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माँ
माँ
ऐ अंधेरे! दे ख ले मह
ुं तेरा काला हो गया शहर के रस्ते हों चाहे गांव की पगडंडियां
माँ ने आंखें खोल दीं घर में उजाला हो गया मां की उं गली थाम कर चलना मझ
ु े अच्छा लगा
मैंने रोते हुए पोंछे थे किसी दिन आंसू बच्चों की फ़ीस, उनकी किताबें , क़लम, दवात
मुद्दतों मां ने नहीं धोया दप
ु ट्टा अपना मेरी ग़रीब आँखों में स्कूल चुभ गया
मैंने कल शब चाहतों की सब किताबें फाड़ दीं वो समझते ही नहीं हैं मेरी मजबूरी को
सिर्फ़ इक काग़ज़ पे लिक्खा लफ़्ज़-ए-मां रहने दिया इसलिए बच्चों पे ग़स्
ु सा भी नहीं आता है
मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊं किसी भी रं ग को पहचानना मुश्किल नहीं होता
मां से इस तरह लिपट जाऊं कि बच्चा हो जाऊं मेरे बच्चे की सूरत दे ख इसको ज़र्द कहते हैं
अभी ज़िन्दा है मां मेरी मुझे कु्छ भी नहीं होगा फिर उसको मर के भी ख़ुद से जुदा होने नहीं दे ती
मैं जब घर से निकलता हूं दआ
ु भी साथ चलती है यह मिट्टी जब किसी को अपना बेटा मान लेती है
दआ
ु एं मां की पहुंचाने को मीलों मील जाती हैं तमाम उम्र सलामत रहें दआ
ु है मेरी
कि जब परदे स जाने के लिए बेटा निकलता है हमारे सर पे हैं जो हाथ बरकतों वाले
खाने की चीज़ें मां ने जो भेजी हैं गांव से हमारी मुफ़्लिसी हमको इजाज़त तो नहीं दे ती
बासी भी हो गई हैं तो लज़्ज़त वही रही मगर हम तेरी ख़ातिर कोई शहज़ादा भी दे खेंगे
लबों पे उसके कभी बद्दुआ नहीं होती मां-बाप की बूढ़ी आंखों में इक फ़िक्र-सी छाई रहती है
बस एक मां है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती जिस कम्बल में सब सोते थे अब वो भी छोटा पड़ता है
अगर स्कूल में बच्चे हों घर अच्छा नहीं लगता जिस्म पर मेरे बहुत शफ़्फ़ाफ़ कपड़े थे मगर
परिन्दों के न होने पर शजर अच्छा नहीं लगता धूल मिट्टी में अटा बेटा बहुत अच्छा लगा
‘मुनव्वर’! मां के आगे यूं कभी खुल कर नहीं रोना भटकती है हवस दिन—रात सोने की दक
ु ानों में
जहां बुनियाद हो इतनी नमी अच्छी नहीं होती ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल दे ती है
मुफ़्लिसी ! बच्चे को रोने नहीं दे ना वरना अमीरे —शहर का रिश्ते में कोई कुछ नहीं लगता
एक आंसू भरे बाज़ार को खा जाएगा ग़रीबी चांद को भी अपना मामा मान लेती है
मझ
ु े कढ़े हुए तकिये की क्या ज़रूरत है ज़मीं बंजर भी हो जाए तो चाहत कम नहीं होती
किसी का हाथ अभी मेरे सर के नीचे है कहीं कोई वतन से भी महब्बत छोड़ सकता
मोहब्बत करते जाओ बस यही सच्ची इबादत है पैदा यहीं हुआ हूं यहीं पर मरूंगा मैं
मोहब्बत मां को भी मक्का—मदीना मान लेती है वो और लोग थे जो कराची चले गये