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शाकु न्तलम् – एक छारसी रूपान्तरण

(शकु न्तला या खातमे मछकू द)

संस्कृ त ग्रन्थों के छारसी ऄनुवादों का आततहास समृद्ध एवं तवस्तृत रहा है 1। तवश्व की ऄनेकानेक जाततयों की
तरह इरानवासी भी भारतीय मेधा से चमत्कृ त तथा प्रभातवत हुए थे एवं ऄनुवादों और रूपान्तरणों के माध्यम
से बृहत्तर जनता को लाभातन्वत करने के तलये प्रयत्नशील भी रहे थे । यह प्रयास आस्लामपूवव से ही प्रारम्भ हो
गया था । छारसी तथा ऄरबी जगत् में कलीलः व ददम्नः2 के नाम से रूपान्तररत एवं प्रख्यात पञ्चतन्र का
ऄनुवाद आस प्रकार के प्रयत्न का सववप्रथम ईपलब्ध ईदाहरण है । ५७० इस्वी में सासानी सम्राट् ऄनूशीरवान्
के मन्री बुजुगवमेह्र के द्वारा बरजवै तबीब के माध्यम से आसका ऄनुवाद पहलवी (मध्यकालीन फारसी) भाषा में
कराया गया जो पञ्चतन्र के सीररयन तथा ऄन्य तवश्वभाषाओं में ऄनुवाद का अधार बना ।

मध्यकाल में संस्कृ त ग्रन्थों के छारसी ऄनुवादों की बाच सी अ गयी । छारसी भातषयों ने बारहवीं सदी के
प्रारम्भ में अकर दतिण एतशया के राजनैततक पररदृश्य में बहुत बङा पररवतवन ईत्पन्न कर ददया था । ऄगली
सात शतातब्दयों तक तवतभन्न मुतस्लम राजवंशों ने ऄपनी शति का तवस्तार दकया तथा ऄतधकतर ने छारसी को
ऄपनी राजभाषा तथा सातहत्यभाषा बनाया । साथ ही आन शासकों ने शातसत जनता द्वारा प्रयु ि भाषा तथा
सातहत्य की ओर भी रुतच ददखायी तजसमें संस्कृ त तथा ऄन्यान्य भारतीय भाषायें भी थीं । मुगल सम्राट् ऄकबर
तथा राजकु मार दारशुकोह का नाम आस िेर में तवशेष रूप से ईल्लेखनीय है । तेरहवीं से ईन्नीसवीं शताब्दी तक
भारतीय ज्ञान परम्परा से सम्बतन्धत ऄनुमानतः तीन सौ ग्रन्थों का प्रणयन छारसी भाषा में हुअ3 । आन ग्रन्थों
का िेर अश्चयवजनक रूप से व्यापक है । आनमें धमव, दशवन, रहस्यवाद, देवशास्त्र, ज्योततष, गतणत, खगोलशास्त्र,
रहस्यवाद, आततहास, सामान्यतवज्ञान, कला,भूगोल, वनस्पततशास्त्र,पाकशास्त्र अदद तवषय सतम्मतलत हैं । आन
ग्रन्थों के प्रणयन में तहन्दू तथा मुतस्लम दोनों सम्प्रदायों के तवद्वानों का सहयोग रहा । ये ग्रन्थ राजदरबार के
संरिण के ऄततररि स्वतन्रतया भी प्रणीत हुए।

आन ऄनुवादों से के वल छारसी सातहत्य समृद्ध हुअ हो ऐसी बात नहीं । ये ऄनुवाद भारतीय दाशवतनक
तसद्धान्तों तथा सातहत्य को सम्पूणव तवश्व में फै लाने के साधन भी तसद्ध हुए । ईदाहरण के तलये दाराशुकोह द्वारा
दकये गये ५२ ईपतनषदों के ऄनुवाद “तसरे ऄकबर” के माध्यम से ही भारतीय दाशवतनक तसद्धान्त पाश्चात्त्य

1
तवस्तृत सन्दभों के तलये देखें – M. Athar Ali, “Translations of Sanskrit Works at Akbar‟s Court,” Social Scientist 20 (1992): 38 –
45; A. B. M. Habibullah, “Medieval Indo-Persian Literature relating to Hindu Science and Philosophy, 1000 – 1800 A.D.,”
Indian Historical Quarterly 14 (1938): 167 – 81; S. Rashid Husain, “Some Notable Translations Rendered into Persian during
Akbar‟s Time,” Islamic Culture 55 (1981): 219 – 39; Jivanji Jamshedji Modi, “King Akbar and the Persian Translations of
Sanskrit Books,” Annals of the Bhandarkar Institute 6 (1925): 83 – 107; S. A. Reza Jalali Naini, “Persian Translations of Sanskrit
Works,”in “Special Issue on the Occasion of 50 Years of the Agreement of Indo-Iranian Cultural Relation,” Journal of the Indo-
Iran (2008): 68 – 86; M. A. Rahim, and N. S. Shukla, “Persian Translations of Sanskrit Works,” Indological Studies 3, nos. 1 – 2
(1974): 175 – 91. (तववरण साभार गृहीत – Audrey Truschke –The Mughal Book of War : A Persian Translation of the Sanskrit
Mahabharata , p.1,foot note1; Comparative Studies of South Asia, Africa and the Middle East Vol. 31, No. 2, 2011 by Duke
University Press)
2
अधुतनक छारसी में आसका ईच्चारण – कलीले व ददम्ने , ऄरबी तथा ईदूव में कलीला व ददम्ना दकया जाता है।
3
Audrey Truschke - Perso-Indica : a critical survey of Persian works on Indian learned tradition – The News letter no 59 –
Spring 2012
तवद्वानों तक पहुंच सके तथा ईन्हें सम्पूणव प्राचीन भारतीय सातहत्य के बारे में तजज्ञासा हो सकी तथा आस िेर में
गम्भीर शोधों हो सके । आस ऄनुवाद सातहत्य को सल्तनत काल, मुगलकाल तथा ईपतनवेश काल के अधार पर
तीन भागों में बांटा जा सकता है, तजनमें से प्रत्येक में ऄनुवादों की ऄलग ऄलग प्रवृतत्तयां ददखायी पङती हैं ।

संस्कृ त ग्रन्थों के ऄनुवाद के प्रसङ्ग में संस्कृ त के शुद्ध काव्य सातहत्यi का ईदाहरण हमें बहुत ही ऄल्प मारा
में प्राप्त होता है । आसका कारण बहुत ही स्पष्ट है । ईपयुवि ऄनुवादों के द्वारा मुतस्लम शासकों का प्रमुख ईद्देश्य
तवतजत तथा शातसत जनता के धमव एवं दशवन को समझ कर ईन पर ऄपने शासन को और ऄतधक दृढ तथा
स्वीकायव बनाना था साथ ही ईनकी शास्त्रीय पुस्तकों के ऄनुवाद से ऄपने वैज्ञातनक ज्ञान को समृद्ध करना था ।
यह कायव मुतस्लम शासकों ने सददयों पहले यूनानी ग्रन्थों के ऄरबी ऄनुवादों से शुरू कर ददया था । ऄनुवादों के
आस ईपयोतगतावादी दृतष्टकोण को चूूँदक काव्यग्रन्थ ईतने ऄनुपात में समर्थथत नहीं करते थे ऄत एव ईनके
छारसी ऄनुवादों के ईदाहरण हमें सामान्यतः ददखायी नहीं पङते । यहां तक दक भारत के परम प्रतसद्ध महाकतव
कातलदास के ग्रन्थों का ऄनुवाद भी आन सात शतातब्दयों में ददखायी नहीं देता ।

ईपतनवेशकाल के प्रारम्भ होने के साथ ही भारत में छारसी की दशा िीण होने लगी । आसका कारण था –
७०० सालों तक राजभाषा रही छारसी का स्थान ऄंग्रेघी को ददया जाना । स्वतन्रता प्रातप्त के बाद ऄनेक
भारतीय छारसी भाषातवदों ने छारसी के ऐततहातसक तथा सांस्कृ ततक महत्त्व को समझते हुए आसके ईत्थान के
तलये प्रयत्न दकये । आन प्रयत्नों में महत्त्वपूणव प्रकल्प था भारत तथा इरान के सहस्रातब्दयों से चले अ रहे घतनष्ठ
सम्बन्ध को ईजागर करना । सुयोग ही था दक ईस समय इरान में रघा शाह पहलवी का शासन था जो इरान के
तवस्मृत अयव ऄतीत को पुनः प्रतततष्ठत करना चाहते थे । ईनके काल में तेहरान तवश्वतवद्यालय में संस्कृ त
ऄध्यापन की व्यवस्था हुइ थी जो ऄब तक चलरही हैii ।

स्वातन््योत्तर अधुतनक काल में भारत में कइ तवद्वानों का नाम तलया जा सकता है तजन्होंने छारसी भाषा के
प्रचार प्रसार के साथ संस्कृ त के सातहतत्यक ग्रन्थों के छारसी में ऄनुवाद भी प्रस्तुत दकये । आन तवद्वानों के
ऄनुवादों का लक्ष्य मध्यकालीन ऄनुवादों की ऄपेिा तभन्न था । ये तवद्वान् शुद्ध रूप से सातहतत्यक रुतचयों का
ईपयोग करके दोनों संस्कृ ततयों में संश्लेषण ईत्पन्न करना चाहते थे। आनमें प्रमुख नाम प्रो॰ आन्दुशेखर (पञ्चतन्र),
प्रो॰ हादी हसन ( ऄतभज्ञानशाकु न्तल ) तथा प्रो॰ ऄमीर हसन अतबदी ( तवक्रमोववशीय ) के हैं । प्रस्तुत लेख में
हम प्रो॰ हादी हसन द्वारा दकये गये शाकु न्तलम् के छारसी रूपान्तरण पर दृतष्ट के तन्ित करें गे ।

कतवकु लगुरु कातलदास को तवश्वकतव के रूप में प्रतततष्ठत करने में ईनके ऄनुवादों का बङा योगदान है ।
कातलदास के सववस्व ऄतभज्ञानशाकु न्तलम् का भारत तथा तवश्व की लगभग सभी प्रमुख भाषाओं में ऄनुवाद
दकया जा चुका है । कातलदास तबतब्लयोग्राफी में शाकु न्तलम् के ४० भाषाओं में हुए कु ल ३२९ ऄनुवादों की
प्रतवतष्टयां हैं4 ।

प्रो॰ हादी हसन ने मौलाना ऄबुल कलाम अघाद की आच्छा का सम्मान करते हुए शकु न्तला का यह रूपान्तरण
प्रस्तुत दकया था5। प्रस्तुत पुस्तक १९५६ में भारतीय सांस्कृ ततक सम्बन्ध पररषद् (अआ सी सी अर) द्वारा

4
Kalidasa Bibliography – Satya Pal Narang ,Pp- 166 - 191
5
ऄली ऄसगर तहकमत द्वारा तलखी गयी प्रस्तुत पुस्तक की प्रस्तावना से स्पष्ट ।
प्रकातशत हुइ । रूपान्तरण के तवतशष्ट तबन्दुओं पर तवचार करने से पहले हमें प्रो॰ हादी हसन के व्यतित्व एवं
कतृवत्व के बारे में दकतञ्चत् चचाव करनी अवश्यक है।

रूपान्तरकार प्रो॰ सैयद हादी हसन

अधुतनक भारत में छारसी के प्रतसद्ध तवद्वान् प्रो॰ सैयद हादी हसन6 का जन्म ३ तसतम्बर सन् १८९६ में
हैदराबाद में हुअ था। ईनके पूववजों में से ऄता हुसैन आटावा के ख्यात तवद्वान् थे तथा ईनके तपता सैयद ऄमीर

हसन तनघाम हैदराबाद के यहाूँ अयुि थे। ईनके मामा नवाब ‘मोहतसन ईल् मुल्क’ सैयद मेहदी ऄली खान सर
सैयद ऄहमद के तनकट सहयोगी थे। हादी हसन ने बी॰ एस् सी॰ की तडग्री पुणे के छगुवसन कालेज में प्राप्त की तथा
ईच्चतर तशिा के तलये कै तम्िज चले गये । वहाूँ से ईन्होंने जीव तवज्ञान में तडग्री हातसल की । हादी हसन की
आच्छा थी दक वे आंग्लैण्ड में ही रुकें परन्तु भारत के तीव्रतर होते हुए स्वतन्रता संग्राम में भाग लेने के तलये वे
स्वदेश लौट अये तथा आसमें ऄपनी सदक्रय भागीदारी सुतनतश्चत की तजसके तलये वे महात्मा गान्धी अदद बङे
नेताओं के प्रशंसा पार भी रहे। हादी हसन ऄलीगच मुतस्लम तवश्वतवद्यालय के जीवतवज्ञान तवभाग में रीडर के
पद पर तनयुि हुए । छारसी भाषा के प्रतत ऄत्यतधक प्रेम के कारण वे एक बार दफर आंग्लैण्ड गये तथा लण्डन
स्कू ल अछ ओररयण्टल स्टडीघ से छारसी में पी॰एच्डी॰ की ईपातध प्राप्त की। स्वदेश अकर वे ऄलीगच मुतस्लम
तवश्वतवद्यालय के छारसी तवभाग में अचायव के पद पर तनयुि हुए तथा यहाूँ पर वे लम्बे समय तक (३
तसतम्बर,१९५८) समपवणपूववक सेवारत रहे । प्रो॰ हादी हसन को यह छारसी के प्रतत यह ऄत्यतधक प्रेम ऄपनी
माता से प्राप्त हुअ था जो इरान मूल की थीं । ऄलीगच में ऄपनी सेवा के ऄततररि ईन्होंने हैदराबाद, पटना
तथा लखनउ तवश्वतवद्यालयों में छारसी तवभागों को प्रारम्भ कराने में महत्त्वपूणव योगदान ददया । भारत तथा

6
जो आस लेख में ऄनेकर रूपान्तरकार के नाम से ऄतभतहत हैं ।
इरान के तवद्वानों को एकीकृ त करने में ईन्होंने महत्त्वपूणव योगदान ददया था । दछरदौसी कतव के सम्मान में
अयोतजत सहस्राब्दी समारोह में ईन्होंने इरान में भारत का प्रतततनतधत्व दकया था।

प्रो॰ हसन उववर लेखनी के धनी थे तथा छारसी और ऄंग्रेजी में ऄन्तरावष्ट्रीय स्तर पर ख्यात पुस्तकों का प्रणयन
दकया । ईनके प्रमुख प्रकाशनों में से हैं–

Studies in Persian Literature (1923), A History of Persian Navigation (1928) दीवाने फलकी
तशवावनी (1930), Radîu‟d-Din-i-Nîshapûrî : His Life and Times (1940),Mughul Poetry : Its
Historical and Cultural Value (1952), Qâsim-i-Kâhî (868-988AH) : His Life, Times and Works
(1954), दीवाने कातसम काही(1956), Majmû„ah-i-Maqâlât (1956), Shakuntala, translated into
Persian (1956), Researches in Persian Literature (1958)

ईनकी दो पुस्तकें Golden Treasury of Persian Poetry तथा Qâsim-i-Kâhî", का दूसरा भाग ईनकी
मृत्यु के समय प्रैस में प्रकाशन प्रदक्रया के ऄन्तगवत थे ।

प्रो॰ हसन ऄद्भुत विा तथा ऄत्यन्त तशष्ट व्यतित्व के धनी थे । ईनकी योग्यता से प्रभातवत होकर १९५६ में
ऄलीगच पधारे इरान के शाह ने स्वयं को ईनके छार होने की आच्छा प्रकट की थी । ईनके घतनष्ठ तमर भारत के
राष्ट्रपतत डा॰ घादकर हुसैन ने ईनके बारे में कहा है दक प्रो॰ हसन ईन सबसे तवद्वान् व्यतियों में से थे तजनसे मैं
ऄब तक तमला हं7। छारसी के ऄततररि ईनकी रुतच गतणत, खगोल तवज्ञान तथा संस्कृ त नाटकों में भी थी । वे
ऄपने द्वारा ऄनूददत शाकु न्तल के मञ्चन के समय महत्त्वपूणव पारों का ऄतभनय भी स्वयं दकया करते थे 8। ईन्होंने
सारे भारत में भ्रमण करके ऄलीगच तवश्वतवद्यालय में मेतडकल कालेज की स्थापना करने के तलये ऄके ले ३०
लाख रूपये जुटाये थे । ईनकी ईपयुवि तवशेषताओं के कारण १९५८ में ईन्हें राष्ट्रपतत सम्मान प्रदान दकया गया
। स्वतन्रता के बाद प्रो॰ हसन दूसरे व्यति थे तजन्हें यह सम्मान तमला । प्रो॰ हसन का देहावसान २३ मइ,
१९६३ को हुअ ।

प्रो॰ हसन द्वारा दकया गया प्रकृ त प्रयत्न ऄनुवाद न होकर एक सुन्दर तथा संतिप्त रूपान्तरण9 है । आसका नाम
ईन्होंने खातमे मछकू द ऄथावत् खोइ ऄंगूठी रखा है ।सात ऄङ्कों के पयावप्त तवस्तृत नाटक को ईन्होंने सात दृश्यों
( पदों ) में समेट ददया है । संिेपण की आस प्रदक्रया की सफलता का प्रमाण यह है दक आस पु नरव चना में कहीं भी
टूटन या ऄवरोध दृतष्टगोचर नहीं होता । संिेपीकरण के तलये ईन्होंने कइ ईपाय ऄपनाये हैं । ऄनेकर लम्बे लम्बे
संवादों को छोटा दकया है , बहुत सारे श्लोकों को तबना ऄनुवाद या रूपान्तरण छोङ ददया है तथा कहीं कहीं
कातलदास की कथा में पररवतवन भी दकया है । शाकु न्तल के तवतभन्न वाचनाओं में श्लोकों की संख्या २२५ से लेकर

7
Dr. Zakir Hussain, Foreword, Golden Treasury of Persian Literature, Ed.– Dr. M. Shamoon Israili, 2nd Edition, Indian Council
for Cultural Relations, New Delhi, 1972.
8
Asloob Ahmad Ansari, So was Professor Hadi Hasan, Hadi Hasan Hall Magazine,
(English),1985,p1.
9
जो आस लेख में ऄनेकर रूपान्तरण या प्रकृ त रूपान्तरण तथा ईद्धरणों में खातमे मछकू द के नाम से ऄतभतहत है ।
१९० तकप्राप्त होती है10 जबदक प्रस्तुत रूपान्तरण में प्रयुि पद्यों की संख्या के वल ६० (प्रतत दृश्य

२३+४+११+६+५+५+६) ही है । आन पररवतवनों के बावजूद भी आस रूपान्तरण का सुखद पहलू यह है दक प्रो॰


हसन कहीं भी कातलदासीय भावों से दूर नहीं गये हैं तथा यह पुनरव चना सववथा स्वतन्र कृ तत होने का भान नहीं
देती ।

आस रूपान्तरण का प्रमुख ईद्देश्य था – कातलदासीय प्रततभा को संतिप्त तथा ऄतधक ऄतभनेय बनाकर छारसी
भाषी जनता के सम्मुख प्रस्तुत करना । लेखक आस ईद्देश्य में बङी सीमा तक सफल रहे हैं । पुस्तक के प्रारम्भ की
प्रस्तावना में भारत में इरान के तत्कालीन राजदूत महान् तशिातवद् डा॰ ऄली ऄसगर तहकमत ने कातलदासीय
कृ ततयों के छारसी ऄनुवाद के ऄभाव पर खेद व्यि करते हुए प्रो॰ हसन के प्रकृ त प्रयत्न का ऄतभनन्दन दकया है11
। आससे यह स्पष्ट होता है दक प्रो॰ हसन का यह प्रयत्न कातलदासीय कतवता से तनतान्त पृथक् नहीं हो सकता था ।
प्रो॰ हसन स्वयं संस्कृ त नाटकों के बहुत बडे प्रेमी और रङ्गमञ्च तथा ऄतभनय में रुतच रखने वाले तवद्वान् थे,

आसतलये ईन्होंने शब्दशः ऄनुवाद की ऄपेिा ऄतभनेय, संतिप्त तथा रस्य रूपान्तरण को तरजीह दी । ईन्होंने आस
नाटक के ऄनेक मञ्चन कराये थे तथा ईसमें स्वयं ऄनेक भूतमकाओं का तनववहण भी दकया । शब्दशः ऄनुवाद
ऄध्ययन ऄध्यापन मार के तलये ऄतधक ईपयुि होता आसके ऄततररि चूंदक इरान में भारततवद्या के ऄध्ययन की
परम्परा यूरोप की तरह समृद्ध नहीं रही ऄतः शब्दशः ऄनुवाद ऄपेिाकृ त बहुत ही श्रमसाध्य तथा समयसाध्य
कायव होता । ऄतः प्रो॰ हसन ने रूपान्तर को ही श्रेयस्कर समझा ।

संिेपण तथा रङ्गमञ्चीय सौतवध्य को दृतष्ट में रखकर प्रो॰ हसन ने शाकु न्तलम् के सात ऄङ्कों को सात दृश्यों
में रूपान्तररत कर ददया है । चतुथव ऄङ्क की महत्ता को समझते हुए ईन्होंने ईसे दो दृश्य समर्थपत दकये गये हैं ।
पहले दृश्य में तवष्कम्भक का ऄंश तलया गया है तजसमें दुवावसा का शाप घरटत होता है तथा दूसरे दृश्य में
शकु न्तला की तवदाइ का ऄंश है । सातवें ऄङ्क को पूरी तरह से तनकाल ददया गया है तथा आसके ईद्देश्य को कथा
में रोचक पररवतवन करके पूरा दकया गया है । यह पररवतवन प्रो॰ हसन की ईत्कृ ष्ट कतवप्रततभा को दशावता है ।
सातवें दृश्य आस प्रसङ्ग से प्रारम्भ होता है – राजा को ऄंगूठी देखकर शकु न्तला का स्मरण अ गया है तथा वह
ईसके प्रत्याख्यान का दोषी ऄपने को मान कर तवलाप करते हुए स्वयं को ऄतधतिप्त कर रहा है । तचरदशवन के
प्रसङ्ग के तुरन्त बाद राजा का एक द्वारपाल राजा को रिा के तलये पुकारता है (न दक मूल की भाूँतत तवदूषक) ।
ईसकी हतियों को कोइ रािस ऄपने पञ्जों से ईंख की तरह तोङ रहा है । और यह रािस आन्ि का सारथी माततल
नहीं ऄतपतु वस्तुतः रािस है जो सही में द्वारपाल को मार डालना चाहता है । राजा सक्रोध अगे बचता है तथा
बाण का प्रयोग करके रािस का वध कर देता है । आन्ि जो वषाव के देवता हैं अकाश से नीचे ईतरते हैं और
दुष्यन्त का ऄतभनन्दन करते हुए कहते हैं – तजस रािस को तुमने मारा है ईसे हम करठनाइ से मार पाते, यह
रहा तुम्हारी वीरता का पाररतोतषक12 । और ईसी िण शकु न्तला ऄपने पुर के साथ अकाश से नीचे ईतरती है

10
ऄतभज्ञानशाकु न्तल के देवनागरी पाठ में संिेपीकरण के पदतचह्न (ऄप्रकातशत शोधपर) – वसन्तकु मार म॰ भट्ट ।
11
शकु न्तला या खातमे मछकू द – मुकद्दमा (प्रस्तावना) – डा॰ ऄली ऄसगर तहकमत
12
इन दीव रा दक तू कु श्ती, मा हा मुतश्कल मी तवातनस्तीम बेकुशीम । इनक मुज़्दे हुनरे ख़ुद रा बेगीर ।
वही – पृष्ठ –४७
। यहां रूपान्तरकार ने ऄपनी मौतलक प्रततभा का प्रयोग करते हुए नाटक को संतिप्त करने के साथ साथ ईसे
ऄस्वाभातवक तथा बातधत होने से भी बचाया है ।

कथानक को संतिप्त करने के बावजूद प्रो॰ हसन की दृतष्ट रही है दक रस पररपाक की दृतष्ट से सुन्दर श्लोक छू टने
न पायें । पररत्यि ऄंशों में भी जो सरस तथा भावपूणव श्लोक हैं तो ईनका सप्रयास प्रसङ्ग ईपस्थातपत करके
ईतचत स्थान ददया गया है । ईदाहरण के तलये यद्यतप प्रकृ त रूपान्तरण में सप्तम ऄंक का कोइ दृश्य नहीं है

लेदकन भरत को देखकर ऄनपत्य दुष्यन्त की मनोदशा का वणवन करने वाले श्लोक -
“अलक्ष्यदन्तमुकुलानतनतमत्तहास- ..... धन्यास्तङ्गरजसा मतलनीभवतन्त13” को ऄंगूठी देखने के बाद तवलाप
करने के ऄवसर पर लेकर अया गया है । आसी प्रकार तवरतहणी शकु न्तला का वणवनपरक वसने पररधूसरे
वसाना14 आत्यादद श्लोक भी नहीं छोङा गया है ।

मूल नाटक के लम्बे लम्बे संवादों जो अजकल संकृत मञ्च के तलये भी दुरतभनेय हैं ईन्हें छोङ ददया गया है ।
बहुत सारे प्रसङ्गों को एक में तमला ददया गया है । ईदाहरण के तलये प्रस्तावना को के वल ८ पतङ्ियों में
पररपूणव कर ददया गया है तजसे के वल नट बोलता है । यद्यतप आसमें सुभगसतललावगाहाः तथा इसीतस चुतम्बअआं
भमरे हह15 दोनों श्लोकों को स्थान ददया गया है ।

पारों की संख्या बहुत कम कर दी गयी है । आस रूपान्तरण में के वल १६ पारों से काम चला तलया गया है
जबदक मूल शाकु न्तल में कु ल २० पार हैं । अवश्यक होने पर शेष महत्त्वपूणव पारों की सूचना मार दे दी गयी है
तादक कथा का प्रवाह ऄबातधत रहे । नटी, गौतमी अदद छोटे पार ऄनुपतस्थत है । शाङ्गवरव तथा शारद्वत में से
एक ही कोइ (सम्भवतः) ईपलब्ध है वह भी नाम तनदेश के तबना ।

आस रूपान्तरण की सबसे रोचक तथा महत्त्वपूणव तवशेषता है कातलदासीय पद्यों के समान्तर छारसी
सातहत्य के पद्यों का प्रयोग । यह प्रवृतत्त नयी नहीं है । महाभारत अदद ग्रन्थों के छारसी ऄनुवादों में यह प्रवृतत्त
सववर व्याप्त है16 । रूपान्तरकार ने तजन महत्त्वपूणव श्लोकों जो ऄपने पद्यात्मक रूपान्तरण के तलये चुना है ईनका
भाव साम्य ईन्होंने छारसी के महाकतवयों जैसे दछरदौसी ,मनूचह
े री, तनघामी ,मौलाना रूमी, ऄमीर मुआज़्घी,
सादी, ऄमीर ख़ुसरो, काअनी, ईबैद घाकानी, तथा हादछघ17 अदद कतवयों की कतवताओं में खोजने की चेष्टा
की है । तथा वे आस प्रयास में प्रायः सफल भी रहे हैं । आस तवतशष्टता के कारण यह पुनरव चना छारसी तथा संस्कृ त
कतवता की एक तुलनात्मक प्रस्तुतत बन कर सामने अ गयी है । आसके ऄततररि आसमें प्रो॰ हसन के छारसी
सातहत्य का तवस्तृत एवं तलस्पशी ज्ञान तथा ईनकी रसज्ञता भी प्रतततबतम्बत होती है । आस प्रकार के प्रयास का

13
ऄतभज्ञानशाकु न्तलम् ७ – १७
14
वही ७–२१
15
वही १–३ तथा १–४
.... the translators sprinkle hundreds of verses of Persian poetry throughout the Razmnamah. These articulate
16

the sentiments of the Mahabharata in a way culturally relevant to a Persian-speaking elite and also particularly
develop areas of the epic that address kingship and politics. Audrey Treschke :The Mughal Book of War : A Persian
Translation of the Sanskrit Mahabharata , p.511; Comparative Studies of South Asia, Africa and the Middle East Vol. 31, No. 2,
2011 by Duke University Press.
17
सवावतधक पद्य हादछघ कतव के दीवान से तलये गये हैं ।
सबसे बङा लाभ यह है दक सातहत्यतप्रय छारसी भाषी लोगों का साधारणीकरण आस नाटक के साथ बहुत
सरलता से सम्भव हो जाता है ।

ऄनेक प्रसङ्गों में छारसी पद्यों का तनवेश बहुत ही सुन्दर तथा मूलानुगामी बन पङा है । ईदाहरणाथव, तृतीय
ऄङ्क में शकु न्तला के तवरहावस्था को दुष्यन्त तछप कर देखता है तथा ईसके तुज्झ ण अणे तणतग्घण अदद पद्यों
के प्रबलतर ईत्तर में तपतत तनुगातर हृदयम् अदद पद्य18 पचता हुअ स्वयं को प्रकट करता है । रूपान्तरकार
आसके समान भाव वाले दो छारसी के पद्य ईपस्थातपत करते हैं । शकु न्तला कहती है –

बुलबुल तनयम दक नारे कु नम ददे सर दहम । परवाने ऄम दक सूघमो दम बर नयावरम ॥ (मैं बुलबुल नहीं हूँ दक
ऄपने तवरह के तवलाप से लोगों को रस्त करूूँ, मैं तो वह परवाना हं दक जल जाईं गी लेदकन लेदकन अह भी नहीं करूंगी ।)

आस पर दुष्यन्त का ईत्तर है –

परवाने मन तनयम दक बे यक शोले जान दहम । शम्मम् दक शब बेसूघमो दम बर नयावरम ॥ (मैं परवाना नहीं हं
दक एक शोले को ऄपनी जान दे दूं , मैं तो वह प्रदीप हं दक रात भर जलती हं और अह भी नहीं करता ।)

ईपयुवि पद्य तहन्द छारसी परम्परा में नूरजहां तथा जहांगीर के संवाद के रूप में प्रतसद्ध हैं19 । रूपान्तरकार ने
कातलदासीय भावों को छारसी रं ग देकर समुतचत ढंग से प्रस्तुत दकया है । प्रथम ऄङ्क में शकु न्तला को देखकर
दुष्यन्त के मुंह से ऄमीर ख़ुसरो की गजल कहलवाइ गयी है जो भारतीय छारसी सातहत्य में ऄत्यन्त प्रतसद्ध है –
अछाक रा गदीदे ऄम्.... आत्यादद (सारे लोकों में घूमा हं .... परन्तु तुमसा नहीं देखा ), वैखानसों के द्वारा अश्रम हररण
का तशकार रोके जाने के प्रसङ्ग में हादछघ का यह पद्य दकतञ्चत् पररवतवन के साथ प्रयुि दकया गया है –दर् याब
के नायद बाघ तीरी दक बेशुद ऄघ शस्त 20(रुक जाओ, क्योंदक वह तीर जो कमान से छू ट जाता है दफर वापस नहीं अता है ।)
वीर या रौि अदद रसों के प्रसङ्गों में महाकतव दछरदौसी के शाहनामे की ईज्ज्वल पतङ्ियाूँ प्रयोग में लायी गयी
हैं । ईदाहरण के तलये प्रथम ऄङ्क में भौंरे पर क्रुद्ध होकर राजा कहता है – सरश रा बेकूबम बे गुघे गरान् – दक
छू लाद कू बन्द अहन्गरान् (आसके तसर को भारी गदा से आस तरह कू ट दूंगा तजस तरह लोहे को लोहार कू टते हैं ।) । पञ्चम दृश्य
के प्रारम्भ में कण्वतशष्य के मुख से संसार की पररवतवनशीलता का तनदेश करने वाले श्लोक
(तेजोद्वस्ययुगपद्व्यसनोदयाभयां लोको तनयम्यत आवात्मदशान्तरे षु ) के समकि दछरदौसी कतव की एक पतङ्ि
का समुतचत ईपस्थापन दकया गया है – गही पुश्त जीनो गही जीन बे पुश्त 21 (कभी अदमी [घोडे की] जीन पर बैठता
है तो कभी जीन अदमी के उपर ) । षष्ठ ऄङ्क के प्रारम्भ में हंसपददका के ईपालम्भ युि गीत ऄतहणवमहुलोलुपो भवं
आत्यादद के रूपान्तरण तलये तशकायतों से भरे दो पद्य ईपस्थातपत दकये गये हैं – तघ यक ख़ुम दहद साकी ये

18
वही ३–१४ तथा ३–१५
19
http://www.psis.blogfa.com/8912.aspx?p=2
20
दीवाने हादछघ गजल संख्या–२७,शेर– ६ बाघ अय दक बाघ अयद ईम्रे शुदे ये हादछघ । हर चन्द दक नायद बाघ तीरी दक बेशुद ऄघ
शस्त ॥ (हे तप्रय, लौट अ तादक हादछघ की बीती ईम्र लौट अये । यद्यतप वह तीर जो कमान से छू ट गया वह वापस नहीं लौटता ॥ )
खातमे मछकू द – पृ॰ ३२ पतङ्ि –१४
21
रूघगार – तुरा साछ साछो मरा दुदव दुद22
व (भाग्यरूपी साकी एक ही मद्यकु म्भ से तनकाल कर तुझे ईच्चकोरट का स्वच्छ मद्य
देता है जबदक मुझको बस तलछट )। तथा, हमे चीघ दारद ददल् अराम लेदकन – दरीगा दक बा मन वफाइ नदारद
(मेरे तप्रय के पास सारी ऄच्छाआयां हैं । नहीं है तो के वल एक चीघ – मेरे प्रतत एकतनष्ठा ) प्रथम ऄङ्क के ऄन्त में
तुरगखुरहतस्तथा तह रे णुः 23 के भयानक रस वाले प्रसङ्ग के तलये यह ईपयुि पद्य प्रयुि है –खराशीदो पूशीद
शबरङ्गे शाह – तघ सुम पुश्ते माही तघ दुम रूये माह । (राजा के काले घोङे ने ऄपने खुर से मछली 24 की पीठ को खुरच
ददया तथा दुम से चाूँद के तल को ढक ददया । ) आसी प्रसङ्ग में तनघामी गञ्जवी25 की प्रतसद्ध मस्नवी तसकन्दरनामे26 में
से यह पद्य ईद्धृत दकया गया है – घमीन कू तबसाती बुद अरास्ते – ग़ुबारी शुद ऄघ जाआ बर खास्ते ।
तप्रयंवदा एवं ऄनसूया द्वारा शकु न्तला से ताप का कारण पूछने के प्रसङ्ग में मौलाना जलालुद्दीन रूमी की रुबाइ
( चतुष्पाद् छन्द ) का एक चरण प्रस्तुत दकया गया है27 – गर हस्त तबगू नीस्त तबगू रास्त तबगू (ऄगर है तो
बताओ, नहीं है तो भी बताओ, सही बताओ ।) । नाटक के ऄन्त में आन्ि दुष्यन्त की प्रशंसा करते हुए छारसी का एक पद्य
प्रस्तुत करते हैं जो पररसंख्या ऄलंकार का भी सुन्दर ईदाहरण है – बे ऄहदत तघ कस नाले इ बर न खास्त -
बगैर ऄघ् कमान गर बेनालद रवास्त28 (तुम्हारे काल में दकसी के मुंहसे चीख नहीं तनकली , ऄगर तनकली तो के वल धनुष से
जो दक स्पृहणीय ही है । ) ।

के वल पद्य ही नहीं गद्यात्मक संवादों की छारसी प्रस्तुतत भी ऄनेक बार ईन्होंने छारसी सातहत्य के प्रतसद्ध
पद्यखण्डों से की है । सववथाप्सरःसंभवैषा का रूपान्तरण हादछघ के एक पद्य को गद्यरूप में पररवर्थतत करके
कहते हैं29–आल्ला अदमीबचे इ कु जा शीवे ये परी दानद (ऄन्यथा,मनुष्य की सन्तान को ऄप्सराओं का सा व्यवहार कहाूँ
अता है?)

कइ बार छारसी कतवताओं की ऐसी सुन्दर पतङ्ियों को गद्यरूप में प्रस्तुत दकया गया है तजनके समान्तर

पतङ्ियां मूल में वस्तुतः नहीं थीं । जैसे – वली इन् कतरे ये जाले बर रुखे लाले दीदनीस्त 30 (लाला नामक पुष्प के

मुखङे पर ओस की ये बूूँदें दशवनीय हैं )

कइ ईदाहरण ऐसे भी हैं जहाूँ पर शाकु न्तलम् के गद्यात्मक संवादों के तलये समान भाव वाले पद्य को
ईपस्थातपत दकया गया है । ईदाहरण के तलये प्रथम ऄङ्क में शकु न्तला द्वारा ऄनसूया से ऄपना वल्कल ढीला
करने के ऄनुरोध करने पर तप्रयंवदा का जो व्यङ्ग्य है ईसके तलये तनम्नोि शे,र प्रस्तुत दकया गया है जो बहुत
ही रोचक है –चू ख़ुद कदवन्द राघे खीश्तन छाश – ऄनूसी रा चेरा बदनाम कदवन्द (जब आन – स्तनों – ने स्वयं ऄपने

खातमे मछकू द – पृ॰ ३८ पतङ्ि –११


22

ऄतभज्ञानशाकु न्तलम् १–२९


23

प्राचीन लोगों की मान्यता थी दक पृथ्वी मछली के उपर तस्थत है ।


24

ये बारहवीं शताब्दी (११४४ – १२०९ इस्वी) के प्रतसद्ध छारसी कतव थे तजन्होंने छारसी सातहत्य में ५ महाकाव्यात्मक कतवतायें (मस्नतवयां)
25

तलखने का चलन प्रारम्भ दकया, तजसे खम्सा या पञ्ज गञ्ज कहते हैं तथा तजसका ऄनुसरण बाद के ऄमीर खुसरो अदद बहुत से कतवयों ने दकया ।
तनघामी की आस मस्नवी ,तजसका दूसरा नाम शरछनामा भी है, में तसकन्दर द्वारा इरान के सम्राट् दारा पर तवजय प्राप्त करने की कथा वर्थणत है ।
26

खातमे मछकू द – पृ॰ २६ पतङ्ि –१३


27

खातमे मछकू द – पृ॰ ४७ पतङ्ि –१७–१८


28

दीवाने हादछघगघल संख्या १७७, शेर सं॰ ६ – बेबाख़्तम् ददले दीवाने ओ नदातनस्तम – दक अदमीबचे इ शीवे ये परी दानद ।
29

दीवाने हादछघगघल संख्या १३ , शेर सं॰ २ – मी चकद जाले बर रुखे लाले – ऄल् मुदाम् ऄल् मुदाम् या ऄह्बाब ।
30
रहस्य को प्रकट कर ददया तो दफर ऄनसूया को क्यों बदनाम दकया गया?), यह शेर छारसी के प्रतसद्ध शायर फख़्ऱुद्दीन आराकी

(६१० तहजरी = १५वीं शताब्दी ) का है । मूल में यह शेर आस तरह से था – “चू ख़ुद कदवन्द राघे खीश्तन छाश

– आराकी रा चेरा बदनाम कदवन्द ” । आराकी की जगह ऄनूसी ऄथावत् ऄनसूया रख ददया गया है । ध्यान रहे मूल
में यह कथन तप्रयंवदा का है ऄनसूया का नहीं परन्तु चूंदक आराकी की जगह छन्द31में तप्रयंवदा नहीं अ सकता
ऄतः आसे रूपान्तरण में ऄनसूया के मुख से कहलवा ददया गया है तथा ऄनसूया के नाम के एकदेश को आस छन्द
में प्रयुि कर ददया गया है32 । यह ईदाहरण रूपान्तरणकार के कतव हृदय को भी स्पष्ट करता है । आन सब से
स्पष्ट है दक छारसी के ईपयुि पद्यों का प्रयोग रूपान्तरणकार की दृतष्ट में बहुत प्राथतमक रहा है ।

लगभग सभी प्रसङ्गों में आन छारसी पद्यों का समुतचत तवतनवेश दकया गया है । कइ बार रोचक पद्यों का
ईपस्थापन आतना प्रमुख हो गया है दक ईसके तलये कथा तन्तु में भी पररवतवन कर ददया गया है । चतुथव दृश्य में
शाप के प्रसङ्ग में तप्रयंवदा के मुंह से दुवावसा के हकलेपन को तचचाने वाला एक काअनीiii का एक छारसी पद्य
कहलवाया गया है33 । और आसके तलये दुवावसा को हकला भी बनाया गया है । ऄनसूया तप्रयंवदा को मघाक
ईङाने से रोकती है । यह पूरा ईपस्थापन आस शेर के तलये दकया गया है ।

संवादों की भाषा ऄत्यन्त प्रवाहमय, लातलत्यपूणव, ऄलंकृत,मुहावरे दार तथा छारसी रं ग से पररपूणव है । कु छ
सुन्दर ईदाहरण प्रस्तुत हैं –

इन तशकारे अह चश्मान ऄघ तशकारे अहुवान् खेली बेह्तर ऄस्त34।(आन मृगों के तशकार की ऄपेिा मृगनयतनयों का

तशकार ऄतधक ऄच्छा है ।), दुरुश्ततर ऄस्त दुरुस्ततर ऄस्त ([शकु न्तला के शरीर पर यह वल्कल] खुरदरा होता हुअ भी ऄतधक
ऄच्छा है) , दुख़्तरे पीर ओ परी हस्त (शकु न्तला पीर=तवश्वातमर और परी=मेनका की पुरी है ) , इन परी शान् ऄघ अन्जा
परीशान ऄस्त35 (यह परी की तरह शान वाली वहाूँ से परीशान है ) , बेदहाने दरवीशे तुशवरू तल्खखू जूलीदे मू नयुफ़्तद
36(कहीं [शकु न्तला] दकसी बदसूरत, बुरे स्वभाव वाले , ईलझे बालों वाले ऊतष के मुंह में न पड जाये । ), ऄघ परी चाबुकतरी,
व,घ बगे गुल नाजुकतरी, व,घ हर चे गूयम बेहतरी37 । (परी के भी चञ्चल, गुलाब के फू लों से भी कोमल और मेरे सभी
वणवनों से ऄतधक ऄच्छी ) कमीन् मीनशीनम कमान् मी दकशम् (ओट में बैठकर धनुष खींचता हं । ) , ऄघ ददे ददलम चेरा बे
शुमा ददे ददल बेदहम38 (ऄपने हृदय के कष्ट बताकर तुम लोगों को तशरःशूल क्यों दूं ) बाद ऄघ इन् हरम बर मन हराम39

31
आस छन्द का नाम बहरे हघज है तजसकी गणव्यवस्था है – मछाइलुन् मछाइलुन् छउलुन् । (= यमाता राजभा ताराज गा गा )
32
ऄनसूया के नाम को ऄनूसुया भी आसतलये तलखा गया है दक ईसका लघुरूप ऄनूसी बना सकें ।
33
प्रतसद्ध छारसी कतव काअनी (१२२३–१२७० तहजरी, १८ वीं सदी) के आस पद्य में परस्पर बात करते हुए दो हकले पहले समझते हैं दक एक दूसरे
को तचढा रहे हैं जबदक बाद में जान पाते हैं दक दोनों हकले हैं–
तु तु तू हम गु गु गुग
ं ी म म तमस्ले म म मन
म म मन हम गु गु गुंगम म म तमस्ले तु तु तू
(तू भी मेरी तरह हकला है मैं भी तेरी तरह हकला हं)
34
खातमे मछकू द – पृ॰ ११ पतङ्ि – ७
35
खातमे मछकू द – पृ॰ ११ पतङ्ि – ७–८
खातमे मछकू द – पृ॰ २१ पतङ्ि – १३
36

खातमे मछकू द – पृ॰ ८ पतङ्ि – ४–५


37

खातमे मछकू द – पृ॰ २६ पतङ्ि –१४


38

खातमे मछकू द – पृ॰ २७ पतङ्ि –१०


39
(आसके बाद रतनवास मेरे तलये तनतषद्ध), ऐ यासमन ! यासे मन तब ऄन्दाजे ये बी ऐतनाइ ए तोस्त 40( हे वनज्योत्स्ना, मेरी
मनोव्यथा तुम्हारी ईपेिा के ऄनुगुण है ।) सदृशेिणवल्लभातभः के ऄनुवाद में हमचश्मी करना41 आस मुहावरे का बङा
ही सुन्दर प्रयोग दकया है –इन अहबचेहा दक चश्मे अन्हा बा चश्मे उ हमचश्मी मी कु नद (ये तहरन के बच्चे तजनकी
अंखें शकु न्तला की अंखों के साथ हमचश्मी करते हैं ।) । षष्ठ दृश्य में ऊतषयों के साथ शकु न्तला को देखकर राजा का
ईद्गार है – नीम महजूब व तमाम महबूब 42 ( ऄधाववगुतण्ठत और पूणवतः तप्रय ) ।

संस्कृ त की व्यतिवाचक संज्ञाओं तथा तवतशष्ट शब्दों का रूपान्तरकार ने व्याख्यात्मक ऄनुवाद दकया है । ऐसा
करना तभन्न संस्कृ तत से सम्बद्ध सामातजकों के तलये ऄतनवायव भी था । ईदाहरण के तलये –“ऄतः खलु तप्रयंवदातस

त्वम्” में तप्रयंवदा का ऄनुवाद चाटुकार ( तमल्लुक–गू ) भी दकया है तथा यथा नाम तथा गुण (आस्मत बा
मुसम्मा हस्त) भी जोङ ददया है । आसी तरह, कु श के तलये काहे नूकदार ( नोकदार घास ) तथा वल्कल के तलये
तलबासी दक ऄघ पूस्ते दरख़्त बाफ़्ते ऄन्द (वह कपङा तजसे पेङ की छाल से बुना गया हो) यह व्याख्यात्मक
ऄनुवाद दकया गया है43

कइ बार गद्यात्मक संवादों के भावों को स्पष्टतर करने के तलये समान भावों वाले छारसी पद्यों का भी प्रयोग
दकया गया है । प्रथम ऄङ्क में शकु न्तला तप्रयंवदा के नमव पररहास का ईत्तर देती हुइ कहती है – “एष नूनं

तवात्मगतो मनोरथः”। आसे हादछघ के आस शे,र से स्पष्टतर कर ददया गया है –

बयाने शौक तच हाजत, दक हाले अतशे ददल – तवान् तशनाख्त तघ सूघी दक दर सुखन बाशद44

(ऄतभप्राय के कथन की क्या अवश्यकता है, ददल के अग की हालत तो बातों की गमी से ही समझ ली जा सकती है । )

कातलदासीय भावों को छारसी भाषा में लाते समय रूपान्तरण में छारसी वातावरण की सृतष्ट हो गयी है जो
स्वाभातवक ही है । यह कहीं भी ईद्वेजक नहीं लगता ऄतपतु रुतचकर तथा मनोरञ्जक हो गया है । स्थान स्थान
पर छारसी काव्य के ईपमान तथा व्यञ्जना शैली नाटक को तवतशष्ट पररधान प्रदान करते हैं । इरानवातसयों के
सम्भाषण का सबसे तवतशष्ट तथा अकषवक पि है ईनकी भाषा में तशष्टाचारपरक औपचाररक वाक्यों की
ऄतधकता । आसका सुन्दर ईदाहरण है षष्ठ दृश्य में दुष्यन्त का यह वाक्य जो वह कण्व के पास से अये ऊतषयों के
तलये प्रयुि करता है –सलामे मुह्तरमाने ये मारा कबूल बेछरमाइद । खुश अमदीद । सछा अवुदीद । ऄह्लन् व
सह्लन् । चश्मे मा रौशन ददले मा शाद । ईमीदवारीम दक वक़्ते शरीफे तान् खुश बेग्घरद व कसी मो,तररघेतान
न शुदे बाशद45(हमारे ससम्मान प्रणाम स्वीकार करें । अपका स्वागत है । अप लोग प्रकाश लेकर अये । सुस्वागतम् । हमारी अूँखें
प्रकातशत और हृदय प्रसन्न हो गये । हमे तवश्वास है दक अपका समय ठीक बीत रहा होगा और कोइ कष्ट नहीं पहुूँचा रहा होगा । ) ।

खातमे मछकू द – पृ॰ ३५ , पतङ्ि २१


40

हमचश्मी करना ऄथावत् बराबरी करना ( लुगतनामे ये दहख़ुदा )


41

खातमे मछकू द – पृ॰ ३९ , पतङ्ि ८–९


42

खातमे मछकू द – पृ॰ १६ पतङ्ि – ६– ७


43
44
खातमे मछकू द – पृ॰ ११ पतङ्ि – १०–११, दीवाने हादछघ – गजल संख्या –१६०
खातमे मछकू द – पृ॰ ४० पतङ्ि –४–७
45
जब दुष्यन्त को यह पता चलता है दक शकु न्तला का िह्मचयव तववाह तक ही है तब वह प्रसन्न होकर अत्मगत
कहता है – न दुरवापेयं खलु प्राथवना । आसके तलये रूपान्तररत वाक्य आस प्रकार है – तुम्हें सुसन्देश हो हे हृदय!
क्योंदक यह गुप्त मुिा सदैव शुति के ऄवगुण्ठन में नहीं रहने वाली है46 ।

छारसी सातहत्य में प्रेयसी या तप्रय का स्वरूप भारतीय सातहत्य से कु छ तभन्न है । छारसी सातहत्य में महबूब
सामान्यतः पुरुष है जो ऄत्याचारी और हत्यारा होने की हद तक तनदवय है । प्रेम के प्रसंगों को ऄक्सर रिपात
वाले युद्ध से ईपतमत दकया जाता है । ईदूव सातहत्य में यह रं ग छारसी से ही होकर अया है । आसके बहुत से
सामातजक तथा ऐततहातसक कारण हैं । ऄस्तु, आस प्रकार के वणवन प्रकृ त रूपान्तरण में भी अ गये हैं जो दूषण न
होकर भूषण ही लगते हैं क्योंदक आसके कारण यह रूपान्तरण छारसी सातहत्य के ऄध्येताओं के तलये ऄत्यन्त
समान वातावरण का प्रतीत होता है तथा साधारणीकरण के तलये सहायक भी । ईदाहरण के तलये प्रथम दृश्य के
ऄन्त में शकु न्तला के चले जाने पर राजा तवरहातव होकर यह पद्य कहता है जो मूलतः शेख सादी के गुतलस्तान
का प्रतसद्ध पद्य है47– जंगजूयान् तब जोरे पञ्जे ओ कत्छ – दुश्मनान् रा कु शन्दो खूबान् दूस्त । (शूरवीर पंजों और
हथेतलयों की शति से – दुश्मनों का वध करते हैं, जबदक सुन्दररयां दोस्तों का ) । शकु न्तला को तवदा करते हुए कण्व के द्वारा
कहा गया वाक्य भी आस प्रवृतत्त का सुन्दर ईदाहरण है –तबछोह का दुख हमें तलवार की तरह काट देता ऄगर
दफर तमलने की अशा ईसके धार को कु न्द न करती48 । यह छारसी ईपमानों का ही प्रभाव है दक रूपान्तरकार
दुष्यन्त के मुंह से ऄंगूठी के तलये कहलवाते हैं – तुम ऄति की तरह ईज्ज्वल हाथों की ईन ईं गतलयों को छोड कर
जल में कै से तगर सकी 49 । सप्तम दृश्य में तचर दशवन के प्रसङ्ग को दुष्यन्त आस छारसी पद्य के साथ शकु न्तला के
तचर को मंगाता है – रूघे कयामत हर कसी दर दस्त गीरद नामे इ – मन नीघ हातजर मी शुदम तस्वीरे जानान्
दर बगल 50। (कयामत के ददन सब लोग ऄपने कमों का लेखा जोखा लेकर ईपतस्थत होंगे और मैं भी ईपतस्थत होईं गा ऄपने बगल
में ऄपने तप्रय का तचर तलये हुए ।)

छारसी वातावरण का ध्यान रखते हुए ईन्होंने तृतीय दृश्य में शकु न्तला तथा दुष्यन्त के तमलन के प्रसङ्ग को
जाती हुइ तप्रयंवदा तथा ऄनसूया के तनम्नोि वाक्य पर ही पररसमाप्त कर ददया है – जब सम्पूणव संसार का
शरणभूत तुम्हारे पास है तो तुम ऄशरण कै से हो सकती हो 51? और अगे के सभी शृङ्गारपरक संवाद तनरस्त
कर ददये गये हैं ।

यद्यतप कहीं कहीं कु छ लोगों को यह वातावरण ऄरुतचकर तथा मूल भावों की ऄपेिा हल्का भी लग सकता है ।

46
मुज्दे ऐ ददल दक इन् लूलू ये मक्नून हमवारे दर पदे ये सदफ नखाहद मान्द , वही पृष्ठ – १३ पतङ्ि १७–१८।
खातमे मछकू द – पृ॰ १७, पतङ्ि १३–१४
47

खातमे मछकू द – पृ॰ १७, पतङ्ि


48

खातमे मछकू द – पृ॰ ४४, पतङ्ि १९–२०


49

खातमे मछकू द – पृ॰ ४५, पतङ्ि ३–४


50

खातमे मछकू द – पृ॰ २७ पतङ्ि –१७


51
रूपान्तरण का सन्तोषजनक पहलू यह भी है दक छारसी रं ग के वल सातहत्य तक ही सीतमत है । भारतीय
सवेश्वरवाद का रूपान्तरण आिानी एके श्वरवाद की शब्दावली में करने की प्रवृतत्त महाभारत52 अदद ग्रन्थों के
पुराने छारसी ऄनुवादों से लेकर अधुतनक ईदूव ऄनुवादों में खासकर देखी जाती है जो कभी कभी बहुत ईद्वेजक
भी प्रतीत होती है । परन्तु प्रकृ त कृ तत में रूपान्तरकार ने ऄपनी साम्प्रदातयक धारणाओं को नहीं लादा है । आसके
तवपरीत रूपान्तरकार ने बङी ही इमानदारी के साथ मूल ग्रन्थ की भावनाओं की सुरिा की है । ईदाहरण के
तलये ऄखण्डं पुण्यानां फलतमव का रूपान्तरण करते हुए तलखा है – यह ईन पुण्यकमों का पररपक्व फल है तजसे
दकसी पूववजन्म में सम्पाददत दकया गया था 53। ईल्लेखनीय है दक पूववजन्म वाला ऄंश मूल में नहीं हैiv । हां;
नान्दी,भरतवाक्य तथा ऄन्य स्थानों पर तशव अदद देवों के प्रसङ्गों से बचा गया है । ऐसा छारसी दशवकों के
ऄवगम की ऄसुतवधा से बचने तथा संिेपीकरण को ध्यान में रखकर दकया गया प्रतीत होता है ।

वणवनों को छारसी रुतच के ऄनुकूल करने के तलये रूपान्तरकार ने कहीं कहीं मूल कथा के तथ्यों में पररवतवन भी
दकये हैं । ईदाहरण के तलये तृतीय दृश्य में शकु न्तला के ताप का कारण पूछती हुइ ऄनसूया और तप्रयंवदा कहती
हैं दक तुम्हारी दशा ईसी तरह है जैसा दक हमने प्रेमी कतवयों के काव्यों से जाना है54 । ईल्लेखनीय है दक मूल में
ऄनसूया कहती है दक जैसा दक आततहासग्रन्थों में कातमयों की ऄवस्थायें सुनी जाती हैं वैसी तुम्हारी दशा देख
रही हूँ । पञ्चम दृश्य में शकु न्तला को तवदा करते हुए कण्व कहते हैं दक तुम ईन बागों से गुघरो तजनके चाूँदी की
तरह चमकते चश्मे ( सोते ) अबे हयात (ऄमृत) के चश्मों से ऄतधक हृदयावजवक हों55 ।

कहीं कहीं प्रसङ्गवशात् रूपान्तरकार ईपयुि पद्यों को ऄपनी ओर से भी लेकर अये हैं तजनके समान्तर मूल
में यद्यतप मूल में कोइ पद्य नहीं है दफर भी आन छारसी पद्यों का भाव ऄस्थान या ऄततररि नहीं लगता ।
ईदाहरण के तलये प्रथम ऄङ्क में जाती हुइ शकु न्तला को देखकर राजा के मुंह से रूपान्तरकार ने शेख सादी का
यह प्रतसद्ध पद्य कहलवाया है –“ प्राणों के जाने के सम्बन्ध में लोग तरह तरह की ऄटकलबातघयाूँ करते हैं । मैने

तो ऄपनी अंखों से देख तलया दक मेरी जान (शकु न्तला) जा रही है 56 ”

कइ स्थानों पर श्लोकों के वास्ततवक स्थानों में पररवतवन कर ददया गया है तजसमें कोइ तवशेष कारण ज्ञात नहीं
होता है । यद्यतप ऐसा करने से कोइ कथात्मक हातन नहीं होने पायी है । ईदाहरण के तलये ऄनाघ्रातं पुष्पम् तथा
ऄतभमुखे मतय संहृतमीिणम् 57 पद्यों को दूसरे ऄङ्क से लाकर पहले ऄङ्क के ऄन्त में ईस प्रसङ्ग में रख ददया

52
...in attempting to make sense of the religious aspects of the Mahabharata, the translators incorporate their own
Islamic notions and a monotheistic God while simultaneously retaining Indic gods and spiritual elements. Audrey
Treschke :The Mughal Book of War : A Persian Translation of the Sanskrit Mahabharata , p.511; Comparative Studies of South
Asia, Africa and the Middle East Vol. 31, No. 2, 2011 by Duke University Press.
53
या मगर मीवे ये रसीदे ये अन अमाले नीक ऄस्त दक दर यकी ऄघ तघन्दगी हा ये सातबके ऄञ्जाम दादे इम् , खातमे मछकू द – पृ॰ १७ पतङ्ि–१
खातमे मछकू द – पृ॰ २६, पतङ्ि २
54

खातमे मछकू द – पृ॰ ३४, पतङ्ि १३–१४


55

शेख सादी शीराघी (११८४–१२८३ इ॰) दीवाने गघतलयात - दर रफ़्तने जान् ऄघ बदन गूयन्द हर नौइ सुखन – मन ख़ुद बे चश्मे खीश्तन दीदम
56

दक जानम मी रवद ॥
ऄतभज्ञानशाकु न्तलम् – २ – १० तथा ११
57
गया है जब शकु न्तला के चले जाने के बाद राजा ईसके बारे में तचन्तन कर रहा है58 । ये पद्य मूलतः राजा के
साथ तवदूषक के संवाद के ऄंश थे ।

रूपान्तरकार ने मूलस्थ श्लोकों का हर जगह छारसी पद्यों से ही रूपान्तरण नहीं दकया है । जहाूँ ईन्हें छारसी
सातहत्य में कोइ तनकटतम भाव का पद्य नहीं तमला वहाूँ ईन्होंने ईन श्लोकों का गद्यात्मक रूपान्तरण ही प्रस्तुत
कर ददया है । ईदाहरण के तलये ईपयुवि स्थलों (ऄनाघ्रातं पुष्पम् आत्यादद) पर ही तीन श्लोकों का एक साथ
छारसी गद्य रूपान्तरण दे ददया गया है ।

तजन श्लोकों को तवद्वानों ने प्रतिप्त माना है परन्तु ईनके भाव बङे ही सुन्दर हैं ईन्हें भी आस रूपान्तरण में स्थान
ददया गया है । प्रतिप्त पद्यों को स्पष्ट करने के तलये ईन्हें कोष्ठक में रख ददया गया है59 ।

ईपयुवि तवतशष्टताओं के साथ साथ प्रस्तुत रूपान्तरण में कु छ स्खलन तथा दुबवलतायें भी हैं । अगे आन्हीं से
सम्बद्ध कु छ महत्त्वपूणव पिों को ईपस्थातपत दकया जा रहा है ।

प्रो॰ हसन ने ऄनुवाद मूल संस्कृ त से न करके ऄनुवादों की सहायता से दकया है । ऄतः ऄनेकानेक ऄशुतद्धयों
का अना स्वाभातवक है । संिेपीकरण के कारण यह पता लगाना भी करठन है दक दकस संस्करण के ऄनुवाद को
अधार बनाया गया है । के वल कु छ पाठभेदों का पता ऄनुवाद के अधार पर ऄवश्य लग सकता है । ईदाहरण के
तलये आस ऄनुवाद का अधार वह संस्करण है तजसमें तूलराशौ की जगह पुष्पराशौ पाठ तलया गया है । परन्तु
ये जानकाररयां दकसी तनणवय तक पहुूँचने में ऄपयावप्त हैं ।

रूपान्तरणकार को संस्कृ त का प्रत्यि ज्ञान नहीं होने से दकन्हीं स्थलों पर ऄनुवाद शुद्ध नहीं हो पाया है ।
ईदाहरण के तलये चतुथव ऄङ्क में अये हुए मलय शब्द का ऄनुवाद ईन्होंने कू ह हा ए बाख्तर60 (ईत्तरी
पववतशृङ्खला ) की है जो ऄशुद्ध है क्योंदक मलय पववत दतिण में तस्थत है । ऄतन्तम दृश्य में शकु न्तला के तलये
वसने पररधूसरे वसाना का ऄनुवाद तवधवाओं के वस्त्र पहने हुए दकया गया है जो ऄशुद्ध है ।

कइ स्थलों पर ऐततहातसक तथ्यों को ऄशुद्ध प्रस्तुत दकया गया है जैसे ऄनसूया शकु न्तला को मेनका तथा कण्व
की पुरी बताती है61 । सम्भवतः यह पररवतवन तवश्वातमर के प्रसङ्ग की गुरुता से बचने के तलये दकया गया है ।
तद्वतीय दृश्य के ऄन्त में राजा को राजधानी बुलाने वाला पररचारक कहता है दक महाराज को ऄपने जन्मददन के
प्रसङ्ग में वहां जाना अवश्यक है62 जबदक मूल नाटक में राजमाता द्वारा चौथे ददन के वल ईपवास के पारण
मार की बात की गयी है ।

नाटक में कइ बार पारों के संवादों को व्यततक्रम करके प्रस्तुत कर ददया गया है तजसका कोइ कारण स्पष्ट नहीं
होता । आससे लगता है दक यह व्यततक्रम रूपान्तरणकार की ऄसावधानी से हुअ है । ईदाहरण के तलये

खातमे मछकू द – पृ॰ १६ पतङ्ि – १७ से ऄन्त तक तथा पृ॰ १७ पतङ्ि १ से ७ तक ।


58

ईदाहरण के तलये पृ॰ २० तथा २१ ।


59

खातमे मछकू द – पृ॰ ३५, पतङ्ि ७


60

वही – पृ॰ १३ पतङ्ि – ४


61

खातमे मछकू द – पृ॰ २१


62
“वृिसेचने द्वे धारयतस मे” को, जो मूल में तप्रयंवदा का कथन है, ऄनसूया के मुख से कहलवाने का कोइ प्रयोजन
स्पष्ट नहीं है ।

छारसी काव्यों के प्रयोग तथा छारसी वातावरण की सृतष्ट के कारण रूपान्तरण में कहीं कहीं भौगोतलक तथ्यों
की ऄनदेखी भी की है । ईदाहरण के तलये तहमालय की तलहटी (जो दक शाकु न्तल की घटनाभूतम है ) में लौंग
तथा लाला (ट्यूतलप) वनस्पततयों का वणवन63 ऄनुतचत है क्योंदक ये वनस्पततयां ईपयुवि वातावरण में ईत्पन्न
नहीं होती हैं ।

रूपान्तरण के ऄत्यन्त संिेपीकृ त होने के लाभ तो हैं ही के साथ साथ कइ हातनयां भी हैं जो प्रस्तुत कृ तत में
ऄनुभूत होती हैं । जैसे नायक तथा नातयका के ऄततररि ऄन्य पारों का चररर बहुत स्पष्ट होकर नहीं अ पाया
है , जैसे तप्रयंवदा, ऄनसूया,शाङ्गवरव,शारद्वत तथा तवदूषक अदद । लाघवातधक्य के कारण नाटक के कइ
महत्त्वपूणव प्रसङ्ग जैसे कण्व सन्देश अदद छू ट गये हैं । पारों की कमी तथा संवादों की ऄल्पता का सीधा प्रभाव
नाटक की प्रभावोत्पादकता पर पङा है । रूपान्तरण में मूल की जीवन्तता का ऄभाव ददखायी पङता है । संवादों
की कमी से रूपान्तरण में सन्दभीकरण के ऄभाव से कहीं कहीं नाटकीय घटनाओं को समझना करठन भी हो गया
है ।

कहीं कहीं श्लोकों के गद्यात्मक रूपान्तरण करते हुए ईसके कु छ ऄंश छोङ ददये गये हैं जो स्पष्टतः एक
ऄनवधानजन्य दोष मालूम पङता है । ईदाहरण के तलये – ऄनाघ्रातम् पुष्पम् आत्यादद श्लोक का रूपान्तरण
करते हुए ईन्होंने आसके ऄतन्तम चरण (न जाने भोिारं कतमह समुपस्थास्यतत तवतधः) का ऄनुवाद नहीं दकया है
जो वस्तुतः दुष्यन्तगत तलप्सा की अत्यतन्तकता को व्यतञ्जत करने के कारण महत्त्वपूणव है ।

प्रस्तुत रूपान्तरण में प्रयुि छारसी के तवषय में एक दोष सववर आतङ्गत दकया जा सकता है और वह यह है दक
यह ऄरबी के शब्दों तथा मुहावरों से भरी हुइ है । अधुतनक छारसी की दृतष्ट से भाषा दकतञ्चत् करठन है । परन्तु
६० वषव पूवव चूूँदक छारसी का यही रूप रहा था ऄतः यह तबन्दु गहवणीय नहीं है । एक गैर इरानी के द्वारा
तलतखत होने पर भी भाषा में ऄस्वाभातवकता नहीं अने पायी है ,यह बात प्रस्तुत रूपान्तरण में बहुत ही स्तुत्य
है ।

आस प्रकार स्पष्ट है दक प्रो॰ हसन ने कातलदास को छारसी वातावरण में बहुत ही रोचक रीतत से ईतारा है ।
कातलदासीय कतवता के साथ छारसी के भाव साम्य वाली कतवताओं को रख कर रूपान्तरणकताव ने दोनों
सातहत्यों का ऄपूवव संगम ईपस्थातपत दकया है । मूल भावों की सुरिा करते हुए नाटक को लक्ष्य भाषा (फारसी)
के दशवकों के तलये तनकटतम बनाना आस रूपान्तर की सबसे बङी तवशेषता है । ऄपनी सीमाओं के बावजूद यह
रूपान्तरण ऄतभज्ञानशाकु न्तलम् के शुद्धतर छारसी ऄनुवाद के तलये पथप्रदशवक हो सकता है जो ऄभी भी
करणीय है ।

क्रमशः पृष्ठ २५, पतङ्ि ११ तथा पृष्ठ २४, पतङ्ि १९ ; पृ॰ ३४ पतङ्ि १६ ।
63
सन्दभव –

1- AbhijnAna Shakuntalam of Kalidasa – Edited by M R Kale , Bombay 1898 (Ninth Ed. 1961)

2- शकु न्तला या खातमे मछकू द – तालीछ कालीदास, तजुवमे – हादी हसन, बा मुकद्दमे – दुिुर ऄली ऄसगर तहकमत बराये शोराये

रवातबते छरहङ्गी, तहन्दुस्तान (Shakuntala or The Lost Ring by Kalidasa, Translated by Prof. Hadi Hasan

with an Introduction by Ali Asghar Hekmat , Iranian Ambassador, New Delhi , Indian Council for

Cultural Relation, New Delhi, 1956)

3- Divan e Hafiz (Persian) – Ed. Prof. Pervez Natil Khanlari , Second Print – 1375 Hijri, Niel

Publication – Tehran .

4–Kalidasa Bibliography–Prof. Satya Pal Narang,1976 Heritage Publishers, M-116, Connaught

Circus, New Delhi – 110001.

Endnotes-
शुद्ध काव्य सातहत्य से हमारा तात्पयव वे काव्य हैं जो दकसी शास्त्रीय तसद्धान्त के पोषण के तलये न होकर के वल रसपरक हों । वेदान्त शास्त्र के प्रचार
i

को दृतष्ट में रखकर तलखे गये नाटक – प्रबोधचन्िोदय (कृ ष्णतमश्र) का छारसी ऄनुवाद गुलघारे हाल के नाम से प्राप्त होता है।
इरान में संस्कृ त भाषा का ऄध्यापन दो तवश्वतवद्यालयों के संस्कृ तत एवं प्राचीन भाषा तवभाग में होता है । पहला, तेहरान तवश्वतवद्यालय में
ii

परास्नातक तथा शोध के स्तर पर तथा दूसरा, मानतवकी एवं सांस्कृ ततक शोध के न्ि ( Centre for Research in Humanities and Cultural
Studies ) में शोध के स्तर पर ।( तेहरान तवश्वतवद्यालय में प्राचीन इरानी भाषा तवभाग के प्रोफे सर डा॰ हसन ररघाइ बागबीदी द्वारा प्रदत्त सूचना ।)
प्रथम ऄङ्क के ऄन्त में काअनी का एक पद्य (कसीदा सं॰ १२९ से ईद्धृत) और प्रस्तुत दकया गया है – (तब वीजे) अन् बुते शंगूलो शोखो शंगो बी
iii

परवा । सुखन परदाघो ख़ुश अवाघो ऄछसून् साघो हीलतगर॥ खातमे मछकू द पृ॰ १७ पतङ्ि ८–९
आस प्रसङ्ग में स्मरणीय है दक यहदी, इसाइ तथा आस्लाम आन तीनों धमों में पूववजन्म या पुनजवन्म की धारणा नहीं है ।
iv

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