गीता का विभूति योग

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गीता का विभूति योग

अरुण कु मार उपाध्याय, भुवनेश्वर


सारांश-गीता का प्रत्येक अध्याय एक योग है। दशम अध्याय विभूति योग है। पतञ्जलि के योग सूत्र में भी तृतीय पाद को विभूति पाद कहते हैं। गीता में ब्रह्म के
विशेष गुणों का वर्णन है, जिसे जानने से योग में अविचल भाव से स्थित हो जाता है। योग सूत्र में विशेष क्षमताओं के लिए विधि बताई गयी है जो धारणा, ध्यान
तथा समाधि का समन्वय या संयम है। गीता में पहले महर्षियों तथा मनु आदि से सृष्टि का आरम्भ कहा है तथा विभिन्न प्रकार की सृष्टियों में सर्वश्रेष्ठ का वर्णन
किया है जो भगवान् की विभूति हैं। गीता के अन्य प्रसंगों की तरह महर्षि या अन्य वर्ग भी तथा उनमें सर्वश्रेष्ठ का निर्णय भी रहस्यमय हैं। इस लेख में कु छ की
व्याख्या का प्रयत्न है।
१. विभूति-विभूति के कई अर्थ हैं-(१) शक्ति, क्षमता, महानता, (२) सम्पन्नता, धन, (३) उच्च पद, (४) सिद्धि या विशेष क्षमता जो प्रायः ८ प्रकार की कही
जाती हैं-अणिमा (शरीर को सूक्ष्म करना), महिमा (शरीर को बड़ा करना), गरिमा (शरीर को भारी करना,), लघिमा (शरीर को हल्का करना), प्राप्ति (किसी
वस्तु को पाना), प्राकाम्य (इच्छा पूर्ति), ईशित्व (पदार्थों का निर्माण या विनाश), वशित्व (पञ्च महाभूतों या जीवों पर नियन्त्रण)। (५) गोबर की राख, (६)
विस्तार-एतां विभूति योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः (गीता (१०/७), (७) स्थिति-क्षेत्रज्ञ एता मनसो विभूतिर्जीवस्य माया रचितस्य नित्याः (भागवत पुराण,
५/११/१२) योग सूत्र में विभूति योग का अर्थ है संयम द्वारा विशेष सिद्धियां पाना। यहां समाधि तक के ३ क्रम साधन हैं।
गीता में समाधि ही लक्ष्य है तथा उसका साधन है ब्रह्म द्वारासृष्टि तथा उसकी विभूतियों को जानना।
विष्णु पुराण (१/२२/१-९) भी विष्णु की विभूतियों का गीता जैसा ही वर्णन करता हैं, पर कहा है कि इन अध्यक्षों को ब्रह्मा ने पृथु के राज्याभिषेक के समय
नियुक्त किया था।
२. विभूति योग तथा उसकी विधि-गीता अध्याय १० में दो रहस्यमय श्लोक हैं-
महर्षयः सप्त पूर्वे चत्वारो मनवस्तथा। मद्भावा मानसा जाता येषां लोक इमाः प्रजाः॥६॥
एतां विभूति योगं च मम यो वेत्ति तत्त्वतः। सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः॥७॥
= मेरे मन के भाव से पूर्व में ७ तथा ४ महर्षि तथा मनु हुए (पूर्व किसका विशेषण है?) तथा उनसे लोकों तथा प्रजा की सृष्टि हुई। वर्तमान काल के ७ महर्षियों
में भृगु नहीं हैं जिनको श्लोक २५ में श्रेष्ठ महर्षि कहा गया है। कु छ ने वर्तमान वैवस्वत मन्वन्तर के पूर्व चाक्षुष मन्वन्तर के सप्तर्षियों में भृगु को खोजा , पर वे
सर्वश्रेष्ठ कै से हुए, इसका पता नहीं चला। पूर्व के ४ महर्षि हैं या मनु? मनु १४ थे, पूर्व के अलग प्रकार के महर्षि कौन थे? कु छ ने इसका अर्थ ४ व्यूह (सृष्टि की
स्थिति) किया है-वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्न,अनिरुद्ध। कु छ ने इनको ब्रह्मा के ४ मानस पुत्र माना है-सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कु मार। पर ये सदा बालक
रूप में ब्रह्मचारी ही रहे, इनसे कोई सन्तान नहीं हुई।
अगला श्लोक कहता है कि इन विभूतियों को जानने अविचल योग सिद्धि होती है। यहां योग के ८ अङ्ग नहीं कहे हैं पर उसके कु छ तत्त्वों का उल्लेख श्लोक (४-
५) में है।
बुद्धिर्ज्ञानमसंमोहः क्षमा सत्यं दमः शमः। सुखं दुःखं भवोऽभावो भयं चाभयमेव च॥४॥
अहिंसा समतातुष्टिस्तपो दानं यशोऽयशः। भवन्ति भावा भूतानांमत्त एव पृथग्विधाः॥५॥
यहां योग के अङ्गों यम नियम के कु छ तत्त्व कहे हैं-अहिंसा, सत्य, दम, शम तथा सुख-दुःख आदि विपरीत परिस्थितियों में सन्तुलन।
कु छ विभूतियां गीता के अध्याय ७, श्लोकों ८-१२ में भी हैं। मैं (भगवान्, अव्यय पुरुष) रसों में अप् हूं, सूर्य-चन्द्र का प्रकाश, वेदों में ॐ, मनुष्यों में पौरुष,
आकाश में शब्द, भूमि में गन्ध, प्रकाश में तेज, बली में बल, बुद्धिमानों में भुद्धि, जीवों में जीवन तथा सभी भूतों का बीज हूं। अन्त में वे कहते हैं कि ये सभी
तत्त्व उनमें हैं, वे इन तत्त्वों में नहीं हैं-
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि (गीता, ७/१२)
इस आधार पर पण्डित मधुसूदन ओझा ने दो वस्तुओं के बीच ३ प्रकार के मिलन कहे हैं-जब एक वस्तु दूसरे के नियन्त्रण में है, तो यह नियन्त्रक की विभूति
है। यदि दोनों अपना रूप बनाये रखते हैं तो यह योग है। जब दोनों का रूप बदल जाता है तो यह बन्ध है-रासायनिक संयोग की तरह।
३. महर्षि-यहां ७ महर्षि मनुष्य नहीं हैं जो सृष्टि आरम्भ होने के बहुत बाद हुए जब पृथ्वी तथा उस पर मनुष्यों की सृष्टि हो चुकी थी। अतः वे सृष्टि के
बारे में नहीं जान सकते हैं-
न मे विदुः सुरगणाः प्रभवं न महर्षयः। अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः॥ (गीता, १०/२)
को अद्धा वेद क इह प्र वोचत् कु त अजाता कु त इयं विसृष्टिः।
अर्वाग् देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव॥ (नासदीय सूक्त, ऋक् , १०/१२९/६)
ये सृष्टि करने वाले तत्त्व हैं। ऋषि के कई अर्थ हैं-
(१) सृष्टि का मूल तत्त्व जिनसे सृष्टि का क्रम आरम्भ हुआ तथा क्रमशः पितर, देव-दानव आदि हुए-
ऋषिभ्यः पितरो जाताः पितॄभ्यो देव-दानवाः। देवेभ्यश्च जगत् सर्वं चरं स्थाण्वनुपूर्वशः॥ (मनु स्मृति, ३/२०१)
किन्तु ये सबसे सूक्ष्म कण हैं जिनकी संख्या अनन्त है, ७ या ४ नहीं। मनुष्य से आरम्भ कर यह विश्व का सप्तम छोटा स्तर है जो क्रमशः १-१ लाख
भाग छोटे हैं, अर्थात् मीटर (मनुष्य आकार) का १० घात ३५ भाग छोटा है।
वालाग्र शत साहस्रं तस्य भागस्य भागिनः। तस्य भागस्य भागार्धं तत् क्षये तु निरञ्जनम्॥ (ध्यानविन्दु उपनिषद् , ४)
(२) जगत् का सप्तम आयाम-यह असत् (अनुभव से परे) प्राण है जो वस्तुओं के बीच आकर्षण का सम्बन्ध है (ऋषि = रस्सी)-
असद् वा ऽइदमग्र ऽआसीत्। तदाहः – किं तदासीदिति। ऋषयो वाव ते ऽग्रे ऽसदासीत्। तदाहुः-के ते ऋषय इति। ते यत्पुरा ऽऽस्मात् सर्वस्माद् इदमिच्छन्तः
श्रमेण तपसा ऽरिषन्-तस्माद् ऋषयः (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/१/१)
= आरम्भ में के वल असत् था। वह क्या है? आरम्भ में ऋषि थ्। वे ऋषि कौन थे? ये सबसे पहले हुए तथा इस विश्व की इच्छा की, श्रम और तप से
खींचा, अतः उनको ऋषि कहा गया।
(३) एक ऋषि का ३ युग्मों में विभाजन-आरम्भ में एक ही प्रकार का ऋषि था जिसे एकर्षि कहते थे। सूर्य (निर्माण का स्रोत) तथा यम (नियन्त्रण,
अन्त) के बीच मिर्माण सूत्र एकर्षि था। प्राजापत्य (स्रष्टा) होने के कारण इसे पूषा (पोषक) कहते थे।
ईशावास्योपनिषद् – पूषन्नेकर्षे यम-सूर्य, प्राजापत्य व्यूह रश्मीन्समूह।
तेजो यत्ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि, यो ऽसावसौ पुरुषः सोऽ हमस्मि॥१६॥
इस मन्त्र की द्वितीय पङ्क्ति में वही कहा है जो गीता के इस अध्याय में है-ब्रह्म के इस रूप के दर्शन से ब्रह्म से मनुष्य का एकत्व होता है।
प्रथम पङ्क्ति में व्यूह का अर्थ सृष्टि संरचना के ४ प्रकार हैं जिसके कई अर्थ हैं-
वासुदेव (सृष्टि का वास-स्थान, शून्य आकाश), सङ्कर्षण (परस्पर आकर्षण जिससे ब्रह्माण्ड, तारा आदि का निर्माण हुआ), प्रद्युम्न (तारा जिनसे प्रकाश
निकला), अनिरुद्ध (पृथ्वी पर असीमित प्रकार की सृष्टि)।
ब्रह्मा के ४ मानस पुत्र-सनक, सनन्दन, सनातन, सनत्कु मार। ये पूर्वजों के भी पूर्वज हैं-
सनत्कु मारं च विभुं पूर्वेषामपि पूर्वजम् (मत्स्य पुराण, ४/२७)
एक मूल ऋषि के २ विभाजन हुए। भृगु आकर्षण द्वारा पिण्डों को एकत्र तथा घना करता है। इससे संगठित पिण्ड बने जिनको पृथ्वी (सीमाबद्ध, पृथ्वी ग्रह
भी) या भू (भू सत्तायाम्, होना) कहते हैं। अधिक घने पिण्डों से पदार्थ या तेज निकलता है जैसे आग से अंगारा। अतः इसे अङ्गिरा कहते हैं।
मूल एक ऋषि का ३ में विभाजन नहीं हुआ अतः यह अत्रि (अ+त्रि, ३ नहीं, या अत्र = यहां-न लेना न देना) है। अतः पूषा तथा इसके ३ विभाजन-
अत्रि, भृगु, अङ्गिरा से सृष्टि का आरम्भ हुआ।
३ विभाग युग्म में भी हैं- साकञ्जानां सप्तथमाहुरेकजं षडिद्यमा ऋषयो देवजा इति।
तेषामिष्टानि विहितानि धामशः स्थात्रे रेजन्ते विकृ तानि रूपशः॥ (ऋक् , १/१६४/१५)
= एक से ७ ऋषि हुए जिनमें ६ यमल हैं। ये इष्ट स्थान पर रह कर अनेक प्रकार के निर्माण करते हैं।
अर्चिर्षि भृगुः सम्बभूव, अङ्गारेष्वङ्गिराः सम्बभूव। अथ यदङ्गारा अवशान्ताः पुनरुद्दीप्यन्त, तद् बृहस्पतिरभवत्। (ऐतरेय ब्राह्मण ३/३४)
= अर्चि (अग्नि, घना पिण्ड) से भृगु हुआ, अंगारा (आग की लपट) से अंगिरा। अङ्गारा शान्त हो कर पुनः चमकने लगे, वह बृहस्पति हुआ।
इमामेव गोतम-भरद्वाजौ। अयमेव गोतमः, अयं भारद्वाजः । इमामेव विश्वामित्र-जमदग्नी। अयमेव विश्वामित्रः, अयं जमदग्निः। इमामेव वसिष्ठ-कश्यपौ। अयमेव
वसिष्ठः, अयं कश्यपः। वागेवात्रिः। वाचा ह्यन्नमद्यते। अत्तिर्ह वै नाम एतत् यद् अत्रिः इति। सर्वस्य अत्ता भवति, सर्वं अस्य अन्नं भवति, य एवं वेद। (शतपथ
ब्राह्मण १४/५/२/६, बृहदारण्यक उपनिषद् २/२/४)
ये युग्म हैं-गोतम-भरद्वाज, विश्वामित्र-जमदग्नि, वसिष्ठ कश्यप। जो ३ में विभाजित नहीं हुआ, वह अत्रि है जो वाक् (शब्द या उसका स्थान आकाश) है।
आकाश ही सब ग्रहण करता (अदति = खाता है), अतः यह अत्रि है।
युग्मों का विभाजन-
प्राणो वै वसिष्ठ ऋषिः, यद्वै नु श्रेष्ठस्तेन वसिष्ठः। अथो यद् वस्तृतमो वसति, तेनो एव वसिष्ठः। मनो वै भरद्वाज ऋषिः। अन्नं वाजः। यो वै मनो बिभर्ति,
सोऽन्नं वाजं भरति। तस्मान् मनो भरद्वाज ऋषिः। (शतपथ ब्राह्मण ८/१/१/६)
चक्षुर्वै जमदग्नि ऋषिः। यदनेन जगत् पश्यति, अथो मनुते तस्माच्चक्षुर्जमदग्नि ऋषिः। (शतपथ ब्राह्मण ८/१/२/३)
श्रोत्रं वै विश्वामित्र ऋषिः। यदेनेन सर्वतः शृणोति। अथो यदस्मै सर्वतो मित्रं भवति। तस्माच्छ्रोत्रं विश्वामित्र ऋषिः। (शतपथ ब्राह्मण ८/१/२/६)
वाग् वै विश्वकर्मा ऋषिः। वाचा हीदं सर्वं कृ तम्। तस्माद् वाग् विश्वकर्म ऋषिः। (शतपथ ब्राह्मण ८/१/२/९)
प्राण वसिष्ठ ऋषि है; क्योंकि यह श्रेष्ठ है या वस्तृतम (श्रेष्ठ स्थान में वास) है।
मन भरद्वाज ऋषि है। अन्न को वाज कहते हैं। मन सभी अङ्गों को नियन्त्रित करता है इस प्रकार अन्न देता है।
चक्षु जमदग्नि है क्योंकि इससे विश्व को देखते या जानते हैं।
कर्ण विश्वामित्र ऋषि है जिससे हम विश्व को सुनते हैं और उसका मित्र बनते हैं।
वाक् विश्वकर्मा ऋषि है, क्योंकि उसी से सृष्टि होती है (वाक् आकाश में है जिससे सृष्टि का आरम्भ हुआ)।
ऋषि युग्मों में वाक् को अत्रि कहा गया है क्योंकि इसका त्रि विभाजन नहीं होता।
वसिष्ठ का पूरक कश्यप है जो पश्यक (देखने वाला) है।
सूर्यतापिनी उपनिषद् (१/२) कश्यपः पश्यको भवति।
(४) प्रकृ ति के बल-प्रकृ ति के ४ मूल बल चतुर्भुज आकार में दिखाते हैं जिसे सुपर्ण (पक्षी) का शरीर कहते हैं। उसका स्रोत शीर्ष है जो चेतन तत्त्व है।
समरूपता २ पक्ष (पंख) हैं। यहां बान्धने वाले बल भृगु हैं।
त इद्धाः सप्त नाना पुरुषानसृजन्त। स एतान् सप्त पुरुषानेकं पुरुषमकु र्वन्-यदूर्ध्वं नाभेस्तौ द्वौ समौब्जन्, यदवाङ्नाभेस्तौ द्वौ। पक्षः पुरुषः, पक्षः पुरुषः। प्रतिष्ठैक
आसीत्। अथ या एतेषां पुरुषाणां श्रीः, यो रस आसीत्-तमूर्ध्व समुदौहन्। तदस्य शिरो ऽभवत्। स एवं पुरुषः प्रजापतिरभवत्। स यः सः पुरुषः-प्रजापतिरभवत्,
अयमेव सः, यो ऽयमग्निश्चीयते (काय रूपेण- शरीर रूपेण-मूर्त्ति पिण्ड रूपेण-भूत पिण्ड रूपेण)। स वै सप्त पुरुषो भवति। सप्त पुरुषोह्ययं, पुरुषः-यच्चत्वार
आत्मा, त्रयः पशु पुच्छानि। (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/१/२-६)
(५) तारा भी ऋषि हैं, जैसे ७ तारा का समूह सप्तर्षि है। उनसे जो प्रकाश आता है उसके द्वारा हमसे सम्बन्ध है।
(६) मनुष्य ऋषि ३ प्रकार के हैं जिनका यहां उल्लेख नहीं है। वेद मन्त्रों के द्रष्टा सैकड़ों थे। वेद के शिक्षन तथा अध्ययन के लिए विश्व में ७ मुख्य के न्द्र थे
जिनको ब्रह्मा का मानस पुत्र कहते थे।
शिक्षा या व्याख्या के स्तर के अनुसार कई प्रकार के मनुष्य ऋषियों का वर्णन वायु पुराण, अध्याय ५९ में है-देवर्षि, ब्रह्मर्षि, श्रुतर्षि, काण्डर्षि।
गोत्र प्रवर्तक-आकाश में दृश्य जगत् के ५ स्तर या पर्व हैं-स्वायम्भुव मण्डल (ब्रह्माण्डों का समूह), परमेष्ठी (सबसे बड़ा इष्टक या ईंट, आकाशगङ्गा), सौर (सूर्य
का क्षेत्र), चान्द्र मण्डल (चन्द्र कक्षा का गोल-जीवन योग्य स्थान अत्रि), भूमण्डल (पृथ्वी ग्रह)। इसके पूर्व २ अव्यक्त या असत् स्तर हैं-शून्य मन (श्वोवसीय)
द्वारा सृष्टि की इच्छा, पदार्थ ऊर्जा का मिश्रण (शिव-शक्ति)। उअसके समान्तर मनुष्य शरीर में भी ७ चक्र हैं।
आनुवंशिक पिण्ड सम्बन्ध ७ पीढ़ी (पुरुष) तक जाताहै।
सप्त क्षरन्ति शिशवे मरुत्वते पित्रे पुत्रासो अप्यवीवतन्नृतम्।
उभे इदस्योभयस्य राजत उभे यतेते उभयस्य पुष्यतः॥ (ऋक् , १०/१३/५)
मरुत् (७ x ७) की तरह ऋत (प्रभाव) पिता से ७ शिशुओं तक जाता है। पिता तथा पुत्र दोनों परस्पर को पुष्ट करते हैं।
पाकः पृच्छामि मनसा विजानन् देवानां एना निहिता पदानि।
वत्से बष्कयेधि सप्त तन्तून् वितत्बिरे कवय ओतवा उ॥ (ऋक् , १/१६४/५)
= मैं मन में पाक (मिश्रण) विषय में पूछता हूं कि इसमें देवों (सर्जक प्राण) के कितने पद हैं, वयस्क व्यक्ति ७ तन्तुओं से अपनी सन्तान का विस्तार कवि
(सर्जक, भृगु को कवि कहते हैं) द्वारा करता है।
पिण्ड से सूक्ष्म उदक (जलजैसा) प्रभाव १४ पुरुष तक जाता है-
पतन्ति पितरो ह्येषां, लुप्त पिण्डोदक क्रियाः (गीता, १/४२)
कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् (१/२/२)- तमागतं पृच्छति को ऽसीति तं प्रतिब्रूयात्-विचक्षणाद् ऋतवो रेत आभृतं पञ्चदशात् प्रसूतात् पित्र्यवतः तन्मा पुंसि
कर्तर्येरयध्वम्।
= आगत (नवजात) से पूछता है-तुम कौन हो? उत्तर देता है-विचक्षण ऋत (चन्द्र क्षेत्र का सोम) द्वारा रेत (बीज) १५ प्रसूति तक पितरों से जाता है, मैं वही
पुरुष हूं।
ऋषि प्रभाव (अङ्गिरा) २१ पुरुष तक जाता है-
ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वाः (अथर्व, १/१/१),
सप्तास्यासन्परिधयः, त्रिस्सप्तसमिधः कृ ताः (पुरुष सूक्त, १५)
एकविंशौ ते अग्न ऊरू (काठक संहिता, ३९/२, आपस्तम्ब श्रौत सूत्र, १६/३३/५).,
एकविंशो ब्रह्म सम्मितः (गोपथ ब्राह्मण पूर्व, ५/२५), एकविंशो वै पुरुषः। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/३/७/१),
एकविंशो ऽग्निष्टोमः (ताण्ड्य महाब्राह्मण, १६/१३/४)
यदेकविंशो यदेवास्य (यजमानस्य) पदोरष्ठीवतोरपूतं तत्तेनापयन्ति (?अपहन्ति)। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, १७/५/६)
विरूपास इदृषयस्त इद्गम्भीर वेपसः। ते आङ्गिरसः सूनवस्ते अग्नेः परिजज्ञिरे॥ (ऋक् , १०/६२/५)
४. बुद्धि योग-भगवान् ८-१० श्लोकों में कहते हैं कि वह बुद्धि योग सिखायेंगे। अहं (अव्यय पुरुष रूप कृ ष्ण) को सबका स्रोत जानने से ज्ञान के प्रकाश द्वारा
अज्ञान दूर होता है तथा भक्त मुझ तक पहुंचते हैं।
अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते। इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भाव समन्विताः॥८॥
मच्चित्ता मद्गत प्राणा बोधयन्तः परस्परम्। कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥९॥
तेषां सतत युक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्। ददामि बुद्धि योगं तं येन मामुपयान्ति ते॥१०॥
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तमः। नाशयाम्यात्म भावस्थो ज्ञान दीपेन भास्वता॥११॥
गीता में कई योग हैं, पर पण्डित मधुसूदन ओझा के अनुसार वे सभी बुद्धि योग के ही भेद हैं। सामान्य धारणा है कि अज्ञानी के लिए ही भक्ति योग है। पर यहां
भक्ति ही ज्ञान का स्रोत कहा है। गीता में ही कहा है कि श्रद्धा द्वारा ज्ञान होता है-श्रद्धावान् लभते ज्ञानम् (गीता, ४/३९)
भागवत माहात्म्य के अनुसार ज्ञान तथा वैराग्य भक्ति की ही सन्तान हैं।
अहं भक्तिरिति ख्याता इमौ मे तनयौ मतौ। ज्ञान वैराग्य नामानौ काल योगेन जर्जरौ॥४५॥
(पद्म पुराण उत्तर खण्ड श्रीमद् भागवत माहात्म्य, भक्ति-नारद समागम नाम प्रथमोऽध्यायः)
रामचरितमानस में भी कहा है कि बिना भक्ति के ज्ञान नहीं होता।
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा।। (१/१/८)
तहाँ बेद अस कारन राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा।। (१/१२/२)
यह स्पष्ट है। हम भौतिक विज्ञान इसलिए पढ़ते हैं कि उसमें हमारी भक्ति है। थोड़ा ज्ञान होने पर उत्साह और भक्ति बढ़ती है।
गीतामें बुद्धि योग नामक कोई अध्याय नहीं है। गीता के अध्याय अर्जुन विषाद योग से आरम्भ होते हैं, क्योंकि हम तभी कु छ जानने की चेष्टा करते हैं जब कोई
समस्या या निराशा हो। उसके बाद के अध्याय इन योगों से सम्बन्धित हैं-ज्ञान, कर्म, सन्यास, भक्ति, वैराग्य, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, देव-असुर सम्पत्ति आदि। तथ्यों का
संग्रह ज्ञान है, वह कर्म या उसके प्रभाव द्वारा होता है- ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना (गीता, १८/१८)। ज्ञान अनन्त है, उसका सीमित भाग ही जान
सकते हैं। उसे भी पूरी तरह नहीं जान सकते, घुमा-फिरा कर ही जानते हैं-ये कर्म के ३ प्रभाव हैं। सभी ज्ञान तथा कर्म का समन्वय बुद्धि है तथा यही योग का
सार है।
ज्ञान सहित उपासना से ही ब्रह्म की प्राप्ति होती है, बिना ज्ञान उपासना से कु छ नहीं मिलता।
कु रुते गङ्गा सागर गमनं व्रत परिपालनमथवा दानम्। ज्ञान विहीनं सर्वमतेन मुक्तिं न लभति जन्म शतेन॥
(शङ्कराचार्य, चर्पट पञ्जरिका स्तोत्र)
५. अर्जुन की प्रार्थना-यह १२-१८ श्लोकों में है। अध्याय ७ से ही कृ ष्ण के सनातन (यहां शाश्वत) पुरुष रूप में वर्णन सुन रहे हैं तथा वेद के ऋषियों द्वारा भी
वही कहा गया है। इनसे अर्जुन को पूर्ण विश्वास हो गयाकि कृ ष्ण ही परम ब्रह्म है अतः उनके मुख्य स्वरूप के वर्णन की प्रार्थना करते हैं। सनातन पुरुष या
उसके सिद्धान्त की उपासना ही सनातन धर्म है।
६. मुख्य विभूति-यह २०-४१ श्लोकों में है।
(१) सभी प्राणियों में आत्मा।
(२) सभी जीवों का आदि, मध्य, अन्त।
(३) आदित्यों में विष्णु।
(४) मरुतों में मरीचि।
(५) नक्षत्रों में चन्द्रमा।
(६) वेदों में सामवेद।
(७) इन्द्रियों में मन।
(८) प्राणियों में चेतना।
(९) रुद्रों में शङ्कर।
(१०) यक्ष-राक्षसों में कु बेर।
(११) वसुओं में पावक (अग्नि)।
(१२) पर्वतों में मेरु।
(१३) पुरोहितों में बृहस्पति।
(१४) सेनानियों में स्कन्द।
(१५) जलाशयों में सागर।
(१६) महर्षियों में भृगु।
(१७) शब्दों में एक अक्षर ॐ।
(१८) यज्ञों में जप यज्ञ।
(१९) स्थावरों में हिमालय।
(२०) वृक्षों में अश्वत्थ।
(२१) देवर्षियों में नारद।
(२२) गन्धर्वों में चित्ररथ।
(२३) सिद्धों में कपिल मुनि।
(२४) अश्वों में अमृत से उत्पन्न उच्चैःश्रवा।
(२५) गजों में ऐरावत।
(२६) नरों में नरेन्द्र राजा।
(२७) आयुधों में वज्र।
(२८) धेनुओं में कामधेनु।
(२९) प्रजनन करने वालों में कन्दर्प।
(३०) सर्पों में वासुकि।
(३१) नागों में अनन्त।
(३२) यादसों में वरुण।
(३३) संयम करने वालों में यम।
(३४) पितरों में अर्यमा।
(३५) दैत्यों में प्रह्लाद।
(३६) गणनाओं में काल।
(३७) मृगों में मृगेन्द्र सिंह।
(३८) पक्षियों में गरुड़।
(३९) पावन करने वालों में पवन।
(४०) शस्त्रधारियों में राम।
(४१) जलचरों में मकर।
(४२) सर्गों में आदि, अन्त, मध्य।
(४३) विद्याओं में अध्यात्म विद्या।
(४४) प्रवादों में वाद (तर्क )।
(४५) अक्षरों में अकार।
(४६) समासों में द्वन्द्व।
(४७) अक्षय काल तथा विश्व का स्रोत औरधारण करने वाला।
(४८) हरण करने वालों में मृत्यु।
(४९) होने वालों (भविष्य) में उद्भव।
(५०) नारियो< में कीर्ति, श्री, वाक् , स्मृति, मेधा, धृति, क्षमा।
(५१) साम में बृहत्साम।
(५२) छन्दों में गायत्री
(५३) मासों में मार्गशीर्ष।
(५४) ऋतुओं में वसन्त।
(५५) छल करने वालों में द्यूत (जूआ)।
(५६) तेजस्वियों में तेज।
(५७) व्यवसायों में जय।
(५८) सत्त्ववान् में सत्त्व।
(५९) वृष्णियों में वासुदेव।
(६०) पाण्डवों में धनञ्जय।
(६१) मुनियों में व्यास।
(६२) कवियों में उशना कवि।
(६३) दमन करने वालों में दण्ड।
(६४) जीतने वालों में नीति।
(६५) गोपनीयों में मौन।
(६६) ज्ञानियों में ज्ञान।
(६७) सभी भूतों का बीज।
जो भी विभूति, सत्त्व या श्री है वह मेरे तेज का ही अंश है। मेरी विभूतियों का अन्त नहीं है।
७. कु छ विभूतियां- समाधि की उच्च अवस्था में कृ ष्ण तथा भगवान् में कोई अन्तर नहीं था, अतः गीता में उनको भगवान् कहा गया है, महाभारत के अन्य
स्थानों में नहीं। ब्रह्म सब कु छ है, पर यहां सभी वर्गों के सबसे अच्छे का ही उल्लेख है। सृष्टि तथा उसके सभी भूतों का आदि, मध्य तथा अन्त ब्रह्म ही है जो
पुरुष सूक्त में भी कहा है-
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्। (वाजसनेयि यजुर्वेद, ३/१२)
= पुरुष ही यह सृष्ट जगत् है, भूत तथा भविष्य का भी।
चातुर्वर्ण्यं त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक् ।
भूतं भव्यं भवच्चैव सर्वं वेदात् प्रसिद्ध्यति ॥ (मनु स्मृति, १२/९७)
= यहां वेद सृष्ट जगत् है जिसे पुरुष कहा गया है। इसमें भूत, वर्तमान, भविष्य, ४ वर्ण, ३ लोक, ४ आश्रम भी हैं।
गीता में पुरुष के कई रूपों की व्याख्या है। सभी स्थूल वस्तुओं का समय के साथ क्षय होता है। इनको (वस्तु या विश्व को) क्षर पुरुष कहते हैं। किन्तु उसका
परिचय, नाम या काम वही रहता है जिसे अक्षर पुरुष कहते हैं। यह पुरुष सजीव या निर्जीव के जीवन काल तक रहता है। किन्तु पूर्ण व्यवस्था या विश्व के अंश
रूप में उसमें कोई कमी वृद्धि नहीं होती। एक स्थन पर जितना कम होगा, उतना दूसरे स्थान पर बढ़ जाता है। इसे अव्यय पुरुष कहते हैं। इसके लिए भौतिक
विज्ञान में ५ संरक्षण सिद्धान्त हैं-मात्रा, आवेग, ऊर्जा, कोणीय आवेग, विद्युत् आवेश। इसे सृष्टि क्रम के रूप में भी देखते हैं। कोई वस्तु विशेष समय के साथ
नष्ट हो जाता है पर स्रोत से उसके निर्माण का क्रम सदा बना रहता है जिसे अविनाशी अश्वत्थ कहते हैं। स्रोत उसका मूल है जिसे ऊपर कहते हैं, रचना के
प्रकार शाखा हैं, तथा अन्तिम परिणाम या निर्माण पत्ते हैं जो झड़ते रहते हैं। यही अश्वत्थ वृक्षों में सर्वश्रेष्ठ कहा गया है (गीता, २०/२०)
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्। छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तंवेद स वेदवित्। (गीता,१५/१)
परात्पर पुरुष हर स्थान पर एक ही जैसा है जिसे रस कहते हैं। यह विश्व का मूल है। भेद रहित होने के कारण इसका वर्णन सम्भव नहीं है। वर्णन योग्य रूपों में
अव्यय ही उत्तम है अतः भगवान् को पुरुषोत्तम कहते हैं।
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च। क्षरः सर्वाणि भूतानि कू टस्थो ऽक्षर उच्यते॥१६॥
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः। यो लोक त्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥१७॥
यस्मात् क्षरमतीतो ऽहं अक्षरादपि चोत्तमः। अतो ऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥१८॥ (गीता, अध्याय १५) यह शिक्षा देते समय कृ ष्ण अव्यय पुरुष हैं
जिसे परमात्मा, पुरुषोत्तम, ईश्वर आदि कहा जाता है।
वृक्षों में पिप्पल तथा महर्षियों में भृगु की व्याख्या हो चुकी। अब कु छ अन्य की व्याख्या की जाती है।
८. मेरु तथा हिमालय-दोनों को लोकभाषा में पर्वत कहा जाता है पर यहां इनको भिन्न वर्गों में रखा गया है। हिमालय पृथ्वी सतह पर सबसे ऊं चा पर्वत है, पर
गीता में इसे पर्वत नहीं स्थावर कहा है। उक्ति है कि हवा वृक्षों को उखाड़ सकती है, पर पर्वत को नहीं हिला सकती। इस अर्थ में हिमालय स्थावर (अचल) में
श्रेष्ठ है।
मेरु पर्वत के अतिरिक्त भी बहुत कु छ है। पर्व का अर्थ है, पर्व या जोड़ वाला, विभाजक सीमा। चन्द्र की कला में अमावास्या तथा पूर्णिमा चान्द्र मास के पक्षों की
सीमा होने से पर्व है। व्यापक अर्थ में अन्य चान्द्र तिथियों को भी पर्व कहते हैं। पर्वत देशों की प्राकृ तिक सीमा हैं, इनको वर्ष पर्वत कहते हैं। एक वर्षा क्षेत्र पर्वतों
से सीमित होता है, उसे वर्ष या देश कहते हैं। जैसे भारत वर्ष की मानसून वायु हिमालय पर्वत द्वारा सीमित है जिससे मेघ टकरा कर लौट जाते हैं। अतः भारत
एक वर्ष है जिसका वर्ष पर्वत हिमालय है। संवत्सर को भी वर्ष कहते हैं, क्योंकि यह वर्षा का चक्र है। पुराणों में वर्णित १ लाख योजन का मेरु पर्वत स्पष्ट रूप
से १००० योजन व्यास की पृथ्वी पर नहीं रह सकता है। आकाश और पृथ्वी पर कई प्रकार के मेरु हैं-
(क) हिरण्यगर्भ मेरु-हिरण्यगर्भ या मूल तेज पुञ्ज से सृष्टि का आरम्भ हुआ, जिसने ३ धामों को धारण किया-संयती (पूर्ण अनन्त विश्व), क्रन्दसी (ब्रह्माण्ड या
आकाशगङ्गा), रोदसी (सौर मण्डल)।
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीमुत द्यां कस्मै देवाय हविषा विधेम॥१॥
यं क्रन्दसी अवसा तस्तभाने अभ्यैक्षैतां मनसा रेजमाने।
यत्राधि सूरौदितो विभाति कस्मै देवाय हविषा विधेम॥६॥ (ऋक् , १०/१२१/१, ६)
सृष्टि क्रम का आधार होने के कारण इसे अथर्व वेद में स्कम्भ (स्तम्भ), सर्वाधार, या ज्येष्ठ ब्रह्म (प्रथम उत्पन्न) कहा गया है।सर्वाधार सूक्त तथा ज्येष्ठ ब्रह्म सूक्त
(अथर्व, १०/७-८) में २०० से अधिक मन्त्र हैं।
कू र्म तथा ब्रह्माण्ड पुराण सनातन पुरुष या स्रष्टा को हिरण्यगर्ब, मेरु, उल्ब (गर्भ-नाल) कहते हैं।
कू र्म पुराण (१/४)-एक काल समुत्पन्नं जल बुद्बुदवच्च तत्। विशेषेभ्योऽण्डमभवत् बृहत् तदुदके शयम्॥३६॥
तस्मिन् कार्यस्य करणं संसिद्धिः परमेष्ठिनः। प्राकृ तेऽण्डे विवृत्तः स क्षेत्रज्ञो ब्रह्म-संज्ञितः॥३७॥
स वै शरीरी प्रथमः स वै पुरुष उच्यते। आदि कर्त्ता स भूतानां ब्रह्माग्रे समवर्तत॥३८॥
यमाहुः पुरुषं हंसं प्रधानात् परतः स्थितम्। हिरण्यगर्भं कपिलं छन्दो-मूर्तिं सनातनम्॥३९॥
मेरुरुल्बमभूत् तस्य जरायुश्चापि पर्वताः। गर्भोदकं समुद्राश्च तस्यास परमात्मनः॥४०॥
ब्रह्माण्ड पुराण (१/१/३) आदि कर्त्ता स भूतानां ब्रह्माग्रे समवर्त्तिनाम्॥२५॥
हिरण्यगर्भः सोऽण्डेऽस्मिन् प्रादुर्भूतश्चतुर्मुखः। सर्गे च प्रतिसर्गे च क्षेत्रज्ञो ब्रह्म संमितः॥२६॥
करणैः सह पृच्छन्ते प्रत्याहारैस्त्यजन्ति च। भजन्ते च पुनर्देहांस्ते समाहार सन्धिसु॥२७॥
हिरण्मयस्तु यो मेरुस्तस्योद्धर्तुर्महात्मनः। गर्तोदकं सम्बुदास्तु हरेयुश्चापि पञ्चताः॥२८॥
यस्मिन् अण्ड इमे लोकाः सप्त वै सम्प्रतिष्ठिताः। पृथिवी सप्तभि र्द्वीपः समुद्रैः सह सप्तभिः॥२९॥
आरम्भ में जल जैसे रस या अप् तथा उसमें बुद्बुद् जैसे पिण्ड बने। कु छ विन्दु ब्रह्माण्ड (१०० अरब अण्डाकार आकाशगङ्गा) उस जल में बन गए। निर्माता को
परमेष्ठी ब्रह्मा कहा गया। प्रथम स्रष्टा पुरुष था। निर्माण के लिये प्राण का दो दिशाओं में सञ्चार होने से उसे हंस (ह से स तथा स से ह तक, सञ्चर-प्रतिसञ्चर)
कहते हैं। मूल स्रष्टा कल्पना से परे है। यह हिरण्यगर्भ, कपिल (कपि की तरह पूर्व रचना की नकल), छन्द-मूर्ति (मूर्ति = आकार, छन्द = सीमा, माप) तथा
सनातन है। मेरु उसका उल्ब (गर्भ-नाल) है। महा गर्भ में कई स्तरों के समुद्र हैं।
इनके ३ स्तर हैं-
(i) स्वायम्भुव मेरु-यह १०० अरब ब्रह्माण्डों के बीच परस्पर आकर्षण तथा विकिरण है।
(ii) कू र्म मेरु-इस क्षेत्र में ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ, इसमें काम हुअ अतः यह कू र्म है। अभी यह न्यूट्रिनो कोरोना (आभा-मण्डल) जैसा दीखता है। इसकी माप
शक्वरी छन्द (१४ x ४ अक्षर) में है अर्थात् पृथ्वी व्यास का २ घात ५३ गुणा (५६ से ३ कम)। यह ब्रह्माण्ड का १० गुणा है जिसकी माप जगती छन्द (१२
x ४ अक्षर) में है।
शङ्कु भवत्यह्नो धृत्यै यद्वा अधृतँ शङ्कु ना तद्दाधार। (ताण्ड्य महाब्राह्मण, ११/१०/११)
तद् (शङ्कु साम) उ सीदन्ती यमित्याहुः॥१२॥
सप्त पदा वै तेषां (छन्दसां) परार्ध्या शक्वरी। (शतपथ ब्राह्मण, ३/९/२/१७)
ऐतरेय ब्राह्मण (५/७)-यदिमान् लोकान् प्रजापतिः सृष्ट्वेदं सर्वमशक्नोद् तद् शक्वरीणां शक्वरीत्वम्॥
= विश्व को शङ्कु ने धारण किया है। गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में सभी पिण्डों की कक्षा शङ्कु के समतल छेद (वृत्त, दीर्घवृत्त, परवलय, अतिपरवलय) जैसा होता है।
इसी गर्भ में विराट् बालक रूप ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ।
ब्रह्मवैवर्त पुराण, प्रकृ ति खण्ड, अध्याय ३-अथाण्डं तु जलेऽतिष्टद्यावद्वै ब्रह्मणो वयः॥१॥
तन्मध्ये शिशुरेकश्च शतकोटिरविप्रभः॥२॥ स्थूलात्स्थूलतमः सोऽपि नाम्ना देवो महाविराट् ॥४॥
तत ऊर्ध्वे च वैकु ण्ठो ब्रह्माण्डाद् बहिरेव सः॥९॥
तदूर्ध्वे गोलकश्चैव पञ्चाशत् कोटियोजनात्॥१०॥ नित्यौ गोलोक वैकु ण्ठौसत्यौ शश्वदकृ त्रिमौ॥१६॥
(iii) परमेष्ठी मेरु-यह ब्रह्माण्ड का घूर्णन अक्ष है। ब्रह्माण्ड के दो ध्रुवों के बीच की दूरी १ लाख प्रकाश वर्ष है जो १ लाख योजन भी कहा जाता है। ऊपर के वेद
मन्त्र में इसे क्रन्दसी कहा है। सौर मण्डल रोदसी है। महर्लोक ब्रह्माण्ड के के न्द्र से ३०,००० योजन (प्रकाश वर्ष) है। यह ब्रह्माण्ड की सर्पाकार भुजा में स्थित
सूर्य के चारों तरफ भुजा की मोटाई के बराबर व्यास (१४०० प्रकाश वर्ष) का गोल है जिसमें १००० तारा हैं। इनको शेष, अनन्त या सङ्कर्षण का १००० सिर
कहा गया है जिसमें एक सिर सूर्य पर पृथ्वी विन्दु मात्र है।
भागवत पुराण (५/२५)- अस्य मूलदेशे त्रिंशद् योजन सहस्रान्तर आस्ते या वै कला भगवतस्तामसी समाख्यातानन्त इति सात्वतीया द्रष्टृ दृश्ययोः सङ्कर्षण
महमित्यभिमान लक्षणं यं सङ्कर्षणमित्याचक्ष्यते॥१॥ यस्येदं क्षिति मण्डलं भगवतो ऽनन्त मूर्तेः सहस्र शिरस एकस्मिन्नेव शीर्षाणि ध्रियमाणं सिद्धार्थ इव लक्ष्यते॥
२॥
(ख) सौर मण्डल-(i) नाक स्वर्ग यॆ मेरु-यह सौर मण्डल का घूर्णन अक्ष है। पृथ्वी के घूर्णन अक्ष का उत्तर विन्दु २४ अंश के वृत्त में इसके उत्तर विन्दु की
परिक्रमा प्रायः २६,००० वर्ष में कर रहा है। यह तारा समूह शिशुमार नामक सरीसृप की तरह दीखता है अतः इसे शिशुमार चक्र कहा गया है। इसके के न्द्र नाक
मेरु कावर्णन विष्णु पुराण (२/८-९) अध्यायों में है। इसका आकार १,००,००० योजन (सौर मण्डल के लिए सूर्य व्यास योजन है) है।
तिस्रः पृथिवीरुपरि प्रवा दिवो नाकं रक्षेथे द्युभिरुक्तु भिर्हितम् (ऋक् , १/३४/८)
येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृळ्हा येन स्वः स्तभितं येन नाकः (ऋक् , १०/१२१/५)
तम् (त्रयस्त्रिंशं स्तोमं) उ नाक इत्याहुर्न हि प्रजापतिः कस्मै च नाकम् । (ताण्ड्य महाब्राह्मण १०/१/१८)
विश्वा रूपाणि प्रति मुञ्चते कविः ग्रासावीद् भद्रं द्विपदे चतुष्पदे।
वि नाकमख्यत् सविता वरेण्योऽनु प्रयाणमुषसो वि राजति॥ (वाजसनेयी संहिता १२/३)
स्वर्गो वै लोको नाकः (शतपथ ब्राह्मण ६/३/३/१४, ६/७/२/४)
नागवीथ्युत्तरं यच्च सप्तर्षिभ्यश्च दक्षिणम्। उत्तरः सवितुः पन्था देवयानश्च स स्मृतः। (विष्णु पुराण २/८/९०)
ऊर्ध्वोत्तरमृषिभ्यस्तु ध्रुवो यत्र व्यवस्थितः। एतद्विष्णुपदं दिव्यं तृतीयं व्योम्नि भासुरम्॥९८॥
तारामयं भगवतः शिशुमाराकृ ति प्रभोः। दिवि रूपं हरेर्यत्तु तस्य पुच्छे स्थितो ध्रुवः॥(२/९/१)
सैष भ्रमन् भ्रामयति चन्द्रादित्यादिकान् ग्रहान्। भ्रमन्तमनु तं यान्ति नक्षत्राणि च चक्रवत्॥२॥
सूर्याचन्द्रमसौ तारा नक्षत्राणि ग्रहैः सह।वातानीकमयैर्बन्हैर्ध्रुवे बद्धानि तानि वै॥३॥
शिशुमाराकृ ति प्रोक्तं यद्रूपं ज्योतिषां दिवि। नारायणो ऽयनं धाम्नां तस्याधारः स्वयं हृदि॥४॥
उत्तानपाद पुत्रस्तु तमाराध्य जगत्पतिम्। स तारा शिशुमारस्य ध्रुवः पुच्छे व्यवस्थितः॥५॥
आधारः शिशुमारस्य सर्वाध्यक्षो जनार्दनः। ध्रुवस्य शिशुमारस्तु ध्रुवे भानुर्व्यवस्थितः॥६।
(ii) पृथ्वी का घूर्णन अक्ष-इस दिशा में १ लाख योजन (पृथ्वी व्यास= १००० योजन) की रेखा मेरु है। पृथ्वी कक्षा के तल में इसव्यास का वृत्त जम्बू द्वीप है
जो पृथ्वी के गुरुत्व क्षेत्र की सीमा है। पृथ्वी के भीतर मेरु का १६,००० योजन भाग है जो पृथ्वी की दैनिक गति के बराबर गति वाले उपग्रह की कक्षा होगी।
जम्बूद्वीपो द्वीपमध्ये तन्मध्ये मेरुरुच्छ्रि तः। चतुरशीति साहस्रो भूयिष्ठः षोड़शाद्विराट् ॥ (अग्नि पुराण, १०८/३)
(ग) पृथ्वी के मेरु-(i) उत्तर तथा दक्षिण ध्रुव को ज्योतिष ग्रन्थों में सु-मेरु तथा कु मेरु कहा गया है। दोनों ही मेरु हैं।
मेरुर्योजन-मात्रः प्रभाकरो हिमवता परिक्षिप्तः। नन्दन वनस्य मध्ये रत्नमयः सर्वतो वृत्तः॥११॥
स्वर्मेरु-स्थलमध्ये नरको बडवामुखं च जल-मध्ये। अमर-मरा मन्यन्ते परस्परमधः स्थितान् नियतान्॥१२॥
(आर्यभटीय, ४/११-१२)
(ii) मानचित्र का मेरु-उत्तर गोलार्ध का मानचित्र ४ खण्डों में बनता है। ये विषुव वृत्त को छू ने वाले वर्ग पर १ लाख योजन ऊं चे पिरामिड की सतह पर पृथ्वी
सतह विन्दुओं के प्रक्षेप हैं। पिरामिड की ४ त्रिभुजाकार सतहों को ४ रंग में दिखाते थे जिनको एरु के पार्श्वों का रंग कहा गया है। आज भी नकशा के लिये ४
रंगों का ही व्यवहार होता है।
मत्स्य पुराण ११३-चातुर्वर्ण्यस्तु सौवर्णो मेरुश्चोल्बमयः स्मृतः।१२।
नाभीबन्धनसम्भूतो ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः। पूर्वतः श्वेतवर्णस्तु ब्राह्मण्यं तस्य तेन वै।१४।
पीतश्च दक्षिणेनासौ तेन वैश्यत्वमिष्यते।भृङ्गिपत्रनिभश्चैव पश्चिमेन समन्वितः।
पार्श्वमुत्तरतस्तस्य रक्तवर्णं स्वभावतः। तेनास्य क्षत्रभावः स्यादिति वर्णाः प्रकीर्तिताः।१६।
मध्ये त्विलावृतं नाम महामेरोः समन्ततः।१९।
मध्ये तस्य महामेरुर्विधूम इव पावकः। वेद्यर्थं दक्षिणं मेरोरुत्तरार्धं तथोत्तरम्।२०।
(iii) महाद्वीपों के मेरु-मध्य मेरु विषुव वृत्त पर के सबसे बड़े भूखण्ड अफ्रीका के के न्द्र पर था। के न्या में इसे मेरु पर्वत तथा इसके भूभाग को मेरु जिला कहते
हैं। इस पर्वत का नाम अंग्रेजों ने किलिमन्जारो कर दिया। पूर्वी मेरु एशिया के बड़े पर्वतों का मिलन स्थल पामीर (प्राङ् -मेरु) है। पश्चिम मेरु अपर-मेरु था जो
दक्षिण अमेरिका का पेरु हैं। हर महाद्वीप में १-१ मेरु है जिसमें एक सुमेरु इलावृत्त वर्ष (सुमेरिया) में था।
जैन हरिवंश पुराण (पञ्चम सर्ग)-
पूर्वापरौ महामेरोर्द्वौ मेरू भवतोऽस्य च। इष्वाकारौ विभक्तारौ पर्वतौ दक्षिणोत्तरौ॥४९४॥
अशीतिश्च सहस्राणि चत्वारि च समुच्छ्र यः। चतुर्णामपि मेरूणां परयोर्द्वीपयोर्भवेत्॥५१३॥ (धातकी खण्ड, पुष्कर द्वीप)
पुष्करिण्यः शिलाकू ट प्रासादाश्चैत्य चूलिकाः। समानाः पञ्चमेरूपां व्यासादवगाहनोच्छ्र यैः॥५३०॥
तत्त्वार्थ वृत्ति, तृतीय अध्याय-तन्मध्ये मेरुनाभिर्वृत्तो योजन शत सहस्र विष्कम्भो जम्बूद्वीपः॥९॥
(iv) स्थानीय मेरु-कई मेरु मानचित्र के लिए स्थानीय सन्दर्भ थे, जिनमें १५ आज भी मेरु नाम से ही वर्तमान हैं।
(v) मेरु नगर-जितने नगरों की भुमि चपटे मेरु आकार की है, उनको मेरु कहते हैं जैसे अजय-मेरु (अजमेर)।
(ख) अन्य मेरु-(i) मनुष्य तथ अन्य पशुओं का मेरुदण्ड।
(ii) माला का के न्द्रीय मनका भी मेरु है।
९. आदित्य तथा विष्णु-आकाश में सौर मण्डल के ३३ धाम अग्नि (८ वसु), वायु (११ रुद्र), रवि (१२ आदित्य) में विभाजित हैं। २ सन्धि स्थलों में २
अश्विन या नासिक्य हैं। सौर मण्डल की सीमा से आरम्भ करने पर आदित्यों में विष्णु प्रथम है तथा अग्नि सबसे नीचे है।
अग्निर्वै देवानामवमो विष्णुः परमः (ऐतरेय ब्राह्मण, १/१)
अग्निर्वै देवानामवरार्ध्यो विष्णुः परार्ध्यः (कौषीतकि ब्राह्मण, ७/१)
आदित्यानां पतिं विष्णुं (विष्णु पुराण, १/२२/३)
अदिति के १२ पुत्रों में विष्णु या वामन सबसे छोटे किन्तु गुणों में श्रेष्ठ थे।
विष्णु पुराण, खण्ड १, अध्याय १५-पूर्व मन्वन्तरे श्रेष्ठा द्वादशासन् सुरोत्तमाः।
तुषिता नाम ते ऽन्यो ऽन्यमूचुर्वैवस्वते ऽन्तरे॥१२८॥ मन्वन्तरे प्रसूयामस्तन्नः श्रेयो भवेदिति॥१३०॥
एवमुक्त्वा तु ते सर्वे चाक्षुषस्यान्तरे मनोः। मारीचात् कश्यपाञ्जाता आदित्या दक्ष कन्यया॥१३१॥
तत्र विष्णुश्च शक्रश्च जज्ञाते पुनरेव हि। अर्यमा चैव धाता च त्वष्टा पूषा तथैव च॥१३२॥
विवस्वान् सविता चैव मित्रो वरुण एव च। अंशुर्भगश्चाति तेजा आदित्या द्वादश स्मृताः॥१३३॥
= पूर्व मन्वन्तरों में १२ श्रेष्ठ देव तुषित नाम के थे. चाक्षुष मन्वन्तर के अन्त में वे मरीचि पुत्र कश्यप तथा दक्ष पुत्री अदिति के पुत्रों के रूप में उत्पन्न हुए। वे १२
आदित्य हैं-विष्णु, शक्र, अर्यमा, धाता, त्वष्टा, पूषा, विवस्वान्, सविता, मित्र, वरुण, अंशु, भग।
विष्णु पुराण, खण्ड ३, अध्याय १-
मन्वन्तरे ऽत्र सम्प्राप्ते तथा वैवस्वते द्विज। वामनः कश्यपाद् विष्णुरदित्यां सम्बभूव ह॥४२॥
त्रिभिः क्रमैरिमाँल्लोकाञ्जित्वा येन महात्मना। पुरन्दराय त्रैलोक्यं दत्तं निहत कण्टकम्॥४३॥
सर्वे च देवा मनवस्स्मस्ता-स्सप्तर्षयो ये मनु सूनवश्च।
इन्द्रश्च योऽयं त्रिदशेश भूतो, विष्णोरशेषास्तु विभूतयस्ताः ॥४६॥
= वैवस्वत मन्वन्तर के आरम्भ में, कश्यप पुत्र आदित्यों में विष्णु ने वामन रूप में जन्म लिया। उन्होंने इन्द्र के लिए ३ लोक ३ पदों में जीत लिया। सभी देव,
मनु, सप्तर्षि, मनु की सन्तति, इन्द्र आदि विष्णु की अनन्त विभूतियों में हैं।
१२ सौर मासों मे १२ आदित्यों में विष्णु अन्त में हैं।
अग्नि पुराण, अध्याय ५१-वरुणः सूर्य नामा च सहस्रांशुस्तथापरः। धाता तपन संज्ञश्च सविता ऽथ गभस्तिकः॥५॥
रविश्चैवाथ पर्ज्जन्यस्त्वष्टा मित्रोऽथ विष्णुकः। मेषादि राशि संस्थाश्च मार्गादि कार्त्तिकान्तकाः॥६॥
= १२ मासों के १२ आदित्य हैं-वरुण, सूर्य, सहस्रांशु, धाता, तपन, सविता, गभस्तिक, रवि, पर्जन्य, मित्र, विष्णु। वे मेष से आरम्भ कर १२ राशियों में
अर्थात् मार्गशीर्ष से कार्त्तिक तक के स्वामी हैं। श्लोक ३५ में भगवान् ने अपने को मासों में मार्गशीर्ष तथा ऋतुओं में वसन्त कहा है। उस समय (महाभारत कल
में) मार्गशीर्ष मास में सूर्य मेष राशि में रहता थ तथ वसन्त का आरम्भ होता था।
मासानां मार्गशीर्षोऽहं ऋतूनां कु सुमाकरः (गीता, १०/३५)
१०. मरुतों में मरीचि- मरुत् ७ हैं, उनका पुनः ७-७ में विभाजन हुआ है। अग्नि पुराण, अध्याय २१९ तथ अन्य पुराणों में एक कथा है कि इन्द्र का शत्रु दिति
के गर्भ में पल रहा था। दिति की असावधानी के समय इन्द्र उसके गर्भ में घुस गये तथा उसे ७ भागों में काट दिया तथा पुनः ७-७ भागों में काटने लगे। जब वे
रोने लगे तो इन्द्र ने कहा मा-रुद (मत रो। अतः उनको मरुत् कहा गया। किन्तु ४९ मरुतों के नाम में मरीचि नहीं है। दिति ने इन्द्र से कहा कि जो हो गया उसे
बदल नहीं सकते, अतः इनको अपने मित्र रूप में स्वीकार करो। यह सामान्य मनुष्य गर्भ की घटना नहीं है। ब्रह्माण्ड के क्षेत्रों का विभाजन उसके के न्द्र से सीमा
तक हुआ है। हर क्षेत्र में भिन्न प्रकार विरल पदार्थों की गति है जिनको मरुत् कहा है। यह गति किरणों के कारण उत्पन्न होती है, जिनको मरीचि कहते हैं।
आकाश में फै ला हुआ विकिरण इन्द्र है जो शून्य में भी वर्तमान है। अतः मरुत् इन्द्र के मित्र हैं, और मरुतों का कारक मरीचि उनमें श्रेष्ठ है।
मरीचि ऋषि ब्रह्मा के मन से उत्पन्न हुए थे (भागवत पुराण, ९/१/१० आदि)। मत्स्य पुराण (३/६) के अनुसार ब्रह्मा के मानस पुत्रों में मरीचि सबसे बड़े थे।
मत्स्य पुराण (१२७/१६) के अनुसार जितने तारा हैं उतने मरीचि हैं। हर तारा से एक किरण आती है जिससे उसकी दूरी, दिशा आदि का पता चलता है।
प्रकाश की गति सबसे अधिक है। उसी गति (मरीचि) से मन बाहर जाता है। वह पुनः वापस आता है, जिससे क्षर विश्व में वह जीवित रहता है।
यत्ते मरीचिः प्रवतो मनो जगाम दूरकम्। तत्त आवर्तयामसी-ह क्षयाय जीवसे॥ (ऋक् , १०/५८/६)
सूर्य (पतङ्ग) ब्रह्माण्ड के अन्धकार से घिरा है। ब्रह्माण्ड समुद्र में कवि (भृगु) द्वारा मरीचि क्षेत्र बनते हैं। हमारा हृदय आकाश भी माया रूपी अन्धकार के ७ स्तरों
से घिरा है। उनको पार कर हम मरीचि (प्रकाश) तक पहुंचते हैं।
पतङ्गमक्तमसुरस्य मायया हृदा पश्यन्ति मनसा विपश्चितः।
समुद्रे अन्तः कवयो वि-चक्षते मरीचीनां पदमिच्छन्ति वेधसः॥ (ऋक् , १०/१७७/१)
संहितो विश्व सामा सूर्यो गन्धर्वस्तस्य मरीचयो ऽप्सरस आयु वो नाम। (वाज.सं. १८/३९)
११. वेदों में सामवेद-सृष्टि ही वेद है, उसका शब्द रूप शब्द वेद है। सभी भौतिक पिण्ड या मूर्ति ऋक् है, गति यजु है, तेज (महिमा, प्रभाव क्षेत्र) साम है।
सनातन ब्रह्म अथर्व है।
ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्त्तिमाहुः, सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत्।
सर्वं तेजं सामरूप्यं ह शश्वत्, सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण,३/१२/८/१)
किसी वस्तु का ज्ञान तभी होता है जब हम उसके साम के भीतर हों। सूर्य बहुत दूर है, पर इसलिये दीखता है कि उसका साम हम तक पहुंच रहा है। कोई
व्यक्ति निकट हो, किन्तु उससे प्रकाश या ध्वनि हम तक नहीं पहुंचती है, तौसे नहीं जान सकते। अतः साम द्वारा ही ज्ञान होता है और भगवान् वेदों में सामवेद
हैं।
१२. जप यज्ञ-गीता में यज्ञ की परिभाषा है कि इससे चक्र में उत्पादन होता है।
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेषवो ऽस्त्विष्ट कामधुक् ॥१०॥ (गीता, अध्याय ३)
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्व किल्बिषैः॥१३॥
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः। अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥१६॥
प्रजापति ने प्रजा की उत्पत्ति के साथ ही यज्ञ का निर्माण किया तथा प्रजा को कहा कि इससे अपनी इच्छा की वस्तु का उत्पादन करो। (१०) जो यज्ञ से बचा
हुआ अन्न खाते हैं, वे सभी पापों से मुक्त हो जाते हैं। (१३) यज्ञ का चक्र चलते रहना चाहिए, इस नियम का पालन नहीं करने वाला अपनी इन्द्रियों के सुख के
लिए व्यर्थ जीवन जीता है। (१६)
गीता, अध्याय ४ के १४ यज्ञों में जप यज्ञ का उल्लेख नहीं है। किन्तु यज्ञ मनुष्य द्वारा होता है तथा उसकी दक्षता बढ़ाने के लिए यज्ञ होता है-
दक्षता बढ़ाने के लिए गीता के ३ योग हैं-
श्रोत्रादीनीन्द्रियाण्यन्ये संयमाग्निषु जुह्वति। शब्दादीन् विषयानन्य इन्द्रियाग्निषु जुह्वति॥२६॥
सर्वाणीन्द्रिय कर्माणि प्राण कर्माणि चापरे। आत्म संयम योगाग्नौ जुह्वति ज्ञान दीपिते॥२७॥
द्रव्य यज्ञास्तपो यज्ञा योग यज्ञास्तथापरे॥२८॥ (गीता, अध्याय ४)
संयम यज्ञ-सभी कर्मों में इन्द्रियों की वासना के कारण काम के मुख्य मार्ग से भटक जाते हैं। बेकार या असम्बद्ध कामों से मन को हटाना प्रत्याहार है। मुख्य विदु
पर मन को रखना धारणा है। धारणा बनाये रखना ध्यान है। विपरीत परिस्थितियों में समता रखना समाधि है। धारणा, ध्यान, समाधि का संयोग संयम है
(पातञ्जल योग सूत्र (२/५४, ३/१-४)। योग सूत्र, पाद ३ में ५२ प्रकार के संयम का वर्णन है जिससे ५२ डक्ति या विभूति मिलती है। सभी ज्ञानेन्द्रियों को
संयम की अग्नि में लीन करने से वे समन्वय से काम करते हैं।
योग यज्ञ-योग का अर्थ है जोड़ना। यह दो चीजों में समन्वय है। भौतिक स्तर पर यह श्वास तथा गति का समन्वय है। इसके लिये योग शास्त्रों में ८ क्रम कहे हैं-
(१) यम, (२) नियम, (३) आसन, (४) प्राणायाम, (५) प्रत्याहार, (६) धारणा, (७) ध्यान, (८) समाधि।
तप यज्ञ का अर्थ है शारीरिक तथा मानसिक श्रम। श्रम से ताप होता है, अतः इसे तप कहते हैं।
बाहरी विषयों से ध्यान हटाने के लिए सबसे अच्छी विधि जप यज्ञ है तथा योग की आरम्भिक क्रियाओं के बाद गुरु द्वारा समाधि की उच्च अवस्था के लिए मन्त्र
दिया जाता है। इस मन्त्र का जप धीरे धीरे सूक्ष्म हो कर समाधि स्थिति लाता है, अतः यह यज्ञों में श्रेष्ठ है।
१३. रुद्रों में शङ्कर-रुद्र प्रचण्ड ऊर्जा है जो तोड़ती या नष्ट करती है। उसका शान्त रूप निर्माण करता है तथा उसे बनाये रखता है। सूर्य के निकट का क्षेत्र
इतना गर्म है कि उसमें कोई बच नहीं सकता है। पृथ्वी से शान्त भाग का आरम्भ होता है, जो शिव है। यह चन्द्र क्क्षा से आरम्भ होता है, अतः शिव के शीर्ष
(आरम्भ) पर चन्द्र है। उससे दूर के क्षेत्र शिवतर, तथा सबसे शान्त भाग शिवतम हैं।
यो वै रुद्रः, सो अग्निः (शतपथ ब्राह्मण, ५/२/४/१३)
रुद्रो ह वा एष देवानां अशान्तः सञ्चितो भवति, तं एव एतत् शमयति (कौषीतकि ब्राह्मण, १९/४)
= रुद्र अग्नि तथा अशान्त है। यह शान्त होने पर शङ्कर (शमन करने वाला) है।
तद् यद् रुदितात् समभवन् तस्मात् रुद्राः, सो अयं शत शीर्षा रुद्रः सहस्राक्षः। तद् यद् एतं शत शीर्षाणं रुद्रं एतेन अशमयन् तस्मात् शत शीर्ष रुद्र शमनीयं ह वै
तत् शत रुद्रियं इति आचक्षते परो ऽक्षम्। (शतपथ ब्राह्मण, ९/१/१/६, ७)
= जो रोते हुए (रुदित) पैदा हुए, वे रुद्र हैं। १०० सिर (सूर्य से उसके १०० व्यास दूर) पर वह शान्त होता है, अतः इसे शत (१००) रुद्रिय कहते हैं।
(शान्त को शत)
या ते रुद्र शिवा तनू अघोरा पाप काशिनी। तया नस्तन्वा शन्तमया गिरिशन् तभिचाकशीहि (वाज.सं. १६/२, तैत्तिरीय सं. ४/५/१/१, श्वेताश्वतर उपनिषद्,
३/५)
= हे रुद्र! आपका जो शान्त शिव रूप पर्वत पर पापहीन होने से चमक रहा है, उससे हमारी देख भाल करें।
नमः शिवाय च शिवतराय च (वाज.सं. १६/४१, तैत्तिरीय सं., ४/५/८/१, मैत्रायणी सं. १२६/५)
= शिव तथा शिवतर जो नमस्कार।
यो वः शिवतमो रसः(ऋक् , १०/९/२, अथर्व, १०/५/१७, वाज. सं. ११/५१) = जो हमारा शिवतम रस है।
प्राणा वै रुद्राः। प्राणा हीदं सर्वं रोदयन्ति। (जैमिनीय उपनिष द्ब्राह्मण, ४/२/६)
कतमे रुद्रा इति। दशेमे पुरुषे प्राणा आत्मैकादशस्ते यदस्मान् मर्त्यात् शरीरात् उत्क्रामन्ति अथ रोदयन्ति तद् यद् रोदयन्ति तस्मात् रुद्रा इति। (शतपथ ब्राह्मण,
११/६/३/७)
= प्राण रुद्र है। शरीर में १० प्राण हैं जो १० इन्द्रियों को चलाते हैं। ये इन्द्रिय रुलाते हैं इसलिए रुद्र हैं। आत्मा ११वां है जो शिव का रूप है। यह मन द्वारा सभी
१० इन्द्रियों का नियन्त्रण करता है।
क्रिया योग में रुद्र ग्रन्थि को पार करने के बाद शिव स्थिति होती है (समाधि की शान्त स्थिति)। मस्तिष्क के विभिन्न भाग रुद्र हैं, के न्द्र भाग शिव है।
शङ्कर = शं (या खं = शून्य आकाश) + कं + रं।
रं गतिशील प्राण है। कं कर्ता या प्रजापति है। शं शान्त स्थिति है। तीनों के द्वारा निर्माण होता है, जो शंकर है।
१४. सर्प तथा नाग-दोनों का लोक भाषा में एक ही अर्थ है-सांप। किन्तु ये सर्प नहीं, सर्प जैसे तत्त्व हैं। नाग स्थिर रहता है, इसका अर्थ हाथी भी है। नग
(पर्वत) या नाग का अर्थ है (न + अग) = जो चलता नहीं है। नाग तथा हाथी की सूंड़ कु ण्डली मार कर पकड़ते हैं। वृत्त द्वारा घेरने के कारण इसे वेद में वृत्र भी
कहा गया है। हाथी रूप में ८ दिङ् -नाग या दिग्-गज ८ दिशाओं को धारण करते हैं। ये पृथ्वी सतह के ८ महाद्वीपीय प्लेट है। गज स्थिर रहता है, हाथी या स्थिर
मापदण्ड (अंग्रेजी में gauge)। नाग एक मनुष्य जाति है जो विश्व भर में सामान पहुंचा कर लोगों का पालन करती थी। विषुव के उत्तर का अक्ष वृत्त नागवीथि
है। भारत के कु छ राजवंश नाग वंश के हैं तथा बंगाल में यह ब्राह्मणों की उपाधि है। नाग का एक और शब्द है अहि-सर्वव्यापी (अ से ह तक सभी अक्षर) या
हिंसक। मनुष्य भी विश्व प्रतिमा अर्थ में अहम् (अ से ह) है। दिन का चक्र-पृथ्वी का अक्ष भ्रमण या परिक्रमा कक्षा दोनों अहि हैं।
वृत्रो ह वा इदं सर्वं वृत्वा शिश्ये। यदिदमन्तरेण द्यावा-पृथिवी स यदिदं सर्वं वृत्वा शिश्ये तस्माद् वृत्रो नाम (शतपथ ब्राह्मण, १/१/३/४) = वृत्र पूरे विश्व-भूमि
तथा आकाश को घेर कर सोया हुआ है-अतः यह वृत्र है।
नागों में अनन्त-
(१) ब्रह्माण्डों में परस्पर आकर्षण से ये अपने स्थान पर हैं।
(२) ब्रह्माण्ड का अक्ष भ्रमण जिसे मन्वन्तर कहते हैं। इसका मुख्य प्रवाह के न्द्रीय चक्र में है जिसे आकाश-गङ्गा कहते हैं। आकाश गङ्गा में एक सर्पाकार भुजा है
जिसे वेद में अहिर्-बुध्न (बाढ़ मे सर्प) या पुराण में शेष-नाग, अनन्त आदि कहते हैं। यह आकाश गङ्गा के के न्द्र से आरम्भ है जो मूल नक्षत्र है तथा पृथ्वी से
३०,००० प्रकाश वर्ष दूर है। इस दूरी को भागवत पुराण में ३०,००० योजन कहा गया है। इस सर्प में सूर्य जहां पर है, वहां की भुजा की मोटाई के बराबर
व्यास का गोल महर्लोक है जिसमें १००० तारा हैं। ये शेष या अनन्त के १००० सिर हैं जिनमें एक सिर सूर्य पर पृथ्वी विन्दु मात्र है। अप्-जां उक्थैः अहिं
गृणीषे बुध्ने नदीनां रजःसु षीदन् (ऋक् , ७/३४/१६)
भागवत पुराण (५/२५)-अस्य मूलदेशे त्रिंशद् योजन सहस्रान्तर आस्ते या वै कला भगवतस्तामसी समाख्यातानन्त इति सात्वतीया द्रष्टृ दृश्ययोः
सङ्कर्षणमहमित्यभिमान लक्षणं यं सङ्कर्षणमित्याचक्ष्यते॥१॥
यस्येदं क्षिति मण्डलं भगवतो ऽनन्त मूर्तेः सहस्र शिरस एकस्मिन्नेव शीर्षाणि ध्रियमाणं सिद्धार्थ इव लक्ष्यते॥२॥
(३) अण्टार्क टिक-पृथ्वी सतह गोल है किन्तु उसका मानचित्र समतल कागज पर बनता है। विषुव के समानान्तर अक्ष वृत्त ध्रुव की दिशा में क्रमशः छोटे होते
जाते हैं, किन्तु मानचित्र में सबको बराबर दिखाते हैं। ध्रुव प्रदेश में इसआ मान अनन्त हो जायेगा। उत्तर ध्रुव में कोई समस्या नहीं है, क्योंकि वह जल भाग में है
(आर्यभटीय, ४/१२, लल्ल का शिष्यधी-वृद्धिद तन्त्र, १७/४)। किन्तु दक्षिण ध्रुव प्रदेश कामानचित्र अलग बनाना पड़ेगा क्योंकि यह अनन्त हो जायेगा। दक्षिण
दिशा को मानचित्र में नीचे दिखाते हैं, अतः इस अनन्त के सिर पर पृथ्वी है (आकाश में शेष के १००० सिरों में एक पर)।
(४) पृथ्वी की कक्षा गति भी बहुत काल से चल रही है, अतः यह भी अनन्त है जिसने पृथ्वी को धारन किया है।
(५) पृथ्वी सतह पर सभी क्रियायें दैनिक अक्ष भ्रमण या दिन के अनुसार होते हैं। यह भी बहुत या अनन्त काल से चल रहा है।
(६) सृष्टि रूपी वेद जो ३ प्रकार के अनन्त हैं- अनन्ता वै वेदाः (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/१०/११)
ऋक् मूर्ति (पिण्ड) रूप है जो सण्ख्याओं के असंख्य क्रम से गिना जा सकता है-संख्येय अनन्त।
यजु गति है। रेखा में विन्दु गति की तरह इसे नहीं गिन सकते हैं-असंख्येय।
साम महिमा (प्रभाव) है जो गणित सूत्रों द्वारा व्यक्त नहीं हो सकता है-अप्रमेय।
विष्णु सहस्रनाम-असंख्येयोऽप्रमेयात्मा (४० श्लोक) अनन्त (६५९, ८८६)
अपरिमितं प्रमाणाद् भूयः (कात्यायन शुल्ब सूत्र १/२३)
(७) अनन्त ब्रह्म जिसने विश्व का धारण किया है। सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म (तैत्तिरीय उपनिषद् २/१)
संख्या क्रम में सबसे बड़ा अनन्त है।
अणोरणीयान् महतो महीयान्(कठोपनिषद् १/२/२०, श्वेताश्वतर उपनिषद् ३/२०)
सर्प अन्य प्रकार के नाग हैं जो यातायात तथा सञ्चार द्वारा पृथ्वी का पालन करते हैं। ये मनुष्य थे जो पूरे विश्व में व्यापार तथा परिवहन करते थे। इनके कई
स्थान थे-नागपुर, इन्द्र (अच्युत-च्युत या चुतिया) का चुतिया-नागपुर (छोटानागपुर), अहि-च्छत्र, अहि-गृह (आगरा), अघरिया (छत्तीसगढ़, पश्चिम ओडिशा
के व्यवसायी), नाग-नगर भोगवती या भोगल (भागलपुर-पूर्व बिहार का नदी-पत्तन), नागपत्तनम् (तमिलनाडु ), नागासाकी (जापान, पञ्चजन द्वीप), आस्तीक
नाग (मेक्सिको के एज्टेक), नाग-द्वीप (अण्डमान-निकोबार)। इन नागों में रसातल (दक्षिण अमेरिका) के वासुकि नाग ने देवों-दानवों का सबसे बड़ा समन्वय
किया था जिससे उन लोगों ने युद्ध छोड़ कर पूरे विश्व में खनन के लिए सहयोग किया। इसे समुद्र मन्थन कहा गया है जिसका भारत में मुख्य क्षेत्र झारखण्ड
था, जिसके कू र्म आकार के पर्वतों से उत्तर मथानी जैसा एक पर्वत गंगा तट तक (भागलपुर के निकट) चला गया है। यह मन्दार पर्वत है जिसे मथानी कहा है,
तथा वासुकि को उसकी रस्सी। भागलपुर के निकत वासुकिनाथ मन्दिर है। वासुकि के वंशजों की बास्कि उपाधि है। जल के समुद्र ७ हैं पर उत्पादन के लिए गो
रूपपृथ्वी के ४ ही समुद्र हैं जो गो के ४ स्तन जैसे हैं-स्थलमण्डल, जलमण्डल, जीवमण्डल, वायुमण्डल। इसी के स्थल-समुद्र का मन्थन हुआ था।
१५. मुनि- विभूतियों में मुनि शब्द का २ बार प्रयोगहुआ है-सिद्धों में कपिल मुनि, मुनियों में व्यास। गीता में मुनि की परिभाषा है, जो सुख-दुःख, राग-भय-
क्रोध से मुक्त स्थिर बुद्धि वाला-
दुःखेष्वनुद्विग्न मनाः सुखेषु विगत-स्पृहः। वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते॥ (गीता, २/५६)
सिद्ध वह हैजो ईश्वर जैसा नियन्त्रण करे तथा भोग में सक्षम, बलवान्, सुखी हो-
ईश्वरो ऽहमहं भोगी सिद्धो ऽहं बलवान् सुखी॥ (गीता, १६/१४)
ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्रामयन् सर्व भूतानि यन्त्रारूढानि मायया॥ (गीता, १८/६१)
सभी शक्तियां योगाभ्यास से मिलती हैं। सैद्धान्तिक ज्ञान सांख्य है, उसका व्यावहारिक रूप योग, दोनों अलग नहीं हैं।
सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डितः।एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम्॥४॥
यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते। एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति॥५॥ (गीता, ५/४-५)
= के वल अज्ञानी ही सांख्य-योग को अलग मानते हैं, विद्वान् नहीं। सांख्य से जो फल मिलता है, वही योग से भी। द्रष्टा वही है जो सांख्य-योग को एक ही
देखता है।
कपिल मुनि इन कामों के लिए विख्यात हैं-(क) कर्दम तथा देवहूति के पुत्र रूप में सांख्य योग की शिक्षा दी (भागवत पुराण, १/९/१९, २/७/३, ३/२४-३३
अध्याय), (ख) गो-रूप पृथ्वी के दोहन के लिए कपिल को बछड़ा बनाया गया था (भागवत पुराण, ४/८/१९, ब्रह्म पुराण, २/७१/२६), (ग) वेन की मृत्यु के
बाद उसके मृत शरीर के मन्थन की सलाह दी जिससे राजा पृथु का जन्म हुआ (ब्रह्म पुराण, २/७/१४,), (घ) राजा सगर के ४ तथा ६०,००० पुत्रों को
भस्म कर दिया जो अश्वमेध का अश्व खोजते समय समुद्र के अन्त में कपिल से मिले थे (ब्रह्म पुराण, १/६/५५), (ङ) राजा भगीरथ को पृथ्वी पर गङ्गा लाने
की प्रेरणा दी (ब्रह्म पुराण, २/६/५०)। इन कामों के कारण उनको सिद्धों में सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। वह समुद्र के अन्त में अर्थात् अमेरिका में रहते थे। सूर्य सिद्धान्त
(१२/३८-४०) के अनुसार उज्जैन से १८० अंश पूर्व में सिद्धपुर था। कपिल का अर्थ लाल रंग अहि अतः वहां के निवासियों को लाल भारतीय (Red
Indian) कहते थे। इस आधार पर कु छ का अनुमान है कि वहां के क्षेत्र कै ल्फोर्निया का मूल नाम कपिलारण्य है। कपिला का अर्थ गाय भी है, गोविन्द पर्वत
तथा मुनि देश क्रौञ्च द्वीप (उत्तर अमेरिका) के पश्चिम तट पर थे (मत्स्य पुराण, १२९/७९-८८)।
स्थिर बुद्धि द्वारा मुनि अध्ययन, विचार तथा शिक्षण कर सकता है। उनमें वेद मन्त्रों के द्रष्टा को ऋषि कहते थे। वसिष्ठ को मुनि तथा ऋषि दोनों कहा गया है
(रघुवंश, २/१, १५)। मनुष्य ब्रह्मा स्वायम्भुव मनु से आरम्भ कर २८ महान् मुनियों ने ऋषि दृष्ट मन्त्रों का सङ्कलन (संहिता) किया. सभी २८ को व्यास कहा
गया है (वायु पुराण, अध्याय ९९ आदि)। अन्तिम व्यास थे कृ ष्ण द्वैपायन, अतः प्रायः उनको ही व्यास कहते हैं, और मुनियों में श्रेष्ठ कहा गया है।
१६. देवर्षि-देवर्षि रूप में के वल नारद ही प्रसिद्ध हैं। देवर्षि की परिभाषा तथा कु छ अन्य नाम वायु पुराण में है।
वायु पुराण, अध्याय ६१-
धर्मस्याथ पुलस्त्यश्च क्रतोश्च पुलहस्य च। प्रत्यूषस्य प्रभासस्य कश्यपश्च तथा पुनः॥८२॥
देवर्षयः सुतास्तेषां नामस्तान्निबोधत। देवर्षी धर्मपुत्रौ तु नर-नारायणावुभौ॥८३॥
बालखिल्यः क्रतोः पुत्राः कर्दमः पुलहस्य तु। कु बेरश्चैव पौलस्त्यः प्रत्यूषस्याचलः स्मृतः॥८४॥
पर्वतो नारदश्चैव कश्यपस्यात्मजावुभौ। ऋषन्ति देवान्यस्मात्ते तस्माद्देवर्षयः स्मृताः॥८५॥
= देवों से मिलाने वाले ऋषि देवर्षि हैं। ये हैं-धर्म पुत्र नर-नारायण, क्रतु पुत्र बालखिल्य, पुलह पुत्र कर्दम, पुलस्त्य पुत्र कु बेर, प्रत्यूष पुत्र अचल, कश्यप के पुत्र
पर्वत, नारद।
इनमें नारद ने कई लोगों को विष्णु से साक्षात् कराया जिनके भागवत पुराण में कई उदाहरण हैं-ध्रुव (४/८), प्राचीनबर्हि (४/२५), प्रचेता (४/३१/३),
चित्रके तु (६/१६/१८), प्रह्लाद को गर्भ में (७/७/१६)। वाल्मीकि को रामायण (अध्याय १) तथा वेद-व्यास को भागवत पुराण (१/१-५ अध्याय, भागवत
माहात्म्य, अध्याय १-५) में भगवान् अवतार के वर्णन की प्रेरणा दी।
कम से कम ४ देवर्षि सृष्टि के तत्त्व हैं। सृष्टि के पूर्व नर या पुरुष था। उसके सङ्कल्प से रस (जल जैसा समरूप तत्त्व) उत्पन्न हुआ। नर से उत्पन्न होने के कारण
इसे नार कहा गया। वह नार ही उस पुरुष का अयन या वास स्थान हुआ, अतः उसे नारायण कहा गया। सृष्टि पूर्व नर, सृष्टि के बाद नारायण, दोनों के बीच सूत्र
नारद है।
आपो नारा इति प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः। ता यदस्यायनं पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः॥ (मनुस्मृति,१/१०)
लक्ष्मीनारायण संहिता में नारद के कई अर्थ दिये हैं-(१) जिसके जन्म के समय नार या वर्षा हुई, (२) जो लोगों को नार या ज्ञान देता है, (३) जो गायन के
समय कण्ठ स्वर (नार) देता है, (४) जो लोगों को नारायण से मिलाता है, (५) जो बिना रद (दन्त) का है, (६) जो आत्मा स्थित नार या विष्णु देता है।
लक्ष्मीनारायण संहिता (अध्याय, १/२०२)- तस्य जन्मक्षणे नारं जलं भूमौ ववर्ष ह॥११२॥
जन्म काले ददौ नारं तेनायं नारदः स्मृतः। ददाति नारं ज्ञानं च बालेभ्यश्चेति नारदः॥११३॥
वीर्येण नारदस्यैव बभूव नारदस्ततः। गायने च नरान् कण्ठं ददौ तेनापि नारदः॥११४॥
नोऽर्थो नारायणः प्रोक्तो ह्यरं शीघ्रं ददाति यः। शीघ्रं नारायण दानान्नारदश्च प्रकीर्तितः॥११५॥
रदा दन्ताश्च येषां न तेऽरदा वृद्धतान्विताः। अरदा वृद्धता यस्य नास्ति स नारदश्चिरः॥११६॥
(१/५२२ अध्याय)-नारं पानीयमित्युक्तं नारं ज्ञानं तथोच्यते॥६३॥ नारं त्वात्म स्थितं विष्णुं यो ददाति स नारदः।
सौर मण्डल का क्रियात्मक क्षेत्र क्रतु है। उसके अन्त में सन्तति रूप ६०,००० बालखिल्य (छोटे ग्रह) हैं जिनका व्यास अङ्गुष्ट (९६ किलोमीटर, पृथ्वी रूपी
९६ अङ्गुल का नर १२,८०० कि.मी. है) है। ये सूर्य तुलना में ६० गुणा दूरी पर हैं, जिनको नक्षत्र कक्षा कहा गया है।
क्रतोश्च सन्तति-र्भार्या बालखिल्या-नसूयत। षष्टिपुत्र सहस्राणि मुनीना-मूर्ध्वरेतसाम्॥
अङ्गुष्ठ पर्व मात्राणां ज्वलद् भास्कर तेजसाम्। (विष्णु पुराण १/१०/१०)
सूर्य सिद्धान्त (१२)- भवेद् भकक्षा तिग्मांशो र्भ्रमणं षष्टि ताडितम्। सर्वोपरिष्टाद् भ्रमति योजनैस्तैर्भमण्डलम्॥८०॥
१७. कामधेनु-गो सबसे उपयोगी पशु है, उसका पुत्र बैल खेत जोतता है जिससे उत्पन्न अन्न से जीवन चल रहा है तथा गौ के दूध से जीवन भर हमारा पालन
होता है। किन्तु ऐसी कोई गौ नहीं है, जिससे हमारी इच्छा की सभी वस्तु मिल जाये। यहां कामधुक् शब्द कहा है। यही शब्द यज्ञ की परिभाषा रूप में गीता
(३/१०) में है जो सभी इच्छित वस्तु दे सकता है। गो तृतीय व्यञ्जन वर्ण है जिसके ३ तत्त्व हैण्-गति, निर्माण स्थल, निर्माण। इस अर्थ में पृथ्वी भी गो है।
उत्पादन का साधन यज्ञ ही श्रेष्ठ गो या धेनु है।
धेनूनामस्मि कामधुक् (गीता, १०/२८)
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरो वाच प्रजापतिः।अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक् ॥ (गीता, ३/१०)

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