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भागवत-1 : खुद से परिचित होने का ग्रंथ है भागवत

आज से हम एक ऐसे ग्रंथ में प्रवेश कर रहे हैं जो वैष्णवों का परम धन है , परु ाणों का तिलक है , ज्ञानियों का चिंतन, संतों का मनन,
भक्तों का वंदन तथा भारत की धड़कन है । किसी का सौभाग्य सर्वोच्च शिखर पर होता है तब उसे श्रीमद्भागवत पुराण कहना, सुनना
और पढऩा मिलता है । भागवत महापुराण वह शास्त्र हैं जिसमें बीते कल की स्मति
ृ , आज का बोध और भविष्य की योजना है । तो आज
भागवत में प्रवेश करने से पहले थोड़ा भीतर उतरने की तैयारी करिए। यह स्वयं मल
ू से परिचित कराने का ग्रंथ है । भगवान ने भागवत
की पंक्ति-पंक्ति में ऐसा रस भरा है कि वे स्वयं लिखते हैं- पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरवो रसिका भुवि भावुका:।
हमारे भीतर जो रहस्य भरा हुआ है उसको उजागर करने के लिए भागवत एक अध्यात्म दीप है जैसे हम भोजन करते हैं तो हमको
संतष्टि
ु मिलती है उसी प्रकार भागवत मन का भोजन है । जब मन को ऐसा शद्ध
ु भोजन मिलेगा तो मन संतष्ु ट होगा, पष्ु ट होगा और
तप्ृ त होगा और जिसका मन तप्ृ त है उसके जीवन में शांति है । भागवत में प्रवेश करें तो कुछ बातें स्पष्ट करते चलें। हम जिस रूप में
इस सद्साहित्य को पढ़ते चलेंगे, हमारे तीन आधार हैं। संत और महात्माओं का यह कहना है और शोध से ज्ञात भी हुआ है । पहली बात
है भगवान ने अपना स्वरूप भागवत में रखा तो भागवत भगवान का स्वरूप है । दस
ू री बात इसमें ग्रंथों का सार है और तीसरी बात
हमारे जीवन का व्यवहार है । ये तीन बातें भागवत में हैं।   ----क्रमशः

भागवत-2: भगवान बसे हैं भागवत में


भागवत में 12 स्कंध हैं (12 चेप्टर)। उन 12 स्कंधों में 335 छोटे -छोटे अध्याय हैं जिन्हें सेक्शन कह लें और 18 हजार श्लोक हैं। जो 12
स्कंध हैं उसमें भगवान का स्वरूप बताया है । पहला और दस
ू रा अध्याय भगवान के चरण , तीसरा और चौथा स्कंध भगवान की जंघाएं,
पांचवां स्कंध भगवान की नाभि , छठा वक्षस्थल, सात और आठ बाहू , नौ कंठ, दस मुख, ग्यारह में ललाट और बारह में मूर्धा है ।
भगवान का वाड्.मय स्वरूप भागवत के स्कंधों में बंटा हुआ है तो भागवत में बसे हुए हैं भगवान। भागवत का एक और अर्थ है भाग
मत। बहुत सी ऐसी स्थिति आती है हमारे जीवन में , या तो आदमी बाहर भागता है या भीतर भागने लगता है । भाग मत भागवत
कहती है रुकिए, दे खिए और फिर चलिए। एक और अर्थ है भागवत का। चार शब्द है भ, ग, व, त। जिनका अर्थ है भ से भक्ति, ग से
ज्ञान, व से वैराग्य और त से त्याग। दस
ू री बात इसमें ग्रंथों का सार है । हमारे यहां चार प्रमुख ग्रंथ हैं और चारों ग्रंथ भागवत में
समाविष्ट हैं। इतनी सुंदर रचना वेदव्यासजी ने की है । महाभारत हमें रहना सिखाती है आर्ट ऑफ लिविंग जिसे कहते हैं। कैसे रहें ,
जीवन की क्या परं पराएं हैं, क्या आचारसंहिता, क्या सूत्र हैं, संबंधों का निर्वहन कैसे किया जाता है यह सब महाभारत से सीखा जा
सकता है । जीवन का दस
ू रा साहित्य है गीता। गीता हमें सिखाती है करना कैसे है आर्ट ऑफ डुईंग। भागवत महापुराण के दो से आठ
स्कंध तक हम गीता में करना कैसे ये दे खेंगे। रामायण हमें जीना सिखाती है भागवत में नवें स्कंध में श्रीरामकथा आई है । रामायण
हमें सिखाएगी आर्ट ऑफ लिविंग। अंतिम चरण में भागवत कहती है मरना कैसे है । यह इस ग्रंथ का मल
ू विचार है , 'आर्ट ऑफ डाइंग।
भागवत के दसवें , ग्यारहवें और बारहवें स्कंध में भगवान की लीला आएगी। यह चार ग्रंथ इस भागवत में समाए हुए हैं और इसी रूप में
चर्चा करते चलेंगे तो आप इसे स्मरण में रखिए। .......क्रमशः....

भागवत-3: गह
ृ स्थी का ग्रंथ है भागवत
हम सब गह
ृ स्थ लोग हैं, दाम्पत्य में रहते हैं। भागवत की घोषणा है कि मैं दाम्पत्य में आसानी से प्रवेश कर जाती हूं। हमारे दाम्पत्य के
सात सूत्र हैं- संयम, संतुष्टि, संतान, संवेदनशीलता, संकल्प, सक्षम और समर्पण। इन सात सूत्रों को हम प्रतिदिन भागवत में स्पष्ट
करते चलेंगे।हमने भागवत में भगवान का स्वरूप दे ख लिया। ग्रंथों का सार दे ख लिया और जीवन का व्यवहार भी दे ख लिया। लोगों के
मन में प्रश्न उठता है भागवत किसने कही, किसने सुनी? वेदव्यासजी ने ऐसा ग्रंथ रचा कि जिसमें बहुत सारे स्तर पर बहुत सारी
कथाएं चलती हैं। इस कारण भागवत पढऩे वाले भ्रम में आ जाते हैं कि अभी तो ये बोल रहे थे, अभी तो इनकी कथा चल रही थी,
अचानक दस
ू री कथा आ जाती है तो लोग भ्रम में पड़ जाते हैं। भ्रम न पालें , सबसे पहले हम ये जान लें कि भागवत लिखने की नौबत
क्यों आई?
वैसे तो इसका उत्तर भागवत के प्रथम स्कंध के चौथे अध्याय में आता है पर मैं आपको यहीं बता रहा हूं। भागवत का आरं भ उसके
महात्म्य से होता है । जिसे सामान्य भाषा में संदेश(प्रोमो) कहते हैं। क्या बात हुई जो भागवत लिखनी पड़ी? महर्षि वेदव्यास जिनका
नाम कृष्णद्वेपायन है । ब्रह्माजी ने जब वेद रचे तो उनको सौंप दिए। व्यासजी ने वेदों का संपादन किया। चार वेद उन्होंने बनाए
ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्वेद और सामवेद। फिर व्यासजी ने 18 परु ाण लिखे। फिर व्यासजी ने महाभारत की रचना की, जिसको कहते हैं
पंचम वेद। ऐसी अद्भत
ु रचना की कि महाभारत को पढऩे के बाद सारे संसार ने ये तय कर लिया कि जो कुछ भी इस महाभारत में है वो
सारा संसार में है और जो इसमें नहीं है वह संसार में नहीं है ।

भागवत-4: भागवत के नायक हैं श्रीकृष्ण


महाभारत जैसा महान ग्रंथ लिखने के बाद व्यासजी एक दिन बैठे तो उनके भीतर उदासी जाग गई। उसी समय नारदजी आए। उन्होंने
पछ
ू ा व्यासजी क्या बात है इतना बड़ा सज
ृ न करने के बाद आपके चेहरे पर उदासी क्यों है ?सज
ृ न के बाद तो आनंद होना चाहिए।
व्यासजी ने नारदजी से बोला मेरा भी यही प्रश्न है आपसे। मैंने महाभारत जैसा महान ग्रंथ लिखा, मैं थका हुआ क्यों हूं, उदास क्यों हूं।
नारदजी ने बड़ा सुंदर उत्तर दिया और वह हमारे बड़ा काम का है । नारदजी ने कहा व्यासजी ये तो होना ही था क्योंकि आपने जो रचना
की है उसके नायक पांडव हैं और खलनायक कौरव हैं।आपकी रचना के केंद्र में मनष्ु य है , विवाद है , षडयंत्र हैं। आप कोई ऐसा साहित्य
रचिए जिसके केंद्र में भगवान हों। तब आपको शांति मिलेगी। हमें समझने की बात ये है कि जीवन की जिस भी गतिविधि के केंद्र में
भगवान नहीं होगा, वहां अशांति होगी। इसीलिए भगवान को केंद्र में रखिए और सारे काम करिए। बात व्यासजी को समझ में आ गई।
तब उन्होंने भागवत की रचना की जिसके नायक भगवान श्रीकृष्ण हैं। तब जाकर उनको शांति मिली। इसीलिए भागवत का पाठ
किया जाता है जिसे सुनने के बाद मनष्ु य को शांति मिलती है । लोग कहते हैं महाभारत घर में नहीं रखना चाहिए।महाभारत नहीं
रखते। क्योंकि उपद्रव होता है । लोग रामायण रखते हैं घर में , लेकिन रामायण जैसा आचरण नहीं करते। अगर आप महाभारत पढऩा
चाहें तो अवश्य पढि़ए, घर में रखिए यह वही ग्रंथ है जो व्यासजी ने लिखा है । व्यासजी ने बड़ी सुंदर रचना भागवत के रूप में की है ।
केंद्र में भगवान को रखा और केंद्र में भगवान को रखने के बाद महात्म्य का आरं भ कर रहे हैं। केन्द्र में भगवान हों और व्यक्तित्व में
प्रसन्नता हो इसलिए हमेशा मुस्कुराइए.... क्रमश:...

भागवत-5: आनंद चाहिए तो सच्चिदानंद का ध्यान करें


भागवत माहात्म्य में श्लोक वर्णित है -
सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहे तवे। तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम:।।

अर्थात जो जगत की उत्पत्ति और विनाश के लिए है तथा जो तीनों प्रकार के ताप के नाशकर्ता हैं ऐसे सच्चिदानंद स्वरूप भगवान
कृष्ण को हम सब वंदन करते हैं। सत यानी सत्य, परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग है । चित्त, जो स्वयं प्रकाश है । आनंद-आत्मबोध।
शास्त्रों में परमात्मा के तीन स्वरूप कहे गए हैं सत, चित और आनंद। सत प्रकट रूप से सर्वत्र है । जड़ वस्तओ
ु ं में सत तथा चित है किं तु
आनंद नहीं। जीव में सत और चित प्रकटता है पर आनंद अप्रकट रहता है अर्थात अप्रकट रूप से विराजमान अवश्य है । वह अव्यक्त
रूप से है । वैसे आनंद अपने अन्दर ही है । फिर भी मनष्ु य आनंद को बाहर खोजता है । इस आनंद को जीवन में किस प्रकार प्रकट करें
यही भागवत शास्त्र हमें बताता है । आनंद के अनेक प्रकार तैतरीय उपनिषद् में बताए गए हैं परं तु इनमें से दो मख्
ु य हैं पहला
साधनजन्य आनंद और दस
ू रा है स्वयंसिद्ध आनंद। जिसका ज्ञान नित्य टिकता है उसे ही आनंद मिलता है वही आनंदमय होता है ।
जीव को यदि आनंद रूप होना हो तो उसे सच्चिदानंद के आश्रय होना पड़ेगा । भागवत कहती है मेरे लिए कुछ भी नहीं छोडऩा है । वेद,
त्याग का उपदे श करते हैं, शास्त्र कहते हैं काम छोड़ो, क्रोध छोड़ो, परं तु मनष्ु य कुछ नहीं छोड़ सकता । संसार में फंसे जीव उपनिषदों के
ज्ञान को पचा नहीं सकते । इन सब बातों का विचार करके भगवान व्यासजी ने श्रीमद्भागवत शास्त्र की रचना की है । क्रमशः...

भागवत-6: भगवान का पहला स्वरूप है सत्य


भागवत महात्म्य के आरं भ में सबसे पहले लिखा है -

सच्चिदानन्दरूपाय विश्वोत्पत्त्यादिहे तवे। तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुम:।।

ये पहला श्लोक है भागवत का। प्रथम श्लोक का प्रथम शब्द है सच्चिदानंदरूपाय। भागवत आरं भ हो रहा है और भागवत ने घोषणा की
सत, चित और आनंद। भगवान के तीन रूप हैं सच्चिदानंद रूपाय सत, चित और आनंद। भगवान के रूप को प्रकट किया। भगवान
तक पहुंचने के तीन मार्ग है सत, चित और आनंद। इन तीन रास्तों से आप भगवान तक पहुंच सकते हैं। आप दे खना चाहें भगवान का
स्वरूप क्या है तो भगवान चतुर्भुज रूप में प्रकट नहीं होंगे। भगवान का पहला स्वरूप है सत्य। जिस दिन आपके जीवन में सत्य घटने
लगे आप समझ लीजिए आपकी परमात्मा से निकटता हो गई। सत भगवान का पहला स्वरूप है फिर कहते हैं चित स्वयं के भीतर के
प्रकाश को आत्मप्रबोध को प्राप्त करिए। फिर है आनंद। दे खिए सत और चित तो सब में होता है पर आपमें जो है उसे प्रकट होना पड़ता
है । वैसे तो आनंद हमारा मल
ू स्वभाव है पर हमको आनंद निकालना पड़ता है मनष्ु य का मल
ू स्वभाव है आनंद फिर भी इसके लिए
प्रयास करना पड़ता है ।सत, चित, आनंद के माध्यम से भागवत में प्रवेश करें । यहां भागवत एक और सुंदर बात कहती है भागवत की
एक बड़ी प्यारी शर्त है कि मुझे पाने के लिए, मुझ तक पहुंचने के लिए या मुझे अपने जीवन में उतारने के लिए कुछ भी छोडऩा
आवश्यक नहीं है । ये भागवत की बड़ी मौलिक घोषणा है । इसीलिए ये ग्रंथ बड़ा महान है । भागवत कहती है मेरे लिए कुछ छोडऩा मत
आप। संसार छोडऩे की जरूरत नहीं है । कई लोग घरबार छोड़कर, दनि
ु यादारी छोड़कर पहाड़ पर चले गए, तीर्थ पर चले गए, एकांत में
चले गए तो भागवत कहती है उससे कुछ होना नहीं है । मामला प्रवत्ति
ृ का है । प्रवत्ति
ृ अगर भीतर बैठी हुई है तो भीतर रहे या जंगल में
रहें बराबर परिणाम मिलना है । क्रमश:...
भागवत-7: सबका उद्धार करती है भागवत
भागवत कहती है कि योगियों को जो आनंद समाधि में मिलता है , गह
ृ स्थों को वही आनंद घर में बैठकर भागवत से मिल सकता है । ये
भागवत की मौलिक घोषणा है ।भागवत ने बोला आपसे घर नहीं छूटता तो कोई बड़ा भारी काम करने की आवश्यकता नहीं। घर में रहें ,
संसार में रहें । घर में रहना कोई बुरा नहीं है । हां हमारे भीतर घर रहने लगे वहां से झंझट चालू होती है । भागवत इस अंतर को बताएगी
कि क्या फर्क है संसार में रहने में और संसार अपने भीतर रहने में । इसलिए भागवत ने कहा है कुछ छोडऩे की आवश्यकता नहीं, मेरे
साथ रहो। ऐसे कई प्रसंग आएंगे कि भागवत ये साबित कर दे गी कि यहीं स्वर्ग है और यहीं नर्क है । ये तो हम ही लोग हैं जो इसको नर्क
बनाए जा रहे हैं।इस भागवत शास्त्र की रचना कलयुग के जीवों के उद्धार के लिए की गई है । श्रीमद्भागवत में एक नवीन मार्गदर्शन
कराया गया है । घर में रहकर भी आप भगवान को प्रसन्न कर सकते हैं, प्राप्त कर सकते हैं परं तु आपका प्रत्येक व्यवहार भक्तिमय हो
जाना चाहिए। गोपियों का प्रत्येक व्यवहार भक्तिमय बन गया था। भागवत में कहा है घर में रहो, अपने स्वभाव में रहो और संसार में
फिर परमात्मा को प्राप्त कर सकते है । घर में रहें या बाहर अपनों से मिलें या परायों से। लेकिन जरा मुस्कुराइए...

क्रमश...

भागवत-8: निष्काम भक्ति सीखाती है भागवत


आज इस बात की चर्चा की जाए कि भागवत का मूल विषय क्या है ? भागवत का मूल है निष्काम भक्ति। भागवत में बार-बार आपको
यह शब्द मिलता रहे गा। भागवत ने कहा है मेरा मूल विषय है निष्काम भक्ति। निष्काम भक्ति का अर्थ है आप कर रहे हैं फिर भी आप
नहीं कर रहे हैं। जिसको अंग्रेजी में कहते हैं डूइंग है डूअर नहीं है । निष्कामता वहीं घटती है जिसमें आपके कर्म में से मैं चला जाए।
आपके काम में से जिस दिन कर्ता बोध का अभाव हो जाए उस दिन निष्कामता घटती है । बहुत लोगों को समझ में नहीं आता
निष्कामता होती क्या है ? मैं आपको एक छोटा सा उदाहरण दे ता हूं। जिन लोगों ने बेटियां पैदा की हैं, बेटियां बड़ी की हैं, पाली हैं और
विदा किया है । वो लोग जान सकते हैं निष्कामता क्या होती है । जब कोई अपनी बेटी को पालता है तो बेटे की तरह ही पालता है ।
लेकिन एक दिन वह बेटी बड़ी होती है और आदमी उसको विदा कर दे ता है । एक दिन उस बेटी का विवाह हो जाता है । उसका नाम, वंश,
कुल, परं परा सब एक क्षण में बदल जाता है ।ये भारतीय संस्कृति का ऐसा गौरव है कि जब स्त्री का विवाह होता है तो एक क्षण में उसका
सबकुछ बदल जाता है । दे हरी पार जाकर उसकी पहचान, उसका वंश, उसका कुल, उसके रिश्ते और सोलह श्रंग
ृ ार। आदमी जानता है मैं
इस बेटी को बड़ा कर रहा हूं। एक दिन मेरा इस पर कोई अधिकार नहीं रहे गा। जिस दिन आपके कर्म में , कर्म के फल के प्रति बेटी के
विदा करने जैसा भाव जाग जाए बस वहीं से निष्कामता का जन्म होता है । भागवत का मल
ू विषय यही है कि निष्काम भक्ति योग।
क्रमश:...

भागवत-9: तीनों दख
ु ों का नाश करते हैं श्रीकृष्ण
तीन तरह के ताप का विनाश करने वाले है श्रीकृष्ण। भागवत के पहले श्लोक में ये बताया गया है ।  सच्चिदानन्दरूपाय
विश्वोत्पत्त्यादिहे तवे। तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नम
ु :।। तापत्रय अर्थात आध्यात्मिक, आधिदै विक, आधिभौतिक तीन तरह के
द:ु ख होते हैं इंसान को। भागवत कितना सावधान ग्रंथ है । पापत्रयविनाशाये नहीं लिखा तापत्रयविनाशाय लिखा। पाप आता है चला
जाता है । यदि आदमी पश्चाताप कर ले। लेकिन पाप का परिणाम क्या है ताप। पाप अपने पीछे ताप छोड़कर जाता है । आदमी को पता
नहीं लगता इसी को संताप कहते हैं। लिखा है आध्यात्मिक आदिदै विक, अदिभौतिक तीनों प्रकार के पापों को नाश करने वाले भगवान
श्रीकृष्ण की हम वंदना करते हैं। अनेक लोगों को मन में यह प्रश्न उठता है कि वंदना करने से क्या लाभ है ? वंदना करने से पाप जलते
हैं। श्रीराधा व कृष्ण की वंदना करें गे तो हमारे सारे पाप नष्ट होंगे। परं तु वंदना केवल शरीर से नहीं मन से भी करना पड़ेगी। अत: ईश्वर
वंदनीय है । वंदना करने का अर्थ है अपनी क्रियाशक्ति को और बद्धि
ु शक्ति को श्रीभगवान को अर्पित करना।
वंदन करने से अभिमान का बोझ कम होता है । श्रीभागवत का आरं भ ही वंदना से किया गया है । और वंदना से समाप्ति की गई है । संत
महात्मा कहते हैं कि ये जो 'श्रीकृष्ण' शब्द लिखा है इसमें जो ये 'श्री' है यह राधाजी का प्रतीक है । राधाजी को 'श्री' भी कहा गया है ।
विद्वानों का प्रश्न है और शोध का विषय भी है बड़ी चर्चा होती है इसकी लोग हमसे भी प्रश्न पछ
ू ते हैं कि भागवत में राधाजी की चर्चा
नहीं आती? पूरे भागवत में राधाजी का नाम ही नहीं है । नायक कृष्ण और राधा का नाम नहीं। लोगों को बड़ा आश्चर्य होता है कि
वेदव्यासजी ने क्या सोचकर राधाजी का नाम नहीं लिखा। जबकि राधा के बिना कुछ नहीं हो सकता।

भागवत-10: कृष्ण दे ह तो राधा आत्मा हैं


विद्वान और पंडित लोग कहते हैं जिस समाधि भाषा में भागवत लिखी गई और जब राधाजी का प्रवेश हुआ तो व्यासजी इतने डूब गए
कि राधा चरित लिख ही नहीं सके। सच तो यह है कि ये जो पहले श्लोक में वंदना की गई इसमें श्रीकृष्णाय में श्री का अर्थ है कि राधाजी
को नमन किया गया। बात ये है कि जब राधाजी से कृष्णजी ने पूछा कि इस साहित्य में तुम्हारी क्या भूमिका  होगी। तो राधाजी ने
कहा मझ
ु े कोई भमि
ू का नहीं चाहिए मैं तो आपके पीछे हूं। इसलिए कहा गया कि कृष्ण दे ह हैं तो राधा आत्मा हैं। कृष्ण शब्द हैं तो राधा
अर्थ हैं, कृष्ण गीत हैं तो राधा संगीत हैं, कृष्ण बंशी हैं तो राधा स्वर हैं, कृष्ण समुद्र हं ै तो राधा तरं ग हैं और कृष्ण फूल हैं तो राधा
उसकी सुगंध हैं। इसलिए राधाजी इसमें अदृश्य रही हैं। राधा कहीं दिखती नही है इसलिए राधाजी को  इस रूप में नमन किया। जब हम
दसवें , ग्यारहवें स्कंध में पहुंचेंगे, पांचवें, छठे , सातवें दिन तब हम राधाजी को याद करें गे। पर एक बार बड़े भाव से स्मरण करें राधे-
राधे। ऐसा बार-बार बोलते रहिएगा। राधा-राधा आप बोलें और अगर आप उल्टा भी बोलें तो वह धारा हो जाता है और धारा को अंग्रेजी
में बोलते हैं करं ट। भागवत का करं ट ही राधा है । आपके भीतर संचार भाव जाग जाए वह राधा है । जिस दिन आंख बंद करके आप अपने
चित्त को शांत कर लें उस शांत स्थिति का नाम राधा है । यदि आप बहुत अशांत हो अपने जीवन में तो मन में राधे-राधे..... बोलिए मेरा
आश्वासन है , मेरा आपसे वादा है   और नमन है आप पंद्रह मिनट में शांत हो जाएंगे क्योंकि राधा नाम में वह शक्ति है । भगवान ने
अपनी सारी संचारी शक्ति राधा नाम में डाल दी। इसलिए भागवत में राधा शब्द हो या न हो राधाजी अवश्य विराजी हुई हैं।

भागवत: 11- इसीलिए प्रथम पूज्य हैं श्री गणेश


आज हम भागवत के महात्म्य में प्रवेश करते हैं। व्यासजी ने भागवत की रचना की। अब व्यासजी के सामने एक समस्या आई कि
इतना बड़ा ग्रंथ लिखेगा कौन? तब नारदजी ने सलाह दी कि गणेशजी से लिखवा लो, गणेशजी से अच्छा कोई नहीं लिख सकता।
गणेशजी को याद किया, गणेशजी आ गए। गणेशजी से व्यासजी ने कहा मैंने एक साहित्य रचा है । आप इसके लेखक बन जाइए।
उन्होंने कहा लिख तो दं ग
ू ा पर मेरी एक शर्त है जब आप बोलो तो एक पल के लिए भी रूकना मत। तो मैं लिख दं ग
ू ा। व्यासजी मान
गए। व्यासजी भी व्यासजी थे। वे हर सौ श्लोक के बाद ऐसा कोई गंभीर श्लोक बोल दे ते थे कि गणेशजी उसका अर्थ सोचने लग जाते
क्योंकि व्यासजी ने भी शर्त रखी थी कि मैं तो बिना रूके बोलूंगा पर आप बिना अर्थ समझे एक भी पंक्ति मत लिखना। व्यासजी एक
श्लोक ऐसा बोलते कि गणेशजी उसका अर्थ सोचते तब तक व्यासजी अपना सब काम निपटाकर दस
ू रा श्लोक रच दे ते।
18 हजार श्लोक का साहित्य भागवत गणेशजी ने लिख दिया। इसीलिए प्रत्येक कार्य के प्रारं भ में गणपतिजी की पूजा की जाती है ।
गणपतिजी विघ्नहर्ता हैं। गणपतिजी के पूजन करने का अर्थ है जितें द्रीय होना। विघ्न न आए इसलिए व्यासजी सर्वप्रथम श्रीगणेशाय
नम: कहकर गणपति महाराज की वंदना करते हैं। इसके पश्चात सरस्वतीजी की वंदना करते हैं। सरस्वती की कृपा से मनष्ु य में समझ
और सोचने की शक्ति आती है । फिर सद्गुरु की वंदना की गई है तथा भागवत के प्रधान दे व श्रीकृष्ण की वंदना हुई है ।
क्रमशः...

भागवत: 12- भगवान शिव का रूप हैं शुकदे व


भागवत लिखने के बाद व्यासजी के सामने एक और समस्या आ गई कि इस ग्रंथ का प्रचार कौन करे गा ? उनको चिंता हो गई अब यह
शास्त्र किसको दं ू ? श्रीभागवत शास्त्र मैंने मानव समाज के कल्याण के लिए रचा है । अब यह किसको सौंपूं ? जिससे जगत का कल्याण
हो ऐसे किसी योग्य परू
ु ष को यह ज्ञान दिया जाए।इस विचार के साथ वद्ध
ृ ावस्था में भी व्यासजी को पुत्रष्े णा जागी। उन्होंने आह्वान
किया। भगवान शंकर वैराग्य के रूप में मेरे यहां पत्र
ु बनकर आएं। उन्होंने भगवान शिव से प्रार्थना की। शिवजी प्रसन्न हुए। व्यासजी ने
मांगा -समाधि में जो आनंद आप पाते हैं वही आनंद जगत को दे ने के लिए आप मेरे घर में पुत्र के रूप में पधारिए। शुकदे वजी भगवान
शिव का ही अवतार हैं। वाल्मीकि रामायण के बाद श्रीरामचरितमानस रचा गया। रामकथा के वक्ता शंकरजी थे। महाभारत के बाद
भागवत रची गई। हम भी भागवत को इस स्तंभ में नई शैली में प्रस्तति
ु कर रहे हैं। व्यासजी के पत्र
ु शकु दे वजी सोलह वर्ष माता के गर्भ
में रहे और वहीं उन्होंने परमात्मा का ध्यान किया। व्यासजी ने गर्भ में ही अपने पुत्र से पूछा- तुम बाहर क्यों नहीं आते। शुकदे वजी ने
उत्तर दिया- मैं संसार के भय से बाहर नहीं आता हूं। मुझे माया का भय लगता है । इस पर श्रीकृष्ण ने आश्वासन दिया कि मेरी माया
तझ
ु े नहीं लग सकेगी। तब शक
ु दे वजी माता के गर्भ से बाहर आए। जन्म होते ही शक
ु दे वजी वन की ओर जाने लगे।
माता ने प्रार्थना की कि मेरा पुत्र निर्विकार ब्रह्म रूप है किं तु यह मेरे पास से दरू न जाए इसे रोंके। व्यासजी अपनी धर्मपत्नी से बोले जो
हमें अतिप्रिय लगता हो वही परमात्मा को अर्पण करना चाहिए। वह तो जगत का कल्याण करने जा रहा है । किं तु व्यासजी भी व्यथित
हो गए । व्यासजी ज्ञानी थे, फिर भी जाते हुए पुत्र के पीछे दौड़े। क्रमश:...

ऋग्वेदी शौनक ने पूछा- सूतजी बताएं शुकदे वजी ने परीक्षित को, गोकर्ण ने धुंधकारी को, सनकादि ने नारद को कथा किस-किस समय
सुनाई ? समयकाल बताएं। सूतजी बोले- भगवान के स्वधामगमन के बाद कलयुग के 30 वर्ष से कुछ अधिक बीतने पर भ्राद्रपद शुक्ल
नवमी को शक
ु दे वजी ने कथा आरं भ की थी, परीक्षित के लिए। राजा परीक्षित के सन
ु ने के बाद कलयग
ु के 200 वर्ष बीत जाने के बाद
आषाढ़ शुक्ला नवमी से गोकर्ण ने धुंधुकारी को भागवत सुनाई थी। फिर कलयुग के 30 वर्ष और बीतने पर कार्तिक शुक्ल नवमी से
सनकादि ने कथा आरं भ की थी। सूतजी ने जो कथा शौनकादि को सुनाई वह हम सुन रहे हैं व पढ़ रहे हैं। जब शुकदे वजी परीक्षित को
सन
ु ा रहे थे तब सत
ू जी वहां बैठे थे तथा कथा सन
ु रहे थे। भागवत के विषय में प्रसिद्ध है कि यह वेद उपनिषदों के मंथन से निकला सार
रूप ऐसा नवनीत है जो कि वेद और उपनिषद से भी अधिक उपयोगी है । यह भक्ति, ज्ञान और वैराग्य का पोषक तत्व है । इसकी कथा
से न केवल जीवन का उद्धार होता है   अपितु इससे मोक्ष भी प्राप्त होता है । जो कोई भी विधिपूर्वक इस कथा को श्रद्धा से श्रवण करते हैं
उन्हें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार फलों की प्राप्ति होती है । कलयुग में तो श्रीमद्भागवत महापुराण का बड़ा महत्व माना गया है ।
इसी के साथ ग्रंथकार ने भागवत का महात्म्य का समापन किया है ।क्रमश:...

भागवत: 32- भगवान भी रखते हैं भक्तों का ध्यान


कंु ती बुआ के कहने पर श्रीकृष्ण हस्तिनापुर रुक गए। सबको लग रहा था हमने रोक लिया श्रीकृष्ण को पर भगवान सोच रहे हैं मैं
जिसकी वजह से रूका हूं ये कोई नहीं जानता। भगवान आंख बंद करके अपने कक्ष में बैठे हैं। उसी समय युधिष्ठिर आए। युधिष्ठिर ने
श्रीकृष्ण को प्रणाम किया। पूछा-भगवान सारी दनि
ु या आपका ध्यान करती है । आप किसका ध्यान कर रहे हैं?
भगवान ने कहा- सारी दनि
ु या मेरा ध्यान करती है परन्तु मैं हमेशा भक्त का ध्यान करता हूं। मुझे भीष्म याद आ रहे हैं। तुम राजगादी
पर बैठने वाले हो युधिष्ठिर, तो आओ चलो भीष्म के पास चलते हैं, भीष्म दे ह त्यागने वाले हैं। शरशैया पर पड़े हुए हैं। भीष्म को इच्छा
मत्ृ यु का वरदान था इसलिए महाभारत के समाप्त होने पर भीष्म ने निर्णय लिया कि मैं दे ह बाद में त्यागूंगा। श्रीकृष्ण बोले- चलो
उनके पास चलते हैं। मुझे वहां जाना है तुम भी साथ चलो। उनसे राजधर्म की शिक्षा ग्रहण करो। भीष्म के पास उनको लेकर आए हैं।
भीष्म शरशैया पर पड़े हुए हैं। जो कभी हस्तिनापरु का रक्षक था, परम ब्रह्मचारी, ब्रह्मांड कांपता था जिससे, एक-एक राजा जिनके
इशारे पर चलता था वो महान पराक्रमी शरशैया पर पड़ा हुआ है । भगवान को दे ख भीष्म हाथ भी नहीं उठा सके क्योंकि हाथों में भी तीर
लगे हुए थे। गर्दन भी नहीं झुका सके। भीष्म बोले -वासुदेव आप आ गए मैं आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा था। उन्होंने कहा-वासुदेव, मैं
आज आपको नमन भी नहीं कर सकता। कितना लाचार हो जाता है व्यक्ति अपने अंतिम समय में । जो कभी बड़े-बड़े शस्त्र उठाता था
वो हाथ भी हिला नहीं सकता। यह बूढ़ापा है , यह जीवन का अंतिम काल है , सभी को इससे गुजरना है एक दिन।

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