You are on page 1of 11

पुनीत पाण्डे

ज्योतिष सीखने की इच्छा अधिकतर लोगों में होती है । लेकिन उनके सामने समस्या यह होती है कि
ज्योतिष की शुरूआत कहाँ से की जाये?

कुछ जिज्ञासु मेहनत करके किसी ज्यातिषी को पढ़ाने के लिये राज़ी तो कर लेते हैं, लेकिन गरू
ु जी कुछ इस
तरह ज्योतिष पढ़ाते हैं कि जिज्ञासु ज्योतिष सीखने की बजाय भाग खड़े होते हैं। बहुत से पढ़ाने वाले
ज्योतिष की शरु
ु आत कुण्डली-निर्माण से करते हैं। ज़्यादातर जिज्ञासु कुण्डली-निर्माण की गणित से ही
घबरा जाते हैं। वहीं बचे-खच
ु े “भयात/भभोत” जैसे मश्कि
ु ल शब्द सन
ु कर भाग खड़े होते हैं।

अगर कुछ छोटी-छोटी बातों पर ग़ौर किया जाए, तो आसानी से ज्योतिष की गहराइयों में उतरा जा सकता
है । ज्योतिष सीखने के इच्छुक नये विद्यार्थियों को कुछ बातें ध्यान में रखनी चाहिए-

1. शुरूआत में थोड़ा-थोड़ा पढ़ें ।


2. जब तक पहला पाठ समझ में न आये, दस
ू रे पाठ या पुस्तक पर न जायें।
3. जो कुछ भी पढ़ें , उसे आत्मसात कर लें।
4. बिना गुरू-आज्ञा या मार्गदर्शक की सलाह के अन्य ज्योतिष पुस्तकें न पढ़ें ।
5. शुरूआती दौर में कुण्डली-निर्माण की ओर ध्यान न लगायें, बल्कि कुण्डली के विश्लेषण पर ध्यान
दें ।
6. शुरूआती दौर में अपने मित्रों और रिश्तेदारों से कुण्डलियाँ मांगे, उनका विश्लेषण करें ।
7. जहाँ तक हो सके हिन्दी के साथ-साथ ज्योतिष की अंग्रेज़ी की शब्दावली को भी समझें।

अगर ज्योतिष सीखने के इच्छुक लोग उपर्युक्त बिन्दओ


ु ं को ध्यान में रखेंगे, तो वे जल्दी ही इस विषय पर
अच्छी पकड़ बना सकते हैं।

जय
्‍ ोतिष के मुखय
्‍ दो विभाग हैं - गणित और फलित। गणित के अन्दर मुखय
्‍ रूप से जनम
्‍ कुणड्‍ ली
बनाना आता है । इसमें समय और सथ
्‍ ान के हिसाब से ग्रहों की स्थिति की गणना की जाती है । दस
ू री ओर,
फलित विभाग में उन गणनाओं के आधार पर भविषय
्‍ फल बताया जाता है । इस शंख
ृ ला में हम जय
्‍ ो‍तिष के
गणित वाले हिस्से की चर्चा बाद में करें गे और पहले फलित जय
्‍ ोतिष पर ध्यान लगाएंगे। किसी बच्चे के
जन्म के समय अन्तरिक्ष में ग्रहों की स्थिति का एक नक्शा बनाकर रख लिया जाता है इस नक्शे केा जन्म
कुण्डली कहते हैं। आजकल बाज़ार में बहुत-से कमप्‍ य
्‍ ूटर सॉफ़्टवेयर उपलबध
्‍ हैं और उनह्‍ े जनम
्‍ कुणड्‍ ली
निर्माण और अनय
्‍ गणनाओं के लिए प्रयोग किया जा सकता है ।
पूरी जय
्‍ ोतिष नौ ग्रहों, बारह राशियों, सत्ताईस नक्षत्रों और बारह भावों पर टिकी हुई है । सारे भविषय
्‍ फल
का मल
ू आधार इनका आपस में संयोग है । नौ ग्रह इस प्रकार हैं -
ग्रह अनय
्‍ नाम अंग्रेजी नाम

सूर्य रवि सन

चंद्र सोम मून

मंगल कुज मार्स

बुध मरकरी

गुरू बहृ सप्‍ ति जय


्‍ ूपिटर

शुक्र भार्गव वीनस

शनि मंद सैटर्न

राहु नॉर्थ नोड

केतु साउथ नोड

आधनि
ु क खगोल विज्ञान (एसट्र्‍ ोनॉमी) के हिसाब से सर्य
ू तारा और चनद्र्‍ मा उपग्रह है , लेकिन भारतीय
जय
्‍ ोतिष में इनह्‍ ें ग्रहों में शामिल किया गया है । राहु और केतु गणितीय बिनद्‍ ु मात्र हैं और इनह्‍ ें भी
भारतीय जय
्‍ ोतिष में ग्रह का दर्जा हासिल है ।

भारतीय जय
्‍ ोतिष पथ
ृ व्‍ ी को केन्द्र में मानकर चलती है । राशिचक्र वह वत्ृ त है जिसपर नौ ग्रह घूमते हुए
मालूम होते हैं। इस राशिचक्र को अगर बारह भागों में बांटा जाये, तो हर एक भाग को एक राशि कहते हैं।
इन बारह राशियों के नाम हैं- मेष, वष
ृ भ, मिथुन, कर्क , सिंह, कनय
्‍ ा, तल
ु ा, वश्चि
ृ क, धनु, मकर, कंु भ और
मीन। इसी तरह जब राशिचक्र को सतत
्‍ ाईस भागों में बांटा जाता है , तब हर एक भाग को नक्षत्र कहते हैं।
हम नक्षत्रों की चर्चा आने वाले समय में करें गे।

एक वत्ृ त को गणित में 360 कलाओं (डिग्री) में बाँटा जाता है । इसलिए एक राशि, जो राशिचक्र का बारहवाँ
भाग है , 30 कलाओं की हुई। फ़िलहाल ज़्यादा गणित में जाने की बजाय बस इतना जानना काफी होगा कि
हर राशि 30 कलाओं की होती है ।

हर राशि का मालिक एक ग्रह होता है जो इस प्रकार हैं -


राशि अंग्रेजी नाम मालिक ग्रह

मेष एरीज़ मंगल


वष
ृ भ टॉरस शुक्र

मिथुन जैमिनी बुध

कर्क कैं सर चन्द्र

सिंह लियो सर्य



कन्या वरगो बध

तल
ु ा लिबरा शुक्र

वश्चि
ृ क स्कॉर्पियो मंगल

धनु सैजीटे रियस गुरू

मकर कैप्रीकॉर्न शनि

कुम्भ एक्वेरियस शनि

मीन पाइसेज़ गरू



आज का लेख बस यहीं तक। लेख के अगले क्रम में जानेंगे कि राशि व ग्रहों के क् ‍या सव्‍ ाभाव हैं और उन्हें
भविषय
्‍ कथन के लिए कैसे उपयोग किया जा सकता है ।

पिछली बार (ज‍योतिष


् सीखें भाग-1) हमनें राशि, ग्रह, एवं राशि सव्‍ ामियों के बारे में जाना। वह अतय
्‍ नत
्‍
ही महतव्‍ पर्ण
ू सचू ना थी और उसे कणठ्‍ सथ
्‍ करने की कोशिश करें । इस बार हम ग्रह एवं राशियों के कुछ
वर्गीकरण को जानेंगे जो कि फलित जय
्‍ ोतिष के लिए अतय
्‍ नत
्‍ ही महतव्‍ पर्ण
ू हैं। पहला वर्गीकरण शभ

ग्रह और पाप ग्रह का इस प्रकार है -

शभ
ु ग्रह: चन्द्रमा, बुध, शुक्र, गुरू हैं

पापी ग्रह: सर्य


ू , मंगल, शनि, राहु, केतु हैं

साधारणत चनद्र्‍ एवं बुध को सदै व ही शभ


ु नहीं गिना जाता। पूर्ण चनद्र्‍ अर्थात पूर्णिमा के पास का चनद्र्‍
शभ
ु एवं अमावसय
्‍ ा के पास का चनद्र्‍ शभ
ु नहीं गिना जाता। इसी प्रकार बुध अगर शभ
ु ग्रह के साथ हो तो
शभ
ु होता है और यदि पापी ग्रह के साथ हो तो पापी हो जाता है ।
यह धय
्‍ ान रखने वाली बात है कि सभी पापी ग्रह सदै व ही बुरा फल नहीं दे ते। न ही सभी शभ
ु ग्रह सदै व ही
शभ
ु फल दे ते हैं। अचछ
्‍ ा या बरु ा फल कई अनय
्‍ बातों जैसे ग्रह का सव्‍ ामितव्‍ , ग्रह की राशि स्थिति,
दृष्टियों इतय
्‍ ादि पर भी निर्भर करता है जिसकी चर्चा हम आगे करें गे।

जैसा कि उपर कहा गया एक ग्रह का अचछ


्‍ ा या बुरा फल कई अनय
्‍ बातों पर निर्भर करता है और उनमें से
एक है ग्रह की राशि में स्थिति। कोई भी ग्रह सामानय
्‍ त अपनी उचच
्‍ राशि, मित्र राशि, एवं खुद की राशि में
अचछ
्‍ ा फल दे ते हैं। इसके विपरीत ग्रह अपनी नीच राशि और शत्रु राशि में बुरा फल दे ते हैं।

ग्रहों की उचच
्‍ ादि राशि स्थिति इस प्रकार है -
ग्रह उच्च राशि नीच राशि सव्‍ ग्रह राशि
1 सर्य
ू ,मेष तल
ु ा सिंह
2 चन्द्रमा, वष
ृ भ वश्चि
ृ क कर्क
3 मंगल, मकर कर्क मेष, वश्चि
ृ क
4 बुध, कन्या मीन मिथुन, कन्या
5 गुरू, कर्क मकर धनु, मीन
6 शुक्र, मीन कन्या वष
ृ भ, तुला
7 शनि, तल
ु ा मेष मकर, कुम्भ
8 राह, धनु मिथुन

9 केतु मिथुन धनु

उपर की तालिका में कुछ धय


्‍ ान दे ने वाले बिनद्‍ ु इस प्रकार हैं -

1 ग्रह की उचच
्‍ राशि और नीच राशि एक दस
ू रे से सपत
्‍ म होती हैं। उदाहरणार्थ सूर्य मेष में उचच
्‍ का होता है
जो कि राशि चक्र की पहली राशि है और तल
ु ा में नीच होता है जो कि राशि चक्र की सातवीं राशि है ।

2 सर्य
ू और चनद्र्‍ सिर्फ एक राशि के सव्‍ ामी हैं। राहु एवं केतु किसी भी राशि के सव्‍ ामी नहीं हैं। अनय
्‍ ग्रह
दो-दो राशियों के सव्‍ ामी हैं।

3 राहु एवं केतु की अपनी कोई राशि नहीं होती। राहु-केतु की उचच
्‍ एवं नीच राशियां भी सभी जय
्‍ ोतिषी
प्रयोग नहीं करते हैं।
Chaptor 3
पिछली बार हमने प्रत्येक ग्रह की उच्च नीच और स्वग्रह राशि के बारे में जाना था। हमनें पढ़ा था कि राहु
और केतु की कोई राशि नहीं होती और राहु-केतु की उच्च एवं नीच राशियां भी सभी ज्योतिषी प्रयोग नहीं
करते। लेकिन, फलित ज्योतिष में ग्रहों के मित्र, शत्रु ग्रह के बारे में जानना भी अति आवश्यक है । इसलिए
इस बार इनकी जानकारी।
ग्रहों के नाम मित्र शत्रु सम

सूर्य चन्द्र, मंगल, गुरू शनि, शुक्र बुध


चन्द्रमा सूर्य, बुध कोई नहीं शेष ग्रह
मंगल सूर्य, चन्द्र, गुरू बुध शेष ग्रह
बुध सूर्य, शुक्र चंद्र शुक्र, शनि
गुरू सुर्य, चंनद्र्‍ , मंगल शुक्र, बुध शनि
शुक्र शनि, बुध शेष ग्रह गुरू, मंगल
शनि बुध, शुक्र शेष ग्रह गुरु
राहु, केतु शुक्र, शनि सूर्य, चनद्र्‍ , मंगल गुरु, बुध
यह तालिका अति महत्वपर्ण ू है और इसे भी कण्ठस्थ ् करने की कोशिश करनी चाहिए। यदि यह तालिका
बहुत बड़ी लगे तो डरने की कोई जरुरत नहीं। तालिका समय एवं अभ्याकस के साथ खद ु व खद ु याद हो
जाती है । मोटे तौर पर वैसे हम ग्रहों को दो भागों में विभाजित कर सकते हैं, जो कि एक दस
ू रे के शत्रु हैं -
भाग 1 - सर्य
ू , चंद्र, मंगल और गरु

भाग 2 - बध
ु , शक्र
ु , शनि, राहु, केतु
यह याद रखने का आसान तरीका है परन्तु हर बार सही नहीं है । उपर वाली तालिका कण्ठस्थ हो तो ज्यादा
बेहतर है ।
मित्र-शत्रु का तात्पर्य यह है कि जो ग्रह अपनी मित्र ग्रहों की राशि में हो एवं मित्र ग्रहों के साथ हो, वह ग्रह
अपना शुभ फल दे गा। इसके विपरीत कोई ग्रह अपने शत्रु ग्रह की राशि में हो या शत्रु ग्रह के साथ हो तो
उसके शुभ फल में कमी आ जाएगी।
चलिए एक उदाहर लेते हैं। उपर की तालिका से यह दे खा जा सकता है कि सूर्य और शनि एक दस
ू रे के शत्रु
ग्रह हैं। अगर सूर्य शनि की राशि मकर या कंु भ में स्थित है या सूर्य शनि के साथ स्थित हो तो सूर्य अपना
शभ
ु फल नहीं दे पाएगा। इसके विपरीत यदि सूर्य अपने मित्र ग्रहों चद्र्ं , मंगल, गुरु की राशि में या उनके
सा‍थ स्थित हो तो सामानय
्‍ त वह अपना शुभ फल दे गा
इस सप्ताह के लिए बस इतना ही। आगे जानेंगे कुण्डली का स्वरुप, ग्रह-भाव-राशि का कारकत्वक एवं
ज्योतिष में उनका प्रयोग आदि।
Chaptor 4

इस सपत
्‍ ाह हम जानेंगे की कुणड्‍ ली में ग्रह एवं राशि इतय
्‍ ादि को कैसे दर्शाया जाता है । साथ ही लगन
्‍ एवं
अनय
्‍ भावों के बारे में भी जानेंगे। कुणड्‍ ली को जनम
्‍ समय के ग्रहों की स्थिति की तसव्‍ ीर कहा जा सकता
है । कुणड्‍ ली को दे खकर यह पता लगाया जा सकता है कि जनम
्‍ समय में विभिनन
्‍ ग्रह आकाश में कहां
स्थित थे। भारत में विभिनन
्‍ प्रानत
्‍ ों में कुणड्‍ ली को चित्रित करने का अलग अलग तरीका है । मख
ु य
्‍ त:
कुणड्‍ ली को उतत
्‍ र भारत, दक्षिण भारत या बंगाल में अलग अलग तरीके से दिखाया जाता है । हम सिर्फ
उतत
्‍ र भारतीय तरीके की चर्चा करें गे।
कुणड्‍ ली से ग्रहों की राशि में स्थिति एवं ग्रहों की भावों में स्थिति पता चलती है । ग्रह एवं राशि की चर्चा हम
पहले ही कर चक
ु े हैं और भाव की चर्चा हम आगे करें गे। उत्तर भारत की कुण्डली में लग्न राशि पहले स्थान
में लिखी जाती है तथा फिर दाएं से बाएं राशियों की संख्या को स्थापित कर लेते हैं। अर्थात राशि स्थापना
(anti-clock wise) होती हैं तथा राशि का सूचक अंक ही अनिवार्य रूप से स्थानों में भरा जाता है । एक
उदाहरण कुणड्‍ ली से इसे समझते हैं।

भाव

थोडी दे र के लिए सारे अंको और ग्रहों के नाम भूल जाते हैं। हमें कुणड्‍ ली में बारह खाने दिखेंगे, जिसमें से
आठ त्रिकोणाकार एवं चार आयताकार हैं। चार आयतों में से सबसे ऊपर वाला आयत लगन
्‍ या प्रथम भाव
कहलाता है । उदाहरण कुणड्‍ ली में इसमें रं ग भरा गया है । लगन
्‍ की स्थिति कुणड्‍ ली में सदै व निश्चित है ।
लगन
्‍ से एनट्‍ ी क् ‍लॉक वाइज जब गिनना शुरू करें जो अगला खाना द्वितीय भाव कहलाजा है । उससे
अगला खाना तत
ृ ीय भाव कहलाता है और इसी तरह आगे की गिनती करते हैं। साधारण बोलचाल में भाव
को घर या खाना भी कह दे ते हैं। अ्ग्र
ं ेजी में भाव को हाउस (house) एवं लगन
्‍ को असेनड्‍ न
े ट्‍ (ascendant)
कहते हैं।

भावेश

कुणड्‍ ली में जो अंक लिखे हैं वो राशि बताते हैं। उदाहरण कुणड्‍ ली में लगन
्‍ के अनद्‍ र 11 नमब्‍ र लिखा है
अत: कहा जा सकता है की लगन
्‍ या प्रथम भाव में गय
्‍ ारह अर्थात कुमभ
्‍ राशि पड़ी है । इसी तरह द्वितीय
भाव में बारहवीं अर्थात मीन राशि पड़ी है । हम पहले से ही जानते हैं कि कुमभ
्‍ का सव्‍ ामी ग्रह शनि एवं मीन
का सव्‍ ामी ग्रह गुरु है । अत: जय
्‍ ोतिषीय भाषा में हम कहें गे कि प्रभम भाव का सव्‍ ामी शनि है (क् ‍योंकि
पहले घर में 11 लिखा हुआ है )। भाव के सव्‍ ामी को भावेश भी कहते हैं।

प्रथम भाव के सव्‍ ामी को प्रथमेश या लगन


्‍ ेश भी कहते हैं। इसी प्रकार द्वितीय भाव के सव्‍ ामी को
द्वितीयेश, तत
ृ ीय भाव के सव्‍ ामी को तत
ृ ीयेश इतय
्‍ ादि कहते हैं।

ग्रहों की भावगत स्थिति

उदाहरण कुणड्‍ ली में उपर वाले आयत से एनट्‍ ी क् ‍लॉक वाइज गिने तो शुक्र एवं राहु वाले खाने तक पहुंचने
तक हम पांच गिन लेंगे। अत: हम कहें गे की राहु एवं शुक्र पांचवे भाव में स्थित हैं। इसी प्रकार चंद्र एवं
मंगल छठे , शनि - सर्य
ू -बध
ु सातवें , और गरु
ु -केतु गय
्‍ ारवें भाव में स्थित हैं। यही ग्रहो की भाव स्थिति है ।

ग्रहों की राशिगत स्थिति

ग्रहों की राशिगत स्थिति जानना आसान है । जिस ग्रह के खाने में जो अंक लिखा होता है , वही उसकी
राशिगत स्थिति होती है । उदाहरण कुणड्‍ ली में शक्र
ु एवं राहु के आगे 3 लिखा है अत: शक्र
ु एवं राहु 3 अर्थात
मिथन
ु राशि में स्थित हैं। इसी प्रकार च्रद्र एवं मंगल के आगे चार लिखा है अत: वे कर्क राशि में स्थित हैं जो
कि राशिचक्र की चौथी राशि है ।

याद रखें कि ग्रह की भावगत स्थिति एवं राशिगत स्थिति दो अलग अलग चीजें हैं। इन्हें लेकर कोई
कन्फ्यूजन नहीं होना चाहिए

Chaptor 5

ज्योतिष में फलकथन का आधार मुख्यतः ग्रहों, राशियों और भावों का स्वाभाव, कारकतव्‍ एवं उनका
आपसी संबध है ।
ग्रहों को ज्योतिष में जीव की तरह माना जाता है - राशियों एवं भावों को वह क्षेत्र मान जाता है , जहाँ ग्रह
विचरण करते हैं। ग्रहों का ग्रहों से संबध, राशियों से संबध, भावों से संबध आदि से फलकथन का निर्धारण
होता है ।
ज्योतिष में ग्रहों का एक जीव की तरह 'सव्‍ भाव' होता है । इसके अलाव ग्रहों का 'कारकतव्‍ ' भी होता है ।
राशियों का केवल 'सव्‍ भाव' एवं भावों का केवल 'कारकतव्‍ ' होता है । सव्‍ भाव और कारकतव्‍ में फर्क
समझना बहुत जरूरी है ।
सरल शबद्‍ ों में 'सव्‍ भाव' 'कैसे' का जबाब दे ता है और 'कारकतव्‍ ' 'क् ‍या' का जबाब दे ता है । इसे एक उदाहरण
से समझते हैं। माना की सूर्य ग्रह मंगल की मेष राशि में दशम भाव में स्थित है । ऐसी स्थिति में सूर्य क् ‍या
परिणाम दे गा?
नीचे भाव के कारकतव्‍ की तालिका दी है , जिससे पता चलता है कि दशम भाव व्यवसाय एवं व्यापार का
कारक है । अत: सूर्य क् ‍या दे गा, इसका उतत
्‍ र मिला की सूर्य 'वय
्‍ वसाय' दे गा। वह वय
्‍ ापार या वय
्‍ वसाय
कैसा होगा - सूर्य के सव्‍ ाभाव और मेष राशि के सव्‍ ाभाव जैसा। सूर्य एक आक्रामक ग्रह है और मंगल की
मेष राशि भी आक्रामक राशि है अत: वय
्‍ वसाय आक्रामक हो सकता है । दस
ू रे शबद्‍ ों में जातक सेना या खेल
के वय
्‍ वयाय में हो सकता है , जहां आक्रामकता की जरूरत होती है । इसी तरह ग्रह, राशि, एवं भावों के
सव्‍ ाभाव एवं कारकतव्‍ को मिलाकर फलकथन किया जाता है ।
दनि
ु या की समस्त चल एवं अचल वस्तुएं ग्रह, राशि और भाव से निर्धारित होती है । चँ कि
ू दनि
ु या की सभी
चल एवं अचल वस्तुओं के बारे मैं तो चर्चा नहीं की जा सकती, इसलिए सिर्फ मुख्य मुख्य कारकतव्‍ के बारे
में चर्चा करें गे।
सबसे पहले हम भाव के बारे में जानते हैं। भाव के कारकतव्‍ इस प्रकार हैं -
प्रथम भाव : प्रथम भाव से विचारणीय विषय हैं - जन्म, सिर, शरीर, अंग, आयु, रं ग-रूप, कद, जाति आदि।

द्वितीय भाव: दस
ू रे भाव से विचारणीय विषय हैं - रुपया पैसा, धन, नेत्र, मख
ु , वाणी, आर्थिक स्थिति,
कुटुंब, भोजन, जिह्य, दांत, मत्ृ य,ु नाक आदि।

तत
ृ ीय भाव : तत
ृ ीय भाव के अंतर्गत आने वाले विषय हैं - स्वयं से छोटे सहोदर, साहस, डर, कान, शक्ति,
मानसिक संतुलन आदि।

चतर्थ
ु भाव : इस भाव के अंतर्गत प्रमख
ु विषय - सख
ु , विद्या, वाहन, ह्दय, संपत्ति, गह
ृ , माता, संबंधी
गण,पशुधन और इमारतें ।

पंचव भाव : पंचम भाव के विचारणीय विषय हैं - संतान, संतान सुख, बुद्धि कुशाग्रता, प्रशंसा योग्य कार्य,
दान, मनोरं जन, जुआ आदि।
षष्ठ भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - रोग, शारीरिक वक्रता, शत्रु कष्ट, चिंता, चोट, मुकदमेबाजी,
मामा, अवसाद आदि।

सप्तम भाव : विवाह, पतन


्‍ ी, यौन सुख, यात्रा, मत्ृ यु, पार्टनर आदि विचारणीय विषय सप्तम भाव से
संबंधित हैं।

अष्टम भाव : आयु, दर्भा


ु ग्य, पापकर्म, कर्ज, शत्रत
ु ा, अकाल मत्ृ यु, कठिनाइयां, सन्ताप और पिछले जन्म
के कर्मों के मुताबिक सुख व दख
ु , परलोक गमन आदि विचारणीय विषय आठवें भाव से संबंधित हैं।

नवम भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - पिता, भाग्य, गरु


ु , प्रशंसा, योग्य कार्य, धर्म, दानशीलता,
पर्व
ू जन्मों का संचि पण्
ु य।

दशम भाव : दशम भाव से विचारणीय विषय हैं - उदरपालन, व्यवसाय, व्यापार, प्रतिष्ठा, श्रेणी, पद,
प्रसिद्धि, अधिकार, प्रभुत्व, पैतक
ृ व्यवसाय।

एकादश भाव : इस भाव से विचारणीय विषय हैं - लाभ, ज्येष्ठ भ्राता, मन


ु ाफा, आभष
ू ण, अभिलाषा पर्ति
ू ,
धन संपत्ति की प्राप्ति, व्यापार में लाभ आदि।

द्वादश भाव : इस भाव से संबंधित विचारणीय विषय हैं - व्यय, यातना, मोक्ष, दरिद्रता, शत्रत
ु ा के कार्य,
दान, चोरी से हानि, बंधन, चोरों से संबंध, बायीं आंख, शय्यासुख, पैर आदि।
इस बार इतना ही। ग्रहों का सव्‍ भाव/ कारकतव्‍ व राशियों के सव्‍ ाभाव की चर्चा हम अगले पाठ में करें गे।

Chaptor 6

पिछले अंक में हमनें भाव कारकतव्‍ के बारे में जाना। हमने यह भी जाना कि कारकातव्‍ एवं सव्‍ भाव में
क् ‍या फर्क होता है । इस बार पहले हम राशियों के बारे में जानते हैं। राशियों के सव्‍ भाव इस प्रकार हैं-

मेष – पुरुष जाति, चरसंज्ञक, अग्नि तत्व, पूर्व दिशा की मालिक, मस्तक का बोध कराने वाली, पष्ृ ठोदय,
उग्र प्रकृति, लाल-पीले वर्ण वाली, कान्तिहीन, क्षत्रियवर्ण, सभी समान अंग वाली और अल्पसन्तति है । यह
पित्त प्रकृतिकारक है । इसका प्राकृतिक स्वभाव साहसी, अभिमानी और मित्रों पर कृपा रखने वाला है ।
वष
ृ – स्त्री राशि, स्थिरसंज्ञक, भूमितत्व, शीतल स्वभाव, कान्ति रहित, दक्षिण दिशा की स्वामिनी,
वातप्रकृति, रात्रिबली, चार चरण वाली, श्वेत वर्ण, महाशब्दकारी, विषमोदयी, मध्य सन्तति, शभ
ु कारक,
वैश्य वर्ण और शिथिल शरीर है । यह अर्द्धजल राशि कहलाती है । इसका प्राकृतिक स्वभाव स्वार्थी, समझ-
बूझकर काम करने वाली और सांसारिक कार्यों में दक्ष होती है । इससे कण्ठ, मुख और कपोलों का विचार
किया जाता है ।
मिथन
ु – पश्चिम दिशा की स्वामिनी, वायत
ु त्व, तोते के समान हरित वर्ण वाली, परु
ु ष राशि, द्विस्वभाव,
विषमोदयी, उष्ण, शद्र
ू वर्ण, महाशब्दकारी, चिकनी, दिनबली, मध्य सन्तति और शिथिल शरीर है । इसका
प्राकृतिक स्वभाव विद्याध्ययनी और शिल्पी है । इससे हाथ, शरीर के कंधों और बाहुओं का विचार किया
जाता है ।
कर्क – चर, स्त्री जाति, सौम्य और कफ प्रकृति, जलचारी, समोदयी, रात्रिबली, उत्तर दिशा की स्वामिनी,
रक्त-धवल मिश्रित वर्ण, बहुचरण एवं संतान वाली है । इसका प्राकृतिक स्वभाव सांसारिक उन्नति में
प्रयत्नशीलता, लज्जा, और कार्यस्थैर्य है । इससे पेट, वक्षःस्थल और गुर्दे का विचार किया जाता है ।
सिंह – पुरुष जाति, स्थिरसंज्ञक, अग्नितत्व, दिनबली, पित्त प्रकृति, पीत वर्ण, उष्ण स्वभाव, पूर्व दिशा की
स्वामिनी, पुष्ट शरीर, क्षत्रिय वर्ण, अल्पसन्तति, भ्रमणप्रिय और निर्जल राशि है । इसका प्राकृतिक स्वरूप
मेष राशि जैसा है , पर तो भी इसमें स्वातन्त्र्य प्रेम और उदारता विशेष रूप से विद्यमान है । इससे हृदय का
विचार किया जाता है ।
कन्या – पिंगल वर्ण, स्त्रीजाति, द्विस्वभाव, दक्षिण दिशा की स्वामिनी, रात्रिबली, वायु और शीत प्रकृति,
पथ्
ृ वीतत्व और अल्पसन्तान वाली है । इसका प्राकृतिक स्वभाव मिथुन जैसा है , पर विशेषता इतनी है कि
अपनी उन्नति और मान पर पूर्ण ध्यान रखने की यह कोशिश करती है । इससे पेट का विचार किया जाता
है ।

तल
ु ा – परु
ु ष जाति, चरसंज्ञक, वायत
ु त्व, पश्चिम दिशा की स्वामिनी, अल्पसंतान वाली, श्यामवर्ण
शीर्षोदयी, शद्र
ू संज्ञक, दिनबली, क्रूर स्वभाव और पाद जल राशि है । इसका प्राकृतिक स्वभाव विचारशील,
ज्ञानप्रिय, कार्य-सम्पादक और राजनीतिज्ञ है । इससे नाभि के नीचे के अंगों का विचार किया जाता है ।

वश्चि
ृ क – स्थिरसंज्ञक, शभ्र
ु वर्ण, स्त्रीजाति, जलतत्व, उत्तर दिशा की स्वामिनी, रात्रिबली, कफ प्रकृति,
बहुसन्तति, ब्राह्मण वर्ण और अर्द्ध जल राशि है । इसका प्राकृतिक स्वभाव दम्भी, हठी, दृढ़प्रतिज्ञ,
स्पष्टवादी और निर्मल है । इससे शरीर के क़द और जननेन्द्रियों का विचार किया जाता है ।

धनु – पुरुष जाति, कांचन वर्ण, द्विस्वभाव, क्रूरसंज्ञक, पित्त प्रकृति, दिनबली, पूर्व दिशा की स्वामिनी,
दृढ़ शरीर, अग्नि तत्व, क्षत्रिय वर्ण, अल्पसन्तति और अर्द्ध जल राशि है । इसका प्राकृतिक स्वभाव
अधिकारप्रिय, करुणामय और मर्यादा का इच्छुक है । इससे पैरों की सन्धि और जंघाओं का विचार किया
जाता है ।
मकर – चरसंज्ञक, स्त्री जाति, पथ्
ृ वीतत्व, वात प्रकृति, पिंगल वर्ण, रात्रिबली, वैश्यवर्ण, शिथिल शरीर और
दक्षिण दिशा की स्वामिनी है । इसका प्राकृतिक स्वभाव उच्च दशाभिलाषी है । इससे घट
ु नों का विचार किया
जाता है ।

कुम्भ – पुरुष जाति, स्थिरसंज्ञक, वायु तत्व, विचित्र वर्ण, शीर्षोदय, अर्द्धजल, त्रिदोष प्रकृति, दिनबली,
पश्चिम दिशा की स्वामिनी, उष्ण स्वभाव, शूद्र वर्ण, क्रूर एवं मध्य संतान वाली है । इसका प्राकृतिक
स्वभाव विचारशील, शान्तचित्त, धर्मवीर और नवीन बातों का आविष्कारक है । इससे पेट की भीतरी भागों
का विचार किया जाता है ।

मीन – द्विस्वभाव, स्त्री जाति, कफ प्रकृति, जलतत्व, रात्रिबली, विप्रवर्ण, उत्तरदिशा की स्वामिनी और
पिंगल वर्ण है । इसका प्राकृतिक स्वभाव उत्तम, दयालु और दानशील है । यह सम्पूर्ण जलराशि है । इससे
पैरों का विचार किया जाता है ।

राशियों के स्वभाव जानने के बाद हम अब अगली बार ग्रहों के कारकत्व और स्वभाव के बारे में जानेंगे।

You might also like