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राजा
राजा
सुदर्शन
1
"सौ साल।"
"बड़े भागयवान
् हो। आजकल तो पचास साल से पहले
ही तैयारी कर लेते हैं।"
धोबी ने इसका कोई उततर
् न दिया।
"हाँ, दे खा है ।"
2
"मैं धोबी हँ। मेरा बाप भी धोबी था। हम उन दिनों लाहौर में
ू
रहते थे। पर आज का लाहौर वह लाहौर नहीं। हम उस
जमाने में जहाँ कपड़े धोया करते थे, वह घाट अब खुशक
् हो
चुका है । रावी नदी दरू चली गई है और उसके साथ ही वह
दिन भी दरू चले गए हैं। भेद केवल यह है कि रावी थोड़ी दरू
जाकर नजर आ जाती है , मगर वह जमाना कहीं दिखाई
नहीं दे ता। भगवान जाने, कहाँ चला गया है ।
3
"मैं भूख से मर रहा था, रोटी माँगने को निकल पड़ा। मेरा
विचार था, अकाल शायद गरीबों के यहाँ ही है । मगर बाहर
निकला तो सभी को गरीब पाया। उदास सब थे, खुश कोई
भी न था। मैं बहुत दे र तक इधर-उधर माँगता फिरा, मगर
किसी ने रोटी न दी। मैं निराश होकर घर को लौटा, पर पाँव
मन-मन भर के भारी हो रहे थे।
"दस
ू रा - 'भाई, मेरा अभिप्राय थोड़े ही था।"'
"दस
ू रा - 'आफरीन हैं। राजा हो तो ऐसा हो।"'
"दस
ू रा - 'इस समाचार से मरते हुए लोगों में जान पड़
जाएगी।"'
"तीसरा - 'आज शहर की दशा दे खना।"'
"दस
ू रा - 'ऐसा अंधेर कभी न हुआ था।"'
4
"संधया
् के समय जब अँधेरा हो गया तब शंख के बजने की
आवाज सन ु ाई दी। इनके साथ ही अनाज दे ने वालों ने
अनाज दे ना बनद् कर दिया। हुक्म हुआ, बाकी लोग कल
आकर ले जाएँ। लेकिन अगर कोई दब ु ारा आ गया तो उसकी
खैर नहीं, महाराज खाल उतरवा लेंगे। लोग निराश हो गए,
पर क् या करते। धीरे - धीरे सारा आँगन खाली हो गया। हम
कैसे चले जाते? कई दिन से भूखे मर रहे थे। दोनों रोने लगे।
बाबा बोला - 'बेटा! हम कैसे अभागे हैं, नदी के किनारे आकर
भी पयासे
् लौट रहे हैं। जो भागयवान
् थे, वे झोलियाँ भर कर
ले गए। हम खड़े दे खते रहे । अब खाली हाथ लौट जाएँगे।"'
"बाबा - 'बेटा! तम
ु कैसी बातें करते हो। ये लोग अब न
दें गे, कल फिर आना पड़ेगा।"'
"सरदार - 'तम
ु हारे
् यहाँ कोई जवान आदमी नहीं है ?"'
"मैं - 'जगगो।
् "'
5
यहाँ पहुँचकर धोबी रुक गया। कहानी ने बहुत मनोरं जक
रूप धारण कर लिया था। मैं इसका अगला भाग सुनने को
अधीर हो रहा था। मैंने जलदी
् से कहा - "क् यों भाई धोबी!
फिर क् या हुआ?"
धोबी ने वायुमणडल
् में इस भाँति दे खा जैसे कोई खोई
वसत् ु को खोज रहा हो और फिर दीर्घ नि:शवास
् लेकर बोला
- "जब हम घर पहँचे और सरदार साहब अनाज की गठरी
ु
हमारे आँगन में रखकर लौटे तो मैं और मेरा बाबा दोनों
उनके साथ बाजार तक चले आए। मेरा बाबा बार-बार कहता
था, इसका फल आपको वाहे गरु
ु दें गे, मैं इसका बदला नहीं
दे सकता। एकाएक उधर से एक फौजी सिक् ख निकल
आए। सरदार साहब जहाँ खड़े थे, वहाँ रोशनी थी। फौजियों
ने उनको पहचान लिया और तलवारें निकालकर सलाम
किया। यह दे खकर मेरा बाबा डर गया, सोचा - यह कौन है ?
कोई बड़ा ओहदे दार होगा, वरना ये लोग इस प्रकार सलाम
न करते। जब सरदार, साहब चले गए तब मेरा बाबा उन
फौजियों के पास पहुँचा और पूछा - 'यह कौन थे?"'
यह कहानी सन
ु ाकर धोबी चप
ु हो गया। मेरे रोंए खड़े
हो गए। आँखों में पानी भर आया। आज वह समय कहाँ
चला गया? आज ऐसे राजा लोग क् यों नहीं नजर आते?
आज के राजाओं को भ्रमण का शौक है , विषय-वासना का
चाव है , परनत
् ु अपनी प्रजा के हित-अहित का धयान
् नहीं।