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Rss Working 2
Rss Working 2
ये1925
1925 में जब संघ का कार्य प्रारं भ हुआ, तब डॉक्टरजी की आयु 35 वर्ष की थी। तब
तक उन्होंने तत्कालीन स्वातंत्र्य प्राप्ति हे तु चल रहे सभी आंदोलनों और कार्यों में
जिम्मेदारी की भावना से कार्य किया। संघ का कार्य प्रारं भ करने के लिए उन्होंने
12-14 वर्षों की आयु वाले कुछ किशोर स्वयंसेवकों को साथ में लेकर नागपुर के
साळूबाई मोहिते के जर्जर बाड़े का मैदान साफर करके, कबड्डी जैसे भारतीय खेल
खेलना प्रारं भ किया। ऊपरी तौर पर दे खा जाये तो यह एक प्रकार का विरोधाभास
ही प्रतीत होता है । उनके अनेक मित्रों ने इस पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा भी
था- डॉक्टर हे डगेवार ने आसेतु हिमाचल फैले इस विशाल हिन्दस ु माज को राष्ट्रीयता
के रं ग में रं गकर सस
ु ंगठित करने का प्रयास सफल सिध्द करके दिखाने के उदात्ता
और भव्य कार्य का आरं भ माध्यमिक और उच्च माध्यमिक शालेय छात्रों के साथ
कबड्डी खेल कर किया।
डॉक्टरजी का मित्र- परिवार काफी बड़ा था। फिर भी उन्होंने इन मित्रों को उकत्र कर
कोई सभा-सम्मेलनों का आयोजन नहीं किया। सार्वजनिक अथवा किसी निजी
स्थान पर अपने चहे तों की सभा लेकर, भाषण आदि दे कर कोई प्रस्ताव आदि
पारित करने के चक्कर में भी वे नहीं पड़े। अंग्रेजो के विरुध्द असंतोष भडकाने
वाला भाषण दे कर लोगों का उद्बोधन नहीं किया। 'भारत के उत्थान हे तु मैं एक
नये कार्य का श्रीगणेश कर रहा हूं'- ऐसी कोई घोषणा भी नहीं की।समाचार पत्रों में
लेख आदि लिखकर अथवा जाहिर भाषण में संघ कार्य के विचार शैली और कार्य-
शैली की कोई संकल्पना (Blue Print) भी प्रकट नहीं की। ये सारी बातें तत्कालीन
प्रचलित पध्दति के अनस ु ार न करते हुए केवल 20-5 किशोर स्वयंसेवकों को साथ
लेकर कबड्डी जैसे दे शी खेल खेलने का कार्यक्रम शरु
ु किया। प्रारं भिक दिनों में इन
स्वयंसेवकों के समक्ष भी भाषण आदि दे कर संघ विचारों का प्रतिपादन नहीं किया।
खेल समाप्त होने के बाद संघ स्थान पर अथवा अन्य समय में अनौपचारिक रूप
से इन किशोर स्वयंसेवकों के साथ वार्तालापहुआ करता।
कबड्डी जैसे खेलों से शाखा का कार्य प्रारं भ होने पर डॉक्टरजी के अनेक मित्रों ने
पूछा कि आप सारे कामों से मक्
ु त होकर इन छोटे बच्चों के साथ कबड्डी खेलने में
क्यों लगे हैं? डॉक्टरजी ने उनके साथ कभी वाद विवाद या बहस नहीं की। तर्क
और बुध्दि का सहारा लेकर संघ कार्य का महत्तव समझाने का प्रयास भी नहीं
किया। तब तक किए गए सारे सामाजिक कार्यों से मुक्त होकर वे मोहिते बाड़े में
लगने वाली सांय शाखा में किशोर स्वयंसेवकों के साथ तन्मय होकर खेलकूद में
शामिल होने लगे। शाखा के कार्यक्रमों का ठीक ढं ग से आयोजन करने, सारे
कार्यक्रम अच्छे ढं ग से बिना किसी भूल के सम्पन्न हों, इसके लिए एकाग्र चित्ता
से वे संघ कार्य में जट
ु गये। नये शरु
ु किये गये इस कार्य का नाम राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ है , यह बात भी प्रारं भिक दिनों में उन्होंने स्वयंसेवकों से नहीं कही।
केवल तन्मयता से विविध खेलों के कार्यक्रमों में वे रं ग जाते और अपने साथ
किशोर स्वयंसेवकों को भी रमाने का प्रयास करते और इस प्रकार संघ की शाखा
शुरु हुई।
शाखा के साथ ही कार्यपध्दति का विकास भी प्रारं भ हुआ। स्वयंसेवकों के साथ
परिचय होने के साथ ही अनौपचारिक वार्तालाप शुरु हो गया था। स्वयंसेवकों का
नाम, शिक्षा, घर की स्थिति आदि के बारे में जानकारी प्राप्त कर लेने के बाद, यदि
कोई स्वयंसेवक किसी दिन शाखा में नहीं आया तो अन्य किशोर स्वयंसेवकों को
साथ लेकर डॉक्टरजी उसके घर जाते थे। इस प्रकार धीरे -धीरे स्वंयसेवकों के माता-
पिता और परिवारजनों के साथ परिचय होने लगा। डॉक्टरजी जैसा ज्येष्ठ चरित्रवान
कार्यकर्ता अपने बच्चे की पछ
ू ताछ करने, स्वास्थ संबंधी जानकारी प्राप्त करने बड़ी
आस्था से अपने घर आता है , यह दे खकर स्वयंसेवकों के घर के लोग भी प्रभावित
होते। डॉक्टरजी के अपने घर आने से उन्हें बड़ी खश
ु ी होती। कोई स्वयंसेवक यदि
गंभीर रूप से बीमार होता तो डॉक्टरजी बड़े चिन्तित रहते- उस बीमार स्वयंसेवक
के लिए अस्पताल से दवाई लाने , इलाज करने वाले डॉक्टरों से आस्था पर्व
ू क
पछ
ू ताछ और विचार-विनिमय करने तथा आवश्यक हुआ तो बीमार स्वयंसेवक की
सेवा सुश्रुषा के लिए रात भर जागरण करने के लिए स्वयंसेवकों को उसके पास
भेजने की व्यवस्था की जाती। इस प्रकार के व्यवहार से स्वयंसेवकों में परस्पर
मैत्री पर्ण
ू संबन्ध अधिक मजबत
ू होने लगे। साथ ही प्रत्येक स्वयंसेवक के विचारों
और भावनाओं का भी डॉक्टरजी को परिचय होने लगा। स्वयंसेवकों के सख
ु -द:ु ख में
समरस होने की प्रवत्ति
ृ बढ़ने लगी। स्वयंसेवकों में सगे भाई से भी आत्मीयता के
परस्पर सम्बन्ध बनने लगे। परस्पर हृदयस्थ विचारों से परिचित होकर निरपेक्ष
स्नेह से मित्रता कैसे प्रस्थापित की जाए, नये-नये विश्वास पात्र मित्र कैसे बनाये
जाएं आदि बातों के सम्बन्ध में डॉक्टरजी ने अपने प्रत्यक्ष व्यवहार से स्वयंसेवकों
को संस्कारित किया। स्वयंसेवकों के घनिष्ठ मित्रों का यह परिवार धीरे -धीरे बढ़ने
लगा। एक दस
ू रे के साथ आत्मीयता से जुड़े स्वयंसेवकों का यह परिवार और उस
परिवार के मखि
ु या के रूप में डॉक्टरजी, इस तरह संघ का स्वरूप धीरे -धीरे
विकसित होने लगा। सार्वजनिक क्षेत्र में कार्य करने का व्यापक अनुभव डॉक्टरजी
को प्राप्त था। इसलिए डॉक्टरजी का स्वयंसेवकों के साथ हंसना-खेलना-बोलना आदि
सभी बड़े अनौपचारिक ढं ग से चलता। ये अनौपचारिक बैठकें उनके घर में ही होती।
इन बैठकों में होने वाले वार्तालापों में डॉक्टरजी अनेक घटनाओं के सन्दर्भ में , बड़ी
सहजता से अपने अनुभवों को सुनाते, ये अनभ
ु व बड़े बोधप्रद होते। साथ में हंसी-
मजाक और दिल्लगी का दौर भी चलता। इसलिए ये बैठकें कभी-कभी घंटों चलती
रहती- सभी स्वयंसेवक उसमें इतने रम जाते कि समय का किसी को ध्यान नहीं
रहता।
संघ के कार्य में बैठक शब्द एक नये अर्थ में स्वयंसेवकों में प्रचलित हुआ।
अनौपचारिक वार्तालाप और हास्य-विनोद से परस्पर मनों को जोड़ने वाली एक नयी
कार्यशैली विकसित हुई। इन बैठकों में डॉक्टरजी अनेक घटाओं केसन्दर्भ मे अपने
अनुभवों के साथ बड़े रोचक ढं ग से जानकारी प्रस्तुत करते- इसमें विनोद के साथ
ही अत्यंत सरल शब्दों में , राष्ट्रीय भावना के लिए पोषक मार्गदर्शन भी होता। तरह-
तरह के मानवी स्वभावों, अंतर्मन की भावना को प्रकट करने वाले रोचक उद्गारों,
शब्द प्रयोगों को लेकर प्रचलिक समाज की स्थिति को समझाने का प्रयास भी
होता। यह सब हं सी-विनोद के साथ चलता और इसलिए इन बैठकों के प्रति
स्वयंसेवकों का आकर्षण बढ़ने लगा। डॉक्टरजी के निवास स्थान पर भी नित्य
अधिकाधिक संख्या में ये बैठकें रात्रि के 9 - 9॥ से 12 बजे तक चलती रहती।
डॉक्टरजी ने इन बैठकों में स्वयंसवकों को खल
ु े दिल से अपनी बातें कहने की
आदत भी डाली। वार्तालाप का सूत्र टूटने न पाये, स्वंयसेवक अपना विचार व्यक्त
करते समय भटकने न लगें - विचार प्रकटन मे सस
ु ंगति बनी रहे - इसकी चिंता
डॉक्टरजी बड़ी कुशलता से करते। इन बैठकों में स्वंयसेवकों के गण
ु - अवगण
ु ों का
निरीक्षण भ्ज्ञी होता। बैठक में कौन कौन उपस्थित थे- किसने कौनसी शंका व्यक्त
की- उस पर कौन क्या बोले आदि सारे वार्तालाप की बारीकियों को ध्यान में रखा
जाता- इसके हरे क के स्वभाव, बोलने की शैली, विषय प्रतिपादन करने की कुशलता,
उसके कर्तृव्य और उसकी गुणसंपदा बढ़ाने के लिए क्या क्या आवश्यक है - आदि
बातों का निदान भी होने लगा।
स्वयंसेवकों और समाज के अन्य बांधवों के साथ प्रेम से , सीधे सरल शब्दों में किस
तरह बातचीत की जाए, अपने कार्य के प्रति उसकी सहानुभूति और अनुकूलता
अर्जित करने के लिए मित्रता कैसे सदृ
ु ढ़ की जाए, सामहि
ू क चिंतन और विचार-
विनिमय में अपने विचार किस तरह व्यक्त किए जाएं- ऐसी अनेक छोटी-छोटी
प्रतीत होने वाली किंतु संघ कार्य को मजबूती से खड़ा करने के लिए अत्यावश्यक
बातों का डॉक्टरजी बड़ा ध्यान रखते थे। जहां आवश्यक हो, वहीं वे मार्गदर्शन
करते। अपने मित्रों और सहयोगियों को परस्पर अनुकूल बनाने में उपयोगी सिध्द हो
सके ऐसी पध्दति से बैठकों में अथवा परस्पर वार्तालाप में बोलने की आदत
डॉक्टरजी ने स्वयंसेवकों में डाली। प्रत्येक स्वयंसेवक के मन में आस्थपर्व
ू क अपने
राष्ट्र की उन्नति के लिए संघ कार्य करने की इच्छा होती है । हरे क बोल-चाल की
शैली में भिन्नता स्वाभाविक है - यह जानते हुए प्रत्येक स्वयंसेवक के विचारों को
सुनने के आद सम्पूर्ण समाज और दे श के हित में वस्तुनिष्ठ विचारों का प्रतिपादन
और अंत में निष्कर्ष के रूप में सर्वानुमति से सबके सामने उल्लेख करना और जो
दोष दिखाई दें उनका उल्लेख सबके सामने न करते हुए सम्बन्धित व्यक्ति से
अकेले में बातचीत कर उस दोष को दरू करने का प्रयास करना- धीरे -धीरे यह
आदत सभी स्वयंसेवकों को हो गई। हरे क स्वयंसेवक का, स्वभाव वैचित्र्य के कारण
अभिव्यक्ति का ढं ग भी अलग होता है - यह होते हुए भी उन सभी में वैचारिक और
व्यावहारिक सामंजस्य प्रस्थापित करने की पध्दति से डॉक्टरजी ने हरे क स्वयंसेवक
के जीवन को एक नई दिशा दी। स्वयंसेवकों में भी सामंजस्य की यह आदत
विकसित होती गयी। परिणाम स्परूप नये -नये मित्रों से पहचान, उनके साथ
घनिष्ठता में वध्दि
ृ , उनके साथ सम्पर्क से संघ के विचारों और कार्य के प्रति
सहानभ
ु ति
ू और निकटता बढ़ाकर उन्हें संघ की शाखा में लाने का प्रयास होने लगा।
प्रारं भ में , प्रत्येक स्वयंसेवक के साथ डॉक्टरजी का सम्पर्क बना रहा। किन्तु जैसे -
जैसे कार्य बढ़ता गया वैसे केवल प्रमुख कार्यकर्ताओं से नित्य का संबंध और
व्यक्तिगत बातचीत में मार्गदर्शन करना ही डॉक्टरजी के लिए संभव हो पायां
संघ कार्य प्रारं भ होने पर, हरे क बैठक में डॉक्टरजी स्वयं सभी कार्यकर्ताओं के साथ
मिलकर संघ कार्य से सम्बन्धित सभी विषयों का चिंतन और विचार विनिमय
किया करते। उनके मन में संघ कार्य की पूर्ण रूपरे खा और कार्य विस्तार की पूर्ण
संकल्पना स्पष्ट रूप में थी। किंतु सारे कार्यकर्ता स्वयंसेवक तो किशोर युवक थे।
उनकी उम्र भी उस समय 12-14 वर्ष की रही होगी। फिर भी कार्य के सम्बन्ध में
विचार-विनिमय व सामूहिक चिंतन से सर्वसम्मति निर्णय लेने की कार्य पध्दति
इन कार्यकर्ताओं के बैठक में ही विकसित हुई। संबंधित सभी कार्यकर्ताओं के साथ
वार्तालाप होने के बाद ही सर्वसम्मत निर्णय लेना यह संघ की कार्य पध्दति का
अंग बन गया। आदे श दे ने वाला एक नेता और बाकी सारे अनुयायी अथवा विचार-
चिंतन निर्णय करने वाला केवल एक नेता और बाकी सारे उसकी आज्ञा का पालन
करने वाले- इस प्रकार की कार्य पध्दति डॉक्टरजी त्याज्य मानते थे। सबके साथ
खल
ु े वातावरण में मक्
ु त विचार विमर्श कर, सबके विचारों का यथोचित आदर करते
हुए वस्तुनिष्ठ और कार्य को प्रमुखता दे कर 'पंच परमेश्वर' की भावना से बैठक में
लिये गये निर्णय को शिरोधार्य मानकर सभी ने मन:पर्व ू क कार्य करने की पध्दति
संघ में विकसित हुई। इसी में से, हरे क की थोड़ी बहुत वैचारिक मत-भिन्नता के
बावजद
ू , सबके हृदयों को एक साथ जोड़ने- एक दिल से कार्य करने की तथा राष्ट्रीय
की भावना से ओत-प्रोत संघ शक्ति निर्माण करने वाला राजमार्ग प्रशस्त होता
गया।
संघ कार्य का शभु ारं भ कैसे हुआ? इसका आज जब हम विचार करते हैं तो कुछ
अटपटा, आश्चर्यजनक और असंभव सा लगता है । सत्तार वर्षों बाद संघ का कार्य
आज दे श-विदे श में फैला, विशाल रूप में दे खने को मिल रहा है । समाज जीवन के
सभी क्षेत्रों में संघ के विचारों से अनप्र
ु ाणित अनेक स्वायत्ता स्वतंत्र संस्थाएं
कार्यरत हैं। सभी क्षेत्रों के कार्यकर्ताओं में वैचारिक समन्वय प्रस्थापित करने की
योजना भी साकार की गई है । किंतु इस संघ कार्य का प्रारं भ बड़े विलक्षण झंग से
हुआ। प.ू डॉक्टरजी के घर की आर्थिक स्थिति बड़ी दयनीय थी। उनके बड़े बंधु
सीताराम पंत पौरोहित्य का कार्य करते थे। उसमें जो कुछ थोड़ी आय होती थी,
उससे घर-परिवार का खर्चा कैसे पूरा होता होगा, आज इसकी कल्पना मात्र हमें
बैचेन करती है । किन्तु संघ कार्य प्रारं भ करते समय एक नयी अखिल भारतीय
भव्य संघटना का विचार कार्यान्वित करते समय पू. डॉक्टरजी ने कभी रुपये-पैसे की
चंता नही की- उसी भांति कागज पेन्सिल, फाइलें आदि लेखन सामग्री का उपयोग
कर इस संगठन का नाम लिखकर कार्य का श्री गणेश नहीं किया। इस संगठन का
नाम क्या रहे गा, कौन इसके पदाधिकारी होंगे, हरे क को कौनसी जिम्मेदारी सौंपी है ,
उसका काम क्या रहे गा, उसे कौन से अधिकार प्राप्त हैं- आदि बातें कागज पर
लिखने का कभी प्रयास नहीं किया। अपने किशोर यव
ु ा स्वयंसेवकों के साथ
तन्मयता से लाठी-खेल आदि कार्यक्रम संघ स्थान पर करना और घर की बैठकों में
तथा शाखा छूटने के बाद संघ स्थान पर ही सभी स्वयंसेवकों से पूर्णतया समरस
होकर अनौपचारिक वार्तालाप चर्चा आदि के साथ ही इस संगठन का कार्य प्रारं भ
हुआ।
अपने संघ का नाम क्या हो, इस सम्बन्ध में , बैठकों में स्वयंसेवकों के साथ खल
ु े
मन से चर्चाएं प्रारं भ हुईं। हं सते खेलते चलनेवाली इन चर्चाओं में डॉक्टरजी ने
किशोर युवा स्वयंसेवकों को मौलिक विचारों के चिंतन हे तु प्रवत्ता किया। वे स्वयं
इन अनौपचारिक चर्चाओं का सूत्र संचालन करते और आवश्यकता पड़ने पर
मार्गदर्शन भी करते। बैठक में उपस्थित सभी स्वयंसेवकों को अपने संगठन का
नाम सुझाने और वह नाम क्यों उचित रहे गा- यह खल
ु े दिल से बताने की छूट थी।
एक स्वयंसेवक ने संगठन का नाम 'शिवाजी संघ' सुझाया और इस नाम के समर्थन
में उसने कहा कि छत्रपति शिवाजी महाराज ने जिस काल में स्वराज्य की स्थापना
की, उस समय जो परिस्थिति थी, वैसी ही परिस्थिति आज भी भारत में विद्यमान
है । शिवाजी ने जिस प्रकार स्वराज्य स्थापना का उपक्रम हाथों मे लिया, अपने कार्य
का स्वरूप भी वैसा ही है । भारत को स्वत्रंत करने के लिए हमें भी अथक परिश्रम
करने पड़ेंगे- इस कार्य में शिवाजी महाराज हमारे आदर्श हैं। इसलिए यही नाम
सर्वाधिक उचित रहे गा।
एक अन्य स्वयंसेवक ने 'जरीपटका मंडल' नाम सुझाया। इस नाम के समर्थन में
उस स्वयंवेक ने कहा कि यह सही है कि समर्थ रामदास स्वामी और छत्रपति
शिवाजी ने जल्
ु म ढहाने वाली बर्बर यावनी सत्ता को नष्ट कर स्वराज्य की
स्थापना की- यही कार्य हमें भी करना है । किंतु भारत के अन्य प्रांतों में भी परकीय
सत्ता को नष्ट करने के प्रयास हुए। महाराष्ट्र में समर्थ रामदास और छत्रपति
शिवाजी ने जो कार्य किया- वही कार्य पंजाब में गरु
ु गोविंदसिंगजी ने किया। अपना
कार्य दे शव्यापी होने के कारण केवल एक महान नेता का ही उल्लेख संघ के नाम
में करना उचित नहीं होगा। इसकी अपेक्षा उन्हें प्रेरणा दे ने वाले जिस जरीपटका-
ध्वज के प्रभाव से परकीय सत्ता नष्ट हुई- वह नाम उपयुक्त रहे गा- इस दृष्टि से
'जरीपटका मंडल' अच्छा है ।
एक और स्वयंसेवक ने 'हिन्द ू स्वयंसेवक संघ' -इस नाम को सर्वोत्ताम बताते हुए
कहा कि हमारा यह हिन्दओ
ु ं का संगठन है । इसमें अन्य धर्मीय नहीं आयेंगे। इस
कारण 'हिन्द ू स्वंयसेवक संघ' नाम से ही यक्ति
ु संगत होगा। इसके बाद श्री पा. कृ.
सावळापुरकर बोले, जो उस समय युवा विद्यार्थी थे। उन्होंने संगठन का नाम
'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' सुझाया और कहा कि हमारा कार्य राष्ट्रीय है । इस कार्य में ,
हमारा यह प्रयास है कि स्वयंप्रेरणा से, निरपेक्ष भावना से दे श कार्य करने वाले
कार्यकर्ता तैयार किए जाएं- इस कारण 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' ही सभी दृष्टि से
युक्ति संगत और उचित होगा।
इस बैठक में 26 स्वयंसेवक उपस्थित थे। अनेक स्वयंसेवकों ने इस विषय में अपने
विचार व्यक्त किये। उनमें से कुछ प्रमख
ु नामों का ही ऊपर उल्लेख किया है । चर्चा
के अंत में डॉक्टरजी बोले और उन्होंने कहा कि भारत में हिंद ू ही राष्ट्रीय है । इस
कारण हिन्द ू और राष्ट्रीय- दोनों शब्दों से एक ही अर्थ बोध होता है - दोनों समानार्थी
हैं। किंतु आज यह प्रचार हो रहा है कि भारत में रहने वाले सभी का यह राष्ट्र है ।-
एक प्रादे शिक राष्ट्रवाद की आत्मघाती कल्पना उभर रही है । इस प्रचार के कारण
भारत को अपनी पाव मातभ
ृ ूमि मानने वालों को और हमने यहां राज किया है ,
इसलिए भारत हमारा है - ऐसा मानने वाले स्वार्थी तत्वों को समान स्तर पर मानने
की प्रवत्ति
ृ उत्पन्न ् होती है । इससे राष्ट्र के लिए पोषक और विरोधी दोनों को ही
राष्ट्रीय मानने की गल्लत होगी। हमारा कार्य हिन्द ू समाज को संगठित करने का
है - हिन्दत्ु व यही राष्ट्रीयत्व है - यह हमारा आधारभत
ू विचार है । इसलिए संघ का
नाम 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' रखना सर्वथा उचित होगा और जहां तक विचारों के
प्रतिपादन का प्रश्न है , हम यही कहें गे कि संघ केवल हिन्द ु समाज को सुसंगठित
कर इतना बलशाली बनाना चाहता है कि भारत की ओर शत्रु की नजर से दे खने
की इच्छा जगत में किसी की न हो सके। भारत में रहने वाले अन्य धर्मीय दो-चार
पीढ़ियों के पूर्व तो हिन्द ू ही थे। उनके मन में राष्ट्रीयता की आधारभमि
ू मातभ
ृ ूमि
के प्रति भक्ति की भावना विद्यमान है । इस दृष्टिकोण को विकसित किये जाने
की आवश्यकता है । इसके पूर्व, हिन्द ू नाम से पहिचाने जाने वाले अपने हिन्द ू
समाज को सस
ु ंगठित और बलशाली बनाना हमारी प्रथम आवश्यकता है । सभी
लोगों के हृदय में विशुध्द राष्ट्र भाव प्रखरता से जागत
ृ करते समय पहले यह कार्य
हिन्द ू समाज में करना आवश्यक है । अन्य धर्मावलम्बियों के हम विरोधी नहीं है ।
संघ कार्य का यह राष्ट्रीय स्वरूप तथा तदनस
ु ार कार्यपध्दति 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ' इस नाम से ही समाज मेकं सामने रहना सर्वथा उचित रहे गा। डॉक्टरजी ने
बैठक केसमापन में उक्त आशय के विचार व्यक्त किये।
इतनी सीधी सरल और स्पष्ट भाषा में संघ कार्य की रूपरे खा प्रस्तत
ु करने वाला
डॉक्टरजी का उक्त भाषण सुनने के बाद सभी ने एकमत से संगठन का नाम
'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' निश्चित किया। नाम निश्चित करते समय हुए विचार
विनिमय मे मेरा भी सहभाग था इस भावना से स्वयंसेवकों में कार्य सम्बन्धी
चिन्तन करने का आत्मविश्वास भी बढ़ा। उन सभी में जिम्मेदारी की भावना भी
बढ़ी। वे डॉक्टरजी की विचार शैली को धीरे -धीरे आत्मसात करने लगे।
इस प्रकार 1926 के अप्रैल माह में रामनवमी के पर्व
ू , एक अभिनव पध्दति से संघ
का नामकरण हुआ और वह भी संघ शाखा शुरु होने के छह माह बाद! कार्य पहले
शुरु हुआ और नामकरण बाद में हुआ एक तरह से यह सष्टि
ृ के नियमानुसार ही
हुआ। जन्म होने के बाद ही शिशु का नामकरण होता है - संघ के बारे में भी यही
हुआ।
मोहिते संघ स्थान पर शाखा के कार्यक्रम शुरु होने के बाद अपना ध्वज कौन सा
रहे और कार्यक्रम के अंत में प्रार्थना कौनसी रहे , इस विषय में भी अनौपचारिक
बातचीत शुरु हुई। इस सम्बन्ध में हरे क स्वयंसेवक से कहा गया कि वे खल ु मन
से अपने विचार व्यक्त करें । पहले ध्वज के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किए
जाएं- ऐसा डॉक्टरजी ने सूचित किया। एक स्वयंसेवक ने अपने विचार प्रस्तत
ु करते
हुए कहा कि हमारे दे श के राष्ट्रीय जीवन में हिंद ू धर्म व हिन्द ु संस्कृति का आधार
ही केन्द्र बिन्द ु के रूप में प्रमख
ु विषय है । मठ-मंदिरों के कारण ही, भारत पर आज
तक हुए अनेक आक्रमणों- आघातों से हम सुरक्षित रह सके हैं। उनमें समय-समय
पर किये जाने वाले उद्बोधनों के कारण ही हिन्द ू समाज की अस्मिता कायम रह
सकी है । इसलिए मठ-मंदिरों पर फड़कने वाला लाल रं ग का त्रिकोणी ध्वज हमारे
लिए ठीक रहे गा। दस
ू रे स्वयंसेवक ने कहा- धर्म और संस्कृति के प्रति अभिमान के
साथ ही हमने भारत को विश्व में अजेय बनने योग्य, बलशाली बनाने का भी बीड़ा
उठाया है - इस कार्य में हम विजयी होंगे, ऐसी हमारी आकांक्षा भी है । विजय और
यशस्विता का रं ग धवल (शभ्र
ु ) होने के कारण क्या शभ्र
ु -सफेद रं ग का ध्वज हमारे
लिए उपयुक्त नहीं रहे गा? इस पर तीसरे स्वयंसेवक ने कहा कि महाराणा प्रताप को
केसरिया रं ग का ध्वज प्रिय था। साका और आत्मसमर्पण की तैयारी केसरिया वस्त्र
धारण कर ही होती थी। अपने कार्य में दे शधर्म के लिए सर्वस्व अर्पण का विचार
प्रमख
ु ता से रख जाता है । इस कारण केसरी रं ग का ध्वज ही सभी दृष्टि से
उपयोगी रहे गा। एक अन्य स्वयंसेवक ने भी इसी आशय का विचार व्यक्त करते
हुए कहा कि हिंदवी स्वराज्य की स्थापना के लिए किए गए प्रदीर्घ संघर्ष में
सफलता प्राप्त करने वाले छत्रपति शिवाजी महाराज का स्फूर्तिध्वज जरीपटका था।
उस समय ऊंचे लकड़ी के स्तम्भ पर बंधा हुआ लाल रं ग का पटका तथा वैभव की
आकांक्षा सचि
ू त करने वाला जरीपटका इस प्रकार जरीपटका यह स्वराज्य और
समध्दि
ृ का प्रतीक माना जाता था- वही जरी पटका हमारे लिए भी ठीक रहे गा। उस
समय हुई अनौपचारिक चर्चा में व्यक्त कुछ प्रमुख विचारों का ही उल्लेख यहां
किया है ।
डॉक्टरजी ने सबके विचार सुनने के बाद, सारे विचारों का समन्वय करते हुए कहा
कि भारत में आज तक, निरपेक्ष दे शभक्ति, शुध्दशील चारित्र्य, त्याग सफलता व
समर्पण भावना के प्रतीक के रूप में भगवा ध्वज ही रहा है । सूर्योदय के समय
आकाश को दीप्तिमान करने वाला स्वर्ण-गैरिक रं ग का यह भगवा ध्वज ही अपने
राष्ट्र का विजय केतु रहा है । महाभारत के युध्द में अर्जुन के सारथी बने कृष्ण के
रथ पर भी दो तिकानों वाला ध्वज ही था। हमें भी वही परम्परागत भगवा ध्वज
ही अपनाना चाहिए। शध्
ु द स्नेह का प्रतीक लाल रं ग , त्याग वत्ति
ृ और शध्
ु दता का
प्रतीक पीला रं ग और यश-सफलता का सूचक शुभ्र धवल रं ग- इन तीनों को एक
साथ मिलाकर बना केसरिया अथवा भगवा ध्वज ही संघ कार्य के लिए सर्वथा
योग्य रहे गा। वहां उपस्थित सभी स्वयंसेवकों ने डॉक्टरजी के इस विचार से अपनी
सहमति व्यक्त की और तब से भगवा ध्वज लगाकर शाखा शुरु करने की पध्दति
रूढ़ हुईं
संघ कर प्रार्थना भी इसी तरह स्वयंसेवकों से अनौपचारिक वार्तालाप से सनि
ु श्चित
हुई। प्रार्थना ऐसी होना चाहिए कि जिसमें अपने कार्य का वैचारिक अधिष्ठान,
अपना भावना और आकांक्षा संक्षेप में किन्तु स्पष्ट शब्दों में प्रकट होनी चाहिए।
प्रार्थना की भाषा सरल और सब लोग आसानी से समझ सकें , ऐसी होनी चाहिए।
इसी प्रकार सारे स्वयंसेवक उसे सामूहिक रूप से गा सकें, ऐसी उसकी तर्ज और
स्वर होने चाहिए। उन दिनों अनेक व्यायाम शालाओं में तथा सार्वजनिक कार्यक्रमों
में मराठी की एक प्रार्थना प्रचलित थी, जिसे अपनाने का सुझाव एक स्वयंसेवक ने
दिया। उस प्रार्थना की प्रारं भिक और अंतिम पंक्तियां इस प्रकार की थीं-
इस श्लोक के भाव सभी स्वयंसेवकों को भाये। वैसे भी यह श्लोक सरल हिंदी में
होने के कारण मराठी भाषी भी इसे आसानी से समझ सकेंगे। अपना कार्य आज
भले ही मराठी भाषी क्षेत्र में हो, हिंतु आगे चलकर वह सारे भारत में फैलेगा।
इसलिए यह हिंदी भाषा श्लोक सभी स्वयंसेवकों को उचित प्रतीत
हुआ।
प.ू डॉक्टरजी ने कहा यह कविता उत्ताम है किंतु इसमें एक दोष है , जो हमारे ध्यान
में आना चाहिए। इसमें यह जो पंक्ति है 'हमें दर्गु
ु णों से मुक्त कीजिए'- इसमें
दर्गु
ु णों से मुक्ति की अभावात्मकता भावना व्यक्त होती है और इसे दह
ु राते समय
दर्गु
ु णों संबंधी विचार ही मन में बना रहता है । यदि हम इस पंक्ति के स्थान पर
यह कहें - 'सद्गुणों से पूर्ण हिंद ू कीजिए' तो यह शब्द योजना अपने कार्य और
स्वयंसेवकों के लिए अधिक उपयोगी सिध्द होगी। हनुमानजी आदर्श स्वयंसेवक थे
साथ ही हिंद ू जीवन पध्दति के भी आदर्श होने के नाते यह आदर्श समाज के
सामने रहना आश्यक है । इसलिए यह प्रार्थना ठीक रहे गी। डॉक्टरजी की बात
सबको जंच गयी।
संघ के कार्य का स्वरूप समर्थ रामदास स्वामी द्वारा उनके कालखंड में किए गए
संगठन कार्य की भांति होन के कारण उनका नाम भी स्वयंसेवकों के सामने नित्य
रहना चाहिए। निकट भत
ू काल के राष्ट्रगरु
ु के रूप में सर्वत्र विशेषतया महाराष्ट्र की
जनता में उनके आदर भाव हैं। 'दासबोध' में व्यक्त उनके विचार संघ कार्य में
स्वयंसेवकों के लिए मार्गदर्शक हैं। अत: प्रार्थना के बाद स्वयंसेवक समर्थ रामदास
स्वामी को अभिवदन करें । एक स्वयंसेवक का यह सझ
ु ाव भी सबने स्वीकार किया।
जब तक संघ का कार्य मराठी भाषी प्रांत में है , तब तक समर्थ रामदास स्वामी के
विचार सभी के लिए प्रेरक सिध्द होंगे। जब संघ का कार्य महाराष्ट्र से बाहर अन्य
प्रांतों में फैलेगा तब राष्ट्र गरु
ु के नाते योग्य ऐसे गरु
ु गोविंद सिंह जैसे नाम भी
सामने आयेंगे- उनका विचार आगे चलकर किया जायेगा। फिलहाल राष्ट्र गुरु के
नाते समर्थ रामदास का उल्लेख करने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए- यह
सोचकर उक्त सझ
ु ाव स्वीकार कर लिया गया। इस कारण संघ के प्रारं भिक काल में
भारत माता व समर्थ रामदास स्वामी की जय-जयकार के साथ प्रार्थना के श्लोकों
का निम्नलिखित क्रम निश्चित हुआ-ध्वज तथा प्रार्थना संबंधी विचार करते समय
आज मन में यह प्रश्न उठ सकता है कि इन मल ू भतू विषयों के संबंध में इस
प्रकार स्वयंसेवकों के साथ अनौपचारिक वार्तालाप द्वारा निर्णय लिया जाना क्या
आवश्यक था? संघ कार्य की मूल धारणा, बुनियादी विचार, आकांक्षा व घोषणा की
पूर्ण कल्पना डॉक्टरजी को थी। इस संकल्पना को शामिल कर संस्कृत के किसी
जानकार व्यक्ति के द्वारा संस्कृत में प्रार्थना तैयार करवाना सहज संभव था। वे
यह भी जानते थे आगे चलकर जब संघ कार्य दे शव्यापी होगा जब संस्कृत भाषा में
प्रार्थना आवश्यक हो जायेगी। किंतु सारे स्वयंसेवकों के साथ विचार विमर्श कर,
उनकी सहमति से निर्णय लेने की कार्यशैली संघ में विकसित करने की डॉक्टरजी
की योजना थी। सामूहिक चिंतन से यथा संभव हरे क निर्णय लेने से , उस निर्णय में
अपनी सहभागिता के कारण उसे क्रियान्वित करने की जिम्मेदारी भावना भी
विकसित होती है - यह भावना स्वयंसेवकों में उत्पन्न हो सके, ऐसी कार्यशैली
डॉक्टरजी ने प्रारं भ से ही अपनायी और स्वयंसेवकों में भी उसकी आदत डाली।
नमो मातभ
ृ ूमि जिथे जन्मलो मी।
नमोआर्य भमि
ू जिथे वाढलो मी॥
नमो धर्म भूमि जियेच्यास कामी।
पडो दे ह माझा सदा ती नमी मी॥1॥
''हे गरु ों श्री रामदत
ू ा, शील हमको दीजिए।
शीर्घ सारे सद्गुणों से पूर्ण हिंद ू कीजिए॥
लीजिए हमको शरण में रामपंथी हम बनें।
ब्रह्मचारी धर्म रक्षक वीरव्रत धारी बनें॥2॥
ध्वज तथा प्रार्थना संबंधी विचार करते समय आज मन में यह प्रश्न उठ सकता है
कि इन मूलभूत विषयों के संबंध में इस प्रकार स्वयंसेवकों के साथ अनौपचारिक
वार्तालाप द्वारा निर्णय लिया जाना क्या आवश्यक था? संघ कार्य की मूल धारणा,
बुनियादी विचार, आकांक्षा व घोषणा की पूर्ण कल्पना डॉक्टरजी को थी। इस
संकल्पना को शामिल कर संस्कृत के किसी जानकार व्यक्ति के द्वारा संस्कृत में
प्रार्थना तैयार करवाना सहज संभव था। वे यह भी जानते थे आगे चलकर जब संघ
कार्य दे शव्यापी होगा जब संस्कृत भाषा में प्रार्थना आवश्यक हो जायेगी। किंतु सारे
स्वयंसेवकों के साथ विचार विमर्श कर, उनकी सहमति से निर्णय लेने की कार्यशैली
संघ में विकसित करने की डॉक्टरजी की योजना थी। सामूहिक चिंतन से यथा
संभव हरे क निर्णय लेने से, उस निर्णय में अपनी सहभागिता के कारण उसे
क्रियान्वित करने की जिम्मेदारी भावना भी विकसित होती है - यह भावना
स्वयंसेवकों में उत्पन्न हो सके, ऐसी कार्यशैली डॉक्टरजी ने प्रारं भ से ही अपनायी
और स्वयंसेवकों में भी उसकी आदत डाली।
भगवा ध्वज ही हमारा गुरु है और वही संघ के विचारों का प्रतीक होने से हमारा
आदर्श भी है । यह विचार बुध्दि और भावना से ग्रहण के बाद भी स्वयंसेवकों को
अपने व्यावहारिक जीवन में एक कठिनाई बची रहती। जिनकी ओर दे खकर उनके
जैसा अपना भी जीवन बने, ऐसे किसी महान पुरुष केजीवन का अध्ययन कर, अपने
जीवन में मार्गदर्शन प्राप्त करना आसान होता है । ऐसे किसी आदर्श महान व्यक्ति
के जीवन का अनस
ु रण करना उसके लिए आसान होता है । केवल सिध्दांतों का
चिंतन कर अथवा उसके प्रकट स्वरूप भगवा ध्वज के बारे में विचार कर अपने
जीवन का व्यवहार सुनिश्चित करना तो बड़ा कठिन कार्य है । अनेक स्वयंसेवकों के
मन में उठते इस प्रश्न की जानकारी डॉक्टरजी को मिली।
शाखा में भिन्न-भिन्न प्रकार के- दं ड, खड्ग, शूल, खेल, योग जैसे साहस और
आत्मविश्वास बढ़ाने वाले कार्यक्रम हुआ करते। अनुशासन का संस्कार दृढ़ करने के
लिए गणवेश पहिनकर समता, संचलन आदि कार्यक्रम करने की पध्दति थी। जैसे-
जैसे कार्य बढ़ने लगा- संघ शाखाओं की संख्या भी बढ़ने लगी। अनेक उपशाखाएं भी
प्रारं भ हुई। व्यवस्था की दृष्टि से प्रत्येक उपशाखा में कार्यवाह व मुख्यशिक्षक की
योजना की जाती। ऐसे कुछ कार्यकर्ता कर्तृत्ववान और अच्छे स्वयंसेवक ऐसे
सद्गुणी कार्यकर्ता की ओर आसानी से आकर्षित होते थे। यही कार्यकर्ता अधिकारी
हमारे लिए आदर्श हैं, ऐसी सुप्त भावना उनके मन में भी उत्पन्न होना
अस्वाभाविक नहीं था, किंतु क्या यह उचित है ? यह प्रश्न कुछ स्वयंसेवकों के मन
में उठा। स्वयंसेवकों से नित्य निकट सम्पर्क होने के कारण डॉक्टरजी को भी
इसकी भनक मिली। अनौपचारिक वार्तालाप में यह विचार प्रकट होने लगा।
यह बात स्वीकार करते हुए भी कि अपना यह स्वर्णगैरिक भगवा ध्वज ही हमारा
गुरु और आदर्श है , यदि कोई जीवित गण
ु सम्पन्न, कर्तृत्ववान व्यक्ति आदर्श के रूप
में सामने होतो क्या किशोर व छात्र स्वयंसेवकों को उसके अनुसार अपना जीवन
बनाना आसान नहीं होग फिर यह भी मान लिया तो ऐसा आदर्श कार्यकर्ता कैसे
खोजा जाए? यह प्रश्न बाकी रह जाता है । पूर्णतया निर्दोष तो संभवतया कोई नहीं
होगा। किसी उत्ताम स्वयंसेवक के केवल सद्गुणों के आधार पर ही उसे आदर्श
मानना क्या ठीक रहे गा? यदि इस ढं ग से सोचा गया तो शायद प्रत्येक स्वयंसेवक
को अपना अलग आदर्श स्वीकार करना होगा। किसी स्वयंसेवक द्वारा स्वीकृत
आदर्श दस
ू रे स्वयंसेवक द्वारा नकारे जाने की संभावना से इंकार नहीं किया जा
सकता। बजरं ल बली हनम
ु ान आदर्श स्वयंसेवक हैं। शाखा में प्रार्थना करते समय
अपने जीवन में शील आदि गुणों का विकास हो, इस हे तु हम हनुमानजी से ही
विनती करतेहैं। इस प्रकार डॉक्टरजी के साथ अनौपचारिक वार्तालापों में स्वयंसेवक
अपने मन में उठने वाले प्रश्न और विचार प्रकट करते थे। सभी स्वंयसेवकों के
लिए एक ही व्यक्ति आदर्श रहे , यह मानते हुए भी ऐसा व्यक्ति कौन हो सकता है ,
इसका निर्णय नहीं हो पा रहा था। एक स्वयंसेवक ने कहा पू. डॉक्टर हे डगेवार ही
हमारे आदर्श हैं। स्वयं के नाम का इस प्रकार भाव पर्ण
ू शब्दों में उल्लेख होते ही
डॉक्टरजी ने कहा, बस, बहुत चर्चा हो चुकी- हमें इस सम्बन्ध में आगे और भी
चिंतन करना होगा- उसे हम आराम से करें गे- जल्दी किस बात ही है ?
दस
ू रे दिन पन
ु : इस विचार को गति दे ने के लिए डॉक्टरजी ने कहा कोई भी जीवित
व्यक्ति आज कितना ही सद्गुण सम्पन्न और कर्तृत्ववान क्यों न हो, उसका जीवन
अभी पूर्ण नहीं हुआ है । मानलो, यदि ऐसे व्यक्ति के जीवन में आगे चलकर कोई
विकृति उत्पन्न हो जाए, उस व्यक्ति के बारे में आज तक अज्ञात किसी अवगुण
या दोष का पता चले तो उसक कार्यकर्ता को आदर्श मानने वाले स्वयंसेवक की
भावनाओं को कितना आघात पहुंचेगा और तब संघ पर से भी उसका विश्वास ढहने
लगेगा। व्यक्ति को स्खलनशील माना गया है । इसलिए किसी भी व्यक्ति को
अपना आदर्श मानना उचित नहीं होगा। हनुमानजी, श्रीरामचंद्र, श्रीकृष्ण तो सदै व
हमारे आदर्श हैं- वे भी इसलिए कि उन्होंने अपने जीवन में अद्भत
ु काय किये- वे तो
साक्षात ् ईश्वर के अवतार हैं- उनके लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं था। मनुष्य के
रूप में 'मानव-लीला' करने के लिए ही परमेश्वर ने उनके रूप में जन्म लिया था।
वैसा जीवन बनाने की कल्पना भी नहीं की सकती, क्योंकि हम उन्हें परमेश्वर-
स्वरूप ही मानते हैं। अपने जीवन में उनका आदर्श कैसे स्वीकार किया जाए यह
विचार अपने मन में उठता है । इसलिए अपने निकट भत ू काल में हुए किसी श्रेष्ठ
व्यक्ति का अदार्श के रूप में हमें विचार करना चाहिए। ऐसे महान व्यक्ति का पूर्ण
विकसित जीवन-पुष्य अपने परिचय का होने के कारण वह जीवन हमारे सामने
आदर्श के रूप में रह सकता है । ऐसे ऐतिहासिक श्रेष्ठ परु
ु ष का विचार करते समय
हमें सहज ही छत्रपति शिवाजी महाराज का स्मरण हो आता है । उनके जीवन का
प्रत्येक व्यवहार हमारे लिए आदर्श है । इस कारण हरे क स्वयंसेवक को छत्रपति
शिवाजी महाराज का आदर्श ही अपने सामने रखना चाहिए। समर्थ रामदास स्वामी
ने संभाजी के नाम प्रेषित पत्र में उन्हें अपने पिता स्वरूप जीवन जीने का परामर्श
दिया जिन शब्दों में समर्थ रामदास स्वामी ने छत्रपति शिवाजी के प्रति अपनी
भावनाएं प्रकट कीं, उनसे हम सभी परिचित हैं। वे शब्द इस प्रकार के थे-
अच्छे ढं ग से चलने वाली शाखा कैसी हो, इस बारे में भी स्वयंसेवकों के साथ
अनौपचारिक वार्तालापों में विषय स्पष्ट होता गया। नित्य समय पर लगने वाली,
जिसमें स्वयंसेवकों के बीच परस्पर आत्मीयता के संबंध हों, एक दस
ू रे के सुख-द:ु खों
में समरस होने की भावना हो, हिन्द ु समाज के सभी स्तर के लोगों से निकट
सम्पर्क बनाकर उन्हें शाखा में लाने का उपक्रम हो, शाखा के कार्यक्रमों में ,
स्वयंसेवकों के जीवन में अनश
ु ासन परिलक्षित हो- इत्यादि विशेषताएं उत्ताम शाखा
के सन्दर्भ में प्रकट की गई। ऐसी उत्ताम शाखा खड़ी करने के दिशा में प्रयास भी
आरं भ हुए।
संघ कार्य में हरे क बात का विचार करते समय, प.ू डॉक्टरजी ने सम्बन्धित
स्वयंसेवकों के साथ विचार-विनिमय कर सबके सहयोग से कार्य का स्वरूप और
कार्यवाही सुनिश्चित करने की पध्दति प्रारं भ से ही प्रचलित की। किसी भी कार्यक्रम
का आयोजन करने से पर्व
ू अनौपचारिक वार्तालाप से सर्वस्पर्शी, सर्वांगीण विचार
हुआ करता। कार्य का ब्यौरा तय करते समय भिन्न-भिन्न काम का दायित्व भी
अलग-अलग स्वयंसेवक के जिम्मे सौंपा जाता- सम्बन्धित स्वयंसेवक के गण
ु ों के
संवर्धन और विकास का परू ा अवसर दिया जाने पर ध्यान दिया जाता। उदाहरणार्थ,
यदि शिविर का आयोजन करना हो तो उचित स्थान की खोज करना, वहां रहने-
खाने-पीने आदि की व्यवस्था करना, प्रकाश, साफ-सफाई, सामान लाने व स्वयंसेवकों
के आने-जाने के लिए यथोचित व्यवस्था, शिविर के कार्यक्रमों की निर्दोष रचना,
शिविर काल में वहां चिकित्सा सुविधा, शारीरिक-बौध्दिक- मनोरं जन आदि कार्यक्रमों
का नियोजन- ऐसे हर काम के लिए सुयोग्य स्वयंसेवक पर जिम्मेदारी सौंपना- आदि
सारी बातें स्वयंवेसेवक अपना दायित्व समझकर मन:पूर्वक अच्छे ढं ग से निभाने
का प्रयत्न करता। इससे कोई भी कार्यक्रम, चाहे वह कितना भी भव्य क्यों न हो,
सब मिलकर, परस्पर सहयोग और प्रयत्नों से अपने-अपने जिम्मे जो काम होता,
उसे अच्छे ढं ग से निभाने और कार्यक्रम को सफल बनाने का अनोखा समाधान हर
स्वयंसेवक को होता। इस प्रकार संघ में हर कार्यक्रम के र्पू नियोजन हे तु सामूहिक
चिंतन और सामूहिक प्रयास की पध्दति हुई। प्रारं भ
इस प्रकार का कोई कार्यक्रम समाप्त होने पर, सब मिलकर इस बात का विचार
करते कि कार्यक्रम नियोजित योजनानुसार सम्पन्न हुआ या कहीं कोई दोष, त्रटि
ु या
कमी तो नहीं रह गई। जिस विभाग में काम करते समय कोई कठिनाई आयी
होगी, उसका पता लगाकर अगली बार, पहले से ही उसका ध्यान रखा जाता।
कार्यक्रम पर जो खर्च हुआ होगा- प्रत्येक पैसे का पाई-पाई हिसाब लिखकर रखने
की आदत भी डॉक्टरजी ने स्वयंसेवकों में डाली। कहां अनपेक्षित ढं ग से खर्च करना
पड़ा, कहां कौनसी अकल्पित कठिनाई का सामना करना पड़ा- उसे किस तरह से दरू
किया जा सकता था- आदि सब बातों का विचार किया जाता। इस पध्दति से हर
कार्यक्रम उत्तारोत्तार निर्दोष और प्रभावी ढं ग से होने लगे।
प.ू डॉक्टरजी द्वारा उन दिनों प्रचलित की गई पध्दतियों का आज जब हम विचार
करते हैं, तो कभी-कभी ऐसा लगता है कि हर काम में , चाहे वह कितना ही छोटा या
बड़ा हो, चाहे व अत्यन्त मामल
ू ी क्यों न हो, डॉक्टरजी द्वारा स्वयं ध्यान दे ने तथा
सभी सम्बन्धित स्वयंसेवकों के साथ ् सामूहिक चर्चा करने की क्या वास्तव में
आवश्यकता थी? किन्तु प्रारं भिक काल में ही हर कार्यक्रम सबके सहयोग से सफल
बनाने की यह पध्दति कितनी महत्वपूर्ण हैं, इसका अनभ
ु व आज भी हमें होता है ।
हाल के वर्षों में , अपने ज्येष्ठ स्वयंसेवकों ने एकात्मता रथ यात्रा का आयोजन
किया था। मानसरोवर और गंगोत्री जैसे उद्गम स्थलों से सिन्धु और गंगा का जल
एकत्र कर- दक्षिणी छोर पर रामेश्वर और कन्याकुमारी में स्थित मंदिरों में उस जल
से अभिषेक और इधर पूर्व में परशुराम कंु ड के जल से पश्चिमी तट पर स्थित
सोमनाथ मंदिर में अभिषेक करने का संकल्प लेकर दो विशाल रथ-यात्राओं का
अभूतपूर्व आयोजन किया गया। ये दोनों रथ यात्राएं सम्पूर्ण भारत में सर्वत्र चर्चा
और कौतुहल का विषय बनीं थी। उत्तार-दक्षिण और पूर्व-पश्चिम जाने वाली इन
दोनों राि यात्राओं का, निर्धारित दिन, निश्चित समय पर नागपरु में संगम हुआ।
हजारों किलोमीटर की दरू ी तय करने वाली इन रथ यात्राओं में , स्थान-स्थान पर
स्वागत, भाषणों आदि के सारे कार्यक्रम पूर्व निर्धारित समय और स्थान पर
सफलतापर्व
ू क सम्पन्न हुए- इसमें संघ मे स्वयंसेवकों को स्थानीय जनता का भी
अभूतपूर्व सहयोग प्राप्त हुआ। यह कार्यक्रम विश्व हिंद ू परिषद ने आयोजित किया
था। इस पर सरकार क प्रतिक्रिया बहुत अर्थ रखती है - उस समय के अखिल
भारतीय ख्याति के एक अंग्रेजी दै निक में इन रथ यात्राओं के बारे में प्रकाशित
हुआ- ''the progrmme was excuted with Military precision.'' संघ के शिविर अथवा
शाखा के अन्य कार्यक्रमों को, पर्व
ू नियोजन और सबके सहयोग से सफल बनाने की
डॉक्टरजी द्वारा प्रचलित कार्य पध्दति केद्वारा ही यह संभव हो सका।
इस पध्दति के सुपरिणाम भी आज हमें दिखाई दे ते हैं। प्रत्येक कार्यक्रम के सभी
अंगों का बारीकी से ध्यान रखकर, अपनी-अपनी क्षमता और विशेष गण
ु ों का पर्ण
ू
उपयोग करते हुए परस्पर-पूरक 'टीम-वर्क ' की भावना से, उसक सफल बनाने की
आदत स्वयंसेवकों में निर्माण हुई। इससे बड़े से बड़े कार्यक्रम भी आसानी से और
अच्छे ढं ग से सम्पन्न होते। सबने मिलकर कार्य के हित हो ध्यान में रखते हुए
वस्तुनिष्ठ विचार कर योजना तैयार की- इसलिए कार्यक्रम की सफलता का श्रेय भी
सभी स्वयंसेवकों को मिलता- अगर कहीं कोई त्रटि
ु रह गई हो तो अगली बार न
रहने पाये, इसका भी सब मिलकर विचार करते। किसी की भल
ू को सब मिलकर
खुशी से स्वीकार करते और दब
ु ारा वह भूल न होने पाये, इसका निश्चय करते।
गुण-दोषों से युक्त स्वयंसेवकों के सामूहिक चिंतन और मिलकर कार्य करने की
इस पध्दति से दोष-रहित कार्य खड़ा करने की परम्परा चल पड़ी। इससे स्वयंसेवकों
के गुणों में निरं तर वध्दि
ृ और दोष क्रमश: दरू होने लगे। स्वयंसवकों का दृष्टिकोण
व्यापक बनने लगा। एक-हृदय से काम करने वाले स्वयंसेवकों की टीम दे खकर
लोगों का उनके प्रति और संघ के प्रति विश्वास दृढ़ होने लगा। व्यक्तिश:
स्वयंसेवकों को प्रति भी समाज में विश्वासार्हता बढ़ने लगी।
16. प्रचारक
प्रारं भिक कुछ वर्षों तक संघ में यह 'प्रचारक' शब्द परिचित नहीं था। केवल संघ
कार्य का ही अहोरत्रचिंतन रिने वाले डॉक्टरजी ही एकमात्र स्वयंसेवक थे। अधिकांश
शालेय छात्र किशोर स्वयंसेवक अपने घरों में रहते और कार्यक्रम अथवा बैठक के
समय एकत्र आते थे। आयु में कुछ बड़े स्वयंसेवकों में , बाबासाहब आपटे नागपुर की
एक बीमा कम्पनी के कार्यालय में टं कलेखक थे। श्री दादाराव परमार्थ ने शालांत
परीक्षा उत्ताीर्ण करने के अनेक प्रयास कि किन्तु गणित जैसे 'भयानक' विषय के
कारण असफल होकर, उसके पीछे लगे रहने की बजाय वे अधिकाधिक समय दे कर
संघ कार्य करनेलगे। उनकी ओजपर्ण
ू भाषण शैली तथा अंग्रेजी भाषा पर प्रभत्ु व के
कारण, संघ कार्य करते समय उन्हें कभी भी विद्यालयीन अथवा महाविद्यालयीन
उपाधियों की कमी महसूस नहीं हुई। इस समय संघ का कार्य नागपुर के बाहर भी
पहुंच चक
ु ा था- विदर्भ के वर्धा-भंडारा आदि जिलों में संघ की शाखाएं खल
ु गई थी।
वहां की शाखाओं का संचालन स्थानीय कार्यकर्ता ही किया करते थें
भिन्न भिन्न गांवों में संघ की शाखाएं खुलने के दौर में उन सभी शाखाओं के कार्य
में एकसत्र
ू ता लाने की दृष्टि से प्रवास करने वाले कार्यकर्ताओं की आवश्यकता
प्रतीत होने लगी। हर स्थान पर, चार-छह दिन रहकर, वहां के स्वयंसेवकों के साथ
विचार-विनिमय कर उन्हें संघ कार्य से, दृढ़ता से जोड़ने तथा अपने दै नंदिन जीवन
में संघ कार्य के लिए अधिकाधिक समय दे ने हे तु कार्य-प्रवण करने की आवश्यकता
भी महसस
ू होने लगी। शुरु-शुरु में डॉक्टरजी अकेले ही प्रवास किया करते। उत्सव
प्रसंगों पर अन्य कार्यकर्ता भी जाते थे। ज्येष्ठ कार्यकर्ताओं को अपने उद्योग
व्यवसाय से अवकाश लेकर कुछ दिनों का प्रवास करना ही संभव होता। जिन गांवों
में पू. डॉक्टरजी के परिचित अथवा मित्र आदि रहते थे, वहां कार्य प्रारं भ करना
आसान होता। किंतु जहां एकाध व्यक्ति ही परिचित होता वहां शाखा प्रारं भ कर
संघकार्य स्थायी रूप से संचालित होने तक, बाहर के ही किसी कार्यकर्ता को प्रत्यक्ष
वहां रहकर काम करना आवश्यक होता।
शालेय छात्र स्वयंसेवक कार्यकर्ताओं को, वार्षिक परीक्षा के पश्चात ग्रीष्मकालीन
छुट्टियों में , 4-6 सप्ताह तक विदर्भ और महाकोशल क्षेत्र में जाकर संघ की नयी
शाखाएं खोलने की आवश्यकता डॉक्टरजी द्वारा व्यक्त किये जाने पर उस दिशा में
विचार प्रारं भ हुआ। कुछ कार्यकर्ताओं ने इस दृष्टि से आपनी तैयारी भी दर्शायी।
बाहर जाकर कार्य करने वाले ऐसे स्वयंसेवकों को 'विस्तारक' कहा जाता। प्रतिवर्ष
ऐसे 'विस्तारक' कार्यकर्ता ग्रीष्मकालीन छुट्टियों में अन्यतत्र जाकर संघ कार्य का
विस्तार करने लगे- नयी शाखाओं की संख्या बढ़ने लगी। डॉक्टरजी के साथ
वार्तालाप में विस्तारकों तथा पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की आवश्यकता स्वयंसेवकों
को भी अनभ
ु व होने लगी। बाहर गांव से डॉक्टरजी के नाम आये, उनके मित्रों के
पत्रों को स्वयंसेवकों की बैठकों में पढ़ा जाता। इन पत्रों में लिखा होता- ''हमारे गांव
में संघ की शाखा शुरु की जा सकती है । कृपया किसी योग्य कार्यकर्ता को भेजिए।
उसके निवास और भोजन आदि की व्यवस्था यहां की जायेगी।'' श्री दादाराव
परमार्थ, श्री बाबासाहे ब आपटे , श्री रामभाऊ जामगड़े व श्री गोपाळराव येरकंु टवार
आदि ज्येष्ठ कार्यकर्ताओं ने, अपने व्यक्तिगत जीवन की आशा- आकांक्षाओं को एक
ओर रखकर, संघ कार्य के लिए प्रवास पर जाने की सिध्दता दर्शायी। 1932 के
उत्तारार्ध में , डॉक्टरजी ने इन कार्यकर्ताओं को पूर्णकालिक कार्यकर्ता के रूप में
अन्यत्र भेजने की योजना बनाई। संघ कार्य के इस प्रकार होने वाले विस्तार में ,
डॉक्टरजी को, कभी किसी स्वयंसेवक को इस प्रकार का आदे श दे ते किसी ने नहीं
सुना कि 'तम
ु अपने व्यक्तिगत जीवन की चिंता छोड़कर पूर्ण कालिक कार्यकर्ता
बनकर संघ कार्यार्थ निकलो।' डॉक्टरजी का स्वयं का जीवन संघ से एकरूप हो गया
था। उनके सहवास और वार्तालाप से संघ कार्य के असाधारण महत्व तथा उसके
लिए अपना जीवन समर्पित करने की प्रेरणा ग्रहण कर स्वयंसेवक जब स्वयं अपनी
सिध्दता डॉक्टरजी के सामने व्यक्त करते तभी डॉक्टरजी उस कार्यकर्ता की उस
प्रकार की योजना करते। इस प्रकार श्री दादाराव परमार्थ को पुणे, श्री गोपाळराव
येरकंु टवार को सांगली (महाराष्ट्र) ओर श्री रामभाऊ जामगडे को यवतमाल (विदर्भ)
में पर्ण
ू कालिक संघ कार्यकर्ता के रूप में भेजने की योजना बनी। इन सभी
पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं को सभी स्वयंसेवकों की उपस्थिति में पू. डॉक्टाजी ने
भावपूर्ण शब्दों में विदाई दी। इस प्रकार के कार्यकर्ताओ को 'प्रचारक' के नाम से
अन्यत्र भेजने की पध्दति संघ में शुरु हुई।
संघ कार्य में वध्दि
ृ की गति बढ़ने लगी। 1937 के आरं भ में विदर्भ व महाराष्ट्र के
प्रमख
ु स्थानों पर, महाकोशल के 4-6 स्थानों पर तथा उत्तार प्रदे श के बनारस में
ु ी थी। किंतु पंजाब, दिल्ली उत्तार प्रदे श के अन्य प्रमख
संघ की शाखाएं शुरु हो चक ु
शहरों में संघ का कार्य शुरु करने की आवश्यकता अनभ
ु व होने लगी। इस कारण,
नागपुर के स्वयंसेवकों में से जिन्हें इन प्रांतों के प्रमुख स्थानों पर जाना संभव हो,
उन्हें उच्च शिक्षा के लिए वहां के महाविद्यालयों में प्रवेश लेना चाहिए और वहां
शिक्षा ग्रहण कर साथ-साथ संघ की शाखाएं खोलने का प्रयास करना चाहिए।
वार्तालाप में डॉक्टरजी द्वारा यह विचार व्यक्त किये जाने पर, योजनापूर्वक 1937
के जुलाई माह में श्री भाऊराव दे वरस को B.Com o Law करने के लिए लखनऊ, श्री
कृष्णा जोशी को महाविद्यालयीन शिक्षा ग्रहण करने सियालकोट (पंजाब), श्री
दिगम्बर पातुरकर को लाहौर (पं. पंजाब), श्री मारे श्वर मज
ुं को उच्च शिक्षा प्राप्त
करने रावलपिंडी में शिक्षा ग्रहण के साथ साथ संघ कार्य हे तु भेजा गया। इसी
प्रकार अपनी महाविद्यालयीन शिक्षा नागपरु में समाप्त करने के बाद श्री वसंतराव
ओक को दिल्ली, श्री बापूराव दिवाकर, श्री नरहरि पारखी और मुकंु दराव मुंजे को
बिहार के पटना, दानापरु और मंग
ु ेर में प्रचारक के रूप में डॉक्टरजी ने भेजा। श्री
नारायण तटें को प्रचारक के रूप में ग्वालियर भेजा गया। 1938 में श्री एकनाथ
रानडे M.A. होने के बाद प्रचारक के रूप में महाकोशल के जबलपुर में गयो- उनके
साथ प्रल्हादराव आम्बेकर भी गये। 1939 में श्री विठ्ठलराव पत्की को प्रचारक के रूप
में , कलकत्ता भेजा गया। श्री जनार्दन चिंचाळकर की नियुक्ति मद्रास में की गयी।
इन सभी पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं को प्रचारक नाम से संबंधित किया जाने लगा।
इस प्रकार संघ के कार्य में 'प्रचारक' शब्द रूढ़
हुआ।
किसी प्रकार का आदे श नहीं, बल्कि स्वयं अपनी इच्छा से, अपने व्यक्तिगत जीवन
की चिंता न करते हुए संघ कार्य हे तु प्रचारक निकलने की पध्दति स्वयंसेवकों में
अपने आप विकसित होने लगी- यह बात आज आश्यचर्यजनक प्रतीत होती है ,
क्योंकि प्रचारक बनकर जाने का आदे श कभी डॉक्टरजी ने किसी को नहीं दिया।
इसके विपरीत जब कोई स्वयंसेवक प्रचारक के रूप में कार्य करने की सिध्दता
प्रकट करता तो डॉक्टरजी पहले उसके घर की परिस्थिति और कार्य सम्बन्धी उसके
दृढ़ निश्चय के बारे में विस्तारपूर्वक चर्चा करने के बाद ही उसके बारे में निर्णय
लेते। डॉक्टरजी के सहवास और वार्तालाप में विभिन्न स्थानों से 'कार्य शुरु करने
हे तु प्रचारक भेजिये'- इस आशय के आने वाले पत्रों के वाचन के बाद होने वाली
चर्चा से स्वयंसवकों में संघ कार्यार्थ सर्वस्य अर्पण करने की तीव्र भावना अपने
आप उत्पन्न होती और स्वयंसेवकों के मन में संघ कार्य के लिए अधिकाधिक
समय दे ने की प्रेरणा जागती। अपने जीवन में करने योग्य सर्वश्रेष्ठ कार्य केवल
संघ कार्य ही है , यह अनभ
ु ूति स्वयंसेवकों को होने लगी। अपना जीवन पुष्प केवल
संघ कार्य करते हुए अपनी मातभ ृ ूमि के चरणों में समर्पित करने में ही जीवन की
सार्थकता है - यह भावना स्वयंसेवक के हृदय में प्रबल होते ही, वह स्वयंसेवक
प्रचारक के रूप में निकलने की सिध्दता स्वयं डॉक्टरजी के समक्ष व्यक्त करता।