को अपने भगवान दपता की कृ पा प्रिान
करने में मिि करती है, और भगवान ऐसे भि को अपने आप प्रकि कराते है जो इस मन्त्र का प्रमादणकता से जप करता है।

सेवा के दलए प्राथथना र्यह हरे कृ ष्ण महामंतर् भी एक प्राथथना है, ऐसी प्राथथना जो भगवान को उनके नाम से सम्बोदधत
करती है, और भगवान को अजी करके अपने को भगवान की भदिमर्य सेवा में दनर्युि करने का सौभाग्र्य पाता है। हरे कृ ष्ण
महामंतर् र्यह भी कहता है, “मेरे दप्रर्य भगवान कृ ष्ण, मेरे दप्रर्य भगवान राम, हे भगवान की शदि, हरे, कृ पर्या आपकी सेवा में
दनर्युि कीदजए।” [श्री. भा. ४.२४.६९] जब हम हरे कृ ष्ण महा मन्त्र का जप करते है , तब हम कह रहे है, “हरे! हे भगवान
की शदि, हे मेरे दप्रर्य भगवान कृ ष्ण!”... भि हमेशा भगवान और उनकी अंतरंगा शदि (सहचारी/पत्नी) को प्राथथना करता है
की वह सिैव उनकी दिव्र्य प्रेममर्य सेवा में दनर्यिु रहे। जब बद्ध जीवात्मा अपनी सच्ची अध्र्याम्त्मक शदि को पाता है और
भगवान के चरण कमलों में पूरी तरह शरणागत होता है , तब वह भगवान के सेवा में दनर्युि होने का प्रर्यास करता है। जीवात्मा
ृ मध्र्य लीला २२.१६] अभी हम भौदतक शदि के चगं ुल में फसे है।
का र्यही वास्तदवक स्वरूप है। [श्री चतै न्र्य चदरतामत
इसीदलए हम कृ ष्ण से प्राथथना करते है, दक कृ पर्या वे हमें भौदतक शदि की सेवा से छु िकारा दिलवाकर उनकी
अध्र्याम्त्मक शदि की सेवा में स्वीकार करे। र्यही हमारा सारा िशथन है। हरे कृ ष्ण मतलब, “हे भगवान की शदि, हे
भगवान[कृ ष्ण], कृ पर्या मुझे आपकी सेवा में दनर्युि करे। [आत्म साक्षात्कार की दवज्ञान]

स्वीकृ दत की प्राथथना
हरे भगवान के शदि को संबोदधत करता है , और कृ ष्ण तथा राम साक्षात् भगवान को संबोदधत करता है। इसीदलए जब हम
हरे कृ ष्ण का जप करते है, हम प्राथथना कर रहे है , “हे भगवान, हे भगवान की शदि, कृ पर्या मुझे स्वीकार दकजीए।” “कृ
पर्या मुझे स्वीकार कीदजए” इसके आलावा हमें कोई प्राथथना नही ं है। [र्योग की पूणथता]

‘हिे ’, ‘कृ ष्ण’ औि ‘िाम’ का अथथ अ.


‘हरे ’ का अथथ
हरा कृ ष्ण की अंतरंगा शदि है, श्रीमती राधारानी र्या लक्ष्मी
जब हम महामंतर् का जप करते है , तब हम वास्तदवक रूप से भगवान और उनकी शदि हरा को संबोदधत करते है। हरा कृ
ष्ण की अंतरंगा शदि है, श्रीमती राधारानी। इस प्रकार वैष्णव, राधा-कृ ष्ण, लक्ष्मी-नारार्यण और सीता-राम की आराधना
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करते है। हरे कृ ष्ण महा मन्त्र के शुरुवात में हम पहले कृ ष्ण की अंतरंगा शदि हरे को पुकारा जाता है। इस प्रकार हम कहते
है, “हे राधारानी! हे हरे! हे भगवान की शदि!” [िेवहुदत पुतर् , कदपल मुदन की दशक्षाएँ]

हरे कृ ष्ण महामंतर् के िारा हम सबसे पहले भगवान की शदि को पुकारते है, जो प्रबुद्ध कराती है।
भगवान की अध्र्याम्त्मक शदि के िारा ही अध्र्याम्त्मक प्रबोधन संभव है। हरे कृ ष्ण महामंतर् के जप में सबसे पहले हम
भगवान की अध्र्याम्त्मक शदि, हरे को संबोदधत करते है। र्यह अध्र्याम्त्मक शदि तभी कार्यथरत होती है जब जीवात्मा पूरी तरह
से शरणागत होकर अपनी दनत्य्सेवक की म्स्थदत को स्वीकारता है। जब कोई व्र्यदि अपने आपको भगवान के दनपिान र्या
आिेश पर चलता है,तब उसे सेवोन्मुख कहते है; ऐसे समर्य में अध्र्याम्त्मक शदि उसे िमशः भगवान को प्रकि कराती है।
[श्री. भा. ४.९.६]

एक वैष्णव महामंतर् का जप करके भगवान के साथ उनकी शदि की पूजा करता है।
तथादप, वैष्णव शुद्ध शाि र्या शुद्ध भि है, क्र्योंदक हरे कृ ष्ण महा मन्त्र भगवान की शदि हरा को इंदगत करता है। एक वैष्णव ,
भगवान और उनकी शदि की सेवा के अवसर को प्राप्त करने के दलए भगवान की शदि से प्राथथना करता है। इस प्रकार ,
वैष्णव राधा कृ ष्ण, सीता राम, लक्ष्मी नारार्यण ऐसे सारे दवग्रहों की आराधना करते है। [ श्री. भा. १०.२.११-१२]
ब. “कृ ष्ण” नाम का अथथ
“कृ ष्ण” नाम का अथथ
कृ ष्ण मतलब “सवथ आकषथक”। भगवान सबको आकर्षषत करते है; र्यही “भगवान” की पदरभाषा है। हमने भगवान कृ ष्ण
के बहुत सारे दचत्र िेखे है और हम िेख सकते है दक वे दकस प्रकार वन ृ ि
् ावन में गार्य , बछड़े, पशु, पक्षी,पेड़, पौधे, र्यहा
ँ तक की पानी को भी आकर्षषत करते है। वह ग्वालों को , गोदपर्यों को, नन्ि महाराज को, पाडं वों को और सारे मनुष्र्य
समाज को आकर्षषत है। इसीदलए अगर भगवान को कोई दवशेष नाम दिर्या जा सकता है, तो वह “कृ ष्ण” है।

“कृ ष्ण” इस नाम की व्र्यत्ु पदत्त


“दिस्” र्यह शब्ि भगवान के अम्स्तत्व का आकषथक वैदशष्ट्य है, और “ण” का अथथ है, अध्र्याम्त्मक आनंि। जब
“दिस्” दिर्या को “ण” प्रत्र्यर्य जोड़ा जाता है तब कृ ष्ण बनता है, जो परम सत्र्य इंदगत करता है। [महाभारत (उद्योग पवथ,
ृ मध्र्य लीला ९.३० में उद्ध ृत
७१.४) – श्री चतै न्र्य चदरतामत

अगर “कृ ष्ण” शब्ि को दनरुदि के दहसाब से दवश्लेषण दकर्या जार्य तब हमें पाता चलता है दक “ण” उस भगवान को
ृ यु के चक्कर को रुका िेता है, और “दिस्” र्याने सत्ताथथ, र्या अम्स्तत्व (कृ ष्ण ही सारा अम्स्तत्व
िशाता है जो जन्म मत्र्
है)। इसके साथ ही,
“दिस्” का अथथ “आकषथक” भी है और “ण” मतलब आनंि [श्री भा. १०.८.१५]

क. “राम” का अथथ
राम मतलब अध्र्याम्त्मक आनंि
रमन्ते योवगनोऽनन्ते सत्यानन्दे चििात्मवन।
इवत राम पिेनासौ परम् ब्रह्माचिधीयते॥

अनुवाि – परं सत्र्य को राम कहा जाता है क्र्योंदक र्योगी अध्र्याम्त्मक अम्स्तत्व के असीदमत सच्चे आनंि में रमण करते है।

तात्पर्यथ – र्यह भगवान श्री रामचिं के शत नाम स्तोत्र का आठवा श्लोक है जो पद्म पुराण में पार्या जाता है। [श्री चतै न्र्य
चदरतामत ृ , मध्र्य ९.२९]

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जो वास्तदवक र्योगी है वे सच्चे रूप से आनंि लेते है , लेदकन वे कै सा आनंि लेते है ? रमन्ते र्योदगनोऽनन्ते – उनका
आनंि असीदमत है, वो असीदमत आनंि ही सच्चा सुख है, और ऐसा सुख अध्र्याम्त्मक है, भौदतक नही। ं र्यह राम शब्ि
का असली अथथ है, जो हरे राम जपते समर्य आता है। राम मतलब अध्र्याम्त्मक जीवन का आनंि। अध्र्याम्त्मक जीवन
सुखमर्य है, और कृ ष्ण भी सुखमर्य है। [र्योग की पूणथता]

“हरे राम” र्यह श्री बलराम और श्री रामचिं िोनों को सूदचत करता है -

जब हम हैिराबाि में प्रचार कर रहे थे तब हमारे िो संन्र्यादसर्यों में हुए एक दकस्से को कहते है। एक ने कहा की “हरे राम”
का अथथ है श्री बलराम, और िसु रे ने दवरोध करते हुए कहा “हरे राम” का अथथ श्री राम है। अंततः र्यह दववाि हमारे
सामने प्रस्तुत दकर्या गर्या , और हमने दनणथर्य दिर्या की अगर कोई र्यह कहता है दक “हरे राम” में “राम” मतलब श्री
रामचन्ि है और कोई अन्र्य कहता है दक “हरे राम” में “राम” मतलब श्री बलराम है, तब िोनों ही सही है क्र्योंदक श्री
बलराम और श्री राम में कोई अंतर नही ं है...जो दवष्णु तत्त्व को सही से समझता है वह छोिी बातों बे झगड़ते नही।

हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। इस महामंतर् में राम को बलराम स्वीकारने की
बहुत बार लोगों को आपदत्त है। लेदकन भले ही श्री राम के भिोंको एतराज होगा लेदकन उन्हें समझना चादहए की बलराम
और श्री राम में कोई भेि नहीं है। र्यहा ँ श्रीमद् भगवत में स्पष्ट रूप से कहा है की बलराम को राम भी कहा जाता है
(रामेदत)। इसीदलए हम जब भगवान बलराम को भगवान राम कहते है तो उसमे कोई कृदत्रमता नही ं है। जर्यिेव गोस्वामी भी
तीन राम की बात करते है, परशुराम, रघुपदत राम और बलराम. तीनों ही राम है। [श्री.भा. १०.२.१३]

“राम” र्यह शब्ि श्री बलराम और श्री दनत्र्यानंि िोनों को सूदचत करता है -

हरे कृ ष्ण हरे कृ ष्ण कृ ष्ण कृ ष्ण हरे हरे।हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।। इस महामंतर् में राम वलराम को सूदचत करता
है। क्र्योंदक दनत्र्यानंि बलराम के स्वाम्श है इदसलए राम दनत्र्यानंि को भी सूदचत करता है। इस प्रकार हरे कृ ष्ण,
हरे राम के वल कृ ष्ण और बलराम को दह संबोदधत नही ं करता बम्लक श्री चतै न्र्य और श्री दनत्र्यानंि को भी। [श्री चतै
न्र्य चदरतामतृ अदि लीला, पदरचर्य]

आपके प्रश्न के बारे में, “हरे राम में राम क्र्या है? क्र्या र्यह बलराम है र्या भगवान रामचिं है?” आप िोनों तरीके से ले सकते है
क्र्योंदक रामचिं और बलराम में कोई भेि नहीं है। आम तौर पर उसका अथथ कृ ष्ण है क्र्योंदक राम मतलब उपभोिा।” [श्रील
प्रभुपाि का अरुं धती को पत्र, ९ दसतम्बर, १९६९]

असावधान या यात्रं त्रकी जप


इसका अथथ है की जप करते समर्य मन आपको कु छ और करने के दलए कह रहा है – इसीदलए जप करते समर्य हरे कृ ष्ण
महा मन्त्र को सुनने में के म्न्ित नहीं रहता।
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[श्री. भा. १.७.६, तात्पर्यथ]


सुशप्ु त कृ ष्ण प्रेम का पुनजागदृ त र्यह र्यादं त्रकी श्रवण और कीतथन पर दनभथर नही ं है, लेदकन र्यह पूरी तरह से भगवान
की अहैतक ु ी कृ पा पर दनभथर है।

ब्रह्म महू ु त थ पि जप

1. सवेरे से पहले जप सवेरे से पहले, पुरे ध्र्यान से, हो सके तो ब्रह्म मुहूतथ में करना
चादहए (राधा वल्लभ िास को पत्र, ६ जनवरी १९७२)

2. अध्र्याम्त्मक कार्यों के दलए अत्र्यंत सुदवधाजनक


सूर्योिर्य के िेड घंिे पहले ब्रह्म मुहूतथ शुरू होता है। व्र्यदि को उस समर्य उठना चादहए और स्नानादि करके, मंगल आरती
और हरे कृ ष्ण मन्त्र का जप ऐसे अध्र्याम्त्मक कार्यथ करना चादहए। र्यह समर्य अध्र्याम्त्मक कार्यो के दलए अत्र्यंत
सुदवधाजनक है। [कृ ष्ण बुक, अध्र्यार्य ३३-रास नत्र्
ृ य का वणथन]
3. दिव्र्य रूप से प्रसन्न और संतष्ु ट का अनुभव
हमें कृ ष्ण पर ध्र्यान करना है, राधा – कृ ष्ण। र्यह असली ध्र्यान है कृ ष्ण स्वर्यं कृ ष्णा है; इसीदलए वह हमे दसखा रहे है दक
ब्रह्म मुहूतथ का राधा कृ ष्ण पर ध्र्यान करने में उपर्योग करना चादहए। ऐसे ध्र्यान करने से कृ ष्ण संतष्ु ट होते थे , और उसी
तरह हम भी प्रसन्नता और संतष्ु टता महसूस करेंग े अगर हम ब्रह्म मुहूतथ का राधा और कृ ष्ण पर ध्र्यान करने में उपर्योग

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करते है और अगर र्यह सोचते है की कै से श्री रुम्क्मणी िेवी और कृ ष्ण एक आिशथ गहृ स्थ रहकर सुबह जलिी उठकर कृ
ृ कार्यो में रत होकर उिाहरण स्थादपत कर रहे थे । [कृष्ण बुक, अध्र्यार्य ७०, भगवान कृ ष्ण की दनत्र्य दिर्याए]
ष्ण भावनामत

4. अध्र्याम्त्मक रूप से गंभीर


जो सुबह जलिी उठ नही ं सकता वह अध्य्तादमक रूप से गभं ीर नहीं है। र्यही परीक्षा है। ब्रह्म मुहूतथ , सूर्योिर्य के एक घंिा
पहले का समर्य र्यह बहुत ही शुभ क्षण है। [श्रील प्रभुपाि वातालाप – १४ दिसंबर १९७०, इंिौर]

5. ब्रह्म मुहूतथ का एक घंिा दिन के पाचं घंिे के समान है।


तो इस र्युग में, वैदिक पद्धतीनुसार, हर एक को सुबह जलिे उठना चादहए, सूर्योिर्य के िेड घंिे पहले। इसे ब्रह्म मुहूतथ कहा
जाता है। उस समर्य अगर आप मानलो एक घंिा पढ़ते हो, तब वह दिन में पाचं घंिा पढने के बराबर है, इतना सुदवधाजनक
है। [श्रील प्रभुपाि भगवत प्रवचन, १.१.१० – २० जुलाई १९७२, लंिन]

6. दिन के िसु रे दकसी समर्य से सबसे ज्र्यािा प्रभावी समर्य


सूर्योिर्य के िेड घंिा पहले का समर्य ब्रह्म मुहूतथ कहलाता है। इस ब्रह्म मुहूतथ में आध्र्यम्त्मक कार्यो की दसफादरश की
जाती है। इस समर्य दकर्ये गए अध्र्याम्त्मक कार्यो का प्रभाव दिन में कोई भी समर्य करने से बहुत ज्र्यािा होता है।

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